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रविवार, 19 अगस्त 2012

कहां खो गए एक लाख बच्चे...!

अगर देश में महज दो सालों के भीतर एक लाख से ज्यादा बच्चे लापता हुए हैं, तो यह सचमुच एक बड़े खतरे का संकेत है। बच्चों को लेकर परिवार और समाज में बढ़ी असंवेदनशीलता का यह एक क्रूर पक्ष है। भूले नहीं होंगे लोग कि देश में 42 फीसद बच्चों के कुपोषित होने की सचाई का खुलासा करने वाली 'हंगामा' रपट जारी करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सार्वजनिक तौर पर अपनी शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी। तब उन्होंने कहा भी था कि अगर बच्चों को इस हाल में छोड़कर सफलता और संपन्नता के सोपान चढ़ रहे हैं तो यह विकास इकहरा ही होगा। विकास को सर्व-समावेशी बनाने की दरकार चर्चा और बहस में तो खूब कबूली गई पर इसे लोकर ठोस कार्यनीति बनाने की बात अब भी बाकी है। 
'हंगामा' की तरह ही तरह प्रथम संस्था द्वारा जारी 'असर' रपट से यह सचाई सामने आई कि कि शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने से स्कूलों में बच्चों के नामांकन की दर तो बढ़ गई पर उनकी नियमित शिक्षा में यही बढ़त कहीं से भी जाहिर नहीं होती है। साफ है कि बच्चों को लेकर लापरवाही न सिर्फ सरकारी नजरिए में है बल्कि सरकारी योजनाएं भी ऐसी कमियों से बचे नहीं हैं। इन कमियों के रहते वह सूरत तो कहीं से बदलने नहीं जा रही, जो राष्ट्रीय शर्मिंदगी जैसी स्थिति के आगे देश को खड़ी करती हैं।
बच्चों के लापाता होने के आंकड़े भी देश को शर्मसार करने वाले हैं। बाल गुमशुदगी के सामने आए आंकड़ों का स्रोत कोई गैरसरकारी एजेंसी नहीं बल्कि केंद्रीय गृह मंत्रालय है। मंत्रालय के जुटाए आंकड़ों के मुताबिक 2008-2010 के बीच देश के 392 जिलों से एक लाख 17 हजार 480 बच्चे लापता हुए हैं। इनमें से ज्यादातर बच्चे ऐसे हैं, जिन्हें मानव तस्कर गिरोह ने शिकार बनाया है। यह गिरोह या तो बच्चों से बंधुआ मजदूरी करवाता है या फिर उन्हें जिस्मफरोसी के दलदल में उतार देता है। यही नहीं सीमावर्ती जिलों में जिस तरह बच्चों के लापता होने की घटनाएं बढ़ी हैं, वह बच्चों के साथ ही हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी गंभीर चिंता का विषय है।
हमारे यहां ऐसी कोई केंद्रीय व्यवस्था नहीं है, जो मानव तस्कर गिरोहों के देश और देश के बाहर घने होते जाल को लेकर अलग से सूचनाएं एकत्रित करे और इन पर लगाम कसने के लिए अभियान चलाए। नतीजतन जो बच्चे लापता हुए हैं, उनका कोई एकत्रित डाटाबेस तक अब तक तैयार नहीं हो पाया है, जिनसे उन्हें ढूंढ़ने की कोशिशों को स्थानीय स्तर से आगे बढ़ाने में तमाम तकनीकी व कानूनी बाधाएं सामने आती हैं। सरकारी स्तर पर ऐसे सुझाव जरूर विचाराधीन हैं कि बाल अपराध से जुड़े हर तरह आकड़ों को कंप्यूटर-डाटाबेस में बदला जाए और डीएनए प्रोफाइल तैयार हो। खासतौर पर गुमशुदा बच्चों की छानबीन के लिए एक समन्वित केंद्रीय एजेंसी बनाई जाए। पर ये सुझाव अमल में कब आएंगे, इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

