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मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार की अमर्त्य व्याख्या


अमर्त्य सेन को जब नोबेल मिला था तब इस सम्मान का इसलिए भी स्वागत हुआ था कि इस बहाने बाजार और  भोग का  खपतवादी "अर्थ" सिखाने वाले दौर में वेलफेयर इकॉनमिक्स की दरकार और महत्ता दोनों रेखांकित हुई। अमर्त्य  हमेशा अर्थ के कल्याणकारी लक्ष्य के हिमायती रहे हैं। इसलिए जीडीपी और सेंसेक्सी उछालों में दिखने वाले विकास के मुकाबले वे हमेशा ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को विकास का बैरोमीटर बताते हैं। एक ऐसे दौर में जबकि अर्थ को लेकर तमाम तरह की अनर्थकारी समझ की नीतिगत स्थितियां हर तरफ लोकप्रिय हो रही हैं तो नोबेल विजेता इस अर्थशास्त्री ने दुनिया के सामने कल्याणकारी अर्थनीति की तार्किक व्याख्याएं और दरकार रखी हैं।
हैरत नहीं कि जब भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ी चिंता पर उन्होंने अपनी राय जाहिर की तो देश में दिख रहे तात्कालिक आवेश और आक्रोश से अलग अपनी बात कही। अमर्त्य को नहीं लगता कि भ्रष्टाचार को लेकर सिर्फ मौजूदा मनमोहन सरकार पर दबाव बनाना वाजिब है। वह सरकार और सरकार में बैठे कुछ लोगों की भूमिका से ज्यादा उस व्यवस्थागत खामी का सवाल उठाते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार की पैठ गहरी है। इस लिहाज से माजूदा यूपीए सरकार हो या इसके पहले की सरकारें, दामन किसी का भी साफ नहीं।
अमर्त्य की नजर में भ्रष्टाचार की चुनौती तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर इससे निजात आरोपों और तल्ख प्रतिक्रियाओं से तो कम से कम मिलने से रहा। दुर्भाग्य से देश में संसद से लेकर सड़क तक अभी जो शोर-शराबा दिख रहा है, वह अपने गिरेबान में झांकने की बजाय दूसरे का गिरेबान पकड़ने की नादानी से ज्यादा कुछ भी नहीं। आखिर एक ऐसे समय में जबकि सभी यह स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नैतिकता के सरोकारों का अभाव हर स्तर पर दिख रहा है, हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि भ्रष्टाचार की पागल नदी पर हम ऊपर ही ऊपर नैतिक पाररदर्शिता का सेतु बांध लेंगे या कि ऐसा करना ही इस समस्या का हल भी है।
भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में केंद्र की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली सरकार तक को मुंह की खानी पड़ी है। यह इतिहास अभी इतना पुराना नहीं हुआ है कि इसके सबक और घटनाक्रम लोग भूल गए हों। आज भ्रष्टाचार का पैमाना लबालब है पर इसके खिलाफ कोई संगठित जनाक्रोश नहीं है। विपक्षी पार्टियां खुद इतनी नंगी हैं कि वे इस मुद्दे पर न तो जनता के बीच लंबी तैयारी से जा सकते हैं और न ही सरकार को सधे तार्किक तीरों से पूरी तरह बेध सकती हैं क्योंकि तब तीर उनके खिलाफ भी कम नहीं चलेंगे।
एक और सवाल अमर्त्य सेन ने गठबंधन सरकारों की मजबूरी को लेकर भी उठाया है। उन्होंने मनमोहन सिंह की छवि की तरफ इशारा करते हुए कहा कि भले आपकी ईमानदारी की छवि जगजाहिर हो पर गठबंधन का लेकर कुछ मजबूरियां तो आपके आगे होती ही हैं। दिलचस्प है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का यथार्थ है। पर इस यर्थाथ की पालकी ढोने वाली पार्टियों को यह तो साफ करना ही होगा कि गठबंधन की जरूरत आैर सरकार चलाने की मजबूरी में वे कितनी दूर तक समझौते करेंगे।  
बहरहाल, अर्थ को कल्याण के लक्ष्य के साथ देखने वाले सेन मौजूदा स्थितियों से पूरी तरह निराश भी नहीं हैं। उनकी नजर में भ्रष्टाचार को अब लोग जिस स्पष्टता से स्वीकार कर रहे हैं, वह एक सकारात्मक लक्षण है। किसी समस्या को चुनौतीपूर्वक स्वीकार करने के बाद ही उसके खिलाफ आधारभूत रूप से किसी पहल की गुंजाइश बनती है। अभी कम से कम यह स्थिति तो जरूर आ गई है कि इस बात पर तकरीबन हर पक्ष एकमत है कि अगर समय रहते समाज और व्यवस्था में गहरे उतर चुके भ्रष्टाचार के जहर के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी। बस सवाल यहां आकर फंसा है कि इसके खिलाफ पहल क्या हो और  पहला कदम कौन बढ़ाए। तात्कालिक आवेश पर अंकुश रखकर अगर समाज, सरकार और  राजनीतिक दल कुछ बड़े फैसले लेने के लिए मन बड़ा करें तो एक भ्रष्टाचार विहीन समय और व्यवस्था के सपने को सच कर पाना मुश्लिक नहीं है। अमर्त्य अर्थ के जिस कल्याणकारी लक्ष्य की बात करते हैं, जाहिर है कि उसका शपथ मीडिया, समाज और संसद सबको एक साथ लेना होगा।         

रविवार, 26 दिसंबर 2010

विरासत के नाम एक मनमोहन चिंता


भारत का एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में अभ्युदय नया नहीं है। यही नहीं लोक और परंपरा की गोद में दूध पीती यहां की बहुरंगी संस्कृति का कलेवर शुरू से सतरंगी रहा है। दुनियाभर में यही हमारी पहचान भी रही है और  यही हमारी सबसे बड़ी ताकत भी है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चिंता जताई है कि बहुसंस्कृति, संयम और भाईचारे की समृद्ध विरासत पर खतरा है और इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए। उन्होंने खासतौर पर बुद्धिजीवियों से अपील की है कि वे इस विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने में योगदान करें। बुद्धिजीवियों की भूमिका और उनकी दरकार को इस तरह स्वीकार करना अगर ऊपरी या रस्मी नहीं है तो मौजूदा स्थितियों में यह बड़ी बात है और स्वागतयोग्य भी। यह और बात है कि विद्वानों और कला-संस्कृति के जानकारों के लिए बना ऊपरी सदन अब इनकी उपस्थिति को मोहताज है। वहां दाखिले के लिए अब दीनारी दमखम चाहिए। सो "संतन को कहां सीकरी सो काम" कहने वाले कैसे वहां पहुंच पाएंगे। 
बहरहाल, बात प्रधानमंत्री के हालिया बयान की। दरअसल, मौजूदा दौर में संबंध, संवेदना और संयम को हर स्तर पर खारिज होते जाने का चलन प्रगाढ़ हुआ है और उसकी जगह जो पनप और पसर रहा है, वह है तात्कालिक उत्कर्ष और समृद्धि का उतावलापन। यहां तक की 21वीं सदी में विश्व शक्ति के रूप में भारत की जिस पहचान को विश्व मानचित्र पर उकेरने के उपक्रम चल रहे हैं, उनमें भी सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता की बजाय तात्कालिक उत्कर्ष के तर्क ही ज्यादा हावी हैं। सुखद है कि विकास के ग्लोबल दौड़ में भारत को एक द्रुत धावक के रूप में तैयार करने की ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले मनमोहन सिंह को भी इस खतरे का अंदाजा है कि आगे निकलने की जल्दबाजी में कहीं कुछ बहुत महत्वपूर्ण पीछे न छूट जाए।
मनमोहन मानते हैं कि बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुसंस्कृति वाले इस देश में एकता को बनाए रखने की दरकार है। उन्होंने उस अध्यात्म दर्शन का भी हवाला दिया, जिसके कारण हमारे देश को पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा हासिल हुई है। भारतीय चित्त, मानस और काल के अध्येता धर्मपाल हों या लोक और परंपरा के कल्याणकारी संबंध की व्याख्या करने वाले वासुदेवशरण अग्रवाल और रामचंद्र शुक्ल। सबने भारतीय समाज में किसी बाजारू या आर्थिक की बजाय लोकादर्शों की संरक्षा और उसे आगे बढ़ाने वाले तत्वों को अन्यतम बताया है। हमारी यह अन्यतमता नए समय में हमारी महत्ता को सबसे काबिल तरीके से सिद्ध कर सकती है।
खतरा सिर्फ एक है कि चरम भोग की घुट्टी पिलाने वाले बाजारवादी मूल्यों के बीच शांति, संयम और समन्वय का धैर्यपूर्ण पाठ पढ़ने की ललक लोगों में कैसे पैदा की जाए। सरकार के मुखिया अगर स्कूल-कॉलेज के सिलेबसों में किसी फेरबदल या शोध अध्ययनों के साथ इस तरह की कोई गुंजाइश देखते हैं तो यह चिंता और चुनौती दोनों का सरलीकरण होगा।
दरअसल, भारत विकास और समृद्धि की जिस लीक पर अभी चल रहा है, वह उसकी आधुनिकता से तो जरूर मेल खाता है पर बुनियादी प्रकृति के खिलाफ है। दुखद है कि इस दुविधा को लेकर संसद और समाज कहीं भी कोई मंथन या बहस नहीं दिखती। अच्छा होता कि भारतीयता की पारंपरिक छवि को नए संभाल के साथ हम आगे बढ़ाते क्योंकि तब हमारी उपलब्धियां न सिर्फ हमारे रंगो-तेवर के मुताबिक होती बल्कि उसमें हमारी शर्तें भी शामिल होती। तब हम दुनिया के रंग में नहीं बल्कि दुनिया हमारे रंग में रंगती।
आगे बढ़कर पलटना खतरनाक है पर खतरनाक रास्ते पर आंख मूंदकर चल पड़ना भी कोई बुद्धिमानी नहीं। हमें यकीन करना चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री बुद्धिमान तो हैं ही, बड़े से बड़े खतरे के खिलाफ खड़े होने में हर लिहाज से सक्षम भी हैं। इसलिए अगर उनकी चिंता बस "मनमोहनी" न होकर जेहनी तौर पर जायज है तो सरकार के सांस्कृतिक सरोकारों की जमीन एक बार फिर हरीभरी हो सकती है। वैसे इस हरियाली की कामना और इसका दर्शन हो निहायत अलग चीचें हैं। यह "कामना" और "दर्शन" अगर एक सीध में आ जाए तो मौजूदा सदी का नया दशक सचमुच कई मायने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है।    

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

हेंताई : एनिमेटेड सेक्सुअल फैंटेसी



खबरिया चैनलों के सनसनी मार्का लहजे में कहें तो यह दुनिया कहने के लिए तो काल्पनिक है पर इसका नीला रंग उतना ही नीला या खतरनाक है जितना दिल्ली के पालिका बाजार में बिकने वाली किसी ब्लू फिल्म का। दरअसल हम बात कर रहे हैं 'हेंताई' की। हेंताई यानी बच्चों के लिए बनाए गए कामूक कार्टून किरदार या कथानक....

रविवार, 19 दिसंबर 2010

बस यह उम्मीद डिलीट न हो !


