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सोमवार, 28 जुलाई 2014

तुम सीटी बजाना छोड़ दो


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ा है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीðजग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल’ कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे।
इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधताã आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।’ 1951 में आई फिल्म 'अलबेला’ में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ तो आज भी सुनने को मिल जाता है।
मॉरल पुलिसिग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टेक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती


प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।  

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

पानी बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं



बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि राजधानी दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है। 
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है। कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खिंचे या यहां-वहां से जुगाड़े गये ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रोरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नये मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसों के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं। बताते हैं कि नम्रता शिरोडकर की बहन शिल्पा शिरोडकर को कई बड़े बैनरों को फिल्में एक दौर में इसलिए मिलीं कि उसे कैमरे के आगे पानी में किसी भी तरह से भीगने से गुरेज नहीं था। खबरें तो यहां तक आर्इं कि उसे एक फिल्म में इतनी बार नहलाया-धुलाया गया कि अगले कई महीनों तक वह निमोनिया से बिस्तर पर पड़ी रही। हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भीगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे। 
वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है। इसे उस सनक या समझ का ही कमाल कहेंगे कि टूथपेस्ट बेचना हो या मानसून आने की खबर देनी हो, तरीका चाहे जो भी हो होता दैहिक ही है। बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कॉस्टयूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिंग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं। इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिंता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है। 

मंगलवार, 15 मार्च 2011

टर्निंग-30 में जो गुल है


उम्र अगर तीस की दहलीज पर हो तो सचाइयों का सामना किस तरह की टीस के साथ होता है, यही समझाया था नैना सिंह ने 'टर्निंग 30' में। फिल्म में नैना उस 27 फीसद शहरी महिला आबादी का प्रतिनिधित्व करती है, जो वर्किंग लेडी होने की शिनाख्त के कारण पढ़ी-लिखी और आधुनिक है। दिलचस्प है कि टुडे वूमेन के बिंदास किरदार के कथानक को करियर-फीगर के कसाव और ढीले पड़ने के द्वंद्व के बीच उम्र के तीस साला सच के साथ जिस तर्ज पर दिखा गया है, वह आजादी और स्वाबलंबन के पहले से ही सर्वथा विवादित महिला विमर्श का एक और अर्निदिष्ट विस्तार है। देह मुक्ति का तर्क सैद्धांतिक तौर पर तो समझ में आता है, पर जिस आधुनिकता की गोद में यह मुक्ति पर्व महिलाएं मना रही हैं, वह प्रायोजित और सुनियोजित है। संबंध का सात क्या एक भी फेरा भी हम बगैर परंपरा और परिवार के प्रति आस्थावान हुए पूरा नहीं कर सकते। दिलचस्प है कि बाजारवादी ताकतों द्वारा प्रायोजित आजादी का जश्न महिलाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आज के हर युवा के लिए है। मेट्रोज में इसकी डूब गहरी है, छोटे शहरों और कस्बों में अभी इसके लिए गहरे तलों की खुदाई और छानबीन चल रही है। 
