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सोमवार, 23 जून 2014

सौभाग्य की सिंदूरी रेखा


विवाह संस्था को लेकर बहस इसलिए भी बेमानी है क्योंकि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। पर बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखती नहीं या फिर दिखती भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न् हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नि्त नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभाग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर
की नहीं।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की तरह धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सचाई का पता चला तो आंखें भर आईं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आईं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है और इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दीया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह और कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है, आज वे जहां भी होंगे, सचमुच बहुत खुश होंगे और अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी। तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरे पिता का पिछले साल देहांत हुआ है। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते थे। पर आश्चर्य होता था कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा क्यों नहीं लगता। उलटे वह कहतीं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे।
मां अपनी दो बेटियों और दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को हैं। संत विनोबा से लेकर प्रभावती और जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है और उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा और इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी और मजबूत है कि स्त्री स्वातं`य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार और जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है।

गुरुवार, 19 जून 2014

महज यूपी नहीं आधी दुनिया की करें फिक्र

आपकी नजर में कौन सी खबर ज्यादा बड़ी है, बहस की नई मेजें सजने वाली हैं- वह सब जो इन दिनों देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में हो रहा है या वह जिसने प्रीति जिंटा और नेस वाडिया के रिश्ते को पुलिस थाने तक ले आई? वैसे इन दोनों खबरों से इतर एक तीसरी खबर भी है, जिसकी चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया पर खासा वायरल है। कमाल तो यह कि इंटरनेट खंगालने पर इसके टेक्स्ट अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी में मिले। दरअसल, हम बात कर रहे हैं पूर्व अमेरिकी मॉडल सारा वॉकर की।
सारा को हॉट बिकनी गर्ल का खिताब युवाओं ने दे रखा था। वह मॉडलिंग की दुनिया में एक सनसनाता नाम रही। पर अचानक चमक-दमक की यह दुनिया उसे परेशान करने लगी। देह और संदेह के दौर में अपनी पहचान और सुरक्षा को लेकर जिस तरह की परेशानी घर से बाहर काम पर निकली किसी भी एक आम लड़की को हो सकती है, वही परेशानी सारा को भी हुई। पर बाकी लड़कियों की तरह अपनी इन परेशानियों को सहन करने या दबाने के बजाय उसके खिलाफ जाने का निर्णय किया। अलबत्ता यह तेवर बागी कम जुनूनी ज्यादा लगता है। क्योंकि अपनी बगावत में सारा वॉकर ने कुछ और नहीं किया बल्कि अपना धर्म बदल लिया। सारा ने इस्लाम की शरण यह सोचकर ली कि बुर्के और हिजाब की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित है। ऐसा है या नहीं इस पर जजमेंटल होने से अच्छा है कि हम सारा के निजी फैसले का स्वागत करें। पर यह फैसला कुछ सवाल तो उठाता ही है, जिन पर चर्चा हो रही है और होनी भी चाहिए।
सारा के जिक्र के बरक्श अगर बात यूपी में महिलाओं के खिलाफ पेड़ से लटकी बर्बरता की करें या प्रीति जिंटा मामले पर शुरू हुई बेहूदी लतीफेबाजी की, तो सबसे बड़ी कसूरवार वह दृष्टि है, जिसने महिलाओं को महज फिगर और आइटम बनाकर रख छोड़ा है।
