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रविवार, 22 जुलाई 2012

शनिवार, 21 जुलाई 2012

अच्छा तो हम चलते हैं...!


हिंदी सिनेमा के एक स्टार का कद वास्तविकता से कितना बड़ा हो सकता है, यह सवाल जब भी पूछा जाएगा तो जिक्र सबसे पहले बॉलीवुड के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना उर्फ काका का ही होगा। काका से पहले फिल्मी स्टारडम की ऐसी दीवानगी अगर किसी कलाकार को लेकर पैदा हुई तो वह केएल सहगल थे। राज कपूर, देव आनंद और दिलीप कुमार की त्रयी इनसे अलग है। इन कलाकारों के साथ हिंदी सिनेमा का रचनात्मक सफर ऊंचाइयों पर पहुंचा। पर बात अगर करेंगे सिनेमा के माध्यम से समाज की आंखों में उतरने वाले सपनों की तो राजेश खन्ना इन सपनों के चक्रवर्ती राजा थे। बुजुर्गो ने फिल्म ‘आनंद’ में उनके कैंसर से मरने के दर्दनाक सीन में ‘जिंदगी की पहेली’ को समझा तो युवाओं ने कटी पतंग, आराधना, अमर प्रेम जैसी फिल्मों में राजे-रजवाड़ों के जमाने के प्रेमी नायकों को भूल उनमें नए दौर और समाज का फैशनेबल- रोमांटिक आइकन देखा। मांओं ने अपने बच्चों के नाम ‘राजेश’ रखने शुरू कर दिए। लोकप्रियता की यह हद यहां तक गई कि उस दौर में मुहावरा ही चल पड़ा- ऊपर आका और नीचे काका।
कहने की जरूरत नहीं कि सौ साल के भारतीय सिनेमा के सफर का यह सबसे चमकता सितारा अपने पीछे जो अफसाने छोड़ गया है, वह उनके न रहने के बाद भी उनके चाहने वालों के बीच उनकी मौजूदगी को दशकों तक बहाल रखेगा। दिलचस्प है कि 21वीं सदी में हिंदी सिनेमा का मल्टीप्लेक्स मार्का कल्चर जिस रेट्रो लुक को पर्दे पर उतारने में लगा है, राजेश खन्ना उस रेट्रो दौर के महानायक थे। यह वही दौर था जब हिंदी साहित्य के बड़े कहानीकारों और उपन्यासकारों पर गुलशन नंदा के रोमानी कथानक भारी पड़ रहे थे। जिंदगी की खुरदुरी सचाइयों और चुनौतियों के सामने सिनेमाई रोमांस का जो इंद्रधनुष राजेश खन्ना की फिल्मों ने बनाया, उसकी चर्चा अब लोग एक कीर्तिमान से भी आगे सुनहरी किंवदंती के रूप में करते हैं।
बहरहाल, काका अपने पीछे सिर्फ चमक और लोकप्रियता की धूम ही नहीं छोड़ गए हैं। उनका ‘सफर’ अपने आखिरी मुकाम तक पहुंचते-पहुंचते ‘आनंद’ से दुखांत में बदल गया। भले यह प्रतीकात्मक हो पर अपने हालिया विज्ञापन अवतार में लोग जब ढलती काया और कांपती आवाज में उन्हें यह कहते सुनते हैं कि मेरे फैंस मुझसे कोई नहीं छीन सकता तो साफ लगता है कि अपने उजास के दिन बीत जीने के बाद भी राजेश खन्ना को तलाश उसी चौंध की थी, जो कभी उनके नाम के जिक्र मात्र से पैदा हो जाया करती थी।
 काका अपने ही दौर के कई सितारों के मुकाबले इस मामले में निहायत ही अविवेकी साबित हुए कि उन्हें ‘अपने समय’ को मुट्ठी में भरने के आत्मविास का एहसास तो खूब हुआ पर उसे रेत की तरह मुट्ठी से फिसलते जाने का पता ही नहीं चला। सत्तर के दौर में चढ़ा उनका जादू अस्सी के दौर के बीतते-बीतते पूरी तरह उतार पर था। न वह बदलते समय, समाज और सिनेमा को समझ सके और न ही अपनी निजी जिंदगी में बदलती वास्तविकताओं से समन्वय बैठा पाए। यहां तक कि राजनीति का रुख भी उन्होंने किया पर मैदान बीच में ही छोड़ चले। आज जब काका नहीं हैं तो उनके यादगार गानों और संवादों की हर तरफ चर्चा है।
बीते दौर की इस गूंज-अनगूंज को सुनकर जेहन में आखिरी बात यही आती है कि जीवन के कुछ चित्र भले सदाबहार हों पर उसकी वास्तविकता इतनी ही कोमल और सब्ज कभी नहीं होती।
                                     (राष्ट्रीय सहारा  19.07.2012)

