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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

मुझको राणा जी माफ़ करना !


अपनी बात शुरू करने से पहले वह बात जिसने अपनी बात कहने के लिए तैयार किया। आशुतोष राणा महज अभिनेता नहीं हैं। उनकी शख्सियत ने मुख्तलिफ हलकों में लोगों को अपना मुरीद बनाया है। अरसा हुआ टीवी के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी सुनी, जो अलग-अलग वजहों से आज तक याद है। राणा ने कहा था, 'हमारी परंपरा महिलाओं से नहीं, महिलाओं को जीतने की रही है।' यह वक्तव्य स्मरणीय होने की सारी खूबियों से भरा है। होता भी यही है कि किसी बेहतरीन शेर या गाने की तरह ऐसे बयान हमारी जेहन में गहरे उतर जाते हैं बगैर किसी अंदरुनी जिरह के। यह खतरनाक स्थिति है। आज जब बुद्धि और तर्क के तरकश संभाले विचारवीरों की बातें पढ़ता-सुनता हूं तो इस खतरे का एहसास और बढ़ जाता है।  
दरअसल, तर्क किसी विचार की कसौटी हो तो हो किसी मन की दीवारों पर लिखी इबारत को पढ़ने का चश्मा तो कतई नहीं। यह बात अक्षर लिखने वालों की क्षर दुनिया में कहीं से भी झांकने से आसानी से समझ आ सकती है। इसी बेमेल ने शब्दों की दुनिया को उनके ही रचने वालों की दुनिया में सबसे ज्यादा बेपर्दा किया है। दो-चार रोज पहले का वाकया है। फिल्म का नाइट शो देखकर बाहर कुछ दूर आने पर सड़क के दूसरे छोर पर अकेली लड़की जाती दिखी। मेरे साथ तीन साथी और थे। इनमें जो पिछले करीब एक दशक से बाकायदा रचनात्मक पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाला था, उसने अपनी जेब से गांजे से भरी सिगरेट का दम लगाते हुए कहा, 'मन को उतना ही अकेला होना चाहिए, जितनी वह लड़की अकेली दिख रही है।'
 दूसरे साथी ने हिंदी की बजाय पत्रकारिता की अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की धारा से जुड़े होने की छाप देते हुए कहा, ' गर्ल्स नेवर बी एलोन। सिचुएशन एंड सराउंडिंग ऑलवेज आक्यूपाय देयर लोनलिनेस।' तीसरे ने कहा, 'किसी लड़की को अकेले बगैर उसकी जानकारी के देखना किसी दिलकश एमएमएस को देखने का सुख देता है।' रहा मुझसे भी नहीं गया और मैंने छूटते ही कहा,'वह या तो कहीं छूट गई है या फिर किसी को छोड़ चुकी है।'
साफ है कि पढ़ा-लिखा पुरुष मन किसी स्त्री को सबसे तेज पढ़ने का न सिर्फ दावा करता है बल्कि उसे गाहे-बगाहे आजमाता भी रहता है। तभी तो विचार की दुनिया में यह मान्यता थोड़े घायल होने के बावजूद अब भी टिकी है कि स्त्री मन, स्त्री प्रेम, स्त्री सौंदर्य को लेकर दुनिया में 'सच्चा' लेखन भले किसी महिला कलम से निकली हो पर अगर 'अच्छा' की बात करेंगे तो प्रतियोगिता पुरुष कलमकारों के बीच ही होगी।
इसलिए राणा जैसों को भी जब जुमला गढ़ने की बारी आती है तो स्त्री से जीत की स्पर्धा करने की बजाय उस पर एकाधिकार का चमकता हौसला आजमाना पसंद करते हैं। यह और कुछ नहीं सीधे-सीधे छल है, पुरुष बुद्धि छल। आधी आबादी को समाज के बीच नहीं प्रयोगशाला की मेज पर समझने की बेईमानी सोच-समझ की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। जिस रात की घटना का जिक्र पहले किया गया, वहां भी ऐसा ही हुआ। किसी ने महिला-पुरुष के सामाजिक रिश्ते को सामने रखकर उस अकेली दिख रही लड़की के बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि तब सोच की आंखों में सुरूर की बजाय थोड़ा जिम्मेदार सामाजिक होने की सजलता होती। और इस सजलता की दरकार को किस तरह जानबूझकर खारिज किया गया, वह अगले ही कुछ मिनटों में उस रात भी जाहिर हुआ।
असल में, रात के अंधेरे में वह महिला अपने घर के पास उतरने की बजाय कहीं और उतर गई थी। और वह लगातार इस कोशिश में थी कि उसका स्थान और दिशा भ्रम किसी तरह टूटे पर उसकी कोशिश काम नहीं आ रही थी। सो जैसे ही उसकी निगाह हम चारों पर पड़ी, वह थोड़े आश्वस्त भाव से हमारी ओर लपकी । हम खुश भी थे और इस चोर आशंका से भी भर रहे थे कि कहीं वह यह तो नहीं जान गई, जो हम अब तक उसके बारे में बोल-सोच रहे थे। पास आकर जब उसने अपनी परेशानी बताई तो बारी हमारे गलत साबित होने की की थी, शर्मिंदगी की थी। हम बाद में जरूर उस महिला की मदद कर पाए पर उस खामख्याली का क्या जो महिला देखते ही पर तोलने लगते हैं। राणा भी ऐसा ही करते हैं। वह बगैर महिला सच से मुठभेड़ किए उस पर विजय पाने का सपना देखते हैं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रामलीला 450 पर नॉटआउट