कोई दौर जब क्रांतिकारी है तो उसकी उपलब्धियां भी ऐतिहासिक महत्व की होंगी ही। एक क्रांतिकारी समय की अगर यही अवधारणा ज्यादा मान्य और यही उसकी अंतिम शर्त है तब तो हमारा समय कई मायनों में क्रांतिकारी भी है और ऐतिहासिक भी। सूचना, संवाद, बाजार, खुला अर्थतंत्र, इंटरनेट, मोबाइल, सोशल नेटवर्किग जैसे न जाने कितने सर्ग पिछले एक-दो दशक में खुले हैं। रहा जहां तक भारत का सवाल तो वह इसमें से किसी क्रांति का सूत्रधार भले न हो उसकी सबसे बड़ी लेबोरेटरी जरूर रहा है। इस लिहाज से अपने देश की बाकी दुनिया में कद्र भी है और साख भी।  
नई खबर यह है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी के हाथ सूचना क्रांति के सबसे लोकप्रिय और तेज औजार मोबाइल फोन से लैस हो चुके हैं। भारत की विकसित छवि के लिए यह खबर बड़ी तो है ही जरूरी भी है। दिलचस्प है कि इलेक्ट्रानिक क्रांति के विश्व पुरोधा चीन के राष्ट्रपति वेन जियाबाओ हाल में जब भारत आए तो तमाम राजनैतिक-कूटनीतिक मतभेदों के बावजूद उन्होंने भारत में विकसित हो रही बाजार संभावनाओं को सलामी ठोकी। नत्थी वीजा और अरुणाचल जैसे मुद्दों पर सोची-समझी चुप्पी साधने वाले देश की तरफ से दिखाई जा रही इस तरह की विनम्रता की दरकार को अगर समझें तो कहना पड़ेगा कि भारत अपनी एटमी ताकत के बूते जितना ताकतवर नहीं हुआ, उससे ज्यादा सबसे बड़े रकवे में फैले बाजार का मालिकान उसे शक्तिशाली बनाता है। इससे पहले बराक ओबामा भी भारत आकर तकरीबन ऐसी ही प्रतिक्रिया जता चुके हैं।
संवाद क्रांति का रास्ता समाज के बीच से नहीं बाजार की भीड़ के बीच से फूटा है। यह रास्ता आज प्रशस्त मार्ग बन चुका है, जिस पर देशी-विदेशी कंपनियों के साथ देश की नौजवान पीढ़ी दौड़ रही है। होना तो यह चाहिए था कि संवाद की ताकत से हमारे लोकतांत्रिक सरोकारों को ज्यादा मजबूती मिलती तथा शासन और समाज का नया घना तानाबाना खड़ा होता। पर हुआ ठीक इसके उलट। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के दौर में रातोंरात जवान होने वाला पैशन जिस तेजी से मोबाइल कंपनियों की अंटी को वजनी कर रहा है, उससे ज्यादा तेजी से लोक, परंपरा और समाज की जड़ों में मट्ठा डाल रहा है। यह चिंता गुमराह करने वाले कई सुखद एहसासों  से बार-बार ढकी जाती है। नहीं तो ऐसा विरोधाभास क्यों दिखता कि अजनबीयत, संवादहीनता और संवेदनशून्यता की जंगल में तब्दील हो रहे नए समाज में हर दूसरे व्यक्ति के पास संवाद बनाने का मोबाइल यंत्र है।
तकनीक का विकास जरूरी है और इस पर किसी सूरत लगाम नहीं चढ़ाई जा सकती लेकिन यह खतरा मोल लेना भी बुद्धिमानी नहीं होगी कि व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली बुनावट की ही काट-छांट शुरू हो जाए। कितना अच्छा होता कि मोबाइल फोन का इस्तेमाल पिज्जा-बर्गर आर्डर करने या युवा स्वच्छंदता को बिंदास अंदाज में बढ़ाने-भड़काने जैसे उपयोगों की जगह यह बताया-समझाया जाता कि परिवार-समाज और व्यवस्था के बीच के रिश्ते को यह संवाद यंत्र कैसे मजबूत करता है।
इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि देश में भ्रष्टाचार और आंतरिक सुरक्षा से लेकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही बर्बरता को लेकर चिंता है, उसे खतरनाक तरीके से बढ़ाने में एक बड़ी भूमिका मोबाइल फोन और इंटरनेट की है। वैकल्पिक विकास की सोच वाले कुछ गैरसरकारी संगठनों ने केरल और महाराष्ट्र सहित देश के कुछ अन्य हिस्सों में सामाजिक जागरूकता बढ़ाने और एक बेहतर नागरिक समाज की रचना में मोबाइल फोन और उसकी एसएमएस सुविधा का कारगर इस्तेमाल शुरू किया है। मुनाफे की सीख देने वाले आर्थिक ढांचे के बीच अगर इस तरह की सार्थक गुंजाइशों की संभावना थोड़ी और बढ़े तो यह कहना और मानना दोनों सार्थक होगा कि हम संवाद को तकनीकी क्रांति या बाजारू उपक्रम की जगह लोकतांत्रिक सरोकारों को पुष्ट करने वाला आधुनिक जरिया भी मानते हैं।
...तो क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र उसके सरोकारों को भी बड़ा और मजबूत बनाने की आधुनिक मिसाल दुनिया के सामने रख पाने में कामयाब होगा। अगर यह उम्मीद हमारे समय के इनबाक्स से डिलीट नहीं होता और इसके लिए जरूरी पहलों की ट्रिनट्रिन पर हम-आप सब सचमुच दौड़ पड़ते हैं तो निश्चित रूप से भारत संवाद क्रांति का आपवादिक लेकिन सबसे सार्थक और कल्याणकारी सर्ग लिखने वाला देश  हो सकता है।             

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

सेक्स फैंटेसी का ओवरडोज


खबरिया चैनलों के सनसनी मार्का लहजे में कहें तो यह दुनिया कहने के लिए तो काल्पनिक है पर इसका नीला रंग उतना ही नीला या खतरनाक है जितना दिल्ली के पालिका बाजार में बिकने वाली किसी ब्लू फिल्म का। दरअसल हम बात कर रहे हैं 'हेंताई' की। हेंताई यानी बच्चों के लिए बनाए गए कामूक कार्टून किरदार या कथानक। हेंताई की दुनिया बच्चों के लिए तो जरूर है पर इस दुनिया ने जिस कदर भोंडी कामुकता के बाजार में वर्चस्व बढ़ाया है, वह अमेरिका जैसे कई शक्तिशाली देशों की चिंताएं भी बढ़ा रहा है। हेंताई की पूरी दुनिया में बढ़ी लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गूगल सर्च पर हेंताई लिखते ही पलक झपकते ही करीब 5 करोड़ पन्ने हाजिर हो जाते हैं। इसमें तो कई ऐसे वेब ठिकाने हैं जहां विजिट करते ही कार्टून किरदारों की चपल कामुक क्रीड़ाएं शुरू हो जाती हैं।
बता दें कि हेंताई एक जापानी मूल का शब्द है। इसका मौजूदा अर्थ इसके मूल अर्थ से खासा भिन्न है। आज पूरी दुनिया में हेंताई का मतलब ऐसी एनिमेटेड सामग्री से लिया जाता है जो विकृत सेक्स किरदारों और कथानकों की काल्पनिक दुनिया से जुड़ा है।  हेंताई आज पोर्न मार्केट को लीड कर रहा है और इसका प्रसार जापान, चीन और अमेरिका में तो है ही भारत सहित कई एशियाई और यूरोपीय देश में भी इसका प्रसार तेजी से बढ़ रहा है। जापान में हेंताई को दो प्रमुख श्रेणियों में बांटकर देखा जाता है। ये श्रेणियां हैं यॉई और यूरी। याई के तहत होमोसेक्सुअल और यूरो के तहत हेट्रोसेक्सुअल एनिमेटेड फिक्शन या फैंटेसी आते हैं। साफ्ट पोर्न की कैटेगरी को एक्की कहते हैं। इसी तरह बाकूनयू कैटगरी में वैसे कार्टून किरदारों की कामुक क्रीड़ाएं और कथाएं शामिल की जाती हैं जिनके स्तन बड़े-बड़े होते हैं। इनसेक्ट एक और कैटेगरी है जिसमें एक ही घर या परिवार के सदस्यों के बीच के सेक्सुअल रिलेशन को बताया जाता है।
दिलचस्प है कि हेंताई की दुनिया चूंकि पूरी तरह काल्पनिक या वच्र्युअल है इसलिए यहां कुछ भी असंभव नहीं है। आमतौर पर जैसे बाकी कार्टून किरदारों की दुनिया में कोरी कल्पना से रोमांच और हास्य पैदा किया जाता है, वैसे ही यहां भी कई रंग-रूप और आकार के किरदारों के साथ घोस्ट और रोबोट तक कहानी का हिस्सेदार होते हैं। अलबत्ता यह जरूर है कि विषयवस्तु चूंकि सेक्स आधारित है इसलिए कल्पना और फैंटेसी की सारी उड़ान की परिणति आखिरकार एक तरह की क्रूरता और फूहड़ता में होती है। यहां कुछ भी असंभव नहीं है। आपको कभी अलग-अलग प्रकृति और आकार के किरदारों के यौन संसर्ग देखने को मिलेंगे तो कभी जननांगों के अस्वाभाविक रूप आपको इस दुनिया की विचित्रता से अवगत कराएंगे। 
शोध अध्ययनों में यह बताया गया है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से हेंताई को एनिमेटेड सेक्सुआल फेंटैसी के रूप में भुनाने में बाजार की कई ताकतें सक्रिय हुईं। आज हेंताई का विश्व बाजार अरबों डॉलर का है और यह कॉमिक बुक, एनिमेटेड फिल्म से लेकर खिलौनों और कंप्यूटर व मोबाइल वालपेपर और स्क्रीन सेवर तक कई रूपों में अपने चाहने वालों की संख्या बढ़ा रहा है। भारत में हेंताई का चलन अभी नया है। पर इंटरनेट ने इसकी पहुंच के दरवाजे जिस तरह खोले हैं, उससे इस खतरे के बढ़ने के आसार कितने ज्यादा हैं, यह समझा जा सकता है। हेंताई की लोकप्रियता के पीछे एक बड़ी वजह इसका रियल की जगह वच्र्युअल होना है। इसके वच्र्युअल होने के कारण पोर्न मैटेरियल के रूप में इसका इस्तेमाल करने वालों को कोई गिल्टी भी नहीं होती है। और यही कारण है कि हेंताई को पसंद करने वालों में बच्चों-किशोरों के साथ बड़ी तादाद में व्यस्क भी शामिल हैं।
बहरहाल, इतना तो साफ है कि बाजार के वर्चस्व के दौर में इस खतरे को कोई नहीं समझ रहा है कि विशुद्ध कामुकता का यह ओवरडोज हमारे बच्चों के साथ किशोरों और युबाओं के विकास को कितना और किस-किस स्तर पर प्रभावित करेगी।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

यह डिवोर्स मेड इन चाइना है


अखबारों के तकरीबन एक ही पन्ने पर साया हुईं  ये दो खबरें हैं। एक तरफ प्राचीन से नवीन होता चीन है तो दूसरी तरफ उत्तर आधुनिकता की जमीन पर परंपराओं और संबंधों के नए सरोकारों को विकसित कर रहा अमेरिका। दुनिया के दो महत्वपूर्ण हिस्सों में यह सामाजिक बदलाव का दौर है। लेकिन दिशा एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। एक तरफ खतरे का लाल रंग काफी तेजी से और गाढ़ा होता जा रहा है तो दूसरी तरफ मध्यकालीन बेड़ियों से झूल रहे बचे-खुचे तालों को तोड़ने का संकल्प।   
बाजार के साथ हाथ मिलाते हुए भी अपनी लाल ठसक को बनाए रखने वाले चीन की यह बिल्कुल वही तस्वीर नहीं है जो न सिर्फ सशक्त है बल्कि  सर्वाइवल और डेवलपमेंट का एक डिफरेंट मॉडल भी है। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने सोशल रिसर्चर तंग जुन के हवाले से बताया है कि चीन में न सिर्फ अर्थव्यवस्था का बल्कि तलाक का ग्राफ भी बढ़ा है। ढाई दशक पहले तक चीन में हर हजार शादी पर 0.4 मामले तलाक के थे जबकि अब वहां नौबत यह आ गई है कि हर पांचवीं शादी का दुखांत होता है। चीनी समाज में स्थितियां किस तरह बदल रही हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2009 में चीन में 2.42 करोड़ लोग परिणय सूत्र में बंधे लेकिन 24 लाख लोग अंतत:  इस बंधन से बाहर आ गए। अर्थ का विकास जीवन को कुछ सुकूनदेह बनाता हो या न, उसके अनर्थ का खतरा कभी मरता नहीं है।
चीनी विकास का अल्टरनेट मॉडल परिवार और समाज के स्तर पर भी कोई वैकल्पिक राह खोज लेता तो सचमुच बड़ी बात होती। लेकिन शायद ऐसा न तो संभव था और न ही ऐसी कोई कोशिश की गई। उलटे विकास और समृद्धि के चमकते आंकड़ों की हिफाजत के लिए वहां पोर्न इंडस्ट्री और सेक्स ट्वायज का नया बाजार खड़ा हो गया। दुनिया के जिस भी समाज  में सेक्स की सीमा ने सामाजिक संस्थाओं का अतिक्रमण कर सीधे-सीधे निजी आजादी का एजेंडा चलाया है, वहां सामाजिक संस्थाओं की बेड़ियां सबसे पहले झनझनाई हैं। चीन में आज अगर इस झनझनाहट को सुना जा रहा है तो वहां की सरकार को थ्यानमन चौक की घटना से भी बड़े खतरे के लिए तैयार हो जाना चाहिए। क्योंकि बाजार को अगर सामाजिक आधारों को बदलने का छुट्टा लाइसेंस मिल गया तो आगे जीवन और जीवनशैली के लिए सिर्फ क्रेता और विक्रेता के संबंधों का खतरनाक आधार बचेगा।
अमेरिका से आई खबर की प्रकृति बिल्कुल अलग है। वहां शादियों और मां बनने का न सिर्फ जोर बढ़ा है बल्कि इन सबके साथ कई क्रूर रुढ़ताएं भी खंडित हो रही हैं। जिस अमेरिका में राजनीति से लेकर फिल्म और शिक्षण संस्थाओं तक नस्लवाद का अक्स आज भी कायम है, वहां रंग, जाति और बिरादरी से बाहर जाकर प्यार करने और शादी करने का नया चलन जोर पकड़ रहा है। नस्ली सीमाओं को लांघकर विवाह करने का यह चलन कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पिछले तीन दशक में ऐसा करने वालों की गिनती दोगुनी हो चुकी है। अमेरिकी समाज के लिए यह एक बड़ी घटना है।                  
50-60 के दशक तक अमेरिका में दूसरी नस्ल के लोगों के साथ विवाह करने की इजाजत नहीं थी। बाद में वहां सुप्रीम कोर्ट का आर्डर आया जिसने ऐसे किसी एतराज को गलत ठहराया। बहरहाल, इतना तो कहना ही पड़ेगा कि दुनिया भर में नव पूंजीवाद व उदारवाद का अलंबरदार देश अपनी भीतरी बनावट में भी उदार होने के लिए छटपटा रहा है। यह सूरत आशाजनक तो है पर फिलहाल इसे क्रांतिकारी इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि अब भी वहां 37 फीसद सोशल हार्डकोर मेंटेलिटी के लोग हैं जो विवाह की नस्ली शिनाख्त में किसी फेरबदल के हिमायती नहीं हैं। जाहिर है चरमभोग के परमधाम में अभी स्वच्छंदता की मध्यकालीन मलिनता से छुटकारा मुश्किल है। लेकिन वहां जो बदलाव दिख रहा है उसमें आस और उजास दोनों हैं।     