रविवार, 15 जुलाई 2012

प्रभाष जोशी के बहाने हिंदी पत्रकारिता से एक मुठभेड़


हिंदी की आलोचकीय बहस में अकसर दो बातों की चर्चा होती है- लोक और परंपरा। हिंदी के निर्माण और इसकी रचना प्रक्रिया में ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ देखने की तार्किक दरकार पर जोर देने वाले डॉ. रामविलास शर्मा ने जरूर इससे आगे बढ़कर कुछ जातीय तत्वों और सरोकारों पर ध्यान खींचा है। पर कायदे से हिंदी की यह जातीय शिनाख्त भी लोक और परंपरा के बाहर का नहीं बल्कि उसके भीतर का ही गुणतत्व है। इसी तरह, गौर करने लायक एक बात यह भी है कि हिंदी में पत्रकारिता का विकास भी उसके बाकी तमाम रचनात्मक रूपों के तकरीबन साथ ही हुआ। भारतेंदु और द्विवेदी के दौर की रचनात्मकता के साथ पत्रकारिता के विकास को अलगाकर नहीं देखा जा सकता बल्कि बाद में अस्सी के दशक के आसपास जब खबर और साहित्य ने अलग से अपनी जगह घेरनी शुरू की तो भी दोनों जगह कलम चलाने वालों का गोत्र एक ही रहा।
फिर यह विभाजन अलगाववादी न होकर लोकतांत्रिक तौर पर एक-दूसरे के लिए भरपूर सम्मान, स्थान और अवसर मुहैया कराने के लिए था। यही कारण रहा कि इस दौर में एक तरफ जहां धूम मचाने वाली आधुनिक धज की साहित्यिक पत्रिकाओं ने ऐतिहासिक सफलता पाई तो वहीं उस दौरान की समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने लोकप्रियता और श्रेष्ठता के सार्वकालिक मानक रचे। खासतौर पर देशज भाषा, संवेदना और चिंता के स्तर पर इस दौर की हासिल मानकीय श्रेष्ठता ने आधुनिक हिंदी पत्रकारिता की संभावना की ताकत को जाहिर किया। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद स्वतांत्र्योत्तर भारत का यह सबसे सुनहरा दौर था हिंदी पत्रकारिता के लिए और विशुद्ध साहित्य से आगे की वैकल्पिक रचनात्मकता के लिए। इसके बाद आया ज्ञान को सूचना आैर खबर की तात्कालिकता में समाचार की पूरी अवधारणा को तिरोहित करने वाला ग्लोबल दौर : जिसमें एक तरफ नजरअंदाज हो रही सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिताओं का संघर्ष सतह पर आया तो वहीं चेतना और अभिव्यक्ति के पारंपरिक लोक के लोप का खतरा बढ़ता चला गया।
हिंदी के रचनात्मक लेखन और पत्रकारिता के इस संक्षिप्त सफर को ध्यान में रखना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके बिना हम हर दस माइल पर एक नया संस्करण बेचने वाले हिंदी अखबारों के आज से मुठभेड़ नहीं कर सकते। जिसे हम भाषाई पत्रकारिता कहते हैं, वह अंग्रेजी से नितांत अलग है। खड़ी बोली के तौर पर तनी हिंदी की मुट्ठी उस राष्ट्रप्रेम की भी प्रतीक है, जिसमें देश की कोई सुपर इंपोज्ड या इंलाज्र्ड छवि नहीं बल्कि गंवई-कस्बाई निजता मौलिकता को अखिल भारतीय हैसियत की छटा देने की क्रांतिकारी रचनात्मकता हमेशा जोर मारती रही है। बोलियां अगर हिंदी की ताकत है तो इसे बोलने वालों की जाति और समाज ही हिंदी की दुनिया है।
खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं संवाद
यहां यह भी साफ होने का है कि विचार और संवेदना के स्तर पर हिंदी विश्व संवाद के लिए हमेशा तैयार रही है पर यह संवाद कभी भी खुद को बाद करने की शर्त पर नहीं हुआ है। इसे एक उदाहरण से समझें। सुरेंद्र प्रताप सिंह तब 'नवभारत टाइम्स" में थे। संस्करण के लिए खबरों की प्राथमिकता तय करने के लिए न्यूज रूम में संपादक और समाचार संपादकों की टीम बैठी। एक खबर थी कि दिल्ली के किसी इलाके में कार में युवक-युवती 'आपत्तिजनक' स्थिति में पकड़े गए। सवाल उठा कि इस खबर की हेडिंग क्या हो? किसी ने सुझाया कि खबर में आपत्तिजनक शब्द आया है, यही हेडिंग में आ जाए पर बात नहीं बनी। कहा गया कि अगर दोनों बालिग हैं और उनकी राजी-खुशी है तो फिर उनके कृत्य पर आपत्ति किसे है? इस पर किसी ने खबर के भारीपन को थोड़ा हल्का करने के लिए कहा कि लिख दिया जाए कि युवक-युवती 'मनोरंजन' करते धरे गए। फिर बात उठी कि कृत्य को तन के बजाय मन से जोड़ना तथ्यात्मक रूप से गलत होगा। आखिर में तय हुआ कि 'तनोरंजन' शब्द लिखा जाए। भाषा को अभिव्यक्ति की ऐसी दुरुस्त कसौटी पर कसने की तमीज और समझ को आज अनुवाद और अनुकरण की दरकार के आगे घुटने टेकने पड़ रहे हैं।
आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की अलख तकरीबन दो दशकों तक हिंदी में कलम के सिपाहियों ने उठाई। पर यहां यह समझना जरूरी है कि हिंदी की प्रखरता का एक मौलिक तेवर विरोध और असहमति है। दशकों की आैपनिवेशिक गुलामी से मुठभेड़ कर बनी भाषा की यह ताकत स्वाभाविक है। इसलिए अपने यहां नेहरू युग के अंत होते-होते राष्ट्र निर्माण की एक 'असरकारी' और वैकल्पिक दृष्टि की खोज हिंदी के लेखक-पत्रकार करने लगे और उन्हें डॉ. राम मनोहर लोहिया की समाजवादी राह मिली। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद हिंदी में यह रचनात्मक प्रतिबद्धता से सज्जित सिपाहियों की पहली खेप थी। जिन लोगों ने 'दिनमान' के जमाने में फणीश्वरनाथ रेणु जैसे साहित्यकारों की रपट और लेख पढ़े हैं, उन्हें मालूम है कि अपने हाल को बताने के लिए भाषाई औजार भी अपने होने चाहिए। बाद में विचारवान लेखकों-पत्रकारों के इस जत्थे में जयप्रकाश आंदोलन से प्रभावित ऊर्जावान छात्रों की खेप शामिल हुई।
पत्रकारिता या सामाजिक कार्यकर्ता
आज यह बहस अकसर होती है कि क्या एक जर्नलिस्ट को एक्टिविस्ट की भूमिका निभाने की लक्ष्मण रेखा लांघनी चाहिए यानी यह जोखिम मोल लेना चाहिए? दुर्भाग्य से पत्रकारिता को 'मिशन' और 'प्रोफेशन' बताने वाली उधार की समझ रखने वाले आज मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींचने से बाज नहीं आते और देश-समाज का जीवंत हाल बताने वालों को उनकी सीमाओं से सबसे पहले अवगत कराते हैं। जबकि अपने यहां लिखने-पढ़ने वालों की एक पूरी परंपरा है, जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता महज 'कागद कारे' करने से कभी पूरी नहीं हुई। बताते हैं कि चंडीगढ़ में प्रभाष जोशी नए संवाददाताओं की बहाली के लिए साक्षात्कार ले रहे थे। एक युवक से उन्होंने पूछा कि पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? युवक का जवाब था, 'आंदोलन करने के लिए। परिवर्तन की ललक हो तो हाथ में कलम, कुदाल या बंदूक में से कोई एक तो होना ही चाहिए।' कहने की जरूरत नहीं कि युवक ने प्रभाष जी को प्रभावित किया। आज किसी इंटरव्यू पैनल के आगे ऐसा जवाब देने वालों के लिए अखबार की नौकरी का सपना कितना दूर चला जाएगा, पता नहीं।
न्यू मीडिया
आखिर में बात सूचना तकनीक के उस भूचाली दौर की जिसमें  कंप्यूटर और इंटरनेट ने भाषा और अभिव्यक्ति ही नहीं विचार के एजेंडे भी अपनी तरफ से तय करने शुरू कर दिए हैं। अंग्रेजी के लिए यह भूचाल ग्लोबल सबलता हासिल करने का अवसर बना तो हिंदी की भाषाई ताकत को सीधे वरण, अनुकरण और अनुशीलन के लिए बाध्य किया जा रहा है। कमाल की बात है कि इस मजबूरी के गढ़ में भी पहली विद्रोही मुट्ठी तनी तो उन हिंदी के उन कस्बाई-भाषाई शूरवीरों ने जिन्हें ग्लोब पर बैठने से ज्यादा ललक अपनी माटी-पानी को बचाने की रही। जिसे आज पूरी दुनिया में 'न्यू मीडिया' कहा जा रहा है, उसका हिंदी रूप ग्लोबल एकरूपता की दरकार के बावजूद काफी हद तक मौलिक है। यहां अभी थोड़ी भटकाव की स्थिति जरूर है पर यहां से थोड़ी रोशनी जरूर छिटकती दिखती है, उस मान्यता पर अब भी अटूट आस्था रखने वालों के लिए जिनकी परंपरा का दूध पीने से हासिल बलिष्ठता को किसी भी अखाड़े में उतरने से डर नहीं लगता।


