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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

पूस वैसा ना रात वैसी

यह दौर जितना बदलाव का नहीं, उससे ज्यादा अस्थिरता का है। स्थितियों को बदलतीं अस्थिरताएं हमारे आसपास से लेकर अंदर तक पसर चुकी हैं। आलम यह है कि मौसम का बारहमासी चित्त और चरित्र तक अब पहले जैसे नहीं रहे। जेठ की धूप और पूस की रात के परंपरागत अनुभव आज दूर तक खारिज हो चुके हैं। लिहाजा मौसम और प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता अब वैसा नहीं रहा, जैसा हमारे पुरखों का था। जलवायु मुद्दे पर विश्व सम्मेलनों से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही गैरसरकारी संस्थाएं, पिछले दो दशकों में इस खतरे को लगातार रेखांकित कर रही हैं कि मनुष्य ने अपनी लालच और बेलगाम जरूरतों पर अगर ध्यान नहीं दिया तो जीवन के लिए अनुकूलताएं तय करने वाले कारक एक-एक कर उससे छिनते जाएंगे। पर इस दिशा में कोई पहला, बड़ा और निर्णायक कदम अब तक इसलिए नहीं उठाया जा सका क्योंकि दुनियाभर की सरकारों को उस विकास की ज्यादा फिक्र है, जो उनकी जनता को उपभोग और व्यय का आधुनिक अनुशासन सिखाती है। 
सर्दी का आगाज इस साल भी वैसे तो पिछले कुछ सालों की तरह ही हुआ। इस बार भी सर्दी की शुरुआती दस्तक के साथ खबरें आने लगीं कि इस साल ठंड अपेक्षा से ज्यादा पड़ेगी और पारा गिरने के पुराने कई रिकार्ड धराशायी होंगे। हुआ भी ऐसा ही। दिसंबर बीतते-बीतते सर्दी ने समय को पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले लिया। उन इलाकों से भी पारे के खतरनाक स्तर तक गिर जाने की खबरें आ रही हैं, जो कोल्ड जोन से बाहर माने जाते थे। कश्मीर और हिमाचल में बर्फानी सर्दी ने अपने खतरनाक मंसूबे इस तरह जाहिर किए और यहां पड़ने वाली ठंड से निपटने के पारंपरिक अनुभव और तरीके लाचार साबित हो रहे हैं।
विडंबना ही है कि की तपिश महंगाई की हो या मौसम की बेरहमी, पहली मार पड़ती है गरीबों पर। उसकी ही जिंदगी सबसे पहले दूभर होती है, सबसे पहले उसकी ही सांसें उखड़ती हैं। रहा सवाल, सरकारी प्रयासों और उसकी संवेदनशीलता का तो आज अदालत को यह फिक्र करनी पड़ रही है कि रैनबसेरे न तोड़े जाएं और सड़कों पर जीवन गुजारने को मजबूर लोगों की हिफाजत के लिए सर्दी के मौसम में जगह-जगह अलाव जलाए जाएं। हाड़ तक अकड़ा देने वाली ठंड ने जहां बड़े शहरों की देर रात पार्टियों की रौनकी आंच और शराब दुकानों की कतारें बढ़ा दी है, वहीं विकास और सरकार दोनों ही दृष्टि से नजरअंदाज लोगों का हाल बुरा है। सर्दी को सह न पाने के कारण मौत की नींद सोने वालों की अखबारों में बजाप्ता तालिका छप रही है। लेकिन फर्क किसी को नहीं पड़ रहा है। समाज और सरकार दोनों के लिए यह इतनी चौंकाने वाली स्थिति नहीं कि वह अपना चैन लुटाएं।
उधर, बाजार में सर्दी और गरमी दोनों का सामना करने वाले एक से बढ़कर एक उत्पाद आ गए हैं। आप में अगर भोग की परम लिप्सा है और बीच बाजार खड़ा होने की इजाजत आपकी जेब आपको देती है तो फिर मौसम का बदलता बारहमासा भी आपके लिए हर सूरत में सुहाना है, आरामदायक है। पर यह स्थिति ठीक नहीं है। अगर हम अब भी बदले मौसम के खतरे को पढ़ने को तैयार नहीं हैं तो भविष्य के हिस्से हम एक तरफ तो खतरों का बोझ बढ़ा देंगे, वहीं दूसरी तरफ अपनी नीति और नीयत को लेकर ऐतिहासिक रूप से गुनहगार ठहराए जाएंगे। क्योंकि हरित पट्टियों का रकबा लगातार कम होते जाने का खतरा हो या पर्यावरणीय संतुलन को जानबूझकर बिगाड़ने की हिमाकत, इसके नतीजे अगर अभी ही खतरनाक साबित हो रहे हैं तो दूरगामी तौर पर तो ये पूरी तरह असह्य और प्रतिकूल साबित होंगे। लिहाजा, यह समय है निर्णायक रूप से चेतने और  कारगर कदम उठाने का। दरकार सिर्फ प्रकृति पर हावी होने की बजाय उसका साथी होने की है। उम्मीद करनी चाहिए कि इस साथ की चाह हम सबके अंदर पैदा होगी।

रविवार, 25 दिसंबर 2011

ब्लॉग राग में पूरबिया का जासूस

20 दिसंबर 2011 को डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के नियमित स्तंभ ‘ब्लॉग राग’ में पूरबिया का जासूस...



20 दिसंबर 2011 को डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के नियमित स्तंभ ‘ब्लॉग राग’ में पूरबिया का जासूस
***मूल आलेख पूरबिया का है जिसे हस्तक्षेप पर पुनर्प्रकाशित किया गया था और अखबार वालों ने नाम दे दिया हस्तक्षेप का...

बुधवार, 21 दिसंबर 2011

समय से मुठभेड़ करने वाले अदम

फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता है जिधर कोई।
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।।
जगजीत सिंह, सुल्तान खां, भूपेन हजारिका, श्रीलाल शुक्ल, इंदिरा गोस्वामी, देवानंद... यह साल अपनी विदाई बेला में भी शायद उतना रुदन न लिख सके, जितना जीवन और समाज की संवेदनाओं को अपनी उपस्थिति से नम करने वाली कुछ अजीम शख्सियतों को हमसे छीनकर हमारे दिलों पर लिख दिया है। अभी गम को पुराने बादल छटे भी नहीं थे कि जनकवि अदम गोंडवी का साथ हमेशा के लिए छूट जाने की खबर ने सबको मर्माहत कर दिया। इसे हिंदी पत्रकारिता के दिलो-दिमाग में उतरा देशज संस्कार कहें या जमीनी सरोकार कि तमाम अखबारों ने अदम के देहांत की खबर को स्थान देना जरूरी समझा।
अदम जनता के शायर थे और अपनी शख्सियत में भी वे आमजन की तरह ही सरल और साधारण थे। पुराने गढ़न की ठेहुने तक की मटमैली छह-छत्तीस धोती, मोटी बिनाई का कुर्ता और गले में सफेद गमछा लपेटे अदम को जिन लोगों ने कभी मुशायरों-कवि सम्मेलनों में सुना होगा, उन्हें इस निपट गंवई शायर के मुखालफती तेवर के ताव और घाव आज ज्यादा महसूस हो रहे होंगे। हिंदी की कुलीन बिरादरी इस भाषा को किताबों और सभाकक्षों में चाहे जो स्वरूप देकर अपना सारस्वत धर्म निबाहे, इसकी आत्मा तो हमेशा लोक और परंपरा के मेल में ही बसती है। यही कारण है कि अपने समय की सबसे चर्चित और स्मृतियों का हिस्सा बनी काव्य पंक्तियों के रचयिता इस जनकवि को अदबी जमात ने अपने हिस्से के तौर पर मन से कभी नहीं कबूला।
अदम काफी हद तक कबीराई मन-मिजाज के शायर थे।  इसलिए उन्हें इस बात का कभी अफसोस रहा भी नहीं कि उन्हें उनके समकालीन साहित्यकार और आलोचक किस खांचे में रखते हैं। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का हल्का और बाजारू चरित्र उन्हें खलता तो बहुत था पर वे इन मंचों को जनता तक पहुंचने का जरिया मानकर स्वीकार करते रहे। अपने कीब 63 साल के जीवन में उन्होंने हिंदुस्तान की उम्मीद और तकदीर का वह हश्र सबसे ज्यादा महसूस किया जिसने आमजन के भरोसे और उम्मीद को कुम्हलाकर रख दिया। सत्ता, सियासत और दौलत के गठबंधन ने गांव और गरीब को जैसे और जितनी तरह से ठगा, उसका जीवंत चित्र अदम की शायरी का सबसे बड़ा सरमाया है। अपने समय में सत्ता के खिलाफ वे सबसे हिमाकती और मुखालफती आवाज थे।
'काजू भुने प्लेट में व्हिसकी गिलास में/ उतरा है रामराज्य विधायक निवास में', 'इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया/ सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की', 'जो न डलहौजी कर पाया वो ये हुक्मरान कर देंगे/ कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे'....जैसे नारे और बगावती बयाननुमा पंक्तियों को लोगों की जुबान पर छोड़ जाने वाले अदम गोंडवी के बाद जनभावनाओं को निर्भीक अभिव्यक्ति देने वाली जनवादी काव्य परंपरा की निडरता शायद ही कहीं नजर आए।
जहां तक कथन के साथ काव्य शिल्प का सवाल है तो हिंदी में दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी अकेले ऐसे शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ हिंदी शायरी की जमीन का रकबा बढ़ाया बल्कि उसे मान्यता और लोकप्रियता भी दिलाई। हिंदी के काव्य हस्ताक्षरों की कबीराई परंपरा में अदम नागार्जुन और त्रिलोचन की परंपरा के कवि थे। अदम हिंदी और उर्दू की साझी विरासत के भी खेवनहार थे, यही कारण है कि हिंदी के साथ उर्दू बिरादरी भी उन्हें अपना मानती है। अपने समकालीन उर्दू शायरों में वे बशीर बद्र, मुन्नवर राणा, निदा फाजली, राहत इंदौरी और  वसीम बरेलवी जैसे ताजदार नामों  की तरह जनता की जुबां पर चढ़े शायर थे। शेर लिखने और अर्ज करने का उनका अंदाज बहुत नाटकीय नहीं था। उन्हें सुनने वाले उनके सीधे-सपाट पर बेलाग अंदाज के कायल थे। मानवीय अस्मिता के बढ़ते खतरों के बीच एक खरी और ईमानदार आवाज को मुखालफती जज्बों में बदलने का जोखिम उठाने वाले रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी को विनम्र श्रद्धांजलि।

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

जैक्सन, जफर और देव साहब !

