आचार्य रामचंद्र शुक्ल से लेकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र तक सबने अपने-अपने तरह से इस स्थापना को ही दोहराया है कि भारत को लोक, आस्था और परंपरा की परस्परता को समझे बगैर संभव नहीं नहीं है। इस परस्परता ने भारतीय जीवन और समाज को कई मिथकीय विलक्षणता से भरा है। इसके उलट जो मौजूदा वैश्विक दौर है, वह परंपरा विरोधी तो है ही। लोक और परंपरा की लीक भी नई सीख के आगे गैरजरूरी ही है। इस दौर में शामिल तो हम भी हैं पर लोक, परंपरा और आस्था की त्रियक आज भी हमारे दिलोदिमाग को घेरती है। उससे भी दिलचस्प यह कि आधुनिकता और परंपरा के टकराव के कुछ स्वयंभू व्याख्याकारों की तूती आज खूब बोल रही है। समाज पर इनका दबाव हो, न हो पर इस कथित दबाव का प्रभाव कई बार सरकारी निर्णयों पर भी पड़ता है।
अमेरिकी पेय उत्पाद बनाने वाली कंपनी बर्नसाइड ब्रीविंग ने काली मां के नाम से बीयर बाजार में उतारने से पहले यही सोचा होगा कि भारतीय मिथकीय आस्था और उसके प्रति दिलचस्पी रखने वाले वैश्विक समाज में उनका उत्पाद हाथोंहाथ लिया जाएगा। और अगर कोई विरोध होगा भी तो प्रतिप्रचार का लाभ उनके पेय उत्पाद को मिलेगा। इसे ही कहते हैं समर्थन से भी ज्यादा कारगर विरोध का बाजार। आपकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों का ही लाभार्थी एक ही है।
बहरहाल, इस बीयर के बाजार में आने से पहले ही भारतीय संसद में इसके विरोध में फूटे स्वर ने कंपनी को यह कहने को मजबूर कर दिया कि वह अब अपने उत्पाद को नए नाम से बाजार में उतारेगी। यहां मामला महज आस्था का नहीं है। क्योंकि यह आस्था इतनी ही महत्वपूर्ण होती तो फिर इसका जन प्रकटीकरण भी जरूर सामने आता।
अमेरिका में गणेश, शिव और लक्ष्मी के चित्रों के अभद्र इस्तेमाल की सनक हम पहले भी दिख चुके हैं। यह वही सनक है जो क्रांतिकारी चे ग्वेरा के जीवन मूल्यों को नकारते हुए भी उनके प्रतीकों को बिकाऊ मानकर संभाले चलती है। पर इसका क्या कहेंगे कि हमारे अपने देश में भी ऐसा होता है और तब प्रतिक्रियावादियों का गुस्सा नहीं फूटता।
इस साल का ही मामला है कि पटना में वैश्विक बिहार सम्मेलन में ब्रिटीश अपर हाउस के सदस्य लॉर्ड करन बिलमोरिया यह कह गए कि आज उन्हें अगर गांधीजी भी मिल जाएं तो उनका स्वागत वे अपनी कोबरा ब्रांड बीयर से करना चाहेंगे। बताना जरूरी है कि बिलमोरिया न सिर्फ एक उद्योगपति हैं बल्कि दुनियाभर में वह बीयर किंग के रूप में जाने जाते हैं। साफ है कि मूल्य और चेतना के सरोकारों पर जब अर्थ और विकास की दरकार हावी होगी तो इस तरह के नैतिक अवमूल्यन को रोकना मुश्किल होगा। हमारी प्रतिक्रिया और आपत्ति तब तक ईमानदार नहीं ठहराई जा सकती जब तक हम जीवन, समाज और राष्ट्र को लेकर एक सुस्पष्ट मू्ल्यबोध की जरूरत को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होते हैं।
अमेरिकी पेय उत्पाद बनाने वाली कंपनी बर्नसाइड ब्रीविंग ने काली मां के नाम से बीयर बाजार में उतारने से पहले यही सोचा होगा कि भारतीय मिथकीय आस्था और उसके प्रति दिलचस्पी रखने वाले वैश्विक समाज में उनका उत्पाद हाथोंहाथ लिया जाएगा। और अगर कोई विरोध होगा भी तो प्रतिप्रचार का लाभ उनके पेय उत्पाद को मिलेगा। इसे ही कहते हैं समर्थन से भी ज्यादा कारगर विरोध का बाजार। आपकी क्रिया और प्रतिक्रिया दोनों का ही लाभार्थी एक ही है।
बहरहाल, इस बीयर के बाजार में आने से पहले ही भारतीय संसद में इसके विरोध में फूटे स्वर ने कंपनी को यह कहने को मजबूर कर दिया कि वह अब अपने उत्पाद को नए नाम से बाजार में उतारेगी। यहां मामला महज आस्था का नहीं है। क्योंकि यह आस्था इतनी ही महत्वपूर्ण होती तो फिर इसका जन प्रकटीकरण भी जरूर सामने आता।
अमेरिका में गणेश, शिव और लक्ष्मी के चित्रों के अभद्र इस्तेमाल की सनक हम पहले भी दिख चुके हैं। यह वही सनक है जो क्रांतिकारी चे ग्वेरा के जीवन मूल्यों को नकारते हुए भी उनके प्रतीकों को बिकाऊ मानकर संभाले चलती है। पर इसका क्या कहेंगे कि हमारे अपने देश में भी ऐसा होता है और तब प्रतिक्रियावादियों का गुस्सा नहीं फूटता।
इस साल का ही मामला है कि पटना में वैश्विक बिहार सम्मेलन में ब्रिटीश अपर हाउस के सदस्य लॉर्ड करन बिलमोरिया यह कह गए कि आज उन्हें अगर गांधीजी भी मिल जाएं तो उनका स्वागत वे अपनी कोबरा ब्रांड बीयर से करना चाहेंगे। बताना जरूरी है कि बिलमोरिया न सिर्फ एक उद्योगपति हैं बल्कि दुनियाभर में वह बीयर किंग के रूप में जाने जाते हैं। साफ है कि मूल्य और चेतना के सरोकारों पर जब अर्थ और विकास की दरकार हावी होगी तो इस तरह के नैतिक अवमूल्यन को रोकना मुश्किल होगा। हमारी प्रतिक्रिया और आपत्ति तब तक ईमानदार नहीं ठहराई जा सकती जब तक हम जीवन, समाज और राष्ट्र को लेकर एक सुस्पष्ट मू्ल्यबोध की जरूरत को स्वीकार करने के लिए तत्पर नहीं होते हैं।