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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कुछ सबक तो लें माननीय

पंद्रहवीं लोकसभा देश के संसदीय लोकतंत्र को लेकर उठने वाले कई सामयिक सवालों और एतराजों की साक्षी रही। लोकसभा सत्र के आखिरी दिन सांसद भावुकता में भले एक-दूसरे के प्रति अपने शिकवे-शिकायतों को दूर कर सौहार्द बढ़ाते दिखे, पर इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस लोकसभा का कार्यकाल सदन के अंदर और बाहर सर्वाधिक सवालों के घेरे में रहा। काम के घंटे और पास होने वाले बिलों का लेखा-जोखा अगर छोड़ भी दें तो बीते पांच सालों में सदन के आचरण और उसकी प्राथमिकताओं पर लगातार सवाल उठाए गए। एक तरफ इसे 'दागियों का सदन’ कहा गया तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने की उसकी प्रतिबद्धता को कठघरे में खड़ा किया गया।
भूले नहीं हैं लोग साल 2०11 के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम को जब जनलोकपाल बिल को पास कराने को लेकर समाजसेवी अण्णा हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें सदन के अंदर यह कहते हुए सैल्यूट कर रहे थे कि संसद भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक पहल के लिए तैयार है, प्रतिबद्ध है।
लोकसभा के अंतिम सत्र की समाप्ति पर प्रधानमंत्री जब अपनी सरकार की कामयाबी गिना रहे थे तो वे यह कहना भूल गए कि इस देश में लोकशाही इसलिए मजबूत नहीं है कि यह सदन उसके लिए प्रतिबद्ध है बल्कि इस देश की जनता की लोकतांत्रिक आस्था इतनी मजबूत है कि वह विचलन की स्थिति में संसदीय गणतंत्र को भी राह दिखाती है।
15वीं लोकसभा के कार्यकाल को लेकर ये कुछ बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इससे यह साफ होता है कि इसके कार्यकाल में सरकारी भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले खुले और इसकी आंच मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक पर पहुंची। यही नहीं, इस दौरान कई मामलों की जांच में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई, उसकी कर्तव्यहीनता को शर्मनाक करार दिया।
क्या दाग अच्छे हैं

लोकसभा की कार्यवाही के आखिरी दिन का मंजर देखकर यह नहीं लग रहा था कि यह सदन अपने अमर्यादित आचरण और लोकहित के प्रति अपनी लापरवाही के लिए कहीं से शर्मसार है। सौहार्द के बोल सरकार की तरफ से तो बोले ही गए, विपक्ष ने भी सरकार की विफलता पर हलकी चुटकी लेने से ज्यादा तल्खी दिखाने को तैयार नहीं दिखी।
कई सांसदों ने आत्मावलोकन की बात जरूर की पर इसमें ये बात कहीं से रेखांकित नहीं हुई कि इस लोकसभा के 543 में से 162 यानी तकरीबन 3० फीसदी सांसदों का रिकॉर्ड दागदार है। यही नहीं, जब आपराधिक रिकॉर्ड वाले ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए तो इसके खिलाफ बिल लाने की मांग उठी। इस पहल के लिए सबसे पहले सरकार ललक से भरी। फिर विपक्ष भी कहीं न कहीं सरकार के साथ खड़ा दिखा।
वैसे इस बिल को संसद की हरी झंडी नहीं मिली और जब आनन-फानन में सरकार इस पर अध्यादेश लाने को तैयार हुई तो जनता के मूड को भांपते हुए विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया। बाद में नाटकीय तरीके से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को रद्दी की टोकड़ी में फेंकने की बात कही और सरकार को अपने ही घोषित एजेंडे से यू-टर्न लेना पड़ा।
यह सब देखकर इस लोकसभा के आचरण और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को बहाल रखने की उसकी प्रतिबद्धता को लेकर अंतिम राय क्या बनेगी, कहने की जरूरत नहीं।
तेलंगाना पर हंगामा

15वीं लोकसभा ने सबसे अशोभनीय आचरण तब दिखाया जब तेलंगाना बिल सदन में आया। सरकार के मंत्री तक वेल में हंगामा मचाते दिखे। हद तो तब हो गई जब माइक तोड़ने से लेकर मिर्ची स्प्रे करकेसदन की कार्यवाही रोकी गई। बाद में जब यह बिल पास भी हुआ तो इस अफरा-तफरी के बीच कि सरकार और विपक्ष दोनों ने अपनाई गई प्रक्रिया पर सवाल उठाए । दिलचस्प है कि इस दौरान सदन में क्या चल रहा था लोग लोकसभा चैनल पर देखना चाह रहे थे पर अचानक ब्लैक आउट करके पूरे देश को अंधेरे में रखा गया। यह अंधेरा इतिहास के पन्नों पर भी इस लोकसभा का पीछा शायद ही छोड़े।
 