 हस्तक्षेप (राष्ट्रीय सहारा) 14.07.2012

रविवार, 8 जुलाई 2012

आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ !

रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ, आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ'- मेहदी हसन की गाई यह मशहूर गजल उनके इंतकाल के बाद बरबस ही उनके चाहने वालों को याद हो आती है। उनका जन्म 1927 में हुआ तो था भारत में, राजस्थान के लूणा गांव में। पर 1947 में मुल्क के बंटवारे के वक्त वे पाकिस्तान चले गए। अपनी माटी-पानी से दो दशक का उनका संबंध उन्हें ताउम्र आद्र करता रहा। बताते हैं कि जब सत्तर के दशक में वे अपने पैतृक गांव को देखने आए तो सड़क न होने के कारण उन्हें गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई।
अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। करीब 12 साल हो गए भारत में उनका कोई कार्यक्रम नहीं हुआ। आखिरी बार 2005 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में। अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। वे लगातार बीमार चल रहे थे। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। संगीत के जानकारों की नजर में बेगम अख्तर के बाद गजल गायकी की दुनिया को यह सबसे बड़ा आघात है।
कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने होकर सुना, वह उसकी जिंदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया। मेहदी हसन की गायकी पर राजस्थान के  कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं, मेहदी की आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सीखा सकती है।
बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस महान कलाकर की मौत के बाद जहां एक तरफ संगीत की दुनिया में एक भारीपन पसरा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने उनकी जिंदगी के निहायत निजी पन्ने उलटते हुए कुछ अप्रिय विवादों को जन्म देना चाहा है। यह सच है कि मेहदी की जिंदगी पर संघर्ष और मुफलिसी का साया हमेशा रहा। पर इनकी वजहों का सच टटोलने से बड़ी बात है, वह लगन आैर साधना जिसने उन्हें गजल की दुनिया की शहंशाही तक का जन खिताब दिलाया।  

बीस हजार पार पूरबिया


2009 के मई-जून में
जब सफर शुरू किया था 'पूरबिया' का
तो अंदाजा नहीं था
कि सफर इतना रोचक होगा
और समय के साथ
यह मेरी पहचान बन जाएगा

अब जबकि पूरबिया को
बीस हजार से ज्यादा हिट
हासिल हो चुके हैं
लोगों की इस सफलता पर
शुभकामनाएं मिल रही हैं
तो अभिभूत हूं यह देखकर
कि लोग एक अक्षर यात्रा के जारी रहने को
हमारे समय की एक बड़ी घटना मानते हैं

