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गुरुवार, 18 नवंबर 2010

मीडिया का राखी घराना


संगीत और कुश्ती के घराने निपटते जा रहे हैं। नई पीढ़ी की मस्ती रिंगटोन और डायलर टोन सुनने-सुनाने में है। परंपरा की पाल और पुरानी चाल, दोनों में से कोई भी उसे भविष्य से ताल बैठाने के लिए जरूरी नहीं जान पड़ता। अगर किसी दरकार की गुंजाइश निकल भी आए तो गुलजार जैसे माहिर सर्वेश्वर जैसों की पुरानी जूती लेकर "फुरर्रर्रर्रर्र...' हो जाते हैं। फ्यूजन के दौर में सुरीली विरासत की इससे ज्यादा हिफाजत क्या होगी? आज तो परंपरा बचाने की जहमत की जगह उसे "अपग्रेड' करने की दिलेर हिमाकत देखने में ज्यादा आती हंै। कुश्ती के तो पुराने घरानों के नाम भी लोगों को याद नहीं। पुराने लोग जरूर इन घरानों की गठीली बहादुरी और मैदानी दांवपेच के किस्से सुनते-सुनाते मिल जाएंगे, वह भी गांव-देहात में। शहरों में ऐसी किस्सागोई के लिए अब स्पेस कहां? यहां तो मल्टीप्लेक्स में तीन घंटे में "दस कहानियां' दिखाई जा रही हैं। दिलचस्प है कि ये कहानियां देखने के लिए कम ही पहुंचे और वे भी सिर धुनते हुए ही हॉल से बाहर निकले।
दरअसल, नए घराने बन नहीं रहे पा रहे और पुराने टिक नहीं पा रहे। घराने फिल्मी दुनिया में भी रहे हैं। वहां सबसे बड़ा घराना आज भी कपूर घराना है पर अब वो बात नहीं रही इस घराने में भी। कपूर घराने की चमक राज कपूर तक ही थी। बाद में घराने की कोई धुरी नहीं रही, लिहाजा कपूर परिवार का फिल्मों में तो दखल रहा पर वे लोग अब घरानेदार नहीं रहे। फिल्मी दुनिया अब "नेम-फेम' से चलती है। नाम यहां काम से भी बड़ा है।
हां, इस बीच नए तरह का घराना शुरू हुआ है, वह भी इन्फोटेनमेंट की दुनिया मेंें। चूंकि घराना नया है, इसलिए इस घराने की घरानेदारी भी जुदा है। इतनी बात तो सब लोग मानते हैं कि पिछले एक दशक में मीडिया की धौंक इंटरटेन्मेंट की छौंक के आगे अच्छे से अच्छे पानी भरते नजर आए। वैसे इस सबसे किसी सार्थक परिवर्तन की गोद भराई हुई हो या नहीं पर इस दौरान "क्रिएशन' जरूर हुआ है। यह क्रिएशन सामने आया "आइटम' की शक्ल में। ऐसा आइटम जो हर एंगल से बिकाऊ है। मीडिया के इन्फोटेनमेंटी अवतार की नई क्रिएटिविटी से तैयार यह आइटम है- राखी सावंत। राखी के साथ ही शुरू हो गया एक नया घराना- मीडिया का राखी सावंत घराना।
इस घराने में वे सारे लोग शामिल हैं, जो ओढ़ाने में नहीं, उघारने में यकीन रखते हैं। इनके लिए राखी का ठुमका पूरे गांव के डूब जाने से भी बड़ी खबर है। इनके लिए सानिया मिर्जा की सगाई टूटनी, सर्द-मुफलिसी-ठिठुरन से हजारों दम तोड़ती जिंदगियों से कहीं ज्यादा दिलचस्प और जरखेज है। आखिर घराना भी राखी सावंत का है। वह राखी, जो इन्फोटेनमेंटी इल्मबाजों की तिकड़म से जब चाहे गांधी की लाठी ले उड़ती है और झोपड़पट्टी वालों के लिए सड़क पर मोर्चा निकालती है। "कमीनी' जैसे अछूत शब्द की प्रछालन-शुद्धि में लगी राखी इन दिनों सेंसर बोर्ड के हाथ की कैंची के खिलाफ सत्याग्रह पर बैठने के अल्टीमेटम के कारण सुर्खियों में है।
बहरहाल, वे तमाम साथिनें जो राखी की उड़ान में अपने सपनों के पर देखती हैं, उन्हें खतरे से आगाह करने की जरूरत है। राखी सावंत होना "मैं माधुरी दीक्षित बनना चाहती हूं' से भी ज्यादा खतरनाक है। इस होने में औरत होने की हर वह कीमत वसूली जाती है, जो पांच हजार साल से पुरुष मन और देह की विकसित दरकार बनकर सामने आई है। ऐसा हो भी क्यों नहीं, आखिर आज के अकेले और सबसे बड़े घराने की घरानेदारी का सवाल जो है?

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