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रविवार, 20 फ़रवरी 2011

मथभुकनी


 (1)
मथभुकनी
कोई लांछन नहीं
बजाप्ता अब नाम है उसका
लाड़ के साथ पुकारा 
शख्सियत के साथ
काढ़ा जानेवाला नाम

(2)
बहनों में दो उससे पहले
एक उसके बाद
और आखिर में
भाइयों की युगलबंदी
सबसे पहले मां ने कहा
अपनी सबसे अलग
इस बेटी को
मथभुकनी
फिर बहनों ने
बाद में चलकर
रक्षा बंधन के लिए
कलाई आगे करने वाले
उम्र में आधे भाइयों ने
किया विकास
इस पुकारू परंपरा का

(3)
दूध पीने से ज्यादा
दूध काटने की आदत
प्यार पाने से ज्यादा
प्यार को ना बांटने की
जिद्दी फितरत
अलगाती चली गई उसे
अपने ही सहोदरों से
पहले तो घरेलू परिवेश ने ही
फूंका शंख
फिर कुछ स्वायत्त किताबों ने
बांधे पंख
और आजाद होता चला गया
एक ख्यालात
मजबूत होती चली गई
एक कस्बाई लड़की का
तांबई हालात

(4)
सांस की गुदगुदी
मन की फुलझड़ी
किसी नाजुक पंखुरी पर लिखे
स्त्रीवादी सुलेख की तरह
मजबूत इरादों में ढलते गए
मथभुकनी के इर्द-गिर्द
प्यार को
अपनी जिंदगी के प्रति
एतराज जताने का
जरिया बना लेने के
खतरनाक जज्बे ने
बना दिया बालिग उसे
संविधान की सहमति का
मोहताज हुए बगैर
फूल और पराग पर
मचलने के
ककहरे अनुभव से पहले
वह खुद ही हो गई आस्वाद

(5)
मुझे क्यों
कहा गया मथभुकनी
क्यों नहीं बरसे
सिर्फ मेरे लिए मेघ
क्यों भींगाई जाती रही मैं
साझे प्यार की बरसात में
क्यों नहीं गूंजा
सिर्फ मेरा नाम
पुश्तैनी जज्बात में
सवालों का तकिया
नींद से ज्यादा सपने दे गई
मैं भुकाती रहूं माथा
और कोई देता रहे साथ
प्यार का
प्यार की
कभी न खत्म होने वाली
तालाश का

(6)
मथभुकनी को देखना
तीन दशकों में एक साथ
तौलना
उसके अनुभवों की मात्रा को
कोई मामूली लेखाजोखा नहीं
कुछ कहना ही हो अंदाजन 
तो कह सकते हैं महज इतना
कि कई बार साना गया आटा
गूंथी गई बार-बार मिट्टी
है इंतजार में अब भी
गर्म तबे  के
घूमती चाक के  

भरोसे का अंत


19 फरवरी 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के नियमित स्तंभ ‘फिर से’ में पूरबिया की पोस्ट

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

हाँ मेरी संगिनी


पटरी पर
जब तक दौड़ती है रेल
बनी रहती है धड़कन 
जिंदगी की   
हाँ मेरी संगिनी
होकर तुम्हारे साथ
होता है यह एहसास 
कि पटरी के बिना रेल
और मैदान से बाहर
खेल का जारी रहना
यकीन नहीं
बस है एक मुगालता 
सुब कुछ ठीक होने का
अपनी ही लानत पर
निर्भीक होने का 
   