विचार, कविता, टिप्पणी
ये सब वे बहाने हैं
जो चेतना को बचाए रखने के लिए
नए दौर में एक जरूरी कार्रवाई बन गयी है
'पूरबिया' मेरे लिए
और कुछ मेरे जैसों के लिए
ऐसी ही एक कार्रवाई है
इस कार्रवाई को मिले समर्थन
सहयोग के लिए
सभी साथियों...साथिनों का आभार

पूरबिया आगे भी बहती रहेगी
अपनी महक
अपने तेवर 
अपने सरोकारों के साथ
आपके बीच
आपके साथ

रविवार, 1 जुलाई 2012

मां को एक दिवसीय प्रणाम

किसी को अगर यह शिकायत है कि परंपरा, परिवार, संबंध और संवेदना के लिए मौजूदा दौर में स्पेस लगातार कम होते जा रहे हैं, तो उसे नए बाजार बोध और प्रचलन के बारे में जानकारी बढ़ा लेनी चाहिए। जो सालभर हमें याद दिलाते चलते हैं कि हमें कब किसके लिए ग्रीटिंग कार्ड खरीदना है और कब किसे किस रंग का गुलाब भेंट करना है। बहरहाल, बात उस दिन की जिसे मनाने को लेकर हर तरफ चहल-पहल है। मदर्स डे वैसे तो आमतौर पर मई के दूसरे रविवार को मनाने का चलन है। पर खासतौर पर स्कूलों में इसे एक-दो दिन पहले ही मना लिया गया ताकि हफ्ते की छुट्टी बर्बाद न चली जाए।
रही बात भारतीय मांओं की स्थिति की तो गर्दन ऊंची करने से लेकर सिर झुकाने तक, दोंनो तरह के तथ्य सामने हैं। कॉरपोरेट दुनिया में महिला बॉसों की गिनती अब अपवाद से आगे कार्यकुशलता और क्षमता की एक नवीन परंपरा का रूप ले चुकी है। सिनेजगत में तो आज बकायदा एक पूरी फेहरिस्त है, ऐसी अभिनेत्रियों की जो विवाह के बाद करियर को अलविदा कहने के बजाय और ऊर्जा-उत्साह से अपनी काविलियत साबित कर रही हैं। देश की राजनीति में भी बगैर किसी विरासत के महिला नेतृत्व की एक पूरी खेप सामने आई है। पर गदगद कर देने वाली इन उपलब्धियों के बीच जीवन और समाज के भीतर परिवर्तन का उभार अब भी कई मामलों में असंतोषजनक है।
आलम यह है कि मातृत्व को सम्मान देने की बात तो दूर देश में आज तमाम ऐसे संपन्न, शिक्षित और जागरूक परिवार हैं, जहां बेटियों की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है। अभी इसी मुद्दे पर टीवी पर अभिनेता आमिर खान के शो की हर तरफ चर्चा है। रही जहां तक प्रसव और शिशु जन्म की बात तो यहां भी सचाई कम शर्मनाक नहीं है। देश में आज भी तमाम ऐसे गांव-कस्बे हैं, जहां प्रसव देखभाल की चिकित्सीय सुविधा नदारद है। जहां इस तरह की सुविधा है भी वहां भी व्यवस्थागत कमियों का अंबार है। सेव द चिल्ड्रेन ने अपनी सालाना रिपोर्ट वल्ड्र्स मदर्स-2012 में भारत को मां बनने के लिए खराब देशों में शुमार करते हुए उसे 80 विकासशील देशों में 76वें स्थान पर रखा है। स्थिति यह है कि देश में 140 महिलाओं में से एक की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है। स्वास्थ्य सेवा की स्थिति इतनी बदतर है कि मात्र 53 फीसद प्रसव ही अस्पतालों में होते हैं। ऐसे में जो बच्चे जन्म भी लेते हैं, उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों में 43 फीसद बच्चे अंडरवेट हैं।
टीयर-2 देशों की बात करें तो सर्वाधिक बाल कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं। ऐसी दुरावस्था में हमारी सरकार अगर देशवासियों को मदर्स डे की शुभकामनाएं देती है और समाज का एक वर्ग इस एक दिनी उत्साह में मातृत्व के प्रति आैपचारिक आभार की शालीनता प्रकट करने में विनम्र होना नहीं भूलता तो यह देश की तमाम मांओं के प्रति हमारी संवेदना के सच को बयां करने के लिए काफी है।