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सोमवार, 28 जुलाई 2014

तुम सीटी बजाना छोड़ दो


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ा है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीðजग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल’ कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे।
इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधताã आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।’ 1951 में आई फिल्म 'अलबेला’ में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ तो आज भी सुनने को मिल जाता है।
मॉरल पुलिसिग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टेक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।

सोमवार, 21 जुलाई 2014

कश्मीरी आशा और बिग बी


कश्मीर का मुद्दा एक बार फिर गरमाया है। याद आता है तकरीबन तीन साल पहले का एक वाकया। अपने महानायक तब इंग्लैंड के दौरे पर थे। ऑक्सफोर्ड की लाइब्रेरी में मैग्ना कार्टा चार्टर देखकर अमिताभ बच्चन जब अभिभूत होते हैं तो अखबारों, टीवी चैनलों के लिए यह न छोड़ी जा सकने वाली खबर थी। यह स्थिति तकरीबन वैसी ही है कि पूरब में खड़े होकर कोई पश्चिम को सूर्य का घर माने और उसकी लाली से अपनी चेतना और इतिहास बोध को रंग ले।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र की उन जड़ों की जिसकी डालियों पर झूला डालने वाले परिदे आपको आज पूरी दुनिया में मिल जाएंगे। पर लोकतंत्र महज एक शासनतंत्र नहीं, एक जीवनशैली और मानवीय इच्छाशक्ति भी है। अगर यह बोध और सोच किसी को भावनात्मक अतिरेक लगे तो उसे भारत के पांच लाख से ज्यादा गांवों के सांस्कृतिक गणतंत्र की परंपरा से परिचित होना चाहिए। परंपरा का यह प्रवाह आज जरूर पहले की तरह सजल नहीं रहा, पर है वह आज भी कायम अपने जीवन से भरे बहाव के साथ।
अमिताभ बच्चन जब आधुनिक विश्व में लोकतंत्र के ऐतिहासिक उद्भव की गाथा को देख-सुनकर गदगद हो रहे थे, उसी समय देश के कुछ सूबों में पंचायत के चुनाव हो रहे थे। इन सूबों में जम्मू कश्मीर भी शामिल था। यह एक बड़ा अनुष्ठान था। लेकिन तब विधानसभा चुनावों, भ्रष्टाचार के खिलाफ अदालती कार्रवाई और नागरिक समाज की मांगों और आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन के खात्मे के शोरगुल में इसकी तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। अलबत्ता स्थानीय लोगों की दिलचस्पी जरूर इसमें बनी रही।
दिलचस्प तो यह रहा कि अशांत घाटी में इन चुनावों का औपचारिक निर्वाह ही जहां बड़ी कामयाबी ठहराई जा सकती थी, वहां अस्सी फीसद तक मतदान हुए। यही नहीं बिहार जैसे सूबे में जहां पंचायत की परंपरा को ऐतिहासिक मान्यता हासिल है, वहां भी ये चुनाव तब संगीनों के साए में होने के बावजूद खून के छीटों से बचे नहीं रहे थे। जबकि जम्मू-कश्मीर में ये चुनाव तकरीबन शांतिपूर्ण संपन्न हुए थे।
दरअसल, पंचायत के बहाने इस चुनाव में घाटी के लोगों ने न सिर्फ लोकतांत्रिक सरोकारों की अपनी मिट्टी को एक बार फिर से तर किया बल्कि दुनिया के आगे यह साफ भी किया था कि उनका जीवन, उनका समाज, उनकी संस्कृति उतनी उलझी या बंटी हुई नहीं है, जितनी बताई या समझाई जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कहीं से मुमकिन नहीं था कि कश्मीरी पंडित परिवार की एक महिला उस गांव से पंच चुनी जाती, जो पूरी तरह मुस्लिम बहुल है। यहां विख्यात पर्यटन स्थल गुलमर्ग जाने के रास्ते में एक छोटा सा गांव है- वुसान।
आशा इसी गांव से पंच चुनी गई थी जबकि यहां से इस पद के लिए मैदान में उतरी वह अकेली कश्मीरी पंडित महिला थी। इस सफलता को आपवादिक या कमतर ठहराने वालों के लिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी से 199० के करीब दो लाख कश्मीरी पंडित परिवारों को पलायन करना पड़ा था। दुर्भाग्यपूणã है कि देश में संसदीय परंपरा के धुरर्Þ बिखेर देने वाली खबरें तो मीडिया की आंखों की चमक बढ़ा देती हैं पर इन परंपराओं की जमीन तर करने वाली खबरों पर हम गौर नहीं फरमाते।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

