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मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जावेद साहब, यह बयान बदलने का प्राइम टाइम है


टीवी को लेकर जावेद अख्तर की एक मशहूर टिप्पणी है। वे कहते हैं कि यह एक ऐसा च्युइंगम है जिसे चाहे जितनी देर चबाओ, हासिल कुछ नहीं होता है। पर अब लगता है कि जावेद साहब को अपनी टिप्पणी बदलनी होगी क्योंकि अब यह च्युइंगम मुंह में खतरनाक रस घोलने लगा है, जिससे मुंह का जायका ही नहीं दिमागी नसें भी तनने लगी हैं। दिलचस्प है कि दूरदर्शन के प्रसार और पहुंच पर जब निजी चैनलों ने शुरुआती हस्तक्षेप किया, तब कइयों ने कहना शुरू किया कि सरकारी भोंपू की जगह स्वतंत्र लोक प्रसार माध्यमों का ऐतिहासिक दौर शुरू हो रहा है। पर दूरदर्शन की सीमाओं का अतिक्रमण निजी चैनलों ने जिस तरह किया, उसमें प्रयोग या रचनात्मक्ता की बजाय स्वच्छंदता ज्यादा दिखी।
इंडियन टेलीविजन एकेडमी अवार्ड की अनुरंजन अपने सालाना जलसे में कहती भी हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान में समा जाने वाली दुनिया में अब टीवी भी शामिल हो गया है। लिहाजा, इस दुनिया के भरोसे चलने वाली फिल्मों और विज्ञापनों के खोमचे टीवी के रास्ते घर-घर तक पहुंच गए हैं। टीवी की पहुंच और प्रसार को परिवार-समाज के जरूरी घटक के तौर पर किस तरह मंजूरी मिल चुकी है इसकी मिसाल है मियां-बीवी और टीवी जैसे पापुलर हुए मुहावरे।
टीवी के परदे से निकला जादू और बरसता तिलस्म कितना खतरनाक है इसको लेकर अब महज आगाह होने की नहीं बल्कि प्रभावी कदम उठाने की नौबत आ चुकी है। समाज में बढ़ रही खिन्नता, कुंठा, यौन हिंसा और दूसरे अपराधों के पीछे टीवी कार्यक्रमों को एक बड़ी वजह माना जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ रहा है और यह वाकई अलार्मिंग है।
एसोचैम के हालिया सर्वे में 90 फीसद माता-पिता ने माना कि प्राइम टाइम के कांटेंट के गिरते स्तर को लेकर वे चिंतित हैं और चाहते हैं कि सरकार इसके खिलाफ फौरी कदम उठाए। इस हस्तक्षेप की दरकार इसलिए भी महसूस की जा रही है कि नई जीवनशैली और स्थितियों के बीच बच्चे रोजाना औसतन पांच घंटे तक टीवी से चिपके रहते हैं। उनके समय बिताने और मनोरंजन के तौर पर टीवी एक सुपर विकल्प के तौर पर सामने आया है। और ऐसा करने वाले महज नाबालिग नहीं बल्कि 6-17 वर्ष के मासूम हैं। नतीजतन उनमें हिंसा और आक्रामकता जैसे कई तरह के मनोविकार तेजी से बढ़ रहे हैं। 76 फीसद माता-पिता को तो यही चिंता खाये जा रही है कि उनके 4-8 वर्ष के कच्ची उम्र के बच्चे टीवी देखकर उनके प्रति खासे असम्मान की भावना से भर रहे हैं।
साफ है कि टीवी कार्यक्रमों के मौजूदा स्तर ने टीवी को कम से कम एक जिम्मेदार माध्यम तो नहीं ही रहने दिया है। इसमें एक बड़ी असफलता सरकार के लोक प्रसार माध्यमों के लगातार पिछड़ते जाने की भी है। पारिवारिक धारावाहिकों के शुरुआती कीर्तिमान रचनेवाला दूरदर्शन अगर थोड़ा ज्यादा दूरदर्शी होता तो निजी चैनलों को अपनी मनमर्जी चलाने की छूट इस तरह नहीं मिलती। बहरहाल, इस दरकार से तो इनकार नहीं ही किया जा सकता कि पिछले कुछ अरसे से टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों और विज्ञापनों की टीआरपी होड़ बढ़ी है, जिसका प्रसारण तत्काल रोका जाना चाहिए। दिलचस्प है कि सरकार भी ऐसा ही मानती है और कई बार इसके लिए उसकी तरफ से दिशानिर्देश भी जारी होते हैं पर ये पहल कानूनी तौर पर इतने कमजोर और अस्पष्ट होते हैं कि अंतत: प्रभावी नहीं हो पाते।
हालिया मसला बिग बॉस के प्रसारण समय को बदलने और इसे प्राइम टाइम के बाद दिखाने के फैसले का है। सरकार ने इस बाबत संसद को भी सूचित कर दिया पर बिग बॉस का प्रसारण समय एक दिन भी नहीं बदला। बाद में यह मामला अदालत में चला गया। ऐसे कई मामले पहले भी सामने आए हैं जब सरकारी पहल असरकारी नहीं साबित हुआ। लिहाजा, अगर यह मांग बार-बार उठती है कि सरकार को इस तरह की आपत्तियों से निपटने के लिए अलग से एक स्वतंत्र और सशक्त नियामक संस्था का गठन करना चाहिए तो अब यह वक्त जरूर आ गया है कि इस बारे में बगैर और समय गंवाए कोई ठोस फैसला हो। सरकार के लिए यह करना आसान भी होगा क्योंकि इस मुद्दे पर संसद के बाहर और भीतर दोनों ही जगह तकरीबन सर्वसम्मति की स्थिति है।

