रविवार, 19 दिसंबर 2010
बस यह उम्मीद डिलीट न हो !
कोई दौर जब क्रांतिकारी है तो उसकी उपलब्धियां भी ऐतिहासिक महत्व की होंगी ही। एक क्रांतिकारी समय की अगर यही अवधारणा ज्यादा मान्य और यही उसकी अंतिम शर्त है तब तो हमारा समय कई मायनों में क्रांतिकारी भी है और ऐतिहासिक भी। सूचना, संवाद, बाजार, खुला अर्थतंत्र, इंटरनेट, मोबाइल, सोशल नेटवर्किग जैसे न जाने कितने सर्ग पिछले एक-दो दशक में खुले हैं। रहा जहां तक भारत का सवाल तो वह इसमें से किसी क्रांति का सूत्रधार भले न हो उसकी सबसे बड़ी लेबोरेटरी जरूर रहा है। इस लिहाज से अपने देश की बाकी दुनिया में कद्र भी है और साख भी।
नई खबर यह है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी के हाथ सूचना क्रांति के सबसे लोकप्रिय और तेज औजार मोबाइल फोन से लैस हो चुके हैं। भारत की विकसित छवि के लिए यह खबर बड़ी तो है ही जरूरी भी है। दिलचस्प है कि इलेक्ट्रानिक क्रांति के विश्व पुरोधा चीन के राष्ट्रपति वेन जियाबाओ हाल में जब भारत आए तो तमाम राजनैतिक-कूटनीतिक मतभेदों के बावजूद उन्होंने भारत में विकसित हो रही बाजार संभावनाओं को सलामी ठोकी। नत्थी वीजा और अरुणाचल जैसे मुद्दों पर सोची-समझी चुप्पी साधने वाले देश की तरफ से दिखाई जा रही इस तरह की विनम्रता की दरकार को अगर समझें तो कहना पड़ेगा कि भारत अपनी एटमी ताकत के बूते जितना ताकतवर नहीं हुआ, उससे ज्यादा सबसे बड़े रकवे में फैले बाजार का मालिकान उसे शक्तिशाली बनाता है। इससे पहले बराक ओबामा भी भारत आकर तकरीबन ऐसी ही प्रतिक्रिया जता चुके हैं।
संवाद क्रांति का रास्ता समाज के बीच से नहीं बाजार की भीड़ के बीच से फूटा है। यह रास्ता आज प्रशस्त मार्ग बन चुका है, जिस पर देशी-विदेशी कंपनियों के साथ देश की नौजवान पीढ़ी दौड़ रही है। होना तो यह चाहिए था कि संवाद की ताकत से हमारे लोकतांत्रिक सरोकारों को ज्यादा मजबूती मिलती तथा शासन और समाज का नया घना तानाबाना खड़ा होता। पर हुआ ठीक इसके उलट। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के दौर में रातोंरात जवान होने वाला पैशन जिस तेजी से मोबाइल कंपनियों की अंटी को वजनी कर रहा है, उससे ज्यादा तेजी से लोक, परंपरा और समाज की जड़ों में मट्ठा डाल रहा है। यह चिंता गुमराह करने वाले कई सुखद एहसासों से बार-बार ढकी जाती है। नहीं तो ऐसा विरोधाभास क्यों दिखता कि अजनबीयत, संवादहीनता और संवेदनशून्यता की जंगल में तब्दील हो रहे नए समाज में हर दूसरे व्यक्ति के पास संवाद बनाने का मोबाइल यंत्र है।
तकनीक का विकास जरूरी है और इस पर किसी सूरत लगाम नहीं चढ़ाई जा सकती लेकिन यह खतरा मोल लेना भी बुद्धिमानी नहीं होगी कि व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली बुनावट की ही काट-छांट शुरू हो जाए। कितना अच्छा होता कि मोबाइल फोन का इस्तेमाल पिज्जा-बर्गर आर्डर करने या युवा स्वच्छंदता को बिंदास अंदाज में बढ़ाने-भड़काने जैसे उपयोगों की जगह यह बताया-समझाया जाता कि परिवार-समाज और व्यवस्था के बीच के रिश्ते को यह संवाद यंत्र कैसे मजबूत करता है।
इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि देश में भ्रष्टाचार और आंतरिक सुरक्षा से लेकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही बर्बरता को लेकर चिंता है, उसे खतरनाक तरीके से बढ़ाने में एक बड़ी भूमिका मोबाइल फोन और इंटरनेट की है। वैकल्पिक विकास की सोच वाले कुछ गैरसरकारी संगठनों ने केरल और महाराष्ट्र सहित देश के कुछ अन्य हिस्सों में सामाजिक जागरूकता बढ़ाने और एक बेहतर नागरिक समाज की रचना में मोबाइल फोन और उसकी एसएमएस सुविधा का कारगर इस्तेमाल शुरू किया है। मुनाफे की सीख देने वाले आर्थिक ढांचे के बीच अगर इस तरह की सार्थक गुंजाइशों की संभावना थोड़ी और बढ़े तो यह कहना और मानना दोनों सार्थक होगा कि हम संवाद को तकनीकी क्रांति या बाजारू उपक्रम की जगह लोकतांत्रिक सरोकारों को पुष्ट करने वाला आधुनिक जरिया भी मानते हैं।
...तो क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र उसके सरोकारों को भी बड़ा और मजबूत बनाने की आधुनिक मिसाल दुनिया के सामने रख पाने में कामयाब होगा। अगर यह उम्मीद हमारे समय के इनबाक्स से डिलीट नहीं होता और इसके लिए जरूरी पहलों की ट्रिनट्रिन पर हम-आप सब सचमुच दौड़ पड़ते हैं तो निश्चित रूप से भारत संवाद क्रांति का आपवादिक लेकिन सबसे सार्थक और कल्याणकारी सर्ग लिखने वाला देश हो सकता है।
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