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सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

रामलीला 2015

बीते साल में दिल्ली में दो नई सरकारें आईं, एक केंद्र की तो दूसरी दिल्ली प्रदेश की। दोनों सरकारों ने बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए। इन दावों की राजनीतिक व्याख्या और समीक्षा तो खैर मीडिया में हर दिन चल रही है पर सांस्कृतिक स्तर पर इसे देखें-समझें तो समय और समाज का ऐसा चित्र सामने आएगा, जिस पर हम कम से कम सीधे-सीधे तो नाज नहीं कर सकते। जाहिर है कि ये अफसोस से भर देनेवाला परिदृश्य है।
दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता जेपी अग्रवाल को यह गंवारा नहीं था कि वे जिस रामलीला कमेटी के प्रमुख थे, वह कमेटी अपने आयोजन में प्रधानमंत्री को बुलाए। बस क्या था, उन्होंने रामलीला कमेटी को ही राम-राम कह दिया। दिल्ली की ही एक दूसरी घटना में रामलीला देखने गई दो साल की बच्ची के साथ बदमाशों ने दुष्कर्म किया। बात देश की राजधानी की चल ही रही है तो साथ में यह जोड़ते चलें कि इस बार चमक-दमक और ग्लैमर ने रामलीला का एक तरह उत्तर-आधुनिक कल्प ही रच दिया। टीवी कलाकार रामकथा के पात्र बनकर मंच पर उतरे तो मोनिका बेदी से लेकर बार डांसरों तक ने रामलीला के मंच पर ठुमके लगाए।

पुरस्कार वापसी की लीला

रामलीला की चर्चा से पूर्व यह प्रसंग इसलिए कि हमें उस देशकाल को समझने का अंदाजा हो जाता है कि जिसमें आस्था का निर्वाह और उसके साथ खिलवाड़ दोनों ही एक बराबर हैं। कमाल की बात है कि इस बीच, देशभर के कथित तौर पर प्रगतिशील खेमे के साहित्यकारों के बीच साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों को लौटाने की होड़ मची है। और यह सब हो रहा है दादरी कांड के बहाने असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के नाम पर। सांस्कृतिक स्फीति की चिंता यहां उस तरह नहीं है, जिस तरह की चिंता कम से कम कला और साहित्य के क्षेत्र के लोगों के बीच होनी चाहिए।
वैसे यह पूरा न तो आखिरी है और न ही अंतिम। क्योंकि यही और महज इतना ही सच नहीं है। वैसे भी महज दिल्ली-मुंबई को देखकर इस देश के सांस्कृतिक चरित्र पर कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती। लोक, आस्था और परंपराओं को हृदय से लगाकर रखने वाला हमारा देश विशिष्ट और महान इसलिए है कि यहां नए और पुराने के बीच अलगाव नहीं बल्कि एक समन्वयीय रेखा हमेशा से खींचती रही है। यह रेखा ही बहुलता और विविधता के इस देश को एकरंगता या एकरसता से नहीं भरने देती।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी को नहीं लगता कि भारत में कोई सर्वधमã समभाव की स्थिति है। वे भारत में धर्म विशेष को लेकर भय की स्थिति की भी बात करते हैं। ये सारी बातें अमेरिका ही नहीं, देश के भीतर भी कही-सुनी जा रही हैं, खासतौर पर हाल के दादरी कांड के बाद। पर सांप्रदायिकता के नाम पर होने वाली राजनीति और अतिरेक से भरी बयानबाजी का ही असर है कि इस बार मीडिया ने कई ऐसी खबरें/स्टोरीज कीं, जिसमें देश-समाज का पारंपरिक सद्भाव बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के आज भी कायम है। यूपी के सहारनपुर से लेकर बिहार के बक्सर तक सद्भाव के अनेकानेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सांस्कृतिक तौर पर खासे जीवंत और प्रेरक हैं।
दिलचस्प है कि यह सद्भाव सबसे ज्यादा रामलीला खेलने के मौके पर दिखाई देते हैं। कहीं लीला मंच पर सारे कलाकार मुस्लिम समुदाय के हैं, तो कहीं लीला आयोजन को नियामकीय स्तर पर संभालने वालों में गैरहिंदू समुदाय के लोग हैं। यह अलग बात है कि भारतीय संस्कृति की इस आंतरिक बलिष्ठता-श्रेष्ठता को न तो सियासी जमातें अपने लिए फलदायी पाती हैं और न ही संस्कृति के अलंबरदारों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कुछ सोचा-किया।
बहरहाल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो सकता है।

रामनगर की लीला

 बनारस के रामनगर में पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है।
'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।

परंपरा ही हावी

लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर
रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है।

हर बोली-संस्कृति में राम

तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानो सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। रामकथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपराएं हैं। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

बॉबी केस और पामेला बोर्डेस



पामेला बोर्डेस का नाम 1989 और 199० के आसपास जब मीडिया की सुर्खियों में आया था तो दुनिया सिर्फ इस बात पर दंग नहीं थी कि तब की ब्रितानी हुकूमत और वहां की सियासत के साथ मीडिया जगत में अचानक भूचाल आ गया। ...और वह भी एक कॉल गर्ल के कारण। भारत में तो लोग इस बात पर ज्यादा हतप्रभ थे कि इस सेक्स स्केंडल में भारत की एक बेटी का नाम आ रहा है।
पामेला 1982 में मिस इंडिया चुनी गई थी पर ग्लैमर की जिस दुनिया में वह मुकाम हासिल करना चाह रही थी वह दुनिया उसके आगे देह की नीलामी की शर्त रख देगी ऐसा शायद उसने भी नहीं सोचा था। 1982 वही साल है जब बिहार का बॉबी मर्डर केस सामने आया था। नेताओं और उनके बेटों ने सचिवालय में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी को पहले तो हवस का कई बार शिकार बनाया और बाद में जब बात हाथ से निकलती दिखी तो उसका गला घोंट दिया गया।
दरअसल, पिछले दो-ढाई दशकों में भारत इन मामलों में इतना 'उदार’ जरूर हो गया है कि उसे अब ऐसी सनसनी के लिए सात समंदर पार का दूरी तय करनी पड़े। इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था अगर ग्लोबल हुई है तो परिवार, समाज और राजनीति में भी काफी कुछ बदल गया है। कैमरा, मोबाइल और इंटरनेट के दौर में एक तो निजी और सार्वजनिक जीवन का अलगाव मिट गया है, वहीं इससे गोपन के 'ओपन’ का जो संधान शुरू हुआ है, उसने कई दबी और गुह्य सचाइयों को सामने ला दिया। बात अकेले राजनीति की करें तो अंगुलियां कम पड़ जाएंगी गिनने में कि इस दौरान कितने नेताओं और सरकार के हिस्से-पुर्जों की मर्यादित जीवन की कलई खुलने के बाद मुंह ढांपने पर मजबूर होना पड़ा है। हाल के कुछ सालों की बात करें तो भारतीय राजनीतिक यह सर्वाधिक अप्रिय प्रसंग अब आपवादिक नहीं रह गया है। इसके साथ ही स्त्री और राजनीति का साझा भी इस कदर बदल गया है, इसमें गर्व और संतोष करने लायक शायद ही कुछ बचा हो। इस स्थिति की गहराई में जाएं तो हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि सेवा और राजनीति का अलगाव तो बहुत पहले हो गया था। ऐतिहासिक रूप से यह स्थिति जयप्रकाश आंदोलन के भी बहुत पहले आ गई थी। अब तो वही लोग राजनीति में आ रहे हैं जिन्हें चुनाव मैनेज करना आता हो। धनबल और बाहुबल के जोर के आगे चरित्रबल को कौन पूछता है। फिर समाज का अपना चरित्र भी कोई इससे बहुत अलग हो, ऐसा भी नहीं है। टीवी-सिनेमा से लेकर परिवार-समाज तक चारित्रिक विघटन का बोलबाला है।
दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति के इस धूमिल अध्याय का पटाक्षेप अभी आसानी से होता तो नहीं लगता। क्योंकि जो स्थिति है उसमें इस चिता को भी पूरी स्वीकृति नहीं है। ऐसे मौकों पर महेश भट्ट जैसे फिल्मकार इस दलील के साथ सामने आते हैं कि जीवन का भीतरी और बाहरी सच अब अलग-अलग नहीं रहा। जो है वह खुला-खुला है, ढंका-छिपा कुछ भी नहीं। नहीं तो ऐसा कभी नहीं रहा है कि संबंध और परिवार की मर्यादा वही रही हो, जैसी दिखाई-बताई जाती रही हो। भट्ट आगे यहां तक कह जाते हैं कि इस स्थिति पर सर फोड़ने के बजाय इसे स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि अगर इस स्वीकृति से हमने आदर्श और मर्यादा के नाम पर कोई मुठभेड़ की तो फिर हम सचाई से भागेंगे। यह नंगे सच की चुनौती है।