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। तैयारी तो यहाँ तक है कि रावण का वध इस बार राम अन्ना की टोपी पहन कर करेंगे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है।
राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। 'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो  ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी  और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस,  इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।       

सोमवार, 26 सितंबर 2011

होरी के देश में गोरी


हमारा समय दिलचस्प विरोधाभासों का है। तभी तो जिस दौर में काला धन को लाने के लिए लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उसी दौर में सबसे ज्यादा ललक और समर्थन गोर तन को लेकर हैं। काला धन और गोरा तन, ये दोनों ही हमारे समय और समाज के नए शिष्टाचार को व्यक्त करने वाले सबसे जरूरी प्रतीक हैं। इन दोनों में आप चाहें तो अंदरूनी रिश्तों के कई स्तर भी देख-परख सकते हैं। अवलेहों और उबटनों की परंपरा अपने यहां कोई नई नहीं है। तीज-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक में इस परंपरा के अलग-अलग रंग हमारे यहां आज भी देखने को मिलते हैं। हालांकि यह जरूर है कि इस परंपरा का ठेठ रंग अब जीवन-समाज का पहले की तरह हिस्सा नहीं है।
पिछले कुछ दशकों में जोर यह हावी हुआ है कि चेहरा अगर फेयर और फिगर शेप में नहीं हुआ तो प्यार से लेकर रोजगार तक कुछ भी हाथ नहीं आएगा। संवेदना का यह दैहिक और लैंगिक तर्क टीवी चैनलों की कृपा से आज घर-घर पहुंच रहा है। कुछ महीने पहले की ही बात है जब अभिनेत्री चित्रांगदा सिंह ने यह कहते हुए फेयरनेस क्रीम का एड करने से इनकार कर दिया था कि उन्हें अपने सांवलेपन को लेकर फख्र है न कि अफसोस। चित्रांगदा के इस फैसले को रंगभेद का खतरा पैदा करने वाले सौंदर्य के बाजार के खिलाफ महिला अस्मिता की असहमति और विरोध के तौर पर देखा गया।
यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस फिल्म इंडस्ट्री और मॉडलिंग दुनिया के कंधों पर गोरी त्वचा और छरहरी काया का पूरा बाजारवादी तिलिस्म रचा गया है, वहां आज भी तूती रंग और देह से ज्यादा तूती काबिलियत की ही बोलती है। और यह रंगविरोधी समझ न सिर्फ व्यवसाय के स्तर पर पर बल्कि संवेदना के स्तर पर भी एकाधिक बार प्रकट हुई है। लोग आज भी 1963 में फिल्म 'बंदिनी' के लिए लिखे गुलजार के लिखे इस गीत को गुनगुनाते हैं- 'मोरा गोरा अंग लेइ ले...मोहे श्याम रंग देइ दे...'।
आज भारत में फेयरनेस क्रीम, ब्लीच और दूसरे उत्पादों का बाजार करीब 2000 करोड़ रुपए का है, जिसमें अकेले रातोंरात त्वचा को गौरवर्णी बना देने वाले क्रीमों की हिस्सेदारी करीब 1800 करोड़ रुपए की है। यही नहीं यह पूरा बाजार किसी भी दूसरे क्षेत्र के बाजार के मुकाबले सबसे ज्यादा उछाल के साथ आगे बढ़ रहा है। नई खबर यह है कि पीएमओ का ध्यान गोरेपन की क्रीम और मोटापा घटाने की दवा बेचने वालों के विज्ञापनी झांसे की तरफ गया है। पीएमओ ऐसे विज्ञापनों को आपत्तिजनक और खतरनाक मानते हुए बाजाप्ता इनके खिलाफ दिशानिर्देश दिए हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने इसके लिए उपभोक्ता मामलों के अधिकारियों के साथ बैठक की। बैठक में यह साफ किया गया कि विभाग को ऐसी नियामक प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे ऐसे भ्रमित करने वाले विज्ञापनों के प्रसारण पर कारगर रोक लगे। बताया जा रहा है पीएमओ ने चूंकि इस मुद्दे को खासी गंभीरता से लिया है, लिहाजा महीने भर के भीतर इस मुद्दे पर जरूरी कदम उठा लिए जाएंगे।
सरकारी तौर पर इस तरह की पहल का निश्चित रूप से अपना महत्व है और इसके कारगर असर भी जरूर होंगे, एसी उम्मीद की जा सकती है। पर एक बड़ी जवाबदेही लोग और समाज के हिस्से भी आती है। यह कैसी विडंबना है कि रंगभेद के नाम पर सत्ता और समाज के वर्चस्ववादी दुराग्रहों को पीछे छोड़कर हम जिस आधुनिक युग में प्रवेश कर गए हैं, वहां देह और वर्ण को सुंदरता, सफलता और श्रेष्ठता की अगर कुंजी के रूप में अगर मान्यता मिलेगी तो यह मानवीय अस्मिता के लिए एक खतरनाक स्थिति है। लिहाजा, इनके खिलाफ एक एक मुखर सामाजिक चेतना की भी दरकार है। क्योंकि आखिरकार यह तय करना समाज को ही है कि उसके भीतर काले-गोरे को लेकर आग्रह का पैमाना क्या है। अलबत्ता यह तो साफ है कि श्याम-श्वेत के दौर से आगे निकल चुकी दुनिया आज भी अगर गोरे-काले के मध्यकालीन बंटवारे को तवज्जो देती है तो यह उसकी आधुनिकता के हवालों को भी सवालिया घेरे में ले आता है।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

