LATEST:


मीडिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
मीडिया लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2014

बाजार पूरा और दुनिया आधी


'पावर वूमन’ का आकर्षक कांसेप्ट बाजार में आ गया है। अधिकार, शिक्षा और अर्थ के बूते जिस महिला सशक्तिकरण की समझ अब तक सरकार से लेकर गैरसरकारी संगठन तक दिखा रहे थे, पावर वूमन का कांसेप्ट इन सब का तोड़ है।
दरअसल, पिछले दो दशकों में महिलाओं के आगे जो नई दुनिया खुली है, उसने उनके आगे विकास का नया और चमकदार रास्ता भी खोला है। सुष्मिता सेन, दीया मिर्जा, बिपाशा बसु, नफीसा अली से लेकर शेफाली जरीवाल और राखी सावंत तक के नाम आधी दुनिया के लिए शोहरत और सफलता की सुनहरी इबारत की तरह हैं।
इस सफलता की एक दूसरी धारा भी है, जिनसे समय के बदले बहाव में सबसे क्षमतावान तैराकों के रूप में ख्याति मिली है। ऐसी ही महिलाओं में शुमार इंदिरा नुई, चंदा कोचर और नैना लाल किदवई जैसे नामों को प्रचार माध्यमों ने लोगों को रातोंरात रटा दिए। पावर वूमन का कांसेप्ट इन्हीं महिलाओं को आगे करके गढ़ा गया है। इस पावरफुल कांसेप्ट की चौंध से महिलाओं की बंद दुनिया को खुली और रोशन करने का अब तक का संघर्षमय सफर अचानक खारिज हो गया है।
ऐसे में सवाल यह है कि पिछले कुछ दशकों में जिस लड़ाई और संघर्ष को इरोम शर्मिला, मेधा पाटकर, अरुणा राय, इला भट्ट, रागिनी प्रेम और राधा बहन जैसी महिलाएं आगे बढ़ा रही हैं, क्या वह स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। समाज और राजनीति विज्ञानियों की बड़ी जमात यह मानती है कि हाल के दशकों में भारतीय महिलाओं के हिस्से जो सबसे बड़ी ताकत पहुंची है, वह पंचायती राज के हाथों पहुंची है। दिलचस्प है कि पावर वूमन का कांसेप्ट ऐसी किसी महिला को अपनी अहर्ता प्रदान नहीं करता जिसने इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक सत्ता को न सिर्फ अपने बूते हासिल किया बल्कि उसके कल्याणकारी इस्तेमाल की एक से बढ़कर एक मिसालें भी पेश कीं।
बाजार की खासियत है कि वह आपकी दमित चाहतों को सबसे तेज भांपता है। परंपरा और पुरुषवाद की बेड़ियां झनझना रही महिलाओं को बाजार ने आजादी और सफलता की कामयाबी का नया आकाश दिखाया। कहना गलत नहीं होगा कि इससे आधी दुनिया में कई बदलाव भी आए। पहली बार महिलाओं ने महसूस किया कि उनका आत्मविश्वास कितना पुष्ट और कितना निर्णायक साबित हो सकता है। पर यह सब हुआ बाजार की शर्तों पर और उसके गाइडलाइन के मुताबिक। अब इसका क्या करें कि जिस बाजार का ही चरित्र स्त्री विरोधी है, वह उसकी मुक्ति का पैरोकार रातोंरात हो गया।
पावर वूमन के नाम से जितने भी नाम जेहन में उभरते हैं, उनकी कामयाबी का रास्ता या तो देह को औजार बनाने का है या फिर ज्यादा उपभोग की संस्कृति को चातुर्दिक स्वीकृति दिलाने के पराक्रमी उपक्रम में शामिल होने का। ये दोनों ही रास्ते जितने बाजार हित में हैं, उतने ही स्त्री मुक्ति के खिलाफ। यह मानना सरासर बेवकूफी होगी कि पूंजी और व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की लड़ाई से कटकर एकांगी रूप से महिला संघर्ष का कारवां आगे बढ़ सकता है। इसलिए अगर सम्मान और अभिषेक करना ही है तो वैकल्पिक विकास और संघर्ष की लौ जलाने वाली उन महिलाओं का करना चाहिए, जिसने बाजार, उपभोग और हिसा के पागलपन के खिलाफ समय और समाज के लिए अपने जीवन का लक्ष्य तय किया है।

बुधवार, 22 जनवरी 2014

आप नहीं बदलाव का सारथी


बीते तीन-चार दिनों के घटनाक्रम में देश की राजनीति ने अपने लिए नई व्याख्या और विमर्श की चौहद्दी को और बढ़ा दिया है। निराश वे लोग ज्यादा हैं जिन्हें अब भी लोकतंत्र की व्यवस्था 'इनक्लूसिव’ की जगह 'इंपोजिंग’ ही पसंद आ रही है। 21वीं सदी का दूसरा दशक देश में जिस तरह के लोकतांत्रिक तकाजे को बहस के केंद्र में लेकर आया है, उसकी बुनियादी दरकार ही यही है कि जनकल्याण का ढिंढ़ोरा पीटकर सियासी रोटियां सेंकने के दिन बीत गए। अब तो विकास का कोरा नारा भी व्यापक लोकमत के निर्माण में कारगर औजार साबित होगा, ऐसा कहना जोखिम भरा है। ये तमाम स्थितियां एक ही सवाल को बार-बार रेखांकित कर रही हैं कि जनता और सरकार का अस्तित्व एक दूसरे से जुदा या एक के ऊपर एक की बजाय साझा क्यों नहीं हो सकता? और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर लोकतंत्र में लोक की उपस्थिति कहां है और किस भूमिका के साथ है?
जिन बीते तीन-चार दिनों की हम बात कर रहे हैं उसमें एक तरफ कांग्रेस पार्टी और उनके सबसे लोकप्रिय करार दिए जाने वाले नेता राहुल गांधी बार-बार ये समझाने में लगे रहे कि उनकी सरकार ने जनता को जितना अधिकार संपन्न बनाया है, उसके लिए जितने प्रत्यक्ष लाभाकरी कदम उनकी सरकार ने उठाए हैं, उतना किसी ने नहीं किया है। आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी इन उपलब्धियों के नाम पर जनता से वोट के रूप में अपने लिए श्रेय चाह रही है।
2००9 में जब कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए दोबारा सत्ता में आई थी तो सबने एक तरफ से कहा था कि मनरेगा का जादू काम कर गया। अब जबकि इस साल फिर चुनाव होने हैं तो मनरेगा जैसी मेगा योजना तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। यही नहीं इस दौरान यूपीए-एक और दो के कार्यकाल के कई बड़े घोटाले और वित्तीय अनियमितताओं के मामले भी इस दौरान सामने आए। सूचना के अधिकार कानून के तहत एक के बाद एक खुलासे हुए कि सरकार जिस तरह काम कर रही है, उसमें भ्रष्टाचार से चुनौती से निपटने का कोई कारगर मैकेनिज्म नहीं है। एकाधिक मामलों में सीएजी ने कहा कि फैसले लेने के तरीके में ही नहीं मंशा में भी गलतियां हुई हैं। ऐसे में 'पॉवर वैक्यूम’ से लेकर 'पॉलिसी पैरालाइज’ तक के तमगे सरकार को मिले। फिर इस बीच जिस तरह जनता महंगाई और विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार से जूझती रही, उससे कुल मिलाकर एक मोहभंग की स्थिति पैदा हुई।
दिलचस्प है कि राहुल गांधी इन स्थितियों के बावजूद चीजों को कामचलाऊ तरीके से समझना चाह रहे हैं। सुधार और परिवर्तन के नाम पर वे महज रफ्फूगिरी से काम चलाना चाहते हैं। अपनी गलतियों और असफलताओं को वे उपलब्धियां गिनाकर ढकना चाहते हैं। यह एक आत्मघाती सोच है। पहले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में जिस तरह पार्टी को मुंह की खानी पड़ी, उससे कांग्रेस उपाध्यक्ष की आंख अब तक खुल जानी चाहिए थी।
इस मोहभंग का भाजपा अपने तरीके से लाभ उठाना चाहती है। नरेंद्र मोदी के दबंग और सम्मोहक नेतृत्व को सामने लाकर पार्टी को लगता है कि केंद्र में दस साल की सत्ता की केंद्रित जड़ता को वह तोड़ देगी। मोदी अपनी तरह से विकास की बात करते हैं, देश के लोगों खासतौर पर युवाओं के पुरुषार्थ में भरोसा दिखलाते हैं, साथ भी बिजली, सड़क, पानी, उद्योग और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में गुजरात में किए गए अपने सफल प्रयोगों से लोगों में इस बार के चुनाव में परिवर्तन का विकल्प अपनी तरफ स्थिर करने का यत्न करते हैं। रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में जब वे बोलने के लिए खड़े हुए तो उनकी नजर में देश के नवनिर्माण का एक पूरा ब्लू प्रिंट था। उन्होंने लंबा भाषण ही नहीं दिया, तकरीबन सभी मुद्दों पर अपनी राय और सोच भी सबके सामने रखी।
पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक बात में चूक कर रही है। वह चूक यह है कि जिस मतदाता के पास आखिरकार उन्हें जाना है, उसकी बदली सोच को रीड करने में दोनों से कहीं न कहीं भूल हो रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन के बाद मीडिया से लेकर देश में बहस के तमाम चौपालों पर अगर यह बात हो रही है कि देश वैकल्पिक राजनीति की तरफ बढ़ रहा है तो यह बात देश की दोनों बड़ी पार्टियों को न सिर्फ समझ में आनी चाहिए बल्कि इसका फर्क उनकी कार्यनीति और आचरण में भी आना चाहिए। सिर्फ यह कह देना कि प्रातिनिधिक की जगह प्रतिभाग के लोकतंत्र की तरफ हम कदम बढ़ाएंगे, काम नहीं चलेगा। देश की जनता के इस आंदोलनात्मक रुझान को पार्टियों को अपने विजन और एक्शन दोनों में ट्रांसलेट करके दिखाना होगा।
दोनों दलों को याद रखना पड़ेगा कि बीते तीन-चार सालों में जनता अगर एकाधिक बार भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ उतरी है तो यह कौल किसी पार्टी या नेता का नहीं था। देश की सिविल सोसाइटी ने अपने को आगे किया और देश में व्यवस्था परविर्तन की छटपटाहट को सड़क पर ला दिया। आम आदमी पार्टी इसी छटपटाहट का नतीजा है। यह पार्टी अपनी नीति और एजेंडे को लेकर आज जरूर कंफ्यूज्ड जरूर दिखाई पड़ती है पर उसके उन्नयन में कहीं न कहीं वैकल्पिक राजनीति की तलाश शामिल है।
आप से घबराए दलों के लिए शुक्र की बात यह है कि विचार और संगठन के स्तर पर उसकी लड़खड़ाहट साफ तौर पर जाहिर हो रही है। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद गवर्नेंस के स्तर पर उसे उम्दा प्रदर्शन करके मिसाल पेश करनी चाहिए थी पर वह अब एक अराजकतावादी राह पर है। आप दिल्ली विधानसभा चुनाव के रिफ्लेक्शन को लोकसभा चुनाव में भी देखना चाहती है। इसलिए वह और उसकी सरकार फिर से सड़क पर प्रतिरोधी तेवर के साथ दिखना चाह रही है। यह आप की रणनीति कम असफलता ज्यादा है। यह उस उम्मीद के साथ भी नाइंसाफी है, जो आप ने लोगों के मन में राजनीतिक बदलाव के नाम पर जगाई थी।
पर आप के भटकाव के बावजूद यह कहीं से साबित नहीं होता कि देश की राजनीति में विकल्प का खाली स्पेस भरने की दरकार ही खारिज हो गई। भारतीय जन-गण का नया मन परंपरावादी राजनीति से वाकई तंग आ चुका है। देश की राजनीति में एक नई ताजी बयार को महसूस करने की तड़प मुट्ठियां बांध चुकी हैं। इन बंधी मुट्ठियों की ताकत को समझना होगा। भाजपा और कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह एक ही तरह के पॉलिटिकल कल्चर में कहीं न कहीं ढ़ल चुकी हैं। नई स्थितियों में जनता के बीच, जनता के साथ और जनता के बल पर ये पार्टियां अगर अपनी ताकत को गुणित नहीं करती हैं तो वह अपने सामथ्र्य के साथ बेईमानी करेंगी। खासतौर पर यह उम्मीद भाजपा को लेकर ज्यादा है क्योंकि वह केंद्र में पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। वह देश के नागरिक समाज के साथ बेहतर संवाद कर अपनी संभावना में जादुई पंख लगा सकती है।
एक बात और यह कि परिवर्तन का पेटेंटे किसी एक नेता या आदमी के नाम पर दर्ज नहीं होता है। इसलिए सिविल सोसायटी की सक्रियता और आप के उभार को लेकर घबड़ाई हुई प्रतिक्रिया वही लोग दे रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि जनता इस उभार के साथ बंधक की तरह साथ है। दरअसल, देश में जनतांत्रिक सशक्तिकरण एक सामयकि दरकार है और इस दरकार को अपने सारोकारों में शामिल कर जो भी दल या नेता आगे बढ़ेंगे जनता उसके साथ होगी।
 

