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मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सौ में एक कपिल

वर्ष 2०13 को लेकर कई तरह की बातें हो रही हैं। ज्यादातर लोगों की नजर में यह 'आम’ आदमी के 'खास’ होने का साल है। इस साल आम जनता ने एकाधिक बार अपनी ताकत का इजहार किया। यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव की स्थिति है। इस स्थिति की व्यापकता तब और बढ़ जाती है जब हम देखतें हैं आम आदमी के बूते बदलाव का सियासी 'जंतर मंतर’ टीवी-सिनेमा और मनोरंजन जगत में भी काम आ रहा है। कॉमेडियन कपिल शर्मा को दो-तीन साल पहले तक जो भी पहचान थी, वह आम तरह की लोकप्रियता के दायरे में कैद थी। 2०13 में यह दायरा टूटा और वे आम से एक खास कॉमेडियन हो गए।
'कॉमेडी नाइट विद कपिल’ आज टीवी का एक ऐसा शो बन गया है, जिसकी लोकप्रियता ने बिग बी, सलमान खान, माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर जैसे दिग्गजों को पछाड़ दिया है। बात टीआरपी की करें या कांटेंट की, कपिल सब पर भारी पड़ रहे हैं। पिछले दिनों प्रसिद्ध पत्रिका 'फोब्र्स’ ने उन्हें देश के सौ प्रभावशाली लोगों की सूची में स्थान दिया। कपिल के लिए इतनी जल्दी कामयाबी के इतने बड़े मुकाम तक पहुंचना उन तमाम लोगों के लिए एक सीख है, जो अपनी जिंदगी और पृष्ठभूमि को अपनी कामयाबी की राह का बड़ा रोड़ा मानते हैं।
दो अप्रैल 1981 को अमृतसर में जन्मे कपिल शर्मा के पिता पुलिस सेवा में थे जबकि मां एक साधारण गृहिणी। 26 अप्रैल 2००4 को पिता की कैंसर से हुई मौत से अचानक परिवार की सारी जवाबदेही कपिल के कंधों पर आ गई। कपिल के लिए यह चुनौती काफी मुश्किलों भरा था। एक तो उनकी उम्र कम थी, दूसरे उन्हें काम के नाम पर मंच से लोगों को हंसाना भर आता था। स्कूल-कृलेज के दिनों में उन्हें इस कारण थोड़ी लोकप्रियता भी मिली, पर महज इस बूते परिवार की जिम्मेदारी को उठाना आसान नहीं था। कपिल शुरू से थोड़े जुनूनी और इरादों के पक्के रहे। सो इस नई चुनौती को भी उन्होंने अपने तरीके से ही हल करने की ठान ली। कॉमडी को उन्होंने अपनी हॉबी से आगे एक करियर केे तौर पर चुन लिया। इस फैसले से कॉमेडी को लेकर उनका इरादा जहां और मजबूत हुआ, वहीं वे अपने काम को प्रोफेशनली भी गंभीरता से लेने लगे।
कपिल के जीवन में तब एख सुखद क्षण आया, जब वे पॉपुलर टीवी शो 'द ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज’ (सीजन-3) के विजेता बने। इसके बाद उन्होंने टीवी पर कई कॉमेडी शोज किए तो वहीं कई शोज की मेजबानी करने का भी उन्हें मौका मिला। कामयाबी के इस मुकाम तक आते-आते कपिल गुमनामी के अंधेरे से निकलकर चर्चित नामों में शुमाार होने लगे। पर शायद इससे बड़ी सफलता जीवन में उनका इंतजार कर रही थी। इस साल जब वे अपने प्रोडक्शन बैनर के9 केे तहत जब स्टैंड अप कॉमेडी शो 'कॉमेडी नाइट विद कपिल’ लेकर आए तो देखते-देखते इसकी लोकप्रियता टीवी के तमाम हिट शोज पर भारी पड़ने लगी। आज आलम यह है कि बड़े सेे बड़े सिने सितारे उनके शो में शामिल होने के लिए लालायित रहते हैं।
पिछले दिनों तब जरूर एकबारगी यह लगा कि कपिल के कॉमेडी शो की लोकप्रियता को ग्रहण लग जाएगा, जब इस शो से जुड़े सुनील ग्रोवर ने अपने को इससे अलग करने का फैसला कर लिया। ग्रोवर कपिल के शो में गुत्थी का कैरेक्टर प्ले कर रहे थे। पर यह आशंका बेबुनियाद साबित हुई। इससे पहले कपिल को उस समय भी गहरा धक्का लगा जब उनके शो का सेट जलकर राख हो गया। पर यह कपिल की लोकप्रियता की ही ताकत थी कि उन्होंने न सिर्फ नया सेट खड़ा कर लिया बल्कि शो की लोकप्रियता पर भी आंच नहीं आने दी।
कपिल के हास्य की खास बात यह है कि इसमें न तो कुछ द्बिअर्थी है और न ही कुछ सतही। वे हास्य के नाम पर कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससेे उनके शो को एक फेवरेट फैमिली शो होने में बाधा आए। आम जीवन का आम हास्य कपिल की जुबां और अदा से खास बन जाता है। यही तो है आम कपिल का खास कमाल।

'स्मॉल इज नॉट वनली ब्यूटीफुल, इट अज सिग्निफिकेंट आल्सो’


ईएफ शुमाकर की मशहूर किताब है- स्मॉल इज ब्यूटीफुल। शुमाकर की गिनती बीसवीं सदी के चोटी के आर्थिक चिंतक में होती है। वैसे वे महज अर्थ पंडित भर नहीं थे। समय और समाज को लेकर वे एक व्यापक दृष्टिकोण रखते थे। उनकी साफ मान्यता थी कि लोकसमाज को साथ लिए बिना आप न तो विकास का कोई ब्लू प्रिंट तैयार कर सकते हैं और न ही मानव कल्याण के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। बहरहाल, शुमाकर का जिक्र फिलहाल महज इसलिए क्योंकि वर्ष 2०13 के दिनों-महीनों को पलटकर देखने पर उनकी किताब के शीर्षक का बरबस ध्यान आता है। यह शुमाकर की किताब का नाम भर नहीं बल्कि उनके नाम से मशहूर हुई एक कालजयी उक्ति भी है। बिहार आंदोलन के दिनों में जेपी इस उक्ति का कई बार जिक्र करते थे। जेपी तब की स्थिति को देखते हुए इसे थोड़ा बदलते भी थे। वे कहते थे-'स्मॉल इज नॉट वनली ब्यूटीफुल, इट अज सिग्निफिकेंट आल्सो।’
जेपी को तब नहीं पता था कि संपूर्ण क्रांति की जिस मशाल को वह जला रहे हैं, वह देश में राजनीति और व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को किस मुकाम तक ले जाएगा। पर उन्हें यह जरूर महसूस होता था कि जो भी पहल हो रही वह सामयिक तौर पर जरूरी है। जड़ता के टूटने से ज्यादा जरूरी है, उसके खिलाफ हस्तक्षेप का होना। एक चेतनशील मनुष्य और उसके समाज की यही पहचान है कि वह अपनी चेतना को हर उस जड़ता के खिलाफ एक कार्रवाई का रूप दे जो उसके परिवेश को प्रगतिशील होने के बजाय स्थिर करता है, निष्प्राण करता है। आज जब हम वर्ष 2०13 की समाप्ति पर इन बातों को समझने की कोशिश करते हैं तो हमारा ध्यान कई उन छोटी-बड़ी बातों पर जाता है, जो इस वर्ष को आगे के कई वर्षों के लिहाज से महत्वपूर्ण बनाता है।
वैसे यहां यह साफ होना जरूरी है कि कैलेंडर में तो हफ्ते-महीने को अलगाना आसान है पर अगर हम बात करते हैं देश और समाज की तो हमें बारहमासे के तय खांचे से थोड़ा आगे निकलना होगा। इस तरह अगर वर्ष 2०13 के साथ हम अगर 21वीं सदी के दूसरे दशक के अब तक के दौर को एक साथ देखें तो हमें साफ लगेगा कि छह दशक से ज्यादा लंबी उम्र का भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से अपनी शिनाख्त और भूमिका को नए सिरे से तय करना चाहता है। आजादी पूर्व से लेकर आजादी बाद के भारतीय इतिहास में यह नितांत नए तरह का अनुभव है।
नायक, विचार, संगठन और फिर इनकी सामूहिक ताकत से एक क्रांतिकारी आरोहण की तैयारी रिवोल्यूशन की यह थ्योरी आज बेमानी है। यह उस दौर का सच है जिसमें लोग यहां तक विचार करने की स्थिति में हैं कि 'भीड़ भी एक विचार है’। दिलचस्प है कि अरब बसंत के बाद इस बात को लेकर तमाम तरह के अध्ययन हो रहे हैं कि आज एक नए तरह का विश्व समाज है। एक ऐसा समाज जो एक तरफ तो अपने आस-पड़ोस से दूर है, कटा-कटा है, वहीं सोशल मीडिया पर वह संपर्क के तमाम तरह की एक्टिविटी से जुड़ा है। इस स्थिति को समाजशास्त्री अध्ययन के किसी पुराने चश्मे से नहीं समझा जा सकता है। यह एक नई तरह की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति, परिवार और समाज की इकाई हर स्तर पर अपनी नई पहचान और नई दरकारों को दर्ज करा रही है। उत्तर आधुनिकता के नाम पर पिछले दो दशकों में इस स्थिति को लोक और परंपरा की पुरानी लीक के खिलाफ एक दुराग्रह का दौर तक कहा गया। पर क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि एक ऐसे समय में जब आतंकवाद जैसा प्रतिक्रियावादी विकल्प लोगों के सामने अपने को असंतोष को व्यक्त करने के लिए मौजूद है, लोग तमाम तरह के अहिंसक विकल्पों को आजमा रहे हैं।
बात करें भारत की तो एक चिंता जो गांधी ने देश की आजादी से काफी पहले जताई थी कि लोकतंत्र का केंद्रीकृत ढांचा अगर बहाल रहा तो स्वराज का अभीष्ट हमसे दूर ही रहेगा। लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण मतलब प्रातिनिधक लोकतंत्र के मॉडल को प्रत्यक्ष जन प्रतिभाग के मॉडल में बदलना। आज जिस आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली विधानसभा की 28 सीटों पर जीत को लेकर राजनीति-सामाजिक चिंतक तमाम तरह की बातें कर रहे हैं, वह लोकतंत्र में ढांचागत परिवर्तन की जनांकांक्षा को ही कहीं न कहीं प्रतिबिंबित करता है।
वैसे आप के 'स्वराज’ को लेकर अभी तमाम तरह की आशंकाएं भी हैं। जनतंत्र में जन भागीदारी की भूमिका को पांच साल में एक बार मतदान की कतार में खड़े होने से आगे ले जाने की दरकार तो समझ में आती है, पर इससे आगे नीति और निर्णय के जन प्रतिभाग को कैसे व्यवस्थागत रूप से सुनिश्चत किया जाए, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। गांधी के स्वराज और अरविंद केजरीवाल के स्वराज में एक बड़ा फर्क है। गांधी स्वराज के लिए सबसे पहले नागरिक इकाई की शुचिता का सवाल उठाते हैं। शारीरिक श्रम, मितव्ययता, प्रेम-करुणा, सर्वधमã समभाव जैसी चारित्रिक और नीतिगत कसौटी पर खड़ा हुए बगैर गांधीवादी अहिंसक स्वराज की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी मौजूदा दौर को 'परम भोग’ का 'चरम दौर’ कहते थे। बाजार के साथ आई सूचना क्रांति ने एक तरफ जहां हमारी रचनात्मक वृतियों से स्वाबलंबन का तत्व छिन लिया है, वहीं हम लालच के महापाश में इतना बंध गए हैं कि इस कैद को ही सुखद कहने-मानने को मजबूर हैं। ऐसे 'उदार’ दौर का स्वराज कितना उदार होगा, यह बड़ा प्रश्न है। पर यह तो हुई गांधी विचार और परंपरा की एक बड़ी लीक के आगे 'आम आदमी’ के कुछ क्रांतिकारी संकल्पों को खारिज करने की बात।
गांधी की ही एक बात को लें तो वे अपने जीवन और अपने कमोर्ं को सत्य का प्रयोग कहते रहे। यह प्रयोग गांधी तक आकर कोई अंतिम स्थिति को पा गया, ऐसा नहीं है। यह एक सतत प्रक्रिया है, जो हमेशा चलती रहनी चाहिए। खुद गांधी भी अगर कोई सीख देते हैं, हमें यही सीख देते हैं। अब इस दृष्टि से वर्ष 2०13 में बनी स्थितियों की बात करें तो इसमें कई सकारात्मक लक्षण लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के दिखाई पड़ते हैं।
'भीड़’ इस या उस पार्टी या संगठन के बैनर तले नहीं बल्कि तिरंगे को लहराती हुई अचानक देश के कोने-कोने में सड़कों पर उतर आती है। नागरिक समझ के नाम पर बस यह प्रतिक्रिया कि भ्रष्टाचार, महिला असुरक्षा, नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात की स्थिति को अब नहीं सहेंगे। क्या इतने भर से शासन-प्रशासन की जड़ता भंग होगी? दरअसल यह शुरुआती स्थिति ही आज परिवर्तन की एक प्रक्रिया को जन्म दे रही है। जन, गण और मन का नया समन्वय किसी नीति और विचार से आगे समाधान की स्थिति की ओर ले जाता है। एक ऐसा समाधान जिसे परिवर्तन का आधुनिक लोकतांत्रिक तरीका भी कह सकते हैं। यह तरीका व्यक्ति का व्यक्ति पर भरोसे का है। इस न्यूनतम शपथ का है कि हम बदलेंगे इसलिए हमारा परिवेश, हमारा समय भी बदलेगा। यह तरीका स्वाभाविक रूप से अपने लिए नायकत्व भी तय कर लेता है। शुमाकर के शब्दों का एक बार फिर से स्मरण करें तो यह छोटा प्रयोग सुंदर तो है ही, जेपी की पूरक व्याख्या को जोड़ दें तो रेखांकित करने योग्य भी है।



मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

विवादित कहानी देवयानी

ऐसा बहुत कम होता है कि आपके साथ एक तरफ तो अन्याय हो, वहीं दूसरी तरफ अन्याय के खिलाफ एक बड़े संघर्ष का आप प्रतीक बन जाएं। अमेरिका में भारतीय राजनयिक देवयानी खोब्रागडे के साथ बदसलूकी का मामला ऐसा ही है। इस साल जून-जुलाई से शुरू हुए इस मामले ने साल के आखिर आते-आते ऐसा तूल पकड़ा कि भारत और अमेरिका का संबंध कई नजरिए से निर्णायक मोड़ पड़ पहुंच गया है। भारत इस पूरे मामले पर अमेरिका से बिना शर्त माफी चाहता है तो अमेरिका महज खेद जताकर मामले को कानूनी दरकार का पैरहन देकर उसे रफा-दफा करना चाहता है।
दिलचस्प है कि इस पूरे मामले के केंद्र में खड़ी देवयानी खोब्रागडे के हवाले से न तो मीडिया में कोई बात आ रही है और न ही भारत सरकार उसके हवाले से कोई बड़ा खुलासा कर रही है। ऐसे में देवयानी को लेकर जो बातें हो रही हैं, उसके आधार पर लोग उनकी एक अनुमानित या आभासित शख्सियत खींच रहे हैं। इस सब में सबसे ज्यादा मदद कर रही है देवयानी की कुछ तस्वीरें, जो इंटरनेट के जरिए सबके लिए सुलभ हैं। तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं पर इनसे जिंदगी के मुकम्मल सच का खुलासा हो जाता है, आप ऐसा भी नहीं कह सकते। देवयानी मामले में आज ऐसा ही हो रहा है, उसकी तस्वीर देखकर और उसके बारे में हालिया प्रसंग में कुछ बातें जान-सुनकर लोग तमाम तरह की बातें सोचने-कहने लगे हैं। पर जब देवयानी के व्यक्तिगत सच के बारे में पता करते हैं तो इनमें से कुछ बातें सिरे से खारिज हो जाती हैं।
देवयानी मुंबईकर हैं। उनके पिता उत्तम खोब्रागडे आईएस ऑफिसर थे। देवयानी की शुरुआती तालीम एक बड़े कॉन्वेंट स्कूल में पूरी हुई। बाद में उन्होंने सेंट जीएस मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की। पर देवयानी के लिए अंतिम गंतव्य शायद यही नहीं था। उन्होंने अपनी जिंदगी के लिए एक दूसरा रास्ता चुना। यह रास्ता भारतीय विदेश सेवा का था। मेडिकल जैसे प्रोफेशन को छोड़कर एकाएक दूसरी दिशा में अपने करियर को मोड़ने का फैसला आसान नहीं था। पर उनके लिए जिंदगी का मतलब शायद एक बनी बनाई लीक पर आगे बढ़ना भर नहीं था। देवयानी को जिंदगी में शायद वो सब तजुर्बे चाहिए थे जिसके लिए सात समंदर पार करना जरूरी है।
देवयानी के चाचा डॉ. अजय एम गोडाने आईएफएस 1985 बैच के अधिकारी थे। संभवत: चाचा को देखकर ही देवयानी ने अपना इरादा बदला हो। सुंदर और कुशाग्र देवयानी ने 1999 में अपने इरादे के मुताबिक कामयाबी पा ली। वह आईएफएस की परीक्षा पास कर गईं। अमेरिका में भारतीय राजनयिक का पद संभालने से पहले देवयानी ने पाकिस्तान, इटली और जर्मनी में भारत के राजनयिक मिशन को सफलतापूर्वक पूरा किया।
देवयानी ने एक प्रोफेसर से शादी की है और उनकी दो बेटियां हैं। उनका भाषा ज्ञान खासा समृद्ध है। वह हिंदी के साथ अंग्रेजी और जर्मन भाषा पर समान अधिकार रखती हैं। इसके अलावा उनकी विभिन्न देशों की राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ भी काफी अच्छी है। अध्ययन, पर्यटन, संगीत और योग को पसंद करने वाली देवयानी ने अपनी जिंदगी में सीखने और आगे बढ़ने का रास्ता अब भी खुला रखा है। इसी का नतीजा रहा कि पिछले साल वह चेवनिंग रोल्स रॉयस साइंस एंड इनोवेशन लीडरशिप प्रोग्राम के लिए चयनति हुईं।
विवादों से देवयानी का नाता नया नहीं है। दो साल पहले जब मुंबई के आदर्श सोसायटी का घोटाला सामने आया तो सोसायटी में अवैध तरीके से फ्लैट बुक कराने वालों में उनका भी नाम था। वैसे देवयानी के बारे में यह जानना भी जरूरी है कि वह दलितों के लिए लैंगिक समानता के लिए काम करना चाहती है। बहुत संभव है कि विवादों के मौजूदा चक्रव्यूह से निकलने के बाद वह अपनी जिंदगी की इस चाह को पूरा करने के बारे में गंभीरता से विचार करे।