उम्र को थामने की जिद कामयाबी और शोहरत के साथ जिस तरह मचलती है, वह तारीख के कई नामवर शख्सयितों की जिंदगी की शाम को उसकी सुबह से बहुत दूर खींचकर ले गई। सौंदर्य को पाने और देखने की दृष्टि के कोण चाहे न चाहे उम्र के चढ़े और ढीले लगाम ही तय करते हैं। पर यह सब जीवन की नश्वरता के खिलाफ एक स्वाभाविक मोह भर नहीं है। कुछ लोग जिंदगी को रियलिटी की बजाय एक फैंटेसी की तरह जीने में यकीन करते हैं। इस फैंटेसी को दिल से दिमाग तक उतार पाना और फिर अपने लिए जीने का अंदाज तय करना जिंदगी को इतिवृतात्मक गद्य की बजाय कविता की तरह जीना है। जब तक कोई याद नहीं दिलाता, मुझे अपनी उम्र याद नहीं आती। यह कोई फलसफाना बयान भले न सही पर शो बिजनस की दुनिया के एक अस्सी साला सफर का उन्वान जरूर है। 
चार साल पहले जब सदाबहार अभिनेता देवानंद की आत्मकथा लोगों के हाथों में पहुंची, तो शायद ही किसी को इस बात पर हैरानी हुई होगी कि उन्होंने उसका नाम 'रोमांसिंग विद लाइफ' रखा। यह रोमांस सिर्फ एक कामयाब या सदाबहार अभिनेता या देश के पहले स्टाइल आइकन का कैमरे की दुनिया की तिलस्म के प्रति नहीं था, बल्कि इस रोमांस के कैनवस को असफल प्रेमी से लेकर हरदिल अजीज इंसान का सतरंगी शख्सियत मुकम्मल बनाता था। तभी तो उनके बाद की पीढ़ी के अभिनेता ऋषि कपूर कहते हैं कि वे मेरे पिता की उम्र के थे पर उनके जीने का अंदाज मेरे बेटे रणबीर कपूर के उम्र का था।
यह हमेशा जवान रहने की एक लालची जिद भर नहीं थी। उनकी ही फिल्म के ही एक मशहूर गाने की तर्ज पर कहें तो यह हर सूरत में जिंदगी का साथ निभाने का धैर्यपूर्ण शपथ था, जिसे उन्होंने कभी तोड़ा नहीं बल्कि आखिरी दम तक निभाया। यह विलक्षणता अन्यतम है। अमिताभ बच्चन ने उन्हें अपनी श्रद्धांजलि में कहा भी कि उनके बाद उनकी जगह दोबारा नहीं भरी जा सकती क्योंकि यह एक युगांत है। राज कपूर, दिलीप कुमार 
और देवानंद ने ऐतिहासिक रूप में हिंदी सिनेमा के सबसे गौरवशाली सर्ग रचे, उस तिकड़ी की एक और कड़ी टूट गई। अब हमारे बीच सिर्फ दिलीप साहब रह गए हैं। इस त्रिमूर्ति के बाद भी हिंदी सिनेमा की चमक और चौंध कम होगी ऐसा नहीं है पर सूरज आंजने की कलाकारी तो शायद ही देखने को मिले।
अपने 88 वर्ष के जीवन में देवानंद ने तकरीबन सौ फिल्में की 
और 36 फिल्में बनाई। आंकड़ों में यह सफरनामा आज बॉलीवुड के औसत दर्जे के अभिनेता भी पा लेते हैं पर देवानंद होने की चुनौती इनसे कहीं बड़ी है। दिलचस्प है कि जिस फिल्मफेयर ने उन्हें 1966 में फिल्म 'गाइड' के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के पुरस्कार से नवाजा था, उसी ने तीन दशक से कम समय में इस लाजवाब प्रतिभा के फिल्मी करियर के अंत की भी घोषणा कर दी, उन्हें लाइफटाइम एचीवमेंट पुरस्कार थमा कर। यह देवानंद ही थे कि उन्होंने ऐसे पुरस्कार तब भी और बाद में भी विनम्रता से कबूले पर अपने सफर के जारी रहने की घोषणा हर बार करते रहे। कुछ लोगों की यह शिकायत जायज ही है कि अपने जीवन में ही एक बड़े अकादमी के रूप में स्थापित हो चुके देव साहब के तजुर्बे और प्रतिभा का सही इस्तेमाल न तो सरकार ने किया और न ही हिंदी फिल्म उद्योग ने अपनी किसी बड़ी पहल का उन्हें साझीदार बनाया। अब जब वे हमारे बीच नहीं रहे तो इस बात की कचोट और ज्यादा महसूस हो रही है।
देव साहब ने आखिरी सांस लंदन में ली। पर उनके लिए यह कोई ऐसी शोक की बात नहीं थी कि वह आखिरी मुगलिया बादशाह बहादुरशाह जफर की तरह शायराना अफसोस जताते। उन्होंने तो पहले से ही कह रखा था कि उनके शव को उनके देश न लाया जाए। दरअसल, देव साहब जिस आनंद के साथ अपनी जिंदगी को आखिरी दम तक जीते रहे, उसका सिलसिला वे जिंदगी के बाद भी खत्म नहीं होने देना चाहते थे। उनकी चाहत थी कि वे अपने चाहनेवालों की जेहन में हमेशा एक ताजादम हीरो की तरह बसे रहे। अपने लाइफ स्केच को पूरा करने का ये रोमानी 
और फैंटेसी से भरा अंदाज शायद ही कहीं और देखने को मिले।
माइकल जैक्सन के अंत को याद करते हुए इस सदाबहार अभिनेता की जीवटता की जीत को समझा सकता है। जैक्सन का हीरोइज्म कहीं से कमजोर नहीं था पर शोहरत 
और कामयाबी की चमक में उसके खुद का वजूद कहीं खोकर रह गया था। इस खोए-खोए चांद को देव साहब ने अपने आसमान के आस्तीन पर हमेशा टांक कर रखा। ...और इस चांद का मुंह हमारी यादों में शायद ही कभी टेढ़ा हो। 

जासूस है फेसबुक !


ऐसे पत्रकारों और  बौद्धिकों की कमी नहीं, जो अरब मुल्कों में राजशाही के खिलाफ भड़के जनसंघर्षों का बड़ा श्रेय सोशल नेटवर्किंग साइटों को दे रहे हैं। यही नहीं असांजे के विकीलीक्स खुलासे से लेकर स्लट वॉक तक कई आधुनिक तर्जो-तेवर वाली विरोधी मुहिमों की असली ताकत साइबर दुनिया ही रही है। दरअसल, मीडिया के चौबीस घंटों की निगहबानी के दौर में भी अल्टरनेट या न्यू मीडिया के तौर पर एक नया स्पेस तैयार हुआ, जहां स्वच्छंदता की हद तक पहुंची अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निर्भीकता तो है पर एक अभाव भी है। और यह अभाव है गंभीरता और जवाबदेही का। सवाल यह भी है कि जिस साइबर क्रांति को मनुष्य की चेतना और रचनात्मक मौलिकता का विरोधी बताया गया, वह रातोंरात मानवाधिकार का सबसे बड़ा पैरोकार कैसे बन गया, लोकतांत्रिक संघर्ष का एक जरूरी औजार  कैसे हो गया?  
बहरहाल, पिछले दो दशकों में न सिर्फ इंटरनेट यूजर्स की एक पूरी पीढ़ी समय और  समाज का हिस्सा बनी है बल्कि इनकी समझ और  भूमिका ने अपना असर भी दिखाया है। दोस्ती से लेकर परिणय तक का नया सामाजिक व्याकरण आज माउस के बटन से ही तय हो रहे हैं। कहीं 'गोपन' का 'ओपन' है तो कहीं दिली सुकून की तलाश। पर इस सचाई का एक दूसरा और स्याह पक्ष भी है। ज्यादा से ज्यादा कंज्यूमर आैर यूजर फ्रेंडली होने की बाजार की ललक अगर लोगों को आकर्षक और सुखद लगती है तो उन्हें शायद इससे जुड़े जोखिमों का अंदाजा नहीं है।
फेसबुक जो कि आज की तारीख में सबसे बड़ा और जिम्मेदार सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट मानी जाती है, उसके बारे में एक नया खुलासा सामने आया है कि वह अपने यूजर्स पर नजर साइट पर लॉग इन होने के दौरान ही नहीं बल्कि लॉग आफ होने के बाद भी रखती है। यही नहीं अगर आप फेसबुक परिवार में शामिल नहीं हैं लेकिन उसके वेबपेज को कभी विजिट कर चुके हैं तो भी आपकी गतिविधियों की फेसबुक जासूसी कर सकता है। वैसे फेसबुक से जुड़ा यह खुलासा साइबर दुनिया में नया नहीं है। इससे पहले भी याहू, गुगल, एडोब और माइक्रोसॉफ्ट जैसी आईटी कंपनियों द्वारा विवादस्पद ट्रैकिंग सॉफ्टवेयर के इस्तेमाल की बात सामने आ चुकी है।
यह एक खतरनाक स्थिति है। ज्यादातर उपभोक्ता जो ईमेल या कुछ नए-पुराने संपर्कों के बीच बने रहने के लिए ऐसी वेबसाइटों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें पता भी नहीं होता कि उनकी निजता की सुरक्षा यहां कैसे तार-तार होती है। कहते हैं कि बाजार के दौर में कुछ भी मुफ्त नहीं है। इसलिए अपनी एक या कई आईडी से साइबर दुनिया में अपना पता-ठिकाना मुफ्त हासिल करने वालों को इस बाबत सतर्क रहना चाहिए कि वह अनजाने ही अपनी निजता की ताला-चाबी कुछ शातिर हाथों में सौंप रहे हैं।
बाजार में उत्पादों की बिक्री के ट्रेंड से लेकर नए ऑफरों को फॉम्र्यूलेट करने में कंपनियों को उपभोक्ताओं के व्यापक डाटाबेस से काफी मदद मिलती है। यह जरूरत बैंकों से लेकर पहनने-खाने की चीचें तैयार करने वाली कंपनियों तक को तो पड़ती ही है, इसका इस्तेमाल इसके अलावा अन्यत्र भी संभव है। यह खतरनाक तथ्य कई बड़ी आईटी कंपनियों की विकासगाथा का दागदार सच है। अब समय आ गया है कि हम साइबर क्रांति को नए आलोचनात्मक नजरिए से देखें-समझें। भारत जैसे देश में तो अब तक ढंग का साइबर कानून भी नहीं है, सुरक्षा की बात तो दूर है। ऐसे में लोगों को ही अपनी आदतों को बेलगाम होने से रोकना होगा। नहीं तो सामान्य ईमेल फ्रॉड से आगे हमें कभी बड़े खामियाजे भी भुगतने भी पड़ सकते हैं। 