रविवार, 28 नवंबर 2010

दुविधा डार्लिंग सीएम की


 दिल्ली की डार्लिंग सीएम बार एक बार फिर असमंजस में हैं।  मीडिया के हुक्के और लेंस उनकी इस दुविधा को अपने-अपने तरीके से कैद कर रहे हैं। साथ ही मैडम की इस दुविधाग्रस्त इमेज या फुटेज का मन-माफि नरेशन भी चल रहा है। दरअसल, राजधानी दिल्ली में महिला असुरक्षा का सवाल एक बार फिर से सतह पर आ गया है।  नई घटना एक 23 वर्षीय कॉल सेंटर कर्मी लड़की के साथ गैंगरेप की है। घटना आधी रात के बाद की भले हो लेकिन जिस आसानी से बदमाश अपराध को अंजाम दे पाए, उसे देखकर यह जरूर लगता है कि कानून और पुलिस का खौफ अब राजधानी के अपराधियों को न के बराबर है। गौरतलब है कि इससे पहले ऐसे ही एक मामले में जब एक लड़की की अस्मत लुटी तो यहां की मुख्यमंत्री ने लड़कियों-युवतियों को देर रात घर से बाहर निकलेने से ही परहेज करने की सलाह दे डाली थी। यह अलग बात है कि बाद में मुख्यमंत्री महोदया को अपने बयान के आशय को लेकर सफाई देनी पड़ी ताकि लोगों का भड़का गुस्सा कम हो सके। नई घट सामने आने के बाद शीला दीक्षित की लाचारी देखते ही बनती है। मीडिया के सवाल खड़े करने पर वह मीडिया से ही सलाह मांगने लग जाती हैं कि आखिर वह करें तो क्या। जाहिर है एक महिला होने के बावजूद महिला असुरक्षा का सवाल उनकी चिंता बढ़ाने से ज्यादा झेंप मिटाने भर है।  
दूसरी तरफ, हो यह रहा है कि कि जब भी कोई नया मामला सामने आता है तो मीडिया के साथ सरकार और लोग भी इस मुद्दे पर हाय-तौबा मचाने लगाते हैं। सरकार और पुलिस अपनी तरफ से मुस्तैदी बढ़ाने का संकल्प दोहराती है तो मीडिया और जनता कानून व्यवस्था की बिगड़ती जा रही स्थिति पर लानत भरकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।  पिछले साल इन्हीं दिनों आए एक सर्वे में बताया गया था कि दिल्ली की 96 फीसद महिलाएं कहीं भी अकेले जाने में घबड़ाती हैं। इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पक्ष यह था कि यहां की 82 फीसद महिलाएं बसों को यातायात का सबसे असुरक्षित साधन मानती हैं। ऐसा भी नहीं है कि महिला असुरक्षा को लेकर इस तरह की शिकायतें सिर्फ दिल्ली को लेकर ही बढ़ी हैं। पिछले दिनों मुंबई में एक पुलिस इंस्पेक्टर द्वारा महिला यौन उत्पीड़न का ऐसा ही एक मामला सामने आया। आईटी हब के रूप अपनी शिनाख्त गढ़ चुके बेंगलुरू में बीपीओ कर्मियों के साथ बदसलूकी और यौन उत्पीड़न के मामले आए दिन अखबारों की सुर्खी बनते हैं। दिल्ली से लगे नोएडा के लिए तो ऐसी घटनाएं रुटीन खबरें हैं।
...तो क्या यह मान लेना चाहिए कि महिला अस्मिता और संवेदनशीलता के मामले में महानगरों का नागरिक समाज लगातार असभ्य और बर्बर होता जा रहा है। हालिया एक घटना में दिल्ली में मैराथन दौड़ने आई फिल्म अभिनेत्री गुल पनाग के साथ जब बदसलूकी हुई तो उन्होंने अपनी शिकायत के साथ यह अनुभव भी दोहराया कि नए समय में महानगरों में रहने वाली महिलाओं को ऐसी घटनाओं के साथ जीने की आदत पर चुकी है। जाहिर है सड़कों, फ्लाईओवरों और मॉलों के बहाने जिन महानगरों के विकास की बात हम करते हैं उसका समाज दिनोंदिन ज्यादा असंवेदनशील होता जा रहा है। और यह असंवेदनशीलता परिवार और संबंधों के साथ दफ्तरों और सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की असुरक्षा के पहलू को चिंताजनक तरीके से बढ़ाता जा रहा है। ऐसे में महानगरों में महिला असुरक्षा के मुद्दे को महज कानून-व्यवस्था का मुद्दा मान लेना इस समस्या का सरलीकरण ही होगा। जरूरत इस बात की है कि महानगरीय जीवन और समाज को सभ्यता और संस्कारगत तरीके से भी पुष्ट बनाने के साझे अभिक्रम हों।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं


पिछले 10-15 सालों में लिखने-पढ़ने की दुनिया में जो बड़ा फर्क आया है, वह है लुगदी साहित्य की दुनिया का सिमटते जाना। यह सिमटना आज उस स्तर पर आ गया है कि वजूद के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है लुगदी साहित्य के पूरे कारोबार को। सुहागरात कैसे मनाएं से लेकर जीजा-साली की रंगीन शायरी तक नीली-पीली रोशनी में नहाई किताबों और पत्रिकाओं के आज न तो खरीदार बचे हैं और न ही इनके छापने वाले। दिलचस्प है कि यह परिवर्तन किसी पाठक जागरूकता या सामाजिक चेतना के चलते नहीं आया है। इसके पीछे वह बदली स्थितियां हैं, जिनके बीच आज का सामाजिक मनोविज्ञान गढ़ा जा रहा है। कमाल की बात है कि इस परिवर्तन के कारण न तो नंगेपन और यौनकर्म का गोपन भेदने की मानसिकता में कोई  कमी आई है और न ही न्यूड या पोर्न  की दुनिया का अंधेरा छंटा है। ऐसा लग रहा है जैसे सिंगल स्क्रीन थियेटरों की जगह मल्टीप्लेक्सों ने ली है, उसी तरह खुरदरे कागजों और नीली पन्नियों में लिपटा यौन साहित्य अब बेतार वर्चुअल  व विजुअल माध्यमों से अपनी पहुंच को ज्यादा सरल और ज्यादा सहज तरीकों से लोगों तक पहुंच रहा है। माउस के एक क्लिक पर जो हजारों-लाखों घंटों व पन्नों की जिस संपन्न दुनिया में दाखिला आज हरेक के लिए सुलभ है, वह सूचना या ज्ञान से भरा हो या नहीं उस आधुनिक मनोविज्ञान से जरूर भरा है। जो मानवीय और सामाजिक संबंधों के तमाम सरोकारों का सेक्स के बिस्तर पर लिटाकर परीक्षण करना चाहता है। इस परीक्षण की उत्सुकता जितनी बढ़ी है, उससे ज्यादा इसके लिए सुलभ हुए अवसर हैं। चाहें तो आप इंटरनेट पर सीधे किसी सर्च इंजन का सहारा लें या किसी ऐसे सोशल ग्रुप में शामिल हो जाएं, जो ज्यादा सक्रिय और ज्यादा प्रयोगवादी या आधुनिक हैं। अगर आपका संकल्प तगड़ा हो तो विकल्प के इन दोनों विकल्पी रास्तों पर आपको इतने जंक्शन मिलेंगे कि दंग रह जाएंगे।
चांद पर पानी है या नहीं, मंगल पर जीवन संभव है या नहीं और ग्लोबल वार्मिंग की दुरूह स्थितियां अगले कितने सालों में हमारे लिए असह्य होने वाली हैं, पूरी दुनिया में आज इन तमाम जिज्ञासाओं से ज्यादा यह चाहत है कि किसी भी स्त्री से भोगास्वादन के कितने विकल्प संभव हैं। इंटरनेट तो इंटरनेट मोबाइल फोन पर बार-बार आने वाले सर्विस कॉल बार-बार याद दिलाते हैं कि अगर आपकी दुनिया में रंगीनी कम हैं तो रंगीन मिजाज उन्मुक्त लड़कियां आपका इंतजार कर रही हैं।  यही आमंत्रण किसी भी अखबार के भीतरी पन्नों पर खुले ऑफर की शक्ल में मौजूद हैं। सो क्या हुआ, अगर काम और कोक के नाम पर बिकने वाले नीले-पीले साहित्य की छपाई बंद हो गई। अब सब कुछ हाई डेफिनेशन तकनीक के साथ मुहैया हो रही है।
तकनीक और यंत्र का दैत्यकारी विकास मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन, सबसे बड़ा दुश्मन है। गांधीजी यह बात सौ साल पहले कह गए। उनकी बात आज सही साबित हो रही है। पर आज सब कुछ देख-सुन लेने के बाद अगर वे अपनी बात कहते तो शायद यह भी जोड़ते कि तकनीक को अपनी मुट्ठी में कर आदमी शोषक ही नहीं बनता, आक्रमक तरीके से कामभोगी भी बनता है। स्त्री विमर्शवादी लहजे में कहें तो देह-भक्षण की प्रवृत्ति को जाग्रत और उन्मुख बनाए रखने में तकनीकी पहलू भी है। लिहाजा पुरुष तो पुरुष उसका तकनीकी आंदोलन भी स्त्री विरोधी है। इससे बेहतर तो वह खुरदरे पील-नीले कागजों की ही दुनिया थी, जहां फिसलन तो थी लेकिन इतनी सीधी नहीं।