आप की सरकार को यहां से देखें


दिल्ली का राजनीतिक कुहासा छट गया है। अब आम आदमी पार्टी सरकार बनाने को राजी है। पर अब तक के घटनाक्रम में और कुछ हुआ हो या नहीं, पारंपरिक राजनीति के आगे एक वैकल्पिक लीक खींची जा सकती है, यह संभावना कहीं न सहीं संभव होती दिख रही है। दिल्ली विधानसभा के नतीजे जब आठ दिसंबर को आए तो उसके साथ यह धर्मसंकट भी आया कि यहां अगली सरकार कैसे बनेगी और कौन बनाएगा? त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति कोई देश में पहली बार नहीं बनी है। बल्कि सच तो यह है कि केंद्र में भी यह स्थिति एकाधिक बार रही है। पर सरकारें हर बार बनी हैं। कई बार आधे-अधूरे कार्यकाल के लिए तो कई बार पूरे कार्यकाल के लिए। पर दिल्ली में चुनकर आई त्रिशंकु विधानसभा से सरकार गठन की राह दुश्वार इसलिए हो गई क्योंकि एक साल पहले खड़ी हुई एक पार्टी ने 28 सीटें जीतकर एक बदली राजनीतिक स्थिति का संकेत सभी दलों को दे दिया।
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा 36 का है। कांग्रेस महज आठ सीटें जीतकर पहले ही सत्ता के रेस से बाहर हो गई। भाजपा के अगुवाई वाली राजग भी बहुमत के आंकड़े से चार सीट पीछे रही। रही आप तो उसे आठ सीटें मिलीं। भाजपा के लिए दिल्ली में बहुमत का आंकड़ा जुगाड़ना कोई बड़ी बात नहीं होती। हाल के वर्षों में भी वह कर्नाटक से लेकर झारखंड तक जोड़तोड़ का यह खेल खेल चुकी है। पर दिल्ली में यह मुमकिन इसलिए नहीं हो सकता था क्योंकि पिछले कम से कम तीन सालों में आम आदमी के भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक शुचिता की एक नई चुनौती खड़ी कर दी। देश में यह अपने तरह की संभवत: पहली सूरत थी जिसमें कोई भी दल सरकार बनाने के लिए आगे आने को तैयार नहीं दिखा। मीडिया ने इसे आम आदनी पार्टी द्बारा तय किए गए 'मॉरल इंडेक्स’ का नाम दिया। दिलचस्प है ऐसे दौर में जब किसी पॉलिटक डेवलेपमेंट के प्रभाव को सेंसेक्स के चढ़ने-उतरने से जोड़कर देखा जाना एक जरूरी दरकार बन गई हो, उस दौर में सेंसेक्स से बड़ी खबर और चर्चा उस मॉरल इंडेक्स की हो रही है, जो लोकतंत्र में जनता की एक दिन की मतदान की भागीदारी से आगे एक सतत प्रक्रिया को आजमाए जाने की वकालत कर रही है।
 पिछले 14 दिसंबर को दिल्ली के उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के उपराज्यपाल ने सरकार बनाने की संभावना पर विचार करने के लिए बुलाया था। आप की तरफ से यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि वह न तो किसी दल से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने इस बीच एक नया सियासी दांव खेला। केजरीवाल उपराज्यपाल से मिलने पहुंचते इससे पहले वहां कांग्रेस की यह चिट्ठी पहुंच चुकी थी कि वह आप को सरकार बनाने के लिए बाहर से बिना शर्त समर्थन देने को तैयार है। कांग्रेस के इस दांव से आप को अपने पुराने स्टैंड पर थोड़ा विचार करना पड़ा। क्योंकि इस दौरान ये बातें भी खूब हुईं कि आम आदमा पार्टी ने बिजली दर आधी करने और हर घर को 7०० लीटर पानी देने जैसे जो चुनावी वादे किए हैं, उससे वह पूरा नहीं कर सकती है। क्योंकि ऐसा करना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। लिहाजा उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह सरकार बनाने से बचे।
आप के नेताओं ने इस बदले राजनीतिक खेल को समझा।उसने तय किया कि वह इस पूरी स्थिति को एक बार फिर से जनता की अदालत में ले जाएगी और उससे ही पूछेगी कि क्या उसे सरकार बनानी चाहिए। जो खबरें हैं, उसमें आप ने दिल्ली में 25० से ज्यादा सभाएं की। जनता ने भारी बहुमत से आप को सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ने को कहा। अब आप इस पॉलिटकल स्टैंड के साथ सरकार बनाने जा रही है कि वह किसी दल के समर्थन या विरोध के आधार पर नहीं बल्कि जनता की राय पर सरकार बनाने जा रही है।
इस पूरे घटनाक्रम में पहली नजर में एक गैरजरूरी नाटकीयता आप के नेताओं की तरफ से नजर आती है। एक बार चुनाव संपन्न हो जाने के बाद फिर से जनता के पास जाने का क्या तुक है? ऐसी दरकार हमारी संवैधानिक व्यवस्था की भी देन नहीं है। फिर भी ऐसा किया गया। दरअसल, इसका जवाब वे मुद्दे हैं जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आप स्थानापन्नता की राजनीति की बजाय विकल्प की राजनीति को एक स्वरूप देने के मकसद से आगे बढ़ना चाहती है। देश में साढ़े छह दशक से भी लंबे दौर में जो सियासी व्यवस्था जड़ जमा चुकी है, उसे एक भिन्न समझ के साथ देखने-समझने की तैयारी और उस ओर अग्रसर होना कोई आसान काम नहीं है। पर आज बदलाव की जमीन पर शुरुआती तौर पर एक दल और उससे जुड़े लोग खड़े हैं तो यह जाहिर करता है कि इस विकल्प के प्रति जनता के मन में भी छटपटाहट कम नहीं है।
जनता के बीच जनता की राजनीति को तो शक्ल लेना ही चाहिए। यही तो जनतंत्र की बुनियादी दरकार है। पिछले कुछ दशकों में जनता के नाम पर भले खूब राजनीति हुई और उसे अस्मितावादी तर्किक निकष पर कसने की भी खूब कोशिश हुई पर जनतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रतिभागिता की चुनौती को स्वीकार करने से सब बचते रहे। आज अगर आप की दिल्ली की सरकार को इस प्रतिभागिता को सुनिश्चत करने की क्रांतिकारी पहल की बजाय अगर महज बिजली-पानी के भाव के मुद्दे पर केंद्रित करने की कोशिश हो रही है, तो इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की राजनीति करने वाले दूसरे किसी दल के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि वह जनता के नाम पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर अपनी राजनीति का गंतव्य तय करे। बहरहाल, आप की पहल एक नई राजनीति की शक्ल पूरी तरह ले पाएगी, इसमें संशय अब भी काफी है। पर इन संशयों के धुंध के बीच से ही कुछ सुनहरी किरणें अगर फूट रही हैं तो यह देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक शुभ संकेत है।
 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013


अमेरिका 2०13 में दो हफ्ते से भी ज्यादा शटडाउन के खतरे में पड़ गया था। हालांकि यह संकट वहां डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों के बीच सियासी भिड़ंत के कारण आया था। पर यह सूरत एक बार फिर से इस तरफ इशारा कर गई कि दुनिया की तमाम बड़ी आर्थिक ताकतें कहीं न कहीं आज उस मुकाम पर पहुंच गई हैं, जिसमें उनका आर्थिक स्वाबलंबन कभी भी डगमगा सकता है। डॉलर से लेकर यूरो जोन तक की अर्थव्यवस्थाएं लगातार अपने को बचाने में लगी हैं। इस बात को समझना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यही बीते कुछ सालों से देश-दुनिया के रिश्ते को तय करनेवाले नियामक मुद्दे रहे हैं।
दिलचस्प है कि यह एक ऐसे दौर की सचाई बनती जा रही है जिसे 'उदार’ होने का खिताब दिया गया है। अमेरिका इस खिताब को पूरी दुनिया में बांटने वाला अगुवा देश है पर जो सूरत अब वहां भी बराक ओबामा के पिछले और मौजूदा कार्यकाल में बनी है, उसमें आर्थिक सुरक्षा के लिए उसे दुनिया के तमाम देशों के साथ अपने आर्थिक सरोकार खासे 'अनुदार’ तौर पर तय करने पड़ रहे हैं। यह सूरत 2०14 में अचानक से बदल जाएगी, ऐसी कोई उम्मीद न के बराबर ही दिखती है। यह अलग बात है कि अमेरिका इस बदले हालात में भी सुपर पावर नंबर वन होने के अपने दावे को अलग-अलग तरीकों से मजबूत करता रहा है। इस मजबूती के लिए वह कभी ईरान और उत्तर कोरिया पर अपनी आंखें तरेरता है तो वहीं पाकिस्तान जैसे राष्ट्र को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन और मदद देकर एक पूरे क्षेत्र में अपनी भूमिका के रकबे को लगातर बढ़ाने की जुगत में रहता है। उसकी यह जुगत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगले साल भी जारी ही रहेगी, ऐसा मानकर चलना चाहिए। वैसे संतोषप्रद यह जरूर है कि जिस तरह इस साल ईरान के मामले में उसकी हिमाकत एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाई, वैसी स्थिति नए वर्ष में भी अमेरिका के कई विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर सकता है।
बात करें भारत की तो अगले साल यहां लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। जो सूरत और संकेत हैं, उसमें केंद्र की अगली सरकार यूपीए की बनती नहीं दिख रही है। वैसे भाजपा की अगुवाई में अगर अगली सरकार एनडीए की भी बनती है तो देश की विदेश नीति में कोई बहुत बुनियादी फर्क आएगा, ऐसा लगता नहीं है। हां, पाकिस्तान को लेकर भावी केंद्र सरकार के रवैए में थोड़ी सख्ती जरूर देखने को मिल सकती है। अलबत्ता यह सख्ती भी युद्धक होने की इंतिहा तक शायद ही पहुंचेगी। आखिर भारत और पाकिस्तान दोनों ही एटमी देश हैं। वैसे एक शुभ संकेत जरूर है कि पाकिस्तान में 2०13 में नवाज शरीफ के नेतृत्व में नई सरकार बनी है। पिछले दिनों वहां के सेनाध्यक्ष भी बदल गए हैं। ऐसे में राजनयिक कुशलता का अगर परिचय दिया जाए तो दोनों देशों के रिश्ते में थोड़ी मिठास घुल सकती है।
इस साल भारत और चीन के बीच सीमा विवाद काफी उलझा रहा और इसमें हमारा देश कई बार बैकफुट पर भी दिखा। पर आखिरकार सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लिया और सीमा पर अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने का फैसला किया। यह सामरिक सुदृढ़ता भविष्य में चीन के खिलाफ भारत की स्थिति को रणनीतिक रूप से मजबूत करेगी।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

सिंदूरी साथ का रिकॉर्ड

मौजूदा दौर में देह और संदेह के साझे ने संबंधों के पारंपरिक बनावट को पूरी तरह बदल दिया है। रिश्ते बंधने से ज्यादा खुलने लगे हैं, दरकने लगे हैं। यह एक ऐसे समय का यथार्थ है जिसे नाम ही दिया गया है 'खुलेपन’ का। यह नामकरण हुआ तो था वैसे आर्थिक लिहाज से पर आर्थिक सरोकारों की खुली दरकारों ने देखते-देखते समाज, संबंध और संस्कृति की पारंपरिक दुनिया को पूरी तरह उलट-पुलट दिया। इसलिए अब संबंधों के धागे खुलने पर उतनी हैरत नहीं होती जितना उनके धैर्यपूणã निर्वाह के बारे में जानकर।
बात संबंधों की करें तो विवाह संस्था का ध्यान सबसे पहले आता है। अभी ब्रिटेन से चलकर एक खबर हिंदुस्तान में काफी पढ़ी-देखी और सराही गई कि वहां रहने वाले भारतीय मूल के दंपति करमचंद और करतारी रिकॉर्ड 86 साल से एक-दूसरे के साथ हैं। यह ब्रिटेन की संस्कृति के लिहाज से बड़ी बात है। इसलिए इस जोड़ी के साथ और इनसे जुड़ी तमाम तरह की जानकारियों को लोगों ने चाव से पढ़ा-जाना। खुद करमचंद और करतारी के लिए भी यह एक सुखद अनुभूति है कि जिस सिंदूरी साथ को उन्होंने अपने प्रेम और संस्कार के कारण अब तक बरकरार रखा है, वही अब उन्हें पूरी दुनिया में सम्मान दिला रहा है।
पंजाब के एक छोटे से गांव में 19०5 में जन्मे करमचंद की करतारी से 19०5 में शादी हुई थी। पासपोर्ट में दर्ज जानकारी के मुताबिक इस समय करमचंद की उम्र 1०6 साल और उनकी पत्नी करतारी की उम्र 99 साल है। परिवार के साथ 1965 से रह रहे करमचंद से जब पूछा गया कि रिकार्ड समय तक चले उनके दांपत्य संबंध का क्या राज है तो उन्होंने कहा कि शादीशुदा जिंदगी जीने का कोई राज नहीं होता है। हालांकि यह कहते हुए वह यह भी कहते हैं कि उन्होंने अपनी जिंदगी में भरपूर आनंद उठाया है। जो चाहा वो किया, जैसा चाहा वैसा खाया-पिया, पर सब कुछ एक संयम के साथ। आज अगर उनके बारे में और उनके पारिवारिक जीवन के बारे में पूरी दुनिया में बात हो रही है तो इसलिए क्योंकि उन्होंने जीवन और मर्यादा के बीच कोई सख्त रेखा खींचने की बजाय एक समन्वयी लोच बनाए रखा, अपनी सोच में भी और अपने आचरण में भी।
जानकर लोगों को हैरत होगी कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने वाले करमचंद रोज शाम खाने से पहले एक सिगरेेट पीते हैं। यही नहीं हफ्ते में तीन-चार बार व्हिसकी या ब्रांडी भी पीते हैं। उनकी जिंदगी की ये आदतें मर्यादा या संयम से भटकाव नहीं बल्कि जिंदगी को साकारात्मकता के साथ जीने की ललक की तरफ इशारा है।
करमचंद और करतारी के सिंदूरी साथ को सिर्फ वे दोनों ही नहीं पूरा करते हैं बल्कि इसके साथ उनके बच्चे और उनका परिवार भी है। वे दोनों अपने छोटे बेटे सतपाल और उसकी पत्नी रानी और दो पोते-पोतियों के साथ रहते हैं। बहू कहती है कि उनके लिए सास-ससुर उस छाया की तरह है, जहां बहुत सारी शांति और खूब सारा प्यार और आशीर्वाद है। बेटा सतपाल भी खुश है कि उनके मां-पिता न सिर्फ जीवित हैं बल्कि उनके साथ स्वस्थ और प्रसन्न हैं। बेटे को खुशी इस बात की भी है कि उन्हें इतने लंबे समय तक मां-पिता की सेवा करने का अवसर ईश्वर ने दिया है।
फिल्मकार सूरज बड़जात्या और करण जौहर बार-बार फिल्मी पर्दे पर भारतीय परिवारों की संयुक्त परंपरा को उत्सवी रूप में दिखाते हैं और बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ते हैं। पर जीवन की सिनेमाई समझ रखने वाले उन जैसे तमाम दूसरे लोगों को भी यह बात समझनी चाहिए कि महत्वपूर्ण परिवार को साथ देखना-दिखाना नहीं बल्कि उन सरोकारों को समझना है, जिससे यह साथ अटूट बनता है और सालोंसाल निभता-टिकता है। टेकचंद और करतारी के जीवन में झांकना इन सरोकारों से परिचित होना है।
 