ऐसा नहीं है कि अपराध यूपी के किसी हिस्से में हो तो उसका एक मतलब होता है और मुंबई-दिल्ली-गुड़गांव-गुवाहाटी में हो तो उसके मायने बदल जाते हैं। आलोचना तो मीडिया की भी होनी चाहिए कि वह अपराध को लेकर एक नए तरह का वर्ग भेद पैदा कर रहा है। यह कैसे हो रहा है, इसकी ताजा मिसाल है फिल्म 'रागिनी एमएमएस-2’ के हिट गाने 'बॉबी डॉल सोने की’ का वीडियो। इस बोल्ड फिल्म पर सेंसर बोर्ड की कितनी कैंचियां चलीं, मालूम नहीं। पर यह तो रोज टीवी पर दिख रहा है कि कुछ दिन पहले तक इस गाने के वीडियो में सनी लियोनी ने अपने शरीर के एक खास हिस्से को कपड़ों से ढक रखा था और इन दिनों चल रहे वीडियो में कपड़े की जगह उसके दोनों हाथों ने ले ली है। फिर क्या... कई छोटे-बड़े शहरों से पर्दे से उतर जाने के बाद भी यह फिल्म टीवी चैनलों पर धूम मचाए हुए है।
इस गाने में सनी के बोल्ड से बोल्डतर अवतार पर आंखंे सेंकने वालों को इंटरटेनमेंट का यह चालाक ओवरडोज खूब रास आ रहा है। पर मीडिया की नजर में इससे न तो कोई कानून व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो रहा है और न कहीं मानवता शर्मसार हो रही है। जबकि सचाई तो यह है कि इस तरह हम जिस तरह का देशकाल और मानस रच रहे हैं, वही पुरुष के लिए स्त्री देह संसर्ग को एक 'बर्बर कारवाई’ बनाने की जंगली सनक को जन्म देते हैं।
पूर्व विश्व सुंदरी युक्ता मुखी की 2००8 में हुई शादी पिछले साल पुलिस थाने तक इसलिए पहुंच गई क्योंकि युक्ता को यह शिकायत थी कि उसके पति प्रिंस तुली उनसे वह सब कुछ चाहते हैं, जो उनके लिए घिनौना है, अप्राकृतिक है। अब कोई यह बताए कि क्या कोई इस घटना को पोस्टर बनाकर पूरे बॉलीवुड इंडस्ट्री पर चस्पा करने की हिमाकत कर सकता है कि मनोरंजन की यह पूरी दुनिया पथभ्रष्ट हो चुकी है, महिला विरोधी हो चुकी है। अगर ऐसा नहीं किया या सोचा जा सकता है तो क्या इसलिए क्योंकि खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध को हम धन, हैसियत, शिक्षा, पेशा और स्थानादि से जोड़कर देखते हैं और फिर उसके मुताबिक ही उसका राजनीतिक-सामाजिक भाष्य तैयार करते हैं।
महिलावादी लेखिका मनीषा अपनी पुस्तक 'हम सभ्य औरतें’ में एक ऐसी घटना का जिक्र करती हैं जिसमें बीमारी के कारण महीनों से कौमा में पड़ी अपनी पत्नी के लिए अदालत से कृपा मृत्यु की फरियाद करने वाला पति ही बाद में अचेत पत्नी से संसर्ग बनाता है। देह और पुरुष के बीच खिंची यह वही रेखा है, जो बदायूं में दो बहनों के साथ दुष्कर्म के बाद उनकी हत्या और फिर उनकी लाश को तमाशा बनाने की जंगली हिमाकत के लिए उकसाती है।
बात प्रीति और नेस के संबंध की करें तो यहां भी यही बात संवेदनहीनता की बदली जिल्द के साथ नजर आती है। ये दोनों शादीशुदा नहीं लेकिन लंबे समय तक रिलेशन में थे। बताते हैं कि अब नेस को एक और कन्या का साथ भा रहा है। प्रीति के अधिकार बोध को यह कतई बर्दाश्त नहीं। पर सवाल यह है कि संबंध को समाज और परंपरा से निरपेक्ष अपने मन मुताबिक शक्ल देने की आतुरता अगर 'दुर्घटनाग्रस्त’ होती है तो फिर इसकी सुनवाई कानून और समाज कैसे करे। दरअसल, इन दिनों संबंधों को दीघार्यु बनाने के बजाय उसे अपडेट करने की नई सनक पैदा हो गई है। यह एलजीबीटी रिवोल्यूशन का दौर है। पर 'रेनबो रिबन’ संबंधों की नई कलाइयों की शोभा चाहे जितनी बने, इसने संबंध के कल्याणकारी सरोकारों को तो तहस-नहस कर ही दिया है।
बात जिस सारा वॉकर की हम पहले कर चुके हैं, अब जरा उसकी ही जुबानी उसके अनुभव सुनिए-'मैंने समुद्र के किनारे घर ले लिया। ...मैं अपने सौंदर्य को बहुत महत्व देती थी और ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद की ओर चाहती थी। मेरी ख्वाहिश रहती थी कि लोग मेरी तरफ आकर्षित रहें। खुद को दिखाने के लिए मैं रोज समुद्र किनारे जाती। ...धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया लेकिन मुझे अहसास होने लगा कि जैसे-जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को चमकाने और दिखाने के मामले में आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरी खुशी और सुख-चैन का ग्राफ नीचे आता गया।’ साफ है कि सारा ने उस दुनिया के सितम झेले और बढ़ती उम्र के साथ अकेली पड़ती गई, जहां सौंदर्य का मतलब उत्तेजना और संवेदना का मतलब दिखावा है। कहने की जरूरत नहीं कि 'आधी दुनिया’ के लिए 'पूरी दुनिया’ में मानसिकता एक जैसी है।
दुर्भाग्यपूणã यह है कि इस मसले को कहीं हम महज कानून व्यवस्था का सवाल बनाकर देखते हैं तो कहीं अपराधियों की समझ को उनकी जाति, शिक्षा या स्थान से जोड़कर देखते हैं। जबकि सचाई यह है कि अमेरिका के ह्वाइट हाउस से लेकर गरीबी और जहालत में डूबे यूपी के किसी गांव की सचाई में कोई फर्क नहीं है। दोष उस स्त्री मन का भी है, जो इस बर्बर पुरुष प्रवृत्ति के खिलाफ धिक्कार के बजाय स्वीकार से भर उठता है।
 