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

सोमवार, 31 अक्तूबर 2011

पहले राजीनामा फिर शादीनामा


बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

पनघट-पनघट पूरबिया बरत


पानी पर तैरते किरणों का दूर जाना
और तड़के ठेकुआ खाने रथ के साथ दौड़ पड़ना
भक्ति का सबसे बड़ा रोमांटिक यथार्थ है
आलते के पांव नाची भावना
ईमेल के दौर में ईश्वर से संवाद है

मुट्ठी में अच्छत लेकर मंत्र तुम भी फूंक दो
पश्चिम में डूबे सूरज की पूरब में कुंडी खोल दो...


दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।'
वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरने वाली जनता ने अपने लिए जो उम्मीद जुटाई, सियासी आकाओं ने उस उम्मीद को सफेद से स्याह करने में अपनी पूरी ताकत झांक दी। फिर सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में जिस दुनिया में रौनक और  चहल-पहल ज्यादा बढ़ी है  उसके 'विकसित हठ' और 'पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस' और 'लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है ।
हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वैश्विक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं।

पनघट-पनघट पूरबिया बरत
बहुत दूर तक दे गयी आहट

शहरों ने तलाशी नदी अपनी
तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी
गाया रहीम ने फिर दोहा अपना
ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...


बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, 'लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है।
कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2011

तुम सीटी बजाना छोड़ दो !


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीजिंग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों   से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है  
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

महात्मा की लीक पर ब्रह्मचारी प्रतीक


गांधी के ब्रह्मचर्य  प्रयोग पर सवाल और विवाद की धुंध आज भी छटी नहीं है। किताबें जो महात्मा के जीवन को लेकर लगातार आ रही हैं, उनमें उनके इस प्रयोग को हॉट सेक्सुअल टॉपिक  की तरह उठाया गया है। किताब को बेस्ट सेलर का तमगा दिलाने के लिए लेखकों ने गांधी के लिखे पत्र और लेख तो क्या हर उस वाक्य को खंगाला है जहां कहीं भी उन्होंने किसी महिला का नाम लिया है या फिर उनको लेकर शब्दों और भावों में किसी तरह की लैंगिक संवेदना के संकेत मिले हैं। गांधी अपने किए को लेकर खासे खुले थे। उनके 'गोपन' का यह 'ओपन' उनके जीवन संदर्भों और प्रयोगों को समझने में जितने कारगर नहीं हुए, उससे ज्यादा इनका इस्तेमाल विषय को विषयी बनाने में किया गया। नहीं तो यह कतई नहीं होता कि आत्मानुशासन को अपनी अहिंसक जीवनशैली का सबसे जरूरी औज़ार की तरह इस्तेमाल करने वाले महात्मा के जीवन को हम महज एक सेक्सुअल बिहेवेरियल लेबोरेटरी की तरह देखते।
बहरहाल गांधी और ब्रह्मचर्य से शुरू हुई चर्चा में बात एक नए और सामयिक संदर्भ की।  टीवी पर बिग बॉस का सीजन फाइव शुरू हो चुका है। उधर, बॉलीवुड के नए और उभरते कलाकार प्रतीक बब्बर इन दिनों अपनी फिल्म के हिट होने के लिए एक अनोखी प्रतिज्ञा के लिए चर्चा में हैं।  बिग बॉस की रियलिटी का धरातल पिछले सीजन में जितना बदला था, नए सीजनमें वह बदलाव प्रायोगिक हिमाकतों की नई दहलीज छू रहा है। शो का पौरुष और चारित्रिक बल बनाए रखने का जिम्मा शक्ति कपूर को दिया गया है तो, वहीं उनकी जिम्मेदारी का इम्तहान लेने के लिए बारह यौवनाओं का हुजूम इकट्ठा किया गया है। पिछले सीजन में लिहाफ की हलचल देखकर दर्शकों ने प्रेमी युगल की अंदरूनी कार्रवाई के रोमांच का अनुभव किया था। नए सीजन में अंदरूनी हलचल को खुले में लाने की मंशा साफ जाहिर होती है। पर तारीफ करनी होगी उन सितारे होस्ट्स की जिन्होंने शो की मेजबानी का फैसला तो बतौर प्रोफेशनल किए पर शक्ति कपूर की बिग बॉस के घर में एंट्री से पहले न तो उनसे कोई सीधी बात की और न ही दर्शकों से उनका कोई औपचारिक परिचय कराया। और तो और उनकी एंट्री के बाद बगैर उनका नाम लिए यहां तक कह दिया कि अच्छा हुआ बिग बॉस ने उन्हें (शक्ति को) अपने घर बुला लिया, नहीं तो वे किसी के घर जाने लायक नहीं थे। करीब 700 फिल्में करने के बाद एक सिने आर्टिस्ट का कद जितना दमदार और ऊंचा होना चाहिए था शक्ति ने उसे अपने ढीले कैरेक्टर के कारण ही कहीं न कहीं गंवाया है। देखना अब यह होगा कि इस रियलिटी शो में वे इस दाग को कुछ कम करना पसंद करेंगे या और ज्यादा दागदार हो जाएंगे।
शक्ति के बाद बात प्रतीक प्रसंग की। यह प्रसंग हमारे समय की युवा चेतना को समझने का नया प्रस्थान बिंदु भी बन सकता है। प्रतीक बब्बर हिंदी सिनेमा का नया चेहरा तो हैं ही उन्होंने कुछ ही दिनों और कुछ ही फिल्मों के बाद एक प्रतिभाशाली कलाकार की शिनाख्त पा ली है। प्रतीक ने अपनी नई रिलीज होने वाली फिल्म 'माई फ्रेंड पिंटो' की सफलता की कामना कुछ अनूठे अंदाज में की। उन्होंने यह प्रण उठाया है कि जब तक उनकी फिल्म रिलीज नहीं हो जाती, वे सेक्स नहीं करेंगे। दिलचस्प है कि यह प्रण एक युवा और अविवाहित कलाकार का  है। आमतौर पर सितारे अपनी फिल्म की सफलता के लिए दरगाहों और मंदिरों की दहलीज चूमते हैं पर प्रतीक इस मामले में सबसे अलग निकले। बताया जा रहा है कि अपने प्रण को जोखिम में नहीं डालने के लिए वे एहतियाती तौर पर बॉलीवुड. की आए दिन होने वाली लेट नाइट पार्टियों और फंक्शनों में जाने से बच रहे हैं।
प्रतीक का प्रण कहीं न कहीं उनकी और उनके जैसे युवाओं की जिंदगी की सच को भी बेबाकी से बयां करता है। मेल-मुलाकात और दोस्ती के दायरे में आज सब कुछ जायज है, कुछ भी वज्र्य या त्याज्य नहीं। यह दायरा न सिर्फ नए संबंधों के नए धरातल को चौड़ा और मजबूत कर रहा है बल्कि तरोताजगी से भरी उस युवा मानसिकता को भी बयां करता है, जो संबंध, परिवार और परंपरा की लीक को अपनी सीख के साथ बदल रहा है।
ऊपर बयां किए गए सारे हवाले हमारे सामने कई सवाल उठाते हैं। हमारे समय की ताकत और दिलचस्पी किन बातों में है? समाज और देश की सरहद लांघ चुके नफरत के दौर में प्रेम जिन अंत:करणों में आज भी महफूज है, उनके लिए इसका महत्व क्या है? क्या संबंधों का दैहिक तकाजा इतना भारी है कि उसके लिए संयम की कसौटी का सर्वथा त्याग जरूरी मांग हो गया है? ऐसा क्यों है कि देह को लेकर संदेह को मिटाने वाले हिमायतियों में हम, हमारे समय और हमारे समाज से भी आगे वह बाजार है जिसकी भूमिका को लेकर अपने तरह के संदेहों का जाला आज भी बना हुआ है।
एक बात जो इस पूरे संदर्भ में कही जा सकती है कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर में संबंध और संवेदना के हवाले भी बदल गए हैं। ये आत्मीय प्रसंग अपनी धीरता और गंभीरता को गंवाते जा रहे हैं। फौरीपन के नशे ने कॉफी और प्रेम दोनों को चुस्कीदार जायके में बदल दिया है। मन का सफर लंबी डग से नहीं पूरा किया जा सकता और फौरी आवेग से हासिल होने वाला स्पर्श दैहिक ही हो सकता है आत्मीय तो कदापि नहीं। तभी तो आत्मानुशासन की धीरता के हमारे समय के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा को भी लोगों ने नहीं बख्शा। हम अपने समय और उसकी संवेदना को किस 'शक्ति' और किस 'प्रतीक' से बयां करना चाहेंगे, यह हमारे ऊपर है। 