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

दिल्ली : संवेदना की खिल्ली


वह दौर गया जब कवि ग्रामवासिनी भारत के गीत गाते नहीं अघाते और छात्र इसी विषय पर साल दर साल सुलेख का अभ्यास करते थे। शहरों की रेशमी लकदक पर फिकरे कसकर जमीन से जुड़े होने का दावा करने वाले रैडिकल एक्टिविस्ट तो खैर आज भी मिल जाएंगे, पर उनके लिए यह बात सोच से ज्यादा कुशल अभिव्यक्ति के चालाक पैतरे भर हैं। जीवन और समाज के बीच से तमाम कोमलताओं का हरण कर जिस तरह रातोंरात गांवों के सीने पर विकास की सेज (एसइजेड) बिछाई जा रही है, वह हमारी आधुनिकता को जिस अंदाज में परिभाषित करती है, उसके खतरे हम समझें न समझें, रोज ब रोज उस खतरे को उठा जरूर रहे हैं।   
इसे आर्थिक समझ का मुगालता कहें न कहें एक अव्वल दर्जे की आत्मघाती बेवकूफी तो जरूर कहेंगे कि उन्नति और विकास के लिए शहरीकरण को लक्ष्य और लक्षण दोनों स्वीकार करने वाले सिद्धांतकार सरकार के भीतर और बाहर दोनों जगह हैं। और यह स्थिति सिर्फ अपने यहां है ऐसा भी नहीं। पूरी दुनिया को खुले आर्थिक तंत्र की एक छतरी में देखने की ग्लोबल होड़ के बाद कमोबेश यही समझ हर देश और दिशा में बनी है।
2010 के नवम्बर महीने के आखिरी दिन दो ऐसी खबरें आयीं जिसने शहरी समाज और व्यवस्था के बीच से लगातार छिजती जा रही संवेदनशीलता के सवाल को एक बार फिर उभार दिया। 50 साल के घायल रामभोर ने एंबुलेंस में ही इसलिए दम तोड़ दिया क्योंकि देश की राजधानी के बड़े-छोटे किसी अस्पताल के पास न तो उसकी इलाज के लिए जरूरी उपकरण थे और न ही वह रहमदिली कि उसे कम से कम उसके हाल पर न छोड़ा जाए। विडंबना ही है कि हेल्थ हेल्पलाइन से लेकर किसी को भूखे न सोने की गारंटी देने वाली देश की राजधानी में एक गरीब और मजबूर की जान की कीमत कुछ भी नहीं।
शहर के अस्पतालों में मरीजों के साथ होने वाले सलूक का सच इससे पहले भी कई बार सामने आ चुका है। जो निजी पांच सितारा अस्पताल अपनी अद्वितीय सेवा धर्म का ढिंढोरा पीटती हैं, वहां तो गरीबों के लिए खैर कोई गुंजाइश ही नहीं है। रही सरकारी अस्पतालों की बात तो आए दिन अपनी पगार और भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल पर बैठने वाले डॉक्टरों की तरफ से कम से कम कभी कोई मांग मरीजों की उचित देखरेख के लिए तो नहीं ही उठाई गई। उनकी इसी मानसिकता को लेकर एक समकालीन कवि ने डॉक्टरों को पेशेवर रहमदिल इंसान तक कहा। यह अलग बात है कि नई घटना में तो वे ढ़ंग से पेशेवर भी नहीं साबित हुए।
दूसरी घटना मेट्रो स्टेशन की है। जिसमें  ऊपरी तौर पर घटित तो कुछ भी नहीं हुआ, हां अंतर्घटना के रूप में देखें-समझें तो रोंगटे जरूर खड़े हो जाते हैं। अपनों से अलग-थलग पड़ चुकी कानपुर से दिल्ली आई एक महिला राजधानी के एक मेट्रो स्टेशन पर इस फिक्र में घंटों बैठी रही कि वह कहां जाए और  किससे मदद की गुहार लगाए। उसकी स्थिति देखकर कोई भी उसकी लाचारी को पढ़ सकता था पर उससे कुछ ही कदम की दूरी पर बैठे सुरक्षा जवानों के लिए शहर में आए दिन दिखने वाला यह एक आम माजरा था। दिलचस्प है कि यह संवेदनहीनता उस शहर के पुलिस और सुरक्षा जवानों की है जिसको लेकर यहां की सरकार अमन-चैन के वादे करती है। गनीमत है कि किसी अपराधी तत्व की निगाह उस महिला पर नहीं पड़ी नहीं तो हालिया गैंगरेप मामले में छीछालेदर करा चुकी पुलिस के लिए मुंह छिपाने की एक आैर बड़ी वजह लोगों की चर्चा का विषय होता।
दरअसल, कभी एशियाड तो कभी कॉमनवेल्थ के नाम पर जिस दिल्ली को सजाया-चमकाया जाता है, उसकी फितरत रेड लाइट इलाके में देर रात तक गुलजार किसी कोठे की तरह हो गई है। जहां रोशनी महज इसलिए नहीं कि हालात रौशन हैं, बल्कि इसलिए हैं कि गरम गोश्त के शौकीनों का जीभ अब भी लपलपा रहा है। पानी पर अपने काम के लिए जाने वाले अनुपम मिश्र कई बार कहते हैं कि दिल्ली आज भले सत्ता और अमीरों का शहर बन गया है। पहले इस शहर के पास अपनी तहजीब और जीवन को लेकर एक टिकाऊ परंपरा और संवेदनशील व्यवस्था थी। विकास की ग्लोबल आंधी में परंपरा के ये सारे निशान लगातार मिटते चले गए। बदले में जो गढ़ा और रटाया जा रहा है, वह है बाजार के चरम भोग का परम मंत्र। अब इस मंत्र पर आहुति देने वालों की निगाहें अगर हिंसक और नाखूनें भूखी हैं तो इसमें कोई क्या करे। अपना ही लिखा शेर जेहन में आ रहा है-
जिन जंगलों को लगाया था हमने,
उन्हीं जंगलों में भटक भी रहे हैं ।
सजाया था घर को दीवारो दर को,
सजावट यही अब खटक भी रहे हैं।  

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जावेद साहब, यह बयान बदलने का प्राइम टाइम है


टीवी को लेकर जावेद अख्तर की एक मशहूर टिप्पणी है। वे कहते हैं कि यह एक ऐसा च्युइंगम है जिसे चाहे जितनी देर चबाओ, हासिल कुछ नहीं होता है। पर अब लगता है कि जावेद साहब को अपनी टिप्पणी बदलनी होगी क्योंकि अब यह च्युइंगम मुंह में खतरनाक रस घोलने लगा है, जिससे मुंह का जायका ही नहीं दिमागी नसें भी तनने लगी हैं। दिलचस्प है कि दूरदर्शन के प्रसार और पहुंच पर जब निजी चैनलों ने शुरुआती हस्तक्षेप किया, तब कइयों ने कहना शुरू किया कि सरकारी भोंपू की जगह स्वतंत्र लोक प्रसार माध्यमों का ऐतिहासिक दौर शुरू हो रहा है। पर दूरदर्शन की सीमाओं का अतिक्रमण निजी चैनलों ने जिस तरह किया, उसमें प्रयोग या रचनात्मक्ता की बजाय स्वच्छंदता ज्यादा दिखी।
इंडियन टेलीविजन एकेडमी अवार्ड की अनुरंजन अपने सालाना जलसे में कहती भी हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान में समा जाने वाली दुनिया में अब टीवी भी शामिल हो गया है। लिहाजा, इस दुनिया के भरोसे चलने वाली फिल्मों और विज्ञापनों के खोमचे टीवी के रास्ते घर-घर तक पहुंच गए हैं। टीवी की पहुंच और प्रसार को परिवार-समाज के जरूरी घटक के तौर पर किस तरह मंजूरी मिल चुकी है इसकी मिसाल है मियां-बीवी और टीवी जैसे पापुलर हुए मुहावरे।
टीवी के परदे से निकला जादू और बरसता तिलस्म कितना खतरनाक है इसको लेकर अब महज आगाह होने की नहीं बल्कि प्रभावी कदम उठाने की नौबत आ चुकी है। समाज में बढ़ रही खिन्नता, कुंठा, यौन हिंसा और दूसरे अपराधों के पीछे टीवी कार्यक्रमों को एक बड़ी वजह माना जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ रहा है और यह वाकई अलार्मिंग है।
एसोचैम के हालिया सर्वे में 90 फीसद माता-पिता ने माना कि प्राइम टाइम के कांटेंट के गिरते स्तर को लेकर वे चिंतित हैं और चाहते हैं कि सरकार इसके खिलाफ फौरी कदम उठाए। इस हस्तक्षेप की दरकार इसलिए भी महसूस की जा रही है कि नई जीवनशैली और स्थितियों के बीच बच्चे रोजाना औसतन पांच घंटे तक टीवी से चिपके रहते हैं। उनके समय बिताने और मनोरंजन के तौर पर टीवी एक सुपर विकल्प के तौर पर सामने आया है। और ऐसा करने वाले महज नाबालिग नहीं बल्कि 6-17 वर्ष के मासूम हैं। नतीजतन उनमें हिंसा और आक्रामकता जैसे कई तरह के मनोविकार तेजी से बढ़ रहे हैं। 76 फीसद माता-पिता को तो यही चिंता खाये जा रही है कि उनके 4-8 वर्ष के कच्ची उम्र के बच्चे टीवी देखकर उनके प्रति खासे असम्मान की भावना से भर रहे हैं।
साफ है कि टीवी कार्यक्रमों के मौजूदा स्तर ने टीवी को कम से कम एक जिम्मेदार माध्यम तो नहीं ही रहने दिया है। इसमें एक बड़ी असफलता सरकार के लोक प्रसार माध्यमों के लगातार पिछड़ते जाने की भी है। पारिवारिक धारावाहिकों के शुरुआती कीर्तिमान रचनेवाला दूरदर्शन अगर थोड़ा ज्यादा दूरदर्शी होता तो निजी चैनलों को अपनी मनमर्जी चलाने की छूट इस तरह नहीं मिलती। बहरहाल, इस दरकार से तो इनकार नहीं ही किया जा सकता कि पिछले कुछ अरसे से टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों और विज्ञापनों की टीआरपी होड़ बढ़ी है, जिसका प्रसारण तत्काल रोका जाना चाहिए। दिलचस्प है कि सरकार भी ऐसा ही मानती है और कई बार इसके लिए उसकी तरफ से दिशानिर्देश भी जारी होते हैं पर ये पहल कानूनी तौर पर इतने कमजोर और अस्पष्ट होते हैं कि अंतत: प्रभावी नहीं हो पाते।
हालिया मसला बिग बॉस के प्रसारण समय को बदलने और इसे प्राइम टाइम के बाद दिखाने के फैसले का है। सरकार ने इस बाबत संसद को भी सूचित कर दिया पर बिग बॉस का प्रसारण समय एक दिन भी नहीं बदला। बाद में यह मामला अदालत में चला गया। ऐसे कई मामले पहले भी सामने आए हैं जब सरकारी पहल असरकारी नहीं साबित हुआ। लिहाजा, अगर यह मांग बार-बार उठती है कि सरकार को इस तरह की आपत्तियों से निपटने के लिए अलग से एक स्वतंत्र और सशक्त नियामक संस्था का गठन करना चाहिए तो अब यह वक्त जरूर आ गया है कि इस बारे में बगैर और समय गंवाए कोई ठोस फैसला हो। सरकार के लिए यह करना आसान भी होगा क्योंकि इस मुद्दे पर संसद के बाहर और भीतर दोनों ही जगह तकरीबन सर्वसम्मति की स्थिति है।

