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मंगलवार, 6 मई 2014

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


सीजन चुनाव का है तो आजकल बातें भी सबसे ज्यादा चुनावों को लेकर ही हो रही हैं। नेताओं के भाषणों से लेकर चाय की दुकानों पर होने वाली बहसों में जो एक बात कॉमन है, वह है भारत के नए वोटरों की बात। सभी यही कह रहे हैं कि 18 से 28 वर्ष की उम्र के नौजवान इस बार चुनावी निर्णय को सबसे ज्यादा प्रभावित करेंगे। इसी के साथ शुरू हो गया है एक नया विमर्श फ़ेसबुकिया पीढ़ी से लेकर ग्लोबल पीढ़ी की शिनाख्त पाने वाले नौजवान भारत को लेकर। ज्यादातर आग्रह इंपोजिग नेचर के हैं तो कुछ दलीलों में तथ्य कम आग्रह ज्यादा है। दरअसल, जिसे नए दौर की पीढ़ी कहते हैं, उसकी चेतना और मानस को समझने के लिए हम ग्लोबल तकाजों की तलाश करते हैं। पर उसकी दुनिया बिल्कुल वैसी ही नहीं है, जैसी मीडिया या फिल्मों में दिखाई पड़ती है। इस विभ्रम की सबसे बड़ी वजह देश की गुड़-माटी की समझ रखने वाले क्रिटिकल एप्रोच में तेजी से आई कमी है। 
लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चितन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए कि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा हैं। पर तथ्य के साथ सत्य भी यहीं आकर टिकता हो, ऐसा नहीं है। 
सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस
दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा हैं। ऐसा हो भी भला क्यों नहीं। क्योंकि इनमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सबको भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। 
ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि ग्लोबल इंडिया का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई की जो असली सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है। 
लोकतंत्र पर भरोसा 
इस दशक के तकरीबन आरंभ में 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉîमग वर्ल्ड : एटीट्यूड्स एंड परसेप्शन’ नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमîजग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उसकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं। 
साफ है कि पिछले दो-ढाई दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करिअर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों से ज्यादा के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
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चार बोतल बोदका
देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से एक बात और... रूढ़ियां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्ज़ा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। 
पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम 'इंडिया’ से 'भारत’ की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। 
नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है। 
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विकास का खाका और झांसा 
पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई। यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमîजग इकोनमी पावर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा लेते रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खानों में देश को खुशहाल जरूर बताया जा सकता है पर यह देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे लौटेंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले कई देश एक बार फिर संरक्षणवादी नीतियों को अमल में लाने लगे हैं।


सोमवार, 17 जून 2013

चलो अमेरिका

1999 में पीयूष झा की एक फिल्म आई थी चलो अमेरिका। इसमें वह पूरी मानसिकता चित्रित की गई थी कि आज के भारतीय युवाओं के लिए अमेरिका और वहां जाने का मतलब क्या है। यही नहीं अगर वह अमेरिका की धरती पर पैर नहीं रखता है तो कैसे उसके जीवन के सारे अरमान बिखर जाते हैं। जिंदगी की बड़ी से बड़ी जद्दोजहद से बड़ा है अमेरिका जाने का वीजा हासिल करना। फिल्म के तीन प्रमुख किरदार निभा रहे निठल्ले नौजवानों की भी जिंदगी का यही सच है। उन्हें साफ लगता है कि अगर वे अमेरिका नहीं पहुंच पाते हैं तो उनकी जिंदगी का कोई मतलब नहीं है। अमेरिका से झंडे से लेकर वहां सबसे ज्यादा बिकने वाले मारलबोरो सिगरेट की बात हो, ये सब इन युवकों को आकर्षित करते हैं।
फिल्म चूंकि हास्य प्रधान है इसलिए फिल्मकार पीयूष ने कई जगहों पर चुहलबाजी के बीच यह दिखाया गया है कि अमेरिका महज एक देश नहीं बल्कि एक ब्रांड भी है, जिसको लेकर युवाओं में एक जुनून है। तभी तो फिल्म में युवा अमेरिकी झंडे की प्रिंटिंग वाले रुमाल रखते हैं। और तो और चूंकि फिल्म में इन युवाओं के पास पैसे नहीं होते हैं इसलिए वे तमाम तरीके अपनाकर अपने को अमेरिकापरस्त दिखाने की कोशिश करते हैं। ऐसी ही एक कोशिश में वे मारलबोरो सिगरेट के खाली डिब्बे में देसी सिगरेट रखकर पीते हैं।
इस फिल्म को बने एक दशक से ज्यादा का समय बीत गया है। क्लिंटन के बाद अब ओबामा में लोग ग्लोबल लीडर की छवि देख रहे हैं, उनके चित्रों वाले टीशर्ट पहन रहे हैं, घरों में उनकेे पोस्टर चिपका रहे हैं, बाजार से उनकी जीवनी खरीदकर पढ़ रहे हैं। इस दौरान अगर नहीं कुछ बदला है तो वह है भारतीय युवाओं में अमेरिका के प्रति बढ़ा लगाव। चेतन भगत की शब्दावली में कहें तो अमेरिका उनके लिए ड्रीम और डेस्टिनेशन एक साथ है। हालांकि जब हम ऐसा कहते हैं तो हमारी आंखों के सामने वे युवा होते हैं जो शहरी हैं और जिन्होंने भारत में ग्लोबल विकास के दौर में अपनी आंखें खोली हैं। 

मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

हमें मत कहिए ग्लोबल यूथ


लोक और परंपरा के कल्याणकारी मिथकों पर भरोसा करने वाले आचार्यों की बातें अब विश्वविद्यालयों के शोधग्रंथों तक सिमट कर रह गई हैं। इन पर मनन-चिंतन करने का भारतीय समाजशास्त्रीय और सांस्कृतिक विवेक बीते दौर की बात हो चुकी है। ऐसा अगर हम कह रहे हैं तो इसलिए क्योंकि ऐसा मानने वाले आज ज्यादा है। पर तथ्य और सत्य भी यहीं आकर ठहरता है, ऐसा नहीं है। दिलचस्प है कि खुले बाजार ने अपने कपाट जितने नहीं खोले, उससे ज्यादा हमने भारतीय युवाओं के बारे में आग्रहों को खोल दिया। सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस के त्रिकोण में कैद नव भारतीय युवा की छवि और उपलब्धि पर सरकार और कॉरपोरेट जगत सबसे ज्यादा फिदा है। और ऐसा हो भी भला क्यों नहीं क्योंकि इसमें से एक ग्लोबल इंडिया का रास्ता बुहारने और दूसरा रास्ता बनाने में लगा है। यह भूमिका और सचाई उन सब को भाती है जो भारत में विकास और बदलाव की छवि को पिछले दो दशकों में सबसे ज्यादा चमकदार बताने के हिमायती हैं। ऐसे में कोई यह समझे कि देश की युवा आबादी का एक बड़ा हिस्सा न सिर्फ इन बदलावों के प्रति पीठ किए बैठा है बल्कि इंडिया शाइनिंग का मुहावरा ही उसके लिए अब तक अबूझ है तो हैरानी जरूर होगी। पर क्या करें सचाई जो सरजमीं है, वह हैरान करने वाली ही है।
तकरीबन तीन साल पहले अभी के महीने में ही 'इंडियन यूथ इन ए ट्रांसफॉमिंग वर्ल्ड  : एटीट¬ूड्स एंड परसेप्शन'  नाम से एक शोध अध्ययन चर्चा में थी। इसमें बताया गया था कि देश के 29 फीसद युवा ग्लोबलाइजेशन या मार्केट इकोनमी जैसे शब्दों और उसके मायने से बिल्कुल अपरिचित हैं। यही नहीं देश की जिस युवा पीढ़ी को इस इमर्जिंग फिनोमेना से अकसर जोड़कर देखा जाता है कि उनकी आस्था चुनाव या लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं व मूल्यों के प्रति लगातार छीजती जा रही है, उसके विवेक का धरातल इस पूर्वाग्रह से बिल्कुल अलग है। आज भी देश के तकरीबन आधे यानी 48 फीसद युवक ऐसे हैं, जिनका न सिर्फ भरोसा अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं के प्रति है बल्कि वे जीवन और विकास को इससे सर्वथा जुड़ा मानते हैं।   
साफ है कि पिछले दो दशकों में देश बदला हो कि नहीं बदला हो, हमारा नजरिया समय और समाज को देखने का जरूर बदला है। नहीं तो ऐसा कतई नहीं होता कि अपनी परंपरा की गोद में खेली पीढ़ी को हम महज डॉलर, करियर, पिज्जा-बर्गर और सेलफोन से मिलकर बने परिवेश के हवाले मानकर अपनी समझदारी की पुलिया पर मनचाही आवाजाही करते। जमीनी बदलाव के चरित्र को जब भी सामाजिक और लोकतांत्रिक पुष्टि के साथ गढ़ा गया है, वह कारगर रहा है, कामयाब रहा है। एक गणतांत्रिक देश के तौर पर छह दशकों के गहन अनुभव और उसके पीछे दासता के सियाह सर्गों ने हमें यह सबक तो कम से कम नहीं सिखाया है कि विविधता और विरोधाभास से भरे इस विशाल भारत में ऊपरी तौर पर किसी बात को बिठाना आसान है। तभी तो हमारे यहां बदलाव या क्रांति की भी जो संकल्पना है, वह जड़मूल से क्रांति की है, संपूर्ण क्रांति की है।
आज पिछले बीस सालों के विकास की अंधाधुंध होड़ के बजबजाते यथार्थ को देखने के बाद यह मानने वालों की तादाद आज ज्यादा है जो यह समझते हैं कि किसानों, दस्तकारों के इस देश को अचानक ग्लोबल छतरी में समाने की नौबत पैदा की गई और यह नौबत इतनी त्रासद रही कि कम से कम ढ़ाई लाख किसान खुदकुशी के मोहताज हुए। साफ है कि ग्लोब पर इंडिया को इमर्जिंग इकोनमी पॉवर के तौर पर देखने के लिए जिन तथ्यों और तर्कों का हम सहारा ले रहे हैं, उसकी विद्रूप सचाई हमें सामने से आईना दिखाती है। सस्ते श्रम की विश्व बाजार में नीलामी कर आंकड़ों के खाने में विदेशी मुद्रा का वजन जरूर बढ़ सकता है पर यह सब देश के हर काबिल युवा के हाथ में काम के लक्ष्य और सपने को पूरा करने की राह में महज कुछ कदम ही हैं। ये कदम भी आगे जाने के बजाय या तो अब ठिठक गए हैं या फिर पीछे जाएंगे क्योंकि मेहरबानी बरसाने वाले अमेरिका जैसे देश एक बार फिर संरक्षणवादी आर्थिक हितों को अमल में लाने लगे हैं।
आखिर में एक बात और देश की लोक, परंपरा और संस्कृति के हवाले से। रूढि़यां तोड़ने से ज्यादा सांस्कृतिक स्वीकृतियों को खारिज करने के लिए बदनाम पब और लव को बराबरी का दर्जा देने वाले युवाओं की जो तस्वीर हमारी आंखों के आगे जमा दी गई है, उसके लिए शराब का सुर्ख सुरूर बहुत जरूरी है। पर दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु, हैदराबाद, चंडीगढ़ आदि से आगे जैसे ही हम इंडिया से भारत की दुनिया में कदम रखते हैं, जरूरत की यह युवा दरकार खारिज होती चली जाती है। नए भारत के युवा को लेकर यहां भी एक पूर्वाग्रह टूटता है क्योंकि जिस अध्ययन का हवाला हम पहले दे चुके हैं, उसमें उभरा एक बड़ा तथ्य यह भी है 66 फीसद युवाओं के लिए आज भी शराब को हाथ लगाना जिंदगी का सबसे कठिन फैसला है। देश की अधिसंख्य युवा आबादी की ऐसी तमाम कठिनाइयों को समझे बगैर कोई सुविधाजनक राय बना लेना सचमुच बहुत खतरनाक है।




सौजन्य : राष्ट्रीय सहारा  

सोमवार, 31 अक्टूबर 2011

पहले राजीनामा फिर शादीनामा


बाजार की सीध में चले दौर ने परिवार संस्था को नई वैचारिक तमीज के साथ समझने की दरकार बार-बार रखी है। इस दरकार ने इस संस्था के मिथ और मिथक पर नई रौशनी डाली भी है। अलबत्ता, अब तक अब तक विवाह और परिवार के रूप में विकसित हुई संस्था की पारंपरिकता पर खीझ उतारने वाली सनक तो कई बार जाहिर हो चुकी है पर इसके विकल्प की जमीन अब भी वीरान ही है। साफ है कि मनुष्य की सामाजिकता का तर्क आज भी अकाट्य  है और इस पर लाख विवाद और वितंडा के बावजूद इसे खारिज कर पाना आसान नहीं है।
ऐसा ही एक सवाल संबंधों की रचना प्रक्रिया को लेकर बार-बार उठता है। विवाह की एक कानूनी व्याख्या भी है। इस व्याख्या और मान्यता की जरूरत भी है। पर यह भी उतना ही सही है कि कानूनी धाराओं से वैवाहिक संबंध को न तो गढ़ा जा सकता है और न ही इसके निर्वाह का गाढ़ापन इससे तय होता है। इसके लिए तो लोक और परंपरा की लीक ही पीढ़ियों की सीख रही है। दिलचस्प है कि इस सीख को ताक पर रखकर कानूनी ओट में विवाह संस्था को मन माफिक आकार देने की कोशिश हाल के सालों में काफी बढ़ी है। परिवार और समाज को दरकिनार कर जीवनसाथी के चुनाव का युवा तर्क आजकल सुनने में खूब आता है। स्वतंत्रता के रकबे को अगर स्वच्छंदता तक फैला दें तो यह तर्क आपको प्रभावशाली भी लग सकता है। पर यह आवेगी उत्साह कई खामियाजाओं का कारण बन सकता है।
अच्छी बात है कि अपने एक नए फैसले में अदालत ने भी तकरीबन ऐसी ही बात कही है। जो लोग सीधे कोर्ट और वकील के चक्कर से बचते हुए मंदिरों में विवाह रचाने का रास्ता चुनते रहे हैं, उनके लिए अदालत का नया फैसला महत्वपूर्ण है। हाईकोर्ट ने आर्य समाजी विवाह के एक मामले में साफ कहा है कि मंदिर में शादी करने का यह कतई मतलब नहीं कि दो व्यस्कों की सहमति भर को सात फेरे लेने का न्यूनतम आधार मान लिया जाए। इस फैसले में कहा गया है कि किसी भी विवाह के लिए दोनों पक्षों के माता-पिता या अभिभावक की सहमति जरूरी है। और अगर शादी मां-पिता की बगैर मर्जी के की जा रही है तो इस असहमति की वजह लिखित रूप में रिकार्ड पर होनी चाहिए। साथ ही ऐसी स्थिति में गवाह के तौर पर दोनों पक्षों की तरफ से अभिभावक के रूप में नजदीकी रिश्तेदार की मौजूदगी जरूरी है। यही नहीं मंदिर में विवाह संपन्न होने से पूर्व माता-पिता और संबंधित इलाके के थाने और सरकारी कार्यालयों को सूचित करना होगा।
साफ है कि अदालत ने विवाह को परिवारिकता और सामाजिकता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना है। उसकी नजर में विवाह संस्था के महत्व का आधार और सरोकार दोनों व्यापक है। इस व्यापकता में सबसे महत्वपूर्ण रोल उन सहमतियों का है जो पारंपरिक शादियों में खासतौर पर महत्व रखती हैं। बच्चों को जन्म देने का विवेकपूर्ण फैसला करने वाले मां-बाप को एकबारगी अपने बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण फैसले से बाहर नहीं किया जा सकता है। आज तक यह सीख परंपरा की गोद में दूध पीती रही है अब इसे कानूनी अनुमोदन भी हासिल हो गया है। 

शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2011

तुम सीटी बजाना छोड़ दो !