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

चर्चिल का सिगार और गांधी की लंगोट


गांधीजी की लंगोट चर्चिल तक को अखरती थी क्योंकि इस सादगी का उनके पास कोई तोड़ नहीं था। सो गुस्से में वे गांधी का जिक्र आते ही ज्यादा सिगार पीने लगते और उन्हें नंगा फकीर कहने लगते। आए दिन गांधीजी की ऐनक, घड़ी और चप्पल की नीलामी की खबरें आती रहती हैं। सरकार से गुहार लगाई जाती है कि गांधी हमारे हैं और उनकी सादगी के उच्च मानक गढ़ने में मददगार चीजों को भारत में ही रहना चाहिए। बीते साल मीडिया वालों ने अहमदाबाद में उस विदेशी शख्स को खोज निकाला जो गांधीजी की ऐसी चीजों का पहले तो जिस-तिस तिकड़म से संग्रह करता और फिर उन्हें करोड़ों डॉलर के नीलामी बाजार में पहुंचा देता।  फिर नीलामी आज सिर्फ गांधीजी के सामानों की नहीं हो रही। यहां और भी बहुत कुछ हैं। पुरानी से पुरानी शराब की बोतल से लेकर शर्लिन चोपड़ा की हीरे जड़ी चड्ढ़ी तक। खरीदार दोनों के हैं, सो बाजार में कद्र भी दोनों की  है। यानी नंगा फकीर बापू और हॉट बिकनी बेब शर्लिन दोनों एक कतार में खड़े हैं।
हमारे दौर की सबसे खास बात यही है कि यहां सब कुछ बिकता है- धर्म से लेकर धत्कर्म तक। आप अपने घर बटोर-बटोर कर खुशियां लाएं, इसके  लिए झमाझम ऑफर और सेल की भरमार है। इस बाबत आप और जानकारी बढ़ाना चाहें तो 24 घंटे आपका पीछा करने वाले रेडियो-टीवी-अखबार तो हैं ही। गुजरात के समुद्री किनारों पर जो नया टूरिज्म इंडस्ट्री डेवलप हो रहा है, वह अपने सम्मानित अतिथियों को गांधी के मिनिएचर चरखे और अंगूर की बेटी का आकर्षण एक साथ परोसता है। बस इतना लिहाज रखा जाता है कि क्रूज पर शराब तभी परोसी जाती हैं, जब वह गुजरात की सीमा से बाहर निकल आते हैं। गुजरात सीमा के भीतर ऐसा नहीं  किया जा सकता क्योंकि वहां शराबबंदी है। यानी आत्मानुशासन का जनेऊ पहनना जरूरी है पर उसे उतारकर उसके  साथ खिलवाड़ की भी पूरी छूट है।
ये बाजार द्वारा की गई मेंटल कंडिशनिंग का ही नतीजा है कि कल तक जिसे हम महज अंत:वस्त्र कहकर निपटा देते थे, उनका बाजार किसी भी दूसरे परिधान के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है।  मां की ममता पर भारी पहने वाले डिब्बाबंद दूध का इश्तेहार बनाने वाले आज अंत:वस्त्रों को सेकेंड स्किन से लेकर सेक्स सिंबल तक बता रहे हैं। जैनेंद्र की एक कहानी में नायक अपना अंडरबियर-बनियान बाहर अलगनी पर सुखाने में संकोच करता है कि नायिका देख लेगी। आज नायक तो नायक नायिकाएं और लेडी मॉडल स्टेज से लेकर टीवी परदे तक इन्हें धारण कर ग्लैमर दुनिया की चौंध बढ़ाती हैं।
बालीवुड की मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान कहती हैं, 'सब कुछ हॉट हो गया, अब कुछ भी नरम या मुलायम नहीं रहा। गुजरे जमाने की हीरोइनों के नजर झुकाने और फिर अदा के उसे उठाते हुए फेर लेने से जितनी बात हो जाती थी, वह आज की हीरोइनों के पूरी आंख मार देने के बाद भी नहीं  बनती।'  साफ है कि देह दर्शन के तर्क ने लिबासों की भी परिभाषा बदल दी। और इसी के साथ बदल गई हमारी अभिव्यक्ति और सोच-समझ की तमीज भी। पचास शब्द की खबर के लिए पांच कॉलम की खबर छापने का दबाव किसी अखबार की एडिटोरियल गाइडलाइन से ज्यादा मल्लिका का राखी जैसी बिंदास बालाओं का मुंहफट बिंदासपन बनाता है। रही पुरुषों की बात तो नंगा होने से आसान उन्हें नंगा देखने के लिए उकसाता रहा है। तभी तो महिलाओं के अंत:वस्त्र के बाजार का साइज पुरुषों के के मुकाबले कई  गुना है।  यह सिलसिला इंद्रसभा से लेकर आईपीएल ग्राउंड तक देखा जा सकता है। 'अंत:दर्शन' अब 'अनंतर' तक सुख देता है और पुरुष मन के इस सुख के लिए महिलाओं को फीगर से लेकर कपड़ों तक की बारीक काट-छांट करनी पड़ रही है।
बात चूंकि गांधी के नाम से शुरू हुई इसलिए आखिर में बा को भी याद कर लें।  खरीद-फरोख्त और चरम भोग के परम दौर की इस माया को नमन ही करना चाहिए कि उसकी दिलचस्पी न तो बा की साड़ी में है और न ही उसकी जिंदगी में। अव्वल यह अफसोस से ज्यादा सुकूनदेह है। और ऐसा अब भी है, यह किसी गनीमत से कमतर नहीं।

शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

मुझको राणा जी माफ़ करना !


अपनी बात शुरू करने से पहले वह बात जिसने अपनी बात कहने के लिए तैयार किया। आशुतोष राणा महज अभिनेता नहीं हैं। उनकी शख्सियत ने मुख्तलिफ हलकों में लोगों को अपना मुरीद बनाया है। अरसा हुआ टीवी के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी सुनी, जो अलग-अलग वजहों से आज तक याद है। राणा ने कहा था, 'हमारी परंपरा महिलाओं से नहीं, महिलाओं को जीतने की रही है।' यह वक्तव्य स्मरणीय होने की सारी खूबियों से भरा है। होता भी यही है कि किसी बेहतरीन शेर या गाने की तरह ऐसे बयान हमारी जेहन में गहरे उतर जाते हैं बगैर किसी अंदरुनी जिरह के। यह खतरनाक स्थिति है। आज जब बुद्धि और तर्क के तरकश संभाले विचारवीरों की बातें पढ़ता-सुनता हूं तो इस खतरे का एहसास और बढ़ जाता है।  
दरअसल, तर्क किसी विचार की कसौटी हो तो हो किसी मन की दीवारों पर लिखी इबारत को पढ़ने का चश्मा तो कतई नहीं। यह बात अक्षर लिखने वालों की क्षर दुनिया में कहीं से भी झांकने से आसानी से समझ आ सकती है। इसी बेमेल ने शब्दों की दुनिया को उनके ही रचने वालों की दुनिया में सबसे ज्यादा बेपर्दा किया है। दो-चार रोज पहले का वाकया है। फिल्म का नाइट शो देखकर बाहर कुछ दूर आने पर सड़क के दूसरे छोर पर अकेली लड़की जाती दिखी। मेरे साथ तीन साथी और थे। इनमें जो पिछले करीब एक दशक से बाकायदा रचनात्मक पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाला था, उसने अपनी जेब से गांजे से भरी सिगरेट का दम लगाते हुए कहा, 'मन को उतना ही अकेला होना चाहिए, जितनी वह लड़की अकेली दिख रही है।'
 दूसरे साथी ने हिंदी की बजाय पत्रकारिता की अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की धारा से जुड़े होने की छाप देते हुए कहा, ' गर्ल्स नेवर बी एलोन। सिचुएशन एंड सराउंडिंग ऑलवेज आक्यूपाय देयर लोनलिनेस।' तीसरे ने कहा, 'किसी लड़की को अकेले बगैर उसकी जानकारी के देखना किसी दिलकश एमएमएस को देखने का सुख देता है।' रहा मुझसे भी नहीं गया और मैंने छूटते ही कहा,'वह या तो कहीं छूट गई है या फिर किसी को छोड़ चुकी है।'
साफ है कि पढ़ा-लिखा पुरुष मन किसी स्त्री को सबसे तेज पढ़ने का न सिर्फ दावा करता है बल्कि उसे गाहे-बगाहे आजमाता भी रहता है। तभी तो विचार की दुनिया में यह मान्यता थोड़े घायल होने के बावजूद अब भी टिकी है कि स्त्री मन, स्त्री प्रेम, स्त्री सौंदर्य को लेकर दुनिया में 'सच्चा' लेखन भले किसी महिला कलम से निकली हो पर अगर 'अच्छा' की बात करेंगे तो प्रतियोगिता पुरुष कलमकारों के बीच ही होगी।
इसलिए राणा जैसों को भी जब जुमला गढ़ने की बारी आती है तो स्त्री से जीत की स्पर्धा करने की बजाय उस पर एकाधिकार का चमकता हौसला आजमाना पसंद करते हैं। यह और कुछ नहीं सीधे-सीधे छल है, पुरुष बुद्धि छल। आधी आबादी को समाज के बीच नहीं प्रयोगशाला की मेज पर समझने की बेईमानी सोच-समझ की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। जिस रात की घटना का जिक्र पहले किया गया, वहां भी ऐसा ही हुआ। किसी ने महिला-पुरुष के सामाजिक रिश्ते को सामने रखकर उस अकेली दिख रही लड़की के बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि तब सोच की आंखों में सुरूर की बजाय थोड़ा जिम्मेदार सामाजिक होने की सजलता होती। और इस सजलता की दरकार को किस तरह जानबूझकर खारिज किया गया, वह अगले ही कुछ मिनटों में उस रात भी जाहिर हुआ।
असल में, रात के अंधेरे में वह महिला अपने घर के पास उतरने की बजाय कहीं और उतर गई थी। और वह लगातार इस कोशिश में थी कि उसका स्थान और दिशा भ्रम किसी तरह टूटे पर उसकी कोशिश काम नहीं आ रही थी। सो जैसे ही उसकी निगाह हम चारों पर पड़ी, वह थोड़े आश्वस्त भाव से हमारी ओर लपकी । हम खुश भी थे और इस चोर आशंका से भी भर रहे थे कि कहीं वह यह तो नहीं जान गई, जो हम अब तक उसके बारे में बोल-सोच रहे थे। पास आकर जब उसने अपनी परेशानी बताई तो बारी हमारे गलत साबित होने की की थी, शर्मिंदगी की थी। हम बाद में जरूर उस महिला की मदद कर पाए पर उस खामख्याली का क्या जो महिला देखते ही पर तोलने लगते हैं। राणा भी ऐसा ही करते हैं। वह बगैर महिला सच से मुठभेड़ किए उस पर विजय पाने का सपना देखते हैं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रामलीला 450 पर नॉटआउट


