LATEST:


शुक्रवार, 25 मार्च 2011

खादी से चलकर खाकी तक


गिरावट खादी से शुरू होकर खाकी तक पहुंच गई है। सार्वजनिक जीवन में पतित आचरण का रोना तो अब कोई रोना भी नहीं चाहता। सब मान चुके हैं कि इस स्यापे का कोई मतलब नहीं। आखिर अपनी नाक को किसी दूसरे के चेहरे पर देखने की हसरत कभी पूरी हो भी  नहीं सकती। राजनीति को लेकर हमारी शिकायत का मतलब कुछ ऐसा ही है। बहरहाल खाकी को लेकन रुदन अभी जारी है। खादी के बाद बारी खाकी की। सब चाहते हैं कि पुलिस की लाठी और नाक दोनों बची रही ताकि हम बचे रहें, सुरक्षित रहें। अलबत्ता यहां भी अपेक्षा और सचाई के बीच खतरनाक घालमेल है, जो कि जाहिरा तौर पर नहीं होना चाहिए।  नागरिक सुरक्षा का खाकी रंग अब उतना भरोसेमंद नहीं रहा, जितना वह पहले था या उससे अपेक्षित है। दरअसल, यह तथ्य जितना सत्यापित नहीं है, उससे ज्यादा प्रचारित। आलम यह है कि पुलिस महकमे को लेकर हमारे अनुभव चाहे जैसे भी हों, पूर्वाग्रह खासे नकारात्मक हैं।
राजधानी दिल्ली में अपराध की घटनाएं तेजी से सुर्खी बनती हैं। लिहाजा, हर घटना को लेकर पुलिस कार्रवाई पर सबकी नजर रहती है। सफलता का श्रेय यहां की पुलिस को मिले न मिले, नाकामी पर खरी-खोटी सुनाने की उदारता मीडिया और समाज साथ-साथ बरतता है। जबकि एक तटस्थ और तुलनात्मक नजरिए से देखें तो दिल्ली पुलिस की कुशलता देश में सबसे बेहतर मानी जाएगी। और यह स्थिति तब है जबकि देश की राजधानी में तैनाती के कारण उसके आगे चुनौतियां भी सबसे ज्यादा हैं।
कुछ महीने पहले पुलिस सुधार की हिमायत करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंशा भी जाहिर की थी कि वह दिल्ली पुलिस को हर लिहाज से देश के पुलिस महकमे के लिए आदर्श बनाना चाहते हैं। हाल में दिल्ली की एक व्यस्ततम सड़क पर एक दुर्घटना में बुरी तरह घायल हुए चार्टड बस के ड्राइवर की जिस जांबाजी के साथ जान बचाई, उसे देखकर प्रधानमंत्री के इरादे की वजह समझ में आती है। दरअसल, नागरिक जीवन में तेजी से पसरती और गाढ़ी होती संवेदनहीनता के नजारे हम अक्सर सड़कों और अस्पतालों में देखते हैं। जब कोई दुर्घटना या बीमारी के कारण जिंदगी से जूझ रहा होता है और हम सब कुछ देख-समझकर भी खिसक लेने की चालाक पर बर्बर बर्ताव आसानी से दिखाते हैं।
पुलिस का महकमा इस लिहाज से खासा जवाबदेह और महत्वपूर्ण है कि संकट की आसन्न स्थितियों में सबसे पहले मदद की अपेक्षा उसी से होती है। यह उम्मीद आज इस कारण भी बढ़ गई है कि हमारे आसपास का समाज हमें हर लिहाज से नाउम्मीद कर रहा है। दिल्ली के दरियागंज थाने में तैनात इंस्पेक्टर प्रमोद जोशी की बहादुरी इस उम्मीद पर जिस तरह खरी उतरी है, वह हर लिहाज से प्रशंसनीय है। मीडिया ने भी इस खबर को जिस तरह दिखाया और छापा, वह काबिले तारीफ है।
दिलचस्प है कि प्रमोद जोशी के कंधे पर न तो फीते कम होते और न ही उसे इस कारण लाइन हाजिर किया जाता कि उसने अपनी आंखों के सामने घटी घटना पर संवेदनशील रवैया क्यों नहीं अपनाया। पर यह सोच अगर खाकी वर्दी पहने हर जवान के जमीर पर हावी हो जाए तो वह विश्वसनीयता सिरे से ही गायब हो जाएगी जो आज भी पुलिस के किसी जवान को देखकर कमोबेश हमारे दिलोदिमाग में पैदा होती है। जोशी अपने पुलिसिया ओहदे में बहुत बड़े नहीं हैं, लेकिन जिस तरह उसने आग लगी बस के पास से उसके ड्राइवर को बगैर जान की परवाह किए बगैर बचाया, वह फर्ज अदायगी जरूर इतनी बड़ी है जिसकी न सिर्फ तारीफ हो बल्कि उससे जरूरी सबक भी लिया जाए। खाकी रंग भरोसे का है, यह भरोसा एक बार फिर से गाढ़ा किया है प्रमोद की बहादुरी ने।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

