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मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चिंतन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए क्योंकि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा है। पर तथ्य और सत्य भी यहीं आकर ठहरता है, ऐसा नहीं है। दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा है। और ऐसा हो भी भला क्यों नहीं क्योंकि इसमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सब को भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि इंडिया शाइनिंग का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई जो सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है।
तकरीबन तीन साल पहले अभी के महीने में ही 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉमिंग वर्ल्ड  : एटीट¬ूड्स एंड परसेप्शन'  नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमर्जिंग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उनकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं।   
साफ है कि पिछले दो दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करियर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है, कामयाब रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
आज पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई और यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढ़ाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमर्जिंग इकोनमी पॉवर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा ले रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खाने में विदेशी मुद्रा का वजन जरूर बढ़ सकता है पर यह सब देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे जाएंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले अमेरिका जैसे देश एक बार फिर संरक्षणवादी आर्थिक हितों को अमल में लाने लगे हैं।
आखिर में एक बात और देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से। रूढि़यां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्जा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम इंडिया से भारत की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिंदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है।




सौजन्य : राष्ट्रीय सहारा  

शनिवार, 25 फ़रवरी 2012

ओबामा बने प्रेसीडेंट तो अपने सैम बढई

अमेरिका  में जब बराक ओबामा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने में सफल हुए थे, तो वहां की और भारत की स्थितियों को राजनैतिक और बौद्धिक जमात के बीच कई तुलनात्मक नजरिए सामने आए। बार-बार अमेरिका के उदाहरण को सामने रखकर यह समझने की कोशिश की गई कि भारत उस उदार और विकसित राजनीतिक-सामाजिक स्थिति तक पहुंचने से कितनी दूर है, जब हम भी अपने यहां एक दलित को या एक मुसलमान को प्रधानमंत्री पद पर बैठा देखेंगे। जो बात ज्यादा भरोसे से और तार्किक तरीके से समझ में आई वह यही कि विकास और संपन्नता मध्यकालीन और जातीय बेडि़यों को तोड़ने का सबसे मुफीद औजार है। अमेरिका में ये औजार सबसे ज्यादा तेजी से काम कर रहे हैं। इसलिए वहां चेंज को अलग से चेज करने की जरूरत अब नहीं है। पर क्या भारत भी अपनी विकासयात्रा में उन्हीं सोपानों पर पहुंच रहा है, जहां चेंज कोई चैलेंज न होकर एक स्वभाविक स्थिति बन जाती है। अगर आपका उत्तर है तो आपको अपने सैद्धांतिक आधारों पर एक बार फिर विचार करना होगा? दरअसल, यह दरकार कहीं और से नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के हालात के बीच से आए हैं। 2014 के आम चुनाव में यूपी के चुनावी गणित कितने काम आएंगे, पता नहीं। पर सभी सियासी पार्टियां इसे दिल्ली की सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर ही लड़ रही हैं। आरक्षण का खुर्शीदी-बेनी खेल पहले ही बोतल से बाहर आ गया है। रही सही कसर जातीय राजनीति को लेकर खेले गए नंगे खेल ने पूरा कर दिया है। क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाले दलों की मजबूरी तो छोड़ दें, कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय प्रभाव और विस्तार वाले दलों ने भी विकास व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को छोड़कर क्षेत्र और जाति की राजनीति पर अपना यकीन ज्यादा दिखाया। बाबूसिंह कुशवाहा मामले में भाजपा ने जहां आंतरिक विरोध तक को सुनना गंवारा नहीं किया, वहीं रियल और  फेयर पॉलिटिक्स के हिमायती राहुल गांधी ने चुनावी सभा में सैम पित्रोदा को विश्वकर्मा जाति का बताकर केंद्र में अपने पिता राजीव गांधी के कार्यकाल के आईटी विकास को जातीय तर्कों पर उतारने को मजबूर हुए। 
विकास को सामाजिक न्याय की समावेशी संगति पर खरा उतारना तो समझ में आता है पर इसे सीधे-सीधे जातीयता की जमीन पर ला पटकना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी की इस हिमाकत को सबसे बड़ा मर्यादा उल्लंघन ठहराया जा सकता है, जब उसने देश में आईटी क्रांति के प्रणेता रहे सैम पित्रोदा को जातीय राजनीति के चौसर पर पासे की तरह फेंका। यह गलती नहीं बल्कि कांग्रेस की एक सोची-समझी चुनावी रणनीति है, यह तब ज्यादा जाहिर हुआ जब पार्टी ने यूपी में अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सैम को मीडिया से मुखातिब कराया। 
सैम अगर सबके सामने कैलकुलेटेड ढिठाई से यह कहते कि 'मैं बढ़ई का बेटा हूं और अपनी जाति पर मुझे फख्र है', तो कांग्रेस का उनको लेकर खेला गया चुनावी खेल तो समझ में आता है पर सैम को क्या पड़ी थी कि वह खुद को इस खेल में इस्तेमाल हो जाने दे रहे हैं। क्या सैम की यह बढ़ईगिरी विकास को भी जातिगत शिनाख्त देने की दरकार को खतरनाक अंजामों तक नहीं ले जाएगी। राजीव गांधी के जमाने का आईटी 21वीं सदी के एक दशक बीतते-बीतते कहां पहुंच गई, आप समझ सकते हैं।