विसर्जन स्थापना की जरूरी शर्त नहीं


अस्मिता की राजनीति के दौर में भावनाओं के ज्वार खूब फूट रहे हैं। हर तरफ इस तरह के स्वर उठ रहे हैं कि फलां समुदाय के नेता के साथ तारीखी तौर पर अन्याय हुआ और अब उनके सही मूल्यांकन का समय आ गया है। किसी को स्थापित करने के लिए किसी को भंजित करना भी जरूरी होता है। सो हो यह रहा कि कई ऐतिहासिक नायकों के चेहरों पर कालिख पोती जा रही है। अस्मितावादी विमर्श में पिछले दो दशकों में ऐसी तमाम कोशिशों को एक बड़े अन्याय के खिलाफ खड़े होने का आधार माना जा रहा है। यह आधार अभिजात्यवादी या सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ सोशल चेंज -अब तो इसे सोशल इंजीनियरिंग तक कहा जा रहा है- का जरूरी औजार के तौर पर काम कर रहा है, ऐसा मानने वाले प्रगतिशील भी कम नहीं हैं। पर इस सोच का इस सवाल के बाद क्या मतलब रह जाता है कि बड़ी लकीर से आगे उससे बड़ी लकीर खिंचने की बजाय पहली खिंची लकीर के साथ ही काट-पीट क्यों?
कुछ विसर्जित होगा, भंजित होगा तभी नया कुछ स्थापित होगा, ऐसी सोच तो हिंसक ही मानी जाएगी। अंबेडकर के नाम पर सामाजिक न्याय की गोलबंदी ने समाज के जातीय तानेबाने को कैसे देखते-देखते वैमनस्य का नागफनी मैदान बना दिया, यह अनुभव हमारे सामने है। इसमें साफ होने की बात यह है कि जातीय विभेद अच्छी बात है, यह कोई नहीं कह रहा पर इसे मिटाने के नाम पर अगर सामाजिक समरसता का पारंपरिक आधार भी अगर दबता-मिटता चला जाए तो इस प्रतिवादी संतोष का हासिल क्या एक हिंसक नियति से ज्यादा रह जाता है।
अभी गुजरात के मुख्यमंत्री देश भर में घूम-घूमकर सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करने के लिए देशभर के किसानों से लोहा दान देने की बात कह रहे हैं। पहली नजर में यह एक आदर्श राष्ट्रवादी सोच दिखती है। ऐसा अगर इस अभियान को लेकर अगर कोई सोचता है, तो वह गलत भी नहीं है। सरदार का भारत के एकीकरण और राष्ट्र के रूप में उसके निर्माण में एक बड़ा योगदान है। इस योगदान का स्मरण हमें अपने राष्ट्र के प्रति गर्वित करता है। पर बात यहीं खत्म होती तो गनीमत थी। हम अपने बाकी के राष्ट्र नायकों का स्मरण कैसे करते हैं और उनके शील और विचार हम पर कितना कारगर असर अब तक छोड़ते रहे हैं, यह सचाई भी हमारे सामने है। दिनकर ने इन्हीं स्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत पहले लिखा- 'तुमने दिया देश को देश तुम्हें क्या देगा, अपनी ज्वाला तेज करने को नाम तुम्हारा लेगा।’
सरदार की विशालकाय प्रतिमा के स्थापना पर महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने पहले तो हर्ष जताया। कहा कि सरदार साहब का व्यक्तित्व ऐसा रहा, जिसके कारण पूरे देश का उनके प्रति स्नेह रहा। यह स्नेह अब और प्रगाढ़ हो रहा है, तो यह प्रसन्नता की बात है। पर जिस रूप में यह सब किया जा रहा है, वह सही नहीं है। इससे एक तो यह पूरा मिशन ही अपने रास्ते से भटकेगा, दूसरा इसकी देखादेखी एक होड़ पैदा लेगी बाकी नेताओं और प्रतीक पुरुषों की बड़ी से बड़ी प्रतिमा स्थापित करने की। इससे देश और समाज का कोई भला तो क्या होगा नुकसान भले बहुत ज्यादा हो जाएगा।
राजमोहन गांधी ने ये बातें किसी पक्षकार के नाते नहीं कही। बल्कि उन्होंने ये बातें किसी नाते कही तो वे सरदार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मुरीद होने के नाते। वे उन दलीलों में भी नहीं उलझे कि अब क्यों अचानक उनके नाम पर राजनीति हो रही है। अगर सरदार 'भारत रत्न’ हैं तो उन्हें इस या उस दल का नेता बताने का क्या औचित्य है? फिर यह भी कहने का क्या मतलब कि अगर सरदार पटेल तब देश के प्रधानमंत्री बने होते तो देश की आज तस्वीर ही कुछ दूसरी होती। यह भी कि तब न पाकिस्तान हमारे लिए सिरदर्द बनता और न ही आतंकवाद हमारे लिए एक नासूरी समस्या बनता।
कुछ अर्से पहले जब कश्मीर वार्ताकारों की टीम ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी तो यह बहस छिड़ी कि क्या ऐतिहासिक घटनाक्रमों को बदला जा सकता है। इस बहस को आगे बढ़ाने की पैरोकारी करने वाले ही आज यह दलील दे रहे हैं कि सरदार को उनके दल ने पर्याप्त सम्मान और अवसर नहीं दिए। अलबत्ता यहां यह बात जरूर साफ होने की नहीं कि इतिहास कोई बंद किताब भी नहीं जो बस हमारी स्मृतियों के ताखे पर रखी रहे। इतिहास भविष्य के लिए हमारी आंखें हैं। हमारे संचित अनुभव हैं, जिससे भविष्य के मुहाने खोलने में हमें मदद मिल सकती है। इतिहास से मुठभेड़ भी होनी चाहिए क्योंकि यह एक गलत लीक को दुरुस्त करने की सबसे जरूरी दरकार है। पर इतिहास के प्रति कुढ़न और दुराग्रह का औचित्य कतई स्वस्थ नहीं हो सकता।
राजमोहन गांधी एक और खतरे की तरफ इशारा करते हैं। यह इशारा महिमा मंडन की राजनीति की तरफ है। ऐसी राजनीति शुरू तो होती है देश और समाज की नजर में किसी की शिनाख्त को और ज्यादा मुकम्मल करने, उसे और ऊपर उठाने के लिए। पर आगे चलकर यह कोशिश दूसरी तमाम शिनाख्तों को तहस-नहस करने की हिंसक सनक में बदल जाती है। सरदार का नाम ऐसे किसी सनक का हिस्सा बने, यह कौन चाहेगा। पर अगर ऐसा किसी पहल से हो जाने का खतरा है तो इसके बारे में सावधान तो रहना ही चाहिए।
एक बात और यह कि भारत की जिस सामासिक संस्कृति और परंपरा की बात की जाती है, वह सिर्फ जीवन, समाज या रहन-सहन से ही नहीं जुड़ा है। यह उस सोच को भी दर्शाता है जिसमें तमाम तरह के विचार और अनुशीलन एक साथ हमारे बीच अपना लोकतांत्रिक आधार विकसित करते हैं। समय के साथ इनमें से कई आधार दरकते चले जाते हैं तो कुछ और विस्तृत, और पुष्ट। अद्बैत से लेकर द्बैत तक की हमारी दार्शनिक समझ भी यही जाहिर करती है कि हम एक गंत्वय की तरफ शुरू से कई रास्तों से बढ़ते रहे हैं। विचार और आचरण के बीच विकल्प और स्वतंत्रता का खुलापन यह दिखाता है कि चयन और निर्णय करने की हमारी पूरी प्रक्रिया शुरू से खासी खुली और लोकतांत्रिक रही है। भारतीय सांस्कृतिक विमर्श में यह बहस खूब चली है कि एक ऐसी जागरूक चेतना और लोकतांत्रिक मानस से लैश देश-समाज को दशकों लंबी दासता का दंश आखिर क्यों झेलना पड़ा? इस सवाल को कुछ लोग इसका जवाब भी मानते हैं कि यह हमारी प्रखर चेतना की समन्वयी ताकत के ही बूते का था कि हम दासता की इतनी लंबी यातना के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़े हो सके।
वैसे सरदार की प्रतिमा के बहाने अगर राष्ट्र निर्माण से जुड़ी तमाम तरह की चिंताओं-आशंकाओं का जाहिर होना एक तरह से शुभ लक्षण भी है। यह दिखलाता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को लेकर हमारी चेतना कितनी गहरी, कितनी उर्वर और कितनी जिम्मेदार है। एक देश का इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि उसका भाल हमेशा तिलकित रहे और हमेशा चमकता रहा, इसके लिए उसकी संतानें इतनी विपुल आस्था के साथ विचार मंथन करती हैं।
 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

सलाम मदीबा

नेल्सन मंडेला के बारे में जिक्र करते हुए महात्मा गांधी का नाम स्वाभाविक तौर पर आता है। पर बीसवीं सदी के इन दोनों महानायकों को सीधे तौर पर एक-दूसरे की छाया बता देना एक असावधान कृत्य होगा। फिर दो बड़ी शख्सियतों का ऐसे भी आमने-सामने रखकर मूल्यांकन करना उनके साथ ज्यादती है। मंडेला निश्चत तौर पर गांधीवादी परंपरा के बड़े नायक थे। उनके संघर्ष ने साम्राज्यवाद और नस्लभेद की चूलें हिला दीं। दक्षिण अफ्रीका आज अगर विश्व के बाकी देशों के साथ बैठकर विकास और समृद्धि की बात कर रहा है तो इसके पीछे मंडेला का तीन दशक से भी लंबा संघर्ष है।
नस्लवाद साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक तौर पर सबसे कारगर औजार रहा है। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे तो रंगभेदी घृणा के वे खुद शिकार हुए थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए इस घृणा और हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूरक करने और संगठित संघर्ष शुरू करने का पहला श्रेय गांधी को ही है। बाद में संघर्ष की इस विरासत ने वहां एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।
मंडेला को इस बात का श्रेय जाता है कि दबे-सताए लोगों को संघर्ष की राह पर आगे बढ़ाने और फिर निर्णायक सफलता हासिल करने तक धैर्य और संयम बनाए रखना कितना जरूरी है, यह सीख उन्होंने अपने आचरण से दी। इस तरह का सकर्मक नायकत्व हासिल करना बड़ी उपलब्धि है। मंडेला आज अगर पूरी दुनिया में अन्याय और मानवीय दुराव के खिलाफ संघर्ष करने वालों के हीरो हैं तो अपनी इसी धैर्यपूणã शपथ के कारण।
27 साल का जीवन जेल की सलाखों के पीछे बीताने के बावजूद अपने संघर्ष की अलख को जलाए रखना कोई मामूली बात नहीं है। 199० में जब वे जेल से रिहा हुए तो देखते-देखते दुनिया के हर हिस्से में अन्याय के खिलाफ संघर्ष और क्रांतिकारी-वैचारिक गोलबंदी के जीवित प्रतीक बन गए। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भले कहने को एक छतरी में खड़ी हो पर लैंगिक और नस्ली विभेद से लेकर मानवाधिकार हनन तक के मामले हमारी तमाम तरक्की और उपलब्धि को सामने से आंखें दिखा रहे हैं, संघर्ष के प्रतीक और नायक का बने और टिके रहना बहुत जरूरी है। आज अगर मंडेला हमारे बीच नहीं हैं तो सबसे बड़ा संकट यही है कि संघर्ष और व्यक्तित्व के करिश्माई मेल को देखने के लिए अब हमारी आंखें कहां टिकेंगी। संकट की इस घड़ी में आन सान स ूकी की तरफ बरबस ध्यान जाता है। हमारे लिए यह संतोष की बात है कि सू की हमारे बीच अभी हैं।
बहरहाल, एक बार फिर से जिक्र गांधी और मंडेला की। गांधी और मंडेला के बीच तमाम साम्य के बीच कुछ मौलिक भेद भी हैं। गांधी जिस तरह के'सत्यान्वेषी’ रहे उसमें सत्य-प्रेम और करुणा का साझा पहली शर्त है। इसकी अवहेलना करके गांधीवादी मूल्यों की बात नहीं की जा सकती। अलबत्ता, गांधी के कई अध्येताओं ने भी जरूर यह कबूला है कि यह एक ऐसा आदर्शवाद है, जिसे मानवीय दुर्बलताओं के बीच एक प्रवृत्ति की शक्ल देना कोई साधारण बात नहीं।
मंडेला के यहां गांधी का धैर्य और अटूट संघर्ष तो है पर वे साधन और साध्य की शुचिता के मामले में गांधी से थोड़े अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं। इस अंतर को जैसे ही हम रेखांकित करते हैं तो हमारी समझ में यह बात आती है कि गांधी जिस रास्ते पर चले उस पर चलने वाले वे संभवत: अकेले पथिक थे। आइंस्टीन के शब्द भी हैं कि आने वाली नस्लों को तो यह भरोसा भी न हो कि हाड़-मांस के देह में गांधी जैसा व्यक्तित्व कभी जन्मा भी होगा।
मंडेला ने अपने जीवन में गांधी का स्मरण कई मौकों पर किया। वे महात्मा को एक शक्ति देने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में देखते थे। पर खुद मंडेला ने भी अपने को 'दूसरा गांधी’ कहे या माने जाने के नजरिए को एक भावुक सोच भर माना। उनके कई संस्मरणों में ऐसा जिक्र आता भी है। मंडेला के आगे एक ही मकसद था उस धरती को नस्लवादी जड़ता से मुक्त कराना, जो उनकी मातृभूमि है। आज अगर 'मदीबा’ दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपिता हैं, तो इसलिए क्योंकि आधुनिक विश्व के नक्शे पर इस देश को उन्होंने वह स्थान दिलाया, जिससे वह लंबे समय तक वंचित रहा था। दक्षिण अफ्रीका के इस महान सपूत ने तारीख के उन हर्फों को लिखा है, जिसने मनुष्य और मनुष्य के बीच खिंची हर लकीर को पूरी तरह अमान्य ठहरा दिया है।
 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