सोमवार, 9 सितंबर 2013

ऐसे तो बनने से रहा वेलफेयर स्टेट


क्या देश वेलफेयर स्टेट बनने की तरफ लौट रहा है? दरअसल, यह सवाल या बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि यह तो उस गफलत का नाम है जो बड़े तार्किक तरीके से लोगों के मन में उतारी जा रही है। सूचना, शिक्षा और रोजगार के अधिकार (मनरेगा) के बाद खाद्यान्न सुरक्षा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाकर मनमोहन सरकार ने इस गफलत या मुगालते को बतौर सियासी हथियार और चोखा कर लिया है। वैसे देश में जो आर्थिक सूरत है, उसमें इस मेगा योजना के कारण कहीं पूरी इकोनमी ही धराशायी न हो जाए, यह खतरा भी कई अर्थ पंडितों को दिख रहा है। बहरहाल, राजनीति और सरोकारों की भावुक समझ रखने वालों को तो यह लग ही सकता है कि एक सरकार अगर स्कूल में गरीब बच्चों के खाने से लेकर उसके परिवार के लिए काम और रोटी तक की फिक्र कर रही है तो इस व्यवस्था को कल्याणकारी क्यों न कहा जाए। इस भावुक दरकार पर खरा उतरने से पहले जरूरी है यह समझ लेना कि सामथ्र्य देने या बांटने में नहीं बल्कि शक्ति, अधिकार और उद्यम का विकेंद्रित ढांचा खड़ा करने में है।
बदकिस्मती से ये मुद्दा अलग-अलग संदर्भों में आजादी के समय भी खड़ा हुआ, फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान और हाल में सिविल सोसाइटी द्बारा। पर तीनों ही मौकों पर सरकार और उसकी केंद्रित शक्ति को थामने की सियासी लालसा रखने वाली जमात ने इसकी अनदेखी की। दरअसल, इस दरकार पर खरा उतरने का मतलब है जनता पर राज करने और फिर उस पर कृपा बरसाने की राजसी शैली का खारिज होना।
इस संबंध में एक प्रसंग की चर्चा जरूरी है। गांधी ने जो राष्ट्र निर्माण की कल्पना की थी, उसे उनके आलोचक अव्यावहारिक और थोथा आदर्शवाद बताते रहे हैं। आर्थिक समझ को लेकर तो गांधी को आमतौर पर गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। पर वस्तुत: ऐसा है नहीं। दरअसल, राष्ट्रपिता को लेकर ऐसा मानस बनाने वालों में वे तमाम लोग शामिल हैं, जिन्हें सत्ता के गलियारे में अपनी आवाजाही बनाए रखना सबसे जरूरी जान पड़ता है। सत्ता की ताकत से न तो लोकतंत्र की ताकत बढ़ती है और न ही इससे कोई कल्याणकारी मकसद हासिल किया जा सकता है। गांधी ने इसीलिए आजादी मिलते ही कांग्रेस के विसर्जन की भी बात कही थी। उनके अनन्य और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की एक किताब है-'द इकोनमी ऑफ परमानेंस’। दुनियाभर के आर्थिक विद्बानों के बीच इस किताब को बाइबिल सरीखा दर्जा हासिल है। आज अमत्र्य सेन और ज्यां द्रेज सरीखे अर्थशास्त्री जिस कल्याणकारी विकास की दरकार को सामने रखते हैं, उसके पीछे का तर्क कुमारप्पा की आर्थिक अवधारणा की देन है। कुमारप्पा इस किताब में साफ करते हैं कि विकेंद्रित स्तर पर 'संभव स्वाबलंबन’ को मूर्त ढांचे में तब्दील किए बिना देश की आर्थिक सशक्तता की मंजिल हासिल नहीं की जा सकती है। पर निजी क्षेत्र की केंद्रित पूंजी की अठखेली के लिए 'सेज’ बिछाने वाली सरकारों को इन सरोकारों से कहां मतलब कि जनता तक मदद के हाथ पहुंचने से ज्यादा जरूरी है, वह भरोसा और हक, जिसमें वह अपने बूते अपनी जिम्मेदारियों का वहन कर सके।
