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शनिवार, 20 नवंबर 2010

39 मिनट की स्माइल


कला और संवेदना के संबंध को लेकर बहस पुरानी है। संवेदना से कला के उत्कर्ष का तर्क तो समझ में आता है पर कलात्मक चौध के लिए संवेदना का इस्तेमाल सचमुच बहुत खतरनाक है। दिलचस्प है कि नए समय में इस खतरे से खेलकर कइयों ने खूब शोहरत बटोरी। ’स्माइल पिंकी‘ की पिंकी की परेशानी और मुफलिसी की खबर ने एक बार फिर कला और संवेदना के रिश्ते को लेकर बहस को आंच दी है। 
उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर की पिंकी की असली जिंदगी पर बनी डाक्यूमेंटरी को जब ऑस्कर मिला तो उसे हाथोंहाथ लेने वालों की कमी न थी। सरकार से लेकर सिनेमा और फैशन जगत में सब जगह पिंकी के नाम की धूम थी। सारा तमाशा बिल्कुल वैसा ही था, जैसा ऑस्कर अवार्ड समारोह में धूम मचा देने वाली फिल्म ’स्लमडॉग मिलेनियर‘ के बाल कलाकारों रुबीना और अजहरुद्दीन को लेकर हर तरफ देखने को मिला था। पर थोड़े समय बाद ही खबर आने लगी कि पिंकी बीमार है और रुबीना और अजहरुद्दीन फिर अपनी उस अंधेरी जिंदगी में पहुंच गए है। हां, बीच-बीच में कई चैरिटी कार्यक्रमों में इनके नाम पर भीड़ और पैसे जरूर बटोरे गए। जहां तक पिंकी की मामला है, वह उन कई हजार बच्चों में से एक थी, जिसके होठ कटे थे और इस कारण सामाजिक तिरस्कार झेल रही थी। एक स्वयंसेवी संस्था ने उसका इलाज कराया और उसकी जिंदगी बदल गई। डाक्यूमेंटरी में यही दिखाया गया है। पर 39 मिनट की रील में किसी की जिंदगी को ’रियली‘ बदल जाने की करामाती संवेदना कितनी ऊपरी और झूठी निकली, इसका अंदाजा आज की पिंकी की परेशानियां देख लग सकता है। पिंकी के पिता राजेंद्र सोनकर मुफलिसी के बावजूद उसकी तालीम पूरी कराना चाहते है पर उन्हें भी नहीं मालूम कि वह अपनी बेटी के प्रति फर्ज कैसे निभा पाएंगे।
पिंकी की मदद के लिए न आज वह स्वयंसेवी संस्था कहीं दिखती है जिसने उसकी ’स्माइल‘ की सर्जिकल कहानी दुनिया के आगे परोस वाह-वाही लूटी और न शासन जिसने अपने समारोहों में बुला उसे सम्मानित किया और उसके बेहतर भविष्य के लिए सार्वजनिक तौर पर वचनबद्धता दोहराई। आज जिंदगी और दुनिया की चुभती सचाइयों का नंगे पैर सामना कर रही पिंकी मुस्कान (स्माइल) से ज्यादा उस त्रासद कथा का जीवंत पात्र लगती है, जहां खिलने की आस में एक-एककर सपने कुम्हलाने लगते है। एक पहल तो यही होनी चाहिए कि कला की श्रेष्ठता के साथ उसकी नैतिकता का भी ठोस पैमाना तय हो, ताकि किसी की मजबूरी या संवेदना से खिलवाड़ न हो। कला और फिल्म की संभ्रांत दुनिया को कम से कम इतना उदार तो होना ही चाहिए कि उन्हें पीड़ा और संवेदना के चित्र ही आकषर्क न लगें, उनमें इन जिंदगियों में झांकने की दिलेरी भी हो। ताकि किसी पिंकी, किसी रुबीना की जिंदगी पर्दे या कैनवस पर ही नहीं, असल में भी बदले।    

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपका ब्लागा www.widgeo.net के किसी विजेट के चलते ठीक से खुल नहीं पा रहा है...

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  2. एक गरीब की मुफलिसी की बात करे तो उसकी पहचान से लेकर उसकी हर बात ही उसकी मुफलिसी है. पिंकी की दिक्कत सिर्फ उसके कटे होठ नहीं थे, मगर उसके साथ उसकी गरीबी एक बड़ी दिक्कत थी. कटे होठ की बिमारी गरीबों में ही होती है ये बात नहीं है, हाँ मगर, उस फिल्मकार ने अपनी कला के लिए इस पिंकी को ही चुना. शायद, अपनी कला के लिए एक और एंगल लाने के लिए उसने ऐसा किया होगा मगर फिर भी, उसकी एकमात्र मंशा कटे होंठ की एक मात्र दिक्कत को दिखने की ही थी, जो उसने बखूबी की. ऐसे में अगर उसे इन जिंदगियों में न झाँकने का दोषी ठहराया जाता है तो मुझे ये गलत लगता है.

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  3. हाँ डॉक्टर साहेब... एक गरीब की गरीबी न हुई कैमरे का लेंस हो गया... जो चाहे जिस एंगल से देखे...कभी सत्यजित रे को भी ये ताना सुनना पड़ा था कि वो भारत के गरीबी को बिकाऊ बना रहे हैं...पिंकी की जगह यह ऑपरेशन सोनिया गाँधी की बेटी का होता तो ब्रेकिंग न्यूज़ तब भी बनता पर तब शायद ऑस्कर की बात नही होती...पिंकी का मजाक जितना उसके कटे होठ के कारण नही उड़ा उससे ज्यादा आज उड़ रहा है... आज उसके साथ कोई नही...न संस्था..न डॉक्टर...न फिल्म का प्रोडूसर...सब का काम निकल चुका है...

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