बंग समाज की हर दूसरी बेटी का सच !


चाव के साथ चुनाव और राजनीति की बात करने वाले कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल में बदलाव आ गया है। पर यह बात यहां की राजनीति के लिए भले सही बैठे लेकिन जहां तक यहां के जीवन और समाज का सवाल है, उसकी तबीयत को तारीखी रौशनी में ही पढ़ा जा सकता है।  दरअसल, बंगाल की धरती परंपरा और परिवर्तन दोनों की साझी रही है। बात नवजागरण की करें कि जंगे आजादी की इस क्रांतिकारी धरती ने देश के इतिहास के कई सुनहरे सर्ग रचे हैं। पर इस सुनहलेपन के साथ यहां के जीवन और समाज का अंतर्द्वंद्व और विरोधाभास भी पर प्रकट होता रहा है। बांग्ला साहित्य को तो इस बात का श्रेय है कि उसने यहां के सामाजिक अंतविर्रोधों को खासी खूबी के साथ अभिव्यक्ति दी है।
हाल में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट आई है। इसमें बताया गया है कि इस पश्चिम बंगाल में हर दूसरी लड़की कच्ची उम्र में ही ब्याह दी जाती है। आज की स्थिति में यह आंकड़ा चौंकाता तो है ही, यह इस सूबे के सामाजिक-आर्थिक हालात पर नए सिरे से विचार करने की दरकार भी सामने रखता है। आखिर क्या ऐसा हुआ कि बाल और विधवा विवाह के खिलाफ देश में सामाजिक नवजागरण का बिगुल फूंकने वाला प्रदेश आज फिर से उन्हीं समस्याओं से जकड़ गया है। क्या अपनी परंपरा और संस्कृति से बेहद प्यार करने वाला बंग समाज अपनी रुढ़ताओं के प्रति भी आग्रही है या कि पिछले तीन-चार दशकों से एक विचार और एक शासन के वर्चस्वादी आग्रह ने यहां के जनजीवन को आधुनिकता की मुख्यधारा का हिस्सा बनने ही नहीं दिया। इतना तो साफ है कि यह समस्या अगर सामाजिक है तो इसके कारक एक-दो दिन में तो कम से कम नहीं खड़े हुए होंगे। सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से बंग समाज का सामंती और मध्यकालीन मिजाज ठेठ हिंदी पट्टी से तो अलग है पर है यह उसका ही विस्तार।
बिहार के अंग और मैथिली क्षेत्र से बांग्लादेश की सीमा तक में फैला-समाया लोक और परंपरा पर एक तरफ जहां खेतिहर मलिकाव की हेकड़ी हावी रही है, तो वहीं दूसरी तरफ गांव-समाज का एक बड़ा हिस्सा और तबका भूख और गरीबी से बिलबिलाता रहा है। यह द्वंद्वात्मकता ही कहीं नक्सल हिंसा के रूप में फूटी है तो कहीं आधुनिकता से छिटकते चले जाने की नियति सामाजिक रुढताओं को और वज्र बनाती चली गई है। 21वीं सदी के नए दशक के आरंभ के साथ पश्चिम बंगाल में बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव 'सरकारी' के साथ 'असरकारी' भी साबित होगी, ऐसा अभी कह पाना मुश्किल तो है ही, जल्दबाजी भी होगी। आज वहां एक महिला मुख्यमंत्री हैं। 'मां, माटी और मानुष' के प्रति अपनी जवाबदेही और संवेदना को बार-बार दोहराने वाली ममता बनर्जी अगर सचमुच वहां कारगर साबित हो रही हैं फिर तो वहां पितृसत्तात्मक समाज की कई वर्जनाएं भी दरकनी चाहिए।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