हां, मैं हूं एक वेश्या...


बिपाशा बसु को यह चिंता खाए जा रही है कि बालीवुड मर्दों की दुनिया है और यहां महिलाओं की दाल नहीं गल सकती। वह पिछले कम से कम दो मौकों पर ऐसा कहकर मीडिया का ध्यान अपनी ओर खींच चुकी हैं। पहली नजर में यह चिंता गंभीर इसलिए नहीं लगती क्योंकि बयान देने वाली की अपनी 'ख्याति' इसके आड़े आती है। 'जिस्म' के जादू और नशे का आमंत्रण परोसने वाली और 'प्यार की गली बीच नो एंट्री' का तरन्नुम युवाओं के होठों पर रातोंरात बिठाने वाली बाला को कोई मर्दवादी हाथों की कठपुतली ही सबसे पहले मानेगा। हां, मानवाधिकारवादी तार्किकता यह दरकार किसी सूरत में खारिज नहीं होने देना चाहती कि बेहतर और सामन्य जिंदगी जीने में सांसत जहां और जब भी महसूस हो आवाज उठानी चाहिए। इस लिहाज से बिप्स जो कह रही हैं उसे खारिज नहीं किया जा सकता।
याद आती है सालों पहले अपनी कलात्मक फिल्म निर्माण की सोच का रातोंरात 'मर्डर' करने पर उतारू  महेश भट्ट की एक चर्चित दलील। भट्ट ने अपनी आलोचनाओं से तिलमिलाकर सवालिया लहजे में कहा था, 'हां, मैं हूं एक वेश्या। चौराहे पर खड़ी वेश्या... तो क्या करोगे? क्या मुझे जीने नहीं दोगे? क्या मुझे गोली मार दोगे?' भट्ट की तल्खी काम कर गई। उन्होंने अपनी तार्किक चालाकी से अपने आलोचकों के मुंह बंद कर दिए। ऐसे ही तार्किक कवच बिप्स जैसों के पास भी हैं। लिहाजा, उनकी मानवाधिकारवादी आपत्तियों पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। पर सेवा को अगर चैरिटी की कतार में खड़ा होने के लिए मजबूर कर देगें तो एक्टिविज्म को भी टोकनिज्म के खतरों से बचाना मुश्किल होगा। ऐसे में राखी सावंत के एलानिया गांधी भक्त होने पर भला किस कोने से सवाल उठेंगे। 
हमारे समय की त्रासदी यह है कि यह किसी के आचरण और कर्तव्यों से ज्यादा उसके अधिकारों के लिए स्पेस निकालने की बात करती है। नतीजतन सिरे से न किसी असहमति के लिए गुंजाइश बन रही है और न ही कोई जनांदोलन कारगर हो रहा है। अगर हम सवाल उठाने और जवाब देने की लोकतांत्रिक कसौटियों में थोड़ी कसावट लाएं तो हमारे आसपास आवाज, ज्यादा भरोसेमंद, ज्यादा टिकाऊ और ज्यादा कारगर साबित होंगी।  फिर किसी विपाशा, किसी राखी या शिल्पा की बातों पर कान देने से हम परहेज करेंगे।  