एक बर्बर कृत्य


तेजाबी हमले के रूप में जिस तरह की घटना पर चर्चा और विमर्श की दरकार की बात आज हर तरफ हो रही है, वह एक बर्बर कृत्य के रूप में हमारे समय और समाज का तेजी से हिस्सा बनता जा रहा है। लड़कियों के चेहरे और शरीर पर तेजाब फेंककर उसकी पूरी जिंदगी तबाह करने की घटनाएं निश्चित तौर पर आपवादिक नहीं कही जा सकती हैं। पर इसके खिलाफ पहल करने के लिए न तो सरकार कभी सामने आई और न ही समाज ने अपनी तरफ से कुछ किया।
अगर किसी ने पहल की तो उस लड़की लक्ष्मी ने जो खुद ऐसी ही एक घटना की शिकार हुई थी। लक्ष्मी की 2००6 में दायर जनहित याचिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट का इसी साल 18 जुलाई को एक महत्वपूर्ण फैसला आया था। सर्वोच्च अदालत ने अपने अंतरिम आदेश में तेजाब खरीदने और बेचने को लेकर सख्त नियम-कायदों का प्रावधान किया था। सुप्रीम कोर्ट ने बिना पहचान पत्र देखे तेजाब बेचने को गैरकानूनी बताया था। साथ ही केंद्र और राज्य की सरकारों से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि कोई नाबालिग इसे किसी भी सूरत में नहीं खरीद सके। इसका मतलब यह कतई नहीं था कि बाजार में तेजाब बिकेगा ही नहीं, बल्कि जो तेजाब बाजार में खुले तौर पर बिकेगा वह त्वचा पर बेअसर होगा।
इस मामले में जस्टिस आरएम लोढ़ा और जस्टिस फकीर मोहम्मद की बेंच ने राज्य सरकारों से दो टूक लहजे में कहा था कि वे तेजाबी हमलों को लेकर गंभीरता दिखाएं और इसे गैरजमानती अपराध घोषित करें। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बाबत राज्य सरकारों को तीन महीने के भीतर नीतिगत स्पष्टता लाने और सारी प्रक्रियाएं तय करने को कहा था। सरकारों को ऐसे अपराध के मामले में पुनर्वास को लेकर भी नीति बनाने को कहा गया था।
इस पूरी सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने तेजाबी हमले की शिकार महिलाओं की जिंदगी को लेकर जहां एक गंभीर और संवेदनशील नजरिया बनाए रखा, वहीं सरकारों को इस मामले से कड़ाई से निपटने के लिए कहा। न्यायालय ने यही दरकार सरकारों के आगे भी रखी थी। यही कारण है कि अब जो सूरत बन रही है उसमें यह मुमकिन होता दिख रहा है कि केंद्र सरकार तेजाब को लेकर एक सख्त कानून का ड्राफ्ट देश के सामने लेकर आए। इस बारे में केंद्र सरकार अटार्नी जनरल से राय पहले ही मांग चुकी है। वैसे इस मामले में एक पेंच भी है। तेजाब की खरीद-बिक्री के आधार और तरीके तय करने का मामला राज्य सरकारों के अधीन है। इसलिए दो ही स्थितियां केंद्र सरकार के सामने है कि वह इस मामले में एक मॉडल कानून देश के सामने रखे और दूसरा यह कि वह राज्य सरकारों को ऐसी कानूनी पहल के लिए सख्त दिशानिर्देश दे।
सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में अगली सुनवाई चार महीने बाद होनी थी। सर्वोच्च न्यायालय को उम्मीद थी कि इस दौरान सरकारों की तरफ से इस गंभीर मामले में उसके दिशानिर्देश के मुताबिक तेजी से कदम उठाए जाएंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। अब सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च 2०14 तक की नई समयावधि इस काम के लिए तय की है। पर इस लापरवाही का क्या जो इतने संवेदनशील मामले में अब तक केंद्र और राज्य की सरकारों की तरफ से दिखाई गई है। नई मिली मोहलत में ये लापरवाही दूर हो जाएगी, ऐसी उम्मीद भले कर ली जाए पर इस पर यकीन तो कतई नहीं होता।
इसी साल संसद में यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून बनाते समय भी सरकार ने तेजाबी हमलों को एक गंभीर अपराध मानते हुए इस अपराध में कसूरवारों के खिलाफ सख्त सजा की बात कही थी। पर अब यह पूरा संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के नए दिशानिर्देश आ जाने के बाद बदल गया है। केंद्र सरकार को पूरी स्थिति पर अब नए सिरे से गौर करना होगा।
वैसे यह पूरा मामला सिर्फ कानून से जुड़ा नहीं है। अगर इस तरह के कृत्य एक तेजी से बढ़ रही कुप्रवृत्ति की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं तो इसके बारे में समाज को भी एक जागरूक पहल करनी होगी। सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर में यह समझना मुश्किल नहीं है कि तेजाबी हमले की शिकार अगर लड़कियों को बनाया जा रहा है तो इसके पीछे वजहें क्या हैं। बहुत गंभीर विमर्श की तरफ न भी जाएं तो इतनी बात तो जरूर हम समझ सकते हैं कि संबंध जब दैहिकता की शर्तों पर ही तय होंगे तो प्रेम संवेदनाओं के लिए स्पेस कहां रह जाएगा। टीवी-सिनेमा, विज्ञापन और लोकप्रियता के दायरे में आना वाला हर कंटेंट अगर हमें बस यही समझाए-बताए कि प्यार हासिल करके भोगने की चीज है और प्रेम वस्तुत: कलात्मक अभिव्यक्ति है तो फिर हसरत अगर हासिल होने से रह जाए तो कार्रवाई तो हिंसक और बर्बर ही होगी। हमारे समय का यह सच वाकई भयावह है और इस भयावहता को लंबे समय तक मानवता शायद ही सहन कर सके। लक्ष्मी ने तेेजाबी हमलों के खिलाफ जो संघर्ष छेड़ा है, उसका निर्णायक मुकाम तक पहुंचना मौजूदा समय की मांग है।

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

गांधीवादी दौर की वापसी का खंडित मिथक


समय को जीने से पहले ही हम उसके नाम का फैसला कर लेते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बच्चे के जन्म के साथ उसका नामकरण संस्कार पूरा कर लिया जाता है। यह परंपरा हमारी स्वाभाविक वृत्तियों से मेल खाता है। समय की बात शुरू में इसलिए क्योंकि जिस 21वीं सदी में हम जी रहे हैं, उसका आगमन बाद में हुआ नामकरण पहले कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसे कंप्यूटर और सूचना क्रांति की सदी बताते थे। उनकी पार्टी आज भी इस बात को भूलती नहीं और देश को जब-तब इस बात की याद दिलाते रहते हैं।
बहरहाल, बात इससे आगे की। 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिंसक प्रयोगों को आजमाया गया तो फिर से एक बार समय के नामकरण की जल्दबाजी देखी गई। भारतीय मीडिया की तो छोड़ें अमेरिका और इंग्लैंड से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिंग लगी कि भारत में एक बार फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं। सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के साथ इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
इस सिलसिले में एक उल्लेख और। भाजपा के थिंक टैंक में शामिल सुधींद्र कुलकर्णी ने अपनी किताब 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग व्हील’ में तो इंटरनेट को गांधी का आधुनिक चरखा तक बता दिया। कुलकर्णी ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क दिए और यहां तक कि खुद गांधी के कई उद्धरणों का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी के इरादे पर बगैर संशय किए यह बहस तो छेड़ी ही जा सकती है कि जिस गांधी ने अपने 'हिंद स्वराज’ में मशीनों को शैतानी ताकत तक कहा और इसे मानवीय श्रम और पुरुषार्थ का अपमान बताया, उसकी सैद्धांतिक टेक कोकंप्यूटर और इंटरनेट जैसी परावलंबी तकनीक और भोगवादी औजार के साथ कैसे मेल खिलाया जा सकता है।
संयोग से गांधी के 'हिंद स्वराज’ के भी चार साल पहले सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर गांधीवादी विचार के तमाम अध्येताओं ने एक सुर में यही बात कही कि इस पुस्तक में दर्ज विचार को गांधी न तब बदलने को तैयार थे और न आज समय और समाज की जो नियति सामने है, उसमें कोई इसमें फेरबदल की गंुजाइश देखी जा सकती है। अब ऐसे में कोई यह बताया कि साधन और साध्य की शुचिता का सवाल आजीवन उठाने वाले गांधी की प्रासंगिकता और उनके मूल्यों की 'रिडिस्कवरी’ की घोषणा ऐसे ही तपाक से कैसे की जा सकती है। तो क्या गांधी के मूल्य, उनके अहिंसक संघर्ष के तरीकों की वापसी की घोषणा में जल्दबाजी की गई। और अगर ऐसा हुआ तो इस जल्दबाजी के कसूरवार तो मीडिया से लेकर राजनीतिक दल तक सभी हैं।
इस जल्दबाजी के नुकसान पर आगे चर्चा से पहले कुछ बातें उस चेहरे को लेकर जिसे समय के परिवर्तन का चेहरा बताया गया था, बनाया गया था। आज अण्णा हजारे क्या हैं और क्या कर रहे हैं इस पर जरूर अलग-अलग तरीके से टिप्पणियां की जा सकती हैं। उनके कई शुभचिंतकों और मुरीदों को भी इस बात का अफसोस है कि बदलाव की एक बड़ी लोक अंगराई के वे अगुवा होने के बावजूद वे आज देखते-देखते नेपथ्य में चले गए। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या उनके द्बारा या उनके आंदोलन के जरिए उठाए गए मुद्दे भी नेपथ्य में चले गए हैं या बस कुछ महीने बीतते-बीतते पिट गए। वैसे खुद अण्णा अफने को चुका हुआ नहीं मानते हैं। आगामी 1० दिसंबर से वे फिर से अनशन पर बैठने वाले हैं सरकार पर शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पास कराने का दबाव बनाने के लिए। कहना मुश्किल है कि इस बार उनके अनशन का असर क्या होगा, क्योंकि इस संघर्ष के उनके पुराने साथी आज उनके साथ नहीं हैं।
बहरहाल बात उन कुछ सवालों और मुद्दों की जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ये तमाम वे मुद्दे और सवाल हैं, जो बीते कुछ सालों में जनता के बीच उभरे, खुली बहस का हिस्सा बने। जनता के मूड को देखते हुए या तो ज्यादातर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने इनका समर्थन किया या फिर विरोध की जगह एक चालाक चुप्पी साध ली। पारदर्शी सरकारी कामकाज और उस पर निगरानी के लिए अधिकार संपन्न लोकपाल की नियुक्ति जैसे सवालों पर तो संसद तक ने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। चुनाव सुधार के मुद्दे पर भी तकरीबन एक सहमति हर तरफ दिखी। पर अब जब चुनाव हो रहे हैं। पहले पांच राज्यों के विधानसभाओं के और फिर अगले साल लोकसभा के चुनाव होने हैं, तो इनमें से शायद ही कोई मुद्दा हो जो किसी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे में शुमार हो। चुनावी वादे के नाम पर कच्ची-पक्की सड़कों के या तो किलोमीटर गिनाए जा रहे हैं या फिर मुफ्त अनाज या लैपटॉप बांटने के लालची वादे। अण्णा आंदोलन से छिटकर कर बनी आम आदमी पार्टी जरूर इनमें से कुछ मुद्दों को लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरी है, पर उनकी महत्वाकांक्षा और जल्दबाजी से उनके आदर्शवादी कदमों की व्यावहारिकता पर सवाल उठते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि अपने दौर को पहचानने और उसे नाम देने में हम एक बार फिर से धोखा खा गए? क्या हमारा समय अभी किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था परविर्तन के लिए तैयार नहीं है। क्या देश की जनता की लोकतांत्रिक जागरुकता एक भावावेश भर है, जो देखते-देखते बीत जाता है।
दरअसल, ये सवाल चाहे जैसे भी पूछे जाएं उसका केंद्रीय उत्तर एक ही है। वह उत्तर यह है कि परिवर्तन कोई फैशनेबल चीज नहीं, जिसे जब चाहे प्रचलन में ला दिया और जब चाहे प्रयोग से बाहर कर दिया। फिर यह टू मिनट नूडल्स भी नहीं कि बस कुछ ही समय में बस जो चाहा हासिल कर लिया। यही नियति हाल में बनी परिवर्तनकारी स्थितियों की भी हुई। इसके नाम और परिणाम तय करने की भावुक स्वाभाविकता में हम भूल गए कि समय के तारीख के हर्फ ऐसे नहीं बदलते। फिर जिस राजनीतिक व्यवस्था ने पिछले छह दशकों से ज्यादा के समय में अपनी पकड़ का रकबा हमारे मानस तक फैला रखा है, उसकी बाहें मरोड़ना कोई आसान बात नहीं। निचोड़ यह कि संभावना तभी यकीनी है जब उसके संभव होने के आसार हों और नाम से नहीं बलिक कोई चीज अपने अंजाम से जानी-मानी जाती है।

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

कीर्ति का विज्ञान

देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न से सम्मानित होने वाले प्रो. सीएनआर राव चौथे वैज्ञानिक हैं। पर इस सम्मान की घोषणा के बाद उनके कुछ तल्ख बयानों की चर्चा ज्यादा हुई, उनके काम और उपलब्धियों की ओर लोगों का ध्यान कम गया। ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि प्रो. राव और सचिन तेंदुलकर को भारत रत्न देने की घोषणा एक साथ हुई। क्रिकेट और उसके कथित 'भगवान’ के पीछे पागल देश में यह सोचने की फुर्सत किसे थी कि देश एक महान खिलाड़ी के साथ एक महान वैज्ञानिक वैज्ञानिक को भी सर्वोच्च नागरिक सम्मान देने जा रहा है। आंकड़ों में सचिन की महानता को देखने-परखने वालों को अगर यह बताया जाए कि प्रो. राव के नाम 15०० से ज्यादा रिसर्च पेपर हैं, कम से कम 45 किताबें लिए चुके हैं वे, 6० से ज्यादा विश्वविद्यालयों ने उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि दी है, तो वे भी रोमांचित हुए बिना शायद ही रहें। प्रो. राव के खाते में यश और कीर्ति इतना भर ही नहीं है। 79 साल के इस विलक्षण प्रतिभा के धनी को देश के कई प्रधानमंत्रियों का वैज्ञानिक सलाहकार बनने का सौभाग्य हासिल है। उनसे पहले तीन ही वैज्ञानिक ऐसे हैं, जिन्हें भारत रत्न मिला है। सबसे बड़ी बात तो यह कि वे देश के अकेले ऐसे वैज्ञानिक हैं जिनका एच-इंडेक्स 1०० है।
प्रो. राव का जन्म 3० जून 1934 को बेंगलुरू में हुआ। वे खुद बताते हैं कि उन्हें बचपन में घर में धार्मिक प्रेरणाएं काफी मिलीं। उनकी मां नागम्मा नागेसा राव काफी पूजा-पाठ करती थी और उन्हें देवी-देवताओं की कहानियां सुनाती थीं। राव अपनी मां से ज्यादा करीब थे इसलिए शुरुआत में उनका झुकाव आध्यात्म की ओर बढ़ने लगा। पर घर में एक विपरीत स्थिति भी थी। पिता हनुमंथ नागेसा राव को यह सब बहुत पसंद नहीं था। वे चाहते थे कि उनका बेटा खूब पढ़े-लिखे और अंग्रेजी में बात करे। नतीजतन प्रो. राव में बचपन में ही एक तरफ तो कुछ उच्च संस्कार आए, वहीं दूसरी तरफ पढ़ाई-लिखाई की तरफ भी वे गंभीरता से मुखातिब हुए। इन बातों का महत्व इसलिए भी है क्योंकि देश तब गुलामी के अंधेरे से निकलने के लिए निर्णायक संघर्ष कर रहा था।
प्रो. राव ने 1951 में मैसूर विश्वविद्यालय से बीएससी की। बाद में वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आ गए और यहां से उन्होंने एमएससी की पढ़ी पूरी की। उच्च शिक्षा के इस मुकाम तक आते-आते उनके ज्ञान और प्रतिभा का डंका हर तरफ बजने लगा था। एमआईटी, कोलंबिया और पड्र्यू यूनिवर्सिटी ने उन्ह्ें अपने यहां से पीएचडी करने का ऑफर भेजा, वह भी सौ फीसद छात्रवृत्ति की पेशकश के साथ। प्रो. राव ने पड्र्यू को चुना और वहां उन्होंने नौ महीने के रिकार्ड समय में पीएचडी का अपना शोध पूरा किया और वह भी विशेष सराहना टिप्पणी के साथ। इस समय तक आते-आते वे अपने करियर के उस निर्णायक दौर में पहुंच गए थे, जहां उन्हें यह तय करना था कि वे स्वदेश लौटें कि नहीं।
1959 में वे स्वदेश लौट आए कई स्वर्णिम प्रस्तावों को ठुकराकर। यहां उन्होंने बेंगलुरू में 5०० रुपए मासिक पर इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ साइंस से लेक्चरर के तौर पर नौकरी शुरू की। भारत लोटकर उन्होंने देश की वैज्ञानिक उन्नति को एक तरफ से अपने जीवन का एकमेव शपथ बना लिया। आज नैनो मैटेरियल, सॉलिè स्टेट और मैटेरियल कैमेस्ट्री के क्षेत्र में अपने अध्ययन और शोधों के कारण विज्ञान जगत में उनका खासा नाम-सम्मान है। फिलहाल वे जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च के मानद अध्यक्ष और इंटरनेशनल सेंटर फॉर मैटेरियल साइंस के निदेशक हैं। वे आईआईटी से भी जुड़े हैं।
एक वैक्षानिक के रूप में प्रो. राव का सफरनामा 2०11 में अचानक विवादों में घिर गया था, जब उन पर रिसर्च चौरी का आरोप लगा। तब उन्होंने विनम्रता से माफी भी मांग ली थी पर बाद में पता चला कि यह गलती उनके कनिष्ठ प्रोफेसर और एक छात्र की असावधानी के कारण हुई थी। बहरहाल देश को अपने इस रत्न पर गर्व है। सचिन तेंदुलकर के शब्दों में उन्होंने जो कुछ भी किया पर प्रो. राव साधना एकांतिक है। इस वैज्ञानिक साधक को पूरे देश की तरफ प्रणाम।