सोमवार, 23 जून 2014

सौभाग्य की सिंदूरी रेखा


विवाह संस्था को लेकर बहस इसलिए भी बेमानी है क्योंकि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। पर बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखती नहीं या फिर दिखती भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न् हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नि्त नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभाग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर
की नहीं।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की तरह धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सचाई का पता चला तो आंखें भर आईं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आईं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है और इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दीया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह और कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है, आज वे जहां भी होंगे, सचमुच बहुत खुश होंगे और अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी। तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरे पिता का पिछले साल देहांत हुआ है। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते थे। पर आश्चर्य होता था कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा क्यों नहीं लगता। उलटे वह कहतीं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे।
मां अपनी दो बेटियों और दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को हैं। संत विनोबा से लेकर प्रभावती और जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है और उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा और इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी और मजबूत है कि स्त्री स्वातं`य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार और जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है।

मंगलवार, 6 मई 2014

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


सीजन चुनाव का है तो आजकल बातें भी सबसे ज्यादा चुनावों को लेकर ही हो रही हैं। नेताओं के भाषणों से लेकर चाय की दुकानों पर होने वाली बहसों में जो एक बात कॉमन है, वह है भारत के नए वोटरों की बात। सभी यही कह रहे हैं कि 18 से 28 वर्ष की उम्र के नौजवान इस बार चुनावी निर्णय को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। इसी के साथ शुरू हो गया है एक नया विमर्श फ़ेसबुकिया पीढ़ी से लेकर ग्लोबल पीढ़ी की शिनाख्त पाने वाले नौजवान भारत को लेकर। ज्यादातर आग्रह इंपोजिग नेचर के हैं तो कुछ दलीलों में तथ्य कम आग्रह ज्यादा है। दरअसल, जिसे नए दौर की पीढ़ी कहते हैं, उसकी चेतना और मानस को समझने के लिए हम ग्लोबल तकाजों की तलाश करते हैं। पर उसकी दुनिया बिल्कुल वैसी ही नहीं है, जैसी मीडिया या फिल्मों में दिखाई पड़ती है। इस विभ्रम की सबसे बड़ी वजह देश की गुड़-माटी की समझ रखने वाले क्रिटिकल एप्रोच में तेजी से आई कमी है। 
लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चितन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए कि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा हैं। पर तथ्य के साथ सत्य भी यहीं आकर टिकता हो, ऐसा नहीं है। 
सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस
दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा हैं। ऐसा हो भी भला क्यों नहीं। क्योंकि इनमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सबको भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। 
ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि ग्लोबल इंडिया का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई की जो असली सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है। 
लोकतंत्र पर भरोसा 
इस दशक के तकरीबन आरंभ में 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉîमग वर्ल्ड : एटीट्यूड्स एंड परसेप्शन’ नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमîजग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उसकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं। 
साफ है कि पिछले दो-ढाई दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करिअर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों से ज्यादा के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
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चार बोतल बोदका
देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से एक बात और... रूढ़ियां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्ज़ा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। 
पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम 'इंडिया’ से 'भारत’ की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। 
नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है। 
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विकास का खाका और झांसा 
पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई। यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमîजग इकोनमी पावर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा लेते रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खानों में देश को खुशहाल जरूर बताया जा सकता है पर यह देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे लौटेंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले कई देश एक बार फिर संरक्षणवादी नीतियों को अमल में लाने लगे हैं।