रविवार, 28 नवंबर 2010

दुविधा डार्लिंग सीएम की


 दिल्ली की डार्लिंग सीएम बार एक बार फिर असमंजस में हैं।  मीडिया के हुक्के और लेंस उनकी इस दुविधा को अपने-अपने तरीके से कैद कर रहे हैं। साथ ही मैडम की इस दुविधाग्रस्त इमेज या फुटेज का मन-माफि नरेशन भी चल रहा है। दरअसल, राजधानी दिल्ली में महिला असुरक्षा का सवाल एक बार फिर से सतह पर आ गया है।  नई घटना एक 23 वर्षीय कॉल सेंटर कर्मी लड़की के साथ गैंगरेप की है। घटना आधी रात के बाद की भले हो लेकिन जिस आसानी से बदमाश अपराध को अंजाम दे पाए, उसे देखकर यह जरूर लगता है कि कानून और पुलिस का खौफ अब राजधानी के अपराधियों को न के बराबर है। गौरतलब है कि इससे पहले ऐसे ही एक मामले में जब एक लड़की की अस्मत लुटी तो यहां की मुख्यमंत्री ने लड़कियों-युवतियों को देर रात घर से बाहर निकलेने से ही परहेज करने की सलाह दे डाली थी। यह अलग बात है कि बाद में मुख्यमंत्री महोदया को अपने बयान के आशय को लेकर सफाई देनी पड़ी ताकि लोगों का भड़का गुस्सा कम हो सके। नई घट सामने आने के बाद शीला दीक्षित की लाचारी देखते ही बनती है। मीडिया के सवाल खड़े करने पर वह मीडिया से ही सलाह मांगने लग जाती हैं कि आखिर वह करें तो क्या। जाहिर है एक महिला होने के बावजूद महिला असुरक्षा का सवाल उनकी चिंता बढ़ाने से ज्यादा झेंप मिटाने भर है।  
दूसरी तरफ, हो यह रहा है कि कि जब भी कोई नया मामला सामने आता है तो मीडिया के साथ सरकार और लोग भी इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाने लगाते हैं। सरकार और पुलिस अपनी तरफ से मुस्तैदी बढ़ाने का संकल्प दोहराती है तो मीडिया और जनता कानून व्यवस्था की बिगड़ती जा रही स्थिति पर लानत भरकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।  पिछले साल इन्हीं दिनों आए एक सर्वे में बताया गया था कि दिल्ली की 96 फीसद महिलाएं कहीं भी अकेले जाने में घबड़ाती हैं। इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पक्ष यह था कि यहां की 82 फीसद महिलाएं बसों को यातायात का सबसे असुरक्षित साधन मानती हैं। ऐसा भी नहीं है कि महिला असुरक्षा को लेकर इस तरह की शिकायतें सिर्फ दिल्ली को लेकर ही बढ़ी हैं। पिछले दिनों मुंबई में एक पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा महिला यौन उत्पीड़न का ऐसा ही एक मामला सामने आया। आईटी हब के रूप अपनी शिनाख्त गढ़ चुके बेंगलुरू में बीपीओ कर्मियों के साथ बदसलूकी और यौन उत्पीड़न के मामले आए दिन अखबारों की सुर्खी बनते हैं। दिल्ली से लगे नोएडा के लिए तो ऐसी घटनाएं रुटीन खबरें हैं।
...तो क्या यह मान लेना चाहिए कि महिला अस्मिता और संवेदनशीलता के मामले में महानगरों का नागरिक समाज लगातार असभ्य और बर्बर होता जा रहा है। हालिया एक घटना में दिल्ली में मैराथन दौड़ने आई फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग के साथ जब बदसलूकी हुई तो उन्होंने अपनी शिकायत के साथ यह अनुभव भी दोहराया कि नए समय में महानगरों में रहने वाली महिलाओं को ऐसी घटनाओं के साथ जीने की आदत पर चुकी है। जाहिर है सड़कों, फ्लाईओवरों और मॉलों के बहाने जिन महानगरों के विकास की बात हम करते हैं उसका समाज दिनोंदिन ज्यादा असंवेदनशील होता जा रहा है। और यह असंवेदनशीलता परिवार और संबंधों के साथ दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की असुरक्षा के पहलू को चिंताजनक तरीके से बढ़ाता जा रहा है। ऐसे में महानगरों में महिला असुरक्षा के मुद्दे को महज कानून-व्यवस्था का मुद्दा मान लेना इस समस्या का सरलीकरण ही होगा। जरूरत इस बात की है कि महानगरीय जीवन और समाज को सभ्यता और संस्कारगत तरीके से भी पुष्ट बनाने के साझे अभिक्रम हों।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं


पिछले 10-15 सालों में लिखने-पढ़ने की दुनिया में जो बड़ा फर्क आया है, वह है लुगदी साहित्य की दुनिया का सिमटते जाना। यह सिमटना आज उस स्तर पर आ गया है कि वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है लुगदी साहित्य के पूरे कारोबार को। सुहागरात कैसे मनाएं से लेकर जीजा-साली की रंगीन शायरी तक नीली-पीली रोशनी में नहाई किताबों और पत्रिकाओं के आज न तो खरीदार बचे हैं और न ही इनके छापने वाले। दिलचस्प है कि यह परिवर्तन किसी पाठक जागरूकता या सामाजिक चेतना के चलते नहीं आया है। इसके पीछे वह बदली स्थितियां हैं, जिनके बीच आज का सामाजिक मनोविज्ञान गढ़ा जा रहा है। कमाल की बात है कि इस परिवर्तन के कारण न तो नंगेपन और यौनकर्म का गोपन भेदने की मानसिकता में कोई  कमी आई है और न ही न्यूड या पोर्न  की दुनिया का अंधेरा छंटा है। ऐसा लग रहा है जैसे सिंगल स्क्रीन थियेटरों की जगह मल्टीप्लेक्सों ने ली है, उसी तरह खुरदरे कागजों और नीली पन्नियों में लिपटा यौन साहित्य अब बेतार वर्चुअल  व विजुअल माध्यमों से अपनी पहुंच को ज्यादा सरल और ज्यादा सहज तरीकों से लोगों तक पहुंच रहा है। माउस के एक क्लिक पर जो हजारों-लाखों घंटों व पन्नों की जिस संपन्न दुनिया में दाखिला आज हरेक के लिए सुलभ है, वह सूचना या ज्ञान से भरा हो या नहीं उस आधुनिक मनोविज्ञान से जरूर भरा है। जो मानवीय और सामाजिक संबंधों के तमाम सरोकारों का सेक्स के बिस्तर पर लिटाकर परीक्षण करना चाहता है। इस परीक्षण की उत्सुकता जितनी बढ़ी है, उससे ज्यादा इसके लिए सुलभ हुए अवसर हैं। चाहें तो आप इंटरनेट पर सीधे किसी सर्च इंजन का सहारा लें या किसी ऐसे सोशल ग्रुप में शामिल हो जाएं, जो ज्यादा सक्रिय और ज्यादा प्रयोगवादी या आधुनिक हैं। अगर आपका संकल्प तगड़ा हो तो विकल्प के इन दोनों विकल्पी रास्तों पर आपको इतने जंक्शन मिलेंगे कि दंग रह जाएंगे।
चांद पर पानी है या नहीं, मंगल पर जीवन संभव है या नहीं और ग्लोबल वार्मिंग की दुरूह स्थितियां अगले कितने सालों में हमारे लिए असह्य होने वाली हैं, पूरी दुनिया में आज इन तमाम जिज्ञासाओं से ज्यादा यह चाहत है कि किसी भी स्त्री से भोगास्वादन के कितने विकल्प संभव हैं। इंटरनेट तो इंटरनेट मोबाइल फोन पर बार-बार आने वाले सर्विस कॉल बार-बार याद दिलाते हैं कि अगर आपकी दुनिया में रंगीनी कम हैं तो रंगीन मिजाज उन्मुक्त लड़कियां आपका इंतजार कर रही हैं।  यही आमंत्रण किसी भी अखबार के भीतरी पन्नों पर खुले ऑफर की शक्ल में मौजूद हैं। सो क्या हुआ, अगर काम और कोक के नाम पर बिकने वाले नीले-पीले साहित्य की छपाई बंद हो गई। अब सब कुछ हाई डेफिनेशन तकनीक के साथ मुहैया हो रही है।
तकनीक और यंत्र का दैत्यकारी विकास मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन, सबसे बड़ा दुश्मन है। गांधीजी यह बात सौ साल पहले कह गए। उनकी बात आज सही साबित हो रही है। पर आज सब कुछ देख-सुन लेने के बाद अगर वे अपनी बात कहते तो शायद यह भी जोड़ते कि तकनीक को अपनी मुट्ठी में कर आदमी शोषक ही नहीं बनता, आक्रमक तरीके से कामभोगी भी बनता है। स्त्री विमर्शवादी लहजे में कहें तो देह-भक्षण की प्रवृत्ति को जाग्रत और उन्मुख बनाए रखने में तकनीकी पहलू भी है। लिहाजा पुरुष तो पुरुष उसका तकनीकी आंदोलन भी स्त्री विरोधी है। इससे बेहतर तो वह खुरदरे पील-नीले कागजों की ही दुनिया थी, जहां फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

ओबामा को क्यों चाहिए गांधी


अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा महज आर्थिक हितों से जुड़ा था या भारत के लिए इसके अन्य निहितार्थ भी थे।  बहस का यह आलम बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान या उसके बाद नहीं, उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने और जीतने के समय से ही शुरू हो गया था। और इस सब की चर्चा सिर्फ भारत में ज्यादा रही हो ऐसा भी नहीं है। दिलचस्प है कि इस बारे में बताने या जताने की सबसे ज्यादा होड़ भी अमेरिकी मीडिया में ही दिखी। बहरहाल,  ओबामा का गांधी प्रेम जरूर एक ऐसा मुद्दा है, जिसने राष्ट्रपति चुनाव से लेकर विश्व शांति के अग्रदूत के रूप में नोबेल सम्मान से नवाजे गए इस बिरले राजनेता को न सिर्फ चर्चित बनाए रखा है बल्कि जब वह अपने हालिया भारत दौरे पर थे तो भी सबसे ज्यादा चर्चा इसी विषय को लेकर रही। देश के गांधीजनों से जब इस बाबत बात की गई तो उन्होंने ओबामा के गांधी प्रेम को सराहा तो पर वे इसे एक राष्ट्राध्यक्ष के ह्मदय परिवर्तन होने की कसौटी मानने को तैयार नहीं दिखे। दरअसल, जिन दो कारणों से ओबामा गांधी को नहीं भूलते या उन्हें याद रखना जरूरी मानते हैं, वे हैं गांधी की वह क्षमता जो साधारण को असाधरण के रूप में तब्दील करने व होने की प्रेरणा देता है और वह पाठ जो विश्व को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए निर्णायक तौर पर जागरूक होने की जरूरत बताता है।
वर्ष 2008 के शुरुआत में जब ओबामा अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए यहां-वहां चुनाव प्रचार कर रहे थे  तो उन्होंने एक लेख में लिखा, '...मैंने महात्मा गांधी को हमेशा प्रेरणास्रोत  के रूप में देखा है क्योंकि वह एक ऐसे बदलाव के प्रतीक हैं, जो बताता है कि जब आम लोग साथ मिल जाते हैं तो वे असाधारण काम कर सकते हैं।" अपनी भारत यात्रा की शुरुआत में उन्होंने एक बार फिर गांधी को भारत का ही नहीं पूरी दुनिया का हीरो बताया। दरअसल, 21वीं सदी में पूंजी के जोर पर विकास की जिस धुरी पर पूरी दुनिया घूमने को बाध्य है, उसमें भय और अशांति का संकट सबसे ज्यादा बढ़ा है। भोग और लालच की नई वैश्विक होड़ और मानवीय सहअस्त्वि का साझा बुनियादी रूप से असंभव है। इसलिए मौजूदा दौर में जिन लोगों को भी गांधी की सत्य, अहिंसा और सादगी चमत्कृत करती है, उन्हें गांधी की उस 'ताबीज" को भी नहीं भूलना चाहिए, जो व्यक्ति और समाज को हर दुविधा और चुनौती की स्थिति में 'अंतिम आदमी" की याद दिलाता है। लिहाजा, ओबामा का गांधी प्रेम शांति और प्रेम की अभिलाषी दुनिया की संवेदना को स्पर्श करने की रणनीति भर नहीं है तो दुनिया के सबसे ताकतवर कहे जाने वाले इस राष्ट्राध्यक्ष को अपनी पहलों और संकल्पों में ज्यादा  दृढ़ और बदलावकारी दिखना होगा। 9/11 के जख्म से आहत अमेरिका को अगर 26/11 का हमला भी गंभीर लगता है और आतंक रहित विश्व परिदृश्य की रचना उसकी प्राथमिकता में शुमार है तो उसका संकल्प हथियारों की खरीद-फरोख्त से ज्यादा मानवीय सौहार्द को बढ़ाने वाले अन्य मुद्दों पर होना चाहिए। इस बाबत अमेरिकी रक्षा मंत्री का हालिया बयान कि भारत उसका सबसे बड़ा रक्षा साझीदार है, परिवर्तन के कोई अच्छे संकेत नहीं देता। इस मामले में कुछ गांधीजनों की तरफ से आई यह प्रतिक्रिया भी महत्वपूर्ण है कि गांधी की लोकप्रियता और उनकी प्रासंगिकता को ओबामा से जोड़कर देखना मुनासिब नहीं क्योंकि जब तक हिंसा और भय का आतंक देश-दुनिया को तबाह करता रहेगा गांधी की प्रेरणा और  उसकी जरूरत सभी को महसूस होती रहेगी। हां, ओबामा के बहाने ये प्रेरणा अगर पूरी दुनिया में और तेजी से फैलती है तो यह जरूर स्वागतयोग्य है। 