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। तैयारी तो यहाँ तक है कि रावण का वध इस बार राम अन्ना की टोपी पहन कर करेंगे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है।
राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। 'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो  ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी  और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस,  इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।       

सोमवार, 26 सितंबर 2011

होरी के देश में गोरी


हमारा समय दिलचस्प विरोधाभासों का है। तभी तो जिस दौर में काला धन को लाने के लिए लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उसी दौर में सबसे ज्यादा ललक और समर्थन गोर तन को लेकर हैं। काला धन और गोरा तन, ये दोनों ही हमारे समय और समाज के नए शिष्टाचार को व्यक्त करने वाले सबसे जरूरी प्रतीक हैं। इन दोनों में आप चाहें तो अंदरूनी रिश्तों के कई स्तर भी देख-परख सकते हैं। अवलेहों और उबटनों की परंपरा अपने यहां कोई नई नहीं है। तीज-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक में इस परंपरा के अलग-अलग रंग हमारे यहां आज भी देखने को मिलते हैं। हालांकि यह जरूर है कि इस परंपरा का ठेठ रंग अब जीवन-समाज का पहले की तरह हिस्सा नहीं है।
पिछले कुछ दशकों में जोर यह हावी हुआ है कि चेहरा अगर फेयर और फिगर शेप में नहीं हुआ तो प्यार से लेकर रोजगार तक कुछ भी हाथ नहीं आएगा। संवेदना का यह दैहिक और लैंगिक तर्क टीवी चैनलों की कृपा से आज घर-घर पहुंच रहा है। कुछ महीने पहले की ही बात है जब अभिनेत्री चित्रांगदा सिंह ने यह कहते हुए फेयरनेस क्रीम का एड करने से इनकार कर दिया था कि उन्हें अपने सांवलेपन को लेकर फख्र है न कि अफसोस। चित्रांगदा के इस फैसले को रंगभेद का खतरा पैदा करने वाले सौंदर्य के बाजार के खिलाफ महिला अस्मिता की असहमति और विरोध के तौर पर देखा गया।
यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस फिल्म इंडस्ट्री और मॉडलिंग दुनिया के कंधों पर गोरी त्वचा और छरहरी काया का पूरा बाजारवादी तिलिस्म रचा गया है, वहां आज भी तूती रंग और देह से ज्यादा तूती काबिलियत की ही बोलती है। और यह रंगविरोधी समझ न सिर्फ व्यवसाय के स्तर पर पर बल्कि संवेदना के स्तर पर भी एकाधिक बार प्रकट हुई है। लोग आज भी 1963 में फिल्म 'बंदिनी' के लिए लिखे गुलजार के लिखे इस गीत को गुनगुनाते हैं- 'मोरा गोरा अंग लेइ ले...मोहे श्याम रंग देइ दे...'।
आज भारत में फेयरनेस क्रीम, ब्लीच और दूसरे उत्पादों का बाजार करीब 2000 करोड़ रुपए का है, जिसमें अकेले रातोंरात त्वचा को गौरवर्णी बना देने वाले क्रीमों की हिस्सेदारी करीब 1800 करोड़ रुपए की है। यही नहीं यह पूरा बाजार किसी भी दूसरे क्षेत्र के बाजार के मुकाबले सबसे ज्यादा उछाल के साथ आगे बढ़ रहा है। नई खबर यह है कि पीएमओ का ध्यान गोरेपन की क्रीम और मोटापा घटाने की दवा बेचने वालों के विज्ञापनी झांसे की तरफ गया है। पीएमओ ऐसे विज्ञापनों को आपत्तिजनक और खतरनाक मानते हुए बाजाप्ता इनके खिलाफ दिशानिर्देश दिए हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने इसके लिए उपभोक्ता मामलों के अधिकारियों के साथ बैठक की। बैठक में यह साफ किया गया कि विभाग को ऐसी नियामक प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे ऐसे भ्रमित करने वाले विज्ञापनों के प्रसारण पर कारगर रोक लगे। बताया जा रहा है पीएमओ ने चूंकि इस मुद्दे को खासी गंभीरता से लिया है, लिहाजा महीने भर के भीतर इस मुद्दे पर जरूरी कदम उठा लिए जाएंगे।
सरकारी तौर पर इस तरह की पहल का निश्चित रूप से अपना महत्व है और इसके कारगर असर भी जरूर होंगे, एसी उम्मीद की जा सकती है। पर एक बड़ी जवाबदेही लोग और समाज के हिस्से भी आती है। यह कैसी विडंबना है कि रंगभेद के नाम पर सत्ता और समाज के वर्चस्ववादी दुराग्रहों को पीछे छोड़कर हम जिस आधुनिक युग में प्रवेश कर गए हैं, वहां देह और वर्ण को सुंदरता, सफलता और श्रेष्ठता की अगर कुंजी के रूप में अगर मान्यता मिलेगी तो यह मानवीय अस्मिता के लिए एक खतरनाक स्थिति है। लिहाजा, इनके खिलाफ एक एक मुखर सामाजिक चेतना की भी दरकार है। क्योंकि आखिरकार यह तय करना समाज को ही है कि उसके भीतर काले-गोरे को लेकर आग्रह का पैमाना क्या है। अलबत्ता यह तो साफ है कि श्याम-श्वेत के दौर से आगे निकल चुकी दुनिया आज भी अगर गोरे-काले के मध्यकालीन बंटवारे को तवज्जो देती है तो यह उसकी आधुनिकता के हवालों को भी सवालिया घेरे में ले आता है।

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

बंग समाज की हर दूसरी बेटी का सच !


चाव के साथ चुनाव और राजनीति की बात करने वाले कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल में बदलाव आ गया है। पर यह बात यहां की राजनीति के लिए भले सही बैठे लेकिन जहां तक यहां के जीवन और समाज का सवाल है, उसकी तबीयत को तारीखी रौशनी में ही पढ़ा जा सकता है।  दरअसल, बंगाल की धरती परंपरा और परिवर्तन दोनों की साझी रही है। बात नवजागरण की करें कि जंगे आजादी की इस क्रांतिकारी धरती ने देश के इतिहास के कई सुनहरे सर्ग रचे हैं। पर इस सुनहलेपन के साथ यहां के जीवन और समाज का अंतर्द्वंद्व और विरोधाभास भी पर प्रकट होता रहा है। बांग्ला साहित्य को तो इस बात का श्रेय है कि उसने यहां के सामाजिक अंतविर्रोधों को खासी खूबी के साथ अभिव्यक्ति दी है।
हाल में यूनिसेफ की एक रिपोर्ट आई है। इसमें बताया गया है कि इस पश्चिम बंगाल में हर दूसरी लड़की कच्ची उम्र में ही ब्याह दी जाती है। आज की स्थिति में यह आंकड़ा चौंकाता तो है ही, यह इस सूबे के सामाजिक-आर्थिक हालात पर नए सिरे से विचार करने की दरकार भी सामने रखता है। आखिर क्या ऐसा हुआ कि बाल और विधवा विवाह के खिलाफ देश में सामाजिक नवजागरण का बिगुल फूंकने वाला प्रदेश आज फिर से उन्हीं समस्याओं से जकड़ गया है। क्या अपनी परंपरा और संस्कृति से बेहद प्यार करने वाला बंग समाज अपनी रुढ़ताओं के प्रति भी आग्रही है या कि पिछले तीन-चार दशकों से एक विचार और एक शासन के वर्चस्वादी आग्रह ने यहां के जनजीवन को आधुनिकता की मुख्यधारा का हिस्सा बनने ही नहीं दिया। इतना तो साफ है कि यह समस्या अगर सामाजिक है तो इसके कारक एक-दो दिन में तो कम से कम नहीं खड़े हुए होंगे। सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से बंग समाज का सामंती और मध्यकालीन मिजाज ठेठ हिंदी पट्टी से तो अलग है पर है यह उसका ही विस्तार।
बिहार के अंग और मैथिली क्षेत्र से बांग्लादेश की सीमा तक में फैला-समाया लोक और परंपरा पर एक तरफ जहां खेतिहर मलिकाव की हेकड़ी हावी रही है, तो वहीं दूसरी तरफ गांव-समाज का एक बड़ा हिस्सा और तबका भूख और गरीबी से बिलबिलाता रहा है। यह द्वंद्वात्मकता ही कहीं नक्सल हिंसा के रूप में फूटी है तो कहीं आधुनिकता से छिटकते चले जाने की नियति सामाजिक रुढताओं को और वज्र बनाती चली गई है। 21वीं सदी के नए दशक के आरंभ के साथ पश्चिम बंगाल में बहुत कुछ बदला है। यह बदलाव 'सरकारी' के साथ 'असरकारी' भी साबित होगी, ऐसा अभी कह पाना मुश्किल तो है ही, जल्दबाजी भी होगी। आज वहां एक महिला मुख्यमंत्री हैं। 'मां, माटी और मानुष' के प्रति अपनी जवाबदेही और संवेदना को बार-बार दोहराने वाली ममता बनर्जी अगर सचमुच वहां कारगर साबित हो रही हैं फिर तो वहां पितृसत्तात्मक समाज की कई वर्जनाएं भी दरकनी चाहिए।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