बुधवार, 24 नवंबर 2010

ओबामा को क्यों चाहिए गांधी


अमेरिकी राष्ट्रपति का दौरा महज आर्थिक हितों से जुड़ा था या भारत के लिए इसके अन्य निहितार्थ भी थे।  बहस का यह आलम बराक ओबामा की भारत यात्रा के दौरान या उसके बाद नहीं, उनके राष्ट्रपति चुनाव लड़ने और जीतने के समय से ही शुरू हो गया था। और इस सब की चर्चा सिर्फ भारत में ज्यादा रही हो ऐसा भी नहीं है। दिलचस्प है कि इस बारे में बताने या जताने की सबसे ज्यादा होड़ भी अमेरिकी मीडिया में ही दिखी। बहरहाल,  ओबामा का गांधी प्रेम जरूर एक ऐसा मुद्दा है, जिसने राष्ट्रपति चुनाव से लेकर विश्व शांति के अग्रदूत के रूप में नोबेल सम्मान से नवाजे गए इस बिरले राजनेता को न सिर्फ चर्चित बनाए रखा है बल्कि जब वह अपने हालिया भारत दौरे पर थे तो भी सबसे ज्यादा चर्चा इसी विषय को लेकर रही। देश के गांधीजनों से जब इस बाबत बात की गई तो उन्होंने ओबामा के गांधी प्रेम को सराहा तो पर वे इसे एक राष्ट्राध्यक्ष के ह्मदय परिवर्तन होने की कसौटी मानने को तैयार नहीं दिखे। दरअसल, जिन दो कारणों से ओबामा गांधी को नहीं भूलते या उन्हें याद रखना जरूरी मानते हैं, वे हैं गांधी की वह क्षमता जो साधारण को असाधरण के रूप में तब्दील करने व होने की प्रेरणा देता है और वह पाठ जो विश्व को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए निर्णायक तौर पर जागरूक होने की जरूरत बताता है।
वर्ष 2008 के शुरुआत में जब ओबामा अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए यहां-वहां चुनाव प्रचार कर रहे थे  तो उन्होंने एक लेख में लिखा, '...मैंने महात्मा गांधी को हमेशा प्रेरणास्रोत  के रूप में देखा है क्योंकि वह एक ऐसे बदलाव के प्रतीक हैं, जो बताता है कि जब आम लोग साथ मिल जाते हैं तो वे असाधारण काम कर सकते हैं।" अपनी भारत यात्रा की शुरुआत में उन्होंने एक बार फिर गांधी को भारत का ही नहीं पूरी दुनिया का हीरो बताया। दरअसल, 21वीं सदी में पूंजी के जोर पर विकास की जिस धुरी पर पूरी दुनिया घूमने को बाध्य है, उसमें भय और अशांति का संकट सबसे ज्यादा बढ़ा है। भोग और लालच की नई वैश्विक होड़ और मानवीय सहअस्त्वि का साझा बुनियादी रूप से असंभव है। इसलिए मौजूदा दौर में जिन लोगों को भी गांधी की सत्य, अहिंसा और सादगी चमत्कृत करती है, उन्हें गांधी की उस 'ताबीज" को भी नहीं भूलना चाहिए, जो व्यक्ति और समाज को हर दुविधा और चुनौती की स्थिति में 'अंतिम आदमी" की याद दिलाता है। लिहाजा, ओबामा का गांधी प्रेम शांति और प्रेम की अभिलाषी दुनिया की संवेदना को स्पर्श करने की रणनीति भर नहीं है तो दुनिया के सबसे ताकतवर कहे जाने वाले इस राष्ट्राध्यक्ष को अपनी पहलों और संकल्पों में ज्यादा  दृढ़ और बदलावकारी दिखना होगा। 9/11 के जख्म से आहत अमेरिका को अगर 26/11 का हमला भी गंभीर लगता है और आतंक रहित विश्व परिदृश्य की रचना उसकी प्राथमिकता में शुमार है तो उसका संकल्प हथियारों की खरीद-फरोख्त से ज्यादा मानवीय सौहार्द को बढ़ाने वाले अन्य मुद्दों पर होना चाहिए। इस बाबत अमेरिकी रक्षा मंत्री का हालिया बयान कि भारत उसका सबसे बड़ा रक्षा साझीदार है, परिवर्तन के कोई अच्छे संकेत नहीं देता। इस मामले में कुछ गांधीजनों की तरफ से आई यह प्रतिक्रिया भी महत्वपूर्ण है कि गांधी की लोकप्रियता और उनकी प्रासंगिकता को ओबामा से जोड़कर देखना मुनासिब नहीं क्योंकि जब तक हिंसा और भय का आतंक देश-दुनिया को तबाह करता रहेगा गांधी की प्रेरणा और  उसकी जरूरत सभी को महसूस होती रहेगी। हां, ओबामा के बहाने ये प्रेरणा अगर पूरी दुनिया में और तेजी से फैलती है तो यह जरूर स्वागतयोग्य है। 

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

कितने गंदे हम


ऐसे समय में जबकि देश में सार्वजनिक जीवन में मलिनता को लेकर बहस की गरमाहट बढ़ी है, ’स्वच्छता‘ का सवाल खड़ा करना कुछ बुनियादी सरोकारों को रेखांकित करने जैसा है। हालिया कुछ आंकड़े हमारे विकास का विरोधाभासी चरित्र उजागर करते है। एक अरब से ज्यादा की आबादी वाले देश में अगर आज भी महज 36 करोड़ लोग ही ऐसे है जो शौचकर्म खुले में नहीं करते तो साफ है कि हमारी वस्तुस्थिति और उन्नति के बीच की खाई खासी चौड़ी है। इस खाई के बड़े और गहरे होने का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा कि देश में सेलफोन पर बतियाने वालों की गिनती शौचालय का प्रयोग करने वालों से दोगुनी है।
दरअसल, तेजी से हो रहे शहरीकरण ने गांव-देहात के जीवन की न सिर्फ उपेक्षा की है बल्कि एक ऐसी सनक के कंधे पर हाथ रखा है जिसमें कुछ चेहरों की लाली के लिए लाखों-करोड़ों मुरझाए चेहरे उनके हाल पर छोड़ दिये गये है। अच्छी बात यह है कि विकास योजनाओं के एकांगी चरित्र से बचने की सोच सरकार के भीतर भी अब काफी हद तक कारगर शक्ल अख्तियार कर रही है। इसे बेहतर संकेत मानना चाहिए कि विकास और समृद्धि के ऊपरी नारों और वादों की जगह, बिजली, सड़क, शौचालय और पानी जैसे बुनियादी जरूरत के मुद्दे एक बार फिर एजेंडे में बहाल हो रहे है। छूटते जा रहे इन मुद्दों ने जाति और क्षेत्र की राजनीति करने वालों को भी हतोत्साहित किया है।
केंद्र में जब दूसरी बार मनमोहन सरकार आई तब भी माना गया कि रोजगार गारंटी जैसी महात्वाकांक्षी योजनाओं के बूते ही संप्रग लोगों का व्यापक समर्थन हासिल करने में सफल रही। आज सरकार द्वारा जिस समेकित विकास नीति पर जोर दिया जा रहा है, उसकी जरूरत भी इसलिए पड़ी कि विकास की सरपट दौड़ में काफी कुछ छूटता चला गया है। जिन आंकड़ों से हमारे विकास का मलिन चेहरा उजागर हुआ है, उसमें यह भी शामिल है कि देश के दिल्ली और केरल जैसे हिस्सों में बेहतर स्वच्छता सहूलियत का लाभ उठाने वालों का प्रतिशत 90 से ज्यादा है जबकि झारखंड, बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में स्थिति सबसे खराब है। साफ है कि शिक्षा और शहरीकरण का सीधा रिश्ता स्वास्थ्य और स्वच्छता जैसी बुनियादी सहूलियतों से जुड़ा है। शहरी आबादी का बढ़ता बोझ और पलायन जैसी समस्या के पीछे भी शहर बनाम गांव की स्थिति सबसे बड़ा कारण है।
हमारी लोक परंपरा में स्वच्छता का स्थान काफी ऊंचा है। यह कहीं न कहीं हमारे संस्कारों में भी बीज रूप से शामिल है। हां, अशिक्षा और गरीबी ने देश की आबादी के एक बड़े हिस्से की परिस्थति को इतना मजबूर जरूर कर दिया कि उसे महज दो जून की रोटी के संघर्ष के साथ किसी तरह गुजर-बसर करने की जद्दोजहद में ही अपना सारा सामर्थ्य झोंक देना पड़ता है। अब जबकि सरकार का ध्यान शिक्षा और खाद्य सुरक्षा की तरफ गंभीरता से गया है तो उम्मीद करनी चाहिए कि न सिर्फ देश के संभ्रांत और सभ्य कहे जाने वाले इलाकों बल्कि सुदूर गांव-देहातों में भी शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता की बुनियादी सहूलियतें पहुंचेंगी।