सोमवार, 16 जून 2014

व्यास पीठ पर ताई


धवल-उदात्त चेहरा, आंखों पर टंगा कांच के थोड़े बड़े फ्रेम का चश्मा, पहनावे में आम तौर पर सूती या खादी की साड़ी, चलने-फिरने और बैठने-उठने का सलीका खासा ठहराव भरा, वैसे तो मितभाषी पर सार्वजनिक चिंता के मुद्दों पर मुखर, सुमित्रा महाजन की शख्सियत को यही कुछ बातें मुकम्मल और खास बनाती हैं। दरअसल, अपनी इन्हीं खूबियों के कारण ही वह अपने करीब के लोगों और अपने क्षेत्र में 'सुमित्रा ताई’ के रूप में लोकप्रिय हैं। नाम का रिश्ते में बदलना असाधारण बात है और सार्वजनिक जीवन में तो इस तरह की परंपरा अब न के बराबर रही है। सार्वजनिक जीवन में आए भरोसे के इस कमी को सुमित्रा जिस तरह पूरा कर रही हैं, वह उनके पूरे राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा प्रदेय है। लोकसभा अध्यक्ष के लिए निर्विरोध निर्वाचित होना और एक ही सीट से आठ बार संसद पहुंचना उनकी स्वीकृति के बड़े दायरे को रेखांकित करता है।
 यह गौरव की बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के व्यास पीठ पर एक महिला बैठेगी, प्रधानमंत्री ने इन्हीं शब्दों के साथ सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति के साथ लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई दी। बात करें सुमित्रा की तो उनका नाम लोकसभा अध्यक्ष बनने से पहले से ही चर्चा में आ गया था। यह चर्चा इसलिए शुरू हुई थी कि वह पिछले आठ बार से मध्य प्रदेश के इंदौर लोकसभा क्षेत्र से जीतती आ रही हैं। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड ही नहीं बल्कि बड़ी सफलता है।
सुमित्रा का जन्म 12 अप्रैल, 1943 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में चिपलुन नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम नीलकंठ साठे तथा माता का नाम ऊषा था। उन्होंने अपनी एमए तथा एलएलबी की डिग्री इंदौर विश्वविद्यालय -अब देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय- से प्राप्त की। उनका विवाह 29 जनवरी, 1965 को इंदौर के प्रसिद्ध वकील जयंत महाजन से हुआ था। चुनावी राजनीति में सुमित्रा का प्रवेश स्थानीय निकायों के जरिए हुआ। 1982 में वह इंदौर नगर निगम में उपमहापौर बनी थीं। 1989 में अपनी ससुराल इंदौर से उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा था। तब पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रकाश चंद्र सेठी को उनसे हार का सामना करना पड़ा था। पर बाद में तो वह इंदौर की जनता के मन में ऐसी बसीं कि आज तक वह स्थानीय स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। वह इंदौर में पहले 'बहू’ के तौर पर जानी गईं पर बहू के 'बेटी’ बनते देर नहीं लगी और अब तो वह वहां सबकी प्यारी 'ताई’ है। 71 वर्षीय सुमित्रा का आधिकारिक नाम भी 16वीं लोकसभा के सांसदों की सूची में सुमित्रा महाजन (ताई) के तौर पर दर्ज है। लोकप्रियता के इस सातत्य के पीछे सुमित्रा की बेदाग छवि का भी बड़ा योगदान है।
सुमित्रा संघर्ष में तपी नेता हैं। वह 16वीं लोकसभा में महिला सांसदों में सबसे वरिष्ठ सांसद हैं। मीरा कुमार के बाद महाजन लोकसभा अध्यक्ष बनने वाली दूसरी महिला हैं। उन्होंने एक सक्रिय सांसद के रूप में केवल महत्वपूर्ण समितियों का ही नेतृत्व नहीं किया है बल्कि वह सदन के भीतर अच्छी बहस करने वाली और एक उत्साही प्रश्नकर्ता भी रही हैं। वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 1999 से 2००4 तक राज्यमंत्री रहीं। सौम्य व्यवहार करने वाली सुमित्रा एक ऐसी राजनेता के रूप में उभरी हैं जिन्होंने 1989 में इंदौर से सांसद बनने के बाद से कभी हार का मुंह नहीं देखा और विपक्षी नेताओं की एक पीढ़ी उन्हें हराने का इंतजार ही कर रही है।
लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने कहा, 'मैं लोकसभा में अधिक कामकाज पर जोर दूंगी। वहां एजेंडे को पूरा करने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष में अच्छा समन्वय होना चाहिए। लोगों को हमसे बहुत उम्मीदें हैं। हमें काम के घंटे बढ़ाने चाहिए।’ उम्मीद करनी चाहिए कि सुमित्रा अपने नए दायित्व की चुनौतियों पर खरी उतरेंगी। यह एक बड़ी परीक्षा है। क्योंकि पिछली लोकसभा के अंतिम कुछ सत्रों में कामकाज संसद सदस्यों के अत्यधिक शोर-शराबे के कारण प्रभावित हुआ था। पर लगता है सुमित्रा इस परीक्षा के लिए पूरी तरह तैयार हैं, तभी तो वह कहती हैं, 'उन्हें यह पता है कि इस तरह की परिस्थितियों से किस तरह निपटा जाता है।’
 