मंगलवार, 26 नवंबर 2013

तहलकावादी तकनीक और मीडिया


तरुण तेजपाल जिस मामले में फंसे हैं, वह महिला अस्मिता से जुड़े कुछ जरूरी सामयिक सरोकारों की तरफ हमारा ध्यान तो ले ही जाता है, यह मीडिया के अंतजर्गत को भी लेकर एक जरूरी बहस छेड़ने का दबाव बनाता है। एक ऐसी बहस जिसमें खुद से मुठभेड़ करना का हौसला हो। मीडिया अगर खुद को देशकाल का आईना कहता है तो यह अपेक्षा तो उससे भी होनी चाहिए, वह इस आईने का इस्तेमाल खुद के लिए भी बराबर तौर पर करे। आईना अपनी तरफ हो या सामने की तरफ, सच को जैसे को तैसा देखने-दिखाने की उसकी फितरत नहीं बदलती। यह भी कि आईना कीमती हो या कम दामी, काम वह एक जैसा ही करता है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर भी है-'चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना है कि झूठ बोलता ही नहीं।’
तरुण जिस तरह की पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं, उसमें तकनीक का बड़ा योगदान है। अब तक उन्होंने जो भी तहलका मचाया, वह तकनीकी मदद से ही संभव हुआ। लिहाजा, तकनीक के जोर पर चल रही पत्रकारिता के मानस को पढ़ने के लिए हमारे आगे कुछ बातें और स्थितियां साफ होनी चाहिए। दरअसल, सूचना के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के कारण मीडिया का अंतजर्गत वैसा ही नहीं रहा, जैसा इससे पूर्व था। यह फर्क इसलिए भी आया क्योंकि इसी दौर में बाजार ने प्रतिभा और विकास के साझे को अपनी ताकत बना लिया।
अस्सी-नब्बे के दशक में खोजी पत्रकारिता के दौर में जातीय और नक्सली हिंसा के साथ मुंबई जैसे शहरों में अंडरवर्ल्ड की रिपोर्टिंग के दौर के साझीदार और चश्मदीद अब भी कई लोग मीडिया क्षेत्र में विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं। ये लोग बताते हैं कि सत्य और तथ्य की खोज के पीछे की पत्रकारीय ललक का पूरा व्याकरण ही तब बदल गया, जब इस काम के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि तकनीक का अपना रोमांच होता है और कई बार यह रोमांच आपको अपने मकसद से डिगाता है। आज के दौर में तौ खैर तकनीक और सूचना को एक-दूसरे से अलगाया ही नहीं जा सकता है।
बात करें न्यू मीडिया या सोशल मीडिया की तो यह अलगाव वहां भी मुश्किल है। इस मुश्किल को इस तरह भी समझने की जरूरत है कि एक ऐसे दौर में जब अरब बसंत जैसी क्रांति की बात होती है तो उसके पीछे का इंधन और इंजन दोनों ही तकनीक के जोर पर चलने वाला न्यू मीडिया ही है। यानी तकनीकी क्रांति की दुनिया अपने चारों तरफ एक क्रांतिकारी दौर की रचना प्रक्रिया का सीधा हिस्सा है, उसकी जननी है।
ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर और खुफिया कैमरों ने सचाई को जितना नंगा किया है, उससे पत्रकारिता के साथ सामाजिक अध्ययन की तमाम थ्योरीज बदल गई हैं। सच में निश्चित रूप से अपना-पराया जैसा कुछ नहीं होता, पर इसके समानांतर एक सिद्धांत निजता का भी है। निजता के दायरे में व्यक्ति, परिवार और समाज का कौन सा हिस्सा आए और कौन सा नहीं, इसको लेकर कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं खींची गई है। यह हमारे दौर की एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि निजता का भंग होना व्यक्ति की कई तरह की जुगुप्साओं को जन्म देता है। फिर आप सिर्फ सत्य का साक्षात्कार भर नहीं करते, बल्कि गोपन के भंग होने का अमर्यादित खेल देखने की लालच से भर उठते हैं।
निजी और सार्वजनिक जीवन को एक ही कसौटी पर खरे उतारने का जोखिम एक दौर में गांधी से लेकर उनके कई साथियों ने उठाई। सत्य के इस प्रयोग ने जीवनादर्श को एक बड़ी ऊंचाई दी। पर यह समय और समाज का संस्कार नहीं बन सका। ऐसे में मानवीय दुर्बलताओं को स्वाभाविक मानकर चलने की समझ ही ज्यादा काम आई। इसे ही न्याय और विधान की व्यवस्थाओं में भी स्वीकारा गया। पर अब एक नई स्थिति है। 'द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के रचयिता थॉमस फ्रिडमैन बताते हैं कि सूचना के उपकरण मनुष्य की स्वाभाविकता को बदलने वाले औजार तो हैं ही, ये बाजारवादी पराक्रम के बलिष्ठ माध्यम भी हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है। खतरनाक इसलिए क्योंकि इस स्थिति के बाद स्वविवेक के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा जाता। यों भी कह सकते हैं नए समय की पटकथा पहले से तय है, इसमें बस हमें यहां-वहां फिट भर हो जाना है, वह भी इतिहास और समाज के अपने अब तक को बोध को भूलकर।
तरुण तेजपाल तहलका की तरफ से गोवा में जो बौद्धिकीय विमर्श का आयोजन करा रहे थे, उसमें एक मुद्दा आधुनिक दौर में महिला अस्मिता की चुनौतियां भी था। दरअसल, आधुनिकता के खुले कपाटों में महिलाएं भी पुरुषों के साथ ही दाखिल हो रही हैं। लिहाज, लैंगिक स्तर पर उनके बीच मेलजोल के नए सरोकार विकसित हुए हैं। इसने एक तरफ स्त्री-पुरुष संबंधों की नई दुनिया रची है तो असुरक्षा का एक नया वातावरण भी पैदा हुआ है। निर्भया कांड को सामने रखकर समझना चाहें तो यह असुरक्षा बर्बरता की हद तक जाता है। नीति और विधान की नई व्याख्या और दलीलों के बीच इस बर्बरता का बढ़ता रकबा एक बड़ा खतरा है। डॉ. धर्मपाल के शब्दों में यह 'भारतीय चित्त, मानस और काल का नया यथार्थ’ है। ऐसा यथार्थ जिसका पर्दाफाश तेजपाल सरीखे लोग पारदर्शिता के नाम पर नीति और व्यवस्था से जुड़े बड़े जवाबदेह लोगों के जीवन के निजी एकांत तक पहुंच कर करते रहे हैं।
तकनीक के साथ एक विचित्र स्थिति यह भी है कि वह नैतिकता का कोई दबाव अपनी तरफ से नहीं बनाता है। ईमेल और सीसीटीवी फुटेज के जरिए जो सच अब तेजपाल को मुश्किल में डाल रहा है, उसमें तकनीक का अपना पक्ष तटस्थ है। यहां नैतिकताएं वही आड़े आ रही हैं, जो तेजपाल सरीखे नंगे सच के हिमायतियों ने खुद रचा है। जिन सवालों और तकाजों पर वे दूसरों को नंगा करते रहे हैं, वही सवाल और तकाजे अब उन्हें नहीं बख्श रहे।
यह स्थिति आंख खोलने वाली है। तकनीक के जोर पर बदलाव की संहिताएं रचने वाली पत्रकारिता भी एक ढोंग हो सकती है, इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि आईना लेकर 'अंत:पुर’ तक दाखिल होने वाले खुद अपने अंत:पुर में शर्मनाक हरकतों के साथ पकड़े जा रहे हैं। गनीमत मानना चाहिए कि पर्दाफाश और सनसनी मार्का पत्रकारिता अब भी हिंदी या भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वभाव नहीं है। खोजी दौर में सचाई को उसके मर्म के साथ सामने लाया गया था। दलित बस्तियों के कई मातमी विलापों को आज अगर हम एक विमर्शवादी अध्याय की तरह देख पा रहे हैं तो उसके पीछे इस तरह की पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ है। पर सूचना को सनसनी और सत्य को महज तथ्य की तरह पेश करने की हवस ने न तो देश और समाज के आगे नीति और आचरण के कोई मानक रचे और न ही इससे पत्रकारिता धर्म का ही कोई कल्याण हुआ। यह एक मोहभंग की भी स्थिति है, जिसमें बदलाव का मुगालता पेश करने वाली कई कोशिशंे एक के बाद एक पिटती नजर आ रही हैं।
गुलामी के दौर में आजाद तेवर स्वतंत्र चेतना की लौ जगाने वाली पत्रकारिता के विरासत के बाद यह एक भटकाव की भी स्थिति है। आखिर में यही कि पत्रकारिता की तकनीक का परिष्कार तो जरूर हो पर तकनीक के परिष्कार को पत्रकारिता मान लेने के जोखिम को भी समझना चाहिए। क्योंकि इसमें तात्कालिक खलबली से आगे न तो कुछ पैदा किया जा सकता है, न ही हासिल। उलटे नौबत यहां तक आ सकती है कि खलबली के शिकार हम खुद हो जाएं। अरब बसंत के पत्ते भी अगर देखते-देखते झरने शुरू हो गए हैं तो इसी लिए कि इसमें बदलाव का यथार्थ तात्कालिक से आगे स्थायी नहीं बन सका।

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मंगलवार, 16 जुलाई 2013

पधारो म्हारे देस


राजस्थान की लोक परंपरा में 'पधारो म्हारे देस’ का अलाप इसलिए तो कम से कम नहीं ही गूंजा होगा कि लोग देस-दुनिया से यहां आएं और यहां की संस्कृति पर रीझें, मुस्कराएं और आगे निकल जाएं। हैरत ही है कि जो गीत राजस्थानी परिवार-समाज की सदियों से चली आ रही आतिथ्यि उदारता को शब्द दे रहे थे, वे आज सैलानियों को यहां लाने-जुटाने के लिए हांक भर हैं।

