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सोमवार, 2 सितंबर 2013

ओम पुरी का अर्ध सत्य

चेहरा खुरदरा। पर आवाज इतनी वजनदार कि कहीं भी एक जोशीली मौजूदगी के एहसास से भर दे। सार्थक सिनेमा का मनोरंजक प्रहसन में बदलना और ओमपुरी की जिंदगी एक-दूसरे के लिए आईने की तरह रहे। कभी चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी कराने से इनकार कर फिल्मी दुनिया में काम करने के अलिखित करारनामे को चुनौती देने वाले इस अभिनेता की गृहस्थी आज कई चुनौतियों से घिर गई है। उनकी बोलते-बोलते बहकने की आदत से तो देश की संसद तक परिचित है पर वे घर में इससे भी ज्यादा विचलन के शिकार हैं, यह आरोप उन पर उनकी पत्नी नंदिता का है। 
अपनी शिकायत में नंदिता ने पति पर हिंसक होने और आर्थिक रूप से परेशान करने का आरोप लगाती हैं। ओमपुरी की सफाई इस पर नकार से भरी है। वे उलटे कहते हैं कि नंदिता एग्रेसिव नेचर की है और मेरे अस्वस्थ होने के बावजूद वह पैसे लुटाने और विदेशों में छुट्टियां बिताने के शौक को हर हाल में पूरी करती रही है। ऐसे मामलों में सत्य इधर या उधर की जगह कहीं बीच में टिका होता है। यानी हर पक्ष का सत्य आधा-अधूरा होता है। इसलिए किसी तुरत-फुरत नतीजे पर पहुंचना खतरे से खाली नहीं। हां, इतना जरूर है कि पर्दे पर संवेदना की इंच-इंच जमीन सींच देने वाले इस बड़े कलाकार की यह गत देखकर अफसोस तो होता ही है। 
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब ओम पुरी अंबाला में अपने नए बनाए घर को कुछ पत्रकार मित्रों को दिखाकर खुश हो रहे थे। वे थोड़ी भावुकता से बता रहे थे, 'रिटायरमेंट तो अपनी माटी-पानी के साथ ही बीतना चाहिए।...बहुत हो गया मुंबई-मुंबई और अब नहीं।’ पर लगता है कि जीवन की थकान को जिस ठहराव की ओर वे ले जाना चाहते हैं, वह संयोग उनकी कुंडली में ही नहीं है। नहीं तो एक के बाद एक ऐसी खबरें या घटनाएं सामने नहीं आतीं जो इस कलाकार के कद से पूरी तरह बेमेल हों।
1946 में अंबाला में एक साधारण से परिवार में जन्मे ओम पुरी सिनेमा की दुनिया में थिएटर के रास्ते दाखिल हुए। नसीरुद्दीन शाह और वे एक ही खेप के कलाकार हैं। तीस साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली फिल्म की 'घासीराम कोतवाल’। मेहनाताना मिला मूंगफली का एक डोंगा। तब सार्थक फिल्मों का दौर था और इनका बजट इतना कम होता था कि बस जैसे-तैसे फिल्म पूरी हो पाती थी। निर्माता, निर्देशक या कलाकार के हिस्से कुछ आता था सम्मान और चर्चा जो उनकी फिल्म और उसमें उनके प्रदर्शन को लेकर होती थी। इस दौर की सुनहली इबारतों को लिखने वालों में ओम पुरी का नाम काफी ऊपर है। पर इस कलात्मक संतोष ने ही उस असंतोष को जन्म दिया, जिसका निदान ढूंढने वे व्यावसायिक फिल्मों की तरफ निकल पड़े। 
पैसा और सुविधा के बिना नई 'उदार दुनिया’ आपके जीने के लिए कितने मुश्किलात खड़ी करती है, ओम पुरी का फिल्मी सफरनामा इसे बयां करता है। अलबत्ता फिल्मी ग्लैमर और स्टार इमेज की चौंध के बीच भी कहीं कुछ सार्थक बचाया जा सकता है, यह मुमकिन भी इसी सफरनामे का हिस्सा है। विडंबना इस बात को लेकर ज्यादा है कि सादगी, समन्वय और सिनेमा के कठिन त्रियक को समान भाव से नापने वाले इस अप्रतीम कलाकार के निजी जीवन में यही समन्वय नहीं बन पाया। 
प्रेम और परिवार के साझे को पूरा करने वाले भरोसे पर संभव है कि ओम पुरी अपनी पत्नी से ज्यादा खरे नहीं उतरे हों, पर इसका क्या कि इससे एक बड़ी कलात्मक संभावना और उसकी यात्रा असमय ही 'सद्गति’ को प्राप्त कर जाए। अगर ऐसी ही कुछ सूरत ओम पुरी की जिंदगी की है तो उस पर अफसोस तो किसी भी कलाप्रिय और संवेदनशील आदमी को होगा। 