बहरहाल, बात एक बार फिर से नैना सिंह की। फिल्म में नैना का किरदार गुल पनाग ने निभाया है। फिल्म करने के बाद वह चैनलों और अखबारों ने उसकी टिप्पणियों को बतौर एक रेडिकल फेमिनिस्ट सुर्खियां में खूब टांगा। अब खबर यह है टर्निंग 30 का द्वंद्व अपनी निजी चिंदगी में भी झेल रही गुल ने अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ सात फेरे ले लिए हैं। सुंदरता की बिकाऊ स्पर्धा जीतने, फिर रैंप पर कुछ छरहरी चहलकदमियां, मॉडलिंग और पेज थ्री की दुनिया में मौजूदगी को बनाए-टिकाए रखने के लिए कैमरे को तमाम मांसल एंगल मुहैया कराने और कुछ लीक से अलगाई जाने वालीं फिल्में करते-करते दो साल पहले तीस पार कर चुकीं गुल को अब जिंदगी की बहार घर के बाहर नहीं, घर-परिवार के भीतर नजर आने लगी है।
तीस की टीस को अभिनय और असल जिंदगी में महसूस कर चुकी गुल से चाहे तो कोई अब यह पूछ सकता है कि आधुनिकता की टेर पर जिंदगी के स्वचछंद गायन का ऊपरी सूर क्या आजीवन नहीं साधा जा सकता। याकि जीवन के जो तरीके तीस तक ठीक-ठाक लगते हैं, तीस पर पहुंचकर वही तरीके अप्रासंगिक और गैरजरूरी क्यों नजर आने लगते हैं। दरअसल, तीस की दहलीज तक पहुंची तीन दशकीय उदारवादी सामाजिक स्थितियों की जो सबसे बड़ी त्रासदी है, उसे ही युवाओं और खासकर महिलाओं की आजादी की शिनाख्त दे दी गई है। गाल बजा-बजाकर बहस करने वाले महिला हिमायतियों ने अब तक इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि लोक, परंपरा और संबंध के भारतीय अनुभव अगर खारिज होने चाहिए तो उसका विकल्प क्या है।
हिंदी साहित्य के जानकार जानते हैं कि आजादी पूर्व क्रांतिकारी रणभेरी के साथ शुरू हुआ मुक्ति प्रसंग, किस तरह आसानी से स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की ढलान पर आ गया। दिलचस्प है कि मस्ती और मनमानी के गायक यहां भी वही थे, जो देश और समाज की आजादी के तराने गा रहे थे। संबंधों की बहस महिला बनाम पुरुष से ज्यादा सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों में एकांगी और स्वायत्त उल्लास के ओवरइंजेक्शन का है। जिस बाजार के एक्सलेटर्स पर चढ़कर आज हम फ्लैट, टीवी और गाड़ी को अपनी पहुंच और जरूरत के तौर पर गिना रहे हैं, उसका इंटरेस्ट संबंधों के स्थायित्व की बजाय उसके टूटने-बदलने के आस्वादी रोमांच में ज्यादा है। यही प्रशिक्षण वह नए तरह से तैयार ग्रीटिंग कार्डस, सीरियल, एड और रियलिटी शोज के जरिए चौबीसों घंटे चला रहा है।
दरअसल, सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस का थ्री-एस फिनोमना अपने तीन दशकों की यात्रा के बाद टर्निंग-30 का जो विमर्श चला रहा है, वहां अब भी संतोषजनक उपसंहार की गुंजाइश किस कदर गुल है, यह बात कोई आैर समझे या न समझे गुल पनाग के तो समझ में आ गई है। शादी की 'बुलेट सवारी' करती गुल को खुश देखकर फिल्म में उसके रोने और तड़पने की वजह आसानी से समझी जा सकती है। यह समझ अगर आधी दुनिया के खुद ब खुद अलंबरदार बने फिरने वालों के समझ में भी आ जाए तो उनकी नादानी के 'सात खून माफ' हो सकते हैं।       