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

तहलकावादी तकनीक और मीडिया


तरुण तेजपाल जिस मामले में फंसे हैं, वह महिला अस्मिता से जुड़े कुछ जरूरी सामयिक सरोकारों की तरफ हमारा ध्यान तो ले ही जाता है, यह मीडिया के अंतजर्गत को भी लेकर एक जरूरी बहस छेड़ने का दबाव बनाता है। एक ऐसी बहस जिसमें खुद से मुठभेड़ करना का हौसला हो। मीडिया अगर खुद को देशकाल का आईना कहता है तो यह अपेक्षा तो उससे भी होनी चाहिए, वह इस आईने का इस्तेमाल खुद के लिए भी बराबर तौर पर करे। आईना अपनी तरफ हो या सामने की तरफ, सच को जैसे को तैसा देखने-दिखाने की उसकी फितरत नहीं बदलती। यह भी कि आईना कीमती हो या कम दामी, काम वह एक जैसा ही करता है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर भी है-'चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना है कि झूठ बोलता ही नहीं।’
तरुण जिस तरह की पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं, उसमें तकनीक का बड़ा योगदान है। अब तक उन्होंने जो भी तहलका मचाया, वह तकनीकी मदद से ही संभव हुआ। लिहाजा, तकनीक के जोर पर चल रही पत्रकारिता के मानस को पढ़ने के लिए हमारे आगे कुछ बातें और स्थितियां साफ होनी चाहिए। दरअसल, सूचना के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के कारण मीडिया का अंतजर्गत वैसा ही नहीं रहा, जैसा इससे पूर्व था। यह फर्क इसलिए भी आया क्योंकि इसी दौर में बाजार ने प्रतिभा और विकास के साझे को अपनी ताकत बना लिया।
अस्सी-नब्बे के दशक में खोजी पत्रकारिता के दौर में जातीय और नक्सली हिंसा के साथ मुंबई जैसे शहरों में अंडरवर्ल्ड की रिपोर्टिंग के दौर के साझीदार और चश्मदीद अब भी कई लोग मीडिया क्षेत्र में विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं। ये लोग बताते हैं कि सत्य और तथ्य की खोज के पीछे की पत्रकारीय ललक का पूरा व्याकरण ही तब बदल गया, जब इस काम के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि तकनीक का अपना रोमांच होता है और कई बार यह रोमांच आपको अपने मकसद से डिगाता है। आज के दौर में तौ खैर तकनीक और सूचना को एक-दूसरे से अलगाया ही नहीं जा सकता है।
बात करें न्यू मीडिया या सोशल मीडिया की तो यह अलगाव वहां भी मुश्किल है। इस मुश्किल को इस तरह भी समझने की जरूरत है कि एक ऐसे दौर में जब अरब बसंत जैसी क्रांति की बात होती है तो उसके पीछे का इंधन और इंजन दोनों ही तकनीक के जोर पर चलने वाला न्यू मीडिया ही है। यानी तकनीकी क्रांति की दुनिया अपने चारों तरफ एक क्रांतिकारी दौर की रचना प्रक्रिया का सीधा हिस्सा है, उसकी जननी है।
ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर और खुफिया कैमरों ने सचाई को जितना नंगा किया है, उससे पत्रकारिता के साथ सामाजिक अध्ययन की तमाम थ्योरीज बदल गई हैं। सच में निश्चित रूप से अपना-पराया जैसा कुछ नहीं होता, पर इसके समानांतर एक सिद्धांत निजता का भी है। निजता के दायरे में व्यक्ति, परिवार और समाज का कौन सा हिस्सा आए और कौन सा नहीं, इसको लेकर कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं खींची गई है। यह हमारे दौर की एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि निजता का भंग होना व्यक्ति की कई तरह की जुगुप्साओं को जन्म देता है। फिर आप सिर्फ सत्य का साक्षात्कार भर नहीं करते, बल्कि गोपन के भंग होने का अमर्यादित खेल देखने की लालच से भर उठते हैं।
निजी और सार्वजनिक जीवन को एक ही कसौटी पर खरे उतारने का जोखिम एक दौर में गांधी से लेकर उनके कई साथियों ने उठाई। सत्य के इस प्रयोग ने जीवनादर्श को एक बड़ी ऊंचाई दी। पर यह समय और समाज का संस्कार नहीं बन सका। ऐसे में मानवीय दुर्बलताओं को स्वाभाविक मानकर चलने की समझ ही ज्यादा काम आई। इसे ही न्याय और विधान की व्यवस्थाओं में भी स्वीकारा गया। पर अब एक नई स्थिति है। 'द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के रचयिता थॉमस फ्रिडमैन बताते हैं कि सूचना के उपकरण मनुष्य की स्वाभाविकता को बदलने वाले औजार तो हैं ही, ये बाजारवादी पराक्रम के बलिष्ठ माध्यम भी हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है। खतरनाक इसलिए क्योंकि इस स्थिति के बाद स्वविवेक के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा जाता। यों भी कह सकते हैं नए समय की पटकथा पहले से तय है, इसमें बस हमें यहां-वहां फिट भर हो जाना है, वह भी इतिहास और समाज के अपने अब तक को बोध को भूलकर।
तरुण तेजपाल तहलका की तरफ से गोवा में जो बौद्धिकीय विमर्श का आयोजन करा रहे थे, उसमें एक मुद्दा आधुनिक दौर में महिला अस्मिता की चुनौतियां भी था। दरअसल, आधुनिकता के खुले कपाटों में महिलाएं भी पुरुषों के साथ ही दाखिल हो रही हैं। लिहाज, लैंगिक स्तर पर उनके बीच मेलजोल के नए सरोकार विकसित हुए हैं। इसने एक तरफ स्त्री-पुरुष संबंधों की नई दुनिया रची है तो असुरक्षा का एक नया वातावरण भी पैदा हुआ है। निर्भया कांड को सामने रखकर समझना चाहें तो यह असुरक्षा बर्बरता की हद तक जाता है। नीति और विधान की नई व्याख्या और दलीलों के बीच इस बर्बरता का बढ़ता रकबा एक बड़ा खतरा है। डॉ. धर्मपाल के शब्दों में यह 'भारतीय चित्त, मानस और काल का नया यथार्थ’ है। ऐसा यथार्थ जिसका पर्दाफाश तेजपाल सरीखे लोग पारदर्शिता के नाम पर नीति और व्यवस्था से जुड़े बड़े जवाबदेह लोगों के जीवन के निजी एकांत तक पहुंच कर करते रहे हैं।
तकनीक के साथ एक विचित्र स्थिति यह भी है कि वह नैतिकता का कोई दबाव अपनी तरफ से नहीं बनाता है। ईमेल और सीसीटीवी फुटेज के जरिए जो सच अब तेजपाल को मुश्किल में डाल रहा है, उसमें तकनीक का अपना पक्ष तटस्थ है। यहां नैतिकताएं वही आड़े आ रही हैं, जो तेजपाल सरीखे नंगे सच के हिमायतियों ने खुद रचा है। जिन सवालों और तकाजों पर वे दूसरों को नंगा करते रहे हैं, वही सवाल और तकाजे अब उन्हें नहीं बख्श रहे।
यह स्थिति आंख खोलने वाली है। तकनीक के जोर पर बदलाव की संहिताएं रचने वाली पत्रकारिता भी एक ढोंग हो सकती है, इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि आईना लेकर 'अंत:पुर’ तक दाखिल होने वाले खुद अपने अंत:पुर में शर्मनाक हरकतों के साथ पकड़े जा रहे हैं। गनीमत मानना चाहिए कि पर्दाफाश और सनसनी मार्का पत्रकारिता अब भी हिंदी या भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वभाव नहीं है। खोजी दौर में सचाई को उसके मर्म के साथ सामने लाया गया था। दलित बस्तियों के कई मातमी विलापों को आज अगर हम एक विमर्शवादी अध्याय की तरह देख पा रहे हैं तो उसके पीछे इस तरह की पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ है। पर सूचना को सनसनी और सत्य को महज तथ्य की तरह पेश करने की हवस ने न तो देश और समाज के आगे नीति और आचरण के कोई मानक रचे और न ही इससे पत्रकारिता धर्म का ही कोई कल्याण हुआ। यह एक मोहभंग की भी स्थिति है, जिसमें बदलाव का मुगालता पेश करने वाली कई कोशिशंे एक के बाद एक पिटती नजर आ रही हैं।
गुलामी के दौर में आजाद तेवर स्वतंत्र चेतना की लौ जगाने वाली पत्रकारिता के विरासत के बाद यह एक भटकाव की भी स्थिति है। आखिर में यही कि पत्रकारिता की तकनीक का परिष्कार तो जरूर हो पर तकनीक के परिष्कार को पत्रकारिता मान लेने के जोखिम को भी समझना चाहिए। क्योंकि इसमें तात्कालिक खलबली से आगे न तो कुछ पैदा किया जा सकता है, न ही हासिल। उलटे नौबत यहां तक आ सकती है कि खलबली के शिकार हम खुद हो जाएं। अरब बसंत के पत्ते भी अगर देखते-देखते झरने शुरू हो गए हैं तो इसी लिए कि इसमें बदलाव का यथार्थ तात्कालिक से आगे स्थायी नहीं बन सका।