रोटी का तर्क और गर्भपात


समय से जुड़े संदर्भ कभी खारिज नहीं होते। आप भले इन्हें भूलना चाहें या बुहारकर हाशिए पर डाल दें पर ये फिर-फिर लौट आते हैं हमारे समय की व्याख्या के लिए जरूरी औजारों से लैश होकर। इसे ही सरलीकृत तरीके से इतिहास का दोहराव भी कहते हैं। 21वीं सदी की दस्तक के साथ विश्व इतिहास ने वह घटनाक्रम भी देखा जिसने हमारे दौर की हिंसा का सबसे नग्न चेहरा सामने आया। खबरों पर बारीक नजर रखने वालों को 2003 के इराक युद्ध का रातोंरात बदलता और गहराता घटनाक्रम आज भी याद है। ऐसे लोग तब के अखबारों में आई इस रिपोर्ट को भूले नहीं होंगे कि जंग के आगाज से पहले सबसे ज्यादा चहल-पहल वहां प्रसूति गृहों में देखी गई थी। सैकड़ों-हजारों की संख्या में गर्भवती महिलाएं अपने बच्चों को समय पूर्व जन्म देने के लिए वहां जुटने लगी थीं। यही नहीं ये माताएं जन्म देने के बाद अपने बच्चे को अस्पताल में ही छोड़कर घर जाने की जिद्द करती थीं। पूरी दुनिया से जो पत्रकार युद्ध और युद्धपूर्व की इराकी हालात की रिपोर्टिंग करने वहां गए थे, उनके लिए यह एक विचलित कर देने वाला अनुभव था।
पहली नजर में यही समझ में आ रहा था कि युद्ध की विभिषिका ने ममता की गोद को भी पत्थरा दिया है। पर ऐसा था नहीं। सामान्य तौर पर युद्ध के दौरान स्कूलों-अस्पतालों पर किसी तरह का आक्रमण नहीं किया जाता। और इराक की माताएं नहीं चाहती थीं कि उनका नौनिहाल युद्ध की भेंट चढ़ें। इसलिए उसके समय पूर्व जन्म से लेकर उनकी जीवन सुरक्षा को लेकर वे प्राणपन से तत्पर थीं। करीब आठ साल पहले इराक में मां और ममता का जो आंखों को नम कर देने वाला आख्यान लिखा गया, उसका दूसरा खंड इन दिनों अपने देश में लिखा जा रहा है। हाल की एक खबर में यह आया कि उत्तर प्रदेश में करीब 40 हजार सिपाहियों की भर्ती होनी है। भर्ती का यह मौका वहां के लोगों के लिए इसलिए भी बड़ा है कि इनमें महिला-पुरुष दोनों के लिए बराबर का मौका  है।
प्रदेश में बेराजगारी का आलम यह है कि गर्भवती युवतियां अपनी कोख के साथ खिलवाड़ कर नौकरी की इस होड़ में शामिल होना चाहती हैं। धन्य हैं वे डॉक्टर भी जो अपने पेशागत धर्म को भूलकर एक अमानवीय और बर्बर ठहराए जाने वाले कृत्य को मदद पहुंचा रहे हैं। महज नौकरी की लालच में बड़े पैमाने पर गर्भपात कराने का ऐसा मामला देश-दुनिया में शायद ही इससे पहले कभी सुना गया हो। मायावती सरकार के कानों तक भी यह शिकायत पहुंची है। अच्छी बात यह है कि सरकार ने इस शिकायत को दरकिनार या खारिज नहीं किया है और वह इस मामले में निजी चिकित्सकों से निपटने की बात कह रही है।
पर असल मुद्दा इस मामले में कार्रवाई से ज्यादा उस नौबत को समझना है, जिसने ममता की सजलता को निर्जल बना दिया। क्या इस घटना से सिर्फ यह साबित होता है कि रोटी की भूख और बेरोजगारी के दंश के आगे हर मानवीय सरोकार बेमानी हैं या यह घटना इस बात की गवाही है कि संवेदना के सबसे सुरक्षित दायरे भी आज सुरक्षित नहीं रहे। यौन हिंसा से लेकर संबंधों की तोड़-जोड़ की खबरों की गिनती और आमद अब इतनी बढ़ गई है कि इन्हें अब लोग रुटीन खबरों की तरह लेने लगे हैं। इन्हें पढ़कर न अब कोई चौंकता है और न ही कोई हाय-तौबा मचती है।
बहरहाल, यह बात भी अपनी जगह नकारी नहीं जा सकती कि अपने देश में महिला सम्मान और उसके अधिकार और महत्व को लेकर बहस किसी अन्य देश या संस्कृति से पुरानी है। दिलचस्प है कि लोक और परंपरा के साथ सिंची जाती हरियाली आज समय की सबसे तेज तपिश की झुलस से बचने के लिए हाथ-पैर मार रही है। रोटी का तर्क मातृत्व के संवेदनशील तकाजे पर भी भारी पड़ सकता है, यह जानना अपने देशकाल को उसके सबसे बुरे हश्र के साथ जानने जैसा है। भारत और भारतीय परंपरा के हिमायतियों को भी सोचना होगा कि वह इस क्रूर सच का चेहरा कैसे बदलेंगे। क्योंकि अगर परंपरा का बहाव जहरीला हो जाए तो उसका आगे का सफर और गंतव्य भी सुरक्षित तो नहीं ही रहेगा।

बुधवार, 7 सितंबर 2011

जो अन्ना भी शर्मिला होते !


मौजूदा दौर के कसीदे पढ़ने वाले कम नहीं। यह और  बात है कि ये प्रायोजित कसीदाकार वही हैं, जिन्हें हमारे देशकाल ने कभी अपना प्रवक्ता नहीं माना। दरअसल, चरम भोग के परम दौर में मनुष्य की निजता को स्वच्छंदता में रातोंरात जिस तरह बदला, उसने समय 
और समाज की एक क्रूर व संवेदनहीन नियति कहीं न कहीं तय कर दी है। ऐसे में एक दुराग्रह और पूर्वाग्रह से त्रस्त दौर में चर्चा अगर सत्याग्रह की हो तो यह तो माना ही जा सकता है कि मानवीय कल्याण और उत्थान का मकसद अब भी बहाल है। अब जबकि अन्ना हजारे का रामलीला मैदान में चला 12 दिन का अनशन राष्ट्रीय घटनाक्रम के रूप में देखा-समझा जा रहा है तो लक्षित-अलक्षित कई तीर-कमान विचार के आसमान को अपने-अपने तरीके से बेधने में लगे हैं। 
 इस सब के बीच, कहीं न कहीं देश आज इस अवगत हो रहा है कि अपना पक्ष रखने और 'असरकारी' विरोध जाने का सत्याग्रह रखने वालों की परंपरा देश में खत्म नहीं हुई है। पर ऐसे में कुछ सवाल भी उठने लाजिम हैं जिनके जवाब घटनाओं की तात्कालिकता के प्रभाव पाश से बंधे बिना ही तलाशे जा सकते हैं। बताया जा रहा है कि सामाजिक कार्यकर्ता इरोम शर्मिला ने अन्ना हजारे से अपने एक दशक से लंबे अनशन के लिए समर्थन मांगा है। इरोम मणिपुर में विवादास्पद सशस्त्र बिल विशेषाधिकार अधिनियम की विरोध कर रही हैं। उनके मुताबिक इस अधिनियम के प्रावधान मानवाधिकार विरोधी हैं, बर्बर हैं। यह सेना को महज आशंका के आधार पर किसी को मौत के घाट उतारने की कानूनी छूट देता है। इरोम खुद इस बर्बर कार्रवाई की गवाह रही हैं। यही कारण है कि उन्होंने इस विवादास्पद अधिनियम को वापस लेने की मांग को आजीवन प्रण का हिस्सा बना लिया है। दुनिया के इतिहास में अहिंसक विरोध का इतना लंबा चला सिलसिला और वह भी अकेली एक महिला द्वारा अपने आप में एक मिसाल है। 
इरोम को उम्मीद है कि आज अन्ना हजारे का जो प्रभाव और स्वीकृति सरकार और जनता के बीच है, उससे उनकी मांग को धार भी मिलेगी और उसका वजन भी बढ़ेगा। हालांकि इस संदर्भ का एक पक्ष यह भी है कि इरोम भले अन्ना के समर्थन की दरकार जाहिर कर रही हों, पर उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चरित्र को लेकर आपत्तियां भी हैं। वैसे ये आपत्तियां वैसी नहीं हैं जैसी लेखिका अरुंधति राय को हैं। असल में सत्याग्रह का गांधीवादी दर्शन विरोध या समर्थन से परे आत्मशुद्धि के तकाजे पर आधारित है। गांधी का सत्याग्रह साध्य के साथ साधन की कसौटी को भी अपनाता है। ऐसे में लोकप्रियता के आवेग और जनाक्रोश के अधीर प्रकटीकरण से अगर किसी आंदोलन को धार मिलती हो कम से कम वह दूरगामी फलितों को तो नहीं ही हासिल कर सकता है।
दिलचस्प है कि अहिंसक संघर्ष के नए विमर्शी सर्ग में अन्ना के व्यक्तिगत चरित्र, जीवन 
और विचार पर ज्यादा सवाल नहीं उठे हैं। पर उनके आंदोलन के हालिया घटनाक्रम को देखकर तो एकबारगी जरूर लगता है कि देश की राजधानी का 'जंतर मंतर' और मीडिया के रडार से अगर इस पूरे मुहिम को हटा लिया जाए तो क्या तब भी घटनाक्रम वही होते जो पिछले कुछ दिनों में घटित हुए हैं। और यह भी क्या कि क्या इसी अनुकूलता और उपलब्धता की परवाह इरोम ने चूंकि नहीं की तो उनके संघर्ष का सिलसिला लंबा खिंचता जा रहा है। 
बहरहाल, देश का जनमानस आज क्रांतिकारी आरोहण के नए और समायिक चरणों से गुजरने को अगर तत्पर हो रहा है तो यह एक शुभ संकेत है। अच्छा ही होगा कि हिंसा और संवेदनहीनता के दौर में अहिंसक मूल्यों को लेकर एक बार फिर से बहस और प्रयोग शुरू हों। अगर ये पहलें एकजुट और एक राह न सही कम से कम एक दिशा की तरफ बढ़ती हैं तो यह हमारे समय के माथे पर उगा सबसे शुभ चिह्न होगा। 

रविवार, 4 सितंबर 2011

दस हजार पार 'पूरबिया'


2009 के मई-जून में
जब सफर शुरू किया था 'पूरबिया' का
तो अंदाजा नहीं था
कि सफर इतना रोचक होगा
और समय के साथ
यह मेरी पहचान बन जाएगा

अब जबकि पूरबिया को
दस हजार से ज्यादा हिट
हासिल हो चुके हैं
लोगों की इस सफलता पर
शुभकामनाएं मिल रही हैं
तो अभिभूत हूं यह देखकर
कि लोग एक अक्षर यात्रा के जारी रहने को
हमारे समय की एक बड़ी घटना मानते हैं

विचार, कविता, टिप्पणी
ये सब वे बहाने हैं
जो चेतना को बचाए रखने के लिए
नए दौर में एक जरूरी कार्रवाई बन गयी है
'पूरबिया' मेरे लिए
और कुछ मेरे जैसों के लिए
ऐसी ही एक कार्रवाई है

इस कार्रवाई को मिले समर्थन
सहयोग के लिए
सभी साथियों...साथिनों का आभार
पूरबिया आगे भी बहती रहेगी
अपनी महक
अपने तेवर 
अपने सरोकारों के साथ
आपके बीच
आपके साथ 

'जागरण' में पूरबिया की लोकशाही


02 सितम्बर 2011 :  जागरण में पूरबिया की लोकशाही

बुधवार, 31 अगस्त 2011

लोकशाही तो है पर यकीन क्यों नहीं होता!


