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सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

पहले राजीनामा फिर शादीनामा


बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

पनघट-पनघट पूरबिया बरत


पानी पर तैरते किरणों का दूर जाना
और तड़के ठेकुआ खाने रथ के साथ दौड़ पड़ना
भक्ति का सबसे बड़ा रोमांटिक यथार्थ है
आलते के पांव नाची भावना
ईमेल के दौर में ईश्वर से संवाद है

मुट्ठी में अच्छत लेकर मंत्र तुम भी फूंक दो
पश्चिम में डूबे सूरज की पूरब में कुंडी खोल दो...


दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।'
वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरने वाली जनता ने अपने लिए जो उम्मीद जुटाई, सियासी आकाओं ने उस उम्मीद को सफेद से स्याह करने में अपनी पूरी ताकत झांक दी। फिर सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में जिस दुनिया में रौनक और  चहल-पहल ज्यादा बढ़ी है  उसके 'विकसित हठ' और 'पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस' और 'लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है ।
हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वैश्विक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं।

पनघट-पनघट पूरबिया बरत
बहुत दूर तक दे गयी आहट

शहरों ने तलाशी नदी अपनी
तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी
गाया रहीम ने फिर दोहा अपना
ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...


बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, 'लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है।
कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

तुम सीटी बजाना छोड़ दो !


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीजिंग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों   से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है  
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

