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रविवार, 29 अप्रैल 2012

अग्नि मिसाइल और नीलाम गांधी

यह न सिर्फ एक विडंबना है बल्कि एक विरोधाभासी विडंबना है। जहां गांधी से जुड़ी कुछ चीजों की नीलामी पर कुछ लोगों का ह्मदय भर आ रहा है तो वहीं अपने सैन्य बेड़े में शामिल होने जा रही अग्नि-5 मिसाइल की मारक क्षमता का विस्तार जानकर देशवासियों का सीना फख्रसे चौड़ा हो रहा है। एक तरफ हमारा मोह और हमारी आस्था उस अहिंसक मूल्यों की विरासत के प्रति है, जिसके प्रतीकों तक का अगर अनादर हो तो असहज हो उठते हैं, वहीं दूसरी तरफ आवेग, उन्माद, उत्तेजना और भय पैदा करने वाली ताकतों के और सबल होने को हम सीधे देशभक्ति के जज्बे से जोड़ते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास के महात्मा बनने की परिस्थतियों पर औपन्यासिक कृति 'पहला गिरमिटिया' लिखने वाले गिरिराज किशोर को तो लंदन में गांधी से संबंधित कुछ चीजों की नीलामी इतनी नागवार गुजरी कि वह नीलामी रोकने में सरकारी नाकामी पर अपना पद्मश्री सम्मान राष्ट्रपति को लौटाने पर आमादा हो उठे। गिरिराज के आहत होने को समझा जा सकता है पर यह आहत प्रतिक्रिया जिस तरह फूट रही है, वह कहीं से गले नहीं उतरती। गांधी के गुजरात में नए टूरिज्म सर्किट को गांधी के नाम से जोड़ा गया। गुजरात पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अमिताभ बच्चन के जो विज्ञापन इन दिनों टीवी पर चल रहे हैं, उनमें बच्चन के हाथ में चरखा तक पकड़ाई गई है, उन्हें साबरमती आश्रम के बारे में बताते हुए दिखाया गया है।
मुझे नहीं लगता कि अब तक किसी को यह विज्ञापन, इसका मकसद और इसके प्रस्तोता को लेकर कोई बड़ी शिकायत रही है। जबकि सचाई यह है कि बच्चों के लिए कैडबरी के मिल्क चॉकलेट को लेकर जब शिकायतें आईं तो बच्चन ने कुछेक दिनों-महीनों की खामोशी के बाद चॉकलेट कंपनी की दलीलों के साथ जाना पसंद किया आैर विज्ञापन में पप्पू के पास होने की मीठी खुशी मनाते रहे। बात गुजरात की निकली है तो जान लें कि वहां शराब पर पाबंदी है और यह पाबंदी भी गांधी के नाम पर ही मन-बेमन से ढोई-निभाई जा रही है। पर्यटक अगर चाहें तो उन्हें शराब मिल सकती है। बहुत आसानी से गुजरात की समुद्री सीमा के पार जाकर वैधानिक चेतावनी सीमा से पार पा लिया जाता है। यह सब वहां सरकार की आंख के नीचे ही नहीं बल्कि उसकी पूरी जानकारी आैर व्यवस्था में चल रहा है।     
यह भी एक संयोग ही है कि विदेश में नीलामी की खबर के बाद देश में ही गांधी भवन के नीलाम होने की खबर आनी शुरू हो गई है। कोलकाता के बेलियाघाट में हैदरी मंजिल गांधी भवन के नाम से मशहूर है। 1947 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान गांधी ने यहीं उपवास रखा था। यह ऐतिहासिक भवन पिछले 50 सालों से एक बैंक के पास गिरबी है आैर वह अब इसकी नीलामी करने जा रहा है। यह नीलामी रूक भी सकती है क्योंकि पश्चिम बंगाल विरासत आयोग के साथ कोलकाता नगर निगम ने इस भवन की हिफाजत का फैसला किया है।
एक ऐसे दौर में जब भौतिक प्रतिस्पर्धा जैसे आत्मघाती हिंसक मूल्यों को हम जीवनचर्या का हिस्सा आैर विकास का द्योतक मान चुके हैं, यह हास्यास्पद ही लगता है कि हम गांधी को लेकर अपनी भावुक चिंता प्रकट करें। अभी एक बच्चे ने आरटीआई के जरिए सरकार से यह पूछ डाला कि ऐतिहासिक रूप से गांधी को कब राष्ट्रपिता माना गया। सरकार के पास इस सवाल का कोई दस्तावेजी जवाब नहीं था। कल को भारत अपने लोगों के जीवन में अहिंसक चेतना के कोई लक्षण दिखा पाने में अगर असमर्थ दिखे, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। 
साफ है कि यहां बड़ा मुद्दा यह नहीं कि हमारा देश अपने राष्ट्रपिता को लेकर कितना संवेदनशील है। बड़ा सवाल यह है कि महत्व किसका ज्यादा है- गांधी विचार का,उनके अहिंसक जवन दर्शन का, उनके पढ़ाए रचनात्मक विकास के पाठ का या या सिर्फ उनके स्मृतिचिह्नों का। गांधी एक युगपुरुष हैं और उन्होंने अपने जीवन को इतने कामों में लगाया, इतनी जगहों पर बिताया, इतने लोगों के साथ जुड़े कि उसका कोई अंतिम लेखाजोखा तैयार ही नहीं किया जा सकता। 20वीं सदी का यह महात्मा 21वीं सदी में एक किंवदंति बन चुका है। यही कारण है हरेक की चेतना पर एक मानवीय दस्तक देने वाले गांधी का सामना करने को आज कोई तैयार नहीं है। क्योंकि किंवदंतियां जीवन और समाज की चर्चा में तो जीवित रहती हैं पर उनके किसी काम की नहीं होतीं। गांधी विचार तो बाजारू नहीं हो सकता पर उसके समर्थन और विरोध का आज एक बड़ा बाजार है। बाजारवादी दौर में यह बाजार भी खूब फल-फूल रहा है। और इस बाजार में एक से एक गिरिराज और किशोर अपनी सुविधा, अपना मुनाफा तलाश रहे हैं।   