शनिवार, 20 नवंबर 2010

39 मिनट की स्माइल


कला और संवेदना के संबंध को लेकर बहस पुरानी है। संवेदना से कला के उत्कर्ष का तर्क तो समझ में आता है पर कलात्मक चौध के लिए संवेदना का इस्तेमाल सचमुच बहुत खतरनाक है। दिलचस्प है कि नए समय में इस खतरे से खेलकर कइयों ने खूब शोहरत बटोरी। ’स्माइल पिंकी‘ की पिंकी की परेशानी और मुफलिसी की खबर ने एक बार फिर कला और संवेदना के रिश्ते को लेकर बहस को आंच दी है। 
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की पिंकी की असली जिंदगी पर बनी डाक्यूमेंटरी को जब ऑस्कर मिला तो उसे हाथोंहाथ लेने वालों की कमी न थी। सरकार से लेकर सिनेमा और फैशन जगत में सब जगह पिंकी के नाम की धूम थी। सारा तमाशा बिल्कुल वैसा ही था, जैसा ऑस्कर अवार्ड समारोह में धूम मचा देने वाली फिल्म ’स्लमडॉग मिलेनियर‘ के बाल कलाकारों रुबीना और अजहरुद्दीन को लेकर हर तरफ देखने को मिला था। पर थोड़े समय बाद ही खबर आने लगी कि पिंकी बीमार है और रुबीना और अजहरुद्दीन फिर अपनी उस अंधेरी जिंदगी में पहुंच गए है। हां, बीच-बीच में कई चैरिटी कार्यक्रमों में इनके नाम पर भीड़ और पैसे जरूर बटोरे गए। जहां तक पिंकी की मामला है, वह उन कई हजार बच्चों में से एक थी, जिसके होठ कटे थे और इस कारण सामाजिक तिरस्कार झेल रही थी। एक स्वयंसेवी संस्था ने उसका इलाज कराया और उसकी जिंदगी बदल गई। डाक्यूमेंटरी में यही दिखाया गया है। पर 39 मिनट की रील में किसी की जिंदगी को ’रियली‘ बदल जाने की करामाती संवेदना कितनी ऊपरी और झूठी निकली, इसका अंदाजा आज की पिंकी की परेशानियां देख लग सकता है। पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर मुफलिसी के बावजूद उसकी तालीम पूरी कराना चाहते है पर उन्हें भी नहीं मालूम कि वह अपनी बेटी के प्रति फर्ज कैसे निभा पाएंगे।
पिंकी की मदद के लिए न आज वह स्वयंसेवी संस्था कहीं दिखती है जिसने उसकी ’स्माइल‘ की सर्जिकल कहानी दुनिया के आगे परोस वाह-वाही लूटी और न शासन जिसने अपने समारोहों में बुला उसे सम्मानित किया और उसके बेहतर भविष्य के लिए सार्वजनिक तौर पर वचनबद्धता दोहराई। आज जिंदगी और दुनिया की चुभती सचाइयों का नंगे पैर सामना कर रही पिंकी मुस्कान (स्माइल) से ज्यादा उस त्रासद कथा का जीवंत पात्र लगती है, जहां खिलने की आस में एक-एककर सपने कुम्हलाने लगते है। एक पहल तो यही होनी चाहिए कि कला की श्रेष्ठता के साथ उसकी नैतिकता का भी ठोस पैमाना तय हो, ताकि किसी की मजबूरी या संवेदना से खिलवाड़ न हो। कला और फिल्म की संभ्रांत दुनिया को कम से कम इतना उदार तो होना ही चाहिए कि उन्हें पीड़ा और संवेदना के चित्र ही आकषर्क न लगें, उनमें इन जिंदगियों में झांकने की दिलेरी भी हो। ताकि किसी पिंकी, किसी रुबीना की जिंदगी पर्दे या कैनवस पर ही नहीं, असल में भी बदले।    