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

बोध अपराध का अबोध


हर दौर अपने पिछले दौर और समय की चुगली करता है। पर हमारा दौर सिर्फ इस मायने में ही अपने पिछले दौरों से जुदा नहीं है। पहली बार है कि हम कई उन बातों के बदलने या ना होने पर सिर पीट रहे हैं, जो अब तक हमारे जेहन के लिए सुकूनदेह हुआ करते थे। दरअसल, यह दौर है भरोसे के त्रासद अंत का, संबंधों और संवेदनाओं के लगातार छीजते चले जाने का। वैसे यह पीड़ा और शिकायत भी नई नहीं है। इस तरह का रोना भी प्रबुद्ध चेतना की दुनिया में फर्ज अदायगी की अक्षर परंपरा बन चुकी है। पिछले तकरीबन दो दशकों में हमारा समय और समाज इन स्थितियों से इतनी बार दो-चार हो चुका है कि अब न तो कोई सनसनी उसे सहमाती है और न ही किसी त्रासद खबर पर वह चौंकता है। पर बावजूद इसके कहना तो यही पड़ेगा कि भीतर तक पसर जाने वाले जिस स्याह और क्रूर परिवेश को रचने व उसके साथ जीने की लाचारी को हम चाहकर भी नहीं लांघ पा रहे, वह मानवीय चेतना के इतिहास का सबसे बड़ा परीक्षाकाल है। हम इस इम्तहान से किनारा कर न तो किसी बेहतर समय की कल्पना कर सकते हैं और न ही भविष्य के किसी  सुनहरेपन को लेकर आश्वस्त हो सकते हैं।
बहरहाल, बात उस दुखद खबर की जो हालात की जघन्यतम परिणति को लेकर, जो एक बार फिर हमारे सामने थोड़ा संवेदनशील और एक अपेक्षित जिम्मेदार 'सामाजिक' के आचरण पर खरे उतरने की दरकार सामने रखती है। देश की राजधानी में कर्ज के बोझ से दबे एक बाप की मजबूरी उस सीमा को लांघ गई कि उसे इस बोझ से मुक्ति का मार्ग अपने बेटे की हत्या से ही निकलता महसूस हुआ। बेटा भी उम्र में महज चार साल का। यह घटना महज अपनी दुनियादारी में चूके और हारे मनुष्य के हिंसक मनोविज्ञान भर नहीं समझाता, बल्कि संबंधों के कथित सुरक्षा दायरे में घुसपैठ कर चुकी हिंसा के समाजशास्त्र का नया पन्ना यहां  से खुलता है। क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो एक बाप अपने अबोध बेटे के खिलाफ आपारिधिक षड्यंत्र को उस अंजाम तक नहीं ले जाता, जैसा कि इस घटना की शुरुआती जानकारी से जाहिर है। न सिर्फ मासूम की हत्या घर से दूर गला घोंटकर की गई बल्कि हत्या के शक की सूई दूसरी तरफ घूमे और कर्जदार होने का बोझ भी आसानी से सिर से उतर जाए, ये सारा ब्लूप्रिंट हत्यारे पिता के दिलोदिमाग में पहले से साफ था। लिहाजा, यह सिर्फ प्रतिक्रियात्मक अपराध भर नहीं, इसके पीछे है वह सामाजिक सच जिसके आगे संबंधों का हर धागा कमजोर है, संवेदना का हर आग्रह बेमानी है।
अब तक के हालात में यह क्रूरता सिर्फ महिलाओं के खिलाफ दिखती थी। पर अपराध की यह नई प्रवृत्ति यौन अपराध या महिलाओं के प्रति पुरुष दुराग्रह से भिन्न है। इस अपराध को हमारी जैविक रचना से भी जोड़कर नहीं देखा जा सकता। दरअसल, यह उस समय का सच है जिसने जिंदगी को साधन, सुविधा और अर्थ की फांस में जकड़कर रख दिया है। हमारा समय, हमारा समाज और साथ ही हमारी सरकार, विकास और उपलब्धि के नाम पर जिन चुभती सचाइयों पर आंखें मूंदती रही है, यह उसका ही प्रतिफलन है कि एक चार साल के बच्चे का जीवन जिन हाथों में सबसे ज्यादा सुरक्षित होना चाहिए था, वही हाथ उसका गला घोंटते हुए भी नहीं कांपे। परिवार, परंपरा, संबंध और संवेदना की गोद में दूध पीती सामाजिकता को कुचलकर आगे बढ़ने वाले कदम किस दिशा और मंजिल के आकांक्षी हैं, यह समझ हमारी चिंता के केंद्र से अगर अप्रासंगिक रूप से बाहर है तो एक बाप का हत्यारा होना और एक अबोध की मौत की खबर भी हमें शायद ही परेशान करें। पर शायद यह पूरा सच नहीं क्योंकि हम एक संवेदना विरोधी दौर के जरूर हमराही हैं, संवेदना शून्य दौर के नहीं। संवेदनाओं के साथ बची-खुची रिस्तों की गुंजाइश ही हमें जीवन को जीने का तर्क और भविष्य के लिए वर्तमान को रचने का मंत्र सीखा सकती है।   

रियल फील और थ्रिल से लबरेज रिलेशन



रियलिटी शोज के जमाने का रिलेशन भी रियल फील और थ्रिल से लबरेज है और इस फील को डंके की चोट पर मुहैया करा रही हैं आई-पील और अनवांटेड 72 जैसी रंग-बिरंगी गोलियां बनाने वाली कंपनियां...