रविवार, 1 जुलाई 2012

मां को एक दिवसीय प्रणाम

किसी को अगर यह शिकायत है कि परंपरा, परिवार, संबंध और संवेदना के लिए मौजूदा दौर में स्पेस लगातार कम होते जा रहे हैं, तो उसे नए बाजार बोध और प्रचलन के बारे में जानकारी बढ़ा लेनी चाहिए। जो सालभर हमें याद दिलाते चलते हैं कि हमें कब किसके लिए ग्रीटिंग कार्ड खरीदना है और कब किसे किस रंग का गुलाब भेंट करना है। बहरहाल, बात उस दिन की जिसे मनाने को लेकर हर तरफ चहल-पहल है। मदर्स डे वैसे तो आमतौर पर मई के दूसरे रविवार को मनाने का चलन है। पर खासतौर पर स्कूलों में इसे एक-दो दिन पहले ही मना लिया गया ताकि हफ्ते की छुट्टी बर्बाद न चली जाए।
रही बात भारतीय मांओं की स्थिति की तो गर्दन ऊंची करने से लेकर सिर झुकाने तक, दोंनो तरह के तथ्य सामने हैं। कॉरपोरेट दुनिया में महिला बॉसों की गिनती अब अपवाद से आगे कार्यकुशलता और क्षमता की एक नवीन परंपरा का रूप ले चुकी है। सिनेजगत में तो आज बकायदा एक पूरी फेहरिस्त है, ऐसी अभिनेत्रियों की जो विवाह के बाद करियर को अलविदा कहने के बजाय और ऊर्जा-उत्साह से अपनी काविलियत साबित कर रही हैं। देश की राजनीति में भी बगैर किसी विरासत के महिला नेतृत्व की एक पूरी खेप सामने आई है। पर गदगद कर देने वाली इन उपलब्धियों के बीच जीवन और समाज के भीतर परिवर्तन का उभार अब भी कई मामलों में असंतोषजनक है।
आलम यह है कि मातृत्व को सम्मान देने की बात तो दूर देश में आज तमाम ऐसे संपन्न, शिक्षित और जागरूक परिवार हैं, जहां बेटियों की हत्या गर्भ में ही कर दी जाती है। अभी इसी मुद्दे पर टीवी पर अभिनेता आमिर खान के शो की हर तरफ चर्चा है। रही जहां तक प्रसव और शिशु जन्म की बात तो यहां भी सचाई कम शर्मनाक नहीं है। देश में आज भी तमाम ऐसे गांव-कस्बे हैं, जहां प्रसव देखभाल की चिकित्सीय सुविधा नदारद है। जहां इस तरह की सुविधा है भी वहां भी व्यवस्थागत कमियों का अंबार है। सेव द चिल्ड्रेन ने अपनी सालाना रिपोर्ट वल्ड्र्स मदर्स-2012 में भारत को मां बनने के लिए खराब देशों में शुमार करते हुए उसे 80 विकासशील देशों में 76वें स्थान पर रखा है। स्थिति यह है कि देश में 140 महिलाओं में से एक की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है। स्वास्थ्य सेवा की स्थिति इतनी बदतर है कि मात्र 53 फीसद प्रसव ही अस्पतालों में होते हैं। ऐसे में जो बच्चे जन्म भी लेते हैं, उनकी भी स्थिति अच्छी नहीं है। पांच साल की उम्र तक के बच्चों में 43 फीसद बच्चे अंडरवेट हैं।
टीयर-2 देशों की बात करें तो सर्वाधिक बाल कुपोषित बच्चे भारत में ही हैं। ऐसी दुरावस्था में हमारी सरकार अगर देशवासियों को मदर्स डे की शुभकामनाएं देती है और समाज का एक वर्ग इस एक दिनी उत्साह में मातृत्व के प्रति आैपचारिक आभार की शालीनता प्रकट करने में विनम्र होना नहीं भूलता तो यह देश की तमाम मांओं के प्रति हमारी संवेदना के सच को बयां करने के लिए काफी है।   

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चिंतन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए क्योंकि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा है। पर तथ्य और सत्य भी यहीं आकर ठहरता है, ऐसा नहीं है। दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा है। और ऐसा हो भी भला क्यों नहीं क्योंकि इसमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सब को भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि इंडिया शाइनिंग का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई जो सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है।
तकरीबन तीन साल पहले अभी के महीने में ही 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉमिंग वर्ल्ड  : एटीट¬ूड्स एंड परसेप्शन'  नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमर्जिंग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उनकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं।   
साफ है कि पिछले दो दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करियर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है, कामयाब रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
आज पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई और यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढ़ाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमर्जिंग इकोनमी पॉवर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा ले रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खाने में विदेशी मुद्रा का वजन जरूर बढ़ सकता है पर यह सब देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे जाएंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले अमेरिका जैसे देश एक बार फिर संरक्षणवादी आर्थिक हितों को अमल में लाने लगे हैं।
आखिर में एक बात और देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से। रूढि़यां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्जा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम इंडिया से भारत की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिंदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है।




सौजन्य : राष्ट्रीय सहारा  

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

चर्चिल का सिगार और गांधी की लंगोट


गांधीजी की लंगोट चर्चिल तक को अखरती थी क्योंकि इस सादगी का उनके पास कोई तोड़ नहीं था। सो गुस्से में वे गांधी का जिक्र आते ही ज्यादा सिगार पीने लगते और उन्हें नंगा फकीर कहने लगते। आए दिन गांधीजी की ऐनक, घड़ी और चप्पल की नीलामी की खबरें आती रहती हैं। सरकार से गुहार लगाई जाती है कि गांधी हमारे हैं और उनकी सादगी के उच्च मानक गढ़ने में मददगार चीजों को भारत में ही रहना चाहिए। बीते साल मीडिया वालों ने अहमदाबाद में उस विदेशी शख्स को खोज निकाला जो गांधीजी की ऐसी चीजों का पहले तो जिस-तिस तिकड़म से संग्रह करता और फिर उन्हें करोड़ों डॉलर के नीलामी बाजार में पहुंचा देता।  फिर नीलामी आज सिर्फ गांधीजी के सामानों की नहीं हो रही। यहां और भी बहुत कुछ हैं। पुरानी से पुरानी शराब की बोतल से लेकर शर्लिन चोपड़ा की हीरे जड़ी चड्ढ़ी तक। खरीदार दोनों के हैं, सो बाजार में कद्र भी दोनों की  है। यानी नंगा फकीर बापू और हॉट बिकनी बेब शर्लिन दोनों एक कतार में खड़े हैं।
हमारे दौर की सबसे खास बात यही है कि यहां सब कुछ बिकता है- धर्म से लेकर धत्कर्म तक। आप अपने घर बटोर-बटोर कर खुशियां लाएं, इसके  लिए झमाझम ऑफर और सेल की भरमार है। इस बाबत आप और जानकारी बढ़ाना चाहें तो 24 घंटे आपका पीछा करने वाले रेडियो-टीवी-अखबार तो हैं ही। गुजरात के समुद्री किनारों पर जो नया टूरिज्म इंडस्ट्री डेवलप हो रहा है, वह अपने सम्मानित अतिथियों को गांधी के मिनिएचर चरखे और अंगूर की बेटी का आकर्षण एक साथ परोसता है। बस इतना लिहाज रखा जाता है कि क्रूज पर शराब तभी परोसी जाती हैं, जब वह गुजरात की सीमा से बाहर निकल आते हैं। गुजरात सीमा के भीतर ऐसा नहीं  किया जा सकता क्योंकि वहां शराबबंदी है। यानी आत्मानुशासन का जनेऊ पहनना जरूरी है पर उसे उतारकर उसके  साथ खिलवाड़ की भी पूरी छूट है।
ये बाजार द्वारा की गई मेंटल कंडिशनिंग का ही नतीजा है कि कल तक जिसे हम महज अंत:वस्त्र कहकर निपटा देते थे, उनका बाजार किसी भी दूसरे परिधान के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है।  मां की ममता पर भारी पहने वाले डिब्बाबंद दूध का इश्तेहार बनाने वाले आज अंत:वस्त्रों को सेकेंड स्किन से लेकर सेक्स सिंबल तक बता रहे हैं। जैनेंद्र की एक कहानी में नायक अपना अंडरबियर-बनियान बाहर अलगनी पर सुखाने में संकोच करता है कि नायिका देख लेगी। आज नायक तो नायक नायिकाएं और लेडी मॉडल स्टेज से लेकर टीवी परदे तक इन्हें धारण कर ग्लैमर दुनिया की चौंध बढ़ाती हैं।
बालीवुड की मशहूर कोरियोग्राफर सरोज खान कहती हैं, 'सब कुछ हॉट हो गया, अब कुछ भी नरम या मुलायम नहीं रहा। गुजरे जमाने की हीरोइनों के नजर झुकाने और फिर अदा के उसे उठाते हुए फेर लेने से जितनी बात हो जाती थी, वह आज की हीरोइनों के पूरी आंख मार देने के बाद भी नहीं  बनती।'  साफ है कि देह दर्शन के तर्क ने लिबासों की भी परिभाषा बदल दी। और इसी के साथ बदल गई हमारी अभिव्यक्ति और सोच-समझ की तमीज भी। पचास शब्द की खबर के लिए पांच कॉलम की खबर छापने का दबाव किसी अखबार की एडिटोरियल गाइडलाइन से ज्यादा मल्लिका का राखी जैसी बिंदास बालाओं का मुंहफट बिंदासपन बनाता है। रही पुरुषों की बात तो नंगा होने से आसान उन्हें नंगा देखने के लिए उकसाता रहा है। तभी तो महिलाओं के अंत:वस्त्र के बाजार का साइज पुरुषों के के मुकाबले कई  गुना है।  यह सिलसिला इंद्रसभा से लेकर आईपीएल ग्राउंड तक देखा जा सकता है। 'अंत:दर्शन' अब 'अनंतर' तक सुख देता है और पुरुष मन के इस सुख के लिए महिलाओं को फीगर से लेकर कपड़ों तक की बारीक काट-छांट करनी पड़ रही है।
बात चूंकि गांधी के नाम से शुरू हुई इसलिए आखिर में बा को भी याद कर लें।  खरीद-फरोख्त और चरम भोग के परम दौर की इस माया को नमन ही करना चाहिए कि उसकी दिलचस्पी न तो बा की साड़ी में है और न ही उसकी जिंदगी में। अव्वल यह अफसोस से ज्यादा सुकूनदेह है। और ऐसा अब भी है, यह किसी गनीमत से कमतर नहीं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रामलीला 450 पर नॉटआउट