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ी है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिंचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीजिंग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है। इस ग्रे कलर का परसेंटेज जरूर काल-पात्र-स्थान के मुताबिक बदलता रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल' कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे। इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों   से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधर्ता आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं। लिहाजा संबंधों की हरियाली को कायम रखने और इसके रकबे के बढ़ाने में सीटियों ने भी कोई कम योगदान नहीं किया है। यह अलग बात है कि इस तरह की कोशिशें कई बार सिरे नहीं चढ़ने पर बेहूदगी की भी अव्वल मिसालें बनी हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।' 1951 आयी फिल्म 'अलबेला' में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज़ में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो' तो आज भी सुनने को मिल जाता है  
साफ है कि नौजवान लड़के-लड़कियों को सीटी से ज्यादा परेशानी कभी नहीं रही और अगर रही भी तो यह परेशानी कभी सांघातिक या आतंकी नहीं मानी गई। मॉरल पुलिसिंग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिंग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिंग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिंगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।
मोबाइल, फेसबुक और आर्कुट के दौर में सीटियों की विदाई स्वाभाविक तो है पर यह खतरनाक भी है। इस खतरे का 'टेक्स्ट' आधी दुनिया के पल्ले पड़ना अभी शुरू भी नहीं हुआ था कि वह इसकी शिकार होने लगी। सीटियों की विदाई महिला सुरक्षा का शोकगीत भी है क्योंकि उनके लिए अब हल्के-फुल्के खतरों का दौर लद गया है। बेतार खतरों के जंजाल में फंसी स्त्री अस्मिता और सुरक्षा के लिए यह बड़ा सवाल है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।

बुधवार, 17 अगस्त 2011

तुमसे अच्छा कौन है!

एक लकीर जब बहुत लंबी खिंच जाती है तो बाद के लकीरों के लिए इम्तहान बढ़ जाता है। क्योंकि तब उसे न सिर्फ एक सीध में लंबा चलना होता है बल्कि सबसे आगे निकलने का दबाव भी रहता है उसके ऊपर। पृथ्वीराज कपूर के बाद उनके खानदान के हर बारिस के आगे तकरीबन ऐसी ही चुनौती रही खुद को साबित करने की, सबसे आगे दिखने की। पर दिलचस्प है कि राज से लेकर करीना और रणबीर पूर तक ने लकीर के फकीर होने की बजाय अपनी मुख्तलिफ खासियतों को संवारना ज्यादा मुनासिब समझा।
शम्मी कपूर ने जब कैमरे के आगे आने का पेशेवर फैसला लिया तो उन्हें अपनी जमीन नए सिरे से तैयार करनी पड़ी। एक तरफ उनके पिता पृथ्वीराज कपूर का फिल्म और थियेटर की दुनिया में बड़ा नाम और सम्मान था, तो दूसरी तरफ भाई शोमैन राज कपूर की लोकप्रिय छवि। लिहाजा नया कुछ करने और दिखने का दबाव तो था ही पर जोखिम भी था कि लोग उन्हें मंजूर करेंगे कि नहीं। आज यह बात तारीखी सियाही से लिखी जा चुकी है कि न सिर्फ शम्मी ने अपनी विशिष्ट नृत्य और  अभिनय शैली से अपनी अलग पहचान कायम की बल्कि 50-60 के दशक के हिंदी सिनेमा को काफी हद तक अपनी रंग में सराबोर भी रखा।
शम्मी अब हमारे बीच नहीं हैं तो उनके साथ काम करने वाले अभिनेता-अभिनेत्रियों से लेकर पूरा फिल्म उद्योग और उनके लाखों चाहने वाले अपने इस मस्तमौला अभिनेता को अपनी-अपनी तरह से याद कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में हिंदी सिनेमा का फलक एक तरफ जहां व्यापारिक रूप में ग्लोबल हुआ है, वहीं मुख्यधारा की फिल्मों से अलग प्रयोग और विकल्प की भी गुंजाइश भी बढ़ी है। यह गुंजाइश कला फिल्मों के यशस्वी प्रयोगकाल से नितांत भिन्न है। इसमें फिल्म माध्यम की क्षमता का विशुद्ध कलावादी या सार्थकता के आग्रह के साथ इस्तेमाल नहीं बल्कि कहानी कहने की नई शैलियों और नई कहानी  को परदे पर लाने की ललक ज्यादा है। दिलचस्प है हिंदी सिनेमा के इस बदलाव को देखना। तकरीबन 50 साल पहले जब शम्मी कपूर का जादू सिर चढ़कर बोलता था तो आलोचकों ने उनकी 'याहू' छवि को रिबेल स्टार की शिनाख्त दी। प्रेम की तरुणाई और तरुणाई के प्रेम को भारतीय समाज और परंपरा की बंद कोठरियों से खुली हवा में महकाने वाले इस बेजोड़ कलाकार को फिल्मों के रसिया इसलिए भी शायद कभी नहीं भूल पाएंगे कि पारिवारिक मर्यादाओं के खिलाफ बगैर बिगुल फूंके उन्होंने आधुनिकता और स्वच्छंदता का जो तिलिस्म परदे पर रचा, वह एक तरफ जहां खासा मनोरंजक था, वहीं दूसरी तरफ स्टारडम की खूबियों की मिसाल भी। इससे बढ़कर किसी कलाकार की सफलता क्या होगी कि उसके स्वर्णिम दौर के खत्म हो जाने के बाद भी उसकी अदाओं का जादू चलता रहे। जिन लोगों को राजेश खन्ना और जितेंद्र की शुरुआती दौर की फिल्में याद होंगी, वे इस बात को बेहतर कह पाएंगे कि कैसे इन दोनों सितारों की अभिनय और नृत्य शैली में शम्मी कपूर का अक्श झांकता था।
भारत के एल्बिल प्रेस्ले कहने जाने वाले शम्मी ने अपनी अंतिम सांसें जरूर अस्पताल में ली पर उनकी सक्रियता उनके जीवन के आखिरी दिनों तक बनी रही। वे शोहरत की दुनिया के उन सितारों की तरह नहीं थे, जिनका चमकना महज कुछ दिनों या एक दौर तक सीमित रहता है। साइबर और मोबाइल क्रांति के दौर में एक तरफ जहां उनका रुझान लगातार अध्यात्म की तरफ बढ़ता गया, वहीं वे इंटरनेट की दुनिया के भी बड़े सैलानी थे। इंटरनेट के साथ उनके संबंधों की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि वे इंटनेट यूजर्स कम्यूनिटी ऑफ़ इंडिया के संस्थापक अध्यक्ष थे। शम्मी कपूर की जिंदगी जीने की इस जिंदीदिल शैली के कारण ही उनके बच्चे और परिवार के अन्य लोगों को इस बात का कतई मलाल नहीं है कि वे अपने सफर को कहीं आधा-अधूरा छोड़ इस दुनिया से विदा हो गए। हां, यह जरूर है कि अब शायद ही उनके जैसा कोई फिल्मी दुनिया में आए, जिसे देख हम कह सकें कि 'तुमसे अच्छा कौन है'।