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

वो झूठ बोलेगा और लाजवाब कर देगा



शादी के बाद पति-पत्नी के रिश्ते में कितनी पारदर्शिता रहे, इसका अब व्यावहारिक रास्ता निकाल लिया गया है। रेडियो-टीवी पर बैठे लव गुरुओं और मैरिटल काउंसलरों की भी सलाह ऐसी ही है। साफ तौर पर हिदायत दी जा रही है कि जो कहने-बताने से रिश्ते पर आंच न आए, वही सही है। पर यहां भी एक पेच है। शेखी की तरह सचाई बघारने वाले ज्यादातर पुरुषों को अपने पिछले रिलेशन और अफेयर के बावजूद अपनी पत्नियों से परेशानी का खतरा न के बराबर होता है। इसके उलट महिलाओं को यह हिदायत दी जाती है कि पुरुष ऐसे ही होते हैं, यहां-वहां और जब-तब मुंह मारने वाले। सो उसके किए पर अफसोस क्यों? चाहे जैसे हो बचा लो रिश्ता और इस तरह पेश आओ कि तुम्हारा पति तुम्हारे काबू में रहे, बहके नहीं। और अगर बहके भी तो लौट के बुद्धु घर को आए की तरह।
रजनी एक अध्यापिका है और उसका पति इंश्योरेंस एजेंट। रजनी ने टीवी पर आने वाले  मैरिटल काउंसिलिंग के कार्यक्रम में बैठे विशेषज्ञों के आगे अपनी परेशानी रखी। उसकी शादी उसके साथ पढ़ने वाले लड़के से होनी थी। दोनों के बीच तकरीबन चार-पांच साल नजदीकी ताल्लुकात रहे। अफेयर भी कह सकते हैं। पर जब शादी की बात चली तो लड़के के घर वाले नहीं माने। रजनी आज अपने शादीशुदा जीवन के आगे सब कुछ भूल चुकी है। उसकी एक बेटी स्कूल जाती है। पर उसका पति आज भी उसे अपने प्रति पूरी तरह वफादार नहीं मानता। उसे इस बात पर आए दिन पति से प्रताड़ित होना पड़ता है। दरअसल, रजनी ने एक ही गलती कि उसने अपने जीवनसाथी को शादी के कुछ ही दिनों बाद सब कुछ बता दिया। छह साल पहले कहा सच आज भी उसकी शादीशुदा  जिंदगी को ग्रास रहा है। रजनी जैसी युवतियों से हमदर्दी रखने वाले भी यही कहते हैं कि पति के साथ सब कुछ शेयर करना जरूरी नहीं है। पुरुषों के लिए तो बदचलनी की गाली भी गिनती के ही हैं, पर महिलाओं की बोलती बंद करने के लिए उन्हें बदचलन ठहराना घर से बाहर कया घर के अंदर भी सबसे आसान औजार है।
हाल में स्वयंवर सीजन में लोगों ने राहुल महाजन की शादी का रियल ड्रामा टीवी पर देखा। राहुल के लिए शादी का यह पहला मौका नहीं था। और लड़कियों से अफेयर के मामले में तो वह और भी पहुंचा हुआ रहा है। पर उससे शादी का ख्वाब सजाने वाली किसी भी लड़की को इस बात से शिकायत नहीं थी। इस मुद्दे पर कोई चर्चा भी नहीं हुई। आप सोचकर देखें, राहुल का सच किसी लड़की का होता तो क्या होता? अव्वल तो उसे इस टीवी शो का हिस्सा ही नहीं बनाया जाता। अगर बनाया भी जाता तो वरमाला कम से कम उसके गले में तो राहुल नहीं डालता। यह एक तरफ तो नए दौर का टीआरपी मार्का मनोरंजन का सच है तो दूसरी ओर यह रियलिटी उस पुरुष मानसिकता की भी है जिसे अपने उपर कभी कोई खरोंच बर्दाश्त नहीं भले खुद उसके नाखून बढ़ते रहें। 

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

गोपन का ओपन : दैनिक जागरण में ‘पूरबिया’


11 फरवरी 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के नियमित स्तंभ ‘फिर से’ में पूरबिया मनुष्य की सामाजिकता पर...

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

गोपन का ओपन



