यह न सिर्फ एक विडंबना है बल्कि एक विरोधाभासी विडंबना है। जहां गांधी से जुड़ी कुछ चीजों की नीलामी पर कुछ लोगों का ह्मदय भर आ रहा है तो वहीं अपने सैन्य बेड़े में शामिल होने जा रही अग्नि-5 मिसाइल की मारक क्षमता का विस्तार जानकर देशवासियों का सीना फख्रसे चौड़ा हो रहा है। एक तरफ हमारा मोह और हमारी आस्था उस अहिंसक मूल्यों की विरासत के प्रति है, जिसके प्रतीकों तक का अगर अनादर हो तो असहज हो उठते हैं, वहीं दूसरी तरफ आवेग, उन्माद, उत्तेजना और भय पैदा करने वाली ताकतों के और सबल होने को हम सीधे देशभक्ति के जज्बे से जोड़ते हैं।
दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास के महात्मा बनने की परिस्थतियों पर औपन्यासिक कृति 'पहला गिरमिटिया' लिखने वाले गिरिराज किशोर को तो लंदन में गांधी से संबंधित कुछ चीजों की नीलामी इतनी नागवार गुजरी कि वह नीलामी रोकने में सरकारी नाकामी पर अपना पद्मश्री सम्मान राष्ट्रपति को लौटाने पर आमादा हो उठे। गिरिराज के आहत होने को समझा जा सकता है पर यह आहत प्रतिक्रिया जिस तरह फूट रही है, वह कहीं से गले नहीं उतरती। गांधी के गुजरात में नए टूरिज्म सर्किट को गांधी के नाम से जोड़ा गया। गुजरात पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए अमिताभ बच्चन के जो विज्ञापन इन दिनों टीवी पर चल रहे हैं, उनमें बच्चन के हाथ में चरखा तक पकड़ाई गई है, उन्हें साबरमती आश्रम के बारे में बताते हुए दिखाया गया है।मुझे नहीं लगता कि अब तक किसी को यह विज्ञापन, इसका मकसद और इसके प्रस्तोता को लेकर कोई बड़ी शिकायत रही है। जबकि सचाई यह है कि बच्चों के लिए कैडबरी के मिल्क चॉकलेट को लेकर जब शिकायतें आईं तो बच्चन ने कुछेक दिनों-महीनों की खामोशी के बाद चॉकलेट कंपनी की दलीलों के साथ जाना पसंद किया आैर विज्ञापन में पप्पू के पास होने की मीठी खुशी मनाते रहे। बात गुजरात की निकली है तो जान लें कि वहां शराब पर पाबंदी है और यह पाबंदी भी गांधी के नाम पर ही मन-बेमन से ढोई-निभाई जा रही है। पर्यटक अगर चाहें तो उन्हें शराब मिल सकती है। बहुत आसानी से गुजरात की समुद्री सीमा के पार जाकर वैधानिक चेतावनी सीमा से पार पा लिया जाता है। यह सब वहां सरकार की आंख के नीचे ही नहीं बल्कि उसकी पूरी जानकारी आैर व्यवस्था में चल रहा है।
यह भी एक संयोग ही है कि विदेश में नीलामी की खबर के बाद देश में ही गांधी भवन के नीलाम होने की खबर आनी शुरू हो गई है। कोलकाता के बेलियाघाट में हैदरी मंजिल गांधी भवन के नाम से मशहूर है। 1947 के सांप्रदायिक दंगों के दौरान गांधी ने यहीं उपवास रखा था। यह ऐतिहासिक भवन पिछले 50 सालों से एक बैंक के पास गिरबी है आैर वह अब इसकी नीलामी करने जा रहा है। यह नीलामी रूक भी सकती है क्योंकि पश्चिम बंगाल विरासत आयोग के साथ कोलकाता नगर निगम ने इस भवन की हिफाजत का फैसला किया है।
एक ऐसे दौर में जब भौतिक प्रतिस्पर्धा जैसे आत्मघाती हिंसक मूल्यों को हम जीवनचर्या का हिस्सा आैर विकास का द्योतक मान चुके हैं, यह हास्यास्पद ही लगता है कि हम गांधी को लेकर अपनी भावुक चिंता प्रकट करें। अभी एक बच्चे ने आरटीआई के जरिए सरकार से यह पूछ डाला कि ऐतिहासिक रूप से गांधी को कब राष्ट्रपिता माना गया। सरकार के पास इस सवाल का कोई दस्तावेजी जवाब नहीं था। कल को भारत अपने लोगों के जीवन में अहिंसक चेतना के कोई लक्षण दिखा पाने में अगर असमर्थ दिखे, तो हैरत नहीं होनी चाहिए।
साफ है कि यहां बड़ा मुद्दा यह नहीं कि हमारा देश अपने राष्ट्रपिता को लेकर कितना संवेदनशील है। बड़ा सवाल यह है कि महत्व किसका ज्यादा है- गांधी विचार का,उनके अहिंसक जवन दर्शन का, उनके पढ़ाए रचनात्मक विकास के पाठ का या या सिर्फ उनके स्मृतिचिह्नों का। गांधी एक युगपुरुष हैं और उन्होंने अपने जीवन को इतने कामों में लगाया, इतनी जगहों पर बिताया, इतने लोगों के साथ जुड़े कि उसका कोई अंतिम लेखाजोखा तैयार ही नहीं किया जा सकता। 20वीं सदी का यह महात्मा 21वीं सदी में एक किंवदंति बन चुका है। यही कारण है हरेक की चेतना पर एक मानवीय दस्तक देने वाले गांधी का सामना करने को आज कोई तैयार नहीं है। क्योंकि किंवदंतियां जीवन और समाज की चर्चा में तो जीवित रहती हैं पर उनके किसी काम की नहीं होतीं। गांधी विचार तो बाजारू नहीं हो सकता पर उसके समर्थन और विरोध का आज एक बड़ा बाजार है। बाजारवादी दौर में यह बाजार भी खूब फल-फूल रहा है। और इस बाजार में एक से एक गिरिराज और किशोर अपनी सुविधा, अपना मुनाफा तलाश रहे हैं।