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सदन, सौंदर्य और सुनंदा


 बारहमासे का एक चक्र भी पूरा नहीं हुआ कि फसाने की दिलकशी फिर से न सिर्फ बहाल दिख रही है, बल्कि एक बार फिर अपने पूरे शबाब पर भी है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकसभा की दर्शक दीर्घा में नजर आई, उस उपस्थिति की, जिसकी चर्चा कॉफी टेबल से लेकर फुटकर चौपालों तक है। बुधवार को देश के तमाम अखबारों ने ये खबर प्रमुखता से छापी कि शादी के बाद पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर के लोकसभा में पहले महत्वपूर्ण भाषण के दौरान उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर उनका हौसला बढ़ाने पहुंचीं। पति को हौसले और भरोसे का जो सिंदूरी समर्थन दर्शक दीर्घा में बैठकर सुनंदा पुष्कर जता रही थीं, उसकी अभिव्यक्ति इतनी खुली और खनकदार थी कि उसके आकर्षण पाश में लोकसभा तकरीबन घंटे भर तक अवगाहन करती रही।
भारतीय राजनीति और राजनेता अमेरिका और यूरोप से अलग हैं। हमारे यहां निजी प्रेम, साहर्चय और यहां तक कि दांपत्य तक को शालीन दोशाले के साथ ही पेश किया जाता है। बहुत गहरी छानबीन के बजाय एक विहंगम दृष्टि अगर गुजरे छह से ज्यादा दशकों के स्वतंत्र भारत की राजनीतिक यात्रा पर डालें तो अकेले राजनेता पंडित नेहरू दिखाई पड़ेंगे, जिनके स्वभाव और सलूक में यूरोपीय या अमेरिकी मन-मिजाज जब-तब झांकता था। इसके अलावा जो उदाहरण या प्रकरण गिनाए जा सकते हैं, उसमें प्रकट न होने का यत्नपूर्ण संकोच ही ज्यादा छलका है। दिलचस्प है कि उदारीकरण के तीस साला अनुभव के बाद संबंधों को लेकर खुलेपन का दायरा परिवार-समाज तक की दहलीज को लांघ रहा है, बावजूद इसके अगर सार्वजनिक जीवन की शुचिता कुछ संकोच और हिचक में ही बदहाल दिखती है तो इसे देश की बदली राजनीति की न बदलने वाली धज ही कहेंगे। पर अब यह धज समय सापेक्ष नहीं रही, नहीं तो दोशाले का इस्तेमाल शालीनता के लिए ही होता, मुंह ढांपने या छिपाने के लिए नहीं होता। बिहार और उत्तर प्रदेश सहित कुछ दूसरे सूबों के कई माननीय इन दिनों अपने जिन कुकृत्यों के कारण अदालत और जेल के चक्कर काट रहे हैं, वह भी पिछले कुछ दशकों में प्रकट हुई सार्वजनिक जीवन की सचाई का ही एक विद्रूप चेहरा है।
बहरहाल, बात एक बार फिर सुनंदा-शशि की। याददाश्त पर बहुत जोर देने की जरूरत नहीं है याद करने के लिए कि किन कारणों से थरूर को अपने मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। जाहिर है, कारण कई थे पर थे सब समगोत्रीय ही। उन तमाम कारणों की अकेली धुरी रहीं सुनंदा, जो आज पूर्व विदेश मंत्री की पत्नी हैं। प्रेम के लिए आत्मोत्सर्ग के इस श्याम-श्वेत को लेकर चाहे हम जितनी बातें कर लें पर इसकी नाटकीयता में आकर्षण और सौंदर्य भी कम नहीं, इसकी साक्षी तो अब देश की संसद भी है।

साभार : राष्ट्रीय सहारा (17 मार्च, 2011)