रोटी, कपड़ा और मकान ये तीन आदिम जरूरतें आदमी को जिलाए रखने के लिए तो जरूरी हैं पर अगर मनुष्य का दर्जा 'सामाजिक' का माना जाए तो इन जरूरतों से आगे उसे कुछ और भी हासिल करने की जरूरत है। यह समझ हमारे संविधान निर्माताओं की भी रही तभी उन्होंने मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी शामिल किया। अधिकार किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था में हमारे हाथ की तरह होते हैं, जिससे हम रचना और विकास की सीढ़ियां बनाते हैं और फिर अपने आरोहण के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। दुनियाभर में सभ्यतागत विकास के हर चरण को इन्हीं हाथों और सीढ़ियों ने संभव बनाया है।
अभिव्यक्ति की आजादी हमारी सामाजिक व लोकतांत्रिक साझी समझदारी का निर्माण करते हैं। विचार का समन्वयकारी चरित्र ही कल्याणारी भी है। पर इस चरित्र  का तब सबसे स्याह रूप सामने आता है जब हम इस आजादी को महज अपने 'गोपन' को 'ओपन' करने की सही-गलत सहूलियतों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
दो-तीन दशक पहले तक जिन इबारतों को लिखने के लिए गली-मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक शौचालयों के दीवारों का चोरी-चुपके इस्तेमाल होता था उसके लिए आज अनंत साइबर स्पेस है। कमाल की बात है कि इस स्पेस ने अभिव्यक्ति की आजादी को चाहे जितना सहज बनाया हो पर इस आजादी के मुंह पर स्वच्छंदता की कालिख भी कम नहीं मली गई। दुनियाभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि अपनी 'असामाजिकता' को समाज के हिस्से शातिराना तरीके से खिसकाना सबसे आजाद ख्याल है। लिहाजा ऐसे ख्याली लोगों की मनोरुग्णता और मलीन फैंटेसी से साइबर स्पेस पटने लगा है। दिलचस्प है कि ऐसे हिमाकती लोगों में पुरुषों की गिनती सबसे ज्यादा है। इतनी ज्यादा कि यहां आधी दुनिया की मौजूदगी साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से पसीना तक बहाना पड़ सकता है। यकीन न हो तो आप इंटनेट पर किसी भी तेज-तर्रार सर्च इंजन पर बैठकर  तसल्ली कर लें।
मेरे एक वरिष्ठ कवि साथी ने बताया कि खासतौर पर ब्लागरों और सोशल नेटवर्किग साइटों पर समय गुजारने वालों जो नई देसी और भाषाई दुनिया अपने यहां सामने आई है, वह कथित सेक्स फैंटेसी के नाम पर लोकाचारों और लोक मर्यादाओं की जड़ों पर अनजाने ही काफी सघन और कठोर प्रहार कर रहे हैं। लिहाजा अपने आसपास होने वाली बातचीत और व्यवहारों में अचानक हम कोई बड़ा परिवर्तन नोटिस करने लगें तो हैरत नहीं। इस मुद्दे पर कायदे का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है, नहीं तो हमारे चौंकने या सन्न रह जाने के ढेर सारे तार्किक आधार हमारे सामने होते।  
सवाल यह है कि हमारे लोग संस्कारों की सामासिकता को दूध पिलाने वाले मां-बहन, भाई-बहन, भाभी-चाची, फूआ-मौसी जैसे पारिवारिक रिश्तों को आखिर किसी जिद की भेंट चढ़ाया जा रहा है। क्या यह बायलॉजिकल फैक्ट कि दुनिया में दो ही जाति है- पुरुष और स्त्री, एक व्यक्ति की सोच-विचार की उड़ान को थामे रखने वाली अकेली डोर है। यह सब अगर है भी तो इस डोर को थामे पतंगबाजों में महिलाएं क्यों नहीं शामिल हैं।  सवाल जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है इसका जवाब। एक पुरुष अकेले में अपनी दुनिया को किस तरह की नंगई और सोच से रचना और भरना चाहता है, इसका जेनेसिस रिपोर्ट इतना सनसनीखेज हो सकता है कि महिलावादी आंदोलन से लेकर मनुष्य की सामाजाकिता का अध्ययन करने वाले शास्त्र तक के औचित्य पर सवाल खड़े हो जाएं।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तू खा गोली, मैं करूंगा प्रेम