समावेशी विकास का जो नया जुमला देश में उछला है, उसके पीछे वजह यही रही है कि वर्टिकल ग्रोथ के दौर में विकास की चादर इतनी सिकुड़ती चली गई कि देश की बड़ी आबादी का हिस्सा उससे बाहर ही रह गया। आंकड़ों में किसानों की आत्महत्या और गरीबी की जो भयावह तस्वीर उभरी है, वह विकास की उदारवादी व्यवस्था पर सामने से उंगली उठाती है। नागरिक अस्मिता को महज एक उपभोक्ता की हैसियत में बदल देने वाले मनमोहनों से पूछना चाहिए कि आजादी के आसपास जब डॉलर और रुपए की हैसियत तकरीबन बराबर थी, फिर अर्थ के कल्याणकारी मार्ग को छोड़कर महज आवारा निजी पूंजी के लिए उदार राह क्यों चुनी गई? क्या यह एक बड़ी आबादी वाले देश की श्रमशक्ति और पुरुषार्थ के प्रति अविश्वास नहीं है कि उनके बूते विकास की तस्वीर मुकम्मल नहीं हो सकती।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो आजादी के बाद सरकार की जो नीतिगत समझ थी उसमें विकास को सार्वजनिक उपक्रमों के जरिए वह आगे बढ़ा रही थी, उस दौरान भी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और राज व्यवस्था की बात होती थी। दस साल पहले तक सरकारी पाठ्यपुस्तकों में इस बारे में सैद्धांतिक समझ विकसित करने के लिए बच्चों के लिए अलग से पाठ तय थे। पर बाजार का दौर आते-आते देश की पूरी व्यवस्था ने जो बड़ी करवट ली, उसमें पुरानी लीक नई सीख के आगे छोटी पड़ गई। नई दरकारों ने नए सरोकारों की जमीन तैयार कर दी। शुरुआत यहां से हुई कि जनकल्याणकारी होने के नाम पर सरकार अपने कंधे पर अतिरिक्त बोझ न उठाए। तालीम की सरकारी व्यवस्था से लेकर सार्वजनिक उपक्रमों की उपेक्षा ने देश में निजी क्षेत्र की ताकत को रातोंरात खासा बढ़ा दिया।
अब तो आलम यह है कि बिजली-पानी-सड़क मुहैया कराने तक में सरकार ने अपने हाथ समेटने शुरू कर दिए हैं। बात इतने पर ही थमती तो भी गनीमत थी। सरकार ने तो बजाप्ते निजी समूहों के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर तमाम वित्तीय सहूलियतें देने की जवाबदेही अपने कंधों पर उठा रखी है।
गरीबों की फिक्रमंदी में तारीख रचने का दंभ भरने वाली यूपीए सरकार से कोई पूछे कि जिस एजेंडे को वह जनहित में लागू करने में जुटी है क्या वह जनता के स्तर पर या उसकी मांग पर तय हुए हैं। जनता अपना सरोकार जिन मुद्दों पर दिखा ही नहीं रही है सरकार उस पर आगे क्यों बढ़ रही है? फिर इसे कोई महज वोट पॉलिटिक्स कहे तो इसमें गलत क्या है? सस्ता राशन या मुफ्त भोजन का लालच एक वोटर को महज वोटर कहां रहने देता है। कम से कम पिछले चार सालों में देश को जिन मुद्दों ने सबसे ज्यादा झकझोरा है, उनमें भ्रष्टाचार, महंगाई और महिला असुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर रहा। इन मुद्दों को लेकर जनता एकाधिक बार सड़कों पर उतरी और वह भी बिना किसी सियासी छतरी में खड़े हुए बिना। उनके हाथों में कुछ था तो बस कुछ मांगें और मार्मिक आह्वान की तख्तियां या फिर तिरंगा। पर इनमें से किसी मुद्दे से मुठभेड़ को सरकार तैयार नहीं है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल संस्था को खड़ा करने की उसकी कवायद का तो हश्र यही है कि सरकार अपने अब तक के कार्यकाल में खुद कई बड़े भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरती रही है। आलम यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी चरित्र के लोगों की सांसदी-विधायकी जाने की बात कही और उनके चुनाव लड़ने तक पर सवाल उठा दिए तो सरकार तो क्या पूरी पॉलिटिकल क्लास उसके तोड़ को लेकर सहमत हो गई। नैतिकता के इतने मजबूत जोड़ के साथ वेलफेयर तो दूर, कुछ भी फेयर रहना मुश्किल है।

बुधवार, 31 अगस्त 2011

लोकशाही तो है पर यकीन क्यों नहीं होता!