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कितने गंदे हम


ऐसे समय में जबकि देश में सार्वजनिक जीवन में मलिनता को लेकर बहस की गरमाहट बढ़ी है, ’स्वच्छता‘ का सवाल खड़ा करना कुछ बुनियादी सरोकारों को रेखांकित करने जैसा है। हालिया कुछ आंकड़े हमारे विकास का विरोधाभासी चरित्र उजागर करते है। एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले देश में अगर आज भी महज 36 करोड़ लोग ही ऐसे है जो शौचकर्म खुले में नहीं करते तो साफ है कि हमारी वस्तुस्थिति और उन्नति के बीच की खाई खासी चौड़ी है। इस खाई के बड़े और गहरे होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि देश में सेलफोन पर बतियाने वालों की गिनती शौचालय का प्रयोग करने वालों से दोगुनी है।
दरअसल, तेजी से हो रहे शहरीकरण ने गांव-देहात के जीवन की न सिर्फ उपेक्षा की है बल्कि एक ऐसी सनक के कंधे पर हाथ रखा है जिसमें कुछ चेहरों की लाली के लिए लाखों-करोड़ों मुरझाए चेहरे उनके हाल पर छोड़ दिये गये है। अच्छी बात यह है कि विकास योजनाओं के एकांगी चरित्र से बचने की सोच सरकार के भीतर भी अब काफी हद तक कारगर शक्ल अख्तियार कर रही है। इसे बेहतर संकेत मानना चाहिए कि विकास और समृद्धि के ऊपरी नारों और वादों की जगह, बिजली, सड़क, शौचालय और पानी जैसे बुनियादी जरूरत के मुद्दे एक बार फिर एजेंडे में बहाल हो रहे है। छूटते जा रहे इन मुद्दों ने जाति और क्षेत्र की राजनीति करने वालों को भी हतोत्साहित किया है।
केंद्र में जब दूसरी बार मनमोहन सरकार आई तब भी माना गया कि रोजगार गारंटी जैसी महात्वाकांक्षी योजनाओं के बूते ही संप्रग लोगों का व्यापक समर्थन हासिल करने में सफल रही। आज सरकार द्वारा जिस समेकित विकास नीति पर जोर दिया जा रहा है, उसकी जरूरत भी इसलिए पड़ी कि विकास की सरपट दौड़ में काफी कुछ छूटता चला गया है। जिन आंकड़ों से हमारे विकास का मलिन चेहरा उजागर हुआ है, उसमें यह भी शामिल है कि देश के दिल्ली और केरल जैसे हिस्सों में बेहतर स्वच्छता सहूलियत का लाभ उठाने वालों का प्रतिशत 90 से ज्यादा है जबकि झारखंड, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में स्थिति सबसे खराब है। साफ है कि शिक्षा और शहरीकरण का सीधा रिश्ता स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसी बुनियादी सहूलियतों से जुड़ा है। शहरी आबादी का बढ़ता बोझ और पलायन जैसी समस्या के पीछे भी शहर बनाम गांव की स्थिति सबसे बड़ा कारण है।
हमारी लोक परंपरा में स्वच्छता का स्थान काफी ऊंचा है। यह कहीं न कहीं हमारे संस्कारों में भी बीज रूप से शामिल है। हां, अशिक्षा और गरीबी ने देश की आबादी के एक बड़े हिस्से की परिस्थति को इतना मजबूर जरूर कर दिया कि उसे महज दो जून की रोटी के संघर्ष के साथ किसी तरह गुजर-बसर करने की जद्दोजहद में ही अपना सारा सामर्थ्य झोंक देना पड़ता है। अब जबकि सरकार का ध्यान शिक्षा और खाद्य सुरक्षा की तरफ गंभीरता से गया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि न सिर्फ देश के संभ्रांत और सभ्य कहे जाने वाले इलाकों बल्कि सुदूर गांव-देहातों में भी शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता की बुनियादी सहूलियतें पहुंचेंगी।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

39 मिनट की स्माइल


कला और संवेदना के संबंध को लेकर बहस पुरानी है। संवेदना से कला के उत्कर्ष का तर्क तो समझ में आता है पर कलात्मक चौध के लिए संवेदना का इस्तेमाल सचमुच बहुत खतरनाक है। दिलचस्प है कि नए समय में इस खतरे से खेलकर कइयों ने खूब शोहरत बटोरी। ’स्माइल पिंकी‘ की पिंकी की परेशानी और मुफलिसी की खबर ने एक बार फिर कला और संवेदना के रिश्ते को लेकर बहस को आंच दी है। 
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की पिंकी की असली जिंदगी पर बनी डाक्यूमेंटरी को जब ऑस्कर मिला तो उसे हाथोंहाथ लेने वालों की कमी न थी। सरकार से लेकर सिनेमा और फैशन जगत में सब जगह पिंकी के नाम की धूम थी। सारा तमाशा बिल्कुल वैसा ही था, जैसा ऑस्कर अवार्ड समारोह में धूम मचा देने वाली फिल्म ’स्लमडॉग मिलेनियर‘ के बाल कलाकारों रुबीना और अजहरुद्दीन को लेकर हर तरफ देखने को मिला था। पर थोड़े समय बाद ही खबर आने लगी कि पिंकी बीमार है और रुबीना और अजहरुद्दीन फिर अपनी उस अंधेरी जिंदगी में पहुंच गए है। हां, बीच-बीच में कई चैरिटी कार्यक्रमों में इनके नाम पर भीड़ और पैसे जरूर बटोरे गए। जहां तक पिंकी की मामला है, वह उन कई हजार बच्चों में से एक थी, जिसके होठ कटे थे और इस कारण सामाजिक तिरस्कार झेल रही थी। एक स्वयंसेवी संस्था ने उसका इलाज कराया और उसकी जिंदगी बदल गई। डाक्यूमेंटरी में यही दिखाया गया है। पर 39 मिनट की रील में किसी की जिंदगी को ’रियली‘ बदल जाने की करामाती संवेदना कितनी ऊपरी और झूठी निकली, इसका अंदाजा आज की पिंकी की परेशानियां देख लग सकता है। पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर मुफलिसी के बावजूद उसकी तालीम पूरी कराना चाहते है पर उन्हें भी नहीं मालूम कि वह अपनी बेटी के प्रति फर्ज कैसे निभा पाएंगे।
पिंकी की मदद के लिए न आज वह स्वयंसेवी संस्था कहीं दिखती है जिसने उसकी ’स्माइल‘ की सर्जिकल कहानी दुनिया के आगे परोस वाह-वाही लूटी और न शासन जिसने अपने समारोहों में बुला उसे सम्मानित किया और उसके बेहतर भविष्य के लिए सार्वजनिक तौर पर वचनबद्धता दोहराई। आज जिंदगी और दुनिया की चुभती सचाइयों का नंगे पैर सामना कर रही पिंकी मुस्कान (स्माइल) से ज्यादा उस त्रासद कथा का जीवंत पात्र लगती है, जहां खिलने की आस में एक-एककर सपने कुम्हलाने लगते है। एक पहल तो यही होनी चाहिए कि कला की श्रेष्ठता के साथ उसकी नैतिकता का भी ठोस पैमाना तय हो, ताकि किसी की मजबूरी या संवेदना से खिलवाड़ न हो। कला और फिल्म की संभ्रांत दुनिया को कम से कम इतना उदार तो होना ही चाहिए कि उन्हें पीड़ा और संवेदना के चित्र ही आकषर्क न लगें, उनमें इन जिंदगियों में झांकने की दिलेरी भी हो। ताकि किसी पिंकी, किसी रुबीना की जिंदगी पर्दे या कैनवस पर ही नहीं, असल में भी बदले।    

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

डेढ़ लाख का सपना और इराक वार


कोख के हिस्से आया यह एक और शोक, एक और त्रासदी है। इंदौर में सरोगेसी के धंधे का तब एक और सियाह चेहरा सामने आया जब पता चला कि भ्रूण हिंसा ने यहां भी अपनी गुंजाइश निकाल ली है। इस शहर की एक महिला सपना नवीन झा ने एक डाक्टर के मार्फत एक बड़े कारोबारी के साथ डेढ़ लाख रुपए में किराए की कोख का मौखिक करार किया। शर्त के मुताबिक अगर गर्भ ठहरने के तकरीबन ढाई महीने बाद करवाई गई सोनोग्राफी में गर्भ में लड़के की जगह लड़की होने का पता चलता है तो अबार्शन कराना होगा। जिसका खतरा था, वही हुआ भी। सपना को ढाई महीने बाद गर्भ गिराने के लिए तैयार होना पड़ा। पर उसे अफसोस इसलिए नहीं था क्योंकि ऐसा करने पर भी उसे 25 हजार रुपए की आमदनी हुई। सपना ने यह सब अपनी तंगहाली से आजिज आकर किया था, सो 25 हजार रुपए की आमद भी उसके लिए कम सुकूनदेह नहीं थी।
इस पूरे मामले का खुलासा जिस तरह हुआ, वह एक और बड़ी ट्रेजडी है। इस बारे में लोगों को पता तब चला जब सपना का नाम धार के पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और कांग्रेस नेता कैलाश अग्रवाल हत्याकांड में उछला और वह पुलिसिया गिरफ्त में आ गई।  जिंदगी के इस खतरनाक मोड़ पर सपना ने आपबीती में  बताया कि वह मुफलिसी से लड़ते हुए कैसे कोख के सौदे और फिर भ्रूण हत्या के लिए तैयार हो गई। उसने बताया कि किराए का गर्भ गिराने के बाद वह एक बार फिर से अपनी कोख को किराए पर देने के लिए तैयार थी लेकिन ऐसा करने के लिए उसे कम से कम पांच महीने रुकना पड़ता। सपना दोबारा सरोगेट मदर बनने का सोच ही रही थी कि अग्रवाल हत्याकांड ने उसे जिंदगी के एक और खतरनाक मोड़ पर खड़ा कर दिया।
इस पूरे मामले में एक खास बात यह भी है कि सपना अपनी जिंदगी से परेशान जरूर है पर उसे अपने किए का कतई अफसोस नहीं है। शायद उसकी जिंदगी को मुफलिसी ने इस कदर उचाट बना दिया है कि ममता और संवेदना जैसे एहसास उसके लिए बेमतलब हो चुके हैं। एक महिला की जिंदगी क्या इतनी भी त्रास्ाद हो सकती है कि वह कोख से जुड़ी संवेदना को भी अपनी जिंदगी के शोक के आगे हार जाए। 
दरअसल, यह पूरा मामला औरत की जिंदगी के आगे पैदा हो रहे नए खतरों की बानगी भी है। सरोगेसी सपना के लिए शगल नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी। डेढ़ लाख रुपए की हाथ से जाती कमाई में से कम से कम 25 हजार उसकी अंटी में आ जाए, इसलिए गर्भ गिराने की क्रूरता को भी उसने कबूला। ...तो क्या एक महिला की संवेदना उसकी मुफलिसी के आगे हार गई या उसके संघर्ष के लिए एक पुरुष वर्चस्व वाली आर्थिक-सामाजिक स्थितियों में बहुत गुंजाइश बची ही नहीं थी। एक करोड़पति पुरुष का अपना वंश चलाने के सपने की सचाई कितने "सपनों' को रौंदने जैसी है, यह समझना जरूरी है।
याद आता है वह दौर जब अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश इराक को जंग के मैदान में सद्दाम हुसैन समेत अंतिम तौर पर रौंदने के लिए उतावले थे। अखबार के दफ्तर में रात से खबरें आने लगी कि अमेरिका बमबारी के साथ इराक पर हमला बोलने जा रहा है। इराक से संवाददाता ने खबर भेजी कि वहां के प्रसूति गृहों में मांएं अपने बच्चों को छोड़कर भाग रही हैं। खबर की कॉपी अंग्रेजी में थी, लिहाजा आखिरी समय में बिना पूरी खबर पढ़े उसके अनुवाद में जुट जाने का अखबारी दबाव था। अनुवाद करते समय जेहन में लगातार यही सवाल उठ रहा था कि ममता क्या इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि वह युद्ध जैसी आपद स्थिति में बच्चों की छोड़ सिर्फ अपनी फिक्र करने की खुदगर्जी पर उतर आए।
पूरी खबर से गुजरकर यह एहसास हुआ कि यह तो ममता की पराकाष्ठा थी। प्रसूति गृहों में समय से पहले अपने बच्चों को जन्म देने की होड़ मची थी। जिन महिलाओं की डिलेवरी हो चुकी थी, वह अपने बच्चों को  छोड़कर जल्द से जल्द घर पहुंचने की हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें अपने दूसरे बच्चों और घर के बाकी सदस्यों की फिक्र खाए जा रही थी। वे अस्पताल में नवजात शिशुओं को छोड़ने के फैसला इसलिए नहीं कर रही थी कि उनके आंचल का दूध सूख गया था। असल में युद्ध या बमबारी की स्थिति में कम से कम वह अपने नवजातों को नहीं खोना चाहती थीं। उन्हें भरोसा था कि अमेरिका इराक के खिलाफ जब हमला बोलेगा तो कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर मानेगा कि वह अस्पतालों और स्कूलों को बख्श दे। युद्ध छिड़ने से पहले प्रीमैच्योर डिलेवरी का महिलाओं का फैसला भी इसलिए था कि बम धमाकों के बीच कहीं गर्भपात जैसे खतरों का सामना उन्हें न करना पड़े। सचमुच मातृत्व संवेदना की परीक्षा की यह चरम स्थिति थी जिससे गुजरते हुए इराकी महिलाएं मानवीयता का सर्वथा भावपूर्ण सर्ग रच रही थीं।
सपना नवीन झा के मामले में पहली नजर में यह संवेदना दांव पर हारती दिखती है। पर अगर ऐसा दिखता है तो यह महिला स्थितियों को समझने में एक और बड़ा धोखा है। सपना से जुड़ा वाकिया दरअसल एक और खतरनाक मिसाल है कि हम एक महिला की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए किन-किन हदों तक जा सकते हैं। पैसे के बदले देहसुख मुहैया कराने के रूप में शुरू हुए दुनिया के सबसे पहले पेशे से लेकर किराए की कोख के सौदे तक की महायात्रा में आर्थिक मोर्चे पर महिलाओं की लाचारी के जितने भी पड़ाव हैं, वे सब एक पुरुष वर्चस्ववादी समय और समाज में महिला जीवन की विडंबनाओं की ही असलियत खोलते हैं।  सपना जैसी महिलाओं पर किसी पूर्वाग्रही और कठोर नजरिए से पहले हमें उन सचाइयों के प्रति ईमानदार होना होगा जो न सिर्फ महिला विरोधी हैं बल्कि संवेदना विरोधी भी।  याद रखें कि बहुत खतरनाक होता है किसी "सपने' का यूं ही  मर जाना।      