वेंडर मशीनों से कंडोम का मुफ्त वितरण उतना ही जरूरी है जितना गली-मोहल्ले में खुले एटीएम से पैसे निकालने की आसानी। गुजरात में पिछले गरबा महोत्सव को हॉट इवेंट का दर्जा दिलाने के लिए गरबा पांडालों में ये दोनों ही सुविधाएं एक साथ मौजूद  थीं। इससे पहले दिल्ली जैसे शहरों में रेड लाइट इलाकों को सेहत के लिहाज से कंडोम के मुफ्त वितरण के प्रयोग आजमाए जा चुके हैं। इस तरह की समझदारी अब नई नहीं रही, बात इससे आगे निकल चुकी है। कंडोम का बचावकारी मिथ अब टूट रहा है, उन पुरुषों के लिए जिनके लिए कभी भी यह स्वेच्छा का चुनाव नहीं रहा। हारे को हरिनाम और डरते को चलाना पड़े कंडोम से काम। हाल तक की स्थितियां यही थीं। पर अब बदल रहा है सब कुछ।
पिछले एक दशक में 'देह' को हर लिहाज से 'संदेहमुक्त' कराने की पराक्रमी कोशिशें हुई हैं। वैसे न तो ये कोशिशें नई हैं और न ही इनके पीछे की  मंशा। फर्क है तो बस उस व्यग्रता और तेजी में जो इन डरे-सहमे और छिपे उपक्रमों को आज खुलेआम धार चढ़ा रहे हैं, रैशनल कसौटियों पर कस रहे हैं। कंडोम का झल्लीदार अवरोध सुरक्षा की चाहे जितनी अचूक गारंटी हो, पर इसे स्वीकार करने वाला पुरुष मन आज तक भारी रहा है। यह भारीपन तकरीबन वैसा ही है, जैसा नसबंदी से भागने वाली पुरुषवादी झेंप। पहली सूरत में ऐसा लगता है जैसा यौन मोर्चे पर पौरुष तेज को जानबूझकर निस्तेज किया जा रहा है जबकि दूसरी सूरत पौरुषपूर्ण पराक्रम को आत्मघाती तरीके से कमजोर करने की है। पर अब ये सारी दुविधाएं, सारी समस्याएं बीती बातें हो चुकी हैं। रियलिटी शोज के जमाने का रिलेशन भी रियल फील और थ्रिल से लबरेज है और इस फील को डंके की चोट पर मुहैया करा रही हैं आई-पील और अनवांटेड 72 जैसी रंग-बिरंगी गोलियां बनाने वाली कंपनियां।
प्रेम का महापर्व आनेवाला है। नई सदी में यह महापर्व अपना पहला दशक पहले ही पूरा कर चुका है। इस बार तो इसके विस्तार का नया चरण शुरू होगा। याद आती है 'डेबोनियर' की तर्ज पर हिंदी में प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका का पहला संपादकीय। संपादक महोदय ने ओशोवादी लहजे में प्रेम की देहमुक्ति की मांग पर आंखें तरेरी थीं। लिखा था- 'प्रेम वासना की कलात्मक अभिव्यक्ति है'। आज तो ऐसे तर्कों की दरकार भी नहीं। हिंदी के बौद्धिक जगत में तो ये बातें कई तरीके से कही जा चुकी हैं कि हर संबंध की असलियत बिस्तर पर खुलती है। संबंधों की यह यात्रा चाहे किसी भी रास्ते शुरू हो, उसकी परिणति एक है।
कह सकते हैं कि यह परिणति देह और प्रेम को एक सीध में ला खड़ा करती है और यह सिंपल फिनोमेना ग्लोबल है। लिहाजा अब प्रेम की न तो नसें बंद की जाएंगी और न ही किसी निरोध-अवरोध से इसके मचलते प्रवाह को बांधने की मजबूरी होगी। अब तो महिलाओं के पर्स में ही पुरुष की प्रेमी देह का सुरक्षा मंत्र भी होता है। अब तक पति या प्रेमी के दीर्घायु होने के लिए महिलाएं उपवास रखती थीं, अब उसके  प्रेमाखेटन के लिए वह गोलियों का सेवन करती हैं, अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ की जोखिम भरी शर्त पर।
भूले न हों अगर आप तो याद करें मल्लिका सेहरावत की पहली हाहाकारी फिल्म 'ख्वाहिश'। कंडोम की डिब्बी दुकान से खरीदेने में लड़के की घिग्घी बंधती है और मल्लिका यही काम निस्संकोच तरीके से कर देती है, जिस पर सिनेमा हॉल के कुछ कोनों से तालियों भी उछलती है। नए दौर का वेलेंटाइन मार्का प्रेम अब इसी तरह की बेधड़की से परवान चढ़ेगा, जिसमें महिलाएं पुरुषों के सेफ खेलने के लिए इंतजाम अपने साथ रखेंगी और पुरुष लिंगवर्धक यंत्र और हाईपावर वियाग्रा डोज के सेवन से इस इंतजाम का भरपूर दोहन करेंगे। आखिर प्रेम के दैहिक भाष्य के दौर में संदेह की गुंजाइश है भी कहां? अगर किसी महिला के मन के कोने में संदेह है भी तो मान लीजिए कि न तो दफ्तर में बॉस उसे तरक्की देगा और न स्कूल-कॉलेज या पड़ोस का साथी उसे एकांत में मिलने के लिए प्रेमल मिस कॉल मारेगा।     