तहलकावादी तकनीक और मीडिया


तरुण तेजपाल जिस मामले में फंसे हैं, वह महिला अस्मिता से जुड़े कुछ जरूरी सामयिक सरोकारों की तरफ हमारा ध्यान तो ले ही जाता है, यह मीडिया के अंतजर्गत को भी लेकर एक जरूरी बहस छेड़ने का दबाव बनाता है। एक ऐसी बहस जिसमें खुद से मुठभेड़ करना का हौसला हो। मीडिया अगर खुद को देशकाल का आईना कहता है तो यह अपेक्षा तो उससे भी होनी चाहिए, वह इस आईने का इस्तेमाल खुद के लिए भी बराबर तौर पर करे। आईना अपनी तरफ हो या सामने की तरफ, सच को जैसे को तैसा देखने-दिखाने की उसकी फितरत नहीं बदलती। यह भी कि आईना कीमती हो या कम दामी, काम वह एक जैसा ही करता है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर भी है-'चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना है कि झूठ बोलता ही नहीं।’
तरुण जिस तरह की पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं, उसमें तकनीक का बड़ा योगदान है। अब तक उन्होंने जो भी तहलका मचाया, वह तकनीकी मदद से ही संभव हुआ। लिहाजा, तकनीक के जोर पर चल रही पत्रकारिता के मानस को पढ़ने के लिए हमारे आगे कुछ बातें और स्थितियां साफ होनी चाहिए। दरअसल, सूचना के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के कारण मीडिया का अंतजर्गत वैसा ही नहीं रहा, जैसा इससे पूर्व था। यह फर्क इसलिए भी आया क्योंकि इसी दौर में बाजार ने प्रतिभा और विकास के साझे को अपनी ताकत बना लिया।
अस्सी-नब्बे के दशक में खोजी पत्रकारिता के दौर में जातीय और नक्सली हिंसा के साथ मुंबई जैसे शहरों में अंडरवर्ल्ड की रिपोर्टिंग के दौर के साझीदार और चश्मदीद अब भी कई लोग मीडिया क्षेत्र में विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं। ये लोग बताते हैं कि सत्य और तथ्य की खोज के पीछे की पत्रकारीय ललक का पूरा व्याकरण ही तब बदल गया, जब इस काम के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि तकनीक का अपना रोमांच होता है और कई बार यह रोमांच आपको अपने मकसद से डिगाता है। आज के दौर में तौ खैर तकनीक और सूचना को एक-दूसरे से अलगाया ही नहीं जा सकता है।
बात करें न्यू मीडिया या सोशल मीडिया की तो यह अलगाव वहां भी मुश्किल है। इस मुश्किल को इस तरह भी समझने की जरूरत है कि एक ऐसे दौर में जब अरब बसंत जैसी क्रांति की बात होती है तो उसके पीछे का इंधन और इंजन दोनों ही तकनीक के जोर पर चलने वाला न्यू मीडिया ही है। यानी तकनीकी क्रांति की दुनिया अपने चारों तरफ एक क्रांतिकारी दौर की रचना प्रक्रिया का सीधा हिस्सा है, उसकी जननी है।
ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर और खुफिया कैमरों ने सचाई को जितना नंगा किया है, उससे पत्रकारिता के साथ सामाजिक अध्ययन की तमाम थ्योरीज बदल गई हैं। सच में निश्चित रूप से अपना-पराया जैसा कुछ नहीं होता, पर इसके समानांतर एक सिद्धांत निजता का भी है। निजता के दायरे में व्यक्ति, परिवार और समाज का कौन सा हिस्सा आए और कौन सा नहीं, इसको लेकर कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं खींची गई है। यह हमारे दौर की एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि निजता का भंग होना व्यक्ति की कई तरह की जुगुप्साओं को जन्म देता है। फिर आप सिर्फ सत्य का साक्षात्कार भर नहीं करते, बल्कि गोपन के भंग होने का अमर्यादित खेल देखने की लालच से भर उठते हैं।
निजी और सार्वजनिक जीवन को एक ही कसौटी पर खरे उतारने का जोखिम एक दौर में गांधी से लेकर उनके कई साथियों ने उठाई। सत्य के इस प्रयोग ने जीवनादर्श को एक बड़ी ऊंचाई दी। पर यह समय और समाज का संस्कार नहीं बन सका। ऐसे में मानवीय दुर्बलताओं को स्वाभाविक मानकर चलने की समझ ही ज्यादा काम आई। इसे ही न्याय और विधान की व्यवस्थाओं में भी स्वीकारा गया। पर अब एक नई स्थिति है। 'द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के रचयिता थॉमस फ्रिडमैन बताते हैं कि सूचना के उपकरण मनुष्य की स्वाभाविकता को बदलने वाले औजार तो हैं ही, ये बाजारवादी पराक्रम के बलिष्ठ माध्यम भी हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है। खतरनाक इसलिए क्योंकि इस स्थिति के बाद स्वविवेक के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा जाता। यों भी कह सकते हैं नए समय की पटकथा पहले से तय है, इसमें बस हमें यहां-वहां फिट भर हो जाना है, वह भी इतिहास और समाज के अपने अब तक को बोध को भूलकर।
तरुण तेजपाल तहलका की तरफ से गोवा में जो बौद्धिकीय विमर्श का आयोजन करा रहे थे, उसमें एक मुद्दा आधुनिक दौर में महिला अस्मिता की चुनौतियां भी था। दरअसल, आधुनिकता के खुले कपाटों में महिलाएं भी पुरुषों के साथ ही दाखिल हो रही हैं। लिहाज, लैंगिक स्तर पर उनके बीच मेलजोल के नए सरोकार विकसित हुए हैं। इसने एक तरफ स्त्री-पुरुष संबंधों की नई दुनिया रची है तो असुरक्षा का एक नया वातावरण भी पैदा हुआ है। निर्भया कांड को सामने रखकर समझना चाहें तो यह असुरक्षा बर्बरता की हद तक जाता है। नीति और विधान की नई व्याख्या और दलीलों के बीच इस बर्बरता का बढ़ता रकबा एक बड़ा खतरा है। डॉ. धर्मपाल के शब्दों में यह 'भारतीय चित्त, मानस और काल का नया यथार्थ’ है। ऐसा यथार्थ जिसका पर्दाफाश तेजपाल सरीखे लोग पारदर्शिता के नाम पर नीति और व्यवस्था से जुड़े बड़े जवाबदेह लोगों के जीवन के निजी एकांत तक पहुंच कर करते रहे हैं।
तकनीक के साथ एक विचित्र स्थिति यह भी है कि वह नैतिकता का कोई दबाव अपनी तरफ से नहीं बनाता है। ईमेल और सीसीटीवी फुटेज के जरिए जो सच अब तेजपाल को मुश्किल में डाल रहा है, उसमें तकनीक का अपना पक्ष तटस्थ है। यहां नैतिकताएं वही आड़े आ रही हैं, जो तेजपाल सरीखे नंगे सच के हिमायतियों ने खुद रचा है। जिन सवालों और तकाजों पर वे दूसरों को नंगा करते रहे हैं, वही सवाल और तकाजे अब उन्हें नहीं बख्श रहे।
यह स्थिति आंख खोलने वाली है। तकनीक के जोर पर बदलाव की संहिताएं रचने वाली पत्रकारिता भी एक ढोंग हो सकती है, इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि आईना लेकर 'अंत:पुर’ तक दाखिल होने वाले खुद अपने अंत:पुर में शर्मनाक हरकतों के साथ पकड़े जा रहे हैं। गनीमत मानना चाहिए कि पर्दाफाश और सनसनी मार्का पत्रकारिता अब भी हिंदी या भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वभाव नहीं है। खोजी दौर में सचाई को उसके मर्म के साथ सामने लाया गया था। दलित बस्तियों के कई मातमी विलापों को आज अगर हम एक विमर्शवादी अध्याय की तरह देख पा रहे हैं तो उसके पीछे इस तरह की पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ है। पर सूचना को सनसनी और सत्य को महज तथ्य की तरह पेश करने की हवस ने न तो देश और समाज के आगे नीति और आचरण के कोई मानक रचे और न ही इससे पत्रकारिता धर्म का ही कोई कल्याण हुआ। यह एक मोहभंग की भी स्थिति है, जिसमें बदलाव का मुगालता पेश करने वाली कई कोशिशंे एक के बाद एक पिटती नजर आ रही हैं।
गुलामी के दौर में आजाद तेवर स्वतंत्र चेतना की लौ जगाने वाली पत्रकारिता के विरासत के बाद यह एक भटकाव की भी स्थिति है। आखिर में यही कि पत्रकारिता की तकनीक का परिष्कार तो जरूर हो पर तकनीक के परिष्कार को पत्रकारिता मान लेने के जोखिम को भी समझना चाहिए। क्योंकि इसमें तात्कालिक खलबली से आगे न तो कुछ पैदा किया जा सकता है, न ही हासिल। उलटे नौबत यहां तक आ सकती है कि खलबली के शिकार हम खुद हो जाएं। अरब बसंत के पत्ते भी अगर देखते-देखते झरने शुरू हो गए हैं तो इसी लिए कि इसमें बदलाव का यथार्थ तात्कालिक से आगे स्थायी नहीं बन सका।

nationalduniya.com

मंगलवार, 5 नवंबर 2013

भारत में नई सनसनी

सोफिया हयात देश में आई नई सनसनी है। टीवी रियलिटी शो 'बिग बॉस’ में उनकी वाइल्ड कार्ड के जरिए एंट्री हुई है। अब आगे यह देखने वाली बात होगी कि सोफिया की इस शो में मौजूदगी उसे भारत के आम लोगों के दिलों में कितनी जगह दे पाती है। उनको लेकर मसालेदार खबरों से लेकर उनकी बोल्ड तस्वीरों का एक पूरा जखीरा इंटरनेट पर मौजूद है। गूगल पर उनका नाम भर आप टाइप करें तो महज कुछ पलों में एक करोड़ से ज्यादा वेब एंट्री की सूची आपके सामने आ जाएगी।
भारत में जो लोग मनोरंजन की अंतरराष्ट्रीय दुनिया के बारे में दिलचस्पी रखते हैं उनके लिए सोफिया हयात को लेकर दिलचस्पी तब एकाएक बढ़ गई थी जब पिछले साल आमिर खान के टीवी शो 'सत्यमेव जयते’में लड़कियों के यौन उत्पीड़न पर केंद्रित एक एपीसोड आया। सोफिया ने बताया कि 'सत्यमेव जयते’ के इस एपिसोड को लंदन में उसने भी देखा और देखकर खूब रोई। मीडिया में इस पर अपनी प्रतिक्रिया में उसने यहां तक कबूला कि उसका भी दस साल की उम्र में यौन उत्पीड़न हो चुका है और तब जब उसने इस बारे में अपने घर में इसकी शिकायत की तो लोगों ने उसे ही गलत माना। सोफिया की ये बातें मीडिया में खूब चर्चा में रहीं। कुछ लोगों ने इस एक आधुनिक नारी का बोल्ड बयान माना तो कुछ ने इसे आधी दुनिया के उस अंधेरे से जोड़ा, जो साल और सदी के बदलने के बावजूद पहले की तरह कायम है।
सोफिया का जन्म छह दिसंबर 1984 को हुआ। वह पाक मूल की ब्रिटिश सिंगर, एक्ट्रेस और मॉडल है। भारत के लोगों ने उन्हें पहली बार तब जाना जब उसने जीटीवी पर अपने एक टीवी शो को लेेकर आई। यह शो वर्ष 2००० से अगले तीन साल तक चला। बाद में यूटीवी बिंदास पर उसका एक बोल्ड रियलिटी शोे आया-'सुपर ड्यूड’। इस शो से वह भारत में युवाओं के बीच एक हॉट सेंसेशन बन गई। पर अभी भी आम भारतीयों में सोफिया की पहचान बननी बाकी थी। यही वजह है कि उसने 'बिग बॉस’ की प्रतिभागी बनना स्वीकार किया।
सोफिया की जिंदगी में महज चमकदार और मसालेदार बातें भर नहीं हैं। उसने 16 साल की उम्र से काम करना शुरू किया और परफार्मिंग आर्ट की तकरीबन विधाओं में हाथ आजमाया। बीबीसी से लेकर फर टीवी तक और अंग्रेजी से लेकर बॉलीवुडिया फिल्मों तक सब जगह उसने हाथ आजमाए। वह इसी साल अभय देओल के साथ 'बॉलीवुड कारमैन’ फिल्म में नजर आई। पर अभिनय की दुनिया में उसकी मुकम्मल पहचान बननी अभी बाकी है। वैसे मॉडलिंग की दुनिया में उसका नाम खासा जाना-पहचाना है।
अभिनय और मॉडलिंग केे अलावा उसने गायन के क्षेत्र में भी कदम रखा। 2००6 में उसने एक बैंड के लिए गाना गाया, जो उस साल इंटरनेशनल म्यूजिक चार्ट पर छठे पायदान पर थी। इसके अलावा भी उसके कई म्यूजिक एलबम रिलीज हो चुकेे हैं। सोफिया के हुनर का विस्तार यहीं तक नहीं है। उसने एक किताब भी लिखी है-'डिजआनर्ड’, जो अब तक तीन भाषाओं में छप चुकी है।
सोफिया की हुनरमंदी केे कायल लोग भी यह मानते हैं कि सोफिया कई क्षेत्रों में एक साथ दस्तक देने के बजाय अगर कुछ चुनींदा फील्ड को लेकर फोकस्ड रहती तो उसकेे कैरियर का ग्राफ अब तक हिचकोला खाते नहीं रहता बल्कि अब तक किसी ऊंचे मुकाम को हासिल कर चुका होता। फिर उसकी बिंदास बाला की छवि ने भी उसकी शख्सियत को गंभीर नहीं रहने दिया। देखना होगा कि 'बिग बॉस’ में आने के बाद से उसकी पहचान कितनी बदलती और मजबूत होती है।