सोमवार, 13 अगस्त 2012

ओबामा का श्याम-श्वेत


अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव में सौ से भी कम दिन रह गए हैं। जो हालिया सर्वे वहां हुए हैं, उसमें बराक ओबामा अपने प्रतिद्वंद्वी मिट रोमनी पर बढ़त बनाए हुए हैं। आज की तारीख में अमेरिका में अन्य किसी मुद्दे से बड़ा मुद्दा है आर्थिक संकट। तकरीबन 36 फीसद अमेरिकियों को भरोसा है कि ओबामा में ही वह दमखम और विवेक है, जिससे इस चुनौती से निपट सकता है। वैसे इस चुनाव को हार-जीत से अलग कुछ अन्य संवेदनशील मुद्दों की रोशनी में भी देखा जाना चाहिए। दिलचस्प है कि ओबामा भले अपने नेतृत्व की सर्व-स्वीकार्यता के लिए शुरू से सजग रहे हों पर अब भी अमेरिका सहित बाकी दुनिया में उनकी एक बड़ी छवि अश्वेत राजनेता की भी है। जब पहली बार वह राष्ट्रपति बने तो उनकी जीत को अमेरिकी समाज के उस लोकतांत्रिक खुलेपन के रूप में भी देखा गया, जिसमें एक अश्वेत भी व्हाइट हाउस में दाखिल हो सकता है। कुछ लोगों की यह शिकायत है कि ओबामा ने अपने कार्यकाल में ऐसा कुछ खास नहीं किया, जिससे अमेरिकी समाज में अब भी विभिन्न मौकों और सलूकों में जाहिर होने वाली नस्लवादी मानसिकता को बदला जा सके।
हाल का ही एक मामला है, जिसमें वहां एक चर्च के पादरी ने एक अश्वेत जोड़े का विवाह कराने से मना कर दिया। यह जोड़ा मिसीसिपी के क्रिस्टल स्प्रिंग्स में फस्र्ट बैपटिस्टि चर्च में जाता रहा था लेकिन श्वेतों की प्रधानता वाले इस चर्च ने दबाव में आकर शादी की तय तारीख से एक दिन पूर्व अश्वेत जोड़े की शादी कराने से इनकार कर दिया। दलील यह दी गई कि 1883 में स्थापित होने के बाद से इस चर्च में आज तक किसी अश्वेत जोड़े की शादी नहीं कराई गई है। पादरी स्टैन वीदरफोर्ड ने कहा कि चर्च के कुछ सदस्यों ने पहले से चली आ रही परंपरा को तोड़ने के प्रति सख्त एतराज जताया। इन लोगों ने पादरी को धमकाया कि अगर उसने परंपरा भंजन का दुस्साहस किया तो उसे पादरी पद से हटाया तक जा सकता है।
देखने में यह भले एक आपवादिक मामला लगे पर अमेरिकी समाज की वास्तविकता इससे बखूबी उजागर होती है। श्वेत-अश्वेत का मुद्दा अब भी वहां विवाह जैसे फैसलों को प्रभावित करते हैं। वहां की कुल आबादी में अश्वेतों की गिनती 13 फीसद है। ओबामा की 2008 की जीत में इस आबादी के 96 फीसद वोट ने बड़ी भूमिका निभाई थी। अब जबकि  ओबामा ने मुख्यधारा की या यों कहें कि कथित नए और खुले अमेरिकी समाज की नुमाइंदगी के नाम पर समलैंगिक संबंधों तक पर अपनी पक्षधरता जाहिर करने में हिचक नहीं दिखाई है तो उनका अश्वेत वोट बैंक इससे काफी खफा है। पर वहां की अश्वेत आबादी के पास इस संतोष और फख्र का कोई विकल्प नहीं है कि वह एक अश्वेत की जगह किसी दूसरे को राष्ट्रपति पद तक पहुंचाने में अपनी भूमिका निभाए। अमेरिकी अश्वेत समाज का यह धर्मसंकट बराक ओबामा के दोबारा राष्ट्रपति बनने की राह को और आसान बना सकता है।

रविवार, 5 अगस्त 2012

घोषणापत्र : ऐसी चुनावी रुढि़ की क्या जरूरत

अपने यहां चुनाव का सीजन कभी खत्म नहीं होता। ग्राम पंचायत और निकाय चुनाव से लेकर आम चुनाव तक कुछ न कुछ हमेशा चलते रहता है। नहीं कुछ तो बीच में सीट खाली होने के कारण उपचुनाव ही हो जाते हैं। यह मांग पुरानी है कि एक समन्वित व्यवस्था बने ताकि कम से कम सारे स्थानीय चुनाव के एक साथ करा लिए जाएं। इसी तरह लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव एक साथ होने की अनिवार्यता हो तो यह न सिर्फ देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था के हित में होगा बल्कि इस कारण चुनावी राजनीति की चिकचिक से भी जनता को थोड़ी निजात मिलेगी।
इसी तरह का एक और मुद्दा चुनाव के मौके पर राजनीतिक दलों द्वारा जारी किए जाने वाले चुनाव घोषणापत्र से जुड़ा है। आमतौर पर जनता के लिए अब इन घोषणापत्रों का कोई महत्व नहीं रह गया है। वैसे भी इन घोषणापत्रों के जारी होने का परंपरागत महत्व भले हो पर इनका कोई संवैधानिक महत्व नहीं होता। यहां तक कि चुनाव आयोग भी इसे कोई महत्व नहीं देता। पर बावजूद इसके कुछ मौकों पर इन घोषणापत्रों से बड़े-बड़े चुनावी खेल आज भी बनते-बिगड़ते हैं।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए हैं उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए। इससे पहले तमिलनाडु में भी चुनाव हुए थे। इन दोनों विधानसभा चुनावों के नतीजों में विजयी दल के घोषणापत्र मतदाताओं को काफी रास आए, नतीजों के विश्लेषण में ऐसा कई चुनाव विश्लेषकों ने कहा। पर यह इस बात के लिए पर्याप्त आधार नहीं है कि जनता किसी दल को या उनके दल के निर्वाचितों को चुनाव घोषणापत्र का पूरी तरह या आंशिक रूप में पालन के लिए मजबूर कर सकती है। और अगर ऐसा है तो फिर घोषणापत्र के रूप में जारी ऐसी चुनावी रुढि़ क्या जरूरत है?
अभी नई दिल्ली में प्रभाष परंपरा न्यास के एक कार्यक्रम में पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इसी सवाल को गंभीरता से उठाया। उन्होंने कहा कि विधायकों और सांसदों को संविधान की शपथ दिलाई जाती है। उन्हें वचनबद्ध किया जाता है कि वे संविधान की व्यवस्था और मूल भावनाओं के मुताबिक आचरण करेंगे। निर्वाचन से पहले या बाद कहीं भी औपचारिक रूप से चुनाव घोषणापत्र की बात नहीं होती। ऐसे में महज राजनीति के लिए ऐसे दस्तावेज के जारी होने और इसके नाम पर जनता को गुमराह करने का क्या मतलब? जाहिर है यह मांग तार्किक है और इस पर सरकार और राजनीतिक जमात दोनों को गौर करना चाहिए।