मंगलवार, 15 मार्च 2011

टर्निंग-30 में जो गुल है


उम्र अगर तीस की दहलीज पर हो तो सचाइयों का सामना किस तरह की टीस के साथ होता है, यही समझाया था नैना सिंह ने 'टर्निंग 30' में। फिल्म में नैना उस 27 फीसद शहरी महिला आबादी का प्रतिनिधित्व करती है, जो वर्किंग लेडी होने की शिनाख्त के कारण पढ़ी-लिखी और आधुनिक है। दिलचस्प है कि टुडे वूमेन के बिंदास किरदार के कथानक को करियर-फीगर के कसाव और ढीले पड़ने के द्वंद्व के बीच उम्र के तीस साला सच के साथ जिस तर्ज पर दिखा गया है, वह आजादी और स्वाबलंबन के पहले से ही सर्वथा विवादित महिला विमर्श का एक और अर्निदिष्ट विस्तार है। देह मुक्ति का तर्क सैद्धांतिक तौर पर तो समझ में आता है, पर जिस आधुनिकता की गोद में यह मुक्ति पर्व महिलाएं मना रही हैं, वह प्रायोजित और सुनियोजित है। संबंध का सात क्या एक भी फेरा भी हम बगैर परंपरा और परिवार के प्रति आस्थावान हुए पूरा नहीं कर सकते। दिलचस्प है कि बाजारवादी ताकतों द्वारा प्रायोजित आजादी का जश्न महिलाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आज के हर युवा के लिए है। मेट्रोज में इसकी डूब गहरी है, छोटे शहरों और कस्बों में अभी इसके लिए गहरे तलों की खुदाई और छानबीन चल रही है। 
बहरहाल, बात एक बार फिर से नैना सिंह की। फिल्म में नैना का किरदार गुल पनाग ने निभाया है। फिल्म करने के बाद वह चैनलों और अखबारों ने उसकी टिप्पणियों को बतौर एक रेडिकल फेमिनिस्ट सुर्खियां में खूब टांगा। अब खबर यह है टर्निंग 30 का द्वंद्व अपनी निजी चिंदगी में भी झेल रही गुल ने अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ सात फेरे ले लिए हैं। सुंदरता की बिकाऊ स्पर्धा जीतने, फिर रैंप पर कुछ छरहरी चहलकदमियां, मॉडलिंग और पेज थ्री की दुनिया में मौजूदगी को बनाए-टिकाए रखने के लिए कैमरे को तमाम मांसल एंगल मुहैया कराने और कुछ लीक से अलगाई जाने वालीं फिल्में करते-करते दो साल पहले तीस पार कर चुकीं गुल को अब जिंदगी की बहार घर के बाहर नहीं, घर-परिवार के भीतर नजर आने लगी है।
तीस की टीस को अभिनय और असल जिंदगी में महसूस कर चुकी गुल से चाहे तो कोई अब यह पूछ सकता है कि आधुनिकता की टेर पर जिंदगी के स्वचछंद गायन का ऊपरी सूर क्या आजीवन नहीं साधा जा सकता। याकि जीवन के जो तरीके तीस तक ठीक-ठाक लगते हैं, तीस पर पहुंचकर वही तरीके अप्रासंगिक और गैरजरूरी क्यों नजर आने लगते हैं। दरअसल, तीस की दहलीज तक पहुंची तीन दशकीय उदारवादी सामाजिक स्थितियों की जो सबसे बड़ी त्रासदी है, उसे ही युवाओं और खासकर महिलाओं की आजादी की शिनाख्त दे दी गई है। गाल बजा-बजाकर बहस करने वाले महिला हिमायतियों ने अब तक इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि लोक, परंपरा और संबंध के भारतीय अनुभव अगर खारिज होने चाहिए तो उसका विकल्प क्या है।
हिंदी साहित्य के जानकार जानते हैं कि आजादी पूर्व क्रांतिकारी रणभेरी के साथ शुरू हुआ मुक्ति प्रसंग, किस तरह आसानी से स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की ढलान पर आ गया। दिलचस्प है कि मस्ती और मनमानी के गायक यहां भी वही थे, जो देश और समाज की आजादी के तराने गा रहे थे। संबंधों की बहस महिला बनाम पुरुष से ज्यादा सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों में एकांगी और स्वायत्त उल्लास के ओवरइंजेक्शन का है। जिस बाजार के एक्सलेटर्स पर चढ़कर आज हम फ्लैट, टीवी और गाड़ी को अपनी पहुंच और जरूरत के तौर पर गिना रहे हैं, उसका इंटरेस्ट संबंधों के स्थायित्व की बजाय उसके टूटने-बदलने के आस्वादी रोमांच में ज्यादा है। यही प्रशिक्षण वह नए तरह से तैयार ग्रीटिंग कार्डस, सीरियल, एड और रियलिटी शोज के जरिए चौबीसों घंटे चला रहा है।
दरअसल, सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस का थ्री-एस फिनोमना अपने तीन दशकों की यात्रा के बाद टर्निंग-30 का जो विमर्श चला रहा है, वहां अब भी संतोषजनक उपसंहार की गुंजाइश किस कदर गुल है, यह बात कोई आैर समझे या न समझे गुल पनाग के तो समझ में आ गई है। शादी की 'बुलेट सवारी' करती गुल को खुश देखकर फिल्म में उसके रोने और तड़पने की वजह आसानी से समझी जा सकती है। यह समझ अगर आधी दुनिया के खुद ब खुद अलंबरदार बने फिरने वालों के समझ में भी आ जाए तो उनकी नादानी के 'सात खून माफ' हो सकते हैं।       