 

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा



शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्ते में कितनी पारदर्शिता रहे, इसका अब व्यावहारिक रास्ता निकाल लिया गया है। रेडियो-टीवी पर बैठे लव गुरुओं और मैरिटल काउंसलरों की भी सलाह ऐसी ही है। साफ तौर पर हिदायत दी जा रही है कि जो कहने-बताने से रिश्ते पर आंच न आए, वही सही है। पर यहां भी एक पेच है। शेखी की तरह सचाई बघारने वाले ज्यादातर पुरुषों को अपने पिछले रिलेशन और अफेयर के बावजूद अपनी पत्नियों से परेशानी का खतरा न के बराबर होता है। इसके उलट महिलाओं को यह हिदायत दी जाती है कि पुरुष ऐसे ही होते हैं, यहां-वहां और जब-तब मुंह मारने वाले। सो उसके किए पर अफसोस क्यों? चाहे जैसे हो बचा लो रिश्ता और इस तरह पेश आओ कि तुम्हारा पति तुम्हारे काबू में रहे, बहके नहीं। और अगर बहके भी तो लौट के बुद्धु घर को आए की तरह।
रजनी एक अध्यापिका है और उसका पति इंश्योरेंस एजेंट। रजनी ने टीवी पर आने वाले  मैरिटल काउंसिलिंग के कार्यक्रम में बैठे विशेषज्ञों के आगे अपनी परेशानी रखी। उसकी शादी उसके साथ पढ़ने वाले लड़के से होनी थी। दोनों के बीच तकरीबन चार-पांच साल नजदीकी ताल्लुकात रहे। अफेयर भी कह सकते हैं। पर जब शादी की बात चली तो लड़के के घर वाले नहीं माने। रजनी आज अपने शादीशुदा जीवन के आगे सब कुछ भूल चुकी है। उसकी एक बेटी स्कूल जाती है। पर उसका पति आज भी उसे अपने प्रति पूरी तरह वफादार नहीं मानता। उसे इस बात पर आए दिन पति से प्रताड़ित होना पड़ता है। दरअसल, रजनी ने एक ही गलती कि उसने अपने जीवनसाथी को शादी के कुछ ही दिनों बाद सब कुछ बता दिया। छह साल पहले कहा सच आज भी उसकी शादीशुदा  जिंदगी को ग्रास रहा है। रजनी जैसी युवतियों से हमदर्दी रखने वाले भी यही कहते हैं कि पति के साथ सब कुछ शेयर करना जरूरी नहीं है। पुरुषों के लिए तो बदचलनी की गाली भी गिनती के ही हैं, पर महिलाओं की बोलती बंद करने के लिए उन्हें बदचलन ठहराना घर से बाहर कया घर के अंदर भी सबसे आसान औजार है।
हाल में स्वयंवर सीजन में लोगों ने राहुल महाजन की शादी का रियल ड्रामा टीवी पर देखा। राहुल के लिए शादी का यह पहला मौका नहीं था। और लड़कियों से अफेयर के मामले में तो वह और भी पहुंचा हुआ रहा है। पर उससे शादी का ख्वाब सजाने वाली किसी भी लड़की को इस बात से शिकायत नहीं थी। इस मुद्दे पर कोई चर्चा भी नहीं हुई। आप सोचकर देखें, राहुल का सच किसी लड़की का होता तो क्या होता? अव्वल तो उसे इस टीवी शो का हिस्सा ही नहीं बनाया जाता। अगर बनाया भी जाता तो वरमाला कम से कम उसके गले में तो राहुल नहीं डालता। यह एक तरफ तो नए दौर का टीआरपी मार्का मनोरंजन का सच है तो दूसरी ओर यह रियलिटी उस पुरुष मानसिकता की भी है जिसे अपने उपर कभी कोई खरोंच बर्दाश्त नहीं भले खुद उसके नाखून बढ़ते रहें। 