बुधवार, 9 मार्च 2011

देखो कुंअर जी दूंगी गारी


होली पर्व प्रह्लाद और होलिका के पौराणिक प्रसंग से भले जुड़ता हो पर इसका असली रंग तो घर-परिवार और सामाज में ही देखने को मिलता है। भले अब होली का रंग थोड़ा बदरंग हो गया हो और खास तौर पर महिलाएं इसे मनाने से बचने लगी हैं। पर अब भी देश के ज्यादातर हिस्सों और परिवारों में होली उत्साह, मस्ती और आनंद का सौगात लेकर आता है। एक लोकपर्व के रूप में इस अनूठे त्योहार की लोकप्रियता पूरी दुनिया में इस कदर फैली है कि बिल Ïक्लटिंन की बेटी तक फगुनाहट की मस्ती में सराबोर होने के लिए राजस्थान पहुंचती है।
वैसे तो होली पूरे देश में मनाई जाती है पर अलग-अलग सांस्कृतिक अंचलों की होली की अपनी खासियत है। हां, एक बात जो सभी जगहों की होली में सामान्य है, वह है महिलाओं और पुरुषों के बीच रंग खेलने के बहाने अनूठे विनोदपूर्ण और शरारत से भरे प्रसंग। ये प्रसंग शुरू से होली की पहचान से जुड़े रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस मस्ती में नहाने वाले कोई एक धर्म या संप्रदाय के लोग हों। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की लिखी होली आज भी लोग गाते हैं- 'क्यों मोपे मारे रंग की पिचकारी, देखो कुंअर जी दूंगी गारी।' फिल्मों के गीत याद करें तो चुहल और ठिठोली के कई बोल जेहन में एक के बाद एक आने लगते हैं। 'मदर इंडिया' के गीत 'होली आई रे कन्हाई रंग बरसे...सुना दे जरा बांसुरी' से लेकर "वक्त' फिल्म का माडर्न होली सांग 'गिव मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...' तक फिल्मी होली गीतों की ऐसी पूरी श्रृंखला है, जहां होली के रंगों के बीच हीरो-हीरोइन के बीच दिलचस्प छेड़छाड़ चलती है। बात पूरबिया होली की करें तो यहां होली का रंग सबसे ठेठ और मस्ती से सराबोर है। यहां की होली का मस्ताना रंग यहां के पारंपरिक लोकगीतों में बी बखूबी मुखरित हुआ है। 'बंगला पे उड़ेला गुलाल...' से लेकर 'अंखिया लाले लाल...' तक कई ऐसे पारंपरिक गीत हैं जो आज भी गाए जाते हैं। दुखद है कि पारंपरिकता के इस अनमोल रंग में कुछ म्यूजिक कंपनियां और लोक गायक फूहड़ता और अश्लीलता का मिलावट कर रहे हैं, जिससे लोकरंग बदरंग हो रहा है। लोकगायिका मालिनी अवस्थी के मुताबिक, 'पारंपरिक होली गीतों की विरासत काफी समृद्ध और विविधता भरी है। बाजार के दौर में लोकगायकी को थोड़ा मिलावटी रंग जरूर दिया है पर आज भी पारंपरिक होली गीतों के कद्रदान ही ज्यादा हैं।'
इतिहासकार डॉ. शालिग्राम सिंह कहते हैं कि राधा-कृष्ण से लेकर जोधा-अकबर तक के विनोद पूर्ण होली प्रसंग देश में होली की परंपरा को रेखांकित करते हैं। आज भी होली में महिलाएं ही सबसे ज्यादा निशाने पर होती हैं और यह आलम घर-दफ्तर से लेकर स्कूल-कॉलेज तक सब जगह एक जैसी है। हाल के कुछ सालों में होली पर खुलकर नशा करने का प्रचलन बढ़ा है, जिससे अभद्रता से लेकर मारपीट तक की घटनाएं बढ़ गई हैं। दिल्ली के पालम इलाके में रहने वाली अमृता शर्मा बताती है कि वह होली पहले काफी उत्साह से मनाती थी क्योंकि उसे रंग बहुत पसंद हैं। पर अब वह घर से बाहर होली मनाने नहीं जाती क्योंकि इस दिन लड़कियों पर रंग भरे बैलून से लेकर कीचड़ तक फेंके जाते हैं, यही नहीं लड़के रंग लगाने के बहाने उनके साथ ओछी हरकत तक करने से बाज नहीं आते।
नोएडा निवासी सुमन भंडारी बताती हैं कि उनकी शादी दो साल पहले हुई है। होली के दिन उनके पति के दोस्त और देवर व उनके साथी होली करने की जिद करते हैं। सुमन बताती हैं कि ऐसे मौकों पर कई बार लोग नशे में भी रहते हैं और ऐसे में उन्हें अपनी सीमा का ख्याल नहीं रहता। इन अनुभवों से उलट आगरा की इंजीनियरिंग छात्रा नियति है, जिसे होली का इंतजार पूरे साल रहता है और वह अपनी सहेलियों के साथ इस दिन खूब मस्ती और हुड़दंग मचाती हैं। नियति कहती है कि होली रंग और उत्साह का त्योहार है और उसे अच्छा लगता है कि इस मौके पर वह अपनी सहेलियों के साथ खूब मस्ती करती हैं। वैसे नियति भी मानती है कि खास तौर पर होली पर युवतियों-महिलाओं का बाहर निकलना अब सहज नहीं रहा।
इस साल होली को शालीन, सभ्य और पारंपरिक तरीके से मनाने के लिए कई सामाजिक संगठनों मे पहल की है। होली मिलन की शक्ल में सामूहिक होली खेलकर सामाजिकता और पारिवारिकता के टूटते धागों को बांधने से लेकर बगैर पानी के होली खेलने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। उम्मीद है इस बार हाथ में पिचकारी लिए अमृता और सुमन जैसी लड़कियां बगैर किसी डर के होली  का आनंद उठाएंगी तो नियति जैसी किशोरियों की होली की मस्ती इस बार और बढ़ जाएगी।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