शुक्रवार, 13 जून 2014

चोमस्की के मोदी विरोध का तर्क-कुतर्क


सोलह मई को 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के नतीजे आए थे। उस दिन सबके अवाक रहने की स्थिति थी। विरोधी इस बात से हतप्रभ थे कि नमो का जादू इतना कारगर कैसे रहा, तो हिमयती इस बात पर दंग थे कि उम्मीद से बड़ी सफलता आखिर मिली कैसे। प्रतिक्रियों के इन अतिरेक के बीच एक खामोशी भी पसरी थी। समय और परिस्थिति के मुताबिक अपनी निष्ठाएं बदलने वाले बौद्धिकों को छोड़ दें तो कुछ ढीठ किस्म के प्रगतिशील ऐसे भी थे, जिनसे इस चुनाव परिणाम को देखकर कुछ बोलते नहीं बन रहा था। पर यह बोलती बंद की नौबत विचार परिवर्तन की चौखट को खटखटा नहीं सकी।
फिर क्या था कि जैसे-जैसे 16 मई पीछे छूटती गई, इन प्रखर जनों ने अपनी टेक नए सिरे से लेनी शुरू कर दी। बहुमत के आंकड़े को झुठलाया नहीं जा सकता और न ही लोकतंत्र में जनता की राय को लेकर आप सार्वजनिक तौर पर कोई नकारात्मक राय रख सकते हैं। पर विचार और तर्क की दुनिया में इससे बच निकलने के चोर रास्ते भी हैं। ऐसा ही एक चोर रास्ता खोला गया है विश्व प्रसिद्ध चिंतक, विचारक और भाषाविद नोम चोमस्की का नाम लेकर। चोमस्की ने भारत में नमो उदय को लेकर कुछ तीखी बातें कही हैं। खासतौर पर सोशल मीडिया पर वैचारिक वाम की अलंबरदारी करने वालों ने चोमस्की के बयान को आपस में खूब पढ़ा-पढ़ाया है। अब तो चोमस्की की टिप्पणी के साथ भाई लोग अपनी पूरक टिप्पणी भी जोड़ते चले जा रहे हैं। इस तरह एक बयान अब भरे-पूरे आख्यान की शक्ल लेता जा रहा है। आख्यान मोदी विरोध का, देश की राजनीति में मोदी के धूमकेतु की तरह उदय को लेकर जरूरी संशय का।
बहरहाल, इस बारे में आगे और बात करने से पहले यह देख लेना जरूरी है कि आखिर चोमस्की ने कहा क्या है। नोम चोमस्की के बयान से जुड़ी यह टिप्पणी देश के एक प्रगतिशील बौद्धिक के फेसबुक वाल से उठाई गई है। नाम का जिक्र इसलिए नहीं कि ऐसा किया नहीं जा सकता बल्कि इससे अनावश्यक एक ऐसे विवाद का जन्म होगा, जिसका चोमस्की के बयान प्रसंग को लेकर खड़ी हुई बहस से कोई सीधा लेना-देना नहीं है। फेसबुक पर जो टिप्पणी की गई है, वह कुछ इस तरह है-'नोम चोमस्की ने भारत के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए आज बोस्टन में कहा कि भारत में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है। भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा। आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में आने वाला है, ठीक इसी अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था। नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा लिया था। भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है। कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है। अब भारत के वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा। नोम चोमस्की आज शाम को कैंब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे। इसके पश्चात उन्होंने अलग से मेरी अनौपचारिक संक्षिप्त बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की।’