nationalduniya.com

रविवार, 25 अगस्त 2013

मीडिया और नियमन



मीडिया और नियमन। बहस का यह मुद्दा पिछले कुछ सालों में देश में जिस तरह उठा है, उसके एक नहीं बल्कि कई निहितार्थ हैं। सरकार का एक बड़बोला मंत्री जब यह कहता है कि बार काउंसिल के लाइसेंस की तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने से पहले पत्रकारों को लाइसेंसशुदा होना जरूरी होना चाहिए तो समझ में यही बात आती है कि यह सुझाव से ज्यादा चिढ़ है देश की मीडिया के प्रति। यह चिढ़ पूर्वाग्रहग्रस्त भी है।
दरअसल, 21वीं सदी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए कई नई चुनौती लेकर आई है। इस सदी के दूसरे दशक से तो इन चुनौतियों ने सड़कों पर अपने तेवर एकाधिक बार दिखाए। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो कि संसद और जनता के बीच सर्वोच्चता को लेकर छिड़ी बहस, इन तमाम सवालों पर जनता घरों से बाहर निकली। और वह भी बिना किसी राजनीतिक छतरी के नीचे आए। जो सूरत बनी उसमें लोकतांत्रिक सशक्तिकरण की असीम संभावनाएं थीं। ये संभावनाएं आज भी बहाल हैं। इसी दौर में देश और राज्यों की राजधानियों में बैठे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों और उनके समर्थन से बनी सरकारों को लगने लगा कि यह प्रखर नागरिक चेतना उनके पूरे अस्तित्व को मिट्टी की भीत की तरह भर-भराकर गिरा देगी। लिहाजा इस नागरिक सशक्तिकरण को तीव्र और प्रभावी बनाने वाले हाथ को मरोड़ा जाए। मीडिया इसी हाथ का नाम है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहकर जिसे सरकारें अब तक इज्जत तो बख्शती रही हैं पर उसकी अतिशय संलग्नता और तत्परता को कभी गले नहीं उतार पाई हैं। इमरजेंसी के दिनों में इसका सबसे क्रूर रूप हम देख चुके हैं।
जनता के लिए लोकतांत्रिक साझेदारी का मतलब सिर्फ पांच साल में एक बार मतदान केंद्र के बाहर कतार में खड़े होना भर नहीं है। उसकी साझेदारी तो इससे आगे की है और इसी दरकार ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जन्म दिया है। पर दुर्भाग्य से इस दरकार को निर्वाचित जनों और संस्थाओं ने अपने लिए ज्यादा सुरक्षित बनाने का उपक्रम बना लिया और अब तो सूरत यह है कि जनता की लोकतांत्रिक प्रतिभागिता पूरी व्यवस्था में इतनी भर रह गई है कि उसके नाम पर भले सब कुछ होता है पर उसकी मर्जी का कुछ भी नहीं। अखबारों-टीवी चैनलों के बढ़े प्रसार के साथ सोशल मीडिया के नए दमखम ने दुनिया भर के शासक वर्ग के सामने अनुशासन और अनुशीलन का दबाव बढ़ाया है। भारत में इस खतरे को बढ़ते देख सरकार ने कई बार अलग-अलग तरीके से मीडिया पर आंखें तरेरी हैं, उसकी आलोचना की है। चूंकि देश सेंसरशिप और इमरजेंसी के दौर से काफी आगे निकल आया है इसलिए आज मीडिया के मुंह पर जाबी पहनाने की हिमाकत तो शायद ही कोई करे। पर अगर कोई यह कहे कि पत्रकारों के भी लाइसेंस बनने चाहिए, उनके लिए भी एप्टिट्यूड टेस्ट होने चाहिए तो इतना तो लगता ही है कि उसे देश के पत्रकारिता आंदोलन के बारे में जानकारी थोड़ी कम है।
अगर हम बात करें प्रिंट मीडिया की तो देश में पत्रकारिता के लिहाज से दो दौर खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं। एक आजादी से पूर्व का दूसरा ग्लोबलाइजेशन के बाद का। अगर एक पराधीन देश की जनता ने जिद पर आने पर दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी सत्ता की चूलें हिलाकर रख दीं तो उसके पीछे देश की भाषाई पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ था। साहित्यकारों-पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ने देश के आत्मसम्मान को जगाया और स्वाधीनता की ललक जन-जन में पैदा की। बाद में ग्लोबलाइजेशन के दौर में लगने लगा कि खुरदरे कागजों पर खबर पढ़ने का दौर अब पीछे छूट जाएगा क्योंकि उपभोक्तावादी सनक के साथ टीवी चैनलों की खुलती छतरियों और इंटरनेट के बढ़े जोर के बाद इतनी फुर्सत किसे होगी कि वह घर में बैठकर अखबार बांचे। पर हुआ ठीक इसके उलटा। भाषाई पत्रकारिता ने इस दौर में अपना सबसे बड़ा आरोहण दिखाया। प्रसार के साथ कमाई दोनों में उसने कुबेरी आख्यान रचे। और यह सफलता उस देश में मायने रखती है जहां सरकार को अभी सर्वशिक्षा का प्रण ही दोहराना पड़ रहा है।
ऐसी स्थिति में महज इस कारण से कि जनता के मुद्दे अगर मीडिया की ताकत के साथ देश का एजेंडा बनने लगे तो खतरनाक है, यह सोच कमजोर सत्ता प्रतिष्ठानों में ही उभर सकती है। एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकताã के अनशन के आगे मजबूर होकर जब देश की संसद को अपनी कार्यवाही चलानी पड़ी, प्रस्ताव पारित करने पड़े तो उसके साथ यह भी साफ हो गया कि लोकमत और मीडिया के साझे से देश में लोकतंत्र की नई लहर शुरू हो सकती है। फिर क्या था, नेताओं के एक के बाद एक बयान आए कि मीडिया ने अण्णा आंदोलन को ओवरएक्सपोज किया। यही स्थिति तब भी सामने आई जब पिछले साल दिसंबर में दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ की गई बर्बरता के खिलाफ पूरे देश के युवा आक्रोशित होकर घरों से बाहर आए।
देश की राजनीतिक जमात को अभी तक यही लगता रहा है कि उनके मुद्दे और उनकी सोच और पहल से ही देश में लोकतंत्र की गाड़ी आगे बढ़नी चाहिए। जनता बस इस गाड़ी में सवारी की तरह बैठ जाए, वह ड्राइविंग सीट पर आने की हिमाकत ना करे। यहां तक कि प्रेस परिषद के मुखिया जस्टिस काटजू जैसे लोगों के दिमाग में भी यही बात आती है कि पत्रकारिता के पेशे में कूप-मंडूक लोग भरे पड़े हैं।
नक्सल हिंसा से लेकर किसानों की आत्महत्या तक को लेकर जमीनी रिपोर्टों और इन पर बहस का दुस्साहस देश के पत्रकारों ने दिखाया है। इस कवरेज के साथ प्रबंधकीय मुठभेड़ भी पत्रकारों को करनी पड़ी है। बावजूद इसके आज अगर भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र से लेकर कई सूबों की सरकारें हलकान हैं तो उसके पीछे भी मीडिया की चौकस नजर ही है। पिछले दो-तीन सालों में चले नागरिक सशक्तिकरण के अभिक्रम को भी मीडिया का संबल इसलिए मिला क्योंकि यह समय की मांग है। देश की राजनीतिक बिरादरी अगर आज जनता की नजरों में अपना इकबाल खोती जा रही है तो उसकी वजह ये लोग खुद हैं। आप आईने पर यह दबाव नहीं डाल सकते कि वह आपको मनमाफिक तरीके से दिखाए। यह बात मनीष तिवारी के साथ उन तमाम लोगों को समझनी चाहिए जिन्हें उनके जैसा बोलना-सोचना अच्छा लगता है। यह बात उन जस्टिस साहब को भी समझनी चाहिए जिन्हें मीडिया मीडियाकरों की जमात लगती है और देश के नब्बे फीसद लोग जाहिल। परिवर्तन का हरकारा इस देश में मीडिया हमेशा रहा है और आज उसके लिए कई बिजनेस कंपल्शन बढ़ जाने के बावजूद अगर उसके भीतर यह जज्बा बहाल है, फिर तो सूचना और खबरों के इस पूरे तंत्र को सलाम। नियमन और लाइसेंस की दरकार तो वहां ज्यादा है जहां निर्वाचित निर्वाचकों के स्वयंभू स्वामी बने फिर रहे हैं।