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। तैयारी तो यहाँ तक है कि रावण का वध इस बार राम अन्ना की टोपी पहन कर करेंगे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है।
राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। 'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो  ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी  और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस,  इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।       

सोमवार, 26 सितंबर 2011

होरी के देश में गोरी


हमारा समय दिलचस्प विरोधाभासों का है। तभी तो जिस दौर में काला धन को लाने के लिए लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, उसी दौर में सबसे ज्यादा ललक और समर्थन गोर तन को लेकर हैं। काला धन और गोरा तन, ये दोनों ही हमारे समय और समाज के नए शिष्टाचार को व्यक्त करने वाले सबसे जरूरी प्रतीक हैं। इन दोनों में आप चाहें तो अंदरूनी रिश्तों के कई स्तर भी देख-परख सकते हैं। अवलेहों और उबटनों की परंपरा अपने यहां कोई नई नहीं है। तीज-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक में इस परंपरा के अलग-अलग रंग हमारे यहां आज भी देखने को मिलते हैं। हालांकि यह जरूर है कि इस परंपरा का ठेठ रंग अब जीवन-समाज का पहले की तरह हिस्सा नहीं है।
पिछले कुछ दशकों में जोर यह हावी हुआ है कि चेहरा अगर फेयर और फिगर शेप में नहीं हुआ तो प्यार से लेकर रोजगार तक कुछ भी हाथ नहीं आएगा। संवेदना का यह दैहिक और लैंगिक तर्क टीवी चैनलों की कृपा से आज घर-घर पहुंच रहा है। कुछ महीने पहले की ही बात है जब अभिनेत्री चित्रांगदा सिंह ने यह कहते हुए फेयरनेस क्रीम का एड करने से इनकार कर दिया था कि उन्हें अपने सांवलेपन को लेकर फख्र है न कि अफसोस। चित्रांगदा के इस फैसले को रंगभेद का खतरा पैदा करने वाले सौंदर्य के बाजार के खिलाफ महिला अस्मिता की असहमति और विरोध के तौर पर देखा गया।
यह भी कम दिलचस्प नहीं है कि जिस फिल्म इंडस्ट्री और मॉडलिंग दुनिया के कंधों पर गोरी त्वचा और छरहरी काया का पूरा बाजारवादी तिलिस्म रचा गया है, वहां आज भी तूती रंग और देह से ज्यादा तूती काबिलियत की ही बोलती है। और यह रंगविरोधी समझ न सिर्फ व्यवसाय के स्तर पर पर बल्कि संवेदना के स्तर पर भी एकाधिक बार प्रकट हुई है। लोग आज भी 1963 में फिल्म 'बंदिनी' के लिए लिखे गुलजार के लिखे इस गीत को गुनगुनाते हैं- 'मोरा गोरा अंग लेइ ले...मोहे श्याम रंग देइ दे...'।
आज भारत में फेयरनेस क्रीम, ब्लीच और दूसरे उत्पादों का बाजार करीब 2000 करोड़ रुपए का है, जिसमें अकेले रातोंरात त्वचा को गौरवर्णी बना देने वाले क्रीमों की हिस्सेदारी करीब 1800 करोड़ रुपए की है। यही नहीं यह पूरा बाजार किसी भी दूसरे क्षेत्र के बाजार के मुकाबले सबसे ज्यादा उछाल के साथ आगे बढ़ रहा है। नई खबर यह है कि पीएमओ का ध्यान गोरेपन की क्रीम और मोटापा घटाने की दवा बेचने वालों के विज्ञापनी झांसे की तरफ गया है। पीएमओ ऐसे विज्ञापनों को आपत्तिजनक और खतरनाक मानते हुए बाजाप्ता इनके खिलाफ दिशानिर्देश दिए हैं।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के प्रधान सचिव टीकेए नायर ने इसके लिए उपभोक्ता मामलों के अधिकारियों के साथ बैठक की। बैठक में यह साफ किया गया कि विभाग को ऐसी नियामक प्रणाली विकसित करनी चाहिए जिससे ऐसे भ्रमित करने वाले विज्ञापनों के प्रसारण पर कारगर रोक लगे। बताया जा रहा है पीएमओ ने चूंकि इस मुद्दे को खासी गंभीरता से लिया है, लिहाजा महीने भर के भीतर इस मुद्दे पर जरूरी कदम उठा लिए जाएंगे।
सरकारी तौर पर इस तरह की पहल का निश्चित रूप से अपना महत्व है और इसके कारगर असर भी जरूर होंगे, एसी उम्मीद की जा सकती है। पर एक बड़ी जवाबदेही लोग और समाज के हिस्से भी आती है। यह कैसी विडंबना है कि रंगभेद के नाम पर सत्ता और समाज के वर्चस्ववादी दुराग्रहों को पीछे छोड़कर हम जिस आधुनिक युग में प्रवेश कर गए हैं, वहां देह और वर्ण को सुंदरता, सफलता और श्रेष्ठता की अगर कुंजी के रूप में अगर मान्यता मिलेगी तो यह मानवीय अस्मिता के लिए एक खतरनाक स्थिति है। लिहाजा, इनके खिलाफ एक एक मुखर सामाजिक चेतना की भी दरकार है। क्योंकि आखिरकार यह तय करना समाज को ही है कि उसके भीतर काले-गोरे को लेकर आग्रह का पैमाना क्या है। अलबत्ता यह तो साफ है कि श्याम-श्वेत के दौर से आगे निकल चुकी दुनिया आज भी अगर गोरे-काले के मध्यकालीन बंटवारे को तवज्जो देती है तो यह उसकी आधुनिकता के हवालों को भी सवालिया घेरे में ले आता है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती


प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।  

रविवार, 24 जुलाई 2011

इंडिया को पढ़िए फेसबुक पर


फेस टू फेस बात करने में यकीन करने वाले चौक जाएं। जमाना फेस टू फेस होने का नहीं बल्कि फेसबुक में दिखने और दर्ज होने का है। अपने इंडिया को तो यह फेसबुक इतना पसंद है कि इसको इस्तेमाल करने वाले टॉप टेन देशों में न सिर्फ उसका शुमार है बल्कि उसका स्थान भी बहुत नीचे नहीं बल्कि चौथा है।  देश में दस करोड़ से ज्यादा इंटरनेट यूजर्स बताए जाते हैं जिनमें करीब तीन करोड़ फेसबुक के रसिया हैं। इस सूची में अमेरिका 15 करोड़ से ऊपर की गिनती के  साथ अव्वल है। नए आंकड़ांे के अनुसार दूसरे नंबर पर इंडोनेशिया (3,88,60,460), तीसरे पर यूनाईटेड किंगडम (2,98,80,860) है। भारत में 2,94,75,740 लोगों के पास फेसबुक आईडी है। तीसरे और चौथे स्थान के बीच फासला बहुत मामूली है और जो स्थिति है उसमें भारत कभी भी अपनी पोजिशन सुधार कर चार से तीन नंबर पर आ सकता है।
पूरी दुनिया में फेसबुक के कुल यूजर्स की संख्या लगभग 75 करोड़ है। दरअसल, यह एक नया गणतंत्र है- फेसबुकिया गणतंत्र।  21वीं सदी का अपना नया गणतंत्र। यह अलग बात है कि इस नए डेमोक्रेटिक सोसाइटी के एक्चुअल बिहेवियर को एक्जामिन होना अभी बाकी है। अब तक इस नए डेमोक्रेसी की सबसे बड़ी ताकत यही है कि यहां एक्शन से ज्यादा तेज रिएक्शन है। बात ओसामा बिन लादेन के मारे जाने की हो या लीबिया में सत्ता पलट के आंदोलन की, यह रिएक्शन हर जगह दिखता है। लीबिया मामले में तो अभी यह साफ होना भी बाकी है कि फेसबुक पर जनचेतना दिखी या जनचेतना का रिएक्शन फेसबुक पर प्रकट हुआ।  
दिलचस्प है कि संवाद के पुराने बिरसे को बहाल करने वालों में भी कई आधुनिकों ने अपने रुदन और विचार प्रसंग के लिए इंटरनेट को ही आैजार बनाया है। यही नहीं लोक अभियान के बूते चलने वाले लोकपाल बिल को लेकर चलने वाले अभियान का जंतर-मंतर भी इन्हीं फेसबुक, मोबाइल मैसज और इंटरनेट जैसे नए साइबर डाकियों के हवाले है। पर इतना तो आज भी कहना पड़ेगा कि यह सब सच इंडिया का है भारत का कतई नहीं। यह अलग बात है कि इस दौरान जहां इंडिया का साइज बढ़ा है, वहीं भारत के वासी और हिमायती कम हुए हैं, अलग-थलग पड़े हैं। भारत का संघर्ष आज भी 'बसपा' (बिजली, सड़क और पानी) के एजेंडे को ही साधने में पसीना बहा रहा है।  ऐसे में संवाद और मीडिया के माहिरों को बजाय इसके कि साइबर सरमाया कितना बढ़ गया है कुछ सवालों के जवाब जरूर देने चाहिए।
सबसे अहम सवाल तो यही कि संवाद क्रांति के दौर का अगर यह क्लाइमेक्स है तो आगे के सफर का हासिल क्या होगा? क्योंकि भी यही यह आलम है कि अगर हम महज दो मिनट में इंटरनेट पर डाउनलोड हुए वीडियो को देखने बैठें तो पूरे दो दिन का समय निकालना होगा। साफ है कि साइबेर दुनिया में अब पहले की तरह उड़ान संभव नहीं क्योंकि यहां भी अब जाम है, जमावड़ा है और भारी रेलमपेल मची है।  वैसे समझना यह भी होगा कि यह कि ईमेल से शुरू होकर फेसबुक तक पहुंची कामयाबी, क्या मनुष्य की संवादप्रियता के सामाजिक तथ्य पर मुहर लगाता है या फिर यह भीड़ और शोरोगुल से जानबूझकर दूर रहकर दुनिया को अपने तरीके से अकेले देखने-सुनने की स्वच्छंदता का आलम है। एक तकनीकी सवाल यह भी कि फेसबुक पर एकाउंटेबल होने वाली पीढ़ी के गोपन बनाम ओपन के संघर्ष में विजय पताका किसके हाथ लगी। बहरहाल, एक बात तो तय है कि तकनीक और फैटेंसी के मानवीय सरोकारों ने 21वीं सदी के आगाज को काफी हद तक अपने कब्जे में ले लिया है। आगे चलकर यह जिम्मेदारी इतिहास की होगी कि वह इसका अंजाम किसी फेसबुक में दर्ज कराता है कि कहीं और।

साभार : राष्ट्रीय सहारा


सोमवार, 23 मई 2011

बाय-बाय ओबामा


भारत के लिए अमेरिका महज एक सुपर पावर नहीं, एक आईना भी है और एक सपना भी। आईना जिसमें खुद की साज-संवार देखकर मन अघाए और सपना इस मायने में कि हम सब अमेरिका जैसा होना या दिखना चाहते हैं, यह हमारा ख्वाब भी है और मंजिल भी है। पर इस अमेरिकान्मुख सोच और सचाई का दूसरा रुख भी है, जो खासा दिलचस्प है। भूले नहीं होंगे लोग अंकल सैम का वह गुस्सा जो उन्होंने अपने यहां के स्कूलों पर उतारा था। उन्होंने स्कूल मैनेजमेंटों को सरकारी फंडिंग बंद करने की धमकी दी थी क्योंकि वहां बच्चे लगातार अंग्रेजी में फेल हो रहे थे। कितना दिलचस्प है यह जानना कि एक देश जिसकी अंग्रेजी क्या, उसके बोलने तक का लहजा पूरी दुनिया में नकल की जाती हो, वहीं के बच्चे अंग्रेजी की परीक्षा तक न पास कर पाएं। मामला यहीं निपटता तो भी गनीमत थी, अमेरिका की इस स्थिति का लाभ उठाया कुछ भारतीय कोचिंग संस्थानों ने। उन्होंने सस्ते में ट्यूशन आउटसोर्स के जरिए अमेरिकी बच्चों को अंग्रेजी सिखाने का बीड़ा उठाया और यह धंधा रातोंरात चल निकला। 
दरअसल, यह एक शुरुआत थी भारत और अमेरिका में भीतरी तौर पर बदल रही स्थितियों की। गौरतलब है कि आईटी सेक्टर के जरिए जिस इकोनमी बूम ने रातोंरात भारतीय अर्थ जगत की तस्वीर बदल दी, उससे पहले का दौर भारतीय प्रतिभाओं के विदेश पलायन का था। भारतीय प्रतिभा का प्रतिस्पर्धी होना और यहां श्रम का सस्ता होना, दुनियाभर में इनके छाने और भाने का बड़ा कारण रहा है। पर अब सूरत बदल रही है। आलम यह है कि भारत को दुनिया की तरफ देखने के बजाय दुनिया को भारत की तरफ देखने की दरकार सामने आई है। यह नई और विश्व अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी स्थिति है।
असल में भारत और चीन ये दो ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपनी आर्थिक कुव्वत को पिछले दशकों में जिस तर्ज पर बढ़ाया और मजबूत किया है, वह कई लिहाज से बाकी दुनिया से अलग है। एक तो इन दोनों देशों का विस्तार आबादी और क्षेत्रफल दोनों लिहाज से ज्यादा है, दूसरे ग्लोबल इकोनमी का फंडा यहां स्थानीय प्रभावों और बदलावों के बाद ही सरजमीं पर उतरा है। आलम यह है अमेरिका के राष्ट्रपति को अपनी राजनीतिक स्थिरता के लिए बार-बार अपने लोगों को इस मुद्दे पर भरोसे पर लेना होता है कि भारत और चीन के 'अर्थपूर्ण आकर्षण' से बचाव के लिए सख्त कदम उठाएंगे।
जाहिर है ऐसी सूरत में जब घर के हालात ज्यादा बेहतर और संभावनाओं से भरे दिख रहे हैं, परदेस का रुख करने वाली प्रतिभाओं की दर में तो गिरावट आएगी ही, पहले ही पलायन कर चुके लोगों की वापसी की रफ्तार भी बढ़ जाएगी। इस रुझान को तथ्यगत रूप में मान्यता दी है हाल में ही किए गए एक अध्ययन में। कॅाफमैन फाउंडेशन ने तीन अमेरिकी विश्वविद्यालयों हार्वर्ड, कैलिफोर्निया और ड्यूक की मदद से किए गए अध्ययन में पाया है कि दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति का की शिनाख्त पाने वाले अमेरिका को मौजूदा सूरत में भारी खामियाजा उठाना पड़ रहा है।
दिलचस्प है कि इस अध्ययन का शीर्षक ही है- 'स्वदेश वापसी करने वाले उद्यमियों के लिए वास्तव में भारत और चीन में घास अधिक हरी है'। यह अध्ययन कबूलता है कि एशिया के इन दो बड़े देशों में इन दिनों उद्यमशीलता की लहर चल रही है। किसी समय प्रतिभा पलायन से अपनी अंटी भारी करने वाली अमेरिकी कंपनियों के लिए यह स्थिति सीधे-सीधे गंगा के उलटी बहने जैसी है।
स्वदेश वापसी कर चुके 153  कुशल भारतीय और 111 चीनी कामगारों के बीच कराए गए सर्वेक्षण में तकरीबन आधे ने कहा कि वे अपने देश में अपनी कंपनी स्थापित करेंगे। यह अध्ययन वैसे यह तो साफ नहीं करता कि पिछले दिनों कितने कुशल कामगार स्वदेश लौटे हैं। वैसे इस बाबत इस अध्ययन से ही जुड़े एक लेखक विवेक वाधवा के दावों को अगर सही मानें तो पिछले दो दशकों में डेढ़ लाख लोग भारत और तकरीबन इतने ही लोग चीन वापस लौट चुके हैं। पिछले पांच सालों में इस रुझान में जबरदस्त तेजी दर्ज की गई है। वाधवा इस रुझान को आपवादिक नहीं मानते क्योंकि उनके शब्दों में अब झुंड के झुंड प्रतिभाए एक साथ अमेरिका को गुड बॉय कह रही हैं। कह सकते हैं कि प्रतिभाओं की पसंद और आकर्षण में आया यह बदलाव और कुछ नहीं सीधे-सीधे घर के हालात बेहतर होने के जीते-जागते सबूत हैं। आगे भी ये सबूत यों ही साबुत बने रहेंगे, अभी की सूरत में यही भरोसा भी है। 