गोपन का ओपन



रोटी, कपड़ा और मकान ये तीन आदिम जरूरतें आदमी को जिलाए रखने के लिए तो जरूरी हैं पर अगर मनुष्य का दर्जा 'सामाजिक' का माना जाए तो इन जरूरतों से आगे उसे कुछ और भी हासिल करने की जरूरत है। यह समझ हमारे संविधान निर्माताओं की भी रही तभी उन्होंने मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी शामिल किया। अधिकार किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था में हमारे हाथ की तरह होते हैं, जिससे हम रचना और विकास की सीढ़ियां बनाते हैं और फिर अपने आरोहण के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। दुनियाभर में सभ्यतागत विकास के हर चरण को इन्हीं हाथों और सीढ़ियों ने संभव बनाया है।
अभिव्यक्ति की आजादी हमारी सामाजिक व लोकतांत्रिक साझी समझदारी का निर्माण करते हैं। विचार का समन्वयकारी चरित्र ही कल्याणारी भी है। पर इस चरित्र  का तब सबसे स्याह रूप सामने आता है जब हम इस आजादी को महज अपने 'गोपन' को 'ओपन' करने की सही-गलत सहूलियतों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
दो-तीन दशक पहले तक जिन इबारतों को लिखने के लिए गली-मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक शौचालयों के दीवारों का चोरी-चुपके इस्तेमाल होता था उसके लिए आज अनंत साइबर स्पेस है। कमाल की बात है कि इस स्पेस ने अभिव्यक्ति की आजादी को चाहे जितना सहज बनाया हो पर इस आजादी के मुंह पर स्वच्छंदता की कालिख भी कम नहीं मली गई। दुनियाभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि अपनी 'असामाजिकता' को समाज के हिस्से शातिराना तरीके से खिसकाना सबसे आजाद ख्याल है। लिहाजा ऐसे ख्याली लोगों की मनोरुग्णता और मलीन फैंटेसी से साइबर स्पेस पटने लगा है। दिलचस्प है कि ऐसे हिमाकती लोगों में पुरुषों की गिनती सबसे ज्यादा है। इतनी ज्यादा कि यहां आधी दुनिया की मौजूदगी साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से पसीना तक बहाना पड़ सकता है। यकीन न हो तो आप इंटनेट पर किसी भी तेज-तर्रार सर्च इंजन पर बैठकर  तसल्ली कर लें।
मेरे एक वरिष्ठ कवि साथी ने बताया कि खासतौर पर ब्लागरों और सोशल नेटवर्किग साइटों पर समय गुजारने वालों जो नई देसी और भाषाई दुनिया अपने यहां सामने आई है, वह कथित सेक्स फैंटेसी के नाम पर लोकाचारों और लोक मर्यादाओं की जड़ों पर अनजाने ही काफी सघन और कठोर प्रहार कर रहे हैं। लिहाजा अपने आसपास होने वाली बातचीत और व्यवहारों में अचानक हम कोई बड़ा परिवर्तन नोटिस करने लगें तो हैरत नहीं। इस मुद्दे पर कायदे का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है, नहीं तो हमारे चौंकने या सन्न रह जाने के ढेर सारे तार्किक आधार हमारे सामने होते।  
सवाल यह है कि हमारे लोग संस्कारों की सामासिकता को दूध पिलाने वाले मां-बहन, भाई-बहन, भाभी-चाची, फूआ-मौसी जैसे पारिवारिक रिश्तों को आखिर किसी जिद की भेंट चढ़ाया जा रहा है। क्या यह बायलॉजिकल फैक्ट कि दुनिया में दो ही जाति है- पुरुष और स्त्री, एक व्यक्ति की सोच-विचार की उड़ान को थामे रखने वाली अकेली डोर है। यह सब अगर है भी तो इस डोर को थामे पतंगबाजों में महिलाएं क्यों नहीं शामिल हैं।  सवाल जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है इसका जवाब। एक पुरुष अकेले में अपनी दुनिया को किस तरह की नंगई और सोच से रचना और भरना चाहता है, इसका जेनेसिस रिपोर्ट इतना सनसनीखेज हो सकता है कि महिलावादी आंदोलन से लेकर मनुष्य की सामाजाकिता का अध्ययन करने वाले शास्त्र तक के औचित्य पर सवाल खड़े हो जाएं।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तू खा गोली, मैं करूंगा प्रेम