महात्मा की लीक पर ब्रह्मचारी प्रतीक


गांधी के ब्रह्मचर्य  प्रयोग पर सवाल और विवाद की धुंध आज भी छटी नहीं है। किताबें जो महात्मा के जीवन को लेकर लगातार आ रही हैं, उनमें उनके इस प्रयोग को हॉट सेक्सुअल टॉपिक  की तरह उठाया गया है। किताब को बेस्ट सेलर का तमगा दिलाने के लिए लेखकों ने गांधी के लिखे पत्र और लेख तो क्या हर उस वाक्य को खंगाला है जहां कहीं भी उन्होंने किसी महिला का नाम लिया है या फिर उनको लेकर शब्दों और भावों में किसी तरह की लैंगिक संवेदना के संकेत मिले हैं। गांधी अपने किए को लेकर खासे खुले थे। उनके 'गोपन' का यह 'ओपन' उनके जीवन संदर्भों और प्रयोगों को समझने में जितने कारगर नहीं हुए, उससे ज्यादा इनका इस्तेमाल विषय को विषयी बनाने में किया गया। नहीं तो यह कतई नहीं होता कि आत्मानुशासन को अपनी अहिंसक जीवनशैली का सबसे जरूरी औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाले महात्मा के जीवन को हम महज एक सेक्सुअल बिहेवेरियल लेबोरेटरी की तरह देखते।
बहरहाल गांधी और ब्रह्मचर्य से शुरू हुई चर्चा में बात एक नए और सामयिक संदर्भ की।  टीवी पर बिग बॉस का सीजन फाइव शुरू हो चुका है। उधर, बॉलीवुड के नए और उभरते कलाकार प्रतीक बब्बर इन दिनों अपनी फिल्म के हिट होने के लिए एक अनोखी प्रतिज्ञा के लिए चर्चा में हैं।  बिग बॉस की रियलिटी का धरातल पिछले सीजन में जितना बदला था, नए सीजनमें वह बदलाव प्रायोगिक हिमाकतों की नई दहलीज छू रहा है। शो का पौरुष और चारित्रिक बल बनाए रखने का जिम्मा शक्ति कपूर को दिया गया है तो, वहीं उनकी जिम्मेदारी का इम्तहान लेने के लिए बारह यौवनाओं का हुजूम इकट्ठा किया गया है। पिछले सीजन में लिहाफ की हलचल देखकर दर्शकों ने प्रेमी युगल की अंदरूनी कार्रवाई के रोमांच का अनुभव किया था। नए सीजन में अंदरूनी हलचल को खुले में लाने की मंशा साफ जाहिर होती है। पर तारीफ करनी होगी उन सितारे होस्ट्स की जिन्होंने शो की मेजबानी का फैसला तो बतौर प्रोफेशनल किए पर शक्ति कपूर की बिग बॉस के घर में एंट्री से पहले न तो उनसे कोई सीधी बात की और न ही दर्शकों से उनका कोई औपचारिक परिचय कराया। और तो और उनकी एंट्री के बाद बगैर उनका नाम लिए यहां तक कह दिया कि अच्छा हुआ बिग बॉस ने उन्हें (शक्ति को) अपने घर बुला लिया, नहीं तो वे किसी के घर जाने लायक नहीं थे। करीब 700 फिल्में करने के बाद एक सिने आर्टिस्ट का कद जितना दमदार और ऊंचा होना चाहिए था शक्ति ने उसे अपने ढीले कैरेक्टर के कारण ही कहीं न कहीं गंवाया है। देखना अब यह होगा कि इस रियलिटी शो में वे इस दाग को कुछ कम करना पसंद करेंगे या और ज्यादा दागदार हो जाएंगे।
शक्ति के बाद बात प्रतीक प्रसंग की। यह प्रसंग हमारे समय की युवा चेतना को समझने का नया प्रस्थान बिंदु भी बन सकता है। प्रतीक बब्बर हिंदी सिनेमा का नया चेहरा तो हैं ही उन्होंने कुछ ही दिनों और कुछ ही फिल्मों के बाद एक प्रतिभाशाली कलाकार की शिनाख्त पा ली है। प्रतीक ने अपनी नई रिलीज होने वाली फिल्म 'माई फ्रेंड पिंटो' की सफलता की कामना कुछ अनूठे अंदाज में की। उन्होंने यह प्रण उठाया है कि जब तक उनकी फिल्म रिलीज नहीं हो जाती, वे सेक्स नहीं करेंगे। दिलचस्प है कि यह प्रण एक युवा और अविवाहित कलाकार का  है। आमतौर पर सितारे अपनी फिल्म की सफलता के लिए दरगाहों और मंदिरों की दहलीज चूमते हैं पर प्रतीक इस मामले में सबसे अलग निकले। बताया जा रहा है कि अपने प्रण को जोखिम में नहीं डालने के लिए वे एहतियाती तौर पर बॉलीवुड. की आए दिन होने वाली लेट नाइट पार्टियों और फंक्शनों में जाने से बच रहे हैं।
प्रतीक का प्रण कहीं न कहीं उनकी और उनके जैसे युवाओं की जिंदगी की सच को भी बेबाकी से बयां करता है। मेल-मुलाकात और दोस्ती के दायरे में आज सब कुछ जायज है, कुछ भी वज्र्य या त्याज्य नहीं। यह दायरा न सिर्फ नए संबंधों के नए धरातल को चौड़ा और मजबूत कर रहा है बल्कि तरोताजगी से भरी उस युवा मानसिकता को भी बयां करता है, जो संबंध, परिवार और परंपरा की लीक को अपनी सीख के साथ बदल रहा है।
ऊपर बयां किए गए सारे हवाले हमारे सामने कई सवाल उठाते हैं। हमारे समय की ताकत और दिलचस्पी किन बातों में है? समाज और देश की सरहद लांघ चुके नफरत के दौर में प्रेम जिन अंत:करणों में आज भी महफूज है, उनके लिए इसका महत्व क्या है? क्या संबंधों का दैहिक तकाजा इतना भारी है कि उसके लिए संयम की कसौटी का सर्वथा त्याग जरूरी मांग हो गया है? ऐसा क्यों है कि देह को लेकर संदेह को मिटाने वाले हिमायतियों में हम, हमारे समय और हमारे समाज से भी आगे वह बाजार है जिसकी भूमिका को लेकर अपने तरह के संदेहों का जाला आज भी बना हुआ है।
एक बात जो इस पूरे संदर्भ में कही जा सकती है कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर में संबंध और संवेदना के हवाले भी बदल गए हैं। ये आत्मीय प्रसंग अपनी धीरता और गंभीरता को गंवाते जा रहे हैं। फौरीपन के नशे ने कॉफी और प्रेम दोनों को चुस्कीदार जायके में बदल दिया है। मन का सफर लंबी डग से नहीं पूरा किया जा सकता और फौरी आवेग से हासिल होने वाला स्पर्श दैहिक ही हो सकता है आत्मीय तो कदापि नहीं। तभी तो आत्मानुशासन की धीरता के हमारे समय के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा को भी लोगों ने नहीं बख्शा। हम अपने समय और उसकी संवेदना को किस 'शक्ति' और किस 'प्रतीक' से बयां करना चाहेंगे, यह हमारे ऊपर है। 