http://www.nationalduniya.com/

रविवार, 20 जनवरी 2013

मीडिया से डरता है ड्रैगन


ज्यादा दिन नहीं हुए हैं, जब चीन खुली नसीहत दे रहा था कि आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र में उसके विकास के डग भारत से काफी आगे हैं। एक सरकारी चीनी अखबार ने ये बातें नई दिल्ली में गैंगरेप की घटना के संदर्भ में कही थी। चीन की इस समझ पर सोशल मीडिया में इतना बवाल मचा कि वहां की सरकार को ई-विचार स्रोतों पर ताला जड़ने पर मजबूर होना पड़ा। यह कोई नई या आपवादिक स्थिति नहीं है। चीन के विकास मॉडल की हम सराहना करें या नहीं, इतनी बात तो आज चीन के अंदर-बाहर दोनों जगह समझी जा रही है कि चीन आज कहीं न कहीं उसी मुहाने पर खड़ा है, जहां दो दशक पहले सोवियत संघ खड़ा था। यह चीन और सोवियत संघ की तुलना नहीं है, बल्कि इस साम्य को रेखांकित भर करना है कि देश में लोकतांत्रिक सरोकारों को लंबे समय तक कुचलते रहने से स्थिति कैसे विस्फोटक हो जाती है।
चीन में नए नेतृत्व से जो उम्मीद थी, वह बहुत जल्द हताशा में बदलती दिख रही है। सीपीसी के नए महासचिव जिनपिंग ने इस चिंता को जरूर कबूला है कि देश में जहां भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हुई हैं, वहीं अमीर-गरीब के बीच की खाई खतरनाक रूप से बढ़ गई है। सत्तारूढ़ चीनी कम्यूनिस्ट पार्टी को लेकर भी उन्होंने माना कि संगठन और कार्यकर्ता जनता से काफी कट गए हैं। बावजूद इस कबूलनामे के लगता नहीं कि चीन में सरकारी स्तर पर कोई आत्ममंथन या बदलाव की प्रक्रिया चल रही है। वहां के एक साप्ताहिक अखबार ने जब सरकारी नियंत्रण का विरोध किया तो  सत्तारूढ़ सीपीसी की तरफ से बयान आया, 'पार्टी का चीन के मीडिया पर संपूर्ण नियंत्रण है। यह बुनियादी सिद्धांत अपनी जगह अटल है।'
मीडिया पर सरकारी सेंसरशिप के खिलाफ न सिर्फ चीन में पत्रकार लामबंद हैं बल्कि उनके इस विरोध को दुनिया भर में समर्थन भी मिल रहा है। अमेरिकी विदेश विभाग की प्रवक्ता विक्टोरिया नूलैंड द्वारा चीनी और चीन में काम करने वाले विदेशी पत्रकारों की स्वतंत्रता की मांग का समर्थन करने से तो वहां की सरकार और तिलमिला गई है। उसने ऐसे किसी बाहरी समर्थन या अभियान को देश के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप करा दिया है।
साफ है कि चीन में पार्टी विचार और अनुशासन के नाम पर दमनात्मक नीतियां जारी हैं। ग्लोबल दौर में लोकतांत्रिक सरोकारों की जमीन को जिस तरह उर्वर बना दिया है, उसमें ऐसी दमनात्मक व्यवस्था बदलाव की आंधी से बहुत लंबे समय तक महफूज नहीं रह सकती। यह चेतावनी अपनी सरकार को चीन के 73 चोटी के विद्वानों ने हाल में ही दी है। बावजूद इसके स्थिति नहीं सुधरी तो 1989 के थ्यानमन विद्रोह जैसा दृश्य चीन में कभी भी प्रकट हो सकती है।  

रविवार, 16 सितंबर 2012

मीडिया पर मनमोहन उपदेश

विपक्ष को अपने मौजूदा प्रधानमंत्री से अन्य शिकायतों के साथ एक बड़ा शिकायतयह है कि वे मुखर नहीं हैं। पिछले दिनों अपनी खामोशी पर मनमोहन  सिंह ने एक शायराना जवाब भी दिया था। प्रधानमंत्री चूंकि बोलते ही बहुत कम हैं इसलिए जब वे कुछ कहते भी हैं तो लोग उसके निहितार्थ को बहुत दूर तक या तह तक जाकर समझने की कोशिश करते हैं। आमतौर पर ऐसी स्थिति में कई बातें सामने आ जाती हैं और फिर उस पर बाजाप्ता बहस छिड़ जाती है।
ऐसा ही एक मौका बीते दिनों आया, जब मनमोहन सिंह ने मीडिया को उसके दायित्वों और चुनौतियों की याद दिलाई। मौका था केरल श्रमजीवी पत्रकार संघ के स्वर्ण जयंती समारोह के शुभारंभ का। आज सरकार जिस स्थिति में चल रही है और वह खुद जिस तरह की आलोचनाओं से घिरी है, उसमें उसके मुखिया द्वारा अकेले मीडिया को संयम और समन्वय का पाठ पढ़ाना गले के नीचे नहीं उतरता। ऐसा इसलिए नहीं कि भारतीय मीडिया को अपनी आलोचना सुनने का धैर्य नहीं है और वह अपने को सुधारों से ऊपर मानता है, बल्कि इसलिए क्योंकि जब प्रधानमंत्री उसे 'सनसनीखेज' बनने से बचने की सलाह देते हैं तो लगे हाथ वे अपनी पार्टी के नेताओं और सरकार के मंत्रियों को जबानी संयम का सबक याद कराना भूल जाते हैं।
अन्ना आंदोलन से लेकर असम हिंसा और कार्टूनों पर लंबे चले विवाद तक कई ऐसे मौके आए जब यह संयम अनजाने नहीं बल्कि जानबूझकर तोड़ा गया। वैसे इस मामले में कांग्रेस पार्टी पर अकेला दोष मढ़ना भी ठीक नहीं होगा क्योंकि आज हम कटुता और असंवेदनशीलता के सामाजिक-राजनीतिक दौर में जी रहे हैं। मीडिया के आईने में जो जैसा है, उसकी वैसी ही छवि दिखती है। यह अलग बात है कि लोग अपनी विद्रूपता को छोड़ दूसरों के दोषों को गिनाने में दिलचस्पी ज्यादा लेते हैं। आलम तो यह है कि संवैधानिक संस्थाएं ही एक-दूसरे की छवि म्लान कर रही हैं।
जहां तक बात है असम समस्या की -जिसका हवाला खासतौर पर प्रधानमंत्री ने दिया है- तो मीडिया में वहां की खबरों को लेकर शुरुआती तथ्यात्मक त्रुटियां जरूर रहीं, पर उसे बगैर और समय गंवाए सुधार भी लिया गया। बल्कि मीडिया को इस बात का श्रेय मिलना चाहिए कि उसने इस समस्या की गंभीरता को समझा और इसे राष्ट्रीय चिंता से जोड़ने में बड़ी भूमिका अदा की। रही बात सोशल मीडिया द्वारा फैलाए गए अफवाहों और भ्रामक प्रचारों की तो, यह नाकामी सरकार और उसकी एजेंसियों की रही, जिसे इस बारे में समय से पता ही नहीं चला।
इसके बाद भी प्रधानमंत्री उपदेश का उल्लू अगर सिर्फ मीडिया का नाम लेकर सीधा करना चाहते हैं, उनकी सुनने वाला कोई नहीं। उलटे उनकी ही सोच और विवेक पर दस सवाल और खड़े हो जाएंगे। 