मां, ममता और दहकता इराक


इराक फिर से त्रासद हिसा की जद में है। इस बार हिसा का लंपट यथार्थ ज्यादा खतरनाक इसलिए भी है कि उसकी जड़ें बाहर कम इराक में ज्यादा हैं। एक देश और उसके साथ वहां के लोगों की बार-बार बर्बर हिसा से मुठभेड़ आधुनिक संवेदना से जुड़े सरोकारों को अंदर तक झकझोर देता है।
याद आता है वह दौर जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, इराक को जंग के मैदान में सद्दाम हुसैन समेत अंतिम तौर पर रौंदने के लिए उतावले थे। अखबार के दफ्तर में रात से खबरें आने लगीं कि अमेरिका बमबारी के साथ इराक पर हमला बोलने जा रहा है। इराक से संवाददाता ने खबर भेजी कि वहां के प्रसूति गृहों में मांएं अपने बच्चों को छोड़कर भाग रही हैं।
खबर की कॉपी अंग्रेजी में थी, लिहाजा आखिरी समय में बिना पूरी खबर पढ़े उसके अनुवाद में जुट जाने का अखबारी दबाव था। अनुवाद करते समय जेहन में लगातार यही सवाल उठ रहा था कि ममता क्या इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि वह युद्ध जैसी आपद स्थिति में बच्चों की छोड़ सिर्फ अपनी फिक्र करने की खुदगर्जी पर उतर आए।
पूरी खबर से गुजरकर यह अहसास हुआ कि यह तो ममता की पराकाष्ठा थी। प्रसूति गृहों में समय से पहले अपने बच्चों को जन्म देने की होड़ मची थी। जिन महिलाओं की डिलीवरी हो चुकी थी, वह अपने बच्चों को छोड़कर जल्द से जल्द घर पहुंचने की हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें अपने दूसरे बच्चों और घर के बाकी सदस्यों की फिक्र खाए जा रही थी। वे अस्पताल में नवजात शिशुओं को छोड़ने के फैसले इसलिए नहीं कर रही थीं कि उनके आंचल का दूध सूख गया था। असल में युद्ध या बमबारी की स्थिति में कम से कम वह अपने नवजातों को नहीं खोना चाहती थीं। उन्हें भरोसा था कि अमेरिका इराक के खिलाफ जब हमला बोलेगा तो कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर मानेगा कि वह अस्पतालों और स्कूलों को बख्श दे।
युद्ध छिड़ने से पहले प्रीमैच्योर डिलीवरी का महिलाओं का फैसला भी इसलिए था कि बम धमाकों के बीच कहीं गर्भपात जैसे खतरों का सामना उन्हें न करना पड़े। सचमुच मातृत्व संवेदना की परीक्षा की यह चरम स्थिति थी जिससे गुजरते हुए इराकी महिलाएं मानवता का सर्वथा भावपूर्ण सर्ग रच रही थीं।
आज जब फिर इराक में धमाके हो रहे हैं, लोगों की जानें जा रही हैं, सड़कें और पुल उड़ाए जा रहे हैं, तो इराक युद्ध के पुराने अनुभव आंखों में सजल हो जाते हैं। इस साल हम पहले विश्व युद्ध से एक सदी आगे निकल गए हैं। पर संवेदना और करुणा के मामले में हमारा 'ग्लोबल उछाल’ कितना पिछड़ा है, कहने की जरूरत नहीं। जीवन और समाज के प्रति सोच ने आज एक बर्बर कार्रवाई की शक्ल ले ली है और इसकी सबसे ज्यादा शिकार हैं महिलाएं।
आधी दुनिया ने अपने हक और सुरक्षा के लिए पिछले कुछ सालों में अपनी आवाजें जरूर तेज की हैं। इसके लिए एक तरह की गोलबंदी भी हर तरफ नजर आती है। लेकिन महिलाओं को देखने-समझने और उनके साथ सलूक की लीक इतनी हिसक और बर्बर हो चुकी है कि उस पर खुलकर और पारदर्शी तरीके से बात करने का साहस हममें बचा ही नहीं है। पर वार और ग्लोबल ग्रोथ के साझे के दौर का यह महिला विरोधी यथार्थ हमें बार-बार सामने से आईना दिखाएगा।