शुक्रवार, 20 अप्रैल 2012

खुदकुशी की वर्दी


फौजी जीवन के प्रति हम सम्मान तो खूब जता देते हैं पर उनके भीतर के संघर्ष और मानसिक दबाव को नहीं समझते हैं। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि हम यह मानकर चलते कि सैनिकों की जानें सिर्फ सरहद पर दुश्मन की गोलियों से या फिर नक्सली-आतंकी भिड़ंत में ही जाती हैं। पिछले साल आतंकी घटनाओं में 65 जवान शहीद हुए जबकि इसी दौरान 99 जवानों ने खुद अपनी जीवनलीला समाप्त की और ऐसा करने वालों में महज 23 अशांत इलाकों में तैनात थे। 76 जवानों ने तो शांतिपूर्ण इलाकों में तैनाती के बावजूद आत्महत्या का दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया।
सैनिकों में खुदकुशी की प्रवृत्ति हाल के सालों में एक बड़ी समस्या के रूप में उभरी है। 2007 में जहां मात्र 42 जवानों ने आत्महत्या की, वहीं उसके बाद के सालों में क्रमश: 150, 110, 115 और 99 ने यह दुर्भाग्यपूर्ण फैसला लिया। साफ है कि जवानों की कार्यस्थिति और मनोदबावों के बारे में गंभीरता से विचार करने की दरकार है। क्योंकि कहीं न कहीं यह समस्या सुरक्षा प्रहरियों के गिरते आत्मबल का भी है। फिर इस गिरावट के साथ अगर हमारे जवान अपने फर्ज को अंजाम दे रहे हैं तो न सिर्फ सुरक्षा की दृष्टि से बल्कि मानवीय आधार पर भी यह एक खतरनाक स्थिति है।
एक तो हाल के सालों में खासतौर पर सरकारी स्तर पर यह प्रवृत्ति बढ़ी है कि वह हर चुनौतिपूर्ण स्थिति से निपटने का आसान तरीका सेना की तैनाती है। ऐसे में जवानों पर कार्य दबाव जहां असामान्य तौर पर बढ़ा है। आलम तो यह है कि कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने के लिए पूरे देश में सघन पुलिस तंत्र है पर भरोसे के अभाव में हर जोखिम भरी स्थिति में सेना की तैनाती को आसान विकल्प मान लिया गया है। यह सैनिकों की कार्यक्षमता और
कुशलता का यंत्रनापूर्ण दोहन है।
इस बारे में नीतिगत रूप में सरकार को फैसला लेना चाहिए कि आंतरिक
और वाह्य सुरक्षा की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थलों के अलावा मात्र प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ही सैन्य तैनाती के विकल्प पर विचार किया जाएगा। इसके अलावा सैनिकों के पारिवारिक जीवन को भी पर्याप्त महत्व दिया जाए ताकि तैनाती के दौरान उन पर कोई अतिरिक्त मानसिक दबाव न हो।
रक्षा मंत्रालय जरूर ऐसी समस्याओं से निपटने के लिए सैनिकों के लिए मनोचिकित्सीय परामर्श
और योग प्रशिक्षण जैसे  कार्यक्रमों पर जोर जरूर दे रहा है पर इससे आगे और भी बहुत कुछ करने की दरकार है। यह मुद्दा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ज्यादातर जवान अपने बीवी-बच्चों से महीनों अलग रहने के कारण भीतर ही भीतर घुटन और निराशा से भरने लगते हैं और अंत में हारकर आत्महत्या जैसा फैसला लेने को मजबूर हो जाते हैं।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