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

डेढ़ लाख का सपना और इराक वार


कोख के हिस्से आया यह एक और शोक, एक और त्रासदी है। इंदौर में सरोगेसी के धंधे का तब एक और सियाह चेहरा सामने आया जब पता चला कि भ्रूण हिंसा ने यहां भी अपनी गुंजाइश निकाल ली है। इस शहर की एक महिला सपना नवीन झा ने एक डाक्टर के मार्फत एक बड़े कारोबारी के साथ डेढ़ लाख रुपए में किराए की कोख का मौखिक करार किया। शर्त के मुताबिक अगर गर्भ ठहरने के तकरीबन ढाई महीने बाद करवाई गई सोनोग्राफी में गर्भ में लड़के की जगह लड़की होने का पता चलता है तो अबार्शन कराना होगा। जिसका खतरा था, वही हुआ भी। सपना को ढाई महीने बाद गर्भ गिराने के लिए तैयार होना पड़ा। पर उसे अफसोस इसलिए नहीं था क्योंकि ऐसा करने पर भी उसे 25 हजार रुपए की आमदनी हुई। सपना ने यह सब अपनी तंगहाली से आजिज आकर किया था, सो 25 हजार रुपए की आमद भी उसके लिए कम सुकूनदेह नहीं थी।
इस पूरे मामले का खुलासा जिस तरह हुआ, वह एक और बड़ी ट्रेजडी है। इस बारे में लोगों को पता तब चला जब सपना का नाम धार के पूर्व नगरपालिका अध्यक्ष और कांग्रेस नेता कैलाश अग्रवाल हत्याकांड में उछला और वह पुलिसिया गिरफ्त में आ गई।  जिंदगी के इस खतरनाक मोड़ पर सपना ने आपबीती में  बताया कि वह मुफलिसी से लड़ते हुए कैसे कोख के सौदे और फिर भ्रूण हत्या के लिए तैयार हो गई। उसने बताया कि किराए का गर्भ गिराने के बाद वह एक बार फिर से अपनी कोख को किराए पर देने के लिए तैयार थी लेकिन ऐसा करने के लिए उसे कम से कम पांच महीने रुकना पड़ता। सपना दोबारा सरोगेट मदर बनने का सोच ही रही थी कि अग्रवाल हत्याकांड ने उसे जिंदगी के एक और खतरनाक मोड़ पर खड़ा कर दिया।
इस पूरे मामले में एक खास बात यह भी है कि सपना अपनी जिंदगी से परेशान जरूर है पर उसे अपने किए का कतई अफसोस नहीं है। शायद उसकी जिंदगी को मुफलिसी ने इस कदर उचाट बना दिया है कि ममता और संवेदना जैसे एहसास उसके लिए बेमतलब हो चुके हैं। एक महिला की जिंदगी क्या इतनी भी त्रास्ाद हो सकती है कि वह कोख से जुड़ी संवेदना को भी अपनी जिंदगी के शोक के आगे हार जाए। 
दरअसल, यह पूरा मामला औरत की जिंदगी के आगे पैदा हो रहे नए खतरों की बानगी भी है। सरोगेसी सपना के लिए शगल नहीं बल्कि उसकी मजबूरी थी। डेढ़ लाख रुपए की हाथ से जाती कमाई में से कम से कम 25 हजार उसकी अंटी में आ जाए, इसलिए गर्भ गिराने की क्रूरता को भी उसने कबूला। ...तो क्या एक महिला की संवेदना उसकी मुफलिसी के आगे हार गई या उसके संघर्ष के लिए एक पुरुष वर्चस्व वाली आर्थिक-सामाजिक स्थितियों में बहुत गुंजाइश बची ही नहीं थी। एक करोड़पति पुरुष का अपना वंश चलाने के सपने की सचाई कितने "सपनों' को रौंदने जैसी है, यह समझना जरूरी है।
याद आता है वह दौर जब अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू बुश इराक को जंग के मैदान में सद्दाम हुसैन समेत अंतिम तौर पर रौंदने के लिए उतावले थे। अखबार के दफ्तर में रात से खबरें आने लगी कि अमेरिका बमबारी के साथ इराक पर हमला बोलने जा रहा है। इराक से संवाददाता ने खबर भेजी कि वहां के प्रसूति गृहों में मांएं अपने बच्चों को छोड़कर भाग रही हैं। खबर की कॉपी अंग्रेजी में थी, लिहाजा आखिरी समय में बिना पूरी खबर पढ़े उसके अनुवाद में जुट जाने का अखबारी दबाव था। अनुवाद करते समय जेहन में लगातार यही सवाल उठ रहा था कि ममता क्या इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि वह युद्ध जैसी आपद स्थिति में बच्चों की छोड़ सिर्फ अपनी फिक्र करने की खुदगर्जी पर उतर आए।
पूरी खबर से गुजरकर यह एहसास हुआ कि यह तो ममता की पराकाष्ठा थी। प्रसूति गृहों में समय से पहले अपने बच्चों को जन्म देने की होड़ मची थी। जिन महिलाओं की डिलेवरी हो चुकी थी, वह अपने बच्चों को  छोड़कर जल्द से जल्द घर पहुंचने की हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें अपने दूसरे बच्चों और घर के बाकी सदस्यों की फिक्र खाए जा रही थी। वे अस्पताल में नवजात शिशुओं को छोड़ने के फैसला इसलिए नहीं कर रही थी कि उनके आंचल का दूध सूख गया था। असल में युद्ध या बमबारी की स्थिति में कम से कम वह अपने नवजातों को नहीं खोना चाहती थीं। उन्हें भरोसा था कि अमेरिका इराक के खिलाफ जब हमला बोलेगा तो कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर मानेगा कि वह अस्पतालों और स्कूलों को बख्श दे। युद्ध छिड़ने से पहले प्रीमैच्योर डिलेवरी का महिलाओं का फैसला भी इसलिए था कि बम धमाकों के बीच कहीं गर्भपात जैसे खतरों का सामना उन्हें न करना पड़े। सचमुच मातृत्व संवेदना की परीक्षा की यह चरम स्थिति थी जिससे गुजरते हुए इराकी महिलाएं मानवीयता का सर्वथा भावपूर्ण सर्ग रच रही थीं।
सपना नवीन झा के मामले में पहली नजर में यह संवेदना दांव पर हारती दिखती है। पर अगर ऐसा दिखता है तो यह महिला स्थितियों को समझने में एक और बड़ा धोखा है। सपना से जुड़ा वाकिया दरअसल एक और खतरनाक मिसाल है कि हम एक महिला की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए किन-किन हदों तक जा सकते हैं। पैसे के बदले देहसुख मुहैया कराने के रूप में शुरू हुए दुनिया के सबसे पहले पेशे से लेकर किराए की कोख के सौदे तक की महायात्रा में आर्थिक मोर्चे पर महिलाओं की लाचारी के जितने भी पड़ाव हैं, वे सब एक पुरुष वर्चस्ववादी समय और समाज में महिला जीवन की विडंबनाओं की ही असलियत खोलते हैं।  सपना जैसी महिलाओं पर किसी पूर्वाग्रही और कठोर नजरिए से पहले हमें उन सचाइयों के प्रति ईमानदार होना होगा जो न सिर्फ महिला विरोधी हैं बल्कि संवेदना विरोधी भी।  याद रखें कि बहुत खतरनाक होता है किसी "सपने' का यूं ही  मर जाना।      