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

मीडिया का राखी घराना


संगीत और कुश्ती के घराने निपटते जा रहे हैं। नई पीढ़ी की मस्ती रिंगटोन और डायलर टोन सुनने-सुनाने में है। परंपरा की पाल और पुरानी चाल, दोनों में से कोई भी उसे भविष्य से ताल बैठाने के लिए जरूरी नहीं जान पड़ता। अगर किसी दरकार की गुंजाइश निकल भी आए तो गुलजार जैसे माहिर सर्वेश्वर जैसों की पुरानी जूती लेकर "फुरर्रर्रर्रर्र...' हो जाते हैं। फ्यूजन के दौर में सुरीली विरासत की इससे ज्यादा हिफाजत क्या होगी? आज तो परंपरा बचाने की जहमत की जगह उसे "अपग्रेड' करने की दिलेर हिमाकत देखने में ज्यादा आती हंै। कुश्ती के तो पुराने घरानों के नाम भी लोगों को याद नहीं। पुराने लोग जरूर इन घरानों की गठीली बहादुरी और मैदानी दांवपेच के किस्से सुनते-सुनाते मिल जाएंगे, वह भी गांव-देहात में। शहरों में ऐसी किस्सागोई के लिए अब स्पेस कहां? यहां तो मल्टीप्लेक्स में तीन घंटे में "दस कहानियां' दिखाई जा रही हैं। दिलचस्प है कि ये कहानियां देखने के लिए कम ही पहुंचे और वे भी सिर धुनते हुए ही हॉल से बाहर निकले।
दरअसल, नए घराने बन नहीं रहे पा रहे और पुराने टिक नहीं पा रहे। घराने फिल्मी दुनिया में भी रहे हैं। वहां सबसे बड़ा घराना आज भी कपूर घराना है पर अब वो बात नहीं रही इस घराने में भी। कपूर घराने की चमक राज कपूर तक ही थी। बाद में घराने की कोई धुरी नहीं रही, लिहाजा कपूर परिवार का फिल्मों में तो दखल रहा पर वे लोग अब घरानेदार नहीं रहे। फिल्मी दुनिया अब "नेम-फेम' से चलती है। नाम यहां काम से भी बड़ा है।
हां, इस बीच नए तरह का घराना शुरू हुआ है, वह भी इन्फोटेनमेंट की दुनिया मेंें। चूंकि घराना नया है, इसलिए इस घराने की घरानेदारी भी जुदा है। इतनी बात तो सब लोग मानते हैं कि पिछले एक दशक में मीडिया की धौंक इंटरटेन्मेंट की छौंक के आगे अच्छे से अच्छे पानी भरते नजर आए। वैसे इस सबसे किसी सार्थक परिवर्तन की गोद भराई हुई हो या नहीं पर इस दौरान "क्रिएशन' जरूर हुआ है। यह क्रिएशन सामने आया "आइटम' की शक्ल में। ऐसा आइटम जो हर एंगल से बिकाऊ है। मीडिया के इन्फोटेनमेंटी अवतार की नई क्रिएटिविटी से तैयार यह आइटम है- राखी सावंत। राखी के साथ ही शुरू हो गया एक नया घराना- मीडिया का राखी सावंत घराना।
इस घराने में वे सारे लोग शामिल हैं, जो ओढ़ाने में नहीं, उघारने में यकीन रखते हैं। इनके लिए राखी का ठुमका पूरे गांव के डूब जाने से भी बड़ी खबर है। इनके लिए सानिया मिर्जा की सगाई टूटनी, सर्द-मुफलिसी-ठिठुरन से हजारों दम तोड़ती जिंदगियों से कहीं ज्यादा दिलचस्प और जरखेज है। आखिर घराना भी राखी सावंत का है। वह राखी, जो इन्फोटेनमेंटी इल्मबाजों की तिकड़म से जब चाहे गांधी की लाठी ले उड़ती है और झोपड़पट्टी वालों के लिए सड़क पर मोर्चा निकालती है। "कमीनी' जैसे अछूत शब्द की प्रछालन-शुद्धि में लगी राखी इन दिनों सेंसर बोर्ड के हाथ की कैंची के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठने के अल्टीमेटम के कारण सुर्खियों में है।
बहरहाल, वे तमाम साथिनें जो राखी की उड़ान में अपने सपनों के पर देखती हैं, उन्हें खतरे से आगाह करने की जरूरत है। राखी सावंत होना "मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं' से भी ज्यादा खतरनाक है। इस होने में औरत होने की हर वह कीमत वसूली जाती है, जो पांच हजार साल से पुरुष मन और देह की विकसित दरकार बनकर सामने आई है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर आज के अकेले और सबसे बड़े घराने की घरानेदारी का सवाल जो है?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं


(1)
याद आता है
अभिनेता महान का हिट संवाद
मर्द को दर्द नहीं होता जनाब
गूंजती है आवाज
सनसनाहट से भरी एमएमएस क्लिप में
बांग्ला की कुलीन अभिनय परंपरा की बेटी की
आई वांट ए परफेक्ट गाइ  
और फिर उतरने लगते हैं पर्दे पर
एक के बाद एक दृश्य
शालिनी ने लकवाग्रस्त पति को
दिया त्याग रातोंरात
अधेड़ मंत्री के यहां पड़े छापे में मिली
पौरुष शास्त्र की मोटी किताब
वियाग्रे की गोलियां
मुस्टंड मर्दानगी के लिए ख्यात
हकीम लुकमान के लिखे अचूक नुस्खे
मिस वाडिया ने अपनी आत्मकथा में
उड़ाया इंच दर इंच मजाक
अपने सहकर्मी की गोपनीय अंगुली का

(2)
नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं
उन्हें नहीं मिलेगी तोशक न मिलेगी रजाई
न वे झूल सकेंगे झूला न बना सकेंगे रंगोली
और न खेल सकेंगे होली
अवैध मोहल्लों के किसी गली-कूचे या मैदान में
 ऊंची एड़ी पर खड़ी दुनिया
 नहीं देखना चाहती किसी नामर्द की शक्ल
अपनी किसी संतान में

(3)
मर्द न होना किसी मर्द के लिए
बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसा किसी औरत का न होना औरत
स्त्री-पुरष का लिंग भेद मेडिकल रिपोर्ट नहीं
बीसमबीस क्रिकेट का स्कोर बोर्ड
करता है जाहिर
पुरुष इस खेल को सबसे तेज और
जोरदार खेलकर ही साबित हो सकते हैं जवां मर्द
और तभी मछली की तरह उतरेगी
उसके कमरे में कैद तलाब में कोई औरत

(4)
मर्दाना पगड़ी की कलगी खिलती रहे
अब ये चाहत नहीं चुनौती है पुरुषों के आगे
उसे हर समय दिखना होगा
सख्त और मुस्तैद
नहीं तो सुनना पड़ सकता है ताना
वंशी बजाते हुए नाभी में उतर जाने वाले कन्हाई
कहीं पीछे छूट गए
औरतों ने देना शुरू कर दिया है
पुरुष को पौरुष से भरपूर होने की सजा
जिस औजार से गढ़ी जाती थीं  
अब तक मन माफिक मूर्तियां
अब उनका इस्तेमाल मिस्त्री नहीं
बल्कि करने लगे हैं बुत
मैदान वही
बस  योद्धाओं के बदल गए हैं पाले
मर्दाना तर्क जनाना हाथों में
ज्यादा कारगर और उत्तेजक रणनीति है
जैसे को तैसा...
जनाना न्याय का उध्बोधन गीत है

रविवार, 14 नवंबर 2010

अमन की मौत


हिमाचल प्रदेश के अमन काचरू रैगिंग मामले में चार दोषी छात्रों को दो साल से भी कम समय में सजा सुनाया जाना सराहनीय तो है ही, यह फैसला आगे के लिए एक बेहतर मिसाल भी साबित हो सकता है। 19 साल के अमन को मेडिकल के सीनियर छात्रों ने रैगिंग के नाम पर बुरी तरह पीटा था। उसने इस घटना की शिकायत कॉलेज अधिकारियों आैर प्रबंधन से भी की थी। पर उसकी हालत इतनी नाजुक हो चुकी थी कि इस मामले में कुछ हो पाता उससे पहले ही उसकी मौत हो गई। अच्छी बात यह रही कि अमन के परिवार वालों ने इस घटना को न्यायिक संघर्ष का मुद्दा बनाया। उन पर काफी दबाव भी था पर वे अपने बच्चे के खिलाफ बरती गई बर्बरता को भूलने को तैयार नहीं थे। सत्र न्यायालय के फैसले के बाद अमन के पिता राजेंद्र काचरू ने कहा भी कि मैं इसे सिर्फ अपनी जीत के रूप में नहीं देखता  बल्कि यह उन लोगों की जीत है, जो न्यायिक सुधारों के लिए आैर रैगिंग के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। दरअसल, रैगिंग का पूरा संदर्भ न सिर्फ शैक्षिक परिसरों के अनुशासन से जुड़ा है बल्कि यह समय आैर शिक्षा के साथ उन तमाम कारकों से जुड़ा है जिसका प्रभाव आज युवाओं के मन-मस्तिष्क पर पड़ रहा है। लिहाजा, इसे सिर्फ ' कैंपस डिसीप्लीन" का मुद्दा मानकर सरलीकृत करना खतरनाक है। दिलचस्प है कि अपने विचारों आैर कई बदलावकारी पहलों के लिए लगातार सुर्खियों में बने रहने वाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का सबसे ज्यादा जोर शिक्षा आैर परीक्षा की रूढ़ता को तोड़ना है। इस परविर्तन की जरूरत शायद इसलिए महसूस हो रही है कि नये परिवेश आैर चुनौतियों के साथ नई पीढ़ी का समन्वयकारी रिश्ता बहाल हो, न कि वे उन पर अचानक हावी हो जाएं। पर यह सब सिर्फ सिलेबस बदलने या एक्जाम फार्मेट के रद्दोबदल मात्र से तो होने से रहा। सेक्स, सक्सेस आैर सेंसेक्स के त्रिफांस में युवा जिस तेजी से आज फंस रहे हैं, वह उनके पूरे मानसिक गठन आैर विकास को प्रभावित कर रहा है। घर का माहौल या शिक्षण परिसर ही अब मात्र उनके स्वभाव को बुनियादी तौर पर नहीं रच रहे बल्कि बाजार के झरोखे उसे  हर कहीं अपने पास बुलाने के लिए खुले हैं। संवेदना आैर संबंधहीनता के खतरों के बीच पल रही पीढ़ी को ज्यादा सहिष्णु बनाए रखने का एक तरीका तो यह है कि उनके परिवेश को भरसक स्वस्थ बनाने के प्रति जागरूकता बढ़े, दूसरे युवा जोश को अपराध मानसकिता की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए सख्ती बढ़े, जैसा कि अमन काचरू मामले में देखने को मिलता है। अमन का मामला इस मामले में अहम है कि इसमें दोषियों को न सिर्फ सजा सुनाई गई बल्कि इस तरह की प्रवृत्ति किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है, इसके लिए 38 लोगों ने गवाही दी। यह हमारे समाज की न्यायप्रियता की तो मिसाल है ही, इससे उसकी अपनी चिंताओं से निपटने के प्रति प्रतिबद्धता भी जाहिर होती है। रैंिगंग का चलन एक बर्बर चलन है। कानूनन तो यह अमान्य है ही, मानवीय दृष्टि से भी यह जघन्य प्रवृत्ति है। इसके खिलाफ न सिर्फ सरकारी पहलों की दरकार है बल्कि नई पीढ़ी को संवेदना के खिलाफ सिर उठा रहे मंसूबों से भी बचाने की तैयारी करनी होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य की पीढ़ी को संवेदनशील वर्तमान देने का संकल्प 'सरकारी" ही नहीं 'असरकारी" भी साबित होगा।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