रोटी का तर्क और गर्भपात


समय से जुड़े संदर्भ कभी खारिज नहीं होते। आप भले इन्हें भूलना चाहें या बुहारकर हाशिए पर डाल दें पर ये फिर-फिर लौट आते हैं हमारे समय की व्याख्या के लिए जरूरी औजारों से लैश होकर। इसे ही सरलीकृत तरीके से इतिहास का दोहराव भी कहते हैं। 21वीं सदी की दस्तक के साथ विश्व इतिहास ने वह घटनाक्रम भी देखा जिसने हमारे दौर की हिंसा का सबसे नग्न चेहरा सामने आया। खबरों पर बारीक नजर रखने वालों को 2003 के इराक युद्ध का रातोंरात बदलता और गहराता घटनाक्रम आज भी याद है। ऐसे लोग तब के अखबारों में आई इस रिपोर्ट को भूले नहीं होंगे कि जंग के आगाज से पहले सबसे ज्यादा चहल-पहल वहां प्रसूति गृहों में देखी गई थी। सैकड़ों-हजारों की संख्या में गर्भवती महिलाएं अपने बच्चों को समय पूर्व जन्म देने के लिए वहां जुटने लगी थीं। यही नहीं ये माताएं जन्म देने के बाद अपने बच्चे को अस्पताल में ही छोड़कर घर जाने की जिद्द करती थीं। पूरी दुनिया से जो पत्रकार युद्ध और युद्धपूर्व की इराकी हालात की रिपोर्टिंग करने वहां गए थे, उनके लिए यह एक विचलित कर देने वाला अनुभव था।
पहली नजर में यही समझ में आ रहा था कि युद्ध की विभिषिका ने ममता की गोद को भी पत्थरा दिया है। पर ऐसा था नहीं। सामान्य तौर पर युद्ध के दौरान स्कूलों-अस्पतालों पर किसी तरह का आक्रमण नहीं किया जाता। और इराक की माताएं नहीं चाहती थीं कि उनका नौनिहाल युद्ध की भेंट चढ़ें। इसलिए उसके समय पूर्व जन्म से लेकर उनकी जीवन सुरक्षा को लेकर वे प्राणपन से तत्पर थीं। करीब आठ साल पहले इराक में मां और ममता का जो आंखों को नम कर देने वाला आख्यान लिखा गया, उसका दूसरा खंड इन दिनों अपने देश में लिखा जा रहा है। हाल की एक खबर में यह आया कि उत्तर प्रदेश में करीब 40 हजार सिपाहियों की भर्ती होनी है। भर्ती का यह मौका वहां के लोगों के लिए इसलिए भी बड़ा है कि इनमें महिला-पुरुष दोनों के लिए बराबर का मौका  है।
प्रदेश में बेराजगारी का आलम यह है कि गर्भवती युवतियां अपनी कोख के साथ खिलवाड़ कर नौकरी की इस होड़ में शामिल होना चाहती हैं। धन्य हैं वे डॉक्टर भी जो अपने पेशागत धर्म को भूलकर एक अमानवीय और बर्बर ठहराए जाने वाले कृत्य को मदद पहुंचा रहे हैं। महज नौकरी की लालच में बड़े पैमाने पर गर्भपात कराने का ऐसा मामला देश-दुनिया में शायद ही इससे पहले कभी सुना गया हो। मायावती सरकार के कानों तक भी यह शिकायत पहुंची है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने इस शिकायत को दरकिनार या खारिज नहीं किया है और वह इस मामले में निजी चिकित्सकों से निपटने की बात कह रही है।
पर असल मुद्दा इस मामले में कार्रवाई से ज्यादा उस नौबत को समझना है, जिसने ममता की सजलता को निर्जल बना दिया। क्या इस घटना से सिर्फ यह साबित होता है कि रोटी की भूख और बेरोजगारी के दंश के आगे हर मानवीय सरोकार बेमानी हैं या यह घटना इस बात की गवाही है कि संवेदना के सबसे सुरक्षित दायरे भी आज सुरक्षित नहीं रहे। यौन हिंसा से लेकर संबंधों की तोड़-जोड़ की खबरों की गिनती और आमद अब इतनी बढ़ गई है कि इन्हें अब लोग रुटीन खबरों की तरह लेने लगे हैं। इन्हें पढ़कर न अब कोई चौंकता है और न ही कोई हाय-तौबा मचती है।
बहरहाल, यह बात भी अपनी जगह नकारी नहीं जा सकती कि अपने देश में महिला सम्मान और उसके अधिकार और महत्व को लेकर बहस किसी अन्य देश या संस्कृति से पुरानी है। दिलचस्प है कि लोक और परंपरा के साथ सिंची जाती हरियाली आज समय की सबसे तेज तपिश की झुलस से बचने के लिए हाथ-पैर मार रही है। रोटी का तर्क मातृत्व के संवेदनशील तकाजे पर भी भारी पड़ सकता है, यह जानना अपने देशकाल को उसके सबसे बुरे हश्र के साथ जानने जैसा है। भारत और भारतीय परंपरा के हिमायतियों को भी सोचना होगा कि वह इस क्रूर सच का चेहरा कैसे बदलेंगे। क्योंकि अगर परंपरा का बहाव जहरीला हो जाए तो उसका आगे का सफर और गंतव्य भी सुरक्षित तो नहीं ही रहेगा।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