अब कोई चोमस्की से यह पूछे कि लोग उन्हें एंटी-स्टैबलिशमेंट की पैरोकारी करने वाले तो मानते हैं पर लोकतंत्र विरोधी नहीं। फिर एक देश में चुनाव के जरिए बहाल हुई नई सरकार और उसके जरिए उभरे नए राजनीतिक नेतृत्व को वे इतने संशय की नजर से क्यों देख रहे हैं। क्या वैचारिक प्रखरता और प्रगतिशीलता की एक शर्त यह भी है कि वह हर उभार के खिलाफ हो। क्योंकि तभी विरोध को वैचारिक तौर पर वजनी माना जाएगा और उस पर चर्चा होगी।
नोम चोमस्की जिस देश से आते हैं और जहां उन्हें थिंक टैंक तो माना जाता है पर वहां भी वे मुख्यधारा के बौद्धिकों और विचारकों की अगुवाई नहीं कर सके। कहने को भले ऐसा करना उनकी महात्वाकांक्षा का हिस्सा न हो, पर उनके आलोचक तो इसे उनकी असफलता के तौर पर ही देखते हैं।
चोमस्की भारत को लेकर पहले भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी बातें मुखरता से कहते रहे हैं। पर उनकी हालिया टिप्पणी से नहीं लगता कि वे भारत की राजनीतिक सचाई से पूरी तरह वाकिफ हैं। वाम की तरफ उनका झुकाव स्वाभाविक है पर भारत में वाम अपने गढ़ में ही ढह गया, इस स्थिति को समझने का विवेक वे नहीं दिखा रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के पुराने जिक्र को छोड़ भी दें तो भी चोमस्की यह बताने से तो बच ही रहे हैं कि बाजार के दौर में मनुष्य के अंदर उन्नति और विकास की एक नई सोच पैदा हुई है, उसके आगे कोई वैकल्पिक लकीर कैसे खिंची जाए।
बाजारवादी व्यवस्था के हिमायती भारत में भी बहुत लोग नहीं हैं। यहां तक कि नरेंद्र मोदी जिस पार्टी और विचारधारा से आते हैं, उसकी भी बुनियादी अवधारणा इसके खिलाफ है। पर इससे देश और समाज में विकास और उन्नति की जगी भूख और उससे पैदा लेने वाले नए तरह के राजनैतिक नेतृत्व का तकाजा कहां से खारिज हो जाता है।
चोमस्की की इस बात में जरूर थोड़ा दम है कि भारत में मोदी के उभार और कांग्रेस के बुरे हश्र को देखकर कई लोगों को यह लगता है कि देश में विचार और सत्ता से जुड़े तमाम सरोकार एकध्रुवीय न हो जाएं। एक अच्छे लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। असहमति के लिए लोकतंत्र में गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए, यह क्रियात्मक रूप में भी सामने आना चाहिए।
वाम और क्षेत्रीय दलों के एक मंच पर आने की बात देश में चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी उठी पर कुछ भी ठोस सामने नहीं आया। अब एक ही उम्मीद है कि मोदी सरकार के काम करते कुछ दिन बीतते हैं तो फिर उनको लेकर सहमति-असहमति की सही जमीन चिह्नत होगी। इस इम्तहान में दोनों पक्षों को खरा उतरने की चुनौती होगी।
मोदी अभी देश में उम्मीद और भरोसे का नाम है। जिस तरह की स्थितियां पूरे देश में व्यवस्था से लेकर समाज तक है, उसमें रातोंरात कोई क्रांतिकारी बदलाव आसान बात नहीं होगी। यह बात उनके विरोधियों के भी समझ में आ रही है। पर विरोध के इस संभावित रकबे को घेरने के लिए उन्हें अभी थोड़ा धैर्य दिखाना होगा। यही नहीं उन्हें इस बीच जनता की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी राजनीति की बनावट को भी नए सिरे से गढ़ना होगा।
क्या चोमस्की की बातों पर उछाल भरने वालों को लोकतांत्रिक राजनीति की इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती मंजूर है। अगर हां, तो फिर यह उनसे ज्यादा इस महान लोकतांत्रिक मर्यादाओं वाले देश के हित में होगा और अगर नहीं, तो फिर यही साफ होगा कि बड़ी लकीर (मोदी) के आगे उससे भी बड़ी लकीर खींचना एक बात है और लकीर पीटते रहना दूसरी।
 