गुरुवार, 10 मार्च 2011

डबल मीनिंग वाली होली


मि बुरा न मानो होली है। मस्ती की इस टेर पर होली की मस्ती ने जाने कितनी चुहल और कितनी शरारतों ने मन से अंगराइयां भरी हैं। मस्ती के इतने सारे रंगों को किसी एक रंग में रंगा दिखना हो तो भारत के महान लोकपर्व होली की परंपरा का अवगाहन कोई भी कर सकता है। होली संबंधों से लेकर स्वादिष्ट पकवानों तक अनेक रूपों और अर्थों में हमारी लोक परंपरा का हिस्सा रहा है। पर पिछले कुछ सालों-दशकों में होली बदरंग हुआ है। इस लोकपर्व की सबसे बड़ी थाती उसके गीत रहे हैं, जो आज भी तकरीबन सभी लोक और शास्त्रीय घरानों की पहचान में शुमार है।
दुर्भाग्य से होली के ये पारंपरिक गीत आधुनिक बयार में या तो बदल रहे हैं या फिर अपने को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन जिन होली गीतों में स्त्री-पुरुष और पारिवारिक संबंधों को लेकर मर्यादित विनोद और हंसी-ठिठोली के रंगारंग आयोजन होते थे, वहां सतहीपन और अश्लीलता इतना बढ़ी है कि अर्थ की पिचकारी की जगह द्विअर्थी तीर सीधे कानों को बेधते हैं। दिल्ली की एक संस्था ने कुछ साल पहले कुछ ऐसे भाषाई कैसेटों-एलबमों का अध्ययन किया था, जिनकी बिक्री बाजार में लोकगीत-संगीत के नाम पर होती है। इनके कवर पर छपी तस्वीरों और  टाइटल से कोई सहज ही इनके स्तर और कांटेंट का पता कर सकता है।
लोक के विलोप का खतरा बाजार के दौर में बढ़ा तो जरूर है पर इसका निपटना इतना आसान भी नहीं है। लिहाजा लोक छटा को बाजार अपनी तश्तरी में सजाकर मन-माफिक तरीके से बेच रहा है। लिहाजा लोक की विरासत कायम तो जरूर है पर यह इतनी विषाक्त जरूर हो जा रही है कि लोकगंगा के लिए अलग से सफाई अभियान की दरकार है।
पिछले साल रिलीज एक होली एलबम की बानगी देखिए- "का करता है तू सब रे। इ रंग लगा लगा रहा है कि लैकी के गाल पर पीडब्ल्यूडी का रोलर चला रहा है।' इस देशज डॉयलाग के बाद शुरू होता है होली गीत। गीत के बोल ऐसे जैसे लड़की को रंग लगाने का नहीं बल्कि सीधे बिस्तर पर आने का आमंत्रण दिया जा रहा हो। वैसे यह तो कम है, कई गीत तो अपनी मंशा से ज्यादा अपनी शब्दावली में ही इतने भोंडे होते हैं कि आप उन पर कोई चर्चा तक नहीं कर सकते। लोक गायिका मालिनी अवस्थी मानती हैं कि इन फूहड़ गीतों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। श्रोता और दर्शक थोड़े कम दोषी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास चुनाव अब अच्छे-बुरे के बीच रहा ही नहीं। लिहाजा, कान उन कंपनियों का ऐंठना चाहिए जो होली के रंग-बिरंगे आयोजन को बदरंग कर रहे हैं। निशाने पर लोक परंपरा तो है ही, उनसे ज्यादा महिलाएं हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा फब्तियां और ओछी हरकतें उन्हें ही सहनी-उठानी पड़ती हैं। अगर यह लगाम  जल्द ही कसी नहीं गई तो इस महान लोकपर्व को महिला विरोधी करार दिए जाने का खतरा है।