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

महानायक और लोकनायक के बीच

भारत के लिए आज चुनौती क्या है? इस सवाल का जवाब ही यह साफ करेगा कि हम देश और समाज को लेकर किस तरह की चेतना से भरे हैं। वह चेतना जो पूरी तरह बाजार प्रायोजित है या फिर ऐसी चेतना जो विचार और समाज को एक सीध में देखने की चुनौती सामने रखती है। अभी-अभी ग्यारह अक्टूबर बीता है। इस दिन कई महानायक एक साथ चर्चा में रहे। सबसे ज्यादा चर्चा में रहे मिलेनियम स्टार का रुतबा हासिल कर चुके अमिताभ बच्चन। बिग बी का यह जन्मदिन है। क्रिकेट के भगवान कहे जाने वाले सचिन तेंदुलकर चर्चा में इसलिए रहे क्योंकि उन्होंने ट्वेंटी-2० और एकदिनी क्रिकेट के बाद टेस्ट क्रिकेट से भी अपनी विदाई की तारीख की घोषणा कर दी। इन दोनों नामों के साथ दो नाम या तो छूट गए या फिर इनकी चर्चा लोगों ने जरूरी ही नहीं समझी। इस चूक या नासमझी में मीडिया और न्यू मीडिया भी शामिल रहा, जिसे पिछले दो-तीन सालों से यह मुगालता रहा है कि वह देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए अपनी पहल को एक्टिविज्म की हद तक ले जाने का जोखिम मोल ले रहा है। छूट गए ये दो नाम हैं जयप्रकाश नारायण और नानाजी देशमुख। ग्यारह अक्टूबर को इनकी भी जयंती थी। जेपी को जनता ने ही कभी लोकनायक कहा था तो नानाजी आधुनिक राजनीति में संत छवि को जीने और निभाने वाले रहे। 
21वीं सदी के दूसरे दशक के आगाज के साथ भारतीय लोकतंत्र को सशक्त करने वाले कुछ शुभ संकेत प्रकट हुए। सड़कों पर तिरंगा लेकर देश के नवनिर्माण के लिए उतरने वाले नौजवानों की ललक में भले बहुत गंभीरता न हो और पर इस ललक की प्रासंगिकता और ईमानदारी पर संदेह करने का कोई कारण नहीं है। इस ललक के आलोक में ही देश में छह दशक बाद यह स्थिति आई कि हम देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और उसकी बुनियादी अवधारणा के साथ बहसीय मुठभेड़ कर सकें। इस मुठभेड़ ने ही यह साफ किया कि जो व्यवस्था राजनीतिक पथभ्रष्टता और भ्रष्टाचार की महामारी फैलाने की मशीनरी बन गई है, उसके कायम रहते राष्ट्रीय विकास और नवनिर्माण जैसे किसी लक्ष्य तक पहुंचने का संकल्प कैसे पूरा हो सकता है। 
जिस नई पीढ़ी की वैचारिक-सामाजिक संलग्नता को लेकर हम तरह-तरह के आग्रह-पूर्वाग्रह पाले बैठे हैं, उस फेसबुकिया पीढ़ी ने आगे आकर यह साफ किया कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स से आगे उसकी उड़ान देश और समाज के रचनात्मक उन्नयन से भी जुड़ी है। देश की युवाशक्ति की यह नई शिनाख्त राष्ट्रनिर्माण में उनकी प्रासंगिक भूमिका की नई पटकथा की तरह है, जिसमें अभी कई घटनाक्रम जुड़ने बाकी हैं। यहां तक की कहानी का क्लाइमेक्स तक आना अभी बाकी है। 
 अरब में बसंत का आना भले एक सुखद उत्तरआधुनिक परिघटना हो पर भारत में बसंत की कल्पना समाज और संस्कृति के बीच एक परंपरागत अनुशीलन है। पुराने पत्तों का झरना और नए पत्तों को आना हमारे लिए जीवन की नित-नूतन कल्पना की तरह है। इसमें निर्माण और विसर्जन का अलगाव नहीं है बल्कि यह एक सहअस्तित्ववादी जीवनदृष्टि है। अच्छी बात यह है कि सीख के ये पुराने सुलेख आज भी नष्ट नहीं हुए हैं, बचे हुए हैं। कसूर हमारा है कि बाजार का इश्तेहार तो हमारी जुबान पर चढ़ जाते हैं पर तारीख के कुछ जरूरी हर्फ पढ़ने की फुर्सत हमें नहीं। अभी टीवी पर एक विज्ञापन खूब चल रहा है जिसमें नेता और राजनीति में बदलाव के लिए माहौल को बदलने की बात जोर-शोर से की जाती है। विज्ञापन का संदेश है कि पुराने माहौल और पुरानी राहों ने अगर हमें निराश किया है तो निश्चित रूप से नए परिवेश और नए पथ की बात होनी चाहिए। यहां तक तो विज्ञापन की सैद्धांतिक टेक समझ में आती है पर क्षोभ तब यह होता है जब पता चलता है यह सब दिखाया-समझाया इसलिए जा रहा है क्योंकि एक महंगा प्लाई कवर बेचना है। जिस दौर में डेमोक्रेसी भी एड मैनेजमेंट का एक जरूरी सब्जेक्ट है, उस दौर के लिए इतनी बात तो जरूर कही जा सकती है लोकतंत्र की बेहतरी के लिए एक जरूरी रचनात्मक हस्तक्षेप की भूमिका बन चुकी है। अब तो बस इसके आगे के अध्याय लिखे जाने हैं। 
जेपी बिहार आंदोलन के दिनों में अकसर कहा करते थे कि जनता को 'कैप्चर ऑफ पावर’ के लिए नहीं बल्कि 'कंट्रोल ऑफ पावर’ के लिए संघर्ष करना चाहिए। यही बात आज प्रकारांतर से अण्णा हजारे कह रहे हैं। यही नहीं राजनीति की जगह लोकनीति और सत्ता के विकेंद्रीकरण की बात अब फिर से होने लगी है। असंतोष की बात यह है कि लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के इन जरूरी मुद्दों को गिनाने वाले मुंह और खुले मंच तो आज कई हैं पर आमतौर पर इनका सरलीकृत भाष्य ही परोसा जाता है। 
यह सरलीकरण खतरनाक इसलिए है क्योंकि इसमें एक्टिविज्म और मार्केट फोर्सेज की सरपरस्ती को एक साथ स्वीकार है। यह मलेरिया के मच्छर और उसके टीके को एक साथ लेकर चलने जैसी स्थिति है। यह एक छल है। यह छल ही है जो एक तरफ तो अमिताभ और सचिन के स्टारडम को पाए की तरह खड़ा करता है, वहीं दूसरी तरफ लोकनायक जैसी शख्सियत को भूलने की चालाक दरकार को भी अमल में लाता है। बदलाव न तो बिकाऊ हो सकता है और न चलताऊ। इसे एक चैरिटी की तरह भी आप नहीं चला सकते हैं। बदलाव एक कसौटी है जो विचार, उसकी दरकार और आचरण को एक कलेक्टिव एक्शन की शक्ल देता है। आज अगर कुछ मिसिंग है तो यही कलेक्टिव एक्शन। 
जेपी की लोकनीति और उसके लिए बनी लोक समिति ने कार्यकारी रूप में अपना प्रभाव भले न छोड़ा हो पर उनका यह सबक तो आज भी प्रासंगिक है कि ग्रामसभा से लोकसभा तक का लोकतांत्रिक पिरामिड देश में उलटा खड़ा है। इसमें सत्ता का केंद्र और इसकी नियामक ताकतें प्रातिनिधिक लोकतंत्र के नाम पर दिल्ली, मुंबई या लखनऊ, पटना जैसी राजधानियों में हैं। 
ग्राम पंचायतों का सशक्तिकरण देश में लोकतंत्र के प्रातिनिधिकता के ढ़ांचे को प्रत्यक्ष सहभागिता के ढ़ांचे में बदल सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि विधानसभा या लोकतसभा की तरह ग्रामसभा कभी विघटित नहीं होती। इसका अस्तित्व हमेशा कायम रहता है और संबंधित क्षेत्र के अठारह साल से ऊपर के सभी नागरिक इसके आजीवन सदस्य हैं। नीति और विधि की दरकारों को सरकारें अगर इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक इकाई के सहभाग से तय करें तो इसमें पूरे देश का लोकतांत्रिक सहभाग होगा और यह नीतियों और कानूनों के अमल का स्पष्टधरातल तैयार करेगा। जेपी ने बिहर आंदोलन के दौरान ये बातें चीख-चीखकर कहीं। आज अण्णा हजारे और उनके साथ या अलग हुई जमातें चुनाव सुधार और लोकतांत्रिक सुधार का जो एजेंडा देश के सामने रख रहे हैं, उसमें भी ये बातें शामिल हैं। पर न तो देश का मीडिया और न ही देश में पिछले दो-तीन दशकों में तैयार हुई एक्टिविस्टों की जमात इन बातों को जनता के बीच खुलकर सामने ला पा रही हैं, उन्हें समझा पा रही हैं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम अपने आइकनों को गढ़ने और उन्हें मान्यता देने में फौरी और बाजारवादी तकाजों की गिरफ्त में होते हैं। जबकि एक देश के जीवन में परंपरा और इतिहास के भी कुछ सबक जरूरी हैं। जेपी ऐसे ही एक सबक का नाम है, जिनको भूलने का मतलब लोकतांत्रिक सुधार की प्रक्रिया को एक तदर्थ नियति की तरफ ले जाएगा। क्या राहुल गांधी या नरेंद्र मोदी जैसे नायक इस तदर्थवाद के खतरे को समझेंगे? 


सोमवार, 9 सितंबर 2013

ऐसे तो बनने से रहा वेलफेयर स्टेट


क्या देश वेलफेयर स्टेट बनने की तरफ लौट रहा है? दरअसल, यह सवाल या बहस का मुद्दा नहीं है बल्कि यह तो उस गफलत का नाम है जो बड़े तार्किक तरीके से लोगों के मन में उतारी जा रही है। सूचना, शिक्षा और रोजगार के अधिकार (मनरेगा) के बाद खाद्यान्न सुरक्षा को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दिखाकर मनमोहन सरकार ने इस गफलत या मुगालते को बतौर सियासी हथियार और चोखा कर लिया है। वैसे देश में जो आर्थिक सूरत है, उसमें इस मेगा योजना के कारण कहीं पूरी इकोनमी ही धराशायी न हो जाए, यह खतरा भी कई अर्थ पंडितों को दिख रहा है। बहरहाल, राजनीति और सरोकारों की भावुक समझ रखने वालों को तो यह लग ही सकता है कि एक सरकार अगर स्कूल में गरीब बच्चों के खाने से लेकर उसके परिवार के लिए काम और रोटी तक की फिक्र कर रही है तो इस व्यवस्था को कल्याणकारी क्यों न कहा जाए। इस भावुक दरकार पर खरा उतरने से पहले जरूरी है यह समझ लेना कि सामथ्र्य देने या बांटने में नहीं बल्कि शक्ति, अधिकार और उद्यम का विकेंद्रित ढांचा खड़ा करने में है।
बदकिस्मती से ये मुद्दा अलग-अलग संदर्भों में आजादी के समय भी खड़ा हुआ, फिर जयप्रकाश आंदोलन के दौरान और हाल में सिविल सोसाइटी द्बारा। पर तीनों ही मौकों पर सरकार और उसकी केंद्रित शक्ति को थामने की सियासी लालसा रखने वाली जमात ने इसकी अनदेखी की। दरअसल, इस दरकार पर खरा उतरने का मतलब है जनता पर राज करने और फिर उस पर कृपा बरसाने की राजसी शैली का खारिज होना।
इस संबंध में एक प्रसंग की चर्चा जरूरी है। गांधी ने जो राष्ट्र निर्माण की कल्पना की थी, उसे उनके आलोचक अव्यावहारिक और थोथा आदर्शवाद बताते रहे हैं। आर्थिक समझ को लेकर तो गांधी को आमतौर पर गंभीरता से लिया ही नहीं जाता। पर वस्तुत: ऐसा है नहीं। दरअसल, राष्ट्रपिता को लेकर ऐसा मानस बनाने वालों में वे तमाम लोग शामिल हैं, जिन्हें सत्ता के गलियारे में अपनी आवाजाही बनाए रखना सबसे जरूरी जान पड़ता है। सत्ता की ताकत से न तो लोकतंत्र की ताकत बढ़ती है और न ही इससे कोई कल्याणकारी मकसद हासिल किया जा सकता है। गांधी ने इसीलिए आजादी मिलते ही कांग्रेस के विसर्जन की भी बात कही थी। उनके अनन्य और प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जेसी कुमारप्पा की एक किताब है-'द इकोनमी ऑफ परमानेंस’। दुनियाभर के आर्थिक विद्बानों के बीच इस किताब को बाइबिल सरीखा दर्जा हासिल है। आज अमत्र्य सेन और ज्यां द्रेज सरीखे अर्थशास्त्री जिस कल्याणकारी विकास की दरकार को सामने रखते हैं, उसके पीछे का तर्क कुमारप्पा की आर्थिक अवधारणा की देन है। कुमारप्पा इस किताब में साफ करते हैं कि विकेंद्रित स्तर पर 'संभव स्वाबलंबन’ को मूर्त ढांचे में तब्दील किए बिना देश की आर्थिक सशक्तता की मंजिल हासिल नहीं की जा सकती है। पर निजी क्षेत्र की केंद्रित पूंजी की अठखेली के लिए 'सेज’ बिछाने वाली सरकारों को इन सरोकारों से कहां मतलब कि जनता तक मदद के हाथ पहुंचने से ज्यादा जरूरी है, वह भरोसा और हक, जिसमें वह अपने बूते अपनी जिम्मेदारियों का वहन कर सके।
समावेशी विकास का जो नया जुमला देश में उछला है, उसके पीछे वजह यही रही है कि वर्टिकल ग्रोथ के दौर में विकास की चादर इतनी सिकुड़ती चली गई कि देश की बड़ी आबादी का हिस्सा उससे बाहर ही रह गया। आंकड़ों में किसानों की आत्महत्या और गरीबी की जो भयावह तस्वीर उभरी है, वह विकास की उदारवादी व्यवस्था पर सामने से उंगली उठाती है। नागरिक अस्मिता को महज एक उपभोक्ता की हैसियत में बदल देने वाले मनमोहनों से पूछना चाहिए कि आजादी के आसपास जब डॉलर और रुपए की हैसियत तकरीबन बराबर थी, फिर अर्थ के कल्याणकारी मार्ग को छोड़कर महज आवारा निजी पूंजी के लिए उदार राह क्यों चुनी गई? क्या यह एक बड़ी आबादी वाले देश की श्रमशक्ति और पुरुषार्थ के प्रति अविश्वास नहीं है कि उनके बूते विकास की तस्वीर मुकम्मल नहीं हो सकती।
ऐतिहासिक रूप से देखें तो आजादी के बाद सरकार की जो नीतिगत समझ थी उसमें विकास को सार्वजनिक उपक्रमों के जरिए वह आगे बढ़ा रही थी, उस दौरान भी कल्याणकारी अर्थव्यवस्था और राज व्यवस्था की बात होती थी। दस साल पहले तक सरकारी पाठ्यपुस्तकों में इस बारे में सैद्धांतिक समझ विकसित करने के लिए बच्चों के लिए अलग से पाठ तय थे। पर बाजार का दौर आते-आते देश की पूरी व्यवस्था ने जो बड़ी करवट ली, उसमें पुरानी लीक नई सीख के आगे छोटी पड़ गई। नई दरकारों ने नए सरोकारों की जमीन तैयार कर दी। शुरुआत यहां से हुई कि जनकल्याणकारी होने के नाम पर सरकार अपने कंधे पर अतिरिक्त बोझ न उठाए। तालीम की सरकारी व्यवस्था से लेकर सार्वजनिक उपक्रमों की उपेक्षा ने देश में निजी क्षेत्र की ताकत को रातोंरात खासा बढ़ा दिया।
अब तो आलम यह है कि बिजली-पानी-सड़क मुहैया कराने तक में सरकार ने अपने हाथ समेटने शुरू कर दिए हैं। बात इतने पर ही थमती तो भी गनीमत थी। सरकार ने तो बजाप्ते निजी समूहों के लिए जमीन अधिग्रहण से लेकर तमाम वित्तीय सहूलियतें देने की जवाबदेही अपने कंधों पर उठा रखी है।
गरीबों की फिक्रमंदी में तारीख रचने का दंभ भरने वाली यूपीए सरकार से कोई पूछे कि जिस एजेंडे को वह जनहित में लागू करने में जुटी है क्या वह जनता के स्तर पर या उसकी मांग पर तय हुए हैं। जनता अपना सरोकार जिन मुद्दों पर दिखा ही नहीं रही है सरकार उस पर आगे क्यों बढ़ रही है? फिर इसे कोई महज वोट पॉलिटिक्स कहे तो इसमें गलत क्या है? सस्ता राशन या मुफ्त भोजन का लालच एक वोटर को महज वोटर कहां रहने देता है। कम से कम पिछले चार सालों में देश को जिन मुद्दों ने सबसे ज्यादा झकझोरा है, उनमें भ्रष्टाचार, महंगाई और महिला असुरक्षा का मुद्दा सबसे ऊपर रहा। इन मुद्दों को लेकर जनता एकाधिक बार सड़कों पर उतरी और वह भी बिना किसी सियासी छतरी में खड़े हुए बिना। उनके हाथों में कुछ था तो बस कुछ मांगें और मार्मिक आह्वान की तख्तियां या फिर तिरंगा। पर इनमें से किसी मुद्दे से मुठभेड़ को सरकार तैयार नहीं है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लोकपाल संस्था को खड़ा करने की उसकी कवायद का तो हश्र यही है कि सरकार अपने अब तक के कार्यकाल में खुद कई बड़े भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरती रही है। आलम यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने दागी चरित्र के लोगों की सांसदी-विधायकी जाने की बात कही और उनके चुनाव लड़ने तक पर सवाल उठा दिए तो सरकार तो क्या पूरी पॉलिटिकल क्लास उसके तोड़ को लेकर सहमत हो गई। नैतिकता के इतने मजबूत जोड़ के साथ वेलफेयर तो दूर, कुछ भी फेयर रहना मुश्किल है।