मंगलवार, 10 जून 2014

घाट कारपोरेट


नदी की निर्मल कथा टुकड़े-टुकड़े में लिखी तो जा सकती है, सोची नहीं जा सकती। कोई नदी एक अलग टुकड़ा नहीं होती। नदी सिर्फ पानी भी नहीं होती। नदी एक पूरी समग्र और जीवंत प्रणाली होती है। अत: इसकी निर्मलता लौटाने का संकल्प करने वालों की सोच में समग्रता और दिल में जीवंतता का होना जरूरी है। नदी हजारों वषोर्ं की भौगोलिक उथल-पुथल का परिणाम होती है। अत: नदियों को उनका मूल प्रवाह और गुणवत्ता लौटाना भी बरस-दो बरस का काम नहीं हो सकता। हां,संकल्प निर्मल हो, सोच समग्र हो, कार्ययोजना ईमानदार और सुस्पष्ट हो, सातत्य सुनिश्चित हो, तो कोई भी पीढ़ी अपने जीवनकाल में किसी एक नदी को मृत्युशय्या से उठाकर उसके पैरों पर चला सकती है। इसकी गारंटी है। दरअसल ऐसे प्रयासों को धन से पहले धुन की जरूरत होती है। नदी को प्रोजेक्ट बाद में, वह कशिश पहले चाहिए, जो पेटजाए को मां के बिना बेचैन कर दे।
इस बात को भावनात्मक कहकर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। कालीबेईं की प्रदूषण मुक्ति का संत प्रयास, सहारनपुर पांवधोई का पब्लिक-प्रशासन प्रयास और अलवर के 7० गांवों द्बारा अपने साथ अरवरी नदी का पुनरोद्धार इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं।
नदी की समग्र सोच यह है कि झील, ग्लेशियर आदि मूल स्रोत हो सकते हैं, लेकिन नदी के प्रवाह को जीवन देने का असल काम नदी बेसिन की छोटी-बड़ी वनस्पतियां और उससे जुड़ने वाली नदियां, झरने, लाखों तालाब और बरसाती नाले करते हैं। इन सभी को समृद्ध रखने की योजना कहां है? हर नदी बेसिन की अपनी एक अनूठी जैव विविधता और भौतिक स्वरूप होता है। ये दोनों ही मिलकर नदी विशेष के पानी की गुणवत्ता तय करते हैं।
नदी का ढाल, तल का स्वरूप, उसके कटाव, मौजूद पत्थर, रेत, जलीय जीव-वनस्पतियां और उनके प्रकार मिलकर तय करते हैं कि नदी का जल कैसा होगा? नदी प्रवाह में स्वयं को साफ कर लेने की क्षमता का निर्धारण भी ये तत्व ही करते हैं। सोचना चाहिए कि एक ही पर्वत चोटी के दो ओर से बहने वाली गंगा-यमुना के जल में क्षार तत्व की मात्रा भिन्न क्यों है?
ताकि नदी ले सके सांस
गाद सफाई के नाम पर हम अमेठी की मालती और उज्जयिनी जैसी नदियों के तल को जेसीबी लगाकर छील दें। उनके ऊबड़-खाबड़ तल को समतल बना दें। प्रवाह की तीव्रता के कारण मोड़ों पर स्वाभाविक रूप से बने 8-8 फुट गहरे कंुडों को खत्म कर दें। वनस्पतियों को नष्ट कर दें और उम्मीद करें कि नदी में प्रवाह बचेगा, उम्मीद करें कि नदी संजय गांधी अस्पताल व एचएएल के बहाए जहर को स्वयं साफ कर लेगी, यह संभव नहीं है।
ऐसी नासमझी को नदी पर सिर्फ स्टॉप डैम बनाकर नहीं सुधारा जा सकता। कानपुर की पांडु के पाट पर इमारत बना लेना, पश्चिम उत्तर प्रदेश में हिंडन को औद्योगिक कचरा डंप करने का साधन मान लेना और मेरठ का काली नदी में बूचड़खानों के मांस मज्जा और खून बहाना तथा नदी को एक्सप्रेस वे नामक तटबंधों से बांध देना नदियों को नाला बनाने के काम है। प्राकृतिक स्वरूप ही नदी का गुण होता है। गुण लौटाने के लिए नदी को उसका प्राकृतिक स्वरूप लौटाना चाहिए। नाले को वापस नदी बनाना होगा।