बा-बापू और अंत:वस्त्र


गांधीजी की लंगोट चर्चिल तक को अखरती थी क्योंकि इस सादगी का उनके पास कोई तोड़ नहीं था। सो गुस्से में वे गांधी का जिक्र आते ही ज्यादा सिगार पीने लगते और उन्हें नंगा फकीर कहने लगते। आए दिन गांधीजी की ऐनक, घड़ी और चप्पल की नीलामी की खबरें आती रहती हैं। सरकार से गुहार लगाई जाती है कि गांधी हमारे हैं और उनकी सादगी के उच्च मानक गढ़ने में मददगार चीजों को भारत में ही रहना चाहिए। कुछ महीने पहले मीडिया वालों ने अहमदाबाद में उस विदेशी शख्स को खोज निकाला जो गांधीजी की ऐसी चीजों का पहले तो जिस-तिस तिकड़म से संग्रह करता और फिर उन्हें करोड़ों डॉलर के नीलामी बाजार में पहुंचा देता।  फिर नीलामी आज सिर्फ गांधीजी के सामानों की नहीं हो रही। यहां और भी बहुत कुछ हैं। पुरानी से पुरानी शराब की बोतल से लेकर शर्लिन चोपड़ा की हीरे जड़ी चड्ढ़ी तक। खरीदार दोनों के हैं, सो बाजार में कद्र भी दोनों की  है। यानी नंगा फकीर बापू और हॉट बिकनी बेब शर्लिन दोनों एक कतार में खड़े हैं।
हमारे दौर की सबसे खास बात यही है कि यहां सब कुछ बिकता है- धर्म से लेकर धत्कर्म तक। आप अपने घर बटोर-बटोर कर खुशियां लाएं, इसके  लिए झमाझम ऑफर और सेल की भरमार है। इस बाबत आप और जानकारी बढ़ाना चाहें तो 24 घंटे आपका पीछा करने वाले रेडियो-टीवी-अखबार तो हैं ही। गुजरात के समुद्री किनारों पर जो नया टूरिज्म इंडस्ट्री डेवलप हो रहा है, वह अपने सम्मानित अतिथियों को गांधी के मिनिएचर चरखे और अंगूर की बेटी का आकर्षण एक साथ परोसता है। बस इतना लिहाज रखा जाता है कि क्रूज पर शराब तभी परोसी जाती हैं, जब वह गुजरात की सीमा से बाहर निकल आते हैं। गुजरात सीमा के भीतर ऐसा नहीं  किया जा सकता क्योंकि वहां शराबबंदी है। यानी आत्मानुशासन का जनेऊ पहनना जरूरी है पर उसे उतारकर उसके  साथ खिलवाड़ की भी पूरी छूट है।
ये बाजार द्वारा की गई मेंटल कंडिशनिंग का ही नतीजा है कि कल तक जिसे हम महज अंत:वस्त्र कहकर निपटा देते थे, उनका बाजार किसी भी दूसरे परिधान के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है।  मां की ममता पर भारी पहने वाले डिब्बाबंद दूध का इश्तेहार बनाने वाले आज अंत:वस्त्रों को सेकेंड स्किन से लेकर सेक्स सिंबल तक बता रहे हैं। जैनेंद्र की एक कहानी में नायक अपना अंडरबियर-बनियान बाहर अलगनी पर सुखाने में संकोच करता है कि नायिका देख लेगी। आज नायक तो नायक नायिकाएं और लेडी मॉडल स्टेज से लेकर टीवी परदे तक इन्हें धारण कर ग्लैमर दुनिया की चौंध बढ़ाती हैं।
बालीवुड की मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान कहती हैं, "सब कुछ हॉट हो गया, अब कुछ भी नरम या मुलायम नहीं रहा। गुजरे जमाने की हीरोइनों के नजर झुकाने और फिर अदा के उसे उठाते हुए फेर लेने से जितनी बात हो जाती थी, वह आज की हीरोइनों के पूरी आंख मार देने के बाद भी नहीं  बनती।'  साफ है कि देह दर्शन के तर्क ने लिबासों की भी परिभाषा बदल दी। और इसी के साथ बदल गई हमारी अभिव्यक्ति और सोच-समझ की तमीज भी। पचास शब्द की खबर के लिए पांच कॉलम की खबर छापने का दबाव किसी अखबार की एडिटोरियल गाइडलाइन से ज्यादा मल्लिका और राखी जैसी बिंदास बालाओं का मुंहफट बिंदासपन बनाता है। रही पुरुषों की बात तो नंगा होने से आसान उन्हें नंगा देखने के लिए उकसाता रहा है। तभी तो महिलाओं के अंत:वस्त्र के बाजार का साइज पुरुषों के के मुकाबले कई  गुना है।  यह सिलसिला इंद्रसभा से लेकर आईपीएल ग्राउंड तक देखा जा सकता है। "अंत:दर्शन' अब "अनंतर' तक सुख देता है और पुरुष मन के इस सुख के लिए महिलाओं को फीगर से लेकर कपड़ों तक की बारीक काट-छांट करनी पड़ रही है।
बात चूंकि गांधी के नाम से शुरू हुई इसलिए आखिर में बा को भी याद कर लें।  खरीद-फरोख्त और चरम भोग के परम दौर की इस माया को नमन ही करना चाहिए कि उसकी दिलचस्पी न तो बा की साड़ी में है और न ही उसकी जिंदगी में। अव्वल यह अफसोस से ज्यादा सुकूनदेह है। और ऐसा अब भी है, यह किसी गनीमत से कमतर नहीं।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

छठ : भइया लोगों का बड़का पर्व



दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, "अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।' वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं कई जगहों पर इस विरोध के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया। इसके बाद रही-सही कसर कमर तोड़ती महंगाई ने पूरी कर दी है। ओबामा आैर सेंसेक्स के कारण जिस दुनिया में हाल के दिनों में चहल-पहल बढ़ी है, उसके "वकसित हठ' आैर "पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को "लोकरस' और "लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्राांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है । हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वै·िाक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिाटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिाटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार आैर उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल रुाोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में आैर मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, "लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधवि·ाास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है। कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रकने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

रविवार, 7 नवंबर 2010

मरद जाने तो जाने...मेरी बला से


...जानती हूं
ऐसे समाज में रहती हूं
जहां अकेली स्त्री को
बदचलन साबित करना
सबसे आसान काम है
और यह बात मेरा मरद
अच्छी तरह जानता है...
ये पंक्तियां है कवयित्री रंजना जायसवाल की कविता "मेरा मरद जानता है' की। एक कवयित्री की जगह ये बातें और यह स्त्री संवेदना किसी कवि की भी हो सकती है। पर शायद तब अर्थ के बदलने का खतरा होगा क्योंकि यह आत्मकथ्य न होकर चैरिटी जैसी उदारता होगी महिला स्थितियों के प्रति। दरअसल, हमारे आसपास जो दुनिया सबसे तेजी से बदल रही है, वह है स्त्रियों की दुनिया। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि इस दुनिया में अब भी कई चीजें पुराने ठेठ रंगो-सूरत में कायम हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन ने पिछले कुछ  दशकों  में चाहे जितनी ताजी हवा को महसूस किया है, उसके बनने और टूटने के साथ उन्हें देखने की कसौटियां न के बराबर बदली हैं। नहीं तो ऐसा कैसा संभव था कि एक तरफ आधुनिकता की चौंध से भरी दुनिया में एक 37 साल की मॉडल को महज इसलिए खुदकुशी के लिए मजबूर होना पड़ता है कि उसके दैहिक कसाव का ढीलापन और उसके करियर की गिरावट उसे अचानक अपने दोस्तों, परिचितों, कारोबारी सहयोगियों के लिए गैरजरूरी और कम फायदेमंद लगने लगा। विवेका की मौत को लेकर अभी कई रहस्यों से परदा उठना बाकी है। पर इतनी सचाई को इस पूरे मामले का प्रस्थान बिंदु के तौर पर मीडिया ही नहीं उसे जानने वाले भी स्वीकार कर रहे हैं।
सहजीवन से डेटिंग और फ्रेंडशिप तक का नया चलन संबंधों के नए सांचों के गठन की जगह पुराने सांचों का तोड़ ज्यादा है। विवाह, परिवार और परंपरा की त्रिवेणी में नहाया भारतीय गृहस्थ आश्रम अपने उद्देश्यों के कारण तो नहीं पर निर्वाह की ईमानदार कोशिशों में कोताही के कारण जरूर टूट-फूट रहा है। और इन सब के पीछे सबसे बड़ी वजह है परस्पर निष्ठाओं की जमीन का लगातार दरकते जाना। शादी के सात फेरे हांे या दोस्ती-यारी की हल्की-फुल्की बांडिंग, महिलाओं ने संबंधों की नई बनावट में अपनी पिछली घुटन से भरसक बचने की गुंजाइश निकालनी शुरू कर दी है। खतरनाक है तो इस गुंजाइश को आजमाने के दौरान पैदा होने वाली स्थितियां और नतीजे।  संबंध के बनते ही उसके "सदेह' होने की व्यग्रता महिलाओं के हिस्से पुरुष छल को जहां और स्वाभाविक बना रहा है, वहीं संबंधों के टूटने पर इसी "सदेह' साक्ष्य का ब्लैकमेलिंग के रूप में भी खूब इस्तेमाल होता है। कई युवतियों को यह ब्लैकमेलिंग इतनी महंगी पड़ती है कि उसका या आत्मविश्वास टूटने लगता है या फिर आत्मसंघर्ष के लिए कई गुनी ज्यादा ऊर्जा मन में भरनी पड़नी पड़ती है। आगे संबंधों के नव और पुननिर्माण की प्रक्रिया में भी देह पर लगी ये खरोंचे उसका पीछा नहीं छोड़ती। इसी पर दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू ने जब कहा था कि लड़कों को अब शादी में वर्जिन लड़की की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। और यह नाउम्मीदी उसी तरह स्वाभाविक है जैसा लड़कों को लेकर लड़कियों की चिंता नहीं बढ़ाती।
ये तो स्थितियां रहीं तब जब संबंधों की किवाड़ एक बार नहीं बार-बार खुलती है। देह शुचिता और इज्जत के नाम पर महिलाओं को बांध कर रखने का पुरुषार्थ पुराना है। घरेलू हिंसा की यह सूरत सबसे पुरानी है। रंजना जायसवाल की कविता भी इसी ओर इशारा करती है। दिलचस्प है कि जिस देह भार से आधी दुनिया को सबसे ज्यादा झुकाया-दबाया जाता रहा है, उसका इस्तेमाल वह लोहे को लोहे से काटने के रूप में खतरनाक तरीके से सीख रही हैं। देह को "क्षण' और संबंध को "प्रायोगिक अनुभव' की नियति देने वाली स्त्री मानसिकता का गठन पुरुषों के आगे चुनौती है। पुरुषों का छल अब महिलाओं का बल बन चुका है। 
हाल में खबर आई कि हॉलीवुड अभिनेत्री हेलेन मिरेन ने "लव रंच' फिल्म के लिए 64 साल की उम्र में न्यूड सीन व पोज दिए हैं।  इस फिल्म में वह अपने से 30 साल छोटे उम्र के लड़के से प्यार करती हैं। दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए मिरेन को जितनी परेशानी नहीं हुई, उससे ज्यादा उसकी इस हिमाकत को पचाने में लोगों को हुई। जाहिर है  देह का स्त्रीवादी भाष्य भले प्रतिक्रियावादी हो पर इसने स्त्री जीवन को पुरुषों की दुनिया में ललकार के साथ जीने का हौसला भी कम नहीं दिया है। अब भले मरद सब कुछ जानता हो और उसका यह सब कुछ जानना उसके "सिंदूरी' जीवन को स्याह कर दे, पर उसके हौसले के "लाल' होने का जज्बा कम क्रांतिकारी नहीं है।

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

मारे जाएंगे


अलंकरण समारोहों में
गुलदस्तों का भार उठाना
कितनी बड़ी कृतज्ञता है
विनम्रता है कितनी बड़ी
अपने समय के प्रति

हमारे समय के सुलेखों
आैर पुस्तकालय के ताखों पर रखे
अग्रलेखों ने
लेख से ज्यादा बदली है लिखावट
उतनी ही जितनी
उनकी बातें सुनकर
महसूस होता है
श्रोताओं की पहली, दूसरी आैर
अंतिम कतार को

ऐतिहासिक होने का उद्यम
श्रीमान होने के करतब का
सबसे खतरनाक पक्ष है
समय की धूल पोंछकर
हाथ गंदा करने का जमाना लद गया
अब तो समय को सबसे क्रूरता से
बांचने वालों की सुनवाई है

कलम ने कुदाल की तौहीनी
भले न की हो
पर खुद को मटमैला होने से
भरसक बचाया है
हम जिन बातों पर रो सकते थे
सिर फोड़ सकते थे आपस में
कैसा तिलस्मी असर है इनका
कि हम बेवजह हंस रहे हैं
रो रहे हैं
जबकि हमें भी मालूम है
कि हम पूर्वजन्म से लेकर
पुनर्जन्म तक जागे ही नहीं
बस सो रहे हैं

मंचासीन जादूगरों के डमरू पर
डम-डम-डिगा-डिगा गाने वाले
जादू का खेल देखकर ताली बजाने वाले
अब मजमे में शामिल तमाशबीन नहीं
एक पागल भीड़ है
जो घर-घर पहुंच चुकी है
अगर न बने हम भीड़
तो भीरु कहलाएंगे
आैर अगर हो गए भीड़ तो
मारे जाएंगे

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

नहीं कर सकती तुम उतना प्यार



तुम हो सकती हो नंगी
पर उतनी नहीं
जितना होता है नंगा
एक पुरुष
अनावरण समारोह का
फीता काटने के बाद

