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शनिवार, 24 जुलाई 2010

आवारा रंगोलीबाज के हाथों संवरी


थोड़ी खोई थोड़ी सकपकाई आंखें
संकोच से मुठभेड़ में झुकी गर्दन
कुछ चुभा कुछ चुका मन
मई-जून की गरमी सा तपा चेहरा
ताजे उतारे गए गोश्त की तरह
छाती पर रखा प्रेम
स्पर्श स्नान से
बेदाग होने का जतन फिर आजमाएगा
इस कुकुरधर्मी प्यार पर
फिकरा सांड बनारसी का धौल जमाएगा
दोनों बाजुओं से हार चुका प्रेम
दोनों जांघों में फंस जाएगा

तुम भले बनना चाहो चिड़िया
खूब तोलो पर
वो भुट्टे सा भुनेगा तुम्हें दांतों से चबाएगा
पाखी नहीं उसने एक आजाद उड़ान को चखा है
और यह अट्टहास एक बार फिर
'स्त्री उपेक्षिता' को सजिल्द कर जाएगा

किसी आवारा रंगोलीबाज के हाथों संवरी
दोपहर की अंगुली पकड़कर
शाम की गोद तक पसरी
दिनदहाड़े की अठखेलियां
रात की नीयत में बदली
रतजगे सपनों की हकीकत जैसी
तुम्हें शुरू करने वाला नहीं
कोई अनंत कर जाने वाला पाएगा
मध्यांतर का संगीत जैसा इस बार बजा
वैसा आगे भी बजता जाएगा

प्रेम के लिए होली पैंडेंट का सहारा
जय माता दी का डॉल्बी जयकारा
घर से निकलते ही मंदिर का नजारा
किसी महोदय को पाने के
आवेदन पत्र जैसा
थाने में मनमर्जी के खिलाफ अर्जी
मुंदरी में चमकते नक्षत्र जैसा
रोने का नहीं खुश होने का हक तुम्हारा
लड़ने का हौसला बार-बार देगा
जीत हो तुम्हारी अभिनंदन हो तुम्हारा
यकीन है कि अपडेट कर दोगी तुम
फ्रेंड फिलॉस्फर और गाइड का
घिसा मुहावरा
तब कच्ची शराब की खुमारी थी
अब शैंपन उफनाएगा
देसी पगडंडियों में खेला-खोया प्यार
अमेरिका रिटर्न कहलाएगा

23.07.10

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

बदरिया घेरी आयी ननदी


बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि राजधानी दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है। कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खिंचे या यहां-वहां से जुगाड़े गये ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रोरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नये मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसों के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं। बताते हैं कि नम्रता शिरोडकर की बहन शिल्पा शिरोडकर को कई बड़े बैनरों को फिल्में एक दौर में इसलिए मिलीं कि उसे कैमरे के आगे पानी में किसी भी तरह से भीगने से गुरेज नहीं था। खबरें तो यहां तक आर्इं कि उसे एक फिल्म में इतनी बार नहलाया-धुलाया गया कि अगले कई महीनों तक वह निमोनिया से बिस्तर पर पड़ी रही। हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भीगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे।
वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है। इसे उस सनक या समझ का ही कमाल कहेंगे कि टूथपेस्ट बेचना हो या मानसून आने की खबर देनी हो, तरीका चाहे जो भी हो होता दैहिक ही है। बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट¬ूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं। इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिंता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।

बुधवार, 14 जुलाई 2010

तू उसे फोन किया कर


बदले में एसएमएस
तू उसे फोन किया कर
दुनिया किसी गूंगे की
कहानी नहीं सुनती

सोमवार, 12 जुलाई 2010

प्यार का फेसबुक


...प्यार एक तजुर्बा है स्वच्छंदता का, खुद को जानने का, जज्बातों से दो-चार होने का। इस तजुर्बेकारी को मंगलसूत्र बनाकर पहनना जरूरी नहीं।
...प्यार को मझधार में महसूस करना आना चाहिए, किनारे पर आकर तो इसकी सारी रवानगी दम तोड़ जाती है।
... रिश्तों की पनाह पाकर प्यार दिली एहसास से ज्यादा सामाजिक निर्वाह बन जाता है और यह निर्वाह स्वच्छंदता को उस आजादी की जद में ले जाता है, जिसकी सीमाएं संविधान और आइपीसी ने पहले से तय कर रखी हैं।