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

चर्चिल का सिगार और गांधी की लंगोट


गांधीजी की लंगोट चर्चिल तक को अखरती थी क्योंकि इस सादगी का उनके पास कोई तोड़ नहीं था। सो गुस्से में वे गांधी का जिक्र आते ही ज्यादा सिगार पीने लगते और उन्हें नंगा फकीर कहने लगते। आए दिन गांधीजी की ऐनक, घड़ी और चप्पल की नीलामी की खबरें आती रहती हैं। सरकार से गुहार लगाई जाती है कि गांधी हमारे हैं और उनकी सादगी के उच्च मानक गढ़ने में मददगार चीजों को भारत में ही रहना चाहिए। बीते साल मीडिया वालों ने अहमदाबाद में उस विदेशी शख्स को खोज निकाला जो गांधीजी की ऐसी चीजों का पहले तो जिस-तिस तिकड़म से संग्रह करता और फिर उन्हें करोड़ों डॉलर के नीलामी बाजार में पहुंचा देता।  फिर नीलामी आज सिर्फ गांधीजी के सामानों की नहीं हो रही। यहां और भी बहुत कुछ हैं। पुरानी से पुरानी शराब की बोतल से लेकर शर्लिन चोपड़ा की हीरे जड़ी चड्ढ़ी तक। खरीदार दोनों के हैं, सो बाजार में कद्र भी दोनों की  है। यानी नंगा फकीर बापू और हॉट बिकनी बेब शर्लिन दोनों एक कतार में खड़े हैं।
हमारे दौर की सबसे खास बात यही है कि यहां सब कुछ बिकता है- धर्म से लेकर धत्कर्म तक। आप अपने घर बटोर-बटोर कर खुशियां लाएं, इसके  लिए झमाझम ऑफर और सेल की भरमार है। इस बाबत आप और जानकारी बढ़ाना चाहें तो 24 घंटे आपका पीछा करने वाले रेडियो-टीवी-अखबार तो हैं ही। गुजरात के समुद्री किनारों पर जो नया टूरिज्म इंडस्ट्री डेवलप हो रहा है, वह अपने सम्मानित अतिथियों को गांधी के मिनिएचर चरखे और अंगूर की बेटी का आकर्षण एक साथ परोसता है। बस इतना लिहाज रखा जाता है कि क्रूज पर शराब तभी परोसी जाती हैं, जब वह गुजरात की सीमा से बाहर निकल आते हैं। गुजरात सीमा के भीतर ऐसा नहीं  किया जा सकता क्योंकि वहां शराबबंदी है। यानी आत्मानुशासन का जनेऊ पहनना जरूरी है पर उसे उतारकर उसके  साथ खिलवाड़ की भी पूरी छूट है।
ये बाजार द्वारा की गई मेंटल कंडिशनिंग का ही नतीजा है कि कल तक जिसे हम महज अंत:वस्त्र कहकर निपटा देते थे, उनका बाजार किसी भी दूसरे परिधान के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है।  मां की ममता पर भारी पहने वाले डिब्बाबंद दूध का इश्तेहार बनाने वाले आज अंत:वस्त्रों को सेकेंड स्किन से लेकर सेक्स सिंबल तक बता रहे हैं। जैनेंद्र की एक कहानी में नायक अपना अंडरबियर-बनियान बाहर अलगनी पर सुखाने में संकोच करता है कि नायिका देख लेगी। आज नायक तो नायक नायिकाएं और लेडी मॉडल स्टेज से लेकर टीवी परदे तक इन्हें धारण कर ग्लैमर दुनिया की चौंध बढ़ाती हैं।
बालीवुड की मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान कहती हैं, 'सब कुछ हॉट हो गया, अब कुछ भी नरम या मुलायम नहीं रहा। गुजरे जमाने की हीरोइनों के नजर झुकाने और फिर अदा के उसे उठाते हुए फेर लेने से जितनी बात हो जाती थी, वह आज की हीरोइनों के पूरी आंख मार देने के बाद भी नहीं  बनती।'  साफ है कि देह दर्शन के तर्क ने लिबासों की भी परिभाषा बदल दी। और इसी के साथ बदल गई हमारी अभिव्यक्ति और सोच-समझ की तमीज भी। पचास शब्द की खबर के लिए पांच कॉलम की खबर छापने का दबाव किसी अखबार की एडिटोरियल गाइडलाइन से ज्यादा मल्लिका का राखी जैसी बिंदास बालाओं का मुंहफट बिंदासपन बनाता है। रही पुरुषों की बात तो नंगा होने से आसान उन्हें नंगा देखने के लिए उकसाता रहा है। तभी तो महिलाओं के अंत:वस्त्र के बाजार का साइज पुरुषों के के मुकाबले कई  गुना है।  यह सिलसिला इंद्रसभा से लेकर आईपीएल ग्राउंड तक देखा जा सकता है। 'अंत:दर्शन' अब 'अनंतर' तक सुख देता है और पुरुष मन के इस सुख के लिए महिलाओं को फीगर से लेकर कपड़ों तक की बारीक काट-छांट करनी पड़ रही है।
बात चूंकि गांधी के नाम से शुरू हुई इसलिए आखिर में बा को भी याद कर लें।  खरीद-फरोख्त और चरम भोग के परम दौर की इस माया को नमन ही करना चाहिए कि उसकी दिलचस्पी न तो बा की साड़ी में है और न ही उसकी जिंदगी में। अव्वल यह अफसोस से ज्यादा सुकूनदेह है। और ऐसा अब भी है, यह किसी गनीमत से कमतर नहीं।