रविवार, 6 फ़रवरी 2011

आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है


चौहत्तर आंदोलन का मशहूर गीत है- 'जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है।' कवि और सर्वोदय कार्यकर्ता रामगोपाल दीक्षित गीत में एक जगह कहते हैं- 'आज देख लें कौन रचाता मौत के संग सगाई है, तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रांति द्वार पर आई है।' दरअसल, देश के लिए जिंदगी से ज्यादा चमकदार होती है, देश के लिए कुर्बानी। समय, समाज और इतिहास तीनों ही शहादत की इस लाली को सबसे गहरे और सच्चे जज्बे के रूप में स्वीकारते रहे हैं, इन्हें सम्मान देते रहे हैं।
पर स्थिति तब उलट जाती है जब जान न्योछावर करने के आदर्श जज्बे के साथ जानबूझकर खिलवाड़ होता है, राजनीति होती है। पिछले दिनों मुंबई हमले में शहीद हुए शहीद मेजर उन्नीकृष्णन के चाचा के. मोहनन ने जिस आक्रोश से भरकर खुद को आग के हवाले किया, उसे आसानी से खारिज नहीं किया जा सकता। मोहनन ने वैसे भी राजधानी में वहां जहां देश की सबसे बड़ी पंचायत बैठती है, उससे महज कुछ दूरी पर ही इस अकल्पनीय कृत को अंजाम दिया। आसान है बहुत यह समझना कि उनके भीतर जलते सवालों का रुख किस तरफ था। जैसा कि मौके से बरामद सुसाइड नोट से जाहिर है कि मोहनन 26/11 के मुख्य आरोपी अजमल आमिर कसाब को अब तक फांसी न दिए जाने से खासा खिन्न थे। यह खिन्नता इससे पहले भी जनता की आवाज बनकर सड़कों पर कई बार अलग-अलग शक्लों में फूट चुकी है। यह और बात है कि कसाब को फांसी का मुद्दा अब तक सरकार और उसके विरोधियों के लिए महज पॉलिटिकल माइलेज लेने का वसीला ही ज्यादा रहा है। इसलिए इस मुद्दे पर जो सियासी बहस या प्रतिक्रिया अब तक सामने आई है, उससे जनता में भड़का गुस्सा शांत होने की बजाय और तेज ही हुआ है।
कानून की अपनी मयार्दाए हैं, जिनका पालन लाजमी है। पर उस रवैए का क्या जो इन मर्यादाओं की आड़ में अपना हित साधने से नहीं चूकते। बदकिस्मती से ऐसा करने वाले लोग न सिर्फ सरकार के जवाबदेह पदों पर बैठे हैं बल्कि उनके विरोधियों का रैवया भी तकरीबन ऐसा ही रहा है। 26/11 की घटना को अदालत तक ने 'देश पर आक्रमण' माना है। लिहाजा, इसके आरोपी के साथ बर्ताव को लेकर सरकार की सख्ती साफ दिखनी चाहिए। पर आलम यह है कि सरकार कसाब को फांसी तो दूर इस हमले से सीधे बावस्त पाकिस्तान तक के साथ अपने सलूक को अब तक निर्णायक कसौटी पर नहीं उतर पाई है। यह साफ तौर पर उस शहादत के साथ क्रूर मजाक है, जो देश के लिए कुर्बानी के जज्बे को सर्वापरि मानती है।
मोहनन तकरीबन 99 फीसद जल चुके हैं और शायद ही उनकी सांसें ज्यादा समय तक उनका साथ दें। पर उनके आक्रोश का लावा तब तक धधकता रहेगा, जब तक यह देश न सिर्फ कसाब को फांसी से झूलता देख ले बल्कि देश के खिलाफ उठने वाली हर आवाज, हर हाथ और हर दुस्साहस को उसी की भाषा में जवाब देना नहीं सीख लेता। भूले नहीं होंगे लोग कि जब शहीद उन्नीकृष्णन के घर कुछ औपचारिक आंसू, सांत्वना और फूलमाला लेकर केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन पहुंचे थे तो उनके पिता ने कितनी सख्त प्रतिक्रिया जताई थी। इस अपमान से बिफरे मुख्यमंत्री ने यह तक बयान दे डाला था कि अगर यह शहीद उन्नीकृष्णन का घर नहीं होता तो उनके दरवाजे पर कोई  कुत्ता भी नहीं जाता। अच्युतानंदन  को अपने इस बयान को लेकर काफी फजीहत उठानी पड़ी थी। आखिरकार हारकर उन्होंने माफी मांगी। देश के लिए शहीद होने के जज्बे को महज फर्ज अदायगी से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। शहीद की विधवा और परिजन को सिलाई मशीन और फ्रेम में जड़े प्रशस्ति के कुछ शब्द और चांदी-तांबे के कुछ मेडल भर इसकी कीमत नहीं। इस महान जज्बे के कारण जिस पीड़ा और संकट से शहीद के परिजनों को गुजरना पड़ता है, उसका तो बगैर अनुभव के अंदाजा लगाना भी मुश्किल है। मोहनन ने उस पीड़ा का एहसास सरकार को दिलाने के लिए जो तरीका अपनाया है, वह देश के नाम एक और कुर्बानी है।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