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

डेढ़ लाख का सपना और इराक वार


कोख के हिस्से आया यह एक और शोक, एक और त्रासदी है। इंदौर में सरोगेसी के धंधे का तब एक और सियाह चेहरा सामने आया जब पता चला कि भ्रूण हिंसा ने यहां भी अपनी गुंजाइश निकाल ली है। इस शहर की एक महिला सपना नवीन झा ने एक डाक्टर के मार्फत एक बड़े कारोबारी के साथ डेढ़ लाख रुपए में किराए की कोख का मौखिक करार किया। शर्त के मुताबिक अगर गर्भ ठहरने के तकरीबन ढाई महीने बाद करवाई गई सोनोग्राफी में गर्भ में लड़के की जगह लड़की होने का पता चलता है तो अबार्शन कराना होगा। जिसका खतरा था, वही हुआ भी। सपना को ढाई महीने बाद गर्भ गिराने के लिए तैयार होना पड़ा। पर उसे अफसोस इसलिए नहीं था क्योंकि ऐसा करने पर भी उसे 25 हजार रुपए की आमदनी हुई। सपना ने यह सब अपनी तंगहाली से आजिज आकर किया था, सो 25 हजार रुपए की आमद भी उसके लिए कम सुकूनदेह नहीं थी।
इस पूरे मामले का खुलासा जिस तरह हुआ, वह एक और बड़ी ट्रेजडी है। इस बारे में लोगों को पता तब चला जब सपना का नाम धार के पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और कांग्रेस नेता कैलाश अग्रवाल हत्याकांड में उछला और वह पुलिसिया गिरफ्त में आ गई।  जिंदगी के इस खतरनाक मोड़ पर सपना ने आपबीती में  बताया कि वह मुफलिसी से लड़ते हुए कैसे कोख के सौदे और फिर भ्रूण हत्या के लिए तैयार हो गई। उसने बताया कि किराए का गर्भ गिराने के बाद वह एक बार फिर से अपनी कोख को किराए पर देने के लिए तैयार थी लेकिन ऐसा करने के लिए उसे कम से कम पांच महीने रुकना पड़ता। सपना दोबारा सरोगेट मदर बनने का सोच ही रही थी कि अग्रवाल हत्याकांड ने उसे जिंदगी के एक और खतरनाक मोड़ पर खड़ा कर दिया।
इस पूरे मामले में एक खास बात यह भी है कि सपना अपनी जिंदगी से परेशान जरूर है पर उसे अपने किए का कतई अफसोस नहीं है। शायद उसकी जिंदगी को मुफलिसी ने इस कदर उचाट बना दिया है कि ममता और संवेदना जैसे एहसास उसके लिए बेमतलब हो चुके हैं। एक महिला की जिंदगी क्या इतनी भी त्रास्ाद हो सकती है कि वह कोख से जुड़ी संवेदना को भी अपनी जिंदगी के शोक के आगे हार जाए। 
दरअसल, यह पूरा मामला औरत की जिंदगी के आगे पैदा हो रहे नए खतरों की बानगी भी है। सरोगेसी सपना के लिए शगल नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी। डेढ़ लाख रुपए की हाथ से जाती कमाई में से कम से कम 25 हजार उसकी अंटी में आ जाए, इसलिए गर्भ गिराने की क्रूरता को भी उसने कबूला। ...तो क्या एक महिला की संवेदना उसकी मुफलिसी के आगे हार गई या उसके संघर्ष के लिए एक पुरुष वर्चस्व वाली आर्थिक-सामाजिक स्थितियों में बहुत गुंजाइश बची ही नहीं थी। एक करोड़पति पुरुष का अपना वंश चलाने के सपने की सचाई कितने "सपनों' को रौंदने जैसी है, यह समझना जरूरी है।