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

सदन, सौंदर्य और सुनंदा


 बारहमासे का एक चक्र भी पूरा नहीं हुआ कि फसाने की दिलकशी फिर से न सिर्फ बहाल दिख रही है, बल्कि एक बार फिर अपने पूरे शबाब पर भी है। दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकसभा की दर्शक दीर्घा में नजर आई, उस उपस्थिति की, जिसकी चर्चा कॉफी टेबल से लेकर फुटकर चौपालों तक है। बुधवार को देश के तमाम अखबारों ने ये खबर प्रमुखता से छापी कि शादी के बाद पूर्व विदेश राज्यमंत्री शशि थरूर के लोकसभा में पहले महत्वपूर्ण भाषण के दौरान उनकी पत्नी सुनंदा पुष्कर उनका हौसला बढ़ाने पहुंचीं। पति को हौसले और भरोसे का जो सिंदूरी समर्थन दर्शक दीर्घा में बैठकर सुनंदा पुष्कर जता रही थीं, उसकी अभिव्यक्ति इतनी खुली और खनकदार थी कि उसके आकर्षण पाश में लोकसभा तकरीबन घंटे भर तक अवगाहन करती रही।
भारतीय राजनीति और राजनेता अमेरिका और यूरोप से अलग हैं। हमारे यहां निजी प्रेम, साहर्चय और यहां तक कि दांपत्य तक को शालीन दोशाले के साथ ही पेश किया जाता है। बहुत गहरी छानबीन के बजाय एक विहंगम दृष्टि अगर गुजरे छह से ज्यादा दशकों के स्वतंत्र भारत की राजनीतिक यात्रा पर डालें तो अकेले राजनेता पंडित नेहरू दिखाई पड़ेंगे, जिनके स्वभाव और सलूक में यूरोपीय या अमेरिकी मन-मिजाज जब-तब झांकता था। इसके अलावा जो उदाहरण या प्रकरण गिनाए जा सकते हैं, उसमें प्रकट न होने का यत्नपूर्ण संकोच ही ज्यादा छलका है। दिलचस्प है कि उदारीकरण के तीस साला अनुभव के बाद संबंधों को लेकर खुलेपन का दायरा परिवार-समाज तक की दहलीज को लांघ रहा है, बावजूद इसके अगर सार्वजनिक जीवन की शुचिता कुछ संकोच और हिचक में ही बदहाल दिखती है तो इसे देश की बदली राजनीति की न बदलने वाली धज ही कहेंगे। पर अब यह धज समय सापेक्ष नहीं रही, नहीं तो दोशाले का इस्तेमाल शालीनता के लिए ही होता, मुंह ढांपने या छिपाने के लिए नहीं होता। बिहार और उत्तर प्रदेश सहित कुछ दूसरे सूबों के कई माननीय इन दिनों अपने जिन कुकृत्यों के कारण अदालत और जेल के चक्कर काट रहे हैं, वह भी पिछले कुछ दशकों में प्रकट हुई सार्वजनिक जीवन की सचाई का ही एक विद्रूप चेहरा है।
बहरहाल, बात एक बार फिर सुनंदा-शशि की। याददाश्त पर बहुत जोर देने की जरूरत नहीं है याद करने के लिए कि किन कारणों से थरूर को अपने मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। जाहिर है, कारण कई थे पर थे सब समगोत्रीय ही। उन तमाम कारणों की अकेली धुरी रहीं सुनंदा, जो आज पूर्व विदेश मंत्री की पत्नी हैं। प्रेम के लिए आत्मोत्सर्ग के इस श्याम-श्वेत को लेकर चाहे हम जितनी बातें कर लें पर इसकी नाटकीयता में आकर्षण और सौंदर्य भी कम नहीं, इसकी साक्षी तो अब देश की संसद भी है।

साभार : राष्ट्रीय सहारा (17 मार्च, 2011)

रविवार, 23 जनवरी 2011

पॉपुलर बदलाव


बत्ती बुझने के बाद भी
जल उठती है बत्ती
डूबने के बाद भी
तैरने लगती है कश्ती 
पसीने से लथपथ होकर भी
चूकती ना हारती
बस छा जाती है मस्ती
सदी अब उन्नीस नहीं
हो चुकी है इक्कीस   
बताने के बहाने भर नहीं
पॉपुलर बदलाव के इजहार भी हैं 