गरीब हम हैं इसलिए कि तुम अमीर हो गए


भारत की गिनती जरूर आज दुनिया में चीन के बाद सबसे ज्यादा सुरक्षित और संभावनाओं से भरे इकोनमी के रूप में होती है पर देश के भीतर विकास को लेकर वर्गीय अंतर खतरनाक तरीके से बढ़ गया है। तभी अपने देश में अब सीधे विकास को लेकर बात नहीं हो रही बल्कि इसके समावेशी आयाम पर सर्वाधिक बल दिया जा रहा है। आर्थिक सोच में आया यह फर्क अकारण नहीं है।
वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा ने संसद में ग्लोबल वेल्थ इंटेलीजेंस फर्म के हालिया सर्वे की चर्चा में बताया कि देश के चोटी के सर्वाधिक 8200 अमीर लोगों के पास करीब 945 अमेरिकी डॉलर की दौलत है, जो देश की अर्थव्यवस्था का तकरीबन 70 फीसद हिस्सा है। साफ है कि धन और साधन के असमान वितरण की चुनौती एक खतरनाक स्थिति की ओर इशारा कर रही है।
कुछ महीने पहले आए 'हंगामा' रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ था कि देश में 14 करोड़ नौनिहालों का बचपन महज इस कारण असुरक्षित और बीमार है क्योंकि वे कुपोषित हैं। अभी कुछ ही दिन हुए हैं, जब योजना आयोग की तरफ से आए निर्धनता तय करने के अतार्किक पैमाने पर संसद से लेकर सड़क तक शोर मचा। आयोग ने अपनी रपट में शहरी क्षेत्रों में रोजाना 28.65 और देहाती इलाकों में 22.42 रुपए खर्च करने वालों को गरीबी रेखा से ऊपर माना है। कहने की जरूरत नहीं कि यह आमजन के प्रति एक तंग नजरिया है।
भूले नहीं हैं लोग आज भी अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी की उस चर्चित रपोर्ट को जिसमें दावा किया गया था कि देश की 77 फीसद आबादी 20 रुपए रोजाना से कम पर अब जीवन गुजारने को विवश है। आज जब वित्तमंत्री कड़े फैसले लेने की दरकार पर जोर देते हैं तो इसमें यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि कड़े फैसले का मतलब अब भी कर ढांचा और आयात-निर्यात नीति आदि में बदलाव मात्र हैं तो यह विकास की असमानता को तो दूर करने वाली अर्थनीति तो साबित होने से रही।
समावेशी अर्थ विकास का दर्शन अगर आज भी सरकारी जुमलेबाजी का हिस्सा भर है तो आगे देश में गरीबी-अमीरी की खाई और बढ़ेगी ही। पिछले कुछ महीनों में भारत सहित दुनिया भर में आर्थिक मोर्चे पर चिंताएं सघन हुई हैं। चार साल पहले की विश्व मंदी एक बार फिर से सिर उठा रही है और इस बार इसकी चपेट में डॉलर से लेकर यूरोजोन तक की इकोनमी के आने का अंदेशा है। ऐसे में भारत को अपने आर्थिक विकास को वर्टिकल से हॉरिजेंटल ग्रोथ की तरफ फोकस करना होगा।