मुहब्बत का पहला पाठ नचनियों ने पढ़ाया था

एक ऐसे समय में जब छवियों की अतिशयता ने जीवन के एकांत तक को भर दिया है। यह बात समझनी थोड़ी असहज हो सकती है कि लोक की बनावट को जीवन रचना की तरह रेखांकित करने वाले सौंदर्यबोध की परंपरा ने हिंदी काव्य इतिहास को अनूठेपन को काफी हद तक और काफी दूर तक गढ़ा है। ऐसे में कई बार यह स्थिति विरोधाभासी लगती है कि पिछले तकरीबन दो दशकों में हिंदी के ठेठपन के हिमायती ज्यादातर नए कवियों के यहां इस परंपरा का न तो निर्वहन दिखाई पड़ता है और न ही उनकी कथित सामयिकता इस अनूठेपन का कोई विकल्प सूझाने का जोखिम ही उठाती है। बहरहाल, जिक्र हिंदी के वरिष्ठ कवि रवीन्द्र भारती के हालिया कविता संग्रह 'नचनिया' का।
इस संग्रह में लोक स्मृतियों का ऐसा जीवंत ताना-बाना बुना गया है कि आधुनिक समय में भी उनकी मौजूदगी का एहसास होता है। भारती के इस संग्रह की कविताओं का शीर्षक और आधार बिंब दोनों ही 'नाच' है। कुलीनता की नई शब्दावली से खारिज 'नाच' और  'नचनिया' जैसे शब्दों के बहाने लोकरंग की उस उत्सवी दुनिया से पहचान कराई गई है, जो महज फंतासी नहीं बल्कि एक ऐसा ठेठ और ठोस यथार्थ है, जिसके गुणधर्म और गुणसूत्र आज भी हमारी चेतना की जमीन को आद्र करते हैं- 'नाचो/ पीछे को आगे से जोड़े/ आगे को पीछे से बांधे/ नाचो कि नाचेगी दुनिया/ मियां यह नाच है।'
'नचनिया' से पहले अपने विलक्षण नाटक 'कंपनी उस्ताद' से खासी चर्चा और शोहरत पा चुके रवीन्द्र भारती चूंकि सामाजवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि से आते हैं, लिहाजा आधुनिकता के स्नो-पाउडर से चमकते चेहरे-मोहरों की बजाय वह 'धूल-धूसर गात' वाला लोक उन्हें ज्यादा खींचता है, जिसका विस्मरण अब काव्य अनुभूति के क्षेत्र की एक खतरनाक सचाई बनती जा रही है- 'उसके घूंघरू की आवाज/ यहां तक आ रही है छम्म, छम्म.../ बच्चे मुस्करा रहे हैं-/ लगता है जैसे वे नचनिया को नहीं/ विलुप्त हो रही किसी प्रजाति को देख रहे हैं।' 'नचनिया' जिस लोक का हिस्सा है या कि जिस लोक को रचता है, उसकी पदचाप भले पीछे छूट गई हो पर उसकी छाप को कवि ढोलक और मृदंग पर पड़ने वाली थाप की तरह महसूस करता है- 'मुहब्बत का पहला पाठ-/ किसी किताब ने नहीं, इन्हीं नचनियों ने पढ़ाया था।'
'नचनिया' के लोक में कवि सामयिक स्थितियों को पूरी तरह खारिज नहीं करता बल्कि वह आज के कई विरोधाभासी और विसंगतिपूर्ण स्थितियों को रेखांकित करता है। 'गुजरात' शीर्षक से संग्रह में दो कविताएं हैं। पर भारती के लिए गुजरात का टेक्स्ट नारावादी या प्रचारित बिंबों भर से महज नहीं बनता बल्कि उसकी लोकचेतना का कंपास ही यहां भी उसके दृष्टिकोण को तय करता है, तभी तो वह समकालीन 'गुजरात' की यात्रा पर जाते हुए हठात् कह उठता है- 'आगे क्या हुआ पता नहीं चला/ सिर्फ इतना मालूम हुआ कि सूत्रधार ने जैसे कहा-/ ग से गांधी/ व से वालदैन/ कि गोली चल गई।' मौजूदा गुजरात का रक्तिम यथार्थ कवि को विचलित भी करता है- 'गिद्ध कितना मंडरा रहे हैं.../ यह भी ससुरे हैं चिरई की जाति।'
लोकबोध की दरकार के साथ एक खतरा भी और वह खतरा है अतीतगामी होने का। भारती की काव्य चेतना ने भरसक इस खतरे का अतिक्रमण किया है पर वे यहां-वहां चूके भी हैं और ऐसा अनायास नहीं बल्कि जान-बूझकर हुआ दिखता है। 'नचनिया' संग्रह की एक कविता है 'दिल्ली में कथक'। वस्तुत: यह एक व्यंग्य कविता है जो केंद्रित विकास की भीतरी  विरोधाभासी स्थितियों का खुलासा करती है। पर यहां भी कवि के भीतर का नचनिया न तो उसे ढ़ंग से आक्रोश से भरने देता है और न ही व्यंग्यात्मक अभिधा से आगे जाने देता है- 'बेलीक मत अलापिए राग, पकड़े रहिए/ संविधान की लय/ खैर छोड़िए राजनीति/ आजादी जवान भई/ कथक में आइए/ हां ता थई..तत/ थई..तत...थई।'  वैसे इसे भारती के शिल्पगत मिजाज के रूप में भी देख सकते हैं, जहां एक कवि खुद से अपनी सीमा और  मर्यादा दोनों तय करता है।
अंतिम तौर पर कोई राय 'नचनिया' को लेकर बनानी हो तो यही कह सकते हैं कि न सिर्फ समकालीन हिंदी काव्य चेतना बल्कि देश और समाज के बीच गढ़ी जा रही समकालीन चेतना के विरुद्ध यह संग्रह एक रचनात्मक हस्तक्षेप की तरह है। अच्छी बात यह है कि कवि की अंगुलियां समकालीन विसंगतियों की ओर कम बार उठी हैं। और जब भी उठी हैं तो ये अंगुलियां अपना लोक रचने, अपनी लोकमुद्राएं बनाने में ज्यादा दिलचस्पी लेती हैं। लोक अवहेलना और विस्मृति के दौर में नचनिया का नाच कोई स्वांग नहीं, जिस पर महज तालियां बजें और वाह-वाह हो। दरअसल यह एक निरगुनिया लोक संगीत है, जो लोक और परंपरा को एक सूर में अलापती है। हिंदी काव्य चेतना को इस सूर ने लंबे समय तक समृद्ध किया है, समकालीन स्थितियों में भी उसकी दरकार खारिज नहीं हुई हैं, ये बताती हैं भारती के नए संग्रह की 54 कविताएं।

नचनिया (कविता संग्रह)   कवि : रवीन्द्र भारती   प्रकाशक : राधाकृष्ण   मूल्य : 150 रुपए