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

चल बसा रामभरोसे


इसे आर्थिक समझ का मुगालता कहें न कहें अव्वल दर्जे की एक आत्मघाती बेवकूफी तो जरूर कहेंगे कि उन्नति और विकास के लिए शहरीकरण को लक्ष्य और लक्षण दोनों स्वीकार करने वाले सिद्धांतकार सरकार के भीतर और बाहर दोनों जगह हैं। और यह स्थिति सिर्फ अपने यहां है ऐसा भी नहीं। पूरी दुनिया को खुले आर्थिक तंत्र की एक छतरी में देखने की भूमंडलीय होड़ के बाद कमोबेश यही समझ हर देश और दिशा में बनी है।
पिछले दिनों दो ऐसी खबरें आई जिसने शहरी समाज और व्यवस्था के बीच से लगातार छिजती जा रही संवेदनशीलता के सवाल को एक बार फिर उभार दिया। 50 साल के घायल रामभरोसे ने एंबुलेंस में ही इसलिए दम तोड़ दिया क्योंकि देश की राजधानी के बड़े-छोटे किसी अस्पताल के पास न तो उसकी इलाज के लिए जरूरी उपकरण थे और न ही वह रहमदिली कि उसे कम से कम उसके हाल पर न छोड़ा जाए। विडंबना ही है कि हेल्थ हेल्पलाइन से लेकर किसी को भूखे न सोने की गारंटी देने वाली देश की राजधानी में एक गरीब और मजबूर की जान की कीमत कुछ भी नहीं।
शहर के अस्पतालों में मरीजों के साथ होने वाले सलूक का सच इससे पहले भी कई बार सामने आ चुका है। जो निजी पांच सितारा अस्पताल अपनी अद्वितीय सेवा धर्म का ढिंढ़ोरा पीटते हैं, वहां तो गरीबों के लिए खैर कोई गुंजाइश ही नहीं है। रही सरकारी अस्पतालों की बात तो आए दिन अपनी पगार और भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल पर बैठने वाले डॉक्टरों की तरफ से कभी कोई मांग कम से कम मरीजों की उचित देखरेख के लिए तो नहीं ही उठाई गई। उनकी इसी मानसिकता को लेकर एक समकालीन कवि ने डॉक्टरों को पेशेवर रहमदिल इंसान तक कहा। यह अलग बात है कि नई घटना में तो वे ढ़ंग से पेशेवर भी नहीं साबित हुए।
हम जिन घटनाओं का जिक्र कर रहे हैं, उसमें दूसरी घटना एक मेट्रो स्टेशन की है। इस घटना में ऊपरी तौर पर घटित तो कुछ भी नहीं हुआ, हां अंतर्घटना के रूप में देखें-समझें तो रोंगटे जरूर खड़े हो जाते हैं। अपनों से अलग-थलग पड़ चुकी कानपुर से दिल्ली आई एक महिला राजधानी के एक मेट्रो स्टेशन पर इस फिक्र में घंटों बैठी रही कि वह कहां जाए और किससे मदद की गुहार लगाए। उसकी स्थिति देखकर कोई भी उसकी लाचारी को पढ़ सकता था पर उससे कुछ ही कदम की दूरी पर बैठे सुरक्षा जवानों के लिए शहर में आए दिन दिखने वाला यह एक आम माजरा था।
दिलचस्प है कि यह संवेदनहीनता उस शहर के पुलिस और सुरक्षा जवानों की है जिसको लेकर यहां की सरकार अमन-चैन के लंबे-चौडे़ वादे करती है। गनीमत है कि किसी अपराधी तत्व की निगाह उस महिला पर नहीं पड़ी, नहीं तो गैंगरेप के एक से ज्यादा मामलों में अब तक अंधेरे में तीर चला रही सरकार और पुलिस के लिए मुंह छिपाने की एक और बड़ी वजह आज लोगों की चर्चा का विषय होता।
दरअसल, पूरे देश की आबादी के सबसे घने बसाव वाली दिल्ली के लिए कानून-व्यवस्था के जिस अलग और ज्यादा चुस्त तंत्र की दरकार है, उसकी जरूरत केंद्र और स्थानीय सरकार ने महसूस की हो या नहीं, कम से कम उनकी तरफ से इस दिशा में कोई निर्णयात्मक पहल तो नहीं ही की गई। इस जरूरी पहल का रास्ता कभी राजनीति ने काटा तो कभी सरकारी महकमों की गतहाली ने। पर अब स्थिति चेतने की है, नहीं तो सचमुच बहुत देर हो जाएगी।             

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

यह डिवोर्स मेड इन चाइना है


अखबारों के तकरीबन एक ही पन्ने पर साया हुईं  ये दो खबरें हैं। एक तरफ प्राचीन से नवीन होता चीन है तो दूसरी तरफ उत्तर आधुनिकता की जमीन पर परंपराओं और संबंधों के नए सरोकारों को विकसित कर रहा अमेरिका। दुनिया के दो महत्वपूर्ण हिस्सों में यह सामाजिक बदलाव का दौर है। लेकिन दिशा एक-दूसरे से बिल्कुल अलग। एक तरफ खतरे का लाल रंग काफी तेजी से और गाढ़ा होता जा रहा है तो दूसरी तरफ मध्यकालीन बेड़ियों से झूल रहे बचे-खुचे तालों को तोड़ने का संकल्प।   
बाजार के साथ हाथ मिलाते हुए भी अपनी लाल ठसक को बनाए रखने वाले चीन की यह बिल्कुल वही तस्वीर नहीं है जो न सिर्फ सशक्त है बल्कि  सर्वाइवल और डेवलपमेंट का एक डिफरेंट मॉडल भी है। चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने सोशल रिसर्चर तंग जुन के हवाले से बताया है कि चीन में न सिर्फ अर्थव्यवस्था का बल्कि तलाक का ग्राफ भी बढ़ा है। ढाई दशक पहले तक चीन में हर हजार शादी पर 0.4 मामले तलाक के थे जबकि अब वहां नौबत यह आ गई है कि हर पांचवीं शादी का दुखांत होता है। चीनी समाज में स्थितियां किस तरह बदल रही हैं इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि 2009 में चीन में 2.42 करोड़ लोग परिणय सूत्र में बंधे लेकिन 24 लाख लोग अंतत:  इस बंधन से बाहर आ गए। अर्थ का विकास जीवन को कुछ सुकूनदेह बनाता हो या न, उसके अनर्थ का खतरा कभी मरता नहीं है।
चीनी विकास का अल्टरनेट मॉडल परिवार और समाज के स्तर पर भी कोई वैकल्पिक राह खोज लेता तो सचमुच बड़ी बात होती। लेकिन शायद ऐसा न तो संभव था और न ही ऐसी कोई कोशिश की गई। उलटे विकास और समृद्धि के चमकते आंकड़ों की हिफाजत के लिए वहां पोर्न इंडस्ट्री और सेक्स ट्वायज का नया बाजार खड़ा हो गया। दुनिया के जिस भी समाज  में सेक्स की सीमा ने सामाजिक संस्थाओं का अतिक्रमण कर सीधे-सीधे निजी आजादी का एजेंडा चलाया है, वहां सामाजिक संस्थाओं की बेड़ियां सबसे पहले झनझनाई हैं। चीन में आज अगर इस झनझनाहट को सुना जा रहा है तो वहां की सरकार को थ्यानमन चौक की घटना से भी बड़े खतरे के लिए तैयार हो जाना चाहिए। क्योंकि बाजार को अगर सामाजिक आधारों को बदलने का छुट्टा लाइसेंस मिल गया तो आगे जीवन और जीवनशैली के लिए सिर्फ क्रेता और विक्रेता के संबंधों का खतरनाक आधार बचेगा।
अमेरिका से आई खबर की प्रकृति बिल्कुल अलग है। वहां शादियों और मां बनने का न सिर्फ जोर बढ़ा है बल्कि इन सबके साथ कई क्रूर रुढ़ताएं भी खंडित हो रही हैं। जिस अमेरिका में राजनीति से लेकर फिल्म और शिक्षण संस्थाओं तक नस्लवाद का अक्स आज भी कायम है, वहां रंग, जाति और बिरादरी से बाहर जाकर प्यार करने और शादी करने का नया चलन जोर पकड़ रहा है। नस्ली सीमाओं को लांघकर विवाह करने का यह चलन कितना मजबूत है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि पिछले तीन दशक में ऐसा करने वालों की गिनती दोगुनी हो चुकी है। अमेरिकी समाज के लिए यह एक बड़ी घटना है।                  
50-60 के दशक तक अमेरिका में दूसरी नस्ल के लोगों के साथ विवाह करने की इजाजत नहीं थी। बाद में वहां सुप्रीम कोर्ट का आर्डर आया जिसने ऐसे किसी एतराज को गलत ठहराया। बहरहाल, इतना तो कहना ही पड़ेगा कि दुनिया भर में नव पूंजीवाद व उदारवाद का अलंबरदार देश अपनी भीतरी बनावट में भी उदार होने के लिए छटपटा रहा है। यह सूरत आशाजनक तो है पर फिलहाल इसे क्रांतिकारी इसलिए नहीं कह सकते क्योंकि अब भी वहां 37 फीसद सोशल हार्डकोर मेंटेलिटी के लोग हैं जो विवाह की नस्ली शिनाख्त में किसी फेरबदल के हिमायती नहीं हैं। जाहिर है चरमभोग के परमधाम में अभी स्वच्छंदता की मध्यकालीन मलिनता से छुटकारा मुश्किल है। लेकिन वहां जो बदलाव दिख रहा है उसमें आस और उजास दोनों हैं।