संसद और सांसदों दोनों के लिए मैजूदा दौर मुश्किलें बढ़ाने वाला है। दिलचस्प है कि इन दोनों की भूमिका और विशेषाधिकारों पर जिसे देखिए वही सवाल उछाल दे रहा है। असल में इस सारी मुसीबत की जड़ में दल हैं और उनसे पैदा हुआ राजनीतिक दलदल है। देश के लोकतंत्र को जो लोग संसदीय सर्वोच्चता के मूल्य के साथ समझने के हिमायती हैं, उन्हें भी आज शायद ही इस बात को कबूलने में कठिनाई हो कि दलीय राजनीति के छह दशक के अनुभव ने इस मू्ल्य को बहुत मू्ल्यवान नहीं रहने दिया है। नहीं तो ऐसा कभी नहीं होता कि विचार और लोकहित की अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अलग-अलग नाम और रंग के झंडे उड़ाने वाली पार्टियों और उनके नेताओं की विश्वसनीयता पर ही सबसे ज्यादा सवाल उठते।   
अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात करें तो इस आंदोलन को मिला अपार लोकसमर्थन कहीं न कहीं राजनीतिक बिरादरी की जनता के बीच खारिज हुई विश्वसनीयता और आधार के सच को भी बयान करती है। एक गैरदलीय मुहिम का महज कुछ ही महीनों में प्रकट हुआ आंदोलनात्मक तेवर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की जमीन को नए सिरे से तैयार करने की दरकार को सामने रखता है। अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ महीनों में इस तैयारी का न सिर्फ लोकसमर्थित तर्क खड़ा हुआ है, बल्कि इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव भी बढ़ा है। कांग्रेस और भाजपा के कुछ सांसदों ने आज अगर अपने ही दलीय अनुशासन के खिलाफ जाने की हिमाकत दिखाई है तो यह इसलिए कि जनता से लगातार कटते जाने के खतरे को कुछ नेता अब समझने को तैयार हैं।
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम में जनता का गुस्सा हर दल और उसके सांसदों के प्रति दिखा है। यह गुस्सा इसलिए है कि लोकतंत्र को देश में एक दिन के चुनावी अनुष्ठान तक सीमित कर दिया गया है। लोकसंवाद की सतत प्रक्रिया पांच साल की मुंहजोही के लिए मजबूर हो गई है। एक सफल लोकतंत्र जीवंत और प्रगतिशील भी होता है। समय और अनुभव के साथ उसमें संशोधन जरूरी है। जनलोकपाल अगर आज की तारीख में जनता का एक बड़ा मुद्दा है तो इसके बाद सबसे जरूरी मुद्दा दलीय राजनीति के ढांचे आैर चुनाव प्रणाली में सुधार है।
दिलचस्प है कि खुद हजारे ने भी पिछले दिनों जनप्रतिनिधत्व तय करने वाली मौजूदा परंपरा और  तरीके पर सवाल उठाए हैं। यही नहीं उन्होंने तो संसदीय सर्वोच्चता की दलील के बरक्स लोकतंत्र की अपनी नई समझ भी रखी है। पंचायतीराज का मॉडल प्रातिनिधिक के सामने प्रत्यक्ष और  विकेंद्रित लोकतांत्रिक संस्था की अनोखी मिसाल है। लोकसभा और विधानसभाओं के विशेषाधिकार का तर्क ग्रामसभाओं के अविघटनकारी विशेषता के सामने कमजोर मालूम पड़ते हैं। यहीं नहीं पिछले चार दशकों से उठती आ रही 'पार्टीलेस डेमोक्रेसी" की मांग एक बार फिर से केंद्र में आ रही है। नए समय में यह मांग जहां नए सरोकारों से लैस हो रही हैं, वहीं दलों से पैदा राजनीतिक गलीज और  दलदल ने इस दरकार को और ज्यादा पुष्ट कर दिया है।
 लिहाजा, अब वक्त आ गया है कि देश अपनी लोकतांत्रिक परंपरा को नए संदर्भ और समय के अनुरूप मांजने को तत्पर हो। अगर यह तत्परता राजनीतिक दलों के भीतर से अब भी स्वत: नहीं प्रकट होता तो यह उनकी एक अदूरदर्शी समझ होगी। उम्मीद करनी चाहिए कि अपने लोकतांत्रिक अधिकारों व दायित्वों को लेकर जनता और उनकी नुमाइंदगी करने वालों में साझी समझदारी प्रकट होगी। और पिछले साठ सालों की यात्रा के बाद देश एक बार फिर अपने लोकतांत्रिक आधारों को पुष्ट करने के लिए तत्पर होगा। इस तत्परता का फलित भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को काफी हद तक तय करने वाला होगा।