सोमवार, 1 अगस्त 2011

50 लाख पन्नों पर लिखी दोस्ती


प्यार और दोस्ती जीवन से जुड़े ऐसे सरोकार हैं जिनको निभाने के लिए हमारी आपकी फिक्रमंदी भले कम हुई हो पर इसे उत्सव की तरह मनाने वाली सोच बकायदा संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। दिलचस्प यह भी है कि कल तक लक्ष्मी के जिन उल्लुओं की चोंच और आंखें सबसे ज्यादा परिवार और परंपरा का दूध पीकर बलिष्ठ हो रहे संबंधों पर भिंची रहतीं थी, अब वही कलाई पर दोस्ती और प्यार का धागा बांधने का पोस्टमार्डन फंडा हिट कराने में लगे हैं। फ्रेंड और फ्रेंडशिप का जो जश्न पूरी दुनिया में अगस्त के पहले रविवार से शुरू होगा उसके पीछे का अतीत मानवीय संवेदनाओं को खुरचने वाली कई क्रूर सचाइयों पर से भी परदा उठाता है।
फ्रेंडशिप डे या मैत्री दिवस को मनाने का ऐतिहासिक सिलसिला 1935 में तब शुरू हुआ जब यूएस कांग्रेस ने दोस्तों के सम्मान में इस खास दिन को मनाने का फैसला किया। इस फैसले तक पहुंचने के पीछे सबसे बड़ी वजह प्रथम विश्वयुद्ध के वे शर्मनाक अनुभव बनी जिसने देशों के साथ समाज के भीतर संबंधों के सारे सरोकारों को तार-तार कर दिया। इस त्रासद अनुभव को सबने मिलकर अनुभव किया। तभी बगैर किसी हील-हुज्जत के यह सर्वसम्मत राय बनने लगी कि अगर हम संबंधों के निभाने के प्रति समय रहते संवेदनशील जज्बे के साथ सामने नहीं आए तो वह दिन दूर नहीं जब मानव इतिहास का कोई भी हासिल बचा नहीं रख पाएंगे। आलम यह है कि पिछले कई दशकों से  दुनिया के सबसे ताकतवर देश का तमगा हासिल करने वाले देश से मैत्री को उत्सव दिवस के रूप में मनाने की परंपरा आज पूरी दुनिया के कैलेंडर की एक खास तारीख है। दोस्ती का दायरा समाज और राष्ट्रों के बीच ज्यादा से ज्यादा बढ़े इस जरूरत को समझते हुए संयुक्त राष्ट्र ने भी 1997 में एक अहम फैसला लिया। उसने लोकप्रिय कार्टून कैरेक्टर विन्नी और पूह को पूरी दुनिया के लिए दोस्ती का राजदूत घोषित किया।
पिछले दस सालों में दोस्ती का यह पर्व उसी तरह पूरी दुनिया में लोकप्रिय हुआ है जिस तरह वेंलेंटाइन डे। अलबत्ता यह बात जरूर थोड़ी चौकाती है कि सेक्स और सेंसेक्स के बीच झूलती दुनिया में संबंधों को कलाई पर बांधकर दिखाने की रस्मी रिवायत से किसका भला ज्यादा हो रहा है। लेखक राजेंद्र यादव दोस्ती की बात छेड़ने पर अंग्रेजी की एक पुरानी कहावत दोहराते हैं- 'बूट्स एंड फ्रेंडशिप शुड बी पॉलिश्ड रेग्युलरली।' जाहिर है संबंधों को एक दिन के उल्लास और उत्सव की रस्म अदायगी के साथ निपटाने के खतरे को वे बखूबी समझते हैं।
फेंड और फ्रेंडशिप का जिक्र हो रहा हो और बात युवाओं की न हो बात पूरी नहीं होती है। आर्चीज जैसी कार्ड और गिफ्ट बनाने और बेचने वाली कंपनियां इन्हीं युवाओं के मानस पर प्रेम, ख्वाब, यादें और दोस्ती जैसे शब्द लिखकर तो अपनी अंटी का वजन रोज ब रोज बढ़ा रही हैं। फिर बात दोस्ती के महापर्व की हो तो इन युवाओं को कैसे भूला जा सकता है। हाल में टीवी पर दिखाए जा रहे एक शो में जज बने जावेद अख्तर तब तुनक गए जब गायिका वसुंधरा दास ने अपने एक गाने को यूथफूल होने की दलील उनके सामने रखी। जावेद साहब ने थोड़े तल्ख लहजे में उस मानसिकता पर चुटकी ली जिसमें देह की अवधारणा को संदेह से अलगाने की कोशिश हो या किसी बेसिर-पैर के म्यूजिकल कंपोजिशन को मार्डन या यूथफूल ठहराने का कैलकुलेटेड एफर्ट, यूथ सेंटीमेंट की बात छेड़कर सब कुछ जायज और जरूरी ठहरा दिया जाता है। उनके शब्द थे "इस तरह की दलीलों को सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे यूथ कोई 21वीं सदी का इन्वेंशन हो और इससे पहले ये होते ही नहीं थे।' इस  वाकिए को सामने रखकर यह समझने में थोड़ी सहुलियत हो सकती है कि नई पीढ़ी को सीढ़ी बनाकर संबंधों के केक काटने वाला बाजार किस कदर अपने मकसद में क्रूर है। यहां यह भूल करने से बचना चाहिए कि नई पीढ़ी की संवेदनशीलता कोरी और कच्ची है। हां, यह जरूर है कि उसके आसपास का वातावरण उससे वह मौका भरसक हथिया लेने में सफल हो रहा है जो निभाए जाने वाले मानवीय सरोकारों को दिखाए जाने वाला रोमांच भर बना रहे हैं।
स्थिति शायद उतनी निराशाजनक नहीं जितनी ऊपर से दिखती है। गूगल सर्च इंजन पर फ्रेंडशिप डे के दो शब्द जो 50 लाख से ज्यादा पन्ने हमारे सामने खोलता है उसमें कई सामाजिक संस्थाओं और दोस्तों के ऐसे समूहों के क्रिया-कलापों का बखान भी बखान भी है जो मानवीय संबंधों को हर तरह की त्रासदी से उबाड़ने में लगे हैं। खुशी की बात यह कि ऐसी पहलों का ज्यादातर हिस्सा युवाओं के हिस्से है। बहरहाल, पूरी दुनिया के साथ भारत भी मैत्री दिवस को मनाने के लिए तैयार है। और उम्मीद की जानी चाहिए कि संबंधों और वचनों के मान के लिए सब कुछ दाव पर लगा देने वाले देश में लोक और परंपरा के साथ आधुनिकता के बीच दोस्ती के नए संकल्प पूरे होंगे।  