ये कुछ रिएक्शंस हैं, उस सवाल के जवाब में जो 34 साल की शालिनी फेसबुक पर अपने फ्रेंडस से पूछती है। शालिनी न सिर्फ पढ़ी-लिखी है बल्कि दिल्ली जैसे महानगर में इंडिपेंडेंटली सेटल्ड भी है। वह हर लिहाज से एक जागरूक और आधुनिक स्त्री है। समय और समाज के बीच स्त्रीत्व की नई व्याख्या कितनी बदली, भटकी या समाधान तक पहुंची है, इस पर कोई ठोस समझ बनाने के लिए शालिनी एक अच्छी केस स्टडी हो सकती है। पिछले दस से कम सालों में प्यार और साहचर्य के नाम पर कम से कम तीन बार वह किसी के प्रति पूरी "कमिटेड' रह चुकी है। एक के बाद एक तीन अलग-अलग संबंधों को जीते हुए उसने संबंधों की भीतरी बुनावट के साथ उनकीउलझन को भी बहुत गहरे से समझा है।
शालिनी ने जो सवाल पूछा था, उसमें भी यही था कि प्यार संबंधों की गांठ से पक्का होता है या इससे उसमें गांठ लगती है। इस सवाल पर जो रिएक्शंस शुरू में दिए गए हैं, वे शालिनी की दो सौ से ज्यादा की फ्रेंड्स लिस्ट में शामिल सहेलियों के हैं। जो इक्के-दुक्के जवाब पुरुषों की तरफ से आए भी, वे प्यार को भरोसा और परिवार की गोद पीने की इच्छा से भरे थे। कहना नहीं होगा कि यह सोच सिर्फ पुरुषों की नहीं बल्कि हमारी अब तक की पारिवारिक-सामाजिक समझ भी कमोबेश यही है। दरअसल, इस अंतद्र्वंद्व के बहाने हम आधी दुनिया के बीच आकार लेती उस तब्दीली को महसूस कर सकते हैं, जो बहुत बड़ी भले न हो पर गंभीर जरूर है। यह तब्दीली स्त्री स्वातंत्र्य की पूरी बहस को नई रोशनी और संदर्भों से जुड़ने की दरकार भी पेश करती है। वैसे यहां यह भी साफ हो जाना चाहिए कि ऐसे ज्यादातर स्त्री किरदार महानगरीय जीवन के हैं। पूंजी के जोर पर जागरूकता या बदलाव के मेघ जो थोड़े-बहुत बरसे भी हैं, उससे महानगरीय जीवन ही सबसे ज्यादा भीगा-नहाया है। बाजार का पहला ही सबक है कि आप टिके तभी तक रह सकते हैं जब तक आपके पास कमाने और खर्चने की सलाहियत बची हो। दिलचस्प है कि बाजार के इस सबक ने मेट्रो यूथ की एक ऐसी दुनिया रातोंरात बना दी, जिसमें "बरिस्ता' के कॉफी की तरह जज्बातों के तमाम सरोकार "इंस्टैंट' हो गए। दिली जज्बात के साथ जितने स्तरों पर "एक्सपेरिमेंट' इस दौरान हुए हैं, उनमें फौरीपन की बजाय थोड़ी स्थिरता अगर होती तो ये मामले "इमोशनल इंसीडेंट' या "एक्सीडेंट' से कहीं ज्यादा वजनी और "मच्योर वैल्यू कैरेक्टर' के होते।
मुझे नहीं पता कि शालिनी के जीवन में आए पुरुष साथियों की जिंदगी कैसी है और उनकी आत्मप्रतीति क्या है। यह भी कहना मुश्किल है कि शालिनी की जिन सहलियों ने अपनी-अपनी बातें रखी हैं, वह घर-परिवार के किसी दायरे को तोड़कर ये बातें कह रही हैं या फिर जिंदगी के समझौतों से आजिज आकर। हां, एक बात जरूर है कि खुद को खोकर किसी को पाने के खतरे को नए दौर की स्वावलंबी शहरी स्त्री पीढ़ी समझ चुकी है। उसने अपने पीछे मां को, बहनों को, घर-पड़ोस की महिलाओं को देखकर इतना तो सीख ही लिया है कि यहां जिस परिवार व्यवस्था को सींचने में एक महिला की पूरी जिंदगी खप जाती है, उसमें उसके हिस्से कर्तव्य निर्वाह के संतोष के सिवाय शायद ही कुछ बचता हो। गोद में एक बार किलकारी गूंजी नहीं कि आजादी के परिंदे मन-मुंडेर पर उतरना छोड़ देंगे। शालिनी की ऑनलाइन प्रोफाइल को देखकर नहीं लगता कि उसके संबंधकी छोर मातृत्व तक पहुंची हैं। ऐसा भी मुमकिन है कि ऐसा न हो पाना ही उसकी जिंदगी की मौजूदा उधेड़बुन की वजह हो। दिलचस्प है कि "आई कांट एफोर्ड ए वाइफ और किड' के जुमलों से अपनी मन:स्थिति बताने वाले अमेरिका और यूरोप में एक बार फिर से जिंदगी को सिंदूरी देखने की ललक बढ़ रही है।
पुरुष अब तक यही समझते थे कि किसी महिला का पति होना नहीं, उसके बच्चे का पिता होना, उसके मैरिड लाइफ को ज्यादा एस्टेबल रखता है। ऐसा सोचने वाले पुरुषों की अक्लमंदी आगे बहुत काम न आए तो कोई हैरत नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अब महिलाएं किसी सूरत में महज पुरुष छाया बनकर अपने स्वायत्त व्यक्तित्व को खोने के लिए तैयार नहीं हैं। और अगर वह ऐसा चाहती हैं तो इसके पीछे पारिवारिक-सामाजिक जीवन का वह कठोर सच है, जिसमें प्यार और मातृत्व का सुख देकर उनके शैक्षिक-आर्थिक विकास और दुनिया के तमाम परिवर्तनों को केंद्र में खड़े होने की चहक गिरवी रखवा ली जाती है। लिहाजा, स्त्री जो सवाल करती है और उस पर उसकी जैसी जिंदगी जी रही या मन:स्थिति वाली उसकी सहेलियां जब प्यार और संबंध के सरोकारों के बीच, बंधनमुक्ति का स्कोप देखने का दरकार रखती हैं तो साफ लगता है कि फीमेल सेंटीमेंट अब इमोशनल से ज्यादा लॉजिकल हो रहा है। कह सकते हैं कि नई स्त्री को पुराने इमोशनल अत्याचार का खतरा न सिर्फ समझ में आ रहा है बल्कि वह अब वह इससे मुठभेड़ का खतरा तक उठाने को तैयार है।