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

बर्बर देश ओबामा का


किसी भी खतरे से ज्यादा खतरनाक होता है, उस खतरे का खौफ। ठीक वैसे ही जैसे सुरक्षा से बड़ी होती है उसकी चुनौती। 9/11 के बाद अमेरिका अब भी इस चुनौती को सहजता से साध नहीं पाया है। आज भी अमेरिका न  सिर्फ खौफजदा है बल्कि उसके आगे आतंकी हिंसा का जिन्न अब भी नाच रहा है।  लिहाजा, सुरक्षा के नाम पर उसकी कई कवायदों का विरोध रह-रहकर होता रहा है। यह और बात है कि कहने के लिए उसके पास यह उपलब्धि भी है कि वह इस दौरान आतंकवादी हिंसा से मुक्त रहा है। दरअसल, नागरिक सम्मान, रंगभेद विरोध और मानवाधिकार सुरक्षा के जो प्रवचन अमेरिका बाकी दुनिया को सुनाता रहा है, वह अपने ही घर में उसका मुंह चिढ़ाता है।  मामला अमेरिकी एयरपोर्ट पर भारत सहित दूसरे देशों के लोगों के साथ सुरक्षा जांच का हो या सिखों को पगड़ी और महिलाओं के साड़ी पहनने पर जताए जाने वाले सुरक्षा एतराज का, इतना तो साफ लगता है कि ये मुद्दे सुरक्षा मुस्तैदी से ज्यादा उसे अंजाम देने के तौर-तरीके को लेकर ज्यादा गरमाते  हैं।
नया मामला कैलीफोर्निया में गैरकानूनी रूप से चल रहे ट्राई वैली यूनिवर्सिटी (टीवीयू) के झांसे का शिकार हुए भारतीय छात्रों का है। अखबारों और टीवी चैनलों पर जो तस्वीरें दिखाई गयीं, वह उस मध्यकालीन बर्बरता की याद दिलाते हैं कि कैसे तब दास बना लिए लोगों के पांव और गर्दन में बेड़ियां डालकर उन्हें धिक्कारा जाता था, मारा-पीटा जाता था। पांव में बेड़ी सरीखे रेडियो कॉलर पहनने को मजबूर हुए छात्रों को लेकर भारत की चिंता वाजिब है। यह यूनिवर्सिटी अब बंद भले है, लेकिन इसका खुलना और चलना अमेरिकी कानून और सम्बंधित  विभागों की अपनी नाकामी का हश्र है। इसका ठीकरा दूसरों पर नहीं फोड़ा जा सकता। विदेश मंत्रालय ने फौरी मांग की है कि भारतीय छात्रों के साथ अच्छा सलूक होना चाहिए और उन पर मॉनिटर का इस्तेमाल अनुचित है। गौरतलब है कि इस तरह के रेडियो कॉलर का इस्तेमाल आमतौर पर जंगली जानवरों की गतिविधियों  पर नजर रखने के लिए किया जाता है। अमेरिकी सुरक्षा नीतियों की ज्यादतियों का शिकार हुए ज्यादातर छात्र आंध्र प्रदेश के हैं। अमेरिकी तेलुगू संघ के जयराम कोमती की इस मुद्दे पर शिकायत है कि गलती टीवीयू की है, जिसने कुछ नियम तोड़े। इसका खामियाजा बेवजह छात्रों को उठाना पड़ रहा है। दिलचस्प है कि मिस्र के मौजूदा राजनैतिक संकट पर अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हाल में ही जोर देकर कहा है कि मिस्र में लोगों को हर वो अधिकार प्राप्त है जो दुनिया के किसी हिस्से में किसी नागरिक समाज को प्राप्त है, लिहाजा उनके शांतिपूर्ण विरोध के लोकतांत्रिक अधिकारों को किसी सूरत में खत्म नहीं किया जा सकता। अब कोई चाहे तो लगे हाथ अमेरिकी प्रशासन से सवाल कर सकता है कि वह अपने यहां पढ़ने आए छात्रों को किस गुनाह की सजा दे रहे हैं। इन छात्रों की अब तक कि किस गतिविधि से उसे ऐसा लगता है कि उनके साथ वैसा ही बर्ताव होना चाहिए जैसा किसी जानवर के साथ। और यह भी कि क्या अमेरिकी प्रशासन की नजर में यह कार्रवाई तब भी मान्य होती जब ऐसा ही बर्ताव किसी अमेरिकी के साथ किसी दूसरे देश में होता तो।
साफ है कि अमेरिका को ऐसा लगता है कि दुनिया में आज भी उसकी ऐसी हैसियत है कि अपनी किसी सनक या अतिवादी कदम के विरोध को वह आसानी से मैनेज कर लेगा। इससे पहले का अनुभव कमोबेश यही है। इसलिए दरकार इस बात की है कि भारत सरकार को इस बार निर्णायक पहल के साथ आगे बढ़ना चाहिए ताकि यह मामला महज ठंडे बस्ते में न चला जाए बल्कि आगे से ऐसी कोई नौबत ही न आए। आखिर यह नए विकसित और शक्तिशाली भारत के भी साख का सवाल है। अब तक की स्थिति में भारत के इस पूरे प्रकरण के कठोर शब्दों  में निंदा और विरोध करने के बावजूद कोई आश्वस्तकारी प्रतिक्रिया अमेरिका की तरफ से नहीं आई है। हां, यह जरूर है कि भारत अपने लोगों को मुमकिन है कि वहां से सुरक्षित बाहर निकाल लाए, जो वहां फंसे हैं। पर उस बदसलूकी का क्या जो वहां हमारे लोगों के साथ लगातार हो रहे हैं। क्या भारत इस मामले में अमेरिका को झुकाने की हैसियत रखता है। अगर नहीं तो इस महादेश को बड़ा बाजार बनने और बड़ी इकोनामी बनने के साथ इस ताकत का मालिक होने के बारे में भी फिक्रमंद होना चाहिए।