सोमवार, 2 सितंबर 2013

ओम पुरी का अर्ध सत्य

चेहरा खुरदरा। पर आवाज इतनी वजनदार कि कहीं भी एक जोशीली मौजूदगी के एहसास से भर दे। सार्थक सिनेमा का मनोरंजक प्रहसन में बदलना और ओमपुरी की जिंदगी एक-दूसरे के लिए आईने की तरह रहे। कभी चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी कराने से इनकार कर फिल्मी दुनिया में काम करने के अलिखित करारनामे को चुनौती देने वाले इस अभिनेता की गृहस्थी आज कई चुनौतियों से घिर गई है। उनकी बोलते-बोलते बहकने की आदत से तो देश की संसद तक परिचित है पर वे घर में इससे भी ज्यादा विचलन के शिकार हैं, यह आरोप उन पर उनकी पत्नी नंदिता का है। 
अपनी शिकायत में नंदिता ने पति पर हिंसक होने और आर्थिक रूप से परेशान करने का आरोप लगाती हैं। ओमपुरी की सफाई इस पर नकार से भरी है। वे उलटे कहते हैं कि नंदिता एग्रेसिव नेचर की है और मेरे अस्वस्थ होने के बावजूद वह पैसे लुटाने और विदेशों में छुट्टियां बिताने के शौक को हर हाल में पूरी करती रही है। ऐसे मामलों में सत्य इधर या उधर की जगह कहीं बीच में टिका होता है। यानी हर पक्ष का सत्य आधा-अधूरा होता है। इसलिए किसी तुरत-फुरत नतीजे पर पहुंचना खतरे से खाली नहीं। हां, इतना जरूर है कि पर्दे पर संवेदना की इंच-इंच जमीन सींच देने वाले इस बड़े कलाकार की यह गत देखकर अफसोस तो होता ही है। 
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब ओम पुरी अंबाला में अपने नए बनाए घर को कुछ पत्रकार मित्रों को दिखाकर खुश हो रहे थे। वे थोड़ी भावुकता से बता रहे थे, 'रिटायरमेंट तो अपनी माटी-पानी के साथ ही बीतना चाहिए।...बहुत हो गया मुंबई-मुंबई और अब नहीं।’ पर लगता है कि जीवन की थकान को जिस ठहराव की ओर वे ले जाना चाहते हैं, वह संयोग उनकी कुंडली में ही नहीं है। नहीं तो एक के बाद एक ऐसी खबरें या घटनाएं सामने नहीं आतीं जो इस कलाकार के कद से पूरी तरह बेमेल हों।
1946 में अंबाला में एक साधारण से परिवार में जन्मे ओम पुरी सिनेमा की दुनिया में थिएटर के रास्ते दाखिल हुए। नसीरुद्दीन शाह और वे एक ही खेप के कलाकार हैं। तीस साल की उम्र में उन्होंने अपनी पहली फिल्म की 'घासीराम कोतवाल’। मेहनाताना मिला मूंगफली का एक डोंगा। तब सार्थक फिल्मों का दौर था और इनका बजट इतना कम होता था कि बस जैसे-तैसे फिल्म पूरी हो पाती थी। निर्माता, निर्देशक या कलाकार के हिस्से कुछ आता था सम्मान और चर्चा जो उनकी फिल्म और उसमें उनके प्रदर्शन को लेकर होती थी। इस दौर की सुनहली इबारतों को लिखने वालों में ओम पुरी का नाम काफी ऊपर है। पर इस कलात्मक संतोष ने ही उस असंतोष को जन्म दिया, जिसका निदान ढूंढने वे व्यावसायिक फिल्मों की तरफ निकल पड़े। 
पैसा और सुविधा के बिना नई 'उदार दुनिया’ आपके जीने के लिए कितने मुश्किलात खड़ी करती है, ओम पुरी का फिल्मी सफरनामा इसे बयां करता है। अलबत्ता फिल्मी ग्लैमर और स्टार इमेज की चौंध के बीच भी कहीं कुछ सार्थक बचाया जा सकता है, यह मुमकिन भी इसी सफरनामे का हिस्सा है। विडंबना इस बात को लेकर ज्यादा है कि सादगी, समन्वय और सिनेमा के कठिन त्रियक को समान भाव से नापने वाले इस अप्रतीम कलाकार के निजी जीवन में यही समन्वय नहीं बन पाया। 
प्रेम और परिवार के साझे को पूरा करने वाले भरोसे पर संभव है कि ओम पुरी अपनी पत्नी से ज्यादा खरे नहीं उतरे हों, पर इसका क्या कि इससे एक बड़ी कलात्मक संभावना और उसकी यात्रा असमय ही 'सद्गति’ को प्राप्त कर जाए। अगर ऐसी ही कुछ सूरत ओम पुरी की जिंदगी की है तो उस पर अफसोस तो किसी भी कलाप्रिय और संवेदनशील आदमी को होगा। 


 

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

आहत रुपया

आपकी अंटी में मेरी मौजूदगी नई नहीं है। नई बात तो है वह गिरावट जो मेरी हैसियत में आई है। मंडी-हाट में मेरी आमद-रफ्त पुरानी है। पर अब तो जिक्र बाजार का होता है। मंडियों की गद्दियों पर बैठने वाले सेठ-साहूकार तो बीते जमाने की बात हो गए। अब तो मेरी हैसियत का 'अर्थ’ बताते हैं बाजार के पंडित। अर्थ आज पूरी एक व्यवस्था है।
भूमंडलीकरण की छतरी के नीचे बैठे तमाम आर्थिक दिग्गज जब यह बताते हैं कि मेरी सेहत तारीखी तौर पर बिगड़ रही है तो हैरत मुझे भी होती है। मैं नहीं चाहता कि मुझे कोई जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना दे पर इतनी कामना तो मेरी भी है कि मेरे आगे यह साफ हो कि क्या मैं सचमुच काफी कमजोर हो गया हूं या फिर कोई मुझसे ज्यादा मजबूत है इसलिए उसके सामने मुझे पिद्दी बताया जा रहा है। मैं जानता हूं आंखों पर बड़े फ्रेम का चश्मा चढ़ाकर मेरा बुखार मापने वाले मुझे बस जल्द स्वस्थ होने की शुभकामना ही देंगे। वे यह नहीं बताएंगे कि मुझे जिन महाबलियों के आगे लगातार कमजोर सिद्ध किया जा रहा है, उनकी बढ़ी ताकत के पीछे राज क्या है।
मैं कोई मूढ़ नहीं बल्कि तालीमशुदा हूं। मुझसे यह बात छिपी नहीं कि मेरा कद और मेरी वकत डॉलर के मुकबले आंकी जा रही है। यह मुकाबला मेरा चुनाव नहीं है। मुझे इस मुकाबले में उतरना पसंद भी नहीं। मैं तो उलटे सवाल करना चाहूंगा देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का दिलासा दिलाने वाले तमाम 'मनमोहनों’ से कि उन्होंने मेरी इज्जत दूसरों के सामने यों क्यों उछाली। देश की आजादी के आसपास तो डॉलर की भी वही हैसियत थी जो मेरी। फिर पिछले छह दशकों और खासकर हालिया दो-तीन दशकों में ऐसा क्या हो गया कि डॉलर दुनियाभर की मुद्राओं के लिए एक पैमाना बन गया। क्या यह मुनासिब है? और यह मुनासिब है तो बगैर मेरी ताकत के यह देश आर्थिक महाशक्ति होने का दावा क्या हवा में कर रहा है। अगर देश की मुद्रा की इकाई ही कमजोर है तो फिर वह देश समृद्धि और विकास की दहाई, सैकड़ा, हजार... की दूरी कैसे पूरी कर सकता है। यह अर्थ का ज्ञान नहीं अनर्थ करने की सनक है। और मुझे ऐसे सनकी अगर बख्श ही दें तो अच्छा होगा।
जब कभी मेहनत और पसीने का फल होने की इज्जत मुझे दी जाती है तो मेरे साथ मेरे धारकों को भी फL और संतोष होता है, अपने स्वाबलंबन का, अपने पुरुषार्थ का। आज तो मेरे चेहरे को भी काला-सफेद कर दिया गया है। कई तिजोरियों में मैं काले धन के तौर पर सिसक रहा हूं तो कहीं सफेद होने के बावजूद गरीबी रेखा के नीचे दुबके रहने पर मजबूर हूं।
एक शिकायत मेरी उन तर्कवीरों से भी हैं जो अपनी अगाध राष्ट्र आस्था के नाम पर यह सवाल उछाल रहे हैं कि क्या कमजोर रुपया मतलब कमजोर राष्ट्र है? मैं खुद के कभी सोने या तांबे-पीतल होने को लेकर कोई अकड़ नहीं रखता। पर इतना मुझे भी पता है कि अगर देश के तिरंगे को कमजोर कहने की हिमाकत राष्ट्रीय अपराध है, देश की सेना को कायर कहना राष्ट्रद्रोह है तो देश के करोड़ों मेहनतकशों की कमाई की कीमत को भी कमतर आंकना राष्ट्रीय जुर्म है।
मेरी जन्मकुंडली और हैसियत का हिसाब रखने वाले उस दिन बहुत खुश थे जब मुझे नाम और छवि को पीछे महज एक 'चिह्न’ का दर्जा दिया गया। पांच मार्च 2००9 का वह दिन मनाया तो वैसे मेरे अभिनंदन दिवस के रूप में था पर यह दिन मेरे लिए क्षोभ से भर देने वाला रहा। जिस दौर में डॉलर की पूरी इकोनमी डूब रही थी, मैंने देश को 'अर्थवान’ बनाए रखा। आज उसी कुबड़े डॉलर के चिह्न के आगे मुझे एक कमजोर हैसियत के साथ पस्तहाल दिखाया जाता है तो यह आघात लगता है। बहरहाल यह देश के तिजोरी मंत्री और प्रधानमंत्री पर ही है कि वे मेरी हैसियत और रुतबे से डॉलर को और कितना खेलने देते हैं?

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रविवार, 25 अगस्त 2013

मीडिया और नियमन



मीडिया और नियमन। बहस का यह मुद्दा पिछले कुछ सालों में देश में जिस तरह उठा है, उसके एक नहीं बल्कि कई निहितार्थ हैं। सरकार का एक बड़बोला मंत्री जब यह कहता है कि बार काउंसिल के लाइसेंस की तरह पत्रकारिता के क्षेत्र में उतरने से पहले पत्रकारों को लाइसेंसशुदा होना जरूरी होना चाहिए तो समझ में यही बात आती है कि यह सुझाव से ज्यादा चिढ़ है देश की मीडिया के प्रति। यह चिढ़ पूर्वाग्रहग्रस्त भी है।
दरअसल, 21वीं सदी लोकतांत्रिक संस्थाओं के लिए कई नई चुनौती लेकर आई है। इस सदी के दूसरे दशक से तो इन चुनौतियों ने सड़कों पर अपने तेवर एकाधिक बार दिखाए। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो कि संसद और जनता के बीच सर्वोच्चता को लेकर छिड़ी बहस, इन तमाम सवालों पर जनता घरों से बाहर निकली। और वह भी बिना किसी राजनीतिक छतरी के नीचे आए। जो सूरत बनी उसमें लोकतांत्रिक सशक्तिकरण की असीम संभावनाएं थीं। ये संभावनाएं आज भी बहाल हैं। इसी दौर में देश और राज्यों की राजधानियों में बैठे जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों और उनके समर्थन से बनी सरकारों को लगने लगा कि यह प्रखर नागरिक चेतना उनके पूरे अस्तित्व को मिट्टी की भीत की तरह भर-भराकर गिरा देगी। लिहाजा इस नागरिक सशक्तिकरण को तीव्र और प्रभावी बनाने वाले हाथ को मरोड़ा जाए। मीडिया इसी हाथ का नाम है। लोकतंत्र का चौथा खंभा कहकर जिसे सरकारें अब तक इज्जत तो बख्शती रही हैं पर उसकी अतिशय संलग्नता और तत्परता को कभी गले नहीं उतार पाई हैं। इमरजेंसी के दिनों में इसका सबसे क्रूर रूप हम देख चुके हैं।
जनता के लिए लोकतांत्रिक साझेदारी का मतलब सिर्फ पांच साल में एक बार मतदान केंद्र के बाहर कतार में खड़े होना भर नहीं है। उसकी साझेदारी तो इससे आगे की है और इसी दरकार ने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को जन्म दिया है। पर दुर्भाग्य से इस दरकार को निर्वाचित जनों और संस्थाओं ने अपने लिए ज्यादा सुरक्षित बनाने का उपक्रम बना लिया और अब तो सूरत यह है कि जनता की लोकतांत्रिक प्रतिभागिता पूरी व्यवस्था में इतनी भर रह गई है कि उसके नाम पर भले सब कुछ होता है पर उसकी मर्जी का कुछ भी नहीं। अखबारों-टीवी चैनलों के बढ़े प्रसार के साथ सोशल मीडिया के नए दमखम ने दुनिया भर के शासक वर्ग के सामने अनुशासन और अनुशीलन का दबाव बढ़ाया है। भारत में इस खतरे को बढ़ते देख सरकार ने कई बार अलग-अलग तरीके से मीडिया पर आंखें तरेरी हैं, उसकी आलोचना की है। चूंकि देश सेंसरशिप और इमरजेंसी के दौर से काफी आगे निकल आया है इसलिए आज मीडिया के मुंह पर जाबी पहनाने की हिमाकत तो शायद ही कोई करे। पर अगर कोई यह कहे कि पत्रकारों के भी लाइसेंस बनने चाहिए, उनके लिए भी एप्टिट्यूड टेस्ट होने चाहिए तो इतना तो लगता ही है कि उसे देश के पत्रकारिता आंदोलन के बारे में जानकारी थोड़ी कम है।
अगर हम बात करें प्रिंट मीडिया की तो देश में पत्रकारिता के लिहाज से दो दौर खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं। एक आजादी से पूर्व का दूसरा ग्लोबलाइजेशन के बाद का। अगर एक पराधीन देश की जनता ने जिद पर आने पर दुनिया की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी सत्ता की चूलें हिलाकर रख दीं तो उसके पीछे देश की भाषाई पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ था। साहित्यकारों-पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी ने देश के आत्मसम्मान को जगाया और स्वाधीनता की ललक जन-जन में पैदा की। बाद में ग्लोबलाइजेशन के दौर में लगने लगा कि खुरदरे कागजों पर खबर पढ़ने का दौर अब पीछे छूट जाएगा क्योंकि उपभोक्तावादी सनक के साथ टीवी चैनलों की खुलती छतरियों और इंटरनेट के बढ़े जोर के बाद इतनी फुर्सत किसे होगी कि वह घर में बैठकर अखबार बांचे। पर हुआ ठीक इसके उलटा। भाषाई पत्रकारिता ने इस दौर में अपना सबसे बड़ा आरोहण दिखाया। प्रसार के साथ कमाई दोनों में उसने कुबेरी आख्यान रचे। और यह सफलता उस देश में मायने रखती है जहां सरकार को अभी सर्वशिक्षा का प्रण ही दोहराना पड़ रहा है।
ऐसी स्थिति में महज इस कारण से कि जनता के मुद्दे अगर मीडिया की ताकत के साथ देश का एजेंडा बनने लगे तो खतरनाक है, यह सोच कमजोर सत्ता प्रतिष्ठानों में ही उभर सकती है। एक गांधीवादी सामाजिक कार्यकताã के अनशन के आगे मजबूर होकर जब देश की संसद को अपनी कार्यवाही चलानी पड़ी, प्रस्ताव पारित करने पड़े तो उसके साथ यह भी साफ हो गया कि लोकमत और मीडिया के साझे से देश में लोकतंत्र की नई लहर शुरू हो सकती है। फिर क्या था, नेताओं के एक के बाद एक बयान आए कि मीडिया ने अण्णा आंदोलन को ओवरएक्सपोज किया। यही स्थिति तब भी सामने आई जब पिछले साल दिसंबर में दिल्ली में चलती बस में एक युवती के साथ की गई बर्बरता के खिलाफ पूरे देश के युवा आक्रोशित होकर घरों से बाहर आए।
देश की राजनीतिक जमात को अभी तक यही लगता रहा है कि उनके मुद्दे और उनकी सोच और पहल से ही देश में लोकतंत्र की गाड़ी आगे बढ़नी चाहिए। जनता बस इस गाड़ी में सवारी की तरह बैठ जाए, वह ड्राइविंग सीट पर आने की हिमाकत ना करे। यहां तक कि प्रेस परिषद के मुखिया जस्टिस काटजू जैसे लोगों के दिमाग में भी यही बात आती है कि पत्रकारिता के पेशे में कूप-मंडूक लोग भरे पड़े हैं।
नक्सल हिंसा से लेकर किसानों की आत्महत्या तक को लेकर जमीनी रिपोर्टों और इन पर बहस का दुस्साहस देश के पत्रकारों ने दिखाया है। इस कवरेज के साथ प्रबंधकीय मुठभेड़ भी पत्रकारों को करनी पड़ी है। बावजूद इसके आज अगर भ्रष्टाचार को लेकर केंद्र से लेकर कई सूबों की सरकारें हलकान हैं तो उसके पीछे भी मीडिया की चौकस नजर ही है। पिछले दो-तीन सालों में चले नागरिक सशक्तिकरण के अभिक्रम को भी मीडिया का संबल इसलिए मिला क्योंकि यह समय की मांग है। देश की राजनीतिक बिरादरी अगर आज जनता की नजरों में अपना इकबाल खोती जा रही है तो उसकी वजह ये लोग खुद हैं। आप आईने पर यह दबाव नहीं डाल सकते कि वह आपको मनमाफिक तरीके से दिखाए। यह बात मनीष तिवारी के साथ उन तमाम लोगों को समझनी चाहिए जिन्हें उनके जैसा बोलना-सोचना अच्छा लगता है। यह बात उन जस्टिस साहब को भी समझनी चाहिए जिन्हें मीडिया मीडियाकरों की जमात लगती है और देश के नब्बे फीसद लोग जाहिल। परिवर्तन का हरकारा इस देश में मीडिया हमेशा रहा है और आज उसके लिए कई बिजनेस कंपल्शन बढ़ जाने के बावजूद अगर उसके भीतर यह जज्बा बहाल है, फिर तो सूचना और खबरों के इस पूरे तंत्र को सलाम। नियमन और लाइसेंस की दरकार तो वहां ज्यादा है जहां निर्वाचित निर्वाचकों के स्वयंभू स्वामी बने फिर रहे हैं।

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सोमवार, 19 अगस्त 2013

ई-आजादी को सलाम!