बुधवार, 7 जुलाई 2010

देह राजनीति पर प्रकाश


"राजनीति' के कथानाक का पूरा ताना-बाना जिस तरह बुना गया है, उसमें महिला को इस्तेमाल होने का सच तो जरूर दिखाया गया है, पर उसे इस्तेमाल करने वाले पुरुषों को लेकर खटकने वाली खामोशी बरती गई है
जागरूक भारतीय जनमानस के लिए राजनीति एक प्रिय विषय रहा है। जिसे पूरबिया बेल्ट या गोबर पट्टी कहते हैं तो वहां तो जागरूकता का आलम यह है कि अब भी लोग विभिन्न राजनतिक मुद्दों पर चौपालों से लेकर चाय-पान की दुकानों तक घंटों बहस करते हैं। इन दिनों प्रकाश झा की "राजनीति' की भी चर्चा भी खूब है। चर्चा का एक स्तर तो उस खेल को लेकर है जिसमें मीडिया में 24-48 घंटे में किसी फिल्म की ऐतिहासिक सफलता से लेकर उसके डिब्बा मार्का होने का सर्टिफिकेट दे दिया जाता है। पर "राजनीति' को लेकर जो ज्यादा महत्वपूर्ण चर्चा और बहस सतह पर आई है, वह है इस फिल्म का कंटेंट। कहने के लिए यह पूरबिया अंचलों की राजनीति का महाभारती भाष्य है। खुद प्रकाश झा ने भी माना है कि वह बिहार-यूपी की राजनति के अलग-अलग शेड्स को इस फिल्म में उभारना चाहते थे।
फिल्म को देखकर हमारे जेहन में कई सवाल भी उठते हैं। पहला सवाल तो यही कि फिल्म में आमजनों के सरोकारों और संघर्ष की जो आवाज नसीरुद्दीन शाह फिल्म की शुरुआती रीलों में उठाते हैं, वह आवाज बीच में ही कहां और क्यों खो जाती है? इसका जवाब न तो फिल्म देती है और न ही यह बताना "राजनीति' बनाने वालों को जरूरी लगता है।फिर नसीर के रेडिकल कैरेक्टर शेड को थोड़ा और पावरफुल बनाने के लिए उसकी एक महिला मित्र के साथ दिल-दिमाग से होते हुए बिस्तर तक पहुंची नजदीकी को तेजी से घटित होते हुए दिखाया गया है। पर महिला के प्यार और उसके साथ को एक क्रांतिकारी राजनीतिक कार्यकर्ता के जीवन की बाधा किन तर्कों पर मान लिया जाता है, इसका जवाब नहीं मिलता। हां, यह सब देखते हुए मैथिलीशरण गुप्त की वो पंक्तियां जरूर याद आती है जिसमें यशोधरा बुद्ध के गृहत्याग पर मार्मिक उलाहने देती है।
दरअसल, यह फिल्म बिहार-यूपी में राजनीतिक अपराधीकरण की लाल जमीन को जितनी खूबी के साथ समझने का मौका देती है, उतना ही यह महिला किरदारों के मामले में अब तक बने-चले आ रहे पूर्वाग्रहों के आगे समझौता भी करती है। इस फिल्म का फलक काफी बड़ा है। तीन घंटे में सब कुछ समेट लेने की कलात्मक मजबूरी नेे जरूर प्रकाश झा को भी परेशान किया होगा। लिहाजा, उनके प्रति थोड़ी हमदर्दी भी होनी चाहिए।
पिछले छह दशकों में जनता के बीच से निकलकर देश के राजनीतिक नेतृत्व की पहली पांत तक पहुंचे नेताओं की बात करें तो कई बड़े और सफल नाम हमारी गिनती बढ़ाएंगे। पर यह बात महिला नेतृत्व को लेकर आसानी से नहीं की जा सकती। आज भी जो गिनी-चुनी महिलाएं राजनीति की मुख्यधारा में थोड़ी लंबी दूर तक अपने नेतृत्व की नौका खे पाई हैं, उनके पीछे परिवार और वंश की राजनीति है। वैसे वंशवाद की बैसाखी पर राजनीति करने वाले पुरुषों की भी तादाद कम नहीं है। "राजनीति' की कथाभूमि इस पृष्ठभूमि पर रची गई मालूम पड़ती है।