सोमवार, 23 मई 2011

बाय-बाय ओबामा


भारत के लिए अमेरिका महज एक सुपर पावर नहीं, एक आईना भी है और एक सपना भी। आईना जिसमें खुद की साज-संवार देखकर मन अघाए और सपना इस मायने में कि हम सब अमेरिका जैसा होना या दिखना चाहते हैं, यह हमारा ख्वाब भी है और मंजिल भी है। पर इस अमेरिकान्मुख सोच और सचाई का दूसरा रुख भी है, जो खासा दिलचस्प है। भूले नहीं होंगे लोग अंकल सैम का वह गुस्सा जो उन्होंने अपने यहां के स्कूलों पर उतारा था। उन्होंने स्कूल मैनेजमेंटों को सरकारी फंडिंग बंद करने की धमकी दी थी क्योंकि वहां बच्चे लगातार अंग्रेजी में फेल हो रहे थे। कितना दिलचस्प है यह जानना कि एक देश जिसकी अंग्रेजी क्या, उसके बोलने तक का लहजा पूरी दुनिया में नकल की जाती हो, वहीं के बच्चे अंग्रेजी की परीक्षा तक न पास कर पाएं। मामला यहीं निपटता तो भी गनीमत थी, अमेरिका की इस स्थिति का लाभ उठाया कुछ भारतीय कोचिंग संस्थानों ने। उन्होंने सस्ते में ट्यूशन आउटसोर्स के जरिए अमेरिकी बच्चों को अंग्रेजी सिखाने का बीड़ा उठाया और यह धंधा रातोंरात चल निकला। 
दरअसल, यह एक शुरुआत थी भारत और अमेरिका में भीतरी तौर पर बदल रही स्थितियों की। गौरतलब है कि आईटी सेक्टर के जरिए जिस इकोनमी बूम ने रातोंरात भारतीय अर्थ जगत की तस्वीर बदल दी, उससे पहले का दौर भारतीय प्रतिभाओं के विदेश पलायन का था। भारतीय प्रतिभा का प्रतिस्पर्धी होना और यहां श्रम का सस्ता होना, दुनियाभर में इनके छाने और भाने का बड़ा कारण रहा है। पर अब सूरत बदल रही है। आलम यह है कि भारत को दुनिया की तरफ देखने के बजाय दुनिया को भारत की तरफ देखने की दरकार सामने आई है। यह नई और विश्व अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी स्थिति है।
असल में भारत और चीन ये दो ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपनी आर्थिक कुव्वत को पिछले दशकों में जिस तर्ज पर बढ़ाया और मजबूत किया है, वह कई लिहाज से बाकी दुनिया से अलग है। एक तो इन दोनों देशों का विस्तार आबादी और क्षेत्रफल दोनों लिहाज से ज्यादा है, दूसरे ग्लोबल इकोनमी का फंडा यहां स्थानीय प्रभावों और बदलावों के बाद ही सरजमीं पर उतरा है। आलम यह है अमेरिका के राष्ट्रपति को अपनी राजनीतिक स्थिरता के लिए बार-बार अपने लोगों को इस मुद्दे पर भरोसे पर लेना होता है कि भारत और चीन के 'अर्थपूर्ण आकर्षण' से बचाव के लिए सख्त कदम उठाएंगे।
जाहिर है ऐसी सूरत में जब घर के हालात ज्यादा बेहतर और संभावनाओं से भरे दिख रहे हैं, परदेस का रुख करने वाली प्रतिभाओं की दर में तो गिरावट आएगी ही, पहले ही पलायन कर चुके लोगों की वापसी की रफ्तार भी बढ़ जाएगी। इस रुझान को तथ्यगत रूप में मान्यता दी है हाल में ही किए गए एक अध्ययन में। कॅाफमैन फाउंडेशन ने तीन अमेरिकी विश्वविद्यालयों हार्वर्ड, कैलिफोर्निया और ड्यूक की मदद से किए गए अध्ययन में पाया है कि दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति का की शिनाख्त पाने वाले अमेरिका को मौजूदा सूरत में भारी खामियाजा उठाना पड़ रहा है।
दिलचस्प है कि इस अध्ययन का शीर्षक ही है- 'स्वदेश वापसी करने वाले उद्यमियों के लिए वास्तव में भारत और चीन में घास अधिक हरी है'। यह अध्ययन कबूलता है कि एशिया के इन दो बड़े देशों में इन दिनों उद्यमशीलता की लहर चल रही है। किसी समय प्रतिभा पलायन से अपनी अंटी भारी करने वाली अमेरिकी कंपनियों के लिए यह स्थिति सीधे-सीधे गंगा के उलटी बहने जैसी है।
स्वदेश वापसी कर चुके 153  कुशल भारतीय और 111 चीनी कामगारों के बीच कराए गए सर्वेक्षण में तकरीबन आधे ने कहा कि वे अपने देश में अपनी कंपनी स्थापित करेंगे। यह अध्ययन वैसे यह तो साफ नहीं करता कि पिछले दिनों कितने कुशल कामगार स्वदेश लौटे हैं। वैसे इस बाबत इस अध्ययन से ही जुड़े एक लेखक विवेक वाधवा के दावों को अगर सही मानें तो पिछले दो दशकों में डेढ़ लाख लोग भारत और तकरीबन इतने ही लोग चीन वापस लौट चुके हैं। पिछले पांच सालों में इस रुझान में जबरदस्त तेजी दर्ज की गई है। वाधवा इस रुझान को आपवादिक नहीं मानते क्योंकि उनके शब्दों में अब झुंड के झुंड प्रतिभाए एक साथ अमेरिका को गुड बॉय कह रही हैं। कह सकते हैं कि प्रतिभाओं की पसंद और आकर्षण में आया यह बदलाव और कुछ नहीं सीधे-सीधे घर के हालात बेहतर होने के जीते-जागते सबूत हैं। आगे भी ये सबूत यों ही साबुत बने रहेंगे, अभी की सूरत में यही भरोसा भी है। 

गुरुवार, 5 मई 2011

अमूल बेबी की आरटीआई : जागरण में ‘पूरबिया’

राहुल का  भारतीय राजनीति के सबसे ख्यात और शक्तिशाली परिवार से आते हैं, उनकी पार्टी कांग्रेस भी देश की आज तक नंबर एक राजनीतिक पार्टी है। अगर लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना, उन्हें समझना और लोक संवाद के जरिए लगातार संघर्ष के लिए तत्पर बने रहना राजनीति की कम से कम वह सीख तो नहीं ही है जिसमें एक तरफ जहां प्याली में क्रांति उबलती है, वहीं दूसरी तरफ लाल बत्ती से नेतृत्व का कद तय होता है। राहुल को लेकर एक राय यह भी है कि धैर्य और सरलता की राह उनकी नीति से ज्यादा रणनीति है। एक ऐसी रणनीति जो उनकी भविष्य में होने वाली ताजपोशी के लिए बनाई गई है। अगर यह बात सही है तो यह जनता के साथ एक और विश्वासघात होगा और लोकतंत्र में लोक की आस्था और भरोसे से खिलवाड़ का खामियाजा बहुत बड़ा है। राहुल को यह भी अभी से समझ लेना होगा...  


मंगलवार, 3 मई 2011

अमूल बेबी को भाई आरटीआई


संघर्ष लोकतंत्र में हमेशा जारी रहने वाली प्रक्रिया है। जिस राजनीति को हम सिर्फ सत्ता की दखली और बेदखली से जोड़कर देखते हैं, वह उस पूरी राजनीति के औचित्य का लेश मात्र भी नहीं, जिसकी एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए दरकार है। यह बातें इसलिए भी समझनी होगी क्योंकि हमें यह लगता है कि नेता और जनता हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ होते हैं, यही उनकी फितरत भी है और यही मौजूदा हालात में सतह पर आई सचाई भी है। दरअसल, राजनीति और संघर्ष के लोकतांत्रिक तकाजे जनता से जुड़े हैं, जनता के लिए हैं। इसलिए जन सरोकार से अलग या उसके उलट न तो कोई दूसरा सरोकार लोकतंत्र में मान्य है और न ही कोई दूसरा रास्ता। साफ है कि लोकतंत्र की ताकत अगर लोक है तो सत्ता और शक्ति के किसी दूसरे केंद्र का ताकतवर होना खतरनाक है। यही बात लोकतांत्रिक संघर्षों को लेकर भी है।
यह कहीं से मुनासिब नहीं कि 'राजपथ' का महत्व 'जनपथ' से ज्यादा हो। अगर जनता और नेता के संघर्ष के औजार भिन्न होंगे तो इसका मतलब है कि लोक के लोप की कीमत पर नेता नेतागीरी का स्कोप देख रहे हैं। जिन लोगों को भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के आगमन और आगे बढ़ने के उनके सीधे-सरल लोकतांत्रिक तरीके पर जरा भी यकीन हो, उन्हें यह जानना अच्छा लगा होगा कि सरकारी योजनाओं में घपलों-घोटालों को उजागर करने के लिए उन्होंने ओरटीआई को हथियार बनाया है। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ खुद से अर्जी लगाई बल्कि यह दिखाया भी कि नेतागीरी की धौंस और सत्ता की पागल कर देने वाली राजनीति में उनका कोई यकीन नहीं। कलावती की झोपड़ी में रात बिताकर परिवर्तन के सवेरे की बात करने वाले इस युवा नेता की कथनी और करनी अगर सचमुच एकमेक है तो यह बड़ी बात है।
राहुल भारतीय राजनीति के सबसे ख्यात और शक्तिशाली परिवार से आते हैं, उनकी पार्टी कांग्रेस भी देश की आज तक नंबर एक राजनीतिक पार्टी है। अगर लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना, उन्हें समझना और लोक संवाद के जरिए लगातार संघर्ष के लिए तत्पर बने रहना राजनीति की कम से कम वह सीख तो नहीं ही है जिसमें एक तरफ जहां प्याली में क्रांति उबलती है, वहीं दूसरी तरफ लाल बत्ती से नेतृत्व का कद तय होता है। राहुल को लेकर एक राय यह भी है कि धैर्य और सरलता की राह उनकी नीति से ज्यादा रणनीति है। एक ऐसी रणनीति जो उनकी भविष्य में होने वाली ताजपोशी के लिए बनाई गई है। अगर यह बात सही है तो यह जनता के साथ एक और विश्वासघात होगा और लोकतंत्र में लोक की आस्था और भरोसे से खिलवाड़ का खामियाजा बहुत बड़ा है। राहुल को यह भी अभी से समझ लेना होगा।  
पिछले दिनों में कई ऐसी पहलें हुई हैं जिसमें आरटीआई सरकार के अपने कामकाज के साथ व्यवस्थापिका की कमजोरियों को तथ्यगत तौर पर उजागर करने का हथियार बना है। इस कारण कई मौके पर जहां जरूरी कदम उठाए गए, वहीं कई मामलों में अदालत तक ने सार्थक हस्तक्षेप किया। अभी नागरिक समाज की सजगता से भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल को लेकर जो मुहिम आगे बढ़ रही है उसके आगाज के पीछे भी आरटीआई कार्यकर्ताओं की सफलता ही है। दरअसल, यह एक ऐसी कानूनी ताकत है जिसके माध्यम से जनता सरकारी कामकाज, उसके खर्च ब्योरे और तौर-तरीकों पर सीधे सवाल उठा सकती है। सरकार और व्यवस्था के कामकाज का इस तरह सार्वजनिक होना, जहां उनकी विश्वसनीयता को बहाल करने का कारगर जरिया बना है, वहीं जनता को भी भरोसा हुआ है कि उसकी योजनाओं और उसके हक के साधनों की गिद्ध लूट अब संभव नहीं।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