जो अन्ना भी शर्मिला होते !


मौजूदा दौर के कसीदे पढ़ने वाले कम नहीं। यह और  बात है कि ये प्रायोजित कसीदाकार वही हैं, जिन्हें हमारे देशकाल ने कभी अपना प्रवक्ता नहीं माना। दरअसल, चरम भोग के परम दौर में मनुष्य की निजता को स्वच्छंदता में रातोंरात जिस तरह बदला, उसने समय 
और समाज की एक क्रूर व संवेदनहीन नियति कहीं न कहीं तय कर दी है। ऐसे में एक दुराग्रह और पूर्वाग्रह से त्रस्त दौर में चर्चा अगर सत्याग्रह की हो तो यह तो माना ही जा सकता है कि मानवीय कल्याण और उत्थान का मकसद अब भी बहाल है। अब जबकि अन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चला 12 दिन का अनशन राष्ट्रीय घटनाक्रम के रूप में देखा-समझा जा रहा है तो लक्षित-अलक्षित कई तीर-कमान विचार के आसमान को अपने-अपने तरीके से बेधने में लगे हैं। 
 इस सब के बीच, कहीं न कहीं देश आज इस अवगत हो रहा है कि अपना पक्ष रखने और 'असरकारी' विरोध जाने का सत्याग्रह रखने वालों की परंपरा देश में खत्म नहीं हुई है। पर ऐसे में कुछ सवाल भी उठने लाजिम हैं जिनके जवाब घटनाओं की तात्कालिकता के प्रभाव पाश से बंधे बिना ही तलाशे जा सकते हैं। बताया जा रहा है कि सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने अन्ना हजारे से अपने एक दशक से लंबे अनशन के लिए समर्थन मांगा है। इरोम मणिपुर में विवादास्पद सशस्त्र बिल विशेषाधिकार अधिनियम की विरोध कर रही हैं। उनके मुताबिक इस अधिनियम के प्रावधान मानवाधिकार विरोधी हैं, बर्बर हैं। यह सेना को महज आशंका के आधार पर किसी को मौत के घाट उतारने की कानूनी छूट देता है। इरोम खुद इस बर्बर कार्रवाई की गवाह रही हैं। यही कारण है कि उन्होंने इस विवादास्पद अधिनियम को वापस लेने की मांग को आजीवन प्रण का हिस्सा बना लिया है। दुनिया के इतिहास में अहिंसक विरोध का इतना लंबा चला सिलसिला और वह भी अकेली एक महिला द्वारा अपने आप में एक मिसाल है। 
इरोम को उम्मीद है कि आज अन्ना हजारे का जो प्रभाव और स्वीकृति सरकार और जनता के बीच है, उससे उनकी मांग को धार भी मिलेगी और उसका वजन भी बढ़ेगा। हालांकि इस संदर्भ का एक पक्ष यह भी है कि इरोम भले अन्ना के समर्थन की दरकार जाहिर कर रही हों, पर उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चरित्र को लेकर आपत्तियां भी हैं। वैसे ये आपत्तियां वैसी नहीं हैं जैसी लेखिका