सोमवार, 29 अगस्त 2011

क्या हुआ जो मीडिया भी अन्ना गया


 स्वतंत्र भारत में चौबीसो घंटे के खबरिया चैनलों का दौर शुरू होने और भाषाई पत्रकारिता के विकेंद्रित विस्तार के बाद यह पहला अनुभव है, जब  अखिल भारतीय स्तर पर जनभावना का कोई दिव्य प्रकटीकरण हो। जो लोग आज अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में 1974 के जयप्रकाश आंदोलन की लिखावट पढ़ने चाह रहे हैं, उनकी भी पहली प्रतिक्रिया यही है कि लोकपक्ष और नए मीडिया का सकरात्मक साझा चमक के साथ कितना असर पैदा कर सकता है, यह चमत्कृत कर देने वाला अनुभव है। प्रेस को अगर लोकतंत्र का विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद चौथा बड़ा स्तंभ माना गया है, तो इसलिए भी कि उसकी भूमिका एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए खासी जिम्मेदारी से भरी है। इमरजेंसी के दौरान जिम्मेदारी के इन हाथों को बड़ियां पहनाई गई थी तो अपने संपादकीय स्तंभ की जगह को खाली छोड़ अखबारों ने अपना विरोध जताया था।
15 अगस्त की अगली सुबह देश में नागरिकों के अहिंसक और  शांतिपूर्ण प्रतिरोध के अधिकार पर जो कुठाराघात हुआ, संसद का सत्र जारी रहने के बावजूद उसकी गूंज वहां के बजाय मीडिया में ज्यादा पैदा हुई। यह देश की मीडिया का सद्विवेकी रवैया का ही नतीजा रहा कि उसने लोकपक्ष की जुबान और चेहरा बनने का फैसला लिया। कह सकते हैं कि न्यायकि सक्रियता के बाद देश में मीडिया की सक्रियता के यह एक नए सर्ग का शुभारंभ है। दिलचस्प है कि अन्ना हजारे ने भी 16 अगस्त से अपने प्रस्तावित अनशन से एक दिन पहले मीडिया का इस बात के लिए शुक्रिया अदा किया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम को जोर पकड़ाने में उसकी बड़ी भूमिका रही है। यही नहीं जब वे रामलीला मैदान से अनशन से उठे तो उन्होंने और उनके साथियों ने मीडिया का कई-कई बार आभार जताया। 
असल में यह एक जीवंत और प्रगतिशील लोकतंत्र का तकाजा है कि लोक भावना और लोक संघर्ष  के स्पेस को वह न तो कमतर करता है और न ही उसे खारिज करता है। क्योंकि इससे लोकहित के मुद्दों के दरकिनार हो जाने का खतरा पैदा होता है। समाचार की 'इंफोमेंटी" समझ और 'प्रोफेशनल" होड़ ने मीडिया की भूमिका पर पिछले दो दशकों में कई सवाल उठाए हैं। प्रेस की आजादी के नाम पर मनमानी करने की छूट ने लोकतंत्र की एक जिम्मेदार संस्था को काफी हद तक अगंभीर और गैरजवाबदेह बना दिया है, ऐसे आरोप मीडिया पर लगने अब आपवादिक नहीं रहे। ऐसे में मीडिया के लिए यह फख्र के साथ सबक सीखने का भी अवसर है कि अगर वह लोकचेतना का चेहरा बनने का दायित्व पूरा करता है तो न सिर्फ उसकी विश्वसनीयता बहाल रहती है बल्कि उसकी साख भी बरकरार रहती है। 
लोकहित का तकाजा ही यही है कि उसे गुमराह करने के बजाय उसका हमकदम बना जाए, उसका मार्गदर्शी बना जाए। नया मीडिया ज्यादा तकनीक संपन्न है, लिहाजा उससे ज्यादा जिम्मेदार पहरुआ (वॉच डॉग) भी होना चाहिए। ऐसे में कुछ लोगों और समाज के कुछ वर्गों से आई कुछ शिकायतें मायने रखती है। मसलन असम के इरोम शर्मिला के दस साल से चले आ रहे अनशन का मुद्दा चौबीसों घंटे चौकन्ना मीडिया की आंखों से ओझल क्यों रहा? इसी तरह क्या पूनम पांडे और राखी सावंत को जिस मुंह से घर-घर तक पहुंचाने वाले मीडिया के पेशेवर सरोकार क्या वक्त-बेवक्त सुविधानुसार नहीं बदलते हैं और क्या यह बदलाव पूरी तरह विश्वसनीय माना जा सकता है।
बहरहाल, अन्ना का आंदोलन भले फिलहाल समाप्त हो चुका हो पर देश में लोकहित के कई जरूरी मुद्दे अब भी सरकार और व्यवस्था के एजेंडे में शामिल होने बाकी हैं। नए मीडिया का एक दायित्व यह भी कि वह हाशिए के इन मुद्दों को उठाए और एक सशक्त लोकमत के निर्माण का अपना दायित्व आगे भी पूरी ऊर्जा के साथ निभाए।

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

बर्बर देश ओबामा का


किसी भी खतरे से ज्यादा खतरनाक होता है, उस खतरे का खौफ। ठीक वैसे ही जैसे सुरक्षा से बड़ी होती है उसकी चुनौती। 9/11 के बाद अमेरिका अब भी इस चुनौती को सहजता से साध नहीं पाया है। आज भी अमेरिका न  सिर्फ खौफजदा है बल्कि उसके आगे आतंकी हिंसा का जिन्न अब भी नाच रहा है।  लिहाजा, सुरक्षा के नाम पर उसकी कई कवायदों का विरोध रह-रहकर होता रहा है। यह और बात है कि कहने के लिए उसके पास यह उपलब्धि भी है कि वह इस दौरान आतंकवादी हिंसा से मुक्त रहा है। दरअसल, नागरिक सम्मान, रंगभेद विरोध और मानवाधिकार सुरक्षा के जो प्रवचन अमेरिका बाकी दुनिया को सुनाता रहा है, वह अपने ही घर में उसका मुंह चिढ़ाता है।  मामला अमेरिकी एयरपोर्ट पर भारत सहित दूसरे देशों के लोगों के साथ सुरक्षा जांच का हो या सिखों को पगड़ी और महिलाओं के साड़ी पहनने पर जताए जाने वाले सुरक्षा एतराज का, इतना तो साफ लगता है कि ये मुद्दे सुरक्षा मुस्तैदी से ज्यादा उसे अंजाम देने के तौर-तरीके को लेकर ज्यादा गरमाते  हैं।
नया मामला कैलीफोर्निया में गैरकानूनी रूप से चल रहे ट्राई वैली यूनिवर्सिटी (टीवीयू) के झांसे का शिकार हुए भारतीय छात्रों का है। अखबारों और टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें दिखाई गयीं, वह उस मध्यकालीन बर्बरता की याद दिलाते हैं कि कैसे तब दास बना लिए लोगों के पांव और गर्दन में बेड़ियां डालकर उन्हें धिक्कारा जाता था, मारा-पीटा जाता था। पांव में बेड़ी सरीखे रेडियो कॉलर पहनने को मजबूर हुए छात्रों को लेकर भारत की चिंता वाजिब है। यह यूनिवर्सिटी अब बंद भले है, लेकिन इसका खुलना और चलना अमेरिकी कानून और सम्बंधित  विभागों की अपनी नाकामी का हश्र है। इसका ठीकरा दूसरों पर नहीं फोड़ा जा सकता। विदेश मंत्रालय ने फौरी मांग की है कि भारतीय छात्रों के साथ अच्छा सलूक होना चाहिए और उन पर मॉनिटर का इस्तेमाल अनुचित है। गौरतलब है कि इस तरह के रेडियो कॉलर का इस्तेमाल आमतौर पर जंगली जानवरों की गतिविधियों  पर नजर रखने के लिए किया जाता है। अमेरिकी सुरक्षा नीतियों की ज्यादतियों का शिकार हुए ज्यादातर छात्र आंध्र प्रदेश के हैं। अमेरिकी तेलुगू संघ के जयराम कोमती की इस मुद्दे पर शिकायत है कि गलती टीवीयू की है, जिसने कुछ नियम तोड़े। इसका खामियाजा बेवजह छात्रों को उठाना पड़ रहा है। दिलचस्प है कि मिस्र के मौजूदा राजनैतिक संकट पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में ही जोर देकर कहा है कि मिस्र में लोगों को हर वो अधिकार प्राप्त है जो दुनिया के किसी हिस्से में किसी नागरिक समाज को प्राप्त है, लिहाजा उनके शांतिपूर्ण विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को किसी सूरत में खत्म नहीं किया जा सकता। अब कोई चाहे तो लगे हाथ अमेरिकी प्रशासन से सवाल कर सकता है कि वह अपने यहां पढ़ने आए छात्रों को किस गुनाह की सजा दे रहे हैं। इन छात्रों की अब तक कि किस गतिविधि से उसे ऐसा लगता है कि उनके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जैसा किसी जानवर के साथ। और यह भी कि क्या अमेरिकी प्रशासन की नजर में यह कार्रवाई तब भी मान्य होती जब ऐसा ही बर्ताव किसी अमेरिकी के साथ किसी दूसरे देश में होता तो।
साफ है कि अमेरिका को ऐसा लगता है कि दुनिया में आज भी उसकी ऐसी हैसियत है कि अपनी किसी सनक या अतिवादी कदम के विरोध को वह आसानी से मैनेज कर लेगा। इससे पहले का अनुभव कमोबेश यही है। इसलिए दरकार इस बात की है कि भारत सरकार को इस बार निर्णायक पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए ताकि यह मामला महज ठंडे बस्ते में न चला जाए बल्कि आगे से ऐसी कोई नौबत ही न आए। आखिर यह नए विकसित और शक्तिशाली भारत के भी साख का सवाल है। अब तक की स्थिति में भारत के इस पूरे प्रकरण के कठोर शब्दों  में निंदा और विरोध करने के बावजूद कोई आश्वस्तकारी प्रतिक्रिया अमेरिका की तरफ से नहीं आई है। हां, यह जरूर है कि भारत अपने लोगों को मुमकिन है कि वहां से सुरक्षित बाहर निकाल लाए, जो वहां फंसे हैं। पर उस बदसलूकी का क्या जो वहां हमारे लोगों के साथ लगातार हो रहे हैं। क्या भारत इस मामले में अमेरिका को झुकाने की हैसियत रखता है। अगर नहीं तो इस महादेश को बड़ा बाजार बनने और बड़ी इकोनामी बनने के साथ इस ताकत का मालिक होने के बारे में भी फिक्रमंद होना चाहिए।     