टर्निंग-30 में जो गुल है


उम्र अगर तीस की दहलीज पर हो तो सचाइयों का सामना किस तरह की टीस के साथ होता है, यही समझाया था नैना सिंह ने 'टर्निंग 30' में। फिल्म में नैना उस 27 फीसद शहरी महिला आबादी का प्रतिनिधित्व करती है, जो वर्किंग लेडी होने की शिनाख्त के कारण पढ़ी-लिखी और आधुनिक है। दिलचस्प है कि टुडे वूमेन के बिंदास किरदार के कथानक को करियर-फीगर के कसाव और ढीले पड़ने के द्वंद्व के बीच उम्र के तीस साला सच के साथ जिस तर्ज पर दिखा गया है, वह आजादी और स्वाबलंबन के पहले से ही सर्वथा विवादित महिला विमर्श का एक और अर्निदिष्ट विस्तार है। देह मुक्ति का तर्क सैद्धांतिक तौर पर तो समझ में आता है, पर जिस आधुनिकता की गोद में यह मुक्ति पर्व महिलाएं मना रही हैं, वह प्रायोजित और सुनियोजित है। संबंध का सात क्या एक भी फेरा भी हम बगैर परंपरा और परिवार के प्रति आस्थावान हुए पूरा नहीं कर सकते। दिलचस्प है कि बाजारवादी ताकतों द्वारा प्रायोजित आजादी का जश्न महिलाओं के लिए ही नहीं, बल्कि आज के हर युवा के लिए है। मेट्रोज में इसकी डूब गहरी है, छोटे शहरों और कस्बों में अभी इसके लिए गहरे तलों की खुदाई और छानबीन चल रही है। 
बहरहाल, बात एक बार फिर से नैना सिंह की। फिल्म में नैना का किरदार गुल पनाग ने निभाया है। फिल्म करने के बाद वह चैनलों और अखबारों ने उसकी टिप्पणियों को बतौर एक रेडिकल फेमिनिस्ट सुर्खियां में खूब टांगा। अब खबर यह है टर्निंग 30 का द्वंद्व अपनी निजी चिंदगी में भी झेल रही गुल ने अपने ब्वॉयफ्रेंड के साथ सात फेरे ले लिए हैं। सुंदरता की बिकाऊ स्पर्धा जीतने, फिर रैंप पर कुछ छरहरी चहलकदमियां, मॉडलिंग और पेज थ्री की दुनिया में मौजूदगी को बनाए-टिकाए रखने के लिए कैमरे को तमाम मांसल एंगल मुहैया कराने और कुछ लीक से अलगाई जाने वालीं फिल्में करते-करते दो साल पहले तीस पार कर चुकीं गुल को अब जिंदगी की बहार घर के बाहर नहीं, घर-परिवार के भीतर नजर आने लगी है।
तीस की टीस को अभिनय और असल जिंदगी में महसूस कर चुकी गुल से चाहे तो कोई अब यह पूछ सकता है कि आधुनिकता की टेर पर जिंदगी के स्वचछंद गायन का ऊपरी सूर क्या आजीवन नहीं साधा जा सकता। याकि जीवन के जो तरीके तीस तक ठीक-ठाक लगते हैं, तीस पर पहुंचकर वही तरीके अप्रासंगिक और गैरजरूरी क्यों नजर आने लगते हैं। दरअसल, तीस की दहलीज तक पहुंची तीन दशकीय उदारवादी सामाजिक स्थितियों की जो सबसे बड़ी त्रासदी है, उसे ही युवाओं और खासकर महिलाओं की आजादी की शिनाख्त दे दी गई है। गाल बजा-बजाकर बहस करने वाले महिला हिमायतियों ने अब तक इस बात का कोई जवाब नहीं दिया है कि लोक, परंपरा और संबंध के भारतीय अनुभव अगर खारिज होने चाहिए तो उसका विकल्प क्या है।
हिंदी साहित्य के जानकार जानते हैं कि आजादी पूर्व क्रांतिकारी रणभेरी के साथ शुरू हुआ मुक्ति प्रसंग, किस तरह आसानी से स्वतंत्रता से स्वच्छंदता की ढलान पर आ गया। दिलचस्प है कि मस्ती और मनमानी के गायक यहां भी वही थे, जो देश और समाज की आजादी के तराने गा रहे थे। संबंधों की बहस महिला बनाम पुरुष से ज्यादा सामाजिक-पारिवारिक स्थितियों में एकांगी और स्वायत्त उल्लास के ओवरइंजेक्शन का है। जिस बाजार के एक्सलेटर्स पर चढ़कर आज हम फ्लैट, टीवी और गाड़ी को अपनी पहुंच और जरूरत के तौर पर गिना रहे हैं, उसका इंटरेस्ट संबंधों के स्थायित्व की बजाय उसके टूटने-बदलने के आस्वादी रोमांच में ज्यादा है। यही प्रशिक्षण वह नए तरह से तैयार ग्रीटिंग कार्डस, सीरियल, एड और रियलिटी शोज के जरिए चौबीसों घंटे चला रहा है।
दरअसल, सेक्स, सेंसेक्स और सक्सेस का थ्री-एस फिनोमना अपने तीन दशकों की यात्रा के बाद टर्निंग-30 का जो विमर्श चला रहा है, वहां अब भी संतोषजनक उपसंहार की गुंजाइश किस कदर गुल है, यह बात कोई आैर समझे या न समझे गुल पनाग के तो समझ में आ गई है। शादी की 'बुलेट सवारी' करती गुल को खुश देखकर फिल्म में उसके रोने और तड़पने की वजह आसानी से समझी जा सकती है। यह समझ अगर आधी दुनिया के खुद ब खुद अलंबरदार बने फिरने वालों के समझ में भी आ जाए तो उनकी नादानी के 'सात खून माफ' हो सकते हैं।       