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

मीडिया का राखी घराना


संगीत और कुश्ती के घराने निपटते जा रहे हैं। नई पीढ़ी की मस्ती रिंगटोन और डायलर टोन सुनने-सुनाने में है। परंपरा की पाल और पुरानी चाल, दोनों में से कोई भी उसे भविष्य से ताल बैठाने के लिए जरूरी नहीं जान पड़ता। अगर किसी दरकार की गुंजाइश निकल भी आए तो गुलजार जैसे माहिर सर्वेश्वर जैसों की पुरानी जूती लेकर "फुरर्रर्रर्रर्र...' हो जाते हैं। फ्यूजन के दौर में सुरीली विरासत की इससे ज्यादा हिफाजत क्या होगी? आज तो परंपरा बचाने की जहमत की जगह उसे "अपग्रेड' करने की दिलेर हिमाकत देखने में ज्यादा आती हंै। कुश्ती के तो पुराने घरानों के नाम भी लोगों को याद नहीं। पुराने लोग जरूर इन घरानों की गठीली बहादुरी और मैदानी दांवपेच के किस्से सुनते-सुनाते मिल जाएंगे, वह भी गांव-देहात में। शहरों में ऐसी किस्सागोई के लिए अब स्पेस कहां? यहां तो मल्टीप्लेक्स में तीन घंटे में "दस कहानियां' दिखाई जा रही हैं। दिलचस्प है कि ये कहानियां देखने के लिए कम ही पहुंचे और वे भी सिर धुनते हुए ही हॉल से बाहर निकले।
दरअसल, नए घराने बन नहीं रहे पा रहे और पुराने टिक नहीं पा रहे। घराने फिल्मी दुनिया में भी रहे हैं। वहां सबसे बड़ा घराना आज भी कपूर घराना है पर अब वो बात नहीं रही इस घराने में भी। कपूर घराने की चमक राज कपूर तक ही थी। बाद में घराने की कोई धुरी नहीं रही, लिहाजा कपूर परिवार का फिल्मों में तो दखल रहा पर वे लोग अब घरानेदार नहीं रहे। फिल्मी दुनिया अब "नेम-फेम' से चलती है। नाम यहां काम से भी बड़ा है।
हां, इस बीच नए तरह का घराना शुरू हुआ है, वह भी इन्फोटेनमेंट की दुनिया मेंें। चूंकि घराना नया है, इसलिए इस घराने की घरानेदारी भी जुदा है। इतनी बात तो सब लोग मानते हैं कि पिछले एक दशक में मीडिया की धौंक इंटरटेन्मेंट की छौंक के आगे अच्छे से अच्छे पानी भरते नजर आए। वैसे इस सबसे किसी सार्थक परिवर्तन की गोद भराई हुई हो या नहीं पर इस दौरान "क्रिएशन' जरूर हुआ है। यह क्रिएशन सामने आया "आइटम' की शक्ल में। ऐसा आइटम जो हर एंगल से बिकाऊ है। मीडिया के इन्फोटेनमेंटी अवतार की नई क्रिएटिविटी से तैयार यह आइटम है- राखी सावंत। राखी के साथ ही शुरू हो गया एक नया घराना- मीडिया का राखी सावंत घराना।
इस घराने में वे सारे लोग शामिल हैं, जो ओढ़ाने में नहीं, उघारने में यकीन रखते हैं। इनके लिए राखी का ठुमका पूरे गांव के डूब जाने से भी बड़ी खबर है। इनके लिए सानिया मिर्जा की सगाई टूटनी, सर्द-मुफलिसी-ठिठुरन से हजारों दम तोड़ती जिंदगियों से कहीं ज्यादा दिलचस्प और जरखेज है। आखिर घराना भी राखी सावंत का है। वह राखी, जो इन्फोटेनमेंटी इल्मबाजों की तिकड़म से जब चाहे गांधी की लाठी ले उड़ती है और झोपड़पट्टी वालों के लिए सड़क पर मोर्चा निकालती है। "कमीनी' जैसे अछूत शब्द की प्रछालन-शुद्धि में लगी राखी इन दिनों सेंसर बोर्ड के हाथ की कैंची के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठने के अल्टीमेटम के कारण सुर्खियों में है।
बहरहाल, वे तमाम साथिनें जो राखी की उड़ान में अपने सपनों के पर देखती हैं, उन्हें खतरे से आगाह करने की जरूरत है। राखी सावंत होना "मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं' से भी ज्यादा खतरनाक है। इस होने में औरत होने की हर वह कीमत वसूली जाती है, जो पांच हजार साल से पुरुष मन और देह की विकसित दरकार बनकर सामने आई है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर आज के अकेले और सबसे बड़े घराने की घरानेदारी का सवाल जो है?

सोमवार, 15 नवंबर 2010

नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं


(1)
याद आता है
अभिनेता महान का हिट संवाद
मर्द को दर्द नहीं होता जनाब
गूंजती है आवाज
सनसनाहट से भरी एमएमएस क्लिप में
बांग्ला की कुलीन अभिनय परंपरा की बेटी की
आई वांट ए परफेक्ट गाइ  
और फिर उतरने लगते हैं पर्दे पर
एक के बाद एक दृश्य
शालिनी ने लकवाग्रस्त पति को
दिया त्याग रातोंरात
अधेड़ मंत्री के यहां पड़े छापे में मिली
पौरुष शास्त्र की मोटी किताब
वियाग्रे की गोलियां
मुस्टंड मर्दानगी के लिए ख्यात
हकीम लुकमान के लिखे अचूक नुस्खे
मिस वाडिया ने अपनी आत्मकथा में
उड़ाया इंच दर इंच मजाक
अपने सहकर्मी की गोपनीय अंगुली का

(2)
नामर्दों के लिए कोई जगह नहीं
उन्हें नहीं मिलेगी तोशक न मिलेगी रजाई
न वे झूल सकेंगे झूला न बना सकेंगे रंगोली
और न खेल सकेंगे होली
अवैध मोहल्लों के किसी गली-कूचे या मैदान में
 ऊंची एड़ी पर खड़ी दुनिया
 नहीं देखना चाहती किसी नामर्द की शक्ल
अपनी किसी संतान में

(3)
मर्द न होना किसी मर्द के लिए
बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसा किसी औरत का न होना औरत
स्त्री-पुरष का लिंग भेद मेडिकल रिपोर्ट नहीं
बीसमबीस क्रिकेट का स्कोर बोर्ड
करता है जाहिर
पुरुष इस खेल को सबसे तेज और
जोरदार खेलकर ही साबित हो सकते हैं जवां मर्द
और तभी मछली की तरह उतरेगी
उसके कमरे में कैद तलाब में कोई औरत

(4)
मर्दाना पगड़ी की कलगी खिलती रहे
अब ये चाहत नहीं चुनौती है पुरुषों के आगे
उसे हर समय दिखना होगा
सख्त और मुस्तैद
नहीं तो सुनना पड़ सकता है ताना
वंशी बजाते हुए नाभी में उतर जाने वाले कन्हाई
कहीं पीछे छूट गए
औरतों ने देना शुरू कर दिया है
पुरुष को पौरुष से भरपूर होने की सजा
जिस औजार से गढ़ी जाती थीं  
अब तक मन माफिक मूर्तियां
अब उनका इस्तेमाल मिस्त्री नहीं
बल्कि करने लगे हैं बुत
मैदान वही
बस  योद्धाओं के बदल गए हैं पाले
मर्दाना तर्क जनाना हाथों में
ज्यादा कारगर और उत्तेजक रणनीति है
जैसे को तैसा...
जनाना न्याय का उध्बोधन गीत है