फिल्म में दिखाया गया है कि चुनाव में टिकट पाने की अहर्ता इतनी क्रूर है कि एक महिला को उसके लिए अपने कपड़े तक ढीले करने पड़ते हैं। बात इतने से भी नहीं बनती तो एक के साथ देह रिश्ते का सच, दूसरे के हाथ में अपने विरोधी के खिलाफ हथियार बनाकर सौंपने का सौदा तक करने की मजबूरी को भी वह सहर्ष स्वीकारती है। वहीं दूसरी तरफ वंश, परिवार और परंपरा की चारदीवारी का घेरा आज भी भारतीय समाज में इतना मजबूत है कि उसके भीतर महिला अस्मिता, संवेदना और महत्वाकांक्षा चाहे जितनी बार दम तोड़े, उसके लिए इस फांस को तोड़ पाना तकरीबन नामुमकिन है। दिलचस्प तो यह कि परिवार और परंपरा की राजसी ठाठ के नाम पर आज भी चुनावों में न सिर्फ थोक इमोशनल वोटिंग होती है, बल्कि उसके विरोध में उठी जरूरी राजनीतिक आवाज भी अनसुनी रह जाती है।
फिल्म के जिस एक दृश्य में और महज एक संवाद बोलने के लिए प्रकाश झा परदे पर आते हैं, बताया जा रहा है कि वह संवाद भी उन्हें बदलना पड़ा। वोटिंग के दिन झा एक चाय की दुकान पर वोटिंग के रुख पर अपनी टिप्पणी करते हैं कि लगता है कि "विधवा' सारे वोट बटोर ले जाएगी। फिल्म किसी विवाद में न फंसे और उस पर महिला संवेदना व अस्मिता से जानबूझकर खेलने का आरोप न लगे, इसलिए "विधवा' की जगह "बिटिया' शब्द फिट कर दिया गया।
"राजनीति' के कथानाक का पूरा ताना-बाना जिस तरह बुना गया है, उसमें महिला को इस्तेमाल होने का सच तो जरूर दिखाया गया है, पर उसे इस्तेमाल करने वाले पुरुषों को लेकर खटकने वाली खामोशी बरती गई है। यहां तक कि राजनीति के महाभारती भाष्य में कथित रूप से कृष्ण का किरदार निभाने वाले नाना पाटेकर को भी इन मामलों से या तो कटा-कटा दिखाया गया है या फिर उनके समर्थन और आशीर्वाद से ही सारी लीला खेली जाती है। लीक से हटकर एक अलग फिल्म बनाने के प्रकाश झा के जज्बे की सराहना करते हुए इतनी शिकायत तो उनसे की ही जा सकती है कि महिलाओं के खिलाफ "दामुली' अत्याचार पर वह चाहे तो कुछ जरूरी सवाल तो जरूर खड़े कर सकते थे।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

सफरनामा


वसुंधरा से नोएडा
रोज का आना-जाना
एक तरफ घर
एक तरफ नौकरी का ठिकाना
राजधानी दिल्ली की धूप
आसपास के इलाकों में भी छिटकी है
कइयों का रोजी-रोजगार
कइयों के लिए तफरीह
कइयों के लिए शहरी आबोहवा में बढ़ रही मस्ती है

चाहे जिस भी रास्ते से आओ-जाओ
बारह से चौदह किलोमीटर का
पड़ता है एक फेरा
इस एक फेरे को कई बार पूरा करने का तजुर्बा
हाथ में हाथ लेकर
सावनी फुहारों से भीगा-भीगा
मौसमी नेमतों से हरा-भरा
जिंदगी के थकने-रुकने के खिलाफ
जादुई एहसास से भरा होना
कई मिलती-जुलती राहों
कुछ जरूरी चौराहों का जिंदगी में शामिल होना