तुम्हें करना आता है प्यार
खूब करती हो प्यार
मनाती हो खुशी-खुशी हर साल
प्यार का त्योहार
पर कभी नहीं कर सकती
तुम उतना प्यार
जितना कर सकता है
एक पुरुष
एक साथ
एक क्षण में अपने मन में
उगीं हजारों भुजाओं के साथ

सलीके आैर नजाकत के कीमती
दोशाले से लिपटा
इनकार आैर इजहार तुम्हारा
बन सकती है कविता
गा सकता है कवि
पर कथन का जादुई यथार्थ
अभिव्यक्ति का मारक इस्तेमाल
सब कुछ करके
न कहने का भरोसेमंद अंदाज
तो है एक पुरुष के ही पास
वही कर सकता है
इस पर नाज

तुम्हें भाता है श्रृंगार
बहुत जरूरी है तुम्हारे लिए
आईने का इस्तेमाल
पर सजावट का तर्क तुम्हारा
कभी इतना सधा नहीं हो सकता
जितना एक पुरुष का रंगीन ख्याल
उसकी उभरी हुई जमीन
उसका छितराया हुआ आकाश

तड़प होगी कोई तुम्हारी भी
प्यास लगती होगी तुम्हें भी
पर इतना तो शायद ही कभी
जितना तड़पता है
एक पुरुष बीच रात में
अपनी खाट की आवाज सुनकर
जितनी छटपटाती है
उसकी इच्छा
किसी चील के कोटर में
रखा मांस देखकर

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

परंपरा और करवा


परंपरा जब आधुनिकता से गलबहियां डालकर डग भरती है तो जो "फ्यूजन' क्रिएट होता है, उसकी स्वीकार्यता आश्चर्यजनक रूप से काफी बढ़ जाती है। बात नवरात्र के गरबा रास की हो या करवा चौथ की, नए दौर में पुरानी परंपराओं से जुड़ने वालों की कमी नहीं है। करवा चौथ की कथा पारंपरिक पतिव्रता पत्नियों की चाहे जैसी भी छवि पेश करती रही हो, इस व्रत को करने वाली नई दौर की सौभाग्यवतियों ने न सिर्फ इस पुराकथा को बदला है बल्कि इस पर्व को मनाने के नए औचित्य भी गढ़े हैं। विवाह नाम की संस्था आज दांपत्य निर्वाह का महज संकल्प भर नहीं है, जहां स्त्री-पुरुष संबंध के तमाम  स्तरों और सरोकारों को महज संतानोत्पत्ति के महालक्ष्य के लिए तिरोहित कर दिए जाएं। संबंधों के स्तर पर व्यावहारिकता और व्यावहारिकता के स्तर पर एक-दूसरे के मुताबिक होने-ढलने की ढेर सारी हसरतें, नए दौर में विवाह संस्था के ईंट-गारे हैं।
करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी शामिल हैं। दो साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली प्रेरणा इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दोनों हैं, यानी ई·ार से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फख्र है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद। 
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब लिव-इन और समलैंगिक जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में तलाक के मामले जहां 54-55 फीसद हैं, वहीं अपने देश में यह फीसद आज भी बमुश्किल 1.1 फीसद है। जाहिर है कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ  दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने "उनके' लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां मेड फॉर इच अदर के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं। परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करते हैं। यह फिनोमिना गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेंहदी सजे, इसकी खुशी पति में भी दिखती है, पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी से साथ बाजार निकलती है। यही नहीं अब तो बच्चे पर प्यार उडे़लने में भी मां-पिता की भूमिका बंटी-बंटी नहीं बल्कि समान होती जा रही है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ भाजपा नेता सुषमा स्वराज कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिंदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी जब व्रत की थाली सजाए टीवी पर दिखती हैं तो वहीं देश के सबसे ज्यादा चर्चित और गौरवशाली परिवार का दर्जा पाने वाले बच्चन परिवार में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। साफ है कि नया परिवार संस्कार अपनी-अपनी तरह से परंपरा की गोद में दूध पी रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है। नए दौर की जरूरतों और मान्यताओं को आत्मसात कर बदलती तो है पर बिगड़ती नहीं। करवा चौथ का बदला स्वरूप ही ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। अब यह पर्व कर्मकांडीय आस्था के बजाय उसी तरह सेलिब्रोट किया जा रहा है जैसे मदर्स-फादर्स और वेलेंटाइन डे। यह अलग बात है कि बदलाव के इस झोंके में बाजार ने अपनी भूमिका तलाश ली है, सबके साथ वह भी हमारी खुशियों में शामिल है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

गल्र्स नेवर बी एलोन


अपनी बात शुरू करने से पहले वह बात जिसने अपनी बात कहने के लिए तैयार किया। आशुतोष राणा महज अभिनेता नहीं हैं। उनकी शख्सियत ने मुख्तलिफ हलकों में लोगों को अपना मुरीद बनाया है। अरसा हुआ टीवी के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी सुनी, जो अलग-अलग वजहों से आज तक याद है। राणा ने कहा था, "हमारी परंपरा महिलाओं से नहीं, महिलाओं को जीतने की रही है।' यह वक्तव्य स्मरणीय होने की सारी खूबियों से भरा है। होता भी यही है कि किसी बेहतरीन शेर या गाने की तरह ऐसे बयान हमारी जेहन में गहरे उतर जाते हैं बगैर किसी अंदरुनी जिरह के। यह खतरनाक स्थिति है। आज जब बुद्धि और तर्क के तरकश संभाले विचारवीरों की बातें पढ़ता-सुनता हूं तो इस खतरे का एहसास और बढ़ जाता है।
दरअसल, तर्क किसी विचार की कसौटी हो तो हो किसी मन की दीवारों पर लिखी इबारत को पढ़ने का चश्मा तो कतई नहीं। यह बात अक्षर लिखने वालों की क्षर दुनिया में कहीं से भी झांकने से आसानी से समझ आ सकती है। इसी बेमेल ने शब्दों की दुनिया को उनके ही रचने वालों की दुनिया में सबसे ज्यादा बेपर्दा किया है। दो-चार रोज पहले का वाकया है। फिल्म का नाइट शो देखकर बाहर कुछ दूर आने पर सड़क के दूसरे छोर पर अकेली लड़की जाती दिखी। मेरे साथ तीन साथी और थे। इनमें जो पिछले करीब एक दशक से बाकायदा रचनात्मक पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाला था, उसने अपनी जेब से गांजे से भरी सिगरेट का दम लगाते हुए कहा, "मन को उतना ही अकेला होना चाहिए, जितनी वह लड़की अकेली दिख रही है।'
 दूसरे साथी ने हिंदी की बजाय पत्रकारिता की अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की धारा से जुड़े होने की छाप देते हुए कहा, "गल्र्स नेवर बी एलोन। सिचुएशन एंड सराउंडिंग ऑलवेज आक्यूपाय देयर लोनलिनेस।' तीसरे ने कहा, "किसी लड़की को अकेले बगैर उसकी जानकारी के देखना किसी दिलकश एमएमएस को देखने का सुख देता है।' रहा मुझसे भी नहीं गया और मैंने छूटते ही कहा," वह या तो कहीं छूट गई है या फिर किसी को छोड़ चुकी है।'
साफ है कि पढ़ा-लिखा पुरुष मन किसी स्त्री को सबसे तेज पढ़ने का न सिर्फ दावा करता है बल्कि उसे गाहे-बगाहे आजमाता भी रहता है। तभी तो विचार की दुनिया में यह मान्यता थोड़े घायल होने के बावजूद अब भी टिकी है कि स्त्री मन, स्त्री प्रेम, स्त्री सौंदर्य को लेकर दुनिया में "सच्चा' लेखन भले किसी महिला कलम से निकली हो पर अगर "अच्छा' की बात करेंगे तो प्रतियोगिता पुरुष कलमकारों के बीच ही होगी।
इसलिए राणा जैसों को भी जब जुमला गढ़ने की बारी आती है तो स्त्री से जीत की स्पर्धा करने की बजाय उस पर एकाधिकार का चमकता हौसला आजमाना पसंद करते हैं। यह और कुछ नहीं सीधे-सीधे छल है, पुरुष बुद्धि छल। आधी आबादी को समाज के बीच नहीं प्रयोगशाला की मेज पर समझने की बेईमानी सोच-समझ की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। जिस रात की घटना का जिक्र पहले किया गया, वहां भी ऐसा ही हुआ। किसी ने महिला-पुरुष के सामाजिक रिश्ते को सामने रखकर उस अकेली दिख रही लड़की के बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि तब सोच की आंखों में सुरूर की बजाय थोड़ा जिम्मेदार सामाजिक होने की सजलता होती। और इस सजलता की दरकार को किस तरह जानबूझकर खारिज किया गया, वह अगले ही कुछ मिनटों में उस रात भी जाहिर हुआ।
असल में, रात के अंधेरे में वह महिला अपने घर के पास उतरने की बजाय कहीं और उतर गई थी। और वह लगातार इस कोशिश में थी कि उसका स्थान और दिशा भ्रम किसी तरह टूटे पर उसकी कोशिश काम नहीं आ रही थी। सो जैसे ही उसकी निगाह हम चारों पर पड़ी, वह थोड़े आश्वस्त भाव से हमारी ओर लपकी । हम खुश भी थे और इस चोर आशंका से भी भर रहे थे कि कहीं वह यह तो नहीं जान गई, जो हम अब तक उसके बारे में बोल-सोच रहे थे। पास आकर जब उसने अपनी परेशानी बताई तो बारी हमारे गलत साबित होने की की थी, शर्मिंदगी की थी। हम बाद में जरूर उस महिला की मदद कर पाए पर उस खामख्याली का क्या जो महिला देखते ही पर तोलने लगते हैं। राणा भी ऐसा ही करते हैं। वह बगैर महिला सच से मुठभेड़ किए उस पर विजय होने का सपना देखते हैं।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

हार्दिक विरोध


अतीत के लिए टेसू बहाने वाली ने
नया शगल अपनाया है-
व्यतीत को कोसने का
शीशे से नजरें मिलाकर
आंखों में आई हौसले की चमक नई
बड़ी है कैनवस पर एक नंगी नायिका के
चरित्र को काढ़ने वाली
हर मीनाकारी से

कल होना आैर कल का होना
उसे न होने देगा आज 
आैर न आज के मन माफिक
कल को ही शक्ल दे सकेगी वह
पलटकर न देखना 
आदत न होती है नदी की
आैर न ही इक्कीसवीं सदी की
किसी तेज-तर्रार स्त्री की

समय ने सभ्यता की अप्सराओं को
बदहवास सताए जाने की
पीड़ा से मुक्त तो नहीं किया
हां बदहवास जीवन को
अघोषित गंतव्य की दिशा
बनाए रखने का महामंत्र जरूर दिया है

कल तक
उसे भोगे जाने का शोक था
आज थाली उसने
खुद अपने हाथों सजाई है
आज उसके पास अपने चुनाव की
तोशक है तकिया-रजाई है

कलकल बहता कल
है सबसे बड़ा झूठ
भविष्य के सत्य दर्शन से
हमारे समय की नायिका का
है लिवइन रिलेशन

एक आधुनिका 
कितनी स्वच्छंद
कितनी निद्र्वंद्व हो सकती है
उसकी हिमाकत
कितनी हो सकती है बोल्ड
अगर पढ़ना है इस लिखावट को तो
उन मेडिकल रिपोर्टों को
मेज पर रखना होगा
जिसमें किसी प्रेमी के बाप बन जाने का डर
किसी आधुनिका के मां बन जाने के
आत्महंता साक्ष्य से खेलता है गलबहियां
कभी सरेआम
तो कभी अंधेरे में लुकाछिपी के साथ

प्रेम की टहनी आैर कली कही जाने वाली
नायिकाओं ने दूसरों के हाथों में अब
रंग-बिरंगे बैलून होने से
कर दिया है इनकार
रोने-बिसुरने आैर तकिए गीले करने का
उनका अनुभव
उनका अवसाद
अब उनका क्षोभ है
यह प्रेम का नहीं
एक प्रेमिका का
अपने समय की कुलीनता के प्रति
हार्दिक विरोध है

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

नंगी पीठ पर


पहला शब्द पुरुष
फिर चुनिंदा फूल
और भीना-भीना प्यार
गोदने की तरह
चमड़ी में उतरे हैं शब्द कई
नीले-नीले हरे कत्थई
नंगी पीठ पर उसकी
थोड़ा ऊपर
बस वहीं
एकदम पास
उत्तेजना की चरमस्थली
स्पर्शसुख का जैकपॉट


सच
शादी की पहली वर्षगांठ पर
वह सिर्फ पति नहीं
उस कला संग्राहलय का
मालिक भी है
जहां के हर बुत में 
उतनी ही जान है
जितनी हथेली और
नाखूनों को चाहिए

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

लीला अनंत रघुनंदन की


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है। रामकथा की यह नई लीला इस साल दिखी भी तो पवित्र नगरी हरिद्वार में। राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ई·ार की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। "दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरवकी रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्रकतग के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देख का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ई·ार रूपों में भेद के कारण ही है। पुत्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोेजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारा और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के ख्रच के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने के थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस, इंडोनैेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।