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मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

भ्रष्टाचार की अमर्त्य व्याख्या


अमर्त्य सेन को जब नोबेल मिला था तब इस सम्मान का इसलिए भी स्वागत हुआ था कि इस बहाने बाजार और  भोग का  खपतवादी "अर्थ" सिखाने वाले दौर में वेलफेयर इकॉनमिक्स की दरकार और महत्ता दोनों रेखांकित हुई। अमर्त्य  हमेशा अर्थ के कल्याणकारी लक्ष्य के हिमायती रहे हैं। इसलिए जीडीपी और सेंसेक्सी उछालों में दिखने वाले विकास के मुकाबले वे हमेशा ग्रामीण शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों को विकास का बैरोमीटर बताते हैं। एक ऐसे दौर में जबकि अर्थ को लेकर तमाम तरह की अनर्थकारी समझ की नीतिगत स्थितियां हर तरफ लोकप्रिय हो रही हैं तो नोबेल विजेता इस अर्थशास्त्री ने दुनिया के सामने कल्याणकारी अर्थनीति की तार्किक व्याख्याएं और दरकार रखी हैं।
हैरत नहीं कि जब भ्रष्टाचार को लेकर बढ़ी चिंता पर उन्होंने अपनी राय जाहिर की तो देश में दिख रहे तात्कालिक आवेश और आक्रोश से अलग अपनी बात कही। अमर्त्य को नहीं लगता कि भ्रष्टाचार को लेकर सिर्फ मौजूदा मनमोहन सरकार पर दबाव बनाना वाजिब है। वह सरकार और सरकार में बैठे कुछ लोगों की भूमिका से ज्यादा उस व्यवस्थागत खामी का सवाल उठाते हैं, जिसमें भ्रष्टाचार की पैठ गहरी है। इस लिहाज से माजूदा यूपीए सरकार हो या इसके पहले की सरकारें, दामन किसी का भी साफ नहीं।
अमर्त्य की नजर में भ्रष्टाचार की चुनौती तो निश्चित रूप से बढ़ी है पर इससे निजात आरोपों और तल्ख प्रतिक्रियाओं से तो कम से कम मिलने से रहा। दुर्भाग्य से देश में संसद से लेकर सड़क तक अभी जो शोर-शराबा दिख रहा है, वह अपने गिरेबान में झांकने की बजाय दूसरे का गिरेबान पकड़ने की नादानी से ज्यादा कुछ भी नहीं। आखिर एक ऐसे समय में जबकि सभी यह स्वीकार करते हैं कि राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नैतिकता के सरोकारों का अभाव हर स्तर पर दिख रहा है, हम कैसे यह उम्मीद कर सकते हैं कि भ्रष्टाचार की पागल नदी पर हम ऊपर ही ऊपर नैतिक पाररदर्शिता का सेतु बांध लेंगे या कि ऐसा करना ही इस समस्या का हल भी है।
भ्रष्टाचार को लेकर इस देश में केंद्र की सबसे शक्तिशाली कही जाने वाली सरकार तक को मुंह की खानी पड़ी है। यह इतिहास अभी इतना पुराना नहीं हुआ है कि इसके सबक और घटनाक्रम लोग भूल गए हों। आज भ्रष्टाचार का पैमाना लबालब है पर इसके खिलाफ कोई संगठित जनाक्रोश नहीं है। विपक्षी पार्टियां खुद इतनी नंगी हैं कि वे इस मुद्दे पर न तो जनता के बीच लंबी तैयारी से जा सकते हैं और न ही सरकार को सधे तार्किक तीरों से पूरी तरह बेध सकती हैं क्योंकि तब तीर उनके खिलाफ भी कम नहीं चलेंगे।
एक और सवाल अमर्त्य सेन ने गठबंधन सरकारों की मजबूरी को लेकर भी उठाया है। उन्होंने मनमोहन सिंह की छवि की तरफ इशारा करते हुए कहा कि भले आपकी ईमानदारी की छवि जगजाहिर हो पर गठबंधन का लेकर कुछ मजबूरियां तो आपके आगे होती ही हैं। दिलचस्प है कि गठबंधन भारतीय राजनीति का यथार्थ है। पर इस यर्थाथ की पालकी ढोने वाली पार्टियों को यह तो साफ करना ही होगा कि गठबंधन की जरूरत आैर सरकार चलाने की मजबूरी में वे कितनी दूर तक समझौते करेंगे।  
बहरहाल, अर्थ को कल्याण के लक्ष्य के साथ देखने वाले सेन मौजूदा स्थितियों से पूरी तरह निराश भी नहीं हैं। उनकी नजर में भ्रष्टाचार को अब लोग जिस स्पष्टता से स्वीकार कर रहे हैं, वह एक सकारात्मक लक्षण है। किसी समस्या को चुनौतीपूर्वक स्वीकार करने के बाद ही उसके खिलाफ आधारभूत रूप से किसी पहल की गुंजाइश बनती है। अभी कम से कम यह स्थिति तो जरूर आ गई है कि इस बात पर तकरीबन हर पक्ष एकमत है कि अगर समय रहते समाज और व्यवस्था में गहरे उतर चुके भ्रष्टाचार के जहर के खिलाफ कार्रवाई नहीं की गई तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी। बस सवाल यहां आकर फंसा है कि इसके खिलाफ पहल क्या हो और  पहला कदम कौन बढ़ाए। तात्कालिक आवेश पर अंकुश रखकर अगर समाज, सरकार और  राजनीतिक दल कुछ बड़े फैसले लेने के लिए मन बड़ा करें तो एक भ्रष्टाचार विहीन समय और व्यवस्था के सपने को सच कर पाना मुश्लिक नहीं है। अमर्त्य अर्थ के जिस कल्याणकारी लक्ष्य की बात करते हैं, जाहिर है कि उसका शपथ मीडिया, समाज और संसद सबको एक साथ लेना होगा।         

1 टिप्पणी:

  1. यहाँ पर सबके अपने -अपने राग हैं... तो देश की चिंता किसको है .....शुक्रिया

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