वेंडर मशीनों से कंडोम का मुफ्त वितरण उतना ही जरूरी है जितना गली-मोहल्ले में खुले एटीएम से पैसे निकालने की आसानी। गुजरात में पिछले गरबा महोत्सव को हॉट इवेंट का दर्जा दिलाने के लिए गरबा पांडालों में ये दोनों ही सुविधाएं एक साथ मौजूद  थीं। इससे पहले दिल्ली जैसे शहरों में रेड लाइट इलाकों को सेहत के लिहाज से कंडोम के मुफ्त वितरण के प्रयोग आजमाए जा चुके हैं। इस तरह की समझदारी अब नई नहीं रही, बात इससे आगे निकल चुकी है। कंडोम का बचावकारी मिथ अब टूट रहा है, उन पुरुषों के लिए जिनके लिए कभी भी यह स्वेच्छा का चुनाव नहीं रहा। हारे को हरिनाम और डरते को चलाना पड़े कंडोम से काम। हाल तक की स्थितियां यही थीं। पर अब बदल रहा है सब कुछ।
पिछले एक दशक में 'देह' को हर लिहाज से 'संदेहमुक्त' कराने की पराक्रमी कोशिशें हुई हैं। वैसे न तो ये कोशिशें नई हैं और न ही इनके पीछे की  मंशा। फर्क है तो बस उस व्यग्रता और तेजी में जो इन डरे-सहमे और छिपे उपक्रमों को आज खुलेआम धार चढ़ा रहे हैं, रैशनल कसौटियों पर कस रहे हैं। कंडोम का झल्लीदार अवरोध सुरक्षा की चाहे जितनी अचूक गारंटी हो, पर इसे स्वीकार करने वाला पुरुष मन आज तक भारी रहा है। यह भारीपन तकरीबन वैसा ही है, जैसा नसबंदी से भागने वाली पुरुषवादी झेंप। पहली सूरत में ऐसा लगता है जैसा यौन मोर्चे पर पौरुष तेज को जानबूझकर निस्तेज किया जा रहा है जबकि दूसरी सूरत पौरुषपूर्ण पराक्रम को आत्मघाती तरीके से कमजोर करने की है। पर अब ये सारी दुविधाएं, सारी समस्याएं बीती बातें हो चुकी हैं। रियलिटी शोज के जमाने का रिलेशन भी रियल फील और थ्रिल से लबरेज है और इस फील को डंके की चोट पर मुहैया करा रही हैं आई-पील और अनवांटेड 72 जैसी रंग-बिरंगी गोलियां बनाने वाली कंपनियां।
प्रेम का महापर्व आनेवाला है। नई सदी में यह महापर्व अपना पहला दशक पहले ही पूरा कर चुका है। इस बार तो इसके विस्तार का नया चरण शुरू होगा। याद आती है 'डेबोनियर' की तर्ज पर हिंदी में प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका का पहला संपादकीय। संपादक महोदय ने ओशोवादी लहजे में प्रेम की देहमुक्ति की मांग पर आंखें तरेरी थीं। लिखा था- 'प्रेम वासना की कलात्मक अभिव्यक्ति है'। आज तो ऐसे तर्कों की दरकार भी नहीं। हिंदी के बौद्धिक जगत में तो ये बातें कई तरीके से कही जा चुकी हैं कि हर संबंध की असलियत बिस्तर पर खुलती है। संबंधों की यह यात्रा चाहे किसी भी रास्ते शुरू हो, उसकी परिणति एक है।
कह सकते हैं कि यह परिणति देह और प्रेम को एक सीध में ला खड़ा करती है और यह सिंपल फिनोमेना ग्लोबल है। लिहाजा अब प्रेम की न तो नसें बंद की जाएंगी और न ही किसी निरोध-अवरोध से इसके मचलते प्रवाह को बांधने की मजबूरी होगी। अब तो महिलाओं के पर्स में ही पुरुष की प्रेमी देह का सुरक्षा मंत्र भी होता है। अब तक पति या प्रेमी के दीर्घायु होने के लिए महिलाएं उपवास रखती थीं, अब उसके  प्रेमाखेटन के लिए वह गोलियों का सेवन करती हैं, अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ की जोखिम भरी शर्त पर।
भूले न हों अगर आप तो याद करें मल्लिका सेहरावत की पहली हाहाकारी फिल्म 'ख्वाहिश'। कंडोम की डिब्बी दुकान से खरीदेने में लड़के की घिग्घी बंधती है और मल्लिका यही काम निस्संकोच तरीके से कर देती है, जिस पर सिनेमा हॉल के कुछ कोनों से तालियों भी उछलती है। नए दौर का वेलेंटाइन मार्का प्रेम अब इसी तरह की बेधड़की से परवान चढ़ेगा, जिसमें महिलाएं पुरुषों के सेफ खेलने के लिए इंतजाम अपने साथ रखेंगी और पुरुष लिंगवर्धक यंत्र और हाईपावर वियाग्रा डोज के सेवन से इस इंतजाम का भरपूर दोहन करेंगे। आखिर प्रेम के दैहिक भाष्य के दौर में संदेह की गुंजाइश है भी कहां? अगर किसी महिला के मन के कोने में संदेह है भी तो मान लीजिए कि न तो दफ्तर में बॉस उसे तरक्की देगा और न स्कूल-कॉलेज या पड़ोस का साथी उसे एकांत में मिलने के लिए प्रेमल मिस कॉल मारेगा।     