याद आता है वह दौर जब अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश इराक को जंग के मैदान में सद्दाम हुसैन समेत अंतिम तौर पर रौंदने के लिए उतावले थे। अखबार के दफ्तर में रात से खबरें आने लगी कि अमेरिका बमबारी के साथ इराक पर हमला बोलने जा रहा है। इराक से संवाददाता ने खबर भेजी कि वहां के प्रसूति गृहों में मांएं अपने बच्चों को छोड़कर भाग रही हैं। खबर की कॉपी अंग्रेजी में थी, लिहाजा आखिरी समय में बिना पूरी खबर पढ़े उसके अनुवाद में जुट जाने का अखबारी दबाव था। अनुवाद करते समय जेहन में लगातार यही सवाल उठ रहा था कि ममता क्या इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि वह युद्ध जैसी आपद स्थिति में बच्चों की छोड़ सिर्फ अपनी फिक्र करने की खुदगर्जी पर उतर आए।
पूरी खबर से गुजरकर यह एहसास हुआ कि यह तो ममता की पराकाष्ठा थी। प्रसूति गृहों में समय से पहले अपने बच्चों को जन्म देने की होड़ मची थी। जिन महिलाओं की डिलेवरी हो चुकी थी, वह अपने बच्चों को  छोड़कर जल्द से जल्द घर पहुंचने की हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें अपने दूसरे बच्चों और घर के बाकी सदस्यों की फिक्र खाए जा रही थी। वे अस्पताल में नवजात शिशुओं को छोड़ने के फैसला इसलिए नहीं कर रही थी कि उनके आंचल का दूध सूख गया था। असल में युद्ध या बमबारी की स्थिति में कम से कम वह अपने नवजातों को नहीं खोना चाहती थीं। उन्हें भरोसा था कि अमेरिका इराक के खिलाफ जब हमला बोलेगा तो कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर मानेगा कि वह अस्पतालों और स्कूलों को बख्श दे। युद्ध छिड़ने से पहले प्रीमैच्योर डिलेवरी का महिलाओं का फैसला भी इसलिए था कि बम धमाकों के बीच कहीं गर्भपात जैसे खतरों का सामना उन्हें न करना पड़े। सचमुच मातृत्व संवेदना की परीक्षा की यह चरम स्थिति थी जिससे गुजरते हुए इराकी महिलाएं मानवीयता का सर्वथा भावपूर्ण सर्ग रच रही थीं।
सपना नवीन झा के मामले में पहली नजर में यह संवेदना दांव पर हारती दिखती है। पर अगर ऐसा दिखता है तो यह महिला स्थितियों को समझने में एक और बड़ा धोखा है। सपना से जुड़ा वाकिया दरअसल एक और खतरनाक मिसाल है कि हम एक महिला की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए किन-किन हदों तक जा सकते हैं। पैसे के बदले देहसुख मुहैया कराने के रूप में शुरू हुए दुनिया के सबसे पहले पेशे से लेकर किराए की कोख के सौदे तक की महायात्रा में आर्थिक मोर्चे पर महिलाओं की लाचारी के जितने भी पड़ाव हैं, वे सब एक पुरुष वर्चस्ववादी समय और समाज में महिला जीवन की विडंबनाओं की ही असलियत खोलते हैं।  सपना जैसी महिलाओं पर किसी पूर्वाग्रही और कठोर नजरिए से पहले हमें उन सचाइयों के प्रति ईमानदार होना होगा जो न सिर्फ महिला विरोधी हैं बल्कि संवेदना विरोधी भी।  याद रखें कि बहुत खतरनाक होता है किसी "सपने' का यूं ही  मर जाना।      