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार की अमर्त्य व्याख्या


अमर्त्य सेन को जब नोबेल मिला था तब इस सम्मान का इसलिए भी स्वागत हुआ था कि इस बहाने बाजार और  भोग का  खपतवादी "अर्थ" सिखाने वाले दौर में वेलफेयर इकॉनमिक्स की दरकार और महत्ता दोनों रेखांकित हुई। अमर्त्य  हमेशा अर्थ के कल्याणकारी लक्ष्य के हिमायती रहे हैं। इसलिए जीडीपी और सेंसेक्सी उछालों में दिखने वाले विकास के मुकाबले वे हमेशा ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को विकास का बैरोमीटर बताते हैं। एक ऐसे दौर में जबकि अर्थ को लेकर तमाम तरह की अनर्थकारी समझ की नीतिगत स्थितियां हर तरफ लोकप्रिय हो रही हैं तो नोबेल विजेता इस अर्थशास्त्री ने दुनिया के सामने कल्याणकारी अर्थनीति की तार्किक व्याख्याएं और दरकार रखी हैं।
हैरत नहीं कि जब भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ी चिंता पर उन्होंने अपनी राय जाहिर की तो देश में दिख रहे तात्कालिक आवेश और आक्रोश से अलग अपनी बात कही। अमर्त्य को नहीं लगता कि भ्रष्टाचार को लेकर सिर्फ मौजूदा मनमोहन सरकार पर दबाव बनाना वाजिब है। वह सरकार और सरकार में बैठे कुछ लोगों की भूमिका से ज्यादा उस व्यवस्थागत खामी का सवाल उठाते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार की पैठ गहरी है। इस लिहाज से माजूदा यूपीए सरकार हो या इसके पहले की सरकारें, दामन किसी का भी साफ नहीं।
अमर्त्य की नजर में भ्रष्टाचार की चुनौती तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर इससे निजात आरोपों और तल्ख प्रतिक्रियाओं से तो कम से कम मिलने से रहा। दुर्भाग्य से देश में संसद से लेकर सड़क तक अभी जो शोर-शराबा दिख रहा है, वह अपने गिरेबान में झांकने की बजाय दूसरे का गिरेबान पकड़ने की नादानी से ज्यादा कुछ भी नहीं। आखिर एक ऐसे समय में जबकि सभी यह स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नैतिकता के सरोकारों का अभाव हर स्तर पर दिख रहा है, हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि भ्रष्टाचार की पागल नदी पर हम ऊपर ही ऊपर नैतिक पाररदर्शिता का सेतु बांध लेंगे या कि ऐसा करना ही इस समस्या का हल भी है।
भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में केंद्र की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली सरकार तक को मुंह की खानी पड़ी है। यह इतिहास अभी इतना पुराना नहीं हुआ है कि इसके सबक और घटनाक्रम लोग भूल गए हों। आज भ्रष्टाचार का पैमाना लबालब है पर इसके खिलाफ कोई संगठित जनाक्रोश नहीं है। विपक्षी पार्टियां खुद इतनी नंगी हैं कि वे इस मुद्दे पर न तो जनता के बीच लंबी तैयारी से जा सकते हैं और न ही सरकार को सधे तार्किक तीरों से पूरी तरह बेध सकती हैं क्योंकि तब तीर उनके खिलाफ भी कम नहीं चलेंगे।
एक और सवाल अमर्त्य सेन ने गठबंधन सरकारों की मजबूरी को लेकर भी उठाया है। उन्होंने मनमोहन सिंह की छवि की तरफ इशारा करते हुए कहा कि भले आपकी ईमानदारी की छवि जगजाहिर हो पर गठबंधन का लेकर कुछ मजबूरियां तो आपके आगे होती ही हैं। दिलचस्प है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का यथार्थ है। पर इस यर्थाथ की पालकी ढोने वाली पार्टियों को यह तो साफ करना ही होगा कि गठबंधन की जरूरत आैर सरकार चलाने की मजबूरी में वे कितनी दूर तक समझौते करेंगे।  
बहरहाल, अर्थ को कल्याण के लक्ष्य के साथ देखने वाले सेन मौजूदा स्थितियों से पूरी तरह निराश भी नहीं हैं। उनकी नजर में भ्रष्टाचार को अब लोग जिस स्पष्टता से स्वीकार कर रहे हैं, वह एक सकारात्मक लक्षण है। किसी समस्या को चुनौतीपूर्वक स्वीकार करने के बाद ही उसके खिलाफ आधारभूत रूप से किसी पहल की गुंजाइश बनती है। अभी कम से कम यह स्थिति तो जरूर आ गई है कि इस बात पर तकरीबन हर पक्ष एकमत है कि अगर समय रहते समाज और व्यवस्था में गहरे उतर चुके भ्रष्टाचार के जहर के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी। बस सवाल यहां आकर फंसा है कि इसके खिलाफ पहल क्या हो और  पहला कदम कौन बढ़ाए। तात्कालिक आवेश पर अंकुश रखकर अगर समाज, सरकार और  राजनीतिक दल कुछ बड़े फैसले लेने के लिए मन बड़ा करें तो एक भ्रष्टाचार विहीन समय और व्यवस्था के सपने को सच कर पाना मुश्लिक नहीं है। अमर्त्य अर्थ के जिस कल्याणकारी लक्ष्य की बात करते हैं, जाहिर है कि उसका शपथ मीडिया, समाज और संसद सबको एक साथ लेना होगा।         

रविवार, 19 दिसंबर 2010

बस यह उम्मीद डिलीट न हो !