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

गोपन का ओपन



रोटी, कपड़ा और मकान ये तीन आदिम जरूरतें आदमी को जिलाए रखने के लिए तो जरूरी हैं पर अगर मनुष्य का दर्जा 'सामाजिक' का माना जाए तो इन जरूरतों से आगे उसे कुछ और भी हासिल करने की जरूरत है। यह समझ हमारे संविधान निर्माताओं की भी रही तभी उन्होंने मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को भी शामिल किया। अधिकार किसी भी कल्याणकारी व्यवस्था में हमारे हाथ की तरह होते हैं, जिससे हम रचना और विकास की सीढ़ियां बनाते हैं और फिर अपने आरोहण के लिए उसका इस्तेमाल करते हैं। दुनियाभर में सभ्यतागत विकास के हर चरण को इन्हीं हाथों और सीढ़ियों ने संभव बनाया है।
अभिव्यक्ति की आजादी हमारी सामाजिक व लोकतांत्रिक साझी समझदारी का निर्माण करते हैं। विचार का समन्वयकारी चरित्र ही कल्याणारी भी है। पर इस चरित्र  का तब सबसे स्याह रूप सामने आता है जब हम इस आजादी को महज अपने 'गोपन' को 'ओपन' करने की सही-गलत सहूलियतों के तौर पर इस्तेमाल करते हैं।
दो-तीन दशक पहले तक जिन इबारतों को लिखने के लिए गली-मोहल्लों के अलावा सार्वजनिक शौचालयों के दीवारों का चोरी-चुपके इस्तेमाल होता था उसके लिए आज अनंत साइबर स्पेस है। कमाल की बात है कि इस स्पेस ने अभिव्यक्ति की आजादी को चाहे जितना सहज बनाया हो पर इस आजादी के मुंह पर स्वच्छंदता की कालिख भी कम नहीं मली गई। दुनियाभर में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो मानते हैं कि अपनी 'असामाजिकता' को समाज के हिस्से शातिराना तरीके से खिसकाना सबसे आजाद ख्याल है। लिहाजा ऐसे ख्याली लोगों की मनोरुग्णता और मलीन फैंटेसी से साइबर स्पेस पटने लगा है। दिलचस्प है कि ऐसे हिमाकती लोगों में पुरुषों की गिनती सबसे ज्यादा है। इतनी ज्यादा कि यहां आधी दुनिया की मौजूदगी साबित करने के लिए अतिरिक्त रूप से पसीना तक बहाना पड़ सकता है। यकीन न हो तो आप इंटनेट पर किसी भी तेज-तर्रार सर्च इंजन पर बैठकर  तसल्ली कर लें।
मेरे एक वरिष्ठ कवि साथी ने बताया कि खासतौर पर ब्लागरों और सोशल नेटवर्किग साइटों पर समय गुजारने वालों जो नई देसी और भाषाई दुनिया अपने यहां सामने आई है, वह कथित सेक्स फैंटेसी के नाम पर लोकाचारों और लोक मर्यादाओं की जड़ों पर अनजाने ही काफी सघन और कठोर प्रहार कर रहे हैं। लिहाजा अपने आसपास होने वाली बातचीत और व्यवहारों में अचानक हम कोई बड़ा परिवर्तन नोटिस करने लगें तो हैरत नहीं। इस मुद्दे पर कायदे का कोई समाजशास्त्रीय अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है, नहीं तो हमारे चौंकने या सन्न रह जाने के ढेर सारे तार्किक आधार हमारे सामने होते।  
सवाल यह है कि हमारे लोग संस्कारों की सामासिकता को दूध पिलाने वाले मां-बहन, भाई-बहन, भाभी-चाची, फूआ-मौसी जैसे पारिवारिक रिश्तों को आखिर किसी जिद की भेंट चढ़ाया जा रहा है। क्या यह बायलॉजिकल फैक्ट कि दुनिया में दो ही जाति है- पुरुष और स्त्री, एक व्यक्ति की सोच-विचार की उड़ान को थामे रखने वाली अकेली डोर है। यह सब अगर है भी तो इस डोर को थामे पतंगबाजों में महिलाएं क्यों नहीं शामिल हैं।  सवाल जितना जरूरी है उससे ज्यादा जरूरी है इसका जवाब। एक पुरुष अकेले में अपनी दुनिया को किस तरह की नंगई और सोच से रचना और भरना चाहता है, इसका जेनेसिस रिपोर्ट इतना सनसनीखेज हो सकता है कि महिलावादी आंदोलन से लेकर मनुष्य की सामाजाकिता का अध्ययन करने वाले शास्त्र तक के औचित्य पर सवाल खड़े हो जाएं।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

तू खा गोली, मैं करूंगा प्रेम


वेंडर मशीनों से कंडोम का मुफ्त वितरण उतना ही जरूरी है जितना गली-मोहल्ले में खुले एटीएम से पैसे निकालने की आसानी। गुजरात में पिछले गरबा महोत्सव को हॉट इवेंट का दर्जा दिलाने के लिए गरबा पांडालों में ये दोनों ही सुविधाएं एक साथ मौजूद  थीं। इससे पहले दिल्ली जैसे शहरों में रेड लाइट इलाकों को सेहत के लिहाज से कंडोम के मुफ्त वितरण के प्रयोग आजमाए जा चुके हैं। इस तरह की समझदारी अब नई नहीं रही, बात इससे आगे निकल चुकी है। कंडोम का बचावकारी मिथ अब टूट रहा है, उन पुरुषों के लिए जिनके लिए कभी भी यह स्वेच्छा का चुनाव नहीं रहा। हारे को हरिनाम और डरते को चलाना पड़े कंडोम से काम। हाल तक की स्थितियां यही थीं। पर अब बदल रहा है सब कुछ।
पिछले एक दशक में 'देह' को हर लिहाज से 'संदेहमुक्त' कराने की पराक्रमी कोशिशें हुई हैं। वैसे न तो ये कोशिशें नई हैं और न ही इनके पीछे की  मंशा। फर्क है तो बस उस व्यग्रता और तेजी में जो इन डरे-सहमे और छिपे उपक्रमों को आज खुलेआम धार चढ़ा रहे हैं, रैशनल कसौटियों पर कस रहे हैं। कंडोम का झल्लीदार अवरोध सुरक्षा की चाहे जितनी अचूक गारंटी हो, पर इसे स्वीकार करने वाला पुरुष मन आज तक भारी रहा है। यह भारीपन तकरीबन वैसा ही है, जैसा नसबंदी से भागने वाली पुरुषवादी झेंप। पहली सूरत में ऐसा लगता है जैसा यौन मोर्चे पर पौरुष तेज को जानबूझकर निस्तेज किया जा रहा है जबकि दूसरी सूरत पौरुषपूर्ण पराक्रम को आत्मघाती तरीके से कमजोर करने की है। पर अब ये सारी दुविधाएं, सारी समस्याएं बीती बातें हो चुकी हैं। रियलिटी शोज के जमाने का रिलेशन भी रियल फील और थ्रिल से लबरेज है और इस फील को डंके की चोट पर मुहैया करा रही हैं आई-पील और अनवांटेड 72 जैसी रंग-बिरंगी गोलियां बनाने वाली कंपनियां।
प्रेम का महापर्व आनेवाला है। नई सदी में यह महापर्व अपना पहला दशक पहले ही पूरा कर चुका है। इस बार तो इसके विस्तार का नया चरण शुरू होगा। याद आती है 'डेबोनियर' की तर्ज पर हिंदी में प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका का पहला संपादकीय। संपादक महोदय ने ओशोवादी लहजे में प्रेम की देहमुक्ति की मांग पर आंखें तरेरी थीं। लिखा था- 'प्रेम वासना की कलात्मक अभिव्यक्ति है'। आज तो ऐसे तर्कों की दरकार भी नहीं। हिंदी के बौद्धिक जगत में तो ये बातें कई तरीके से कही जा चुकी हैं कि हर संबंध की असलियत बिस्तर पर खुलती है। संबंधों की यह यात्रा चाहे किसी भी रास्ते शुरू हो, उसकी परिणति एक है।
कह सकते हैं कि यह परिणति देह और प्रेम को एक सीध में ला खड़ा करती है और यह सिंपल फिनोमेना ग्लोबल है। लिहाजा अब प्रेम की न तो नसें बंद की जाएंगी और न ही किसी निरोध-अवरोध से इसके मचलते प्रवाह को बांधने की मजबूरी होगी। अब तो महिलाओं के पर्स में ही पुरुष की प्रेमी देह का सुरक्षा मंत्र भी होता है। अब तक पति या प्रेमी के दीर्घायु होने के लिए महिलाएं उपवास रखती थीं, अब उसके  प्रेमाखेटन के लिए वह गोलियों का सेवन करती हैं, अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ की जोखिम भरी शर्त पर।
भूले न हों अगर आप तो याद करें मल्लिका सेहरावत की पहली हाहाकारी फिल्म 'ख्वाहिश'। कंडोम की डिब्बी दुकान से खरीदेने में लड़के की घिग्घी बंधती है और मल्लिका यही काम निस्संकोच तरीके से कर देती है, जिस पर सिनेमा हॉल के कुछ कोनों से तालियों भी उछलती है। नए दौर का वेलेंटाइन मार्का प्रेम अब इसी तरह की बेधड़की से परवान चढ़ेगा, जिसमें महिलाएं पुरुषों के सेफ खेलने के लिए इंतजाम अपने साथ रखेंगी और पुरुष लिंगवर्धक यंत्र और हाईपावर वियाग्रा डोज के सेवन से इस इंतजाम का भरपूर दोहन करेंगे। आखिर प्रेम के दैहिक भाष्य के दौर में संदेह की गुंजाइश है भी कहां? अगर किसी महिला के मन के कोने में संदेह है भी तो मान लीजिए कि न तो दफ्तर में बॉस उसे तरक्की देगा और न स्कूल-कॉलेज या पड़ोस का साथी उसे एकांत में मिलने के लिए प्रेमल मिस कॉल मारेगा।     