बुधवार, 9 मार्च 2011

देखो कुंअर जी दूंगी गारी


होली पर्व प्रह्लाद और होलिका के पौराणिक प्रसंग से भले जुड़ता हो पर इसका असली रंग तो घर-परिवार और सामाज में ही देखने को मिलता है। भले अब होली का रंग थोड़ा बदरंग हो गया हो और खास तौर पर महिलाएं इसे मनाने से बचने लगी हैं। पर अब भी देश के ज्यादातर हिस्सों और परिवारों में होली उत्साह, मस्ती और आनंद का सौगात लेकर आता है। एक लोकपर्व के रूप में इस अनूठे त्योहार की लोकप्रियता पूरी दुनिया में इस कदर फैली है कि बिल Ïक्लटिंन की बेटी तक फगुनाहट की मस्ती में सराबोर होने के लिए राजस्थान पहुंचती है।
वैसे तो होली पूरे देश में मनाई जाती है पर अलग-अलग सांस्कृतिक अंचलों की होली की अपनी खासियत है। हां, एक बात जो सभी जगहों की होली में सामान्य है, वह है महिलाओं और पुरुषों के बीच रंग खेलने के बहाने अनूठे विनोदपूर्ण और शरारत से भरे प्रसंग। ये प्रसंग शुरू से होली की पहचान से जुड़े रहे हैं। और ऐसा भी नहीं है कि इस मस्ती में नहाने वाले कोई एक धर्म या संप्रदाय के लोग हों। आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर की लिखी होली आज भी लोग गाते हैं- 'क्यों मोपे मारे रंग की पिचकारी, देखो कुंअर जी दूंगी गारी।' फिल्मों के गीत याद करें तो चुहल और ठिठोली के कई बोल जेहन में एक के बाद एक आने लगते हैं। 'मदर इंडिया' के गीत 'होली आई रे कन्हाई रंग बरसे...सुना दे जरा बांसुरी' से लेकर "वक्त' फिल्म का माडर्न होली सांग 'गिव मी ए फेवर लेट्स प्ले होली...' तक फिल्मी होली गीतों की ऐसी पूरी श्रृंखला है, जहां होली के रंगों के बीच हीरो-हीरोइन के बीच दिलचस्प छेड़छाड़ चलती है। बात पूरबिया होली की करें तो यहां होली का रंग सबसे ठेठ और मस्ती से सराबोर है। यहां की होली का मस्ताना रंग यहां के पारंपरिक लोकगीतों में बी बखूबी मुखरित हुआ है। 'बंगला पे उड़ेला गुलाल...' से लेकर 'अंखिया लाले लाल...' तक कई ऐसे पारंपरिक गीत हैं जो आज भी गाए जाते हैं। दुखद है कि पारंपरिकता के इस अनमोल रंग में कुछ म्यूजिक कंपनियां और लोक गायक फूहड़ता और अश्लीलता का मिलावट कर रहे हैं, जिससे लोकरंग बदरंग हो रहा है। लोकगायिका मालिनी अवस्थी के मुताबिक, 'पारंपरिक होली गीतों की विरासत काफी समृद्ध और विविधता भरी है। बाजार के दौर में लोकगायकी को थोड़ा मिलावटी रंग जरूर दिया है पर आज भी पारंपरिक होली गीतों के कद्रदान ही ज्यादा हैं।'