कोई दौर जब क्रांतिकारी है तो उसकी उपलब्धियां भी ऐतिहासिक महत्व की होंगी ही। एक क्रांतिकारी समय की अगर यही अवधारणा ज्यादा मान्य और यही उसकी अंतिम शर्त है तब तो हमारा समय कई मायनों में क्रांतिकारी भी है और ऐतिहासिक भी। सूचना, संवाद, बाजार, खुला अर्थतंत्र, इंटरनेट, मोबाइल, सोशल नेटवर्किग जैसे न जाने कितने सर्ग पिछले एक-दो दशक में खुले हैं। रहा जहां तक भारत का सवाल तो वह इसमें से किसी क्रांति का सूत्रधार भले न हो उसकी सबसे बड़ी लेबोरेटरी जरूर रहा है। इस लिहाज से अपने देश की बाकी दुनिया में कद्र भी है और साख भी।  
नई खबर यह है कि देश की आधी से ज्यादा आबादी के हाथ सूचना क्रांति के सबसे लोकप्रिय और तेज औजार मोबाइल फोन से लैस हो चुके हैं। भारत की विकसित छवि के लिए यह खबर बड़ी तो है ही जरूरी भी है। दिलचस्प है कि इलेक्ट्रानिक क्रांति के विश्व पुरोधा चीन के राष्ट्रपति वेन जियाबाओ हाल में जब भारत आए तो तमाम राजनैतिक-कूटनीतिक मतभेदों के बावजूद उन्होंने भारत में विकसित हो रही बाजार संभावनाओं को सलामी ठोकी। नत्थी वीजा और अरुणाचल जैसे मुद्दों पर सोची-समझी चुप्पी साधने वाले देश की तरफ से दिखाई जा रही इस तरह की विनम्रता की दरकार को अगर समझें तो कहना पड़ेगा कि भारत अपनी एटमी ताकत के बूते जितना ताकतवर नहीं हुआ, उससे ज्यादा सबसे बड़े रकवे में फैले बाजार का मालिकान उसे शक्तिशाली बनाता है। इससे पहले बराक ओबामा भी भारत आकर तकरीबन ऐसी ही प्रतिक्रिया जता चुके हैं।
संवाद क्रांति का रास्ता समाज के बीच से नहीं बाजार की भीड़ के बीच से फूटा है। यह रास्ता आज प्रशस्त मार्ग बन चुका है, जिस पर देशी-विदेशी कंपनियों के साथ देश की नौजवान पीढ़ी दौड़ रही है। होना तो यह चाहिए था कि संवाद की ताकत से हमारे लोकतांत्रिक सरोकारों को ज्यादा मजबूती मिलती तथा शासन और समाज का नया घना तानाबाना खड़ा होता। पर हुआ ठीक इसके उलट। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के दौर में रातोंरात जवान होने वाला पैशन जिस तेजी से मोबाइल कंपनियों की अंटी को वजनी कर रहा है, उससे ज्यादा तेजी से लोक, परंपरा और समाज की जड़ों में मट्ठा डाल रहा है। यह चिंता गुमराह करने वाले कई सुखद एहसासों  से बार-बार ढकी जाती है। नहीं तो ऐसा विरोधाभास क्यों दिखता कि अजनबीयत, संवादहीनता और संवेदनशून्यता की जंगल में तब्दील हो रहे नए समाज में हर दूसरे व्यक्ति के पास संवाद बनाने का मोबाइल यंत्र है।
तकनीक का विकास जरूरी है और इस पर किसी सूरत लगाम नहीं चढ़ाई जा सकती लेकिन यह खतरा मोल लेना भी बुद्धिमानी नहीं होगी कि व्यक्ति और समाज को जोड़ने वाली बुनावट की ही काट-छांट शुरू हो जाए। कितना अच्छा होता कि मोबाइल फोन का इस्तेमाल पिज्जा-बर्गर आर्डर करने या युवा स्वच्छंदता को बिंदास अंदाज में बढ़ाने-भड़काने जैसे उपयोगों की जगह यह बताया-समझाया जाता कि परिवार-समाज और व्यवस्था के बीच के रिश्ते को यह संवाद यंत्र कैसे मजबूत करता है।
इस बात से कैसे इनकार किया जा सकता है कि देश में भ्रष्टाचार और आंतरिक सुरक्षा से लेकर महिलाओं के खिलाफ बढ़ रही बर्बरता को लेकर चिंता है, उसे खतरनाक तरीके से बढ़ाने में एक बड़ी भूमिका मोबाइल फोन और इंटरनेट की है। वैकल्पिक विकास की सोच वाले कुछ गैरसरकारी संगठनों ने केरल और महाराष्ट्र सहित देश के कुछ अन्य हिस्सों में सामाजिक जागरूकता बढ़ाने और एक बेहतर नागरिक समाज की रचना में मोबाइल फोन और उसकी एसएमएस सुविधा का कारगर इस्तेमाल शुरू किया है। मुनाफे की सीख देने वाले आर्थिक ढांचे के बीच अगर इस तरह की सार्थक गुंजाइशों की संभावना थोड़ी और बढ़े तो यह कहना और मानना दोनों सार्थक होगा कि हम संवाद को तकनीकी क्रांति या बाजारू उपक्रम की जगह लोकतांत्रिक सरोकारों को पुष्ट करने वाला आधुनिक जरिया भी मानते हैं।
...तो क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र उसके सरोकारों को भी बड़ा और मजबूत बनाने की आधुनिक मिसाल दुनिया के सामने रख पाने में कामयाब होगा। अगर यह उम्मीद हमारे समय के इनबाक्स से डिलीट नहीं होता और इसके लिए जरूरी पहलों की ट्रिनट्रिन पर हम-आप सब सचमुच दौड़ पड़ते हैं तो निश्चित रूप से भारत संवाद क्रांति का आपवादिक लेकिन सबसे सार्थक और कल्याणकारी सर्ग लिखने वाला देश  हो सकता है।             

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जावेद साहब, यह बयान बदलने का प्राइम टाइम है


टीवी को लेकर जावेद अख्तर की एक मशहूर टिप्पणी है। वे कहते हैं कि यह एक ऐसा च्युइंगम है जिसे चाहे जितनी देर चबाओ, हासिल कुछ नहीं होता है। पर अब लगता है कि जावेद साहब को अपनी टिप्पणी बदलनी होगी क्योंकि अब यह च्युइंगम मुंह में खतरनाक रस घोलने लगा है, जिससे मुंह का जायका ही नहीं दिमागी नसें भी तनने लगी हैं। दिलचस्प है कि दूरदर्शन के प्रसार और पहुंच पर जब निजी चैनलों ने शुरुआती हस्तक्षेप किया, तब कइयों ने कहना शुरू किया कि सरकारी भोंपू की जगह स्वतंत्र लोक प्रसार माध्यमों का ऐतिहासिक दौर शुरू हो रहा है। पर दूरदर्शन की सीमाओं का अतिक्रमण निजी चैनलों ने जिस तरह किया, उसमें प्रयोग या रचनात्मक्ता की बजाय स्वच्छंदता ज्यादा दिखी।
इंडियन टेलीविजन एकेडमी अवार्ड की अनुरंजन अपने सालाना जलसे में कहती भी हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान में समा जाने वाली दुनिया में अब टीवी भी शामिल हो गया है। लिहाजा, इस दुनिया के भरोसे चलने वाली फिल्मों और विज्ञापनों के खोमचे टीवी के रास्ते घर-घर तक पहुंच गए हैं। टीवी की पहुंच और प्रसार को परिवार-समाज के जरूरी घटक के तौर पर किस तरह मंजूरी मिल चुकी है इसकी मिसाल है मियां-बीवी और टीवी जैसे पापुलर हुए मुहावरे।
टीवी के परदे से निकला जादू और बरसता तिलस्म कितना खतरनाक है इसको लेकर अब महज आगाह होने की नहीं बल्कि प्रभावी कदम उठाने की नौबत आ चुकी है। समाज में बढ़ रही खिन्नता, कुंठा, यौन हिंसा और दूसरे अपराधों के पीछे टीवी कार्यक्रमों को एक बड़ी वजह माना जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ रहा है और यह वाकई अलार्मिंग है।
एसोचैम के हालिया सर्वे में 90 फीसद माता-पिता ने माना कि प्राइम टाइम के कांटेंट के गिरते स्तर को लेकर वे चिंतित हैं और चाहते हैं कि सरकार इसके खिलाफ फौरी कदम उठाए। इस हस्तक्षेप की दरकार इसलिए भी महसूस की जा रही है कि नई जीवनशैली और स्थितियों के बीच बच्चे रोजाना औसतन पांच घंटे तक टीवी से चिपके रहते हैं। उनके समय बिताने और मनोरंजन के तौर पर टीवी एक सुपर विकल्प के तौर पर सामने आया है। और ऐसा करने वाले महज नाबालिग नहीं बल्कि 6-17 वर्ष के मासूम हैं। नतीजतन उनमें हिंसा और आक्रामकता जैसे कई तरह के मनोविकार तेजी से बढ़ रहे हैं। 76 फीसद माता-पिता को तो यही चिंता खाये जा रही है कि उनके 4-8 वर्ष के कच्ची उम्र के बच्चे टीवी देखकर उनके प्रति खासे असम्मान की भावना से भर रहे हैं।
साफ है कि टीवी कार्यक्रमों के मौजूदा स्तर ने टीवी को कम से कम एक जिम्मेदार माध्यम तो नहीं ही रहने दिया है। इसमें एक बड़ी असफलता सरकार के लोक प्रसार माध्यमों के लगातार पिछड़ते जाने की भी है। पारिवारिक धारावाहिकों के शुरुआती कीर्तिमान रचनेवाला दूरदर्शन अगर थोड़ा ज्यादा दूरदर्शी होता तो निजी चैनलों को अपनी मनमर्जी चलाने की छूट इस तरह नहीं मिलती। बहरहाल, इस दरकार से तो इनकार नहीं ही किया जा सकता कि पिछले कुछ अरसे से टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों और विज्ञापनों की टीआरपी होड़ बढ़ी है, जिसका प्रसारण तत्काल रोका जाना चाहिए। दिलचस्प है कि सरकार भी ऐसा ही मानती है और कई बार इसके लिए उसकी तरफ से दिशानिर्देश भी जारी होते हैं पर ये पहल कानूनी तौर पर इतने कमजोर और अस्पष्ट होते हैं कि अंतत: प्रभावी नहीं हो पाते।
हालिया मसला बिग बॉस के प्रसारण समय को बदलने और इसे प्राइम टाइम के बाद दिखाने के फैसले का है। सरकार ने इस बाबत संसद को भी सूचित कर दिया पर बिग बॉस का प्रसारण समय एक दिन भी नहीं बदला। बाद में यह मामला अदालत में चला गया। ऐसे कई मामले पहले भी सामने आए हैं जब सरकारी पहल असरकारी नहीं साबित हुआ। लिहाजा, अगर यह मांग बार-बार उठती है कि सरकार को इस तरह की आपत्तियों से निपटने के लिए अलग से एक स्वतंत्र और सशक्त नियामक संस्था का गठन करना चाहिए तो अब यह वक्त जरूर आ गया है कि इस बारे में बगैर और समय गंवाए कोई ठोस फैसला हो। सरकार के लिए यह करना आसान भी होगा क्योंकि इस मुद्दे पर संसद के बाहर और भीतर दोनों ही जगह तकरीबन सर्वसम्मति की स्थिति है।