संसद और सांसदों दोनों के लिए मैजूदा दौर मुश्किलें बढ़ाने वाला है। दिलचस्प है कि इन दोनों की भूमिका और विशेषाधिकारों पर जिसे देखिए वही सवाल उछाल दे रहा है। असल में इस सारी मुसीबत की जड़ में दल हैं और उनसे पैदा हुआ राजनीतिक दलदल है। देश के लोकतंत्र को जो लोग संसदीय सर्वोच्चता के मूल्य के साथ समझने के हिमायती हैं, उन्हें भी आज शायद ही इस बात को कबूलने में कठिनाई हो कि दलीय राजनीति के छह दशक के अनुभव ने इस मू्ल्य को बहुत मू्ल्यवान नहीं रहने दिया है। नहीं तो ऐसा कभी नहीं होता कि विचार और लोकहित की अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर अलग-अलग नाम और रंग के झंडे उड़ाने वाली पार्टियों और उनके नेताओं की विश्वसनीयता पर ही सबसे ज्यादा सवाल उठते।   
अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की बात करें तो इस आंदोलन को मिला अपार लोकसमर्थन कहीं न कहीं राजनीतिक बिरादरी की जनता के बीच खारिज हुई विश्वसनीयता और आधार के सच को भी बयान करती है। एक गैरदलीय मुहिम का महज कुछ ही महीनों में प्रकट हुआ आंदोलनात्मक तेवर देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था की जमीन को नए सिरे से तैयार करने की दरकार को सामने रखता है। अच्छी बात यह है कि पिछले कुछ महीनों में इस तैयारी का न सिर्फ लोकसमर्थित तर्क खड़ा हुआ है, बल्कि इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व पर दबाव भी बढ़ा है। कांग्रेस और भाजपा के कुछ सांसदों ने आज अगर अपने ही दलीय अनुशासन के खिलाफ जाने की हिमाकत दिखाई है तो यह इसलिए कि जनता से लगातार कटते जाने के खतरे को कुछ नेता अब समझने को तैयार हैं।
पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम में जनता का गुस्सा हर दल और उसके सांसदों के प्रति दिखा है। यह गुस्सा इसलिए है कि लोकतंत्र को देश में एक दिन के चुनावी अनुष्ठान तक सीमित कर दिया गया है। लोकसंवाद की सतत प्रक्रिया पांच साल की मुंहजोही के लिए मजबूर हो गई है। एक सफल लोकतंत्र जीवंत और प्रगतिशील भी होता है। समय और अनुभव के साथ उसमें संशोधन जरूरी है। जनलोकपाल अगर आज की तारीख में जनता का एक बड़ा मुद्दा है तो इसके बाद सबसे जरूरी मुद्दा दलीय राजनीति के ढांचे आैर चुनाव प्रणाली में सुधार है।
दिलचस्प है कि खुद हजारे ने भी पिछले दिनों जनप्रतिनिधत्व तय करने वाली मौजूदा परंपरा और  तरीके पर सवाल उठाए हैं। यही नहीं उन्होंने तो संसदीय सर्वोच्चता की दलील के बरक्स लोकतंत्र की अपनी नई समझ भी रखी है। पंचायतीराज का मॉडल प्रातिनिधिक के सामने प्रत्यक्ष और  विकेंद्रित लोकतांत्रिक संस्था की अनोखी मिसाल है। लोकसभा और विधानसभाओं के विशेषाधिकार का तर्क ग्रामसभाओं के अविघटनकारी विशेषता के सामने कमजोर मालूम पड़ते हैं। यहीं नहीं पिछले चार दशकों से उठती आ रही 'पार्टीलेस डेमोक्रेसी" की मांग एक बार फिर से केंद्र में आ रही है। नए समय में यह मांग जहां नए सरोकारों से लैस हो रही हैं, वहीं दलों से पैदा राजनीतिक गलीज और  दलदल ने इस दरकार को और ज्यादा पुष्ट कर दिया है।
 लिहाजा, अब वक्त आ गया है कि देश अपनी लोकतांत्रिक परंपरा को नए संदर्भ और समय के अनुरूप मांजने को तत्पर हो। अगर यह तत्परता राजनीतिक दलों के भीतर से अब भी स्वत: नहीं प्रकट होता तो यह उनकी एक अदूरदर्शी समझ होगी। उम्मीद करनी चाहिए कि अपने लोकतांत्रिक अधिकारों व दायित्वों को लेकर जनता और उनकी नुमाइंदगी करने वालों में साझी समझदारी प्रकट होगी। और पिछले साठ सालों की यात्रा के बाद देश एक बार फिर अपने लोकतांत्रिक आधारों को पुष्ट करने के लिए तत्पर होगा। इस तत्परता का फलित भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को काफी हद तक तय करने वाला होगा।

दैनिक जागरण : ‘फिर से’ में पूरबिया का अन्ना

posted by Admin at Blogs In Media - 11 hours ago
30 अगस्त 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के नियमित स्तंभ ‘फिर से’ में पूरबिया का अन्ना

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

अनुशासन पर इतना भाषण क्यों !


बात आप शिक्षा की करें और अनुशासन का मुद्दा रह जाए तो शायद आपकी बरत अधूरी रह जाए। वैसे यह अधूरापन इसलिए नहीं है कि एक के साथ दूसरे संदर्भ को नहीं देखा जाता बल्कि ये अधूरापन इसलिए ज्यादा है कि इन दोनों मुद्दों को अलग-अलग देखे जाने का आग्रह होता है। दरअसल, शिक्षा और अनुशासन अलग-अलग नहीं बल्कि एक-दूसरे से गहरे जुड़े हैं। इतने गहरे कि इस बहाने हम शिक्षण संस्कार की परंपरा से लेकर उसके लक्ष्य तक को भलीभांति परिभाषित कर सकते हैं। पर आज अनुशासन आचरण से ज्यादा दूसरे पर थोपे जाने वाली मयार्दा का नाम है। दिलचस्प है कि मर्यादा का यह आग्रह सबसे ज्यादा उस पीढ़ी से की जाती है, जिस पर परंपरागत जीवन मूल्यों के साथ आधुनिक समय चेतना को भी आत्मसात करने का दबाव है। ऐसे में यह कहीं से मुनासिब नहीं कि हम बलात् अनुशासन की लाठी उन पर भांजें।
इंसाफ, तहजीब और मजहबी दरकार के नाम पर जिस तालिबानी सलूक को पूरी दुनिया में बर्बरता के रूप में देखा जाता है, वह बर्बरता हमारे समय और समाज के कुछ दायरों का सच भर नहीं बल्कि हमारे अंदर के कोनों-खोलों की दबी-छिपी सचाई है। यौन हिंसा संबंध और परिवार के दायरे में सबसे तेजी से पले-बढ़े और स्कूल-कॉलेजों में अनुशासन के नाम पर मध्यकालीन मानसिकता के साथ छात्रों से सलूक हो, अगर यह हमारी चिंता का विषय नहीं है तो इसे एक खतरनाक प्रवृति ही कहेंगे।
अभी पिछले दिन ही अखबारों में खबर आई कि चेन्नई के एक कॉलेज में शिक्षक ने मोबाइल फोन रखने के आरोप में छात्रा की इस तरह तालाशी ली कि उसे एक तरह से निर्वस्त्र कर दिया। दूसरी घटना केरल के एक केंद्रीय विद्यालय की है, जहां एक शिक्षक को बच्चों का बाल बढ़ा होना इतना अनुशासनहीन लगा कि उसने एक साथ 90 बच्चों के बाल काट डाले। अनुशासन और संस्कृति के नाम पर पहरुआगिरी का यह कृत्य वैसा ही जो युवकों-युवतियों को कभी कपड़े पहनने के सलीके के नाम पर सरेआम बेइज्जत करने से बाज नहीं आता तो कभी उनके प्रेम और खुलेआम मेलजोल को धर्म और संस्कृति के लिए घातक करार देता है। दिलचस्प है कि अनुशासन का आग्रह कोई खारिज की जा सकने वाली दरकार नहीं पर यह आग्रह अगर दुराग्रह बन जाए तो यह निश्चित रूप से खतरनाक मंसूबों को साधने का बहाना बन जाता है।
जहां तक बात है शिक्षण परिसरों में बरते और दिखने वाले अनुशासन की तो इसकी बुनियादी जरूरत से तो शायद ही कोई इनकार करे। एक बेहतर अनुशासित वातावरण में ही बेहतर शिक्षण का मकसद पूरा होता है। देश-दुनिया के हजारों-लाखों स्कूलों-कालेजों और विश्वविद्यालयों  में से जिन कुछेक को ज्यादा लोकप्रियता और सम्मान हासिल है, वहां शिक्षा के साथ अनुशासन भी आले दर्जे की है। यही नहीं इस अनुशासन के दायरे में सिर्फ वहां के छात्र नहीं बल्कि तमाम शिक्षक और कर्मचारी भी आते हैं। इतिहास के कई नायकों ने अपनी सफलता का श्रेय अपने शिक्षकों की मेहनत और अपने स्कूल-कॉलेज के वातावरण को दिया है। साफ है कि शिक्षकों के व्यवहार से छात्रों तक पहुंचने वाला अनुशासन एक निहायत ही संवेदनशील मसला है और किसी भी शिक्षा संस्थान में इस संवेदनशीलता का निर्वहन किस रूप में हो रहा है, यह उसके स्तर को काफी हद तक तय कर देता है। एक ऐसे दौर में जबकि शिक्षा को छात्रों के ज्यादा से ज्यादा अनुकूल और सहज बनाने की कवायद तेज है, छात्रों से असहज अनुशासन की अपेक्षा करना, समय और शिक्षा की आधुनिक समझ के पूरी तरह खिलाफ है। 

