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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

गल्र्स नेवर बी एलोन


अपनी बात शुरू करने से पहले वह बात जिसने अपनी बात कहने के लिए तैयार किया। आशुतोष राणा महज अभिनेता नहीं हैं। उनकी शख्सियत ने मुख्तलिफ हलकों में लोगों को अपना मुरीद बनाया है। अरसा हुआ टीवी के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी सुनी, जो अलग-अलग वजहों से आज तक याद है। राणा ने कहा था, "हमारी परंपरा महिलाओं से नहीं, महिलाओं को जीतने की रही है।' यह वक्तव्य स्मरणीय होने की सारी खूबियों से भरा है। होता भी यही है कि किसी बेहतरीन शेर या गाने की तरह ऐसे बयान हमारी जेहन में गहरे उतर जाते हैं बगैर किसी अंदरुनी जिरह के। यह खतरनाक स्थिति है। आज जब बुद्धि और तर्क के तरकश संभाले विचारवीरों की बातें पढ़ता-सुनता हूं तो इस खतरे का एहसास और बढ़ जाता है।
दरअसल, तर्क किसी विचार की कसौटी हो तो हो किसी मन की दीवारों पर लिखी इबारत को पढ़ने का चश्मा तो कतई नहीं। यह बात अक्षर लिखने वालों की क्षर दुनिया में कहीं से भी झांकने से आसानी से समझ आ सकती है। इसी बेमेल ने शब्दों की दुनिया को उनके ही रचने वालों की दुनिया में सबसे ज्यादा बेपर्दा किया है। दो-चार रोज पहले का वाकया है। फिल्म का नाइट शो देखकर बाहर कुछ दूर आने पर सड़क के दूसरे छोर पर अकेली लड़की जाती दिखी। मेरे साथ तीन साथी और थे। इनमें जो पिछले करीब एक दशक से बाकायदा रचनात्मक पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाला था, उसने अपनी जेब से गांजे से भरी सिगरेट का दम लगाते हुए कहा, "मन को उतना ही अकेला होना चाहिए, जितनी वह लड़की अकेली दिख रही है।'
 दूसरे साथी ने हिंदी की बजाय पत्रकारिता की अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की धारा से जुड़े होने की छाप देते हुए कहा, "गल्र्स नेवर बी एलोन। सिचुएशन एंड सराउंडिंग ऑलवेज आक्यूपाय देयर लोनलिनेस।' तीसरे ने कहा, "किसी लड़की को अकेले बगैर उसकी जानकारी के देखना किसी दिलकश एमएमएस को देखने का सुख देता है।' रहा मुझसे भी नहीं गया और मैंने छूटते ही कहा," वह या तो कहीं छूट गई है या फिर किसी को छोड़ चुकी है।'
साफ है कि पढ़ा-लिखा पुरुष मन किसी स्त्री को सबसे तेज पढ़ने का न सिर्फ दावा करता है बल्कि उसे गाहे-बगाहे आजमाता भी रहता है। तभी तो विचार की दुनिया में यह मान्यता थोड़े घायल होने के बावजूद अब भी टिकी है कि स्त्री मन, स्त्री प्रेम, स्त्री सौंदर्य को लेकर दुनिया में "सच्चा' लेखन भले किसी महिला कलम से निकली हो पर अगर "अच्छा' की बात करेंगे तो प्रतियोगिता पुरुष कलमकारों के बीच ही होगी।
इसलिए राणा जैसों को भी जब जुमला गढ़ने की बारी आती है तो स्त्री से जीत की स्पर्धा करने की बजाय उस पर एकाधिकार का चमकता हौसला आजमाना पसंद करते हैं। यह और कुछ नहीं सीधे-सीधे छल है, पुरुष बुद्धि छल। आधी आबादी को समाज के बीच नहीं प्रयोगशाला की मेज पर समझने की बेईमानी सोच-समझ की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। जिस रात की घटना का जिक्र पहले किया गया, वहां भी ऐसा ही हुआ। किसी ने महिला-पुरुष के सामाजिक रिश्ते को सामने रखकर उस अकेली दिख रही लड़की के बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि तब सोच की आंखों में सुरूर की बजाय थोड़ा जिम्मेदार सामाजिक होने की सजलता होती। और इस सजलता की दरकार को किस तरह जानबूझकर खारिज किया गया, वह अगले ही कुछ मिनटों में उस रात भी जाहिर हुआ।
असल में, रात के अंधेरे में वह महिला अपने घर के पास उतरने की बजाय कहीं और उतर गई थी। और वह लगातार इस कोशिश में थी कि उसका स्थान और दिशा भ्रम किसी तरह टूटे पर उसकी कोशिश काम नहीं आ रही थी। सो जैसे ही उसकी निगाह हम चारों पर पड़ी, वह थोड़े आश्वस्त भाव से हमारी ओर लपकी । हम खुश भी थे और इस चोर आशंका से भी भर रहे थे कि कहीं वह यह तो नहीं जान गई, जो हम अब तक उसके बारे में बोल-सोच रहे थे। पास आकर जब उसने अपनी परेशानी बताई तो बारी हमारे गलत साबित होने की की थी, शर्मिंदगी की थी। हम बाद में जरूर उस महिला की मदद कर पाए पर उस खामख्याली का क्या जो महिला देखते ही पर तोलने लगते हैं। राणा भी ऐसा ही करते हैं। वह बगैर महिला सच से मुठभेड़ किए उस पर विजय होने का सपना देखते हैं।

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