दैनिक जागरण : ‘फिर से’ में पूरबिया का अन्ना

posted by Admin at Blogs In Media - 11 hours ago
30 अगस्त 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के नियमित स्तंभ ‘फिर से’ में पूरबिया का अन्ना

बुधवार, 11 मई 2011

जागरण में अन्ना

दूरी हमारी पहचान के गाढ़ेपन को तो हल्का करती है पर उसके दायरे को बढ़ा देती है। नजरिया, मजहब, राजनीति, स्थान और बोली के अंतर देश में जिस अनेकता की लकीरों के रूप में दिखते हैं, देश के बाहर वही अनेकता हमें एकता के सूत्र में बांधती है। दूरी और मनुष्य के रिश्ते का यह मनोवैज्ञानिक सच तो है ही उसके सामाजिक और सार्वजनिक सलूक से जुड़ी बुनियादी बात भी है। जिस अन्ना हजारे को अपने देश में और अपनी सरकार से अपनी बातें कहने-मनवाने के लिए 98 घंटे का अनशन करना पड़ा, उसी को लेकर सरकार को जब देश के बाहर अपनी बातें कहनी होती है तो वह इसे किसी टकराव या मतभेद के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली का नया आयाम बताती है...

रविवार, 8 मई 2011

देस में मना परदेस में अन्ना


दूर होकर भी हम किसी के बेहद करीब हो सकते हैं और कोई बेहद नजदीक होकर भी हमारा नहीं होता। ये बातें प्रेमाख्यानों और कविताई में ही नहीं, जिंदगी की कई दूसरी सूरतों में भी हम बारहा महसूस करते हैं। असल में दूरी और नजदीकी का सच समय, स्थान और परिवेश के साथ बदलता है। कहा यह भी जाता है कि दूरी हमारी पहचान के गाढ़ेपन को तो हल्का करती है पर उसके दायरे को बढ़ा देती है। नजरिया, मजहब, राजनीति, स्थान और बोली के अंतर देश में जिस अनेकता की लकीरों के रूप में दिखते हैं, देश के बाहर वही अनेकता हमें एकता के सूत्र में बांधती है। दूरी और मनुष्य के रिश्ते का यह मनोवैज्ञानिक सच तो है ही उसके सामाजिक और सार्वजनिक सलूक से जुड़ी बुनियादी बात भी है।
जिस अन्ना हजारे को अपने देश में और अपनी सरकार से अपनी बातें कहने-मनवाने के लिए 98 घंटे का अनशन करना पड़ा, उसी को लेकर सरकार को जब देश के बाहर अपनी बातें कहनी होती है तो वह इसे किसी टकराव या मतभेद के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली का नया आयाम बताती है। वित्त मंत्री प्रणव मुख़र्जी उस लोकपाल बिल प्रारूप समिति के अध्यक्ष हैं, जिनमें पांच सदस्य सरकार की तरफ से और पांच सदस्य नागरिक समाज की नुमाइंदगी कर रहे हैं। स्वतंत्र भारत की इतिहास में यह अभिनव प्रयोग है, जब कानून बनान के लिए सामज और सरकार एक साथ बैठी है। चूंकि प्रयोग नया है, लिहाजा इस पर प्रतिक्रियाएं भी कई तरह की हैं। सरकार के साथ राजनीतिक बिरादरी में अभी तक इस बात को लेकर बयानबाजी जारी है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना का प्रयोग सैद्धांतिक तकाजों पर कितना खरा या खतरनाक है। पर ये बातें देश के भीतर जिस तरह की प्रतिक्रिया को जन्म दे रही हैं, देश की सीमा से बाहर उसका स्वरूप इससे नितांत भिन्न है। अमेरिका से लेकर यूके और फ्रांस तक में अन्ना के सत्याग्रही प्रयोग के कई प्रशंसक हैं और वे अपने-अपने तरह से इस पहल को ग्लोबल बनाने के लिए प्रयासरत भी हैं।