रविवार, 23 जनवरी 2011

पॉपुलर बदलाव


बत्ती बुझने के बाद भी
जल उठती है बत्ती
डूबने के बाद भी
तैरने लगती है कश्ती 
पसीने से लथपथ होकर भी
चूकती ना हारती
बस छा जाती है मस्ती
सदी अब उन्नीस नहीं
हो चुकी है इक्कीस   
बताने के बहाने भर नहीं
पॉपुलर बदलाव के इजहार भी हैं 

शनिवार, 24 जुलाई 2010

आवारा रंगोलीबाज के हाथों संवरी


थोड़ी खोई थोड़ी सकपकाई आंखें
संकोच से मुठभेड़ में झुकी गर्दन
कुछ चुभा कुछ चुका मन
मई-जून की गरमी सा तपा चेहरा
ताजे उतारे गए गोश्त की तरह
छाती पर रखा प्रेम
स्पर्श स्नान से
बेदाग होने का जतन फिर आजमाएगा
इस कुकुरधर्मी प्यार पर
फिकरा सांड बनारसी का धौल जमाएगा
दोनों बाजुओं से हार चुका प्रेम
दोनों जांघों में फंस जाएगा

तुम भले बनना चाहो चिड़िया
खूब तोलो पर
वो भुट्टे सा भुनेगा तुम्हें दांतों से चबाएगा
पाखी नहीं उसने एक आजाद उड़ान को चखा है
और यह अट्टहास एक बार फिर
'स्त्री उपेक्षिता' को सजिल्द कर जाएगा

किसी आवारा रंगोलीबाज के हाथों संवरी
दोपहर की अंगुली पकड़कर
शाम की गोद तक पसरी
दिनदहाड़े की अठखेलियां
रात की नीयत में बदली
रतजगे सपनों की हकीकत जैसी
तुम्हें शुरू करने वाला नहीं
कोई अनंत कर जाने वाला पाएगा
मध्यांतर का संगीत जैसा इस बार बजा
वैसा आगे भी बजता जाएगा

प्रेम के लिए होली पैंडेंट का सहारा
जय माता दी का डॉल्बी जयकारा
घर से निकलते ही मंदिर का नजारा
किसी महोदय को पाने के
आवेदन पत्र जैसा
थाने में मनमर्जी के खिलाफ अर्जी
मुंदरी में चमकते नक्षत्र जैसा
रोने का नहीं खुश होने का हक तुम्हारा
लड़ने का हौसला बार-बार देगा
जीत हो तुम्हारी अभिनंदन हो तुम्हारा
यकीन है कि अपडेट कर दोगी तुम
फ्रेंड फिलॉस्फर और गाइड का
घिसा मुहावरा
तब कच्ची शराब की खुमारी थी
अब शैंपन उफनाएगा
देसी पगडंडियों में खेला-खोया प्यार
अमेरिका रिटर्न कहलाएगा

23.07.10