रविवार, 8 अप्रैल 2012

समृद्धि के इकहरेपन के कारण

1991 से ग्लोबल विकास की दौड़ में शामिल भारत भले आज एक दमदार अर्थव्यवस्था के रूप में पूरी दुनिया में देखा जाता हो पर देश के अंदरूनी हालात अब भी खासे विरोधाभासी हैं। सुपर इकोनोमिक पावर होने की हसरत रखने वाले देश की आधी आबादी आज भी खुले में शौच को मजबूर है। इसके उलट 63.2 फीसद आबादी ऐसी है, जो मोबाइल फोन का इस्तेमाल करती है। साफ है कि विकास के नए आग्रहों ने जहां जनजीवन में स्थान बनाया है, वहीं गरीबी और पिछड़ेपन की चंगुल से अब भी लोग पूरी तरह निकल नहीं पाए हैं। गनीमत है कि गुजरे 20 सालों में विकास के इस गाढ़े होते विरोधाभास और वर्गीय अंतर को अब हमारी सरकार भी कबूलती है। समावेशी विकास की सरकारी हिमायत के पीछे कहीं न कहीं यह कबूलनामा ही है।
जनगणना-2011 के आंकड़ों के विश्लेषण में कहीं न कहीं यह तथ्य भी रेखांकित हुआ है कि देश में एक तरफ सुविधाओं के अधिकतम उपभोग की होड़ पैदा हुई है, वहीं कई ऐसे इलाके और तबके भी हैं, जहां लोगबाग आज भी विकास के बुनियादी सरोकार तक से कटे हुए हैं। देश के 49 फीसद घरों में अगर आज भी खाना पकाने के लिए सूखी लकडि़यों का इस्तेमाल होता है और नल से पेयजल की पहुंच मात्र 43 फीसद लोगों तक है, तो साफ है कि हमारी विकास नीति देश की तकरीबन आधी आबादी की जिंदगी का अंधेरा दूर करने में विफल रही है। जनगणना आंकड़ों के विश्लेषण में यह बात साफ झलकती है कि पानी-बिजली-सड़क जैसे आधाराभूत क्षेत्रों में अब भी हम काफी पीछे हैं।
मसलन, 2005 में बड़े जोर-शोर से राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतिकरण योजना की शुरुआत हुई थी। योजना का लक्ष्य 87 फीसद बगैर बिजली की सुविधा वाले घरों तक बिजली पहुंचाने की थी पर आलम यह है कि अब भी सैकड़ों गांव ऐसे हैं, जहां तक या तो यह योजना नहीं पहुंची है या फिर काम अधूरा है। पेयजल उपलब्धता आैर सफाई-स्वच्छता से संबंधित कार्यक्रमों की भी यही हालत है। दरअसल, यह स्थिति इसलिए भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में सरकार का ध्यान विकेंद्रित के बजाय केंद्रित विकास की तरफ ज्यादा रहा है।
नतीजा यह कि एक तरफ देशभर में अरबपतियों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही है, वहीं कम से कम 14 करोड़ बच्चे ऐसे हैं जो कुपोषण का शिकार हैं। यह विरोधाभासी अंतर हमारे विकास और समृद्धि के इकहरेपन के कारण है। सरकार अब वर्ष 2020 को लक्ष्य करके देश को समावेशी विकास लक्ष्य की ओर ले जाने की तैयारी कर रही है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले कुछ सालों में विकास का उजाला सबके हिस्से में आएगा।        