अरुंधति राय को हैं। असल में सत्याग्रह का गांधीवादी दर्शन विरोध या समर्थन से परे आत्मशुद्धि के तकाजे पर आधारित है। गांधी का सत्याग्रह साध्य के साथ साधन की कसौटी को भी अपनाता है। ऐसे में लोकप्रियता के आवेग और जनाक्रोश के अधीर प्रकटीकरण से अगर किसी आंदोलन को धार मिलती हो कम से कम वह दूरगामी फलितों को तो नहीं ही हासिल कर सकता है।
दिलचस्प है कि अहिंसक संघर्ष के नए विमर्शी सर्ग में अन्ना के व्यक्तिगत चरित्र, जीवन 
और विचार पर ज्यादा सवाल नहीं उठे हैं। पर उनके आंदोलन के हालिया घटनाक्रम को देखकर तो एकबारगी जरूर लगता है कि देश की राजधानी का 'जंतर मंतर' और मीडिया के रडार से अगर इस पूरे मुहिम को हटा लिया जाए तो क्या तब भी घटनाक्रम वही होते जो पिछले कुछ दिनों में घटित हुए हैं। और यह भी क्या कि क्या इसी अनुकूलता और उपलब्धता की परवाह इरोम ने चूंकि नहीं की तो उनके संघर्ष का सिलसिला लंबा खिंचता जा रहा है। 
बहरहाल, देश का जनमानस आज क्रांतिकारी आरोहण के नए और समायिक चरणों से गुजरने को अगर तत्पर हो रहा है तो यह एक शुभ संकेत है। अच्छा ही होगा कि हिंसा और संवेदनहीनता के दौर में अहिंसक मूल्यों को लेकर एक बार फिर से बहस और प्रयोग शुरू हों। अगर ये पहलें एकजुट और एक राह न सही कम से कम एक दिशा की तरफ बढ़ती हैं तो यह हमारे समय के माथे पर उगा सबसे शुभ चिह्न होगा। 

रविवार, 4 सितंबर 2011

दस हजार पार 'पूरबिया'


2009 के मई-जून में
जब सफर शुरू किया था 'पूरबिया' का
तो अंदाजा नहीं था
कि सफर इतना रोचक होगा
और समय के साथ
यह मेरी पहचान बन जाएगा

अब जबकि पूरबिया को
दस हजार से ज्यादा हिट
हासिल हो चुके हैं
लोगों की इस सफलता पर
शुभकामनाएं मिल रही हैं
तो अभिभूत हूं यह देखकर
कि लोग एक अक्षर यात्रा के जारी रहने को
हमारे समय की एक बड़ी घटना मानते हैं

विचार, कविता, टिप्पणी
ये सब वे बहाने हैं
जो चेतना को बचाए रखने के लिए
नए दौर में एक जरूरी कार्रवाई बन गयी है
'पूरबिया' मेरे लिए
और कुछ मेरे जैसों के लिए
ऐसी ही एक कार्रवाई है

इस कार्रवाई को मिले समर्थन
सहयोग के लिए
सभी साथियों...साथिनों का आभार
पूरबिया आगे भी बहती रहेगी
अपनी महक
अपने तेवर 
अपने सरोकारों के साथ
आपके बीच
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'जागरण' में पूरबिया की लोकशाही


02 सितम्बर 2011 :  जागरण में पूरबिया की लोकशाही