रोज का सफर
रोज का रास्ता
शहर के तमाम हिस्सों को
हाथ बढ़ाकर चूम लेते थे
कहीं भी जाना हो
मॉल, मंदिर या कि तफरीह का कोई और ठिकाना हो
सब रास्ते
सब ठिकाने थे जाने-पहचाने
पेड़ की नरम घुमावदार डालियों की तरह
यात्रा का बिंब किसी सुंदरी की तरह
चौराहों पर रास्तों की आवृति-गोलाई
कानों में झूमती बालियों की तरह

जिंदगी के सर्वथा सघन अनुभव के लिए
पहले काफी ऊबड़-खाबड़
उजड़े टूटे-फूटे उजाट थे रास्ते
अब चलकर या दौड़कर नहीं फिसलकर
तय होती हैं दूरियां
न किसी को संभालने की जरूरत
न किसी की मदद
न बढ़कर हाथ थामने की मजबूरियां
रेंगने लगे हैं रास्ते सारे सांप से
कहीं गड्ढ़े न मिट्टी के ढेर
न पत्थरीली किनारी
न कहीं माटी-पानी का गडमड खेल

फर्राटे से भागता सफर
आसान है बहुत
इतनी तेजी से निकलती-भागती हैं गाड़ियां
कि नजदिकियां पीछे छूट जाती हैं
राही-हमराही-हमजोली होने के
पुरसुकून एहसास कहीं रुठ गए जैसे
सब निकल जाते हैं तेजी से
रपटीले सफर का सफरनामा
सब दूर-दूर
नहीं कोई आसपास

जिन रास्तों पर
मिलते थे हाथ
चलते थे दोस्त
जलते हैं दर्जनों लैंपपोस्ट
प्रेम और मिलाप की हर गुंजाइश के खिलाफ
राहजनी की घटनाओं के सबसे बड़े चश्मदीद

पुराने रास्ते के बदल गए हैं पुराने नातेदार
कई ने बदल लिए रास्ते
कई ने बदले रास्तेदार
पुराने कई राहगीर अब भी कर रहे हैं सफर
नए हो चुके इन पुराने रास्तों पर
सोचते हुए बार-बार
भरते हुए एहसास
कि रास्तों का तेज होना
सफर का चुक जाना नहीं है
आजमाना पड़े तो आजमा लेंगे
पुरानी राहों की नई सर्पीली चालों को
30.05.10

नयी युद्धनीति


कूल्हों के झटकों पर
मौसम नहीं बदलते
शेयर दलालों की बांछें भले खिल जाएं
उघड़ी टांगों पर तैरती फिसलन
या तो बरसाती है
या सोची-समझी शरारत

पेज थ्री की जंघाओं में
मचलती जिन मछलियों ने
ड्राइंग रूम के लिए
इक्वेरियम का अविष्कार कराया है
समझ लेना होगा उन्हें
कि रैंप पर चलने वालों को
पहाड़ पर चढ़ना मना है

रेन डांस में लहराती गोपिकाओं से
जबरिया छीन लिया गया है
मटका भरने का हुनर
न्योन लाइट से सजे इश्तेहार
बस नीले हो सकते हैं
या हो सकते हैं खतरनाक लाल
पाबंदी है इनके सिंदूरी होने पर

रंग-बिरंगी लट्टुओं में नहायी दुनिया के
सबसे ताकतवर मदारी का डमरू
तांडवी हो जाता है
उम्रदराज झुर्रियों को देखकर
लंबी छरहरी गुस्ताखियों के लिए
शहर के हाशिये पर बना ओल्डएज होम
नया रिलिजियस स्पॉट है
कच्चे सूत से पक्की गांठ बांधने वाला
पंडित भी फूंक नहीं पा रहा कोई मंत्र
जिससे दुनिया के सारे फोटोग्राफरों के
निगेटिव एक साथ धुल जाएं

अलबत्ता सवाल यह भी है कि
अब तक आंगन लीप रही औरतों
कोहबर सजा रही लड़कियों की दुनिया
किस छाते में खड़ी है
किन जंघाओं में खेलती हैं ये
सपनों के किन बगीचों में मिल जाती हैं
नीम कौड़ियां इन्हंे आज भी

नया भूगोल ढूंढ़ रहे वास्कोडिगामा
है कमीज तुम्हारे पास
जिसे पहन तुम
नया सबेरा आंज रही
इन ललनाओं से मिल सको
खतरा है इतिहास लिख रहे
नये मिस्त्रियों के औजार
कहीं लूल्हे साबित न हों
संुदर पति पाने के लिए
अब भी सोमवारी करतीं
वीरांगनाओं की युद्धनीति समझने में