रविवार, 14 नवंबर 2010

अमन की मौत


हिमाचल प्रदेश के अमन काचरू रैगिंग मामले में चार दोषी छात्रों को दो साल से भी कम समय में सजा सुनाया जाना सराहनीय तो है ही, यह फैसला आगे के लिए एक बेहतर मिसाल भी साबित हो सकता है। 19 साल के अमन को मेडिकल के सीनियर छात्रों ने रैगिंग के नाम पर बुरी तरह पीटा था। उसने इस घटना की शिकायत कॉलेज अधिकारियों आैर प्रबंधन से भी की थी। पर उसकी हालत इतनी नाजुक हो चुकी थी कि इस मामले में कुछ हो पाता उससे पहले ही उसकी मौत हो गई। अच्छी बात यह रही कि अमन के परिवार वालों ने इस घटना को न्यायिक संघर्ष का मुद्दा बनाया। उन पर काफी दबाव भी था पर वे अपने बच्चे के खिलाफ बरती गई बर्बरता को भूलने को तैयार नहीं थे। सत्र न्यायालय के फैसले के बाद अमन के पिता राजेंद्र काचरू ने कहा भी कि मैं इसे सिर्फ अपनी जीत के रूप में नहीं देखता  बल्कि यह उन लोगों की जीत है, जो न्यायिक सुधारों के लिए आैर रैगिंग के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। दरअसल, रैगिंग का पूरा संदर्भ न सिर्फ शैक्षिक परिसरों के अनुशासन से जुड़ा है बल्कि यह समय आैर शिक्षा के साथ उन तमाम कारकों से जुड़ा है जिसका प्रभाव आज युवाओं के मन-मस्तिष्क पर पड़ रहा है। लिहाजा, इसे सिर्फ ' कैंपस डिसीप्लीन" का मुद्दा मानकर सरलीकृत करना खतरनाक है। दिलचस्प है कि अपने विचारों आैर कई बदलावकारी पहलों के लिए लगातार सुर्खियों में बने रहने वाले मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल का सबसे ज्यादा जोर शिक्षा आैर परीक्षा की रूढ़ता को तोड़ना है। इस परविर्तन की जरूरत शायद इसलिए महसूस हो रही है कि नये परिवेश आैर चुनौतियों के साथ नई पीढ़ी का समन्वयकारी रिश्ता बहाल हो, न कि वे उन पर अचानक हावी हो जाएं। पर यह सब सिर्फ सिलेबस बदलने या एक्जाम फार्मेट के रद्दोबदल मात्र से तो होने से रहा। सेक्स, सक्सेस आैर सेंसेक्स के त्रिफांस में युवा जिस तेजी से आज फंस रहे हैं, वह उनके पूरे मानसिक गठन आैर विकास को प्रभावित कर रहा है। घर का माहौल या शिक्षण परिसर ही अब मात्र उनके स्वभाव को बुनियादी तौर पर नहीं रच रहे बल्कि बाजार के झरोखे उसे  हर कहीं अपने पास बुलाने के लिए खुले हैं। संवेदना आैर संबंधहीनता के खतरों के बीच पल रही पीढ़ी को ज्यादा सहिष्णु बनाए रखने का एक तरीका तो यह है कि उनके परिवेश को भरसक स्वस्थ बनाने के प्रति जागरूकता बढ़े, दूसरे युवा जोश को अपराध मानसकिता की तरफ बढ़ने से रोकने के लिए सख्ती बढ़े, जैसा कि अमन काचरू मामले में देखने को मिलता है। अमन का मामला इस मामले में अहम है कि इसमें दोषियों को न सिर्फ सजा सुनाई गई बल्कि इस तरह की प्रवृत्ति किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है, इसके लिए 38 लोगों ने गवाही दी। यह हमारे समाज की न्यायप्रियता की तो मिसाल है ही, इससे उसकी अपनी चिंताओं से निपटने के प्रति प्रतिबद्धता भी जाहिर होती है। रैंिगंग का चलन एक बर्बर चलन है। कानूनन तो यह अमान्य है ही, मानवीय दृष्टि से भी यह जघन्य प्रवृत्ति है। इसके खिलाफ न सिर्फ सरकारी पहलों की दरकार है बल्कि नई पीढ़ी को संवेदना के खिलाफ सिर उठा रहे मंसूबों से भी बचाने की तैयारी करनी होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि भविष्य की पीढ़ी को संवेदनशील वर्तमान देने का संकल्प 'सरकारी" ही नहीं 'असरकारी" भी साबित होगा।

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

बा-बापू और अंत:वस्त्र


गांधीजी की लंगोट चर्चिल तक को अखरती थी क्योंकि इस सादगी का उनके पास कोई तोड़ नहीं था। सो गुस्से में वे गांधी का जिक्र आते ही ज्यादा सिगार पीने लगते और उन्हें नंगा फकीर कहने लगते। आए दिन गांधीजी की ऐनक, घड़ी और चप्पल की नीलामी की खबरें आती रहती हैं। सरकार से गुहार लगाई जाती है कि गांधी हमारे हैं और उनकी सादगी के उच्च मानक गढ़ने में मददगार चीजों को भारत में ही रहना चाहिए। कुछ महीने पहले मीडिया वालों ने अहमदाबाद में उस विदेशी शख्स को खोज निकाला जो गांधीजी की ऐसी चीजों का पहले तो जिस-तिस तिकड़म से संग्रह करता और फिर उन्हें करोड़ों डॉलर के नीलामी बाजार में पहुंचा देता।  फिर नीलामी आज सिर्फ गांधीजी के सामानों की नहीं हो रही। यहां और भी बहुत कुछ हैं। पुरानी से पुरानी शराब की बोतल से लेकर शर्लिन चोपड़ा की हीरे जड़ी चड्ढ़ी तक। खरीदार दोनों के हैं, सो बाजार में कद्र भी दोनों की  है। यानी नंगा फकीर बापू और हॉट बिकनी बेब शर्लिन दोनों एक कतार में खड़े हैं।
हमारे दौर की सबसे खास बात यही है कि यहां सब कुछ बिकता है- धर्म से लेकर धत्कर्म तक। आप अपने घर बटोर-बटोर कर खुशियां लाएं, इसके  लिए झमाझम ऑफर और सेल की भरमार है। इस बाबत आप और जानकारी बढ़ाना चाहें तो 24 घंटे आपका पीछा करने वाले रेडियो-टीवी-अखबार तो हैं ही। गुजरात के समुद्री किनारों पर जो नया टूरिज्म इंडस्ट्री डेवलप हो रहा है, वह अपने सम्मानित अतिथियों को गांधी के मिनिएचर चरखे और अंगूर की बेटी का आकर्षण एक साथ परोसता है। बस इतना लिहाज रखा जाता है कि क्रूज पर शराब तभी परोसी जाती हैं, जब वह गुजरात की सीमा से बाहर निकल आते हैं। गुजरात सीमा के भीतर ऐसा नहीं  किया जा सकता क्योंकि वहां शराबबंदी है। यानी आत्मानुशासन का जनेऊ पहनना जरूरी है पर उसे उतारकर उसके  साथ खिलवाड़ की भी पूरी छूट है।
ये बाजार द्वारा की गई मेंटल कंडिशनिंग का ही नतीजा है कि कल तक जिसे हम महज अंत:वस्त्र कहकर निपटा देते थे, उनका बाजार किसी भी दूसरे परिधान के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है।  मां की ममता पर भारी पहने वाले डिब्बाबंद दूध का इश्तेहार बनाने वाले आज अंत:वस्त्रों को सेकेंड स्किन से लेकर सेक्स सिंबल तक बता रहे हैं। जैनेंद्र की एक कहानी में नायक अपना अंडरबियर-बनियान बाहर अलगनी पर सुखाने में संकोच करता है कि नायिका देख लेगी। आज नायक तो नायक नायिकाएं और लेडी मॉडल स्टेज से लेकर टीवी परदे तक इन्हें धारण कर ग्लैमर दुनिया की चौंध बढ़ाती हैं।
बालीवुड की मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान कहती हैं, "सब कुछ हॉट हो गया, अब कुछ भी नरम या मुलायम नहीं रहा। गुजरे जमाने की हीरोइनों के नजर झुकाने और फिर अदा के उसे उठाते हुए फेर लेने से जितनी बात हो जाती थी, वह आज की हीरोइनों के पूरी आंख मार देने के बाद भी नहीं  बनती।'  साफ है कि देह दर्शन के तर्क ने लिबासों की भी परिभाषा बदल दी। और इसी के साथ बदल गई हमारी अभिव्यक्ति और सोच-समझ की तमीज भी। पचास शब्द की खबर के लिए पांच कॉलम की खबर छापने का दबाव किसी अखबार की एडिटोरियल गाइडलाइन से ज्यादा मल्लिका और राखी जैसी बिंदास बालाओं का मुंहफट बिंदासपन बनाता है। रही पुरुषों की बात तो नंगा होने से आसान उन्हें नंगा देखने के लिए उकसाता रहा है। तभी तो महिलाओं के अंत:वस्त्र के बाजार का साइज पुरुषों के के मुकाबले कई  गुना है।  यह सिलसिला इंद्रसभा से लेकर आईपीएल ग्राउंड तक देखा जा सकता है। "अंत:दर्शन' अब "अनंतर' तक सुख देता है और पुरुष मन के इस सुख के लिए महिलाओं को फीगर से लेकर कपड़ों तक की बारीक काट-छांट करनी पड़ रही है।
बात चूंकि गांधी के नाम से शुरू हुई इसलिए आखिर में बा को भी याद कर लें।  खरीद-फरोख्त और चरम भोग के परम दौर की इस माया को नमन ही करना चाहिए कि उसकी दिलचस्पी न तो बा की साड़ी में है और न ही उसकी जिंदगी में। अव्वल यह अफसोस से ज्यादा सुकूनदेह है। और ऐसा अब भी है, यह किसी गनीमत से कमतर नहीं।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

