भारत का एक राष्ट्र और संस्कृति के रूप में अभ्युदय नया नहीं है। यही नहीं लोक और परंपरा की गोद में दूध पीती यहां की बहुरंगी संस्कृति का कलेवर शुरू से सतरंगी रहा है। दुनियाभर में यही हमारी पहचान भी रही है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत भी है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चिंता जताई है कि बहुसंस्कृति, संयम और भाईचारे की समृद्ध विरासत पर खतरा है और इसे हर हाल में बचाया जाना चाहिए। उन्होंने खासतौर पर बुद्धिजीवियों से अपील की है कि वे इस विरासत को अक्षुण्ण बनाए रखने में योगदान करें। बुद्धिजीवियों की भूमिका और उनकी दरकार को इस तरह स्वीकार करना अगर ऊपरी या रस्मी नहीं है तो मौजूदा स्थितियों में यह बड़ी बात है और स्वागतयोग्य भी। यह और बात है कि विद्वानों और कला-संस्कृति के जानकारों के लिए बना ऊपरी सदन अब इनकी उपस्थिति को मोहताज है। वहां दाखिले के लिए अब दीनारी दमखम चाहिए। सो "संतन को कहां सीकरी सो काम" कहने वाले कैसे वहां पहुंच पाएंगे।
बहरहाल, बात प्रधानमंत्री के हालिया बयान की। दरअसल, मौजूदा दौर में संबंध, संवेदना और संयम को हर स्तर पर खारिज होते जाने का चलन प्रगाढ़ हुआ है और उसकी जगह जो पनप और पसर रहा है, वह है तात्कालिक उत्कर्ष और समृद्धि का उतावलापन। यहां तक की 21वीं सदी में विश्व शक्ति के रूप में भारत की जिस पहचान को विश्व मानचित्र पर उकेरने के उपक्रम चल रहे हैं, उनमें भी सार्वदेशिकता और सार्वकालिकता की बजाय तात्कालिक उत्कर्ष के तर्क ही ज्यादा हावी हैं। सुखद है कि विकास के ग्लोबल दौड़ में भारत को एक द्रुत धावक के रूप में तैयार करने की ऐतिहासिक भूमिका निभाने वाले मनमोहन सिंह को भी इस खतरे का अंदाजा है कि आगे निकलने की जल्दबाजी में कहीं कुछ बहुत महत्वपूर्ण पीछे न छूट जाए।
मनमोहन मानते हैं कि बहुभाषी, बहुधार्मिक और बहुसंस्कृति वाले इस देश में एकता को बनाए रखने की दरकार है। उन्होंने उस अध्यात्म दर्शन का भी हवाला दिया, जिसके कारण हमारे देश को पूरी दुनिया में सबसे ज्यादा प्रतिष्ठा हासिल हुई है। भारतीय चित्त, मानस और काल के अध्येता धर्मपाल हों या लोक और परंपरा के कल्याणकारी संबंध की व्याख्या करने वाले वासुदेवशरण अग्रवाल और रामचंद्र शुक्ल। सबने भारतीय समाज में किसी बाजारू या आर्थिक की बजाय लोकादर्शों की संरक्षा और उसे आगे बढ़ाने वाले तत्वों को अन्यतम बताया है। हमारी यह अन्यतमता नए समय में हमारी महत्ता को सबसे काबिल तरीके से सिद्ध कर सकती है।
खतरा सिर्फ एक है कि चरम भोग की घुट्टी पिलाने वाले बाजारवादी मूल्यों के बीच शांति, संयम और समन्वय का धैर्यपूर्ण पाठ पढ़ने की ललक लोगों में कैसे पैदा की जाए। सरकार के मुखिया अगर स्कूल-कॉलेज के सिलेबसों में किसी फेरबदल या शोध अध्ययनों के साथ इस तरह की कोई गुंजाइश देखते हैं तो यह चिंता और चुनौती दोनों का सरलीकरण होगा।
दरअसल, भारत विकास और समृद्धि की जिस लीक पर अभी चल रहा है, वह उसकी आधुनिकता से तो जरूर मेल खाता है पर बुनियादी प्रकृति के खिलाफ है। दुखद है कि इस दुविधा को लेकर संसद और समाज कहीं भी कोई मंथन या बहस नहीं दिखती। अच्छा होता कि भारतीयता की पारंपरिक छवि को नए संभाल के साथ हम आगे बढ़ाते क्योंकि तब हमारी उपलब्धियां न सिर्फ हमारे रंगो-तेवर के मुताबिक होती बल्कि उसमें हमारी शर्तें भी शामिल होती। तब हम दुनिया के रंग में नहीं बल्कि दुनिया हमारे रंग में रंगती।
आगे बढ़कर पलटना खतरनाक है पर खतरनाक रास्ते पर आंख मूंदकर चल पड़ना भी कोई बुद्धिमानी नहीं। हमें यकीन करना चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री बुद्धिमान तो हैं ही, बड़े से बड़े खतरे के खिलाफ खड़े होने में हर लिहाज से सक्षम भी हैं। इसलिए अगर उनकी चिंता बस "मनमोहनी" न होकर जेहनी तौर पर जायज है तो सरकार के सांस्कृतिक सरोकारों की जमीन एक बार फिर हरीभरी हो सकती है। वैसे इस हरियाली की कामना और इसका दर्शन हो निहायत अलग चीचें हैं। यह "कामना" और "दर्शन" अगर एक सीध में आ जाए तो मौजूदा सदी का नया दशक सचमुच कई मायने में क्रांतिकारी साबित हो सकता है।
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