देश में आजादी के मायने अब नए मुकाम पर हैं, उतने संकुचित नहीं जितने पिछले दशक तक थे। सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी को नए आयाम दिए हैं। दुराग्रह के दौर में अन्ना हजारे के सत्याग्रह की बात हो या फिर जनता और संसद के बीच लोकतांत्रिक सर्वोच्चता पर बहस, पिछले दो-तीन सालों में इनकी जड़ में ई-आजादी यानी सोशल मीडिया ही रहा।
अरब बसंत की सफलता-विफलता से अलग है भारत में सोशल मीडिया का विस्तार और इस्तेमाल। कुछ साइबर पंडितों की नजर में भारत में ई-क्रांति का संदर्भ ज्यादा मौलिक और भरोसेमंद है। तहरीर चौक की क्रांति की मशाल अभी बुझी भी नहींं कि प्रतिक्रांति की लपट ने पिछली सारी इबारतें उलट दीं।
अभी उत्तराखंड में जो विपदा आई, उसमें देश के किसी नेता या दल से ज्यादा जवाबदेह भूमिका रही सोशल मीडिया की। इसने न सिर्फ आपदाग्रस्त इलाके की खबर दी बल्कि घर-परिवार से बिछड़े लोगों को मिलवाने में भी बड़ी भूमिका अदा की। खुद उत्तराखंड के लोग सामने आए और उन्होंने फेसबुक पेज और ब्लॉग संपर्क के जरिए लोगों की मदद के लिए राशि जुटाई।
इसके अलावा पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद सोशल मीडिया यानी अभिव्यक्ति की उन्मुक्त आजादी ने सरकार के घुटने टिकवा दिए। उसने महिला सुरक्षा को लेकर सरकार को सख्त कानूनी पहल करने के लिए बाध्य किया।
दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के बाद दलित लेखक कंवल भारती की सरकार विरोधी टिप्पणी पर उनकी गिरफ्तारी का मामला हो या बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद दो लड़कियों की टिप्पणी पर उनके खिलाफ भड़का सरकारी आक्रोश, सत्ता और सियासत को ये ई-मुखरता रास नहीं आती। केंद्र सरकार तक के स्तर पर सोशल मीडिया की मुखरता पर पहरे बैठाने की कोशिशें अगर चलती रही हैं, तो उसकी भी यही वजह है। पर स्वतंत्रता के इस पर्व पर ई-आजादी से आ रहे बदलाव को भी सलाम करना चाहिए।

रविवार, 18 अगस्त 2013

कुछ कहता है यह संन्यास


एक बड़ी सफलता पाना और फिर पूरी होड़ से बाहर हो जाना। ऐसा कोई भी फैसला सबसे पहले तो चौंकाता है। फिर इसे हम सीधे-सीधे पलायनवादी फैसला भी नहीं कह सकते हैं। अलबत्ता यह जानने की दिलचस्पी जरूर बढ़ जाती है कि ऐसे हठात निर्णय के पीछे असली वजह क्या रही होगी। फ्रांस की टेनिस स्टार मरियन बार्तोली को लेकर इन दिनों ऐसी ही कुछ बातें हो रही हैं। 28 साल की बार्तोली ने हाल ही में विंबलडन में महिला एकल का खिताब अपने नाम किया था। लोगों की निगाहें अब इस बात पर थी कि क्या बार्तोली यूएस ओपन में भी अपनी जीत का सिलसिला बना रख पाएंगी। लोग अभी इस बारे में कयासबाजी में ही लगे थे बार्तोली ने खेल से संन्यास लेने का फैसला लेकर सबको चौंका दिया। यूरोपियन मीडिया में इस पर काफी कुछ लिखा-कहा जा रहा है। बार्तोली ने इस बारे में सिर्फ इतना कहा है,'मैंने यह फैसला आसानी से नहीं लिया है।’
फैसला लेने की जो बड़ी वजह बार्तोली ने बताई वह चोट और दर्द से बढ़ी परेशानी थी। पर लोग मानने को तैयार नहीं हैं कि वजह इतनी भर होगी। कुछ और बातें भी इस दौरान चर्चा में आईं। विंबलडन में बार्तोली के मैदान में उतरने से करीब घंटे भर पहले बीबीसी के कमेंटेटर जॉन इनवरडेल ने एक भद्दी टिप्पणी की। इनवरडेल ने कहा, 'वह कम से कम अपनी संुदरता के लिए तो नहीं जानी जाएगी।’ बाद में इस मामले में बीबीसी को बार्तोली से माफी मांगनी पड़ी। एक 28 साल की महिला के खेल जीवन की सार्वजनिकता में प्रताड़ना और मानसिक रूप से ठेस पहुंचाने के मौके कितने आते होंगे, यह इस प्रकरण से जाहिर है।
फ्रांस की इस स्टार टेनिस खिलाड़ी ने जरूर कहा है कि उसने शरीर पर कई चोट और दर्द से आजिज आकर टैनिस रैकेट रखा है। पर मुमकिन है कि उसके मन पर और भी कई घाव हों। खेल और ग्लैमर का साझा अब जरूरी है। इसकी अवहेलना करके कोई आगे बढ़ना चाहेगा तो शायद वह उसी हश्र तक पहुंचेगा जहां बार्तोली पहुंची हैं। हालांकि ऐसे किसी निष्कर्ष पर बार्तोली खामोश हैं।
आम महिला टेनिस खिलाड़ियों के मुकाबले थोड़े ठिगने कद की बार्तोली का जन्म दो अक्टूबर 1984 को हुआ। 16 साल की उम्र में उसने यह तय कर लिया कि उसकी जिंदगी का मैदान टेनिस कोर्ट ही होगा। इससे पहले उसके पिता उसे डॉक्टर बनाना चाहत ेथे। बाद में पिता को भी बार्तोली का फैसला सही लगा। पिता ही उसके टेनिस कोच बने। पिता और बेटी का गुरु-शिष्या का संबंध बेटी के खेल जीवन को अलविदा कहने तक जारी रहा। अपने अब तक के करिअर में बार्तोली ने आठ डब्ल्यूटीए सिंगल और तीन डबल्स के टाइटल जीते। अभी वह दुनिया की सातवें नंबर की टेनिस खिलाड़ी हैं।
इस शिखर आरोहण में जिस एक बात से बार्तोली हमेशा दूर रही वह थी ग्लैमर और गॉसिप की दुनिया। उनसे जब इनवरडेल की टिप्पणी के बारे में पूछा गया तो उसने न चाहते हुए भी यह कह दिया कि वह मॉडल अगर बन नहीं सकतीं तो बनना चाहती भी नहीं। उसे चैंपियन बनना था और वह उसने बनकर दिखा दिया। गौरतलब है कि इनवरडेल ने अमर्यादित तरीके से बार्तोली के चेहरे और कद के साथ टांगों तक पर अश्लील टिप्पणी की थी। कहना नहीं होगा कि इस स्टार टेनिस खिलाड़ी के संन्यास ने खेल और पुरुष मानसिकता के बीच महिला अस्मिता की सुरक्षा के मुद्दे को कहीं न कहीं चर्चा में ला दिया है।
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सोमवार, 12 अगस्त 2013

अनर्थ रोको रघुराम


रघुराम राजन। एक अनसुना नहीं तो बहुत जाना-सुना नाम भी नहीं। पर यह सच कल तक का था। अब तो राजन चर्चा में हैं। आखिर उन्हें रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का नया गवर्नर जो नियुक्त किया गया है। स्वभाव से मितभाषी और एकेडमिक माने जाने वाले राजन के लिए यह खुशी के साथ फL का मौका है। वैसे उन्हें अपने ऊपर आने वाली चुनौतियों का भी भान है। जिस दिन आरबीआई के नए गवर्नर के रूप में उनके नाम का ऐलान हुआ, उसी दिन सेंसेक्स ने 449 अंकों का गोता लगाया । रुपया तो लुढ़ककर डॉलर के मुकाबले अपनी सबसे कमजोर स्थिति में आ गया।
ऐसे में भी राजन ने अपनी तरफ उम्मीद से देखने वालों को किसी खुशफहमी में नहीं रखा। सीधे-सीधे कहा, 'मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं है।’ दरअसल, यह नाउम्मीदी के बोल नहीं, बड़बोला होने से बचने वाला बयान था। राजन की शख्सियत है भी ऐसी ही। दिखावे से ज्यादा कोशिश करने और करके दिखाने में यकीन। उन्हें देखें, उनसे मिलें, बात करें तो उनका अनुशासित जीवन आप पर अपनी छाप जरूर छोड़ेगा। किसी फौजी अफसर की तरह कसी हुई लंबी कद-काठी। धुली हुई आंखें। चमकता ललाट। सिर पर छोटे-छोटे बाल। आमतौर पर फॉर्मल पहनावा। उपस्थिति ऐसी कि जैसे हमेशा कुछ खास करने को तत्पर।
राजन को जानने वाले कभी उन्हें सीधे-सीधे इकोनमिस्ट कहने के बजाय 'एकेडमिक इकानमिस्ट’ कहते हैं। यह उनका अलंकरण नहीं है। बल्कि यही उनका ट्रैक रिकार्ड रहा है। पढ़ाई के दौरान अव्वल आना और स्वर्ण पदक जीतना उनके लिए कभी आपवादिक नहीं रहा। दरअसल, श्रेष्ठता की इस कसौटी पर खरे होने का ही नाम है रघुराम जी. राजन।
तीन फरवरी 1963 को भोपाल में जन्मे राजन के पिता नौकरशाह थे। पढ़ाई-लिखाई में दिलचस्पी के पीछे एक बड़ी वजह घर का माहौल भी रहा। राजन ने पहले इंजीनियरिंग की तरफ रुख किया। बाद में उन्हें भा गई अर्थ और प्रबंधन की साझी दुनिया। 1985 में आईआईटी दिल्ली से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्वर्ण पदक के साथ स्नातक। फिर आईआईएम से स्नातक और वहां भी स्वर्ण पदक। 1991 में एमआईटी से पीएचडी।
2००3 में अमेरिकन फाइनेंस एसोसिएशन ने राजन को प्रतिभाशाली युवा अर्थशात्री के रूप में सम्मानित किया। यह सम्मान उन्हें वित्तीय सिद्धांतों और उनके अमल की प्रक्रिया को लेकर किए कार्यों के लिए दिया गया। यह राजन की प्रसिद्धि और साख का ही कमाल है कि जिस संस्था ने उन्हें सम्मानित किया, वे 2०11 में उसके अध्यक्ष बने।
राजन की आर्थिक समझ और दूरदर्शिता कितनी अचूक है, इसका अंदाजा 2००8 में आई वैश्विक मंदी को लेकर 2००5 में उनकी भविष्यवाणी से लगाया जा सकता है। उनकी इस भविष्यवाणी की पूरी दुनिया में सराहना हुई और इस पर एक डाक्यूमेंट्री भी बनी, 'इनसाइड जॉब’ नाम से। इस डाक्यूमेंट्री को भी कई पुरस्कार मिले। राजन की एक किताब का नाम है- 'सेविंग कैप्टलिज्म फ्रॉम द कैप्टलिस्ट्स’। जाहिर है कि उनके अर्थ चिंतन में ग्लोबल इकोनमी को लेकर कोई प्रतिगामी आग्रह भले न सही पर वे इसके सीधे-सीधे हिमायती भी नहीं हैं। उनकी इसी समझ और कुशलता को देखते हुए 2००8 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उन्हें मानद रूप में आर्थिक सलाहकार नियुक्त किया। 2०12 में उन्होंने प्रमुख आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु की जगह ली।
अब जबकि राजन अपने जीवन की सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण जवाबदेही को संभालने जा रहे हैं तो सबकी निगाहें उन पर हैं। देश आर्थिक लिहाज से एक मुश्किल दौर में है। देश उन्हें एक कुशल आर्थिक प्रबंधक के रूप में याद करना चाहता है। राजन की योग्यता इस चाहत को अधूरी नहीं रहने देगी। यह भरोसा सबको है और यही उनके प्रति सबकी शुभकामना भी।

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रविवार, 28 जुलाई 2013

आसां नहीं होना हबीबा

महिलाओं और बच्चों के छोटे-छोटे समूह। उनके बीच कभी पैदल तो कभी किसी दूसरे साधन से पहुंचने वाली महिला। देखने में किसी आम अफगानी महिला की तरह। बातचीत भी तकरीबन वैसी ही। पर कुछ समय साथ गुजारें और थोड़ी गुफ्तगू करें तो मालूम पड़ेगा कि राष्ट्र और संस्कृति से प्रेम का क्या मतलब क्या है। हम बात कर रहे हैं अफगानिस्तान के बामियान सूबे की गवर्नर हबीबा सराबी की। अफगानिस्तान में हबीबा आज उस मुहिम का नाम है जो अपने मुल्क को युद्ध और आतंक की बजाय जीवन, प्रकृति और संस्कृति की संपन्नता की शिनाख्त दिलाना चाह रही है।
हबीबा के जीवन में संघर्ष और उपलब्धि का साझा काफी पहले से रहा है। उनकी तरफ दुनिया की दिलचस्पी तब एकदम से बढ़ गई जब यह खबर आई कि उन्हें इस साल के लिए रेमन मैग्सेसे एवार्ड के लिए चुना गया है। हबीबा अफगानिस्तान के अशांत रहे सूबों में से एक बामियाम की गवर्नर हैं पर उन्हें यह सम्मान इस कारण नहीं मिला है। रेमन मैग्सेसे एवार्ड फाउंडेश्न की नजर में एक मानवाधिकारवादी कार्यकताã के रूप में उनकी कोशिशें काबिले तारीफ है। वह युद्ध, आतंक और दमन के लंबे दौर से गुजरे देश में सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को फिर से खड़का करने में लगी हैं। वे कहती हैं यह बड़ा और सबसे जरूरी काम है। जिसे सिर्फ सरकारी घोषणाओं और योजनाओं के बूते नहीं किया जा सकता है। इसके लिए तो पहले लोगों के टूटे हौसले के बहाल करना होगा। व्यक्ति को सामाजिक बहुलता की इकाई में ढालना होगा। हबीबा एक महिला होने के नाते यह भी बखूबी समझती हैं कि आतंक और युद्ध की विभिषिका ने अगर सबसे ज्यादा असर डाला है तो वह अफगानी महिलाओं और बच्चों के जीवन पर। वैसे भी अफगानी समाज पर पारंपरिकता और रूढ़ता इतनी हावी रही है कि ग्लोबल दौर से ये कई दशक पीछे हैं।
हबीबा 2००5 में गर्वनर नियुक्त होने से पहले अफगानिस्तान सरकार में महिला मामलों के साथ शिक्षा और संस्कृति विभाग की मंत्री थी। देश में जब तालिबानी आतंक का दौर कुछ कमजोर पड़ा तो राष्ट्रपति हामिद करजई ने हबीबा के मानवाधिकारवादी प्रयासों को महत्वपूर्ण माना। भूले नहीं हैं लोग कि एक दशक पहले बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तालिबानियों ने नुकसान पहुंचाया था। यह एक बर्बर हिमाकत थी शांति और समन्वयी रचना प्रक्रिया से बने अफगानी समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की, उसे एक उन्मादी मकसद की तरफ ले जाने की। आज उसी बामियान सूबे में हबीबा एक गवर्नर से ज्यादा एक शांति कार्यकताã के रूप में कार्य कर रही हैं। हबीबा के लिए यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी है क्योंकि वह अल्पसंख्यक हजारा समुदाय से आती हैं।
हबीबा ने अपनी पांच दशक से ज्यादा लंबी जीवनयात्रा में एक तो यात्राएं काफी की हैं, दूसरे तालीम की अहमियत को उन्होंने बखूबी समझा। वह एक अच्छी हिमोटोलॉजिस्ट हैं और डॉक्टरी की इस पढ़ाई को पूरा करने के लिए उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन से फेलोशिप तक मिला। पर एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में काम करना इस शांति कार्यकताã को कभी नहीं भाया। 1998 के आसपास जब तालिबानियों का कहर काफी बढ़ गया तो हबीबा को पाकिस्तान में पेशावर के शरणार्थी शिविर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान उनके पति काबुल में रह गए बाकी परिवार की देखभाल के लिए।
आज जब अफगानिस्तान में अशांति का दौर थोड़ा पीछे छूटता दिखता है तो इस संघर्षशील अफगानी महिला की कोशिश है कि उनका मुल्क दुनिया के बाका देशों के बीच अपवाद के रूप में न देखा जाए। इसके लिए वह अफगानी समाज, संस्कृति और प्रकृति को फिर से सींचने में जुटी हैं।
-प्रेम प्रकाश