रविवार, 28 नवंबर 2010

दुविधा डार्लिंग सीएम की


 दिल्ली की डार्लिंग सीएम बार एक बार फिर असमंजस में हैं।  मीडिया के हुक्के और लेंस उनकी इस दुविधा को अपने-अपने तरीके से कैद कर रहे हैं। साथ ही मैडम की इस दुविधाग्रस्त इमेज या फुटेज का मन-माफि नरेशन भी चल रहा है। दरअसल, राजधानी दिल्ली में महिला असुरक्षा का सवाल एक बार फिर से सतह पर आ गया है।  नई घटना एक 23 वर्षीय कॉल सेंटर कर्मी लड़की के साथ गैंगरेप की है। घटना आधी रात के बाद की भले हो लेकिन जिस आसानी से बदमाश अपराध को अंजाम दे पाए, उसे देखकर यह जरूर लगता है कि कानून और पुलिस का खौफ अब राजधानी के अपराधियों को न के बराबर है। गौरतलब है कि इससे पहले ऐसे ही एक मामले में जब एक लड़की की अस्मत लुटी तो यहां की मुख्यमंत्री ने लड़कियों-युवतियों को देर रात घर से बाहर निकलेने से ही परहेज करने की सलाह दे डाली थी। यह अलग बात है कि बाद में मुख्यमंत्री महोदया को अपने बयान के आशय को लेकर सफाई देनी पड़ी ताकि लोगों का भड़का गुस्सा कम हो सके। नई घट सामने आने के बाद शीला दीक्षित की लाचारी देखते ही बनती है। मीडिया के सवाल खड़े करने पर वह मीडिया से ही सलाह मांगने लग जाती हैं कि आखिर वह करें तो क्या। जाहिर है एक महिला होने के बावजूद महिला असुरक्षा का सवाल उनकी चिंता बढ़ाने से ज्यादा झेंप मिटाने भर है।  
दूसरी तरफ, हो यह रहा है कि कि जब भी कोई नया मामला सामने आता है तो मीडिया के साथ सरकार और लोग भी इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाने लगाते हैं। सरकार और पुलिस अपनी तरफ से मुस्तैदी बढ़ाने का संकल्प दोहराती है तो मीडिया और जनता कानून व्यवस्था की बिगड़ती जा रही स्थिति पर लानत भरकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।  पिछले साल इन्हीं दिनों आए एक सर्वे में बताया गया था कि दिल्ली की 96 फीसद महिलाएं कहीं भी अकेले जाने में घबड़ाती हैं। इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पक्ष यह था कि यहां की 82 फीसद महिलाएं बसों को यातायात का सबसे असुरक्षित साधन मानती हैं। ऐसा भी नहीं है कि महिला असुरक्षा को लेकर इस तरह की शिकायतें सिर्फ दिल्ली को लेकर ही बढ़ी हैं। पिछले दिनों मुंबई में एक पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा महिला यौन उत्पीड़न का ऐसा ही एक मामला सामने आया। आईटी हब के रूप अपनी शिनाख्त गढ़ चुके बेंगलुरू में बीपीओ कर्मियों के साथ बदसलूकी और यौन उत्पीड़न के मामले आए दिन अखबारों की सुर्खी बनते हैं। दिल्ली से लगे नोएडा के लिए तो ऐसी घटनाएं रुटीन खबरें हैं।
...तो क्या यह मान लेना चाहिए कि महिला अस्मिता और संवेदनशीलता के मामले में महानगरों का नागरिक समाज लगातार असभ्य और बर्बर होता जा रहा है। हालिया एक घटना में दिल्ली में मैराथन दौड़ने आई फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग के साथ जब बदसलूकी हुई तो उन्होंने अपनी शिकायत के साथ यह अनुभव भी दोहराया कि नए समय में महानगरों में रहने वाली महिलाओं को ऐसी घटनाओं के साथ जीने की आदत पर चुकी है। जाहिर है सड़कों, फ्लाईओवरों और मॉलों के बहाने जिन महानगरों के विकास की बात हम करते हैं उसका समाज दिनोंदिन ज्यादा असंवेदनशील होता जा रहा है। और यह असंवेदनशीलता परिवार और संबंधों के साथ दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की असुरक्षा के पहलू को चिंताजनक तरीके से बढ़ाता जा रहा है। ऐसे में महानगरों में महिला असुरक्षा के मुद्दे को महज कानून-व्यवस्था का मुद्दा मान लेना इस समस्या का सरलीकरण ही होगा। जरूरत इस बात की है कि महानगरीय जीवन और समाज को सभ्यता और संस्कारगत तरीके से भी पुष्ट बनाने के साझे अभिक्रम हों।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

मीडिया का राखी घराना


संगीत और कुश्ती के घराने निपटते जा रहे हैं। नई पीढ़ी की मस्ती रिंगटोन और डायलर टोन सुनने-सुनाने में है। परंपरा की पाल और पुरानी चाल, दोनों में से कोई भी उसे भविष्य से ताल बैठाने के लिए जरूरी नहीं जान पड़ता। अगर किसी दरकार की गुंजाइश निकल भी आए तो गुलजार जैसे माहिर सर्वेश्वर जैसों की पुरानी जूती लेकर "फुरर्रर्रर्रर्र...' हो जाते हैं। फ्यूजन के दौर में सुरीली विरासत की इससे ज्यादा हिफाजत क्या होगी? आज तो परंपरा बचाने की जहमत की जगह उसे "अपग्रेड' करने की दिलेर हिमाकत देखने में ज्यादा आती हंै। कुश्ती के तो पुराने घरानों के नाम भी लोगों को याद नहीं। पुराने लोग जरूर इन घरानों की गठीली बहादुरी और मैदानी दांवपेच के किस्से सुनते-सुनाते मिल जाएंगे, वह भी गांव-देहात में। शहरों में ऐसी किस्सागोई के लिए अब स्पेस कहां? यहां तो मल्टीप्लेक्स में तीन घंटे में "दस कहानियां' दिखाई जा रही हैं। दिलचस्प है कि ये कहानियां देखने के लिए कम ही पहुंचे और वे भी सिर धुनते हुए ही हॉल से बाहर निकले।
दरअसल, नए घराने बन नहीं रहे पा रहे और पुराने टिक नहीं पा रहे। घराने फिल्मी दुनिया में भी रहे हैं। वहां सबसे बड़ा घराना आज भी कपूर घराना है पर अब वो बात नहीं रही इस घराने में भी। कपूर घराने की चमक राज कपूर तक ही थी। बाद में घराने की कोई धुरी नहीं रही, लिहाजा कपूर परिवार का फिल्मों में तो दखल रहा पर वे लोग अब घरानेदार नहीं रहे। फिल्मी दुनिया अब "नेम-फेम' से चलती है। नाम यहां काम से भी बड़ा है।
हां, इस बीच नए तरह का घराना शुरू हुआ है, वह भी इन्फोटेनमेंट की दुनिया मेंें। चूंकि घराना नया है, इसलिए इस घराने की घरानेदारी भी जुदा है। इतनी बात तो सब लोग मानते हैं कि पिछले एक दशक में मीडिया की धौंक इंटरटेन्मेंट की छौंक के आगे अच्छे से अच्छे पानी भरते नजर आए। वैसे इस सबसे किसी सार्थक परिवर्तन की गोद भराई हुई हो या नहीं पर इस दौरान "क्रिएशन' जरूर हुआ है। यह क्रिएशन सामने आया "आइटम' की शक्ल में। ऐसा आइटम जो हर एंगल से बिकाऊ है। मीडिया के इन्फोटेनमेंटी अवतार की नई क्रिएटिविटी से तैयार यह आइटम है- राखी सावंत। राखी के साथ ही शुरू हो गया एक नया घराना- मीडिया का राखी सावंत घराना।
इस घराने में वे सारे लोग शामिल हैं, जो ओढ़ाने में नहीं, उघारने में यकीन रखते हैं। इनके लिए राखी का ठुमका पूरे गांव के डूब जाने से भी बड़ी खबर है। इनके लिए सानिया मिर्जा की सगाई टूटनी, सर्द-मुफलिसी-ठिठुरन से हजारों दम तोड़ती जिंदगियों से कहीं ज्यादा दिलचस्प और जरखेज है। आखिर घराना भी राखी सावंत का है। वह राखी, जो इन्फोटेनमेंटी इल्मबाजों की तिकड़म से जब चाहे गांधी की लाठी ले उड़ती है और झोपड़पट्टी वालों के लिए सड़क पर मोर्चा निकालती है। "कमीनी' जैसे अछूत शब्द की प्रछालन-शुद्धि में लगी राखी इन दिनों सेंसर बोर्ड के हाथ की कैंची के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठने के अल्टीमेटम के कारण सुर्खियों में है।
बहरहाल, वे तमाम साथिनें जो राखी की उड़ान में अपने सपनों के पर देखती हैं, उन्हें खतरे से आगाह करने की जरूरत है। राखी सावंत होना "मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं' से भी ज्यादा खतरनाक है। इस होने में औरत होने की हर वह कीमत वसूली जाती है, जो पांच हजार साल से पुरुष मन और देह की विकसित दरकार बनकर सामने आई है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर आज के अकेले और सबसे बड़े घराने की घरानेदारी का सवाल जो है?