इस स्थिति से सरकार भी अवगत है और वह इसे लोकतांत्रिक ढांचे के सशक्तिकरण की कोशिश के रूप में ही दुनिया के आगे रखना चाहती है। तभी तो एशियाई विकास बैंक की बैठक के दौरान जब प्रणव मुखर्जी को जब अन्ना हजारे को लेकर प्रतिक्रिया जतानी पड़ी तो वह यह स्वीकार करने में जरा भी नहीं हिचके कि लोकपाल मुद्दे पर सामाजिक संगठनों के दबाव में सरकार को तत्काल कार्रवाई करनी पड़ी क्योंकि कोई भी जिम्मेदार और जवाबदेह सरकार इसकी अनदेखी नहीं कर सकती। मुखर्जी एक वरिष्ठ राजनेता हैं। वह यह जानते हैं कि लोकतंत्र की मर्यादाएं क्या हैं और किस तरह असहमतियों के बीच सहमति की गुंजाइश निकालनी पड़ती है। तभी तो वे इस मौके पर यह कहना भी नहीं भूले कि सरकार की कार्यप्रणाली के विभिन्न पहलू पारदर्शी, जवाबदेह और भ्रष्टाचार मुक्त तो होना ही चाहिए।
देश के बाहर देश की जिस तस्वीर को हम निहायत ही भावुकता के साथ बनाते हैं, उस तस्वीर का सच देश के भीतर भी प्रकट हो तो विचार और वस्तुस्थिति की अनेकता के बीच एकता कायम होगी। लोकपाल बिल प्रारूप समिति की अभी तीन बैठकें हुई हैं। बैठक के टेबल से सहयोग और सौहार्द का संदेश ही बाहर जाए ऐसी कोशिश दोनों पक्षों की तरफ से रही है। देश के भीतर भी ऐसा ही माहौल रहे तो बड़ी बात होगी। क्योंकि परेदस में देस याद आना और देस में इस याद का बिसर जाना खतरनाक है। यह बात कोई और समझे न समझे प्रणव दा तो जरूर समझते होंगे।

गुरुवार, 5 मई 2011

अमूल बेबी की आरटीआई : जागरण में ‘पूरबिया’

राहुल का  भारतीय राजनीति के सबसे ख्यात और शक्तिशाली परिवार से आते हैं, उनकी पार्टी कांग्रेस भी देश की आज तक नंबर एक राजनीतिक पार्टी है। अगर लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना, उन्हें समझना और लोक संवाद के जरिए लगातार संघर्ष के लिए तत्पर बने रहना राजनीति की कम से कम वह सीख तो नहीं ही है जिसमें एक तरफ जहां प्याली में क्रांति उबलती है, वहीं दूसरी तरफ लाल बत्ती से नेतृत्व का कद तय होता है। राहुल को लेकर एक राय यह भी है कि धैर्य और सरलता की राह उनकी नीति से ज्यादा रणनीति है। एक ऐसी रणनीति जो उनकी भविष्य में होने वाली ताजपोशी के लिए बनाई गई है। अगर यह बात सही है तो यह जनता के साथ एक और विश्वासघात होगा और लोकतंत्र में लोक की आस्था और भरोसे से खिलवाड़ का खामियाजा बहुत बड़ा है। राहुल को यह भी अभी से समझ लेना होगा...  