सोमवार, 29 अगस्त 2011

क्या हुआ जो मीडिया भी अन्ना गया


 स्वतंत्र भारत में चौबीसो घंटे के खबरिया चैनलों का दौर शुरू होने और भाषाई पत्रकारिता के विकेंद्रित विस्तार के बाद यह पहला अनुभव है, जब  अखिल भारतीय स्तर पर जनभावना का कोई दिव्य प्रकटीकरण हो। जो लोग आज अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में 1974 के जयप्रकाश आंदोलन की लिखावट पढ़ने चाह रहे हैं, उनकी भी पहली प्रतिक्रिया यही है कि लोकपक्ष और नए मीडिया का सकरात्मक साझा चमक के साथ कितना असर पैदा कर सकता है, यह चमत्कृत कर देने वाला अनुभव है। प्रेस को अगर लोकतंत्र का विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बाद चौथा बड़ा स्तंभ माना गया है, तो इसलिए भी कि उसकी भूमिका एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए खासी जिम्मेदारी से भरी है। इमरजेंसी के दौरान जिम्मेदारी के इन हाथों को बड़ियां पहनाई गई थी तो अपने संपादकीय स्तंभ की जगह को खाली छोड़ अखबारों ने अपना विरोध जताया था।
15 अगस्त की अगली सुबह देश में नागरिकों के अहिंसक और  शांतिपूर्ण प्रतिरोध के अधिकार पर जो कुठाराघात हुआ, संसद का सत्र जारी रहने के बावजूद उसकी गूंज वहां के बजाय मीडिया में ज्यादा पैदा हुई। यह देश की मीडिया का सद्विवेकी रवैया का ही नतीजा रहा कि उसने लोकपक्ष की जुबान और चेहरा बनने का फैसला लिया। कह सकते हैं कि न्यायकि सक्रियता के बाद देश में मीडिया की सक्रियता के यह एक नए सर्ग का शुभारंभ है। दिलचस्प है कि अन्ना हजारे ने भी 16 अगस्त से अपने प्रस्तावित अनशन से एक दिन पहले मीडिया का इस बात के लिए शुक्रिया अदा किया था कि भ्रष्टाचार के खिलाफ उनकी मुहिम को जोर पकड़ाने में उसकी बड़ी भूमिका रही है। यही नहीं जब वे रामलीला मैदान से अनशन से उठे तो उन्होंने और उनके साथियों ने मीडिया का कई-कई बार आभार जताया। 
असल में यह एक जीवंत और प्रगतिशील लोकतंत्र का तकाजा है कि लोक भावना और लोक संघर्ष  के स्पेस को वह न तो कमतर करता है और न ही उसे खारिज करता है। क्योंकि इससे लोकहित के मुद्दों के दरकिनार हो जाने का खतरा पैदा होता है। समाचार की 'इंफोमेंटी" समझ और 'प्रोफेशनल" होड़ ने मीडिया की भूमिका पर पिछले दो दशकों में कई सवाल उठाए हैं। प्रेस की आजादी के नाम पर मनमानी करने की छूट ने लोकतंत्र की एक जिम्मेदार संस्था को काफी हद तक अगंभीर और गैरजवाबदेह बना दिया है, ऐसे आरोप मीडिया पर लगने अब आपवादिक नहीं रहे। ऐसे में मीडिया के लिए यह फख्र के साथ सबक सीखने का भी अवसर है कि अगर वह लोकचेतना का चेहरा बनने का दायित्व पूरा करता है तो न सिर्फ उसकी विश्वसनीयता बहाल रहती है बल्कि उसकी साख भी बरकरार रहती है। 
लोकहित का तकाजा ही यही है कि उसे गुमराह करने के बजाय उसका हमकदम बना जाए, उसका मार्गदर्शी बना जाए। नया मीडिया ज्यादा तकनीक संपन्न है, लिहाजा उससे ज्यादा जिम्मेदार पहरुआ (वॉच डॉग) भी होना चाहिए। ऐसे में कुछ लोगों और समाज के कुछ वर्गों से आई कुछ शिकायतें मायने रखती है। मसलन असम के इरोम शर्मिला के दस साल से चले आ रहे अनशन का मुद्दा चौबीसों घंटे चौकन्ना मीडिया की आंखों से ओझल क्यों रहा? इसी तरह क्या पूनम पांडे और राखी सावंत को जिस मुंह से घर-घर तक पहुंचाने वाले मीडिया के पेशेवर सरोकार क्या वक्त-बेवक्त सुविधानुसार नहीं बदलते हैं और क्या यह बदलाव पूरी तरह विश्वसनीय माना जा सकता है।
बहरहाल, अन्ना का आंदोलन भले फिलहाल समाप्त हो चुका हो पर देश में लोकहित के कई जरूरी मुद्दे अब भी सरकार और व्यवस्था के एजेंडे में शामिल होने बाकी हैं। नए मीडिया का एक दायित्व यह भी कि वह हाशिए के इन मुद्दों को उठाए और एक सशक्त लोकमत के निर्माण का अपना दायित्व आगे भी पूरी ऊर्जा के साथ निभाए।

रविवार, 28 अगस्त 2011

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आंदोलन की बहुरंगता को बदरंग देखना


अंग्रेजों ने भारत को कभी संपेरों और भभूती साधुओं का देश कहा था। आज भी दुनियाभर के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों के बीच इस देश की रचना और चेतना को लेकर कई समानान्तर मत हैं। खुद अपने देश को देखने की जो समझ हमने पिछले छह दशकों में गढ़ी है, वह भी या तो कोरे आदर्शवादी हैं या फिर आधी-अधूरी। ऐसी ही एक समझ यह है कि भारत विविधताओं के बावजूद समन्वय और समरसता का देश है। ये बातें छठी-सातवीं जमात के बच्चे अपने सुलेखों में भले आज भी दोहराएं पर देश का नया प्रसंस्कृत मानस इस समझ के बरक्स अपनी नई दलील खड़ा कर रहा है।
असल में अपने यहां देश विभाजन की बात हो या सामाजिक बंटवारे की, राजनीतिक तर्क पहले खड़ा हुआ और बाद में सरजमीनी सच को उसके मुताबिक काटा-छांटा गया। मजहबी और जातिवादी खांचों और खरोचों को देश का इतिहास छुपा नहीं सकता पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इन्हें कम करने और पाटने की बड़ी कोशिशों को देश की सामाजिक मुख्यधारा का हमेशा समर्थन मिला है। और इस समर्थन के जोर पर ही कभी तुलसी-कबीर का कारवां बढ़ा तो कभी  गांधी-लोहिया-जयप्रकाश का। बीच में एक कारवां विनोबा के पीछे भी बढ़ा, पर उनके भूदान आंदोलन की सफलता अपने ही बोझ से दब गई और बाद में इस सफलता के कई अंतर्द्वंद भी सामने आए। अभी देश में पिछले कुछ महीनों से जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश सड़कों पर उमड़ना शुरू हुआ है तो इस आक्रोश की वजहों को समझने के बजाय इसके चेहरे को पढ़ने में नव प्रसंस्कृत और प्रगतिशील मानस अपनी मेधा का परिचय दे रहा है। 
जनलोकपाल बिल के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को देखते-देखते आजादी की दूसरी लड़ाई की शिनाख्त देने वाले अन्ना हजारे आज की तारीख में देश का सबसे ज्यादा स्वीकृत नाम है। गांधीवादी धज के साथ अपने आंदोलन को अहिंसक मूल्यों के साथ चलाने वाले हजारे का यह चरित्र राष्ट्र नेतृत्व का पर्याय बन चुका है तो इसके पीछे उनका जीवनादर्श तो है ही, वे प्रयोग भी हैं जिसे उन्होंने सबसे पहले अपने गांव समाज में सफलता के साथ पूरे किए। लिहाजा, यह सवाल उठाना कि उनके साथ उठने-बैठने वालों और उनके आह्वान पर सड़कों पर उतरने वालों में दलित या मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी नहीं है, यह एक आंदोलन को खारिज करने की ओछी हिमाकत से ज्यादा कुछ भी नहीं।
भूले नहीं होंगे लोग कि इसके पहले जब हजारे के जंतर मंतर पर हुए अनशन के बाद सरकार सिविल सोसायटी के साथ मिलकर लोकपाल बिल के बनी संयुक्त समिति के सोशल कंपोजिशन पर भी सवाल उठाए गए थे। अब जबकि रामलीला मैदान में हजारे के अनशन और उनकी मुहिम के समर्थन में देश के तमाम सूबों और तबकों से लोग घरों से बाहर आए हैं, तो 'तिरंगे' के हाथ-हाथ में पहुंचने और 'वंदे मातरम' के नारे के आगे मजहबी कायदों की नजीर रखी जा रही है। आरोप और आपत्ति के ये स्वर वही हैं, जिन्हें पेशेवर एतराजी होने फख्र हासिल है।
बहरहाल, जिन लोगों को लगता है कि महाराष्ट्र के एक गांव रालेगण सिद्धि से चलकर दिल्ली तक पहुंचे अन्ना हजारे के आंदोलन को समाज के हर तबके का समर्थन हासिल नहीं है, उन्हें अपने जैसे ही कुछ और आलोचकों की बातों पर भी गौर करना चाहिए। कहा यह भी जा रहा है बाजार के वर्चस्व और साइबर क्रांति के बाद देश में यह पहला मौका है जब जनांदोलन का इतना बड़ा प्रकटीकरण देखने को मिला है। यही नहीं इसमें शामिल होने वालों में ज्यादातर संख्या ऐसो लोगों की है, जिन्होंने आज तक किसी मोर्चे, किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया। लिहाजा यह देश की लोकतांत्रिक परंपरा का एक नया सर्ग भी है, जिसकी लिखावट में समय और समाज के के नए-पुराने रंग शामिल हैं। इस बहुरंगता को बदरंग होने से बचाना होगा।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।