पावर वूमन : इमेज का झांसा


वूमन इंपावरमेंट की वकालत करने वाले होशियार हो जाएं क्योंकि अब तक की उनकी सारी जद्दोजहद को बेमानी करार देने के लिए "पावर वूमन' आकर्षक कांसेप्ट बाजार में आ गया है। अधिकार, शिक्षा और अर्थ के बूते जिस महिला सशक्तिकरण की समझ अब तक सरकार से लेकर गैरसरकारी संगठन तक दिखा रहे थे, पावर वूमन का कांसेप्ट इन सब का तोड़ है।
दरअसल, पिछले दो दशकों में महिलाओं के आगे जो नई दुनिया खुली है, उसने उनके आगे विकास का नया और चमकदार रास्ता भी खोला है। सुष्मिता सेन, लिजा रे, दीया मिर्जा, विपाशा बसु, नफीसा अली से लेकर शेफाली जरीवाल और राखी सावंत तक के नाम आधी दुनिया के लिए शोहरत और सफलता की सुनहरी इबारत की तरह हैं। इस सफलता की एक दूसरी धारा भी है, जिनसे समय के बदले बहाव में सबसे क्षमतावान तैराकों के रूप में ख्याति मिली है। ऐसे ही महिलाओं में शुमार इंदिरा नुई, चंदा कोचर और नैना लाल किदवई जैसे नामों को प्रचार माध्यमों ने लोगों को रातोंरात रटा दिए। पावर वूमन का कांसेप्ट इन्हीं महिलाओं को आगे करके गढ़ा गया है। और इस पावरफुल कांसेप्ट की चौंध के आगे वूमन इंपावरमेंट की अल्फाबेटी सोच से महिलाओं की बंद और अंधेरी दुनिया को खुली और रोशन करने का अब तक का संघर्षमय सफर अचानक खारिज हो गया है।
ऐसे में सवाल यह है कि पिछले कुछ दशकों में जिस लड़ाई और संघर्ष को मेधा पाटकर, अरुणा राय, इला भट्ट, रागिनी प्रेम और राधा बहन जैसी महिलाएं आगे बढ़ा रही हैं, क्या वह वह स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। समाज और राजनीति विज्ञानियों की बड़ी जमात यह मानती है कि हाल के दशकों में भारतीय महिलाओं के हिस्से जो सबसे बड़ी ताकत पहुंची है, वह पंचायती राज के हाथों पहुंची है। दिलचस्प है कि पावर वूमन का कांसेप्ट ऐसी किसी महिला को अपनी अहर्ता प्रदान नहीं करता जिसने इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक सत्ता को न सिर्फ अपने बूते हासिल किया बल्कि उसके कल्याणकारी इस्तेमाल की एक से बढ़कर एक मिसालें भी पेश कीं। याद रहे कि यह कामयाबी पुरुष वर्चस्व की मांद में उतरने जैसी है।
यहां यह बात खास तौर पर समझने की है कि महिला मुक्ति का संघर्ष सिर्फ महिलाओं का नहीं बल्कि एक सामाजिक संघर्ष भी है। पूरी दुनिया बदलेगी, तभी आधी दुनिया भी बेहतर होगी। लिहाजा, अपनी बीमारी के बावजूद जब राधा बहन उत्तरांचल में महिलाओं-पुरुषों को साथ लेकर गंगा को उसके मुहाने पर कैद करने की विकसित सोच से लोहा लेती हैं, अरुणा राय राजस्थान से लेकर देश के तमाम दूसरे हिस्सों में सूचना अधिकार को और उदार और प्रभावी बनाने के लिए संघर्ष करती हैं और मेधा पाटकर लालगढ़ से लेकर दंतेवाड़ा तक बिछी हिंसा के साथ नर्मदा आंदोलन के लिए सड़क पर उतरती हैं, तो वह महिलाओं के साथ समाज और देश के लिए एक बेहतर कल को भी संभव बनाने की लड़ाई लड़ रही होती हैं।
बाजार की खासियत है कि वह आपकी दमित चाहतों को सबसे तेज भांपता है। परंपरा और पुरुषवाद की बेड़ियां झनझना रही महिलाओं को बाजार ने आजादी और सफलता की कामयाबी का नया आकाश दिखाया। कहना गलत नहीं होगा कि इससे आधी दुनिया में कई भी बदलाव आए। पहली बार महिलाओं ने महसूस किया कि उनका आत्मविश्वास कितना पुष्ट और कितना निर्णायक साबित हो सकता है। पर यह सब हुआ बाजार की शर्तों पर और उसके गढ़े गाइडलाइन के मुताबिक। अब इसका क्या करें कि जिस बाजार का ही चरित्र स्त्री विरोधी है, वह उसकी मुक्ति का पैरोकार रातोंरात हो गया।
पावर वूमन के नाम से जितने भी नाम जेहन में उभरते हैं, उनकी कामयाबी का रास्ता या तो देह को औजार बनाने का है या फिर ज्यादा उपभोग की संस्कृति को चातुर्दिक स्वीकृति दिलाने के पराक्रमी उपक्रम में शामिल होने का। ये दोनों ही रास्ते जितने बाजार हित में हैं, उतने ही स्त्री मुक्ति के खिलाफ। यह मानना सरासर बेवकूफी होगी कि पूंजी और व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की लड़ाई से कटकर एकांगी रूप से महिला संघर्ष का कारवां आगे बढ़ सकता है। इसलिए अगर सम्मान और अभिषेक करना ही है तो वैकल्पिक विकास और संघर्ष की लौ जलाने का संकल्प तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद जलाने वाली उन महिलाओं का करना चाहिए, जिसने बाजार, उपभोग और हिंसा के पागलपन के खिलाफ समय और समाज के लिए अपने जीवन का लक्ष्य तय किया है। आधी दुनिया अधूरी नहीं बल्कि पूरी दुनिया के साथ ही बदलेगी और इस बदलाव के लिए पावर वूमन की टावरिंग इमेज और सक्सेस के झांसे से बचना होगा।