रविवार, 23 जनवरी 2011

पॉपुलर बदलाव


बत्ती बुझने के बाद भी
जल उठती है बत्ती
डूबने के बाद भी
तैरने लगती है कश्ती 
पसीने से लथपथ होकर भी
चूकती ना हारती
बस छा जाती है मस्ती
सदी अब उन्नीस नहीं
हो चुकी है इक्कीस   
बताने के बहाने भर नहीं
पॉपुलर बदलाव के इजहार भी हैं 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी


यह दौर युवाओं का है। यह बात ऐसे कही जाती है जैसे युवा पहली बार किसी दौर की अगुवाई कर रहे हैं याकि युवाओं की मौजूदगी को महसूस करना कोई आविष्कारिक घटना सरीखा है।  दरअसल, यह एक आशावादी दृष्टिकोण है भविष्य के प्रति। युवाओं के बहाने हम अपने भविष्य को बेहतर गढ़ना चाहते हैं, इसलिए ऐसा कहते हैं। वैसे कोई दौर उन तमाम लोगों का होता है, जो उस दौर के जीवनकाल को जीते हैं। यह अलग बात है कि नायकत्व की दावेदारी और अवधारणा दोनों ही समवेत की जगह भेड़िया और गड़ेरिया वाली समझ से बनती है। बहरहाल, ये बातें यहीं तक...आगे एक सीधा सवाल कि क्या हमारा दौर बुजुर्ग विरोधी है? क्या नई पीढ़ी का मानस इतना आधुनिक आैर विकसित हो गया है कि वह अपने जनकों की परवाह किए बगैर भविष्य का रास्ता तय करना चाहते हैं?
अगर हम ऐसे कुछ सवालों से दो-चार होना चाहें तो अपने समय की एक अनुदार और निराशाजनक स्थिति की पूरी बुनावट समझ में आएगी। शहरों से लेकर गांव तक बुजुर्गों के अकेले और निहत्थे पड़ते जाने की नियति घनी होती जा रही है। तकरीबन तीन साल पहले केंद्र सरकार का ध्यान इस ओर गया और उसे जरूरी लगा कि वह बच्चों को अपने मां-पिता के प्रति कानूनी तौर पर जवाबदेह बनाए। केंद्र  ने तब इस मुद्दे को लेकर जो पहल की वह आज भी पूरी तरह कारगर नहीं है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह राज्य सरकारों का गैरजिम्मेदार रवैया रहा। महज दस राज्यों में ही यह कानून पूरी तरह लागू हो पाया। पंजाब, हरियाणा, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में सबसे ज्यादा बुजुर्ग आबादी है। पर इन राज्यों ने बच्चों को अपने माता-पिता के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानून को अपने यहां लागू करने की जरूरत ही नहीं समझी। रही जहां तक केंद्र सरकार की बात तो वह केंद्र शासित राज्यों से भी अपनी बात मनवाने में नाकाम रही। नतीजतन तीन साल पुरानी पहल के अनापेक्षित हश्र के बाद केंद्र के स्तर पर भी अब बुजुर्गों की सुरक्षा को लेकर किसी नई पहल या एजेंडे को लेकर कोई चिंता, कोई बहस नहीं चल रही है।
आलम यह है कि 1999 के बाद से राष्ट्रीय बुजुर्ग नीति की न तो समीक्षा हुई और न ही नई नीति पेश करने को लेकर कोई अंतिम सूरत सामने है। गैरतलब है कि देश में दस करोड़ से ज्यादा बुजुर्गों को इस कानून के तहत संरक्षण दिए जाने का लक्ष्य था। अब जबकि बुजुर्गों के भरण-पोषण और कल्याण के लिए बना यह कानून अपने लक्ष्य और उद्देश्यों को कहीं से भी पूरा करता नहीं दिखता तो एक सवाल तो जरूर कचोटता है कि क्या हम सचमुच इतने असंवेदनशील और क्रूर समय को जी रहे हैं, जिनमें उम्र की लाचारी की तरफ न देखना हमारी आदत और खुदगर्ज जरूरत का हिस्सा बन गया है। 
वरिष्ठ नागरिकों के नाम पर बैंकों के जमा खाते में कुछ फीसद का ब्याज बढ़ा देने और रेल यात्रा टिकटों में कुछ रियायत देकर हमारी सरकारें बुजुर्गों के प्रति जो टोकन रूप में फर्ज निभा रही हैं, उसकी एक असलियत यह भी है कि देश में अपराधी तो अपराधी, अपने बच्चों तक से इन उम्रदराज लोगों को जीवन का सबसे ज्यादा खतरा है। परिवार की संयुक्त अवधारणा के विसर्जन ने जहां नौजवानों के लिए सुविधाजनक एकल परिवार की संकल्पना सामने रखी, वहीं एक उम्र के बाद समय और समाज के लिए गैरजरूरी बोझ बनने की खतरनाक नियति को भी रच दिया। अगर हम सचमुच एक जागरूक, जवाबदेह और संवेदनशील भविष्य की कामना करते हैं तो हमारी सरकारों के साथ समाज को भी बुजुर्गों के प्रति पूरी तरह ईमानदार और जवाबदेह होना पड़ेगा।

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

100 नंबर पर चर्मरोग


पांव से छिटककर दूर
जब बजने लगे पायल
तो उकताकर
सौ नंबर पर डॉयल

मनुहार का अत्याचारी सच
बयां करने वाली
पुलिस थाने में
धूल खा रही फाइल
चर्मरोग का
इलाज बताएं न बताएं
इस बीमारी के
गलगला गए यथार्थ को
मुहरबंद जरूर करती हैं

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

हेंताई : एनिमेटेड सेक्सुअल फैंटेसी



खबरिया चैनलों के सनसनी मार्का लहजे में कहें तो यह दुनिया कहने के लिए तो काल्पनिक है पर इसका नीला रंग उतना ही नीला या खतरनाक है जितना दिल्ली के पालिका बाजार में बिकने वाली किसी ब्लू फिल्म का। दरअसल हम बात कर रहे हैं 'हेंताई' की। हेंताई यानी बच्चों के लिए बनाए गए कामूक कार्टून किरदार या कथानक....