इतिहासकार डॉ. शालिग्राम सिंह कहते हैं कि राधा-कृष्ण से लेकर जोधा-अकबर तक के विनोद पूर्ण होली प्रसंग देश में होली की परंपरा को रेखांकित करते हैं। आज भी होली में महिलाएं ही सबसे ज्यादा निशाने पर होती हैं और यह आलम घर-दफ्तर से लेकर स्कूल-कॉलेज तक सब जगह एक जैसी है। हाल के कुछ सालों में होली पर खुलकर नशा करने का प्रचलन बढ़ा है, जिससे अभद्रता से लेकर मारपीट तक की घटनाएं बढ़ गई हैं। दिल्ली के पालम इलाके में रहने वाली अमृता शर्मा बताती है कि वह होली पहले काफी उत्साह से मनाती थी क्योंकि उसे रंग बहुत पसंद हैं। पर अब वह घर से बाहर होली मनाने नहीं जाती क्योंकि इस दिन लड़कियों पर रंग भरे बैलून से लेकर कीचड़ तक फेंके जाते हैं, यही नहीं लड़के रंग लगाने के बहाने उनके साथ ओछी हरकत तक करने से बाज नहीं आते।
नोएडा निवासी सुमन भंडारी बताती हैं कि उनकी शादी दो साल पहले हुई है। होली के दिन उनके पति के दोस्त और देवर व उनके साथी होली करने की जिद करते हैं। सुमन बताती हैं कि ऐसे मौकों पर कई बार लोग नशे में भी रहते हैं और ऐसे में उन्हें अपनी सीमा का ख्याल नहीं रहता। इन अनुभवों से उलट आगरा की इंजीनियरिंग छात्रा नियति है, जिसे होली का इंतजार पूरे साल रहता है और वह अपनी सहेलियों के साथ इस दिन खूब मस्ती और हुड़दंग मचाती हैं। नियति कहती है कि होली रंग और उत्साह का त्योहार है और उसे अच्छा लगता है कि इस मौके पर वह अपनी सहेलियों के साथ खूब मस्ती करती हैं। वैसे नियति भी मानती है कि खास तौर पर होली पर युवतियों-महिलाओं का बाहर निकलना अब सहज नहीं रहा।
इस साल होली को शालीन, सभ्य और पारंपरिक तरीके से मनाने के लिए कई सामाजिक संगठनों मे पहल की है। होली मिलन की शक्ल में सामूहिक होली खेलकर सामाजिकता और पारिवारिकता के टूटते धागों को बांधने से लेकर बगैर पानी के होली खेलने के लिए लोगों को जागरूक किया जा रहा है। उम्मीद है इस बार हाथ में पिचकारी लिए अमृता और सुमन जैसी लड़कियां बगैर किसी डर के होली  का आनंद उठाएंगी तो नियति जैसी किशोरियों की होली की मस्ती इस बार और बढ़ जाएगी।