दो साला हार और शिक्षा का अधिकार

 दो साल हो गए शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए । यहां से पलटकर देखने पर रास्ता भले बहुत लंबा न दिखे पर अब तक के अनुभव कई बातें जरूर साफ करती हैं। मनरेगा जैसा ही हश्र इस कानून का भी होता दिख रहा है। प्रथम संस्था द्वारा तैयार की गई प्राथमिक शिक्षा की सालाना स्थिति पर तैयार 'असर' रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में नामांकन दर तो 96.7 फीसद तक पहुंच गई है पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नहीं दिखती है। 2007 की स्थिति से तुलना करें तो स्कूलों में पढ़ने पहुंचने वाले बच्चों का फीसद 2011 में 73.4 से खिसक कर 70.9 पर आ गया है। यही नहीं मुफ्त खाने का प्रलोभन परोसकर प्राथमिक शिक्षा का स्तर सुधारने का दावा करने वाली सरकारी समझ का नतीजा यह है कि न तो बच्चों को ढंग से भोजन मिल रहा है
और न ही अच्छी शिक्षा। ग्रामीण इलाकों में हालत यह है कि तीसरी जमात में पढ़ने वाले हर दस में से बमुश्किल एक या दो बच्चे ऐसे हैं, जो अक्षर पहचानत हैं। 27 फीसद ऐसे हैं जो ढंग से गिनती नहीं जानते हैं। 60 फीसद को अंकों का तो कुछ ज्ञान जरूर है पर जोड़-घटाव में उनके हाथ तंग हैं।
उत्तर भारत के कई राज्यों में खासतौर पर इस तरह की शिकायतें दर्ज की गई  और बताया गया कि कागजी खानापूर्ति के दबाव में बच्चों को कक्षाएं फलांगने की छूट जरूर दे दी जा रही हैं पर तमाम ऐसे बच्चे हैं जो पांचवीं जमात में पहुंचकर भी कक्षा दो की किताबें ढंग से नहीं पढ़ पाते। केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल लगातार शिक्षा के विस्तार और तरीके में सुधार के एजेंडे पर काम कर रहे हैं। धरातल पर जो सचाई है उसका भी पता मंत्री महोदय को है पर इस नाकामी के कारणों में जाने के बजाय वे आगे की योजनाओं की गिनती बढ़ाने में व्यस्त हैं। अब जब वह यह कहते हैं कि उनका सारा जोर रटंत तालीम की जगह रचनात्मक दक्षता उन्नयन पर है तो यह समझना मुश्किल है कि वे इस लक्ष्य को आखिर हासिल कैसे करेंगे।
आंकड़े यह भी बताते हैं कि ग्रामीण और सुदूरवर्ती क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों का नेटवर्क ठप पड़ता जा रहा है। देश के 25 फीसद बच्चे अभी ही प्राइवेट स्कूलों का रुख कर चुके हैं आगे यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी ही। केरल और मणिपुर में यह आंकड़ा अभी ही साठ फीसद के ऊपर पहुंच चुका है। लिहाजा सरकारी स्तर पर यह योजनागत सफाई जरूरी है कि वह सर्व शिक्षा का लक्ष्य अपने भरोसे पूरा करना चाहते हैं या निजी स्कूलों से। क्योंकि यह एक और खतरनाक स्थिति गांव से लेकर बड़े शहरों तक पिछले कुछ सालों में बनी है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मानक ही प्राइवेट स्कूल हो गए हैं। जबकि सचाई यह है कि यह सिर्फ प्रचारात्मक तथ्य है। अगर दसवीं और बारहवीं के सीबीएसई नतीजे को एक पैमाना मानें तो साफ दिखेगा कि सरकारी ही अब भी तालीम के मामले में असरकारी है। लिहाजा सरकारी स्कूलों की स्थिति में सुधार के बगैर देश में शिक्षा का कोई बड़ा लक्ष्य हासिल कर पाना नामुमकिन है।  और इस नामुमकिन को बदलने के लिए हर मुमकिन कोशिश होनी ही चाहिए।