जैव विविधता लौटाने के लिए नदी के पानी की जैव ऑक्सीजन मांग घटाकर 4-5 लानी होगी, ताकि नदी को साफ करने वाली मछलियां, मगरमच्छ, घड़ियाल और जीवाणुओं की बड़ी फौज इसमें जिंदा रह सके। नदी को इसकी रेत और पत्थर लौटाने होंगे, ताकि नदी सांस ले सके। कब्जे रोकने होंगे, ताकि नदियां आजाद बह सके। नहरी सिंचाई पर निर्भरता कम करनी होगी। नदी से सीधे सिंचाई अक्टूबर के बाद प्रतिबंधित करनी होगी, ताकि नदी के ताजा जल का कम से कम दोहन हो। भूजल पुनर्भरण हेतु तालाब, सोखता पिट, कुंड और अपनी जड़ों मंे पानी संजोने वाली पंचवटी की एक पूरी खेप ही तैयार करनी होगी, भूजल को निर्मल करने वाले जामुन जैसे वृक्षों को साथी बनाना होगा। इस दृष्टि से प्रत्येक नदी जलग्रहण क्षेत्र की एक अलग प्रबंध एवं विकास योजना बनानी होगी।
कितनी बिजली : कैसी बिजली
वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर दावा करते हैं कि आज भारत में जितनी बिजली बनती है, उससे पांच गुना अधिक बिजली उत्पादन क्षमता हवा और अंडमान द्बीप समूह से भू-तापीय स्रोतों में मौजूद है। सबसे अच्छी बात तो यह कि हवा, सूर्य और भू-तापीय स्रोतों से खींच ली गई ऊर्जा वैश्विक तापमान के वर्तमान के संकट को तो नियंत्रित करेगी ही, भूकंप और सुनामी के खतरों को भी नियंत्रित करने में मददगार होगी।
कहना न होगा कि नदी की निर्मलता और अविरलता सिर्फ पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास और ऊर्जा मंत्रालय का विषय नहीं है; यह उद्योग, नगर विकास, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, रोजगार, पर्यटन, गैर परंपरागत ऊर्जा और संस्कृति मंत्रालय के बीच भी आपसी समन्वय की मांग करता है।
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इस समय केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय में गंगा को लेकर खूब काम हो रहा है। इनमें सबसे ऊपर बनारस में गंगा घाटों की साफ-सफाई और रखरखाव को लेकर बनने वाली योजनाएं हैं। देश की कुछ बड़ी कंपनियां यहां घाटों को गोद लेंगी। घाटों के कुछ हिस्सों में हुई टूट-फूट को भी दुरुस्त करना उनकी जिम्मेदारी होगी। यह अभियान विशेष तौर पर उन घाटों को ध्यान में रखकर तैयार किया जा रहा है, जहां विदेशी सैलानियों का ज्यादा आना-जाना है। केंद्रीय पर्यटन मंत्री श्रीपद नायक के मुताबिक इस अभियान का मकसद घाट की साफ-सफाई में अहम प्राइवेट कंपनियों को शामिल करना है। ये गतिविधियां कंपनियों की कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) का हिस्सा होंगी।
मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक घाटों की को गोद लेने वाली इकाइयों में ताज और ललित होटल ग्रुप शामिल हैं। पर्यटन मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव गिरीश शंकर ने बताया कि इस अभियान में कारपोरेट की भूमिका कोऑर्डिनेटर की होगी। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि इसे कारपोरेट के कामों की आउटसोîसग माना जाया। इस अभियान में जिन 12 घाटों को शामिल किया जाना है, उनमें दशाश्वमेध, राजेंद्र प्रसाद, शीतला, केदार, मन मंदिर, त्रिपुरभैरवी, विजयनगरम, राणा, चौसट्टी, मुंशी, अहिल्याबाई और दरभंगा घाट शामिल हैं। दशाश्वमेध घाट पर हर शाम होने वाली गंगा आरती काफी मशहूर है। यहीं से नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि उनकी प्राथमिकता इस शहर के साथ बाकी देश को स्वच्छबनाने की है।
 