रविवार, 6 मार्च 2011

निर्वस्त्र नियति


बीज का बीजक
प्रकृति के लिए पुराना
मानवीय ग्रंथियों के लिए
नया समाजशास्त्र भी है

एक पूरी पौध
याकि अव्वल एक गाछ
मटमैली निश्चिंत छाया
चहचहाटों की
चोंच से बने घोसले
कुछ रेंगती सचाइयों को
छिपाए कोटर

रंगीन सज
फलदार धज की
संवेदनशील संभावना
होती है हर बीज में
साथ में  होती है
एक काली कठोर
आशंका भी
उजड़ जाने की
परती पर पर्यावरण
रचने से पहले
बिखर जाने की

होता है हर संबंध
अपनी यात्रा से पहले
एक बीज ही
भरोसे की अनंत
चढ़ाई और ढलान
संभावना-आशंका की
निर्वस्त्र नियति

नाबालिग दुनिया में बालिग नाखून


यौनिकता का अध्याय सौंदर्यशास्त्र में भी शामिल है और समाजशास्त्र भी मनुष्य की इस वृति को अपने अध्ययन के लिए जरूरी मानता है। पर यही यौनिकता आज अपने बढ़े नाखूनों और हिमाकतों के साथ अपराध की सबसे संगीन दुनिया को आबाद कर रही है। अपराध की यह  दुनिया भीतरी तौर पर जितनी सघन है, बाहरी दुनिया में भी इसका विस्तार उतना ही हुआ है। भीतर-बाहर जहां तक यौनिक अपराध की नीली रौशनी पहुंची है, उसे देख मनुष्यता को रचने वाली ताकतों की त्रासद स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।
बहरहाल, बात बाल यौन शोषण की। यह मुद्दा बड़ा है पर उससे भी ज्यादा अहम है कि हम इस मुद्दे को किस रूप में देखते हैं। सरकार ने अब तक के अपने अध्ययनों और समझ के आधार पर इस मुद्दे पर कानूनी सख्ती की पहल नए विधेयक के जरिए की है। यह  सराहनीय है। सराहना महज इसलिए नहीं कि इससे इस बर्बर अपराध पर पूरी तरह लगाम कसी जा सकेगी बल्कि इसलिए कि बचपन तक को अपने नाखूनों और जबड़ों में लेने वाली मानसिकता के खिलाफ राष्ट्रीय चिंता और जागरूकता का आधार इससे काफी व्यापक हो जाएगा। केंद्रीय कैबिनेट ने इस बाबत जिस विधेयक को मंजूरी दी है, उसमें कुल नौ अध्याय और 44 धाराएं हैं। प्रस्तावित कानून में बाल यौन अपराध के ज्यादातर प्रचलित प्रसंगों को समेटने की कोशिश की गई है। इसके मुताबिक अगर यौन अपराध को बच्चे के किसी विश्वासपात्र या उसके संरक्षण का दायित्व निभाने वाले किसी व्यक्ति, सुरक्षा बलों के सदस्य, पुलिसकर्मी, लोकसेवक, बालसुधार गृह से जुड़े लोग, अस्पताल या शैक्षणिक संस्थानों के किसी सदस्य ने अंजाम दिया तो उसे संगीन अपराध माना जाएगा।
जाहिर है कि सरकार का इरादा उस पूरे परिवेश को बच्चों के प्रति खास तौर पर संवेदनशील बनाने का है, जहां बच्चों को कायदे से सबसे ज्यादा सुरक्षित माहौल मिलना चाहिए। प्रस्तावित बिल की धारा सात को लेकर चर्चा सबसे ज्यादा है। इसके तहत 16 से 18 साल के बच्चों के बीच साझी सहमति से बने यौन संबंध को लेकर किसी तरह की सजा का प्रावधान नहीं है। कह सकते हैं कि सेक्स को लेकर रजामंदी की उम्र कानून की नई प्रस्तावित व्याख्या में बालिगाना दहलीज के भीतर दाखिल हो गई है। विधेयक की इस प्रस्तावना के हिमायती और विरोधियों के अपने-अपने तर्क हैं। कुछ को लगता है कि नई खुली और बदली जीवनशैली ने यौन संबंधों को लेकर किशोरों और युवाओं की सोच-समझ को काफी हद तक बदल दिया है। खुले बाजार की छतरी में गढ़ा गया यह नया समाजशास्त्र कई लोगों को खासा खतरनाक लगता है। पर इस बात से तो शायद ही कोई इनकार करे कि हमारी सामाजिक परिस्थतियां अब कई मामलों में पहले जैसी नहीं रही।
नया बदलाव परंपरा के ठीक उलट जरूर है पर यह नए समय की सचाई भी है। लिहाजा, इन पर विचार करते हुए आंख और दिमाग के खुलेपन की दरकार है। सरकार का विधेयक अभी प्रस्तावित है। लिहजा, बहस और चर्चा की गुंजाइश अभी खत्म नहीं हुई है। विधेयक को लाने की तत्परता को देखते हुए यह तो साफ है कि सरकार की मंशा बाल यौन अपराध के खिलाफ गंभीर और कारगर पहल करने की है। इसलिए यह जरूरी है कि स्वयंसेवी संगठनों से लेकर संबंधित सरकारी विभाग और मंत्रालय इस बाबत सहमतियों और असहमतियों के बीच मजबूत लोकतांत्रिक निर्णय तक पहुंचें। विवाद और विरोध के कारण कई बड़ी पहल बीच रास्ते में ही रुक जाती है, जैसा कि महिला आरक्षण बिल को लेकर हो रहा है। भूलना नहीं होगा कि बाल यौन अपराध महज अपराध नहीं बल्कि यह एक  संवेदनशील समाज रचना के बुनियादी संकल्प के आधार को ही चुनौती है। और अगर कबूलनी ही है तो चुनौती इस आधार की पुष्टता को बनाए और बचाए रखने की कबूलनी होगी।