सोमवार, 5 जुलाई 2010

सीटियों की विदाई


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज "ईव-टीजिंग' कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें "फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियांे से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- "जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकतेे लव बड्र्स हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है। मोबाइल और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का "टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।

शनिवार, 3 जुलाई 2010

सुनंदा, आपसे कुछ कहने का मन है


मैडम सुनंदा,
विनम्र अभिवादन।
पत्र जरूर लिख रहा हूं लेकिन इस एतबार के साथ नहीं कि आप मुझे जानती ही होंगी। हां, यह जरूर है कि पिछले कुछ महीनों में देश के उन कराड़ों लोगों के साथ मेरा नाम भी जरूर जुड़ गया, जिनकी सूचना और दिलचस्पी के जाने-अनजाने कई तार आपसे जुड़ गए हैं। तभी तो पिछले दिनों जब आपका इंटरव्यू एक वेबसाइट पर देखा तो बिना पूरा पढ़े उसे छोड़ नहीं पाया। इस इंटरव्यू में आपसे पूछे गए ज्यादातर सवाल और आपके जवाब ऐसे ही थे, जिसने मीडिया को पिछले दिनों न सिर्फ एक के बाद सुर्खियां दीं, बल्कि एक ही सब्जेक्ट पर कई ब्रोकिंग न्यूज का रिकार्ड भी तोड़ा। पर जहां मैं अटका और अलग से आपकी दुनिया और सोच के बारे में सोचने को मजबूर हुआ, वह था आपका एक स्टेटमेंट, जो आपने अपने इंटरव्यू में दिया है। संभव है जिन वजहों से पिछले दिनों मीडिया में आपकी चर्चा हुई और जिस तरह से आपको पेश किया गया, यह उसके खिलाफ आपकी खीज भी हो।
आपने कहा है, "कहा गया कि मेरी शादी दिल्ली के एक ऑटोमोबाइल इंजीनियर से हुई थी, मेरे दूसरे पति ने आत्महत्या की थी और मैं कई लोगों के साथ सो चुकी हूं। मुझे बिल्कुल वेश्या बना दिया गया। और इनका सबसे बुरा हिस्सा यह था कि यह मेरे महिला होने की वजह से नहीं बल्कि आकर्षक और सुंदर महिला होने की वजह से किया जा रहा था। हमारे समाज में कई ऐसे लोग हैं जिनके लिए महिला के खूबसूरत होने का मतलब है कि वह बाजारू औरत होगी।'
मुझे आपके जवाब से कोई एतराज नहीं। आप पर जो बीती और उसको लेकर जैसा आपने सोचा, वैसा कहा। ऐसी किसी प्रतिक्रिया के लिए लोकतांत्रिक समाज में पर्याप्त स्पेस है और होना भी चाहिए। मुझे आपके जवाब से ज्यादा उससे उठने वाले सवाल मथ रहे हैं। जब मैं आपके जवाब और उससे पैदा होने वाले सवालों का सामना एक साथ कर रहा हूं तोे जेहन में हिंदी के एक बड़े संपादक साहित्यकार की टिप्पणी और एक महत्वपूर्ण कवि की पंक्तियां उभर रही हैं।
संपादक महोदय ने तो अपने संपादकीय में सीधे-सीछे यह लिखकर तूफान बरपा दिया था कि हर सुंदर स्त्री चाहती है कि उसका बलात्कार कम से कम एक बार जरूर हो। यह अलग बात है कि न तो उनसे किसी ने पूछा और न उन्होंने बताया कि यह "बलात्कार' सौंदर्यपान की कोई आक्रामक अवहट्टी परंपरा का नाम है या किसी महिला के खिलाफ सीधे-सीधे सेक्सुअल अटैक को क्लीन चिट। कवि महोदय की पंक्तियों के जिक्र से पहले बस इतना बता दूं कि यह बात तब की है जब एक भारतीय सुंदरी इंगलैंड सरकार के कई मंत्रियों के बेडरूम तक दाखिल हो गई थी। "पामेला बोर्डसे मैं तुमसे बेपनाह मुहब्बत करता हूं', यह लिखकर कवि ने जताया कि दुनिया की क्रूर विस्तारवादी ताकतों का नाड़ा खोलना भी कम क्रांतिकारी कामयाबी नहीं है।