शुक्रवार, 6 जून 2014

बैंक में जमा पेड़

कॉलोनी का सातवां
और उसके आहाते का
आखिरी पेड़ था
जमा कर आया जिसे वह
अजन्मे पत्तों के साथ बैंक में
इससे पहले
बेसन मलती बरामदे की धूप
आलते के पांव नाचती सुबह
बजती रंगोलियां
रहन रखकर खरीदा था उसने
हुंडरु का वाटरफॉल

निवेश युग के सबसे व्यस्त चौराहे पर
गूंजेंगी जब उसके नाम की किलकारी
समय के सबसे खनकते बोल
थर-थराएंगे जब
पुश्तैनी पतलून का जिप चढ़ाते हुए
खड़ी होगी जब नई सीढ़ी
पुरानी छत से छूने आसमान
तब होगी उसके हाथों में
दुनिया के सबसे महकते
फूलों की नाममाला
फलों की वंशावली
पेड़ों के कंधों पर झूलता
भरत का नाट्यशास्त्र

बांचेगा वह कानों को छूकर
सन्न से गुजर जाने वाली
हवाओं के रोमांचक यात्रा अनुभव
आंखों के चरने के लिए होगा
एक भरा-पूरा एलबम
तितलियों के इशारों पर
डोलते-गाते मंजर
मिट्टी सोखती
पानी की आवाज बजेगी
उसके फोन के जागरण के साथ

पर वे पेड़
जहां झूलते हैं उसके सपने
वे आम-अमरूद और जामुन
चखती जिसे तोतों की पहली मौसमी पांत
वह आकाश
जहां पढ़ती हैं अंगुलियां अपने प्यार का नाम
वह छाया
जिसे बगीचे चुराते धूप से
वह धूल
जहां सनती गात बांके मुरारी की
कहां होंगे
किन पन्नों पर होगी
इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट
हारमोनियम से बजते रोम-रोम
किस बारहमासे से बांधेंगे युगलबंदी
आएंगे पाहुन कल भोर भिनसारे
कौवे किस मुंडेर पर गाएंगे
हमें देखकर कौन रोएगा
हम किसे देखकर गाएंगे
 

मंगलवार, 3 जून 2014

आज ब्लू है पानी और दिन भी सनी


मौसम विभाग तो अभी देश के विभिन्न हिस्सों में मानसून के पहुंचने का कैलेंडर ही बनाने में लगा है पर इस बीच बारिश ने अपनी रिमझिम दस्तक दे दी। मौसम की इस खुशमिजाजी को देखकर सभी खुश हैं। पर एक बात जरूर अखरती है कि बारहमासा गाने वाले देश में बारिश का मतलब अब हनी सिंह जैसे रैपर बता रहे हैं।
देश की राजधानी के अलावा कई दूसरे हिस्सों में गरमी बढ़ने के साथ ही राहत की फुहारें भी पड़ने लगीं। गरमी को कूलर, एसी, फ्रिज, वाटर पार्क आदि जैसे कृत्रिम साधनों से दूर भगाने का कारोबार करने वालों को जरूर यह सुहानी राहत आफत जैसी लगी हो पर आमजन तो मौसम की इस खुशगवारी का भरपूर आनंद ही उठा रहे हैं।
बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए पर्याप्त स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है।
कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खींचे या यहां-वहां से जुगाड़े गए ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रेरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नए मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसेज के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं।
हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भींगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे।
खो गई सावनी-कजरी
मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है, 'बदरिया घिर आई ननदी...।’ पारंपरिक तौर पर चले आ रहे सावनी गीत-संगीत का शायद ही कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो। पर शोभा गुर्टू और गिरिजा देवी से लेकर मालिनी अवस्थी तक को मशहूर करने वाली इस कजरी को अब अपने नए कद्रदानों की तलाश है। अलबत्ता 'आज ब्लू है पानी...पानी...’ की धुन पर थिरकने और लड़खड़ाने वाली पीढ़ी से इस बारे में कोई उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में बरसात और समाज के बीच के बदले तानेबाने को नए सिरे से समझना तो जरूरी है, नए सरोकारों और प्रचलनों पर भी गौर करना होगा। वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है।
बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं, पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट्यूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं।
इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।
आज ब्लू है पानी और दिन भी सनी
 फिल्म 'यारियां’ का बीच सांग 'आज ब्लू है पानी...पानी...’ ने इस साल बारिश आने से पहले से रिमझिम फुहारों के अहसास से भर दिया। बात अगर शहरी नौजवानों की करें उन्होंने कम से कम इस साल के लिए इस गाने को रेनी सीजन का एंथम सांग का दर्जा दे
दिया है।
इस गाने में पंजाबी रैपर यो यो हनी सिंह की आवाज का जादू सिर चढ़कर बोलता है। इस गाने में उन्होंने खुद परफार्म भी किया है। पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस गाने का बोल्ड और यूथफुल फिल्मांकन। गरमी में पानी का भीगा अहसास अब मनमानी का भी अहसास है। मनमानी यानी मस्ती के लिए हर दहलीज को एक बार में लांघ जाना। सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर की यही तो खासियत है कि वह हर मौके को सेलिब्रेट करती है, फिर इससे फुहारों का मौसम कैसे बाहर रह सकता है।