मंगलवार, 3 मई 2011

अमूल बेबी को भाई आरटीआई


संघर्ष लोकतंत्र में हमेशा जारी रहने वाली प्रक्रिया है। जिस राजनीति को हम सिर्फ सत्ता की दखली और बेदखली से जोड़कर देखते हैं, वह उस पूरी राजनीति के औचित्य का लेश मात्र भी नहीं, जिसकी एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए दरकार है। यह बातें इसलिए भी समझनी होगी क्योंकि हमें यह लगता है कि नेता और जनता हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ होते हैं, यही उनकी फितरत भी है और यही मौजूदा हालात में सतह पर आई सचाई भी है। दरअसल, राजनीति और संघर्ष के लोकतांत्रिक तकाजे जनता से जुड़े हैं, जनता के लिए हैं। इसलिए जन सरोकार से अलग या उसके उलट न तो कोई दूसरा सरोकार लोकतंत्र में मान्य है और न ही कोई दूसरा रास्ता। साफ है कि लोकतंत्र की ताकत अगर लोक है तो सत्ता और शक्ति के किसी दूसरे केंद्र का ताकतवर होना खतरनाक है। यही बात लोकतांत्रिक संघर्षों को लेकर भी है।
यह कहीं से मुनासिब नहीं कि 'राजपथ' का महत्व 'जनपथ' से ज्यादा हो। अगर जनता और नेता के संघर्ष के औजार भिन्न होंगे तो इसका मतलब है कि लोक के लोप की कीमत पर नेता नेतागीरी का स्कोप देख रहे हैं। जिन लोगों को भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के आगमन और आगे बढ़ने के उनके सीधे-सरल लोकतांत्रिक तरीके पर जरा भी यकीन हो, उन्हें यह जानना अच्छा लगा होगा कि सरकारी योजनाओं में घपलों-घोटालों को उजागर करने के लिए उन्होंने ओरटीआई को हथियार बनाया है। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ खुद से अर्जी लगाई बल्कि यह दिखाया भी कि नेतागीरी की धौंस और सत्ता की पागल कर देने वाली राजनीति में उनका कोई यकीन नहीं। कलावती की झोपड़ी में रात बिताकर परिवर्तन के सवेरे की बात करने वाले इस युवा नेता की कथनी और करनी अगर सचमुच एकमेक है तो यह बड़ी बात है।
राहुल भारतीय राजनीति के सबसे ख्यात और शक्तिशाली परिवार से आते हैं, उनकी पार्टी कांग्रेस भी देश की आज तक नंबर एक राजनीतिक पार्टी है। अगर लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना, उन्हें समझना और लोक संवाद के जरिए लगातार संघर्ष के लिए तत्पर बने रहना राजनीति की कम से कम वह सीख तो नहीं ही है जिसमें एक तरफ जहां प्याली में क्रांति उबलती है, वहीं दूसरी तरफ लाल बत्ती से नेतृत्व का कद तय होता है। राहुल को लेकर एक राय यह भी है कि धैर्य और सरलता की राह उनकी नीति से ज्यादा रणनीति है। एक ऐसी रणनीति जो उनकी भविष्य में होने वाली ताजपोशी के लिए बनाई गई है। अगर यह बात सही है तो यह जनता के साथ एक और विश्वासघात होगा और लोकतंत्र में लोक की आस्था और भरोसे से खिलवाड़ का खामियाजा बहुत बड़ा है। राहुल को यह भी अभी से समझ लेना होगा।  
पिछले दिनों में कई ऐसी पहलें हुई हैं जिसमें आरटीआई सरकार के अपने कामकाज के साथ व्यवस्थापिका की कमजोरियों को तथ्यगत तौर पर उजागर करने का हथियार बना है। इस कारण कई मौके पर जहां जरूरी कदम उठाए गए, वहीं कई मामलों में अदालत तक ने सार्थक हस्तक्षेप किया। अभी नागरिक समाज की सजगता से भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल को लेकर जो मुहिम आगे बढ़ रही है उसके आगाज के पीछे भी आरटीआई कार्यकर्ताओं की सफलता ही है। दरअसल, यह एक ऐसी कानूनी ताकत है जिसके माध्यम से जनता सरकारी कामकाज, उसके खर्च ब्योरे और तौर-तरीकों पर सीधे सवाल उठा सकती है। सरकार और व्यवस्था के कामकाज का इस तरह सार्वजनिक होना, जहां उनकी विश्वसनीयता को बहाल करने का कारगर जरिया बना है, वहीं जनता को भी भरोसा हुआ है कि उसकी योजनाओं और उसके हक के साधनों की गिद्ध लूट अब संभव नहीं।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार की अमर्त्य व्याख्या


