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मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जावेद साहब, यह बयान बदलने का प्राइम टाइम है


टीवी को लेकर जावेद अख्तर की एक मशहूर टिप्पणी है। वे कहते हैं कि यह एक ऐसा च्युइंगम है जिसे चाहे जितनी देर चबाओ, हासिल कुछ नहीं होता है। पर अब लगता है कि जावेद साहब को अपनी टिप्पणी बदलनी होगी क्योंकि अब यह च्युइंगम मुंह में खतरनाक रस घोलने लगा है, जिससे मुंह का जायका ही नहीं दिमागी नसें भी तनने लगी हैं। दिलचस्प है कि दूरदर्शन के प्रसार और पहुंच पर जब निजी चैनलों ने शुरुआती हस्तक्षेप किया, तब कइयों ने कहना शुरू किया कि सरकारी भोंपू की जगह स्वतंत्र लोक प्रसार माध्यमों का ऐतिहासिक दौर शुरू हो रहा है। पर दूरदर्शन की सीमाओं का अतिक्रमण निजी चैनलों ने जिस तरह किया, उसमें प्रयोग या रचनात्मक्ता की बजाय स्वच्छंदता ज्यादा दिखी।
इंडियन टेलीविजन एकेडमी अवार्ड की अनुरंजन अपने सालाना जलसे में कहती भी हैं कि रोटी, कपड़ा और मकान में समा जाने वाली दुनिया में अब टीवी भी शामिल हो गया है। लिहाजा, इस दुनिया के भरोसे चलने वाली फिल्मों और विज्ञापनों के खोमचे टीवी के रास्ते घर-घर तक पहुंच गए हैं। टीवी की पहुंच और प्रसार को परिवार-समाज के जरूरी घटक के तौर पर किस तरह मंजूरी मिल चुकी है इसकी मिसाल है मियां-बीवी और टीवी जैसे पापुलर हुए मुहावरे।
टीवी के परदे से निकला जादू और बरसता तिलस्म कितना खतरनाक है इसको लेकर अब महज आगाह होने की नहीं बल्कि प्रभावी कदम उठाने की नौबत आ चुकी है। समाज में बढ़ रही खिन्नता, कुंठा, यौन हिंसा और दूसरे अपराधों के पीछे टीवी कार्यक्रमों को एक बड़ी वजह माना जा रहा है। इसका सबसे ज्यादा असर बच्चों पर पड़ रहा है और यह वाकई अलार्मिंग है।
एसोचैम के हालिया सर्वे में 90 फीसद माता-पिता ने माना कि प्राइम टाइम के कांटेंट के गिरते स्तर को लेकर वे चिंतित हैं और चाहते हैं कि सरकार इसके खिलाफ फौरी कदम उठाए। इस हस्तक्षेप की दरकार इसलिए भी महसूस की जा रही है कि नई जीवनशैली और स्थितियों के बीच बच्चे रोजाना औसतन पांच घंटे तक टीवी से चिपके रहते हैं। उनके समय बिताने और मनोरंजन के तौर पर टीवी एक सुपर विकल्प के तौर पर सामने आया है। और ऐसा करने वाले महज नाबालिग नहीं बल्कि 6-17 वर्ष के मासूम हैं। नतीजतन उनमें हिंसा और आक्रामकता जैसे कई तरह के मनोविकार तेजी से बढ़ रहे हैं। 76 फीसद माता-पिता को तो यही चिंता खाये जा रही है कि उनके 4-8 वर्ष के कच्ची उम्र के बच्चे टीवी देखकर उनके प्रति खासे असम्मान की भावना से भर रहे हैं।
साफ है कि टीवी कार्यक्रमों के मौजूदा स्तर ने टीवी को कम से कम एक जिम्मेदार माध्यम तो नहीं ही रहने दिया है। इसमें एक बड़ी असफलता सरकार के लोक प्रसार माध्यमों के लगातार पिछड़ते जाने की भी है। पारिवारिक धारावाहिकों के शुरुआती कीर्तिमान रचनेवाला दूरदर्शन अगर थोड़ा ज्यादा दूरदर्शी होता तो निजी चैनलों को अपनी मनमर्जी चलाने की छूट इस तरह नहीं मिलती। बहरहाल, इस दरकार से तो इनकार नहीं ही किया जा सकता कि पिछले कुछ अरसे से टीवी पर ऐसे कार्यक्रमों और विज्ञापनों की टीआरपी होड़ बढ़ी है, जिसका प्रसारण तत्काल रोका जाना चाहिए। दिलचस्प है कि सरकार भी ऐसा ही मानती है और कई बार इसके लिए उसकी तरफ से दिशानिर्देश भी जारी होते हैं पर ये पहल कानूनी तौर पर इतने कमजोर और अस्पष्ट होते हैं कि अंतत: प्रभावी नहीं हो पाते।
हालिया मसला बिग बॉस के प्रसारण समय को बदलने और इसे प्राइम टाइम के बाद दिखाने के फैसले का है। सरकार ने इस बाबत संसद को भी सूचित कर दिया पर बिग बॉस का प्रसारण समय एक दिन भी नहीं बदला। बाद में यह मामला अदालत में चला गया। ऐसे कई मामले पहले भी सामने आए हैं जब सरकारी पहल असरकारी नहीं साबित हुआ। लिहाजा, अगर यह मांग बार-बार उठती है कि सरकार को इस तरह की आपत्तियों से निपटने के लिए अलग से एक स्वतंत्र और सशक्त नियामक संस्था का गठन करना चाहिए तो अब यह वक्त जरूर आ गया है कि इस बारे में बगैर और समय गंवाए कोई ठोस फैसला हो। सरकार के लिए यह करना आसान भी होगा क्योंकि इस मुद्दे पर संसद के बाहर और भीतर दोनों ही जगह तकरीबन सर्वसम्मति की स्थिति है।

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