बहरहाल सुनंदा, अब जिक्र आपके दहकते स्टेटमेंट की। मीडिया ने जिस तरह आपको एक महिला होने के कारण आपसे जुड़े प्रसंगों में चटखारेदार दिलचस्पी दिखाई, इसकी कुछ हलकों में कड़ी आलोचना भी हुई है। और इस एक मुद्दे पर मीडिया के रोल को कंडेम भी किया जा सकता है। आज इस मुद्दे पर देश में तकरीबन सहमति है कि महिलाओं की छवि बिगाड़ने में सबसे संगीन हाथ मीडिया का रहा है। आलम यह है कि मुंबई और मद्रास में बनने वाली बी और सी ग्रेड की फिल्मों से लेकर देसी पॉन बाजार भी इस मामले में मीडिया से पीछे है।
यहां बात हम सिर्फ छवियों की नहीं कर रहे, बल्कि उस पूरे कांटेट की कर रहे हं, ै जो 24 घंटे हमारे टीवी स्क्रीन पर नाचता है। पर समय और समाज की नजर में आपने जो खूबसूरती की परिभाषा दी है, वह भी कम दिलचस्प नहीं है। समझ में नहीं आता कि आप बाजार के कारण बढ़े बाजारूपन के खिलाफ हैं या सिर्फ बाजारू सस्तापन आपको अखरता है। आपने जैसा अपने बारे में बताया, उससे यह तो लगता है कि आप खासी जागरूक महिला भी हैं। जिस आईपीएल के बहाने आपको लेकर तरह-तरह की बातें की गईं, उसने भी महिलाओं के "बाजारू' और "चीयरफूल' इस्तेमाल को ही बढ़ावा दिया है। एक महिला जो अपने खिलाफ सतही प्रतिक्रिया से तिलमिला रही है, उससे यह उम्मीद भी की ही जा सकती है कि वह उस पूरी महिला जाति के रूप में भी सोचे कि कैसे उसके बारे में बात करते हुए आंखों में नाखून उगने लगते हैं और कैसे उसकी छवि को आकर्षक और सुंदर कहने के बहाने उसके देह पर अंगुलयिां तैराने की प्रवृत्ति जागती है।
वैसे मैडम इन दिनों आपकी नई शादी की चर्चा भी है। इंगेज्मेंट फंक्शन को लेकर तो छान-छानकर खबरें छापी-बांची जा रही हैं। सो अपन भी इस बारे में अपनी थोड़ी मालोमात बढ़ा पाए हैं। अगर ये सारी खबरें सच्ची हैं तो आपको मेरी ओर से सिंदूरी शुभकामनाएं। विवाह संस्था के प्रति आपकी बारंबार प्रकट हुई श्रद्धा आपकी एक भारतीय नारी की छवि को पूरी करती है। शायद आपको भी बाजार के दौर की नहीं बल्कि पांच हजार साल से दूध पिलाती परंपरा और देश-समाज की बेटी होने में फख्र महसूस हो।
आपका ही
एक शुभचिंतक

बर्बर बार्बी


रंगों को बरमुडा की तरह पहन फिरने वाली
बादलों को पतंगों की तरह आसमान में टांकने वाली
मौसम को छतरी की तरह ताने जयपुरिया रेत से मुंहजोड़ी करने वाली
जिंदगी को ए ेश्वर्या राय का लार्जर कट आउट कहने वाली
पकड़ को आइसक्रीम और रगड़ को पास्ता जैसा चखने वाली
सख्त बर्फीले चट्टान पर निर्वस्त्र कंदील की तरह जलने वाली
आंखों की लाल डोरी से खिंचे झुले में बदहवास हिंडोले भरने वाली
बर्बर बार्बियों ने ट्रेजडी का नया आख्यान लिखा है
रात के तकिए पर सबसे तेज शराब का नाम लिखा है
दुनिया को कायर... खुद को महान लिखा है...

11.0610