अमर्त्य सेन को जब नोबेल मिला था तब इस सम्मान का इसलिए भी स्वागत हुआ था कि इस बहाने बाजार और  भोग का  खपतवादी "अर्थ" सिखाने वाले दौर में वेलफेयर इकॉनमिक्स की दरकार और महत्ता दोनों रेखांकित हुई। अमर्त्य  हमेशा अर्थ के कल्याणकारी लक्ष्य के हिमायती रहे हैं। इसलिए जीडीपी और सेंसेक्सी उछालों में दिखने वाले विकास के मुकाबले वे हमेशा ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को विकास का बैरोमीटर बताते हैं। एक ऐसे दौर में जबकि अर्थ को लेकर तमाम तरह की अनर्थकारी समझ की नीतिगत स्थितियां हर तरफ लोकप्रिय हो रही हैं तो नोबेल विजेता इस अर्थशास्त्री ने दुनिया के सामने कल्याणकारी अर्थनीति की तार्किक व्याख्याएं और दरकार रखी हैं।
हैरत नहीं कि जब भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ी चिंता पर उन्होंने अपनी राय जाहिर की तो देश में दिख रहे तात्कालिक आवेश और आक्रोश से अलग अपनी बात कही। अमर्त्य को नहीं लगता कि भ्रष्टाचार को लेकर सिर्फ मौजूदा मनमोहन सरकार पर दबाव बनाना वाजिब है। वह सरकार और सरकार में बैठे कुछ लोगों की भूमिका से ज्यादा उस व्यवस्थागत खामी का सवाल उठाते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार की पैठ गहरी है। इस लिहाज से माजूदा यूपीए सरकार हो या इसके पहले की सरकारें, दामन किसी का भी साफ नहीं।
अमर्त्य की नजर में भ्रष्टाचार की चुनौती तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर इससे निजात आरोपों और तल्ख प्रतिक्रियाओं से तो कम से कम मिलने से रहा। दुर्भाग्य से देश में संसद से लेकर सड़क तक अभी जो शोर-शराबा दिख रहा है, वह अपने गिरेबान में झांकने की बजाय दूसरे का गिरेबान पकड़ने की नादानी से ज्यादा कुछ भी नहीं। आखिर एक ऐसे समय में जबकि सभी यह स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नैतिकता के सरोकारों का अभाव हर स्तर पर दिख रहा है, हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि भ्रष्टाचार की पागल नदी पर हम ऊपर ही ऊपर नैतिक पाररदर्शिता का सेतु बांध लेंगे या कि ऐसा करना ही इस समस्या का हल भी है।
भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में केंद्र की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली सरकार तक को मुंह की खानी पड़ी है। यह इतिहास अभी इतना पुराना नहीं हुआ है कि इसके सबक और घटनाक्रम लोग भूल गए हों। आज भ्रष्टाचार का पैमाना लबालब है पर इसके खिलाफ कोई संगठित जनाक्रोश नहीं है। विपक्षी पार्टियां खुद इतनी नंगी हैं कि वे इस मुद्दे पर न तो जनता के बीच लंबी तैयारी से जा सकते हैं और न ही सरकार को सधे तार्किक तीरों से पूरी तरह बेध सकती हैं क्योंकि तब तीर उनके खिलाफ भी कम नहीं चलेंगे।
एक और सवाल अमर्त्य सेन ने गठबंधन सरकारों की मजबूरी को लेकर भी उठाया है। उन्होंने मनमोहन सिंह की छवि की तरफ इशारा करते हुए कहा कि भले आपकी ईमानदारी की छवि जगजाहिर हो पर गठबंधन का लेकर कुछ मजबूरियां तो आपके आगे होती ही हैं। दिलचस्प है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का यथार्थ है। पर इस यर्थाथ की पालकी ढोने वाली पार्टियों को यह तो साफ करना ही होगा कि गठबंधन की जरूरत आैर सरकार चलाने की मजबूरी में वे कितनी दूर तक समझौते करेंगे।  
बहरहाल, अर्थ को कल्याण के लक्ष्य के साथ देखने वाले सेन मौजूदा स्थितियों से पूरी तरह निराश भी नहीं हैं। उनकी नजर में भ्रष्टाचार को अब लोग जिस स्पष्टता से स्वीकार कर रहे हैं, वह एक सकारात्मक लक्षण है। किसी समस्या को चुनौतीपूर्वक स्वीकार करने के बाद ही उसके खिलाफ आधारभूत रूप से किसी पहल की गुंजाइश बनती है। अभी कम से कम यह स्थिति तो जरूर आ गई है कि इस बात पर तकरीबन हर पक्ष एकमत है कि अगर समय रहते समाज और व्यवस्था में गहरे उतर चुके भ्रष्टाचार के जहर के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी। बस सवाल यहां आकर फंसा है कि इसके खिलाफ पहल क्या हो और  पहला कदम कौन बढ़ाए। तात्कालिक आवेश पर अंकुश रखकर अगर समाज, सरकार और  राजनीतिक दल कुछ बड़े फैसले लेने के लिए मन बड़ा करें तो एक भ्रष्टाचार विहीन समय और व्यवस्था के सपने को सच कर पाना मुश्लिक नहीं है। अमर्त्य अर्थ के जिस कल्याणकारी लक्ष्य की बात करते हैं, जाहिर है कि उसका शपथ मीडिया, समाज और संसद सबको एक साथ लेना होगा।