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शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

दिल्ली : संवेदना की खिल्ली


वह दौर गया जब कवि ग्रामवासिनी भारत के गीत गाते नहीं अघाते और छात्र इसी विषय पर साल दर साल सुलेख का अभ्यास करते थे। शहरों की रेशमी लकदक पर फिकरे कसकर जमीन से जुड़े होने का दावा करने वाले रैडिकल एक्टिविस्ट तो खैर आज भी मिल जाएंगे, पर उनके लिए यह बात सोच से ज्यादा कुशल अभिव्यक्ति के चालाक पैतरे भर हैं। जीवन और समाज के बीच से तमाम कोमलताओं का हरण कर जिस तरह रातोंरात गांवों के सीने पर विकास की सेज (एसइजेड) बिछाई जा रही है, वह हमारी आधुनिकता को जिस अंदाज में परिभाषित करती है, उसके खतरे हम समझें न समझें, रोज ब रोज उस खतरे को उठा जरूर रहे हैं।   
इसे आर्थिक समझ का मुगालता कहें न कहें एक अव्वल दर्जे की आत्मघाती बेवकूफी तो जरूर कहेंगे कि उन्नति और विकास के लिए शहरीकरण को लक्ष्य और लक्षण दोनों स्वीकार करने वाले सिद्धांतकार सरकार के भीतर और बाहर दोनों जगह हैं। और यह स्थिति सिर्फ अपने यहां है ऐसा भी नहीं। पूरी दुनिया को खुले आर्थिक तंत्र की एक छतरी में देखने की ग्लोबल होड़ के बाद कमोबेश यही समझ हर देश और दिशा में बनी है।
2010 के नवम्बर महीने के आखिरी दिन दो ऐसी खबरें आयीं जिसने शहरी समाज और व्यवस्था के बीच से लगातार छिजती जा रही संवेदनशीलता के सवाल को एक बार फिर उभार दिया। 50 साल के घायल रामभोर ने एंबुलेंस में ही इसलिए दम तोड़ दिया क्योंकि देश की राजधानी के बड़े-छोटे किसी अस्पताल के पास न तो उसकी इलाज के लिए जरूरी उपकरण थे और न ही वह रहमदिली कि उसे कम से कम उसके हाल पर न छोड़ा जाए। विडंबना ही है कि हेल्थ हेल्पलाइन से लेकर किसी को भूखे न सोने की गारंटी देने वाली देश की राजधानी में एक गरीब और मजबूर की जान की कीमत कुछ भी नहीं।
शहर के अस्पतालों में मरीजों के साथ होने वाले सलूक का सच इससे पहले भी कई बार सामने आ चुका है। जो निजी पांच सितारा अस्पताल अपनी अद्वितीय सेवा धर्म का ढिंढोरा पीटती हैं, वहां तो गरीबों के लिए खैर कोई गुंजाइश ही नहीं है। रही सरकारी अस्पतालों की बात तो आए दिन अपनी पगार और भत्ते बढ़ाने के लिए हड़ताल पर बैठने वाले डॉक्टरों की तरफ से कम से कम कभी कोई मांग मरीजों की उचित देखरेख के लिए तो नहीं ही उठाई गई। उनकी इसी मानसिकता को लेकर एक समकालीन कवि ने डॉक्टरों को पेशेवर रहमदिल इंसान तक कहा। यह अलग बात है कि नई घटना में तो वे ढ़ंग से पेशेवर भी नहीं साबित हुए।
दूसरी घटना मेट्रो स्टेशन की है। जिसमें  ऊपरी तौर पर घटित तो कुछ भी नहीं हुआ, हां अंतर्घटना के रूप में देखें-समझें तो रोंगटे जरूर खड़े हो जाते हैं। अपनों से अलग-थलग पड़ चुकी कानपुर से दिल्ली आई एक महिला राजधानी के एक मेट्रो स्टेशन पर इस फिक्र में घंटों बैठी रही कि वह कहां जाए और  किससे मदद की गुहार लगाए। उसकी स्थिति देखकर कोई भी उसकी लाचारी को पढ़ सकता था पर उससे कुछ ही कदम की दूरी पर बैठे सुरक्षा जवानों के लिए शहर में आए दिन दिखने वाला यह एक आम माजरा था। दिलचस्प है कि यह संवेदनहीनता उस शहर के पुलिस और सुरक्षा जवानों की है जिसको लेकर यहां की सरकार अमन-चैन के वादे करती है। गनीमत है कि किसी अपराधी तत्व की निगाह उस महिला पर नहीं पड़ी नहीं तो हालिया गैंगरेप मामले में छीछालेदर करा चुकी पुलिस के लिए मुंह छिपाने की एक आैर बड़ी वजह लोगों की चर्चा का विषय होता।
दरअसल, कभी एशियाड तो कभी कॉमनवेल्थ के नाम पर जिस दिल्ली को सजाया-चमकाया जाता है, उसकी फितरत रेड लाइट इलाके में देर रात तक गुलजार किसी कोठे की तरह हो गई है। जहां रोशनी महज इसलिए नहीं कि हालात रौशन हैं, बल्कि इसलिए हैं कि गरम गोश्त के शौकीनों का जीभ अब भी लपलपा रहा है। पानी पर अपने काम के लिए जाने वाले अनुपम मिश्र कई बार कहते हैं कि दिल्ली आज भले सत्ता और अमीरों का शहर बन गया है। पहले इस शहर के पास अपनी तहजीब और जीवन को लेकर एक टिकाऊ परंपरा और संवेदनशील व्यवस्था थी। विकास की ग्लोबल आंधी में परंपरा के ये सारे निशान लगातार मिटते चले गए। बदले में जो गढ़ा और रटाया जा रहा है, वह है बाजार के चरम भोग का परम मंत्र। अब इस मंत्र पर आहुति देने वालों की निगाहें अगर हिंसक और नाखूनें भूखी हैं तो इसमें कोई क्या करे। अपना ही लिखा शेर जेहन में आ रहा है-
जिन जंगलों को लगाया था हमने,
उन्हीं जंगलों में भटक भी रहे हैं ।
सजाया था घर को दीवारो दर को,
सजावट यही अब खटक भी रहे हैं।  

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत जरुरी आलेख हमारी आँखें खोलने में सक्षम, हम कब जागेंगे
    पहली बार आपके व्लाग पर आया और पढने की मिली सार्थक पोस्ट , बधाई

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