छठ : भइया लोगों का बड़का पर्व



दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, "अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।' वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं कई जगहों पर इस विरोध के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया। इसके बाद रही-सही कसर कमर तोड़ती महंगाई ने पूरी कर दी है। ओबामा आैर सेंसेक्स के कारण जिस दुनिया में हाल के दिनों में चहल-पहल बढ़ी है, उसके "वकसित हठ' आैर "पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को "लोकरस' और "लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्राांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है । हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वै·िाक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिाटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिाटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार आैर उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल रुाोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में आैर मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, "लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधवि·ाास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है। कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रकने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

रविवार, 7 नवंबर 2010

मरद जाने तो जाने...मेरी बला से


...जानती हूं
ऐसे समाज में रहती हूं
जहां अकेली स्त्री को
बदचलन साबित करना
सबसे आसान काम है
और यह बात मेरा मरद
अच्छी तरह जानता है...
ये पंक्तियां है कवयित्री रंजना जायसवाल की कविता "मेरा मरद जानता है' की। एक कवयित्री की जगह ये बातें और यह स्त्री संवेदना किसी कवि की भी हो सकती है। पर शायद तब अर्थ के बदलने का खतरा होगा क्योंकि यह आत्मकथ्य न होकर चैरिटी जैसी उदारता होगी महिला स्थितियों के प्रति। दरअसल, हमारे आसपास जो दुनिया सबसे तेजी से बदल रही है, वह है स्त्रियों की दुनिया। साथ ही यह भी उतना ही सच है कि इस दुनिया में अब भी कई चीजें पुराने ठेठ रंगो-सूरत में कायम हैं। स्त्री-पुरुष संबंधों के खुलेपन ने पिछले कुछ  दशकों  में चाहे जितनी ताजी हवा को महसूस किया है, उसके बनने और टूटने के साथ उन्हें देखने की कसौटियां न के बराबर बदली हैं। नहीं तो ऐसा कैसा संभव था कि एक तरफ आधुनिकता की चौंध से भरी दुनिया में एक 37 साल की मॉडल को महज इसलिए खुदकुशी के लिए मजबूर होना पड़ता है कि उसके दैहिक कसाव का ढीलापन और उसके करियर की गिरावट उसे अचानक अपने दोस्तों, परिचितों, कारोबारी सहयोगियों के लिए गैरजरूरी और कम फायदेमंद लगने लगा। विवेका की मौत को लेकर अभी कई रहस्यों से परदा उठना बाकी है। पर इतनी सचाई को इस पूरे मामले का प्रस्थान बिंदु के तौर पर मीडिया ही नहीं उसे जानने वाले भी स्वीकार कर रहे हैं।
सहजीवन से डेटिंग और फ्रेंडशिप तक का नया चलन संबंधों के नए सांचों के गठन की जगह पुराने सांचों का तोड़ ज्यादा है। विवाह, परिवार और परंपरा की त्रिवेणी में नहाया भारतीय गृहस्थ आश्रम अपने उद्देश्यों के कारण तो नहीं पर निर्वाह की ईमानदार कोशिशों में कोताही के कारण जरूर टूट-फूट रहा है। और इन सब के पीछे सबसे बड़ी वजह है परस्पर निष्ठाओं की जमीन का लगातार दरकते जाना। शादी के सात फेरे हांे या दोस्ती-यारी की हल्की-फुल्की बांडिंग, महिलाओं ने संबंधों की नई बनावट में अपनी पिछली घुटन से भरसक बचने की गुंजाइश निकालनी शुरू कर दी है। खतरनाक है तो इस गुंजाइश को आजमाने के दौरान पैदा होने वाली स्थितियां और नतीजे।  संबंध के बनते ही उसके "सदेह' होने की व्यग्रता महिलाओं के हिस्से पुरुष छल को जहां और स्वाभाविक बना रहा है, वहीं संबंधों के टूटने पर इसी "सदेह' साक्ष्य का ब्लैकमेलिंग के रूप में भी खूब इस्तेमाल होता है। कई युवतियों को यह ब्लैकमेलिंग इतनी महंगी पड़ती है कि उसका या आत्मविश्वास टूटने लगता है या फिर आत्मसंघर्ष के लिए कई गुनी ज्यादा ऊर्जा मन में भरनी पड़नी पड़ती है। आगे संबंधों के नव और पुननिर्माण की प्रक्रिया में भी देह पर लगी ये खरोंचे उसका पीछा नहीं छोड़ती। इसी पर दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू ने जब कहा था कि लड़कों को अब शादी में वर्जिन लड़की की उम्मीद छोड़ देनी चाहिए। और यह नाउम्मीदी उसी तरह स्वाभाविक है जैसा लड़कों को लेकर लड़कियों की चिंता नहीं बढ़ाती।
ये तो स्थितियां रहीं तब जब संबंधों की किवाड़ एक बार नहीं बार-बार खुलती है। देह शुचिता और इज्जत के नाम पर महिलाओं को बांध कर रखने का पुरुषार्थ पुराना है। घरेलू हिंसा की यह सूरत सबसे पुरानी है। रंजना जायसवाल की कविता भी इसी ओर इशारा करती है। दिलचस्प है कि जिस देह भार से आधी दुनिया को सबसे ज्यादा झुकाया-दबाया जाता रहा है, उसका इस्तेमाल वह लोहे को लोहे से काटने के रूप में खतरनाक तरीके से सीख रही हैं। देह को "क्षण' और संबंध को "प्रायोगिक अनुभव' की नियति देने वाली स्त्री मानसिकता का गठन पुरुषों के आगे चुनौती है। पुरुषों का छल अब महिलाओं का बल बन चुका है। 
हाल में खबर आई कि हॉलीवुड अभिनेत्री हेलेन मिरेन ने "लव रंच' फिल्म के लिए 64 साल की उम्र में न्यूड सीन व पोज दिए हैं।  इस फिल्म में वह अपने से 30 साल छोटे उम्र के लड़के से प्यार करती हैं। दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए मिरेन को जितनी परेशानी नहीं हुई, उससे ज्यादा उसकी इस हिमाकत को पचाने में लोगों को हुई। जाहिर है  देह का स्त्रीवादी भाष्य भले प्रतिक्रियावादी हो पर इसने स्त्री जीवन को पुरुषों की दुनिया में ललकार के साथ जीने का हौसला भी कम नहीं दिया है। अब भले मरद सब कुछ जानता हो और उसका यह सब कुछ जानना उसके "सिंदूरी' जीवन को स्याह कर दे, पर उसके हौसले के "लाल' होने का जज्बा कम क्रांतिकारी नहीं है।