रविवार, 3 अक्टूबर 2010

क्लिंटन पीढ़ी का मर्द


तुम्हें तो पंख मिले हैं फितरतन
जाओ न उड़ो तुम भी
कहो कि मेरा है आकाश

क्यों
आखिर क्यों चाहिए तुम्हें
उतनी ही हवा
जितनी उसके बांहों के घेरे में है
क्यों है जमीन उतनी ही तुम्हारी
जहां तक वह पीपल घनेरा है

सुनी नहीं बहस तुमने टीवी पर
बिन ब्याही भी पूरी है औरत
क्या बैर है तुम्हारा उन सहेलियों से
जिनके पर्स में रखी माचिस
कहीं भी और कभी भी
चिंगारी फेंकने के लिए रहती है तैयार

बताओ आखिर
क्या मतलब है इसका
कि एक आईना भी नहीं है तुम्हारे पास
उसे छोड़कर
जिसमें तुम संवर सको
मलिका बन सको दुनिया जहान की

तुमने तो देखी भी नहीं होगी
टांगें अपनी ऊपर से नीचे तक
पता भी है तुम्हें
कि जिन अलग-अलग नंबरों से
घेरती-बांधती हो खुद को
उसका जरूरत से ज्यादा बटनदार होना
आजादी की असीम संभावनाओं का गला घोंटना है

जानती नहीं तुम
कि छलनी से चांद निहारने की आदत तुम्हारी
आक्सीजन में मिलावट है उसके लिए
खांसने लगता है वह
हांफती है जिंदगी उसकी
तुम्हारे बस उसके कहलाने से

तुम भले बनना चाहो उसकी मैना
वह तुम्हारे दरख्त का तोता नहीं बन सकता
वन बचाओ मुहिम का एक्टिविस्ट वह
जंगली है पूरी तरह से

तुम्हें अहसास नहीं शायद
कि बेटी हो तुम उस सौतेली सोच की
जो पूरी जिंदगी सोखा आती है
अपने बाप का हुलिया जानने में
माफ करना साथिन
बिल क्लिंटन की पीढ़ी का मर्द
इससे ज्यादा ईमानदार नहीं हो सकता
कि रात ढले तक तुम्हें
अपनी दबोच से आजाद रखे

बुधवार, 18 अगस्त 2010

बीवी, वह मेरी


परदा नहीं टीवी का
न मॉल की स्वचालित सीढ़ी है
न छवियों का विज्ञापनी फरेब
अदाओं का आंचल भी नहीं
पेंटिंग में बरसता बादल भी नहीं

बीवी है वह मेरी
मेरी फिसलन के खिलाफ
जेहादी विद्रोह की तरह
सांझ की घुंघट से निकलते
सुनहरे भोर की तरह

सपनों की किनारी से चमकती
आंखों में बसा भरोसे का सुरूर
पिघलते बर्फ के मौसम में भी
गरमाहट का गुरूर
बीवी है वह मेरी
मियादी बुखारों
बरसाती विचलनों के खिलाफ
मेरे लिए अभेद सुरक्षा चक्र की तरह

पति के अज्ञान को माफ करने वाला
पत्नी का विज्ञान
किताबें नहीं परिवार रचती हैं
सिंदूरी साथ का अभिमान कितना उदार
कि बीवी मेरी अपने लिए नहीं
मेरे लिए सजती है

18.08.10