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रविवार, 31 जुलाई 2016

इरोम शर्मिला का संघर्ष और अफ्सपा कानून

-प्रेम प्रकाश 
मणिपुर में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) के खिलाफ 16 सालों से अनशन पर बैठीं इरोम शर्मिला ने अब अपना इरादा बदल लिया है। वह नौ अगस्त को अपना अनशन तोड़कर चुनावी राजनीति में उतरेंगी। व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए व्यवस्था का हिस्सा बनना जरूरी है, इरोम डेढ़ दशक लंबे अपने संघर्ष के बाद इसी नतीजे पर पहुंची हैं। बहरहाल, उनके अनशन तोड़ने के फैसले ने अफ्सपा को लेकर बहस को एक बार फिर से सतह पर ला दिया है। यह भी संयोग ही है कि इरोम ने ऐसे समय अपना अनशन तोड़ने का फैसला किया है जब मणिपुर तो नहीं पर देश के सबसे अशांत कहे जाने वाले सूबे जम्मू कश्मीर से अफ्सपा हटाने के संकेत स्तर पर संकेत मिल रहे हैं। 
जम्मू-कश्मीर में अफ्सपा 199० में लागू किया गया था। वहां आतंक और अलगाव की दहक वहां नए सिरे से महसूस की जा रही है। कश्मीर दौरे पर पहुंचे गृहमंत्री राजनाथ सिह से मुलाकात के बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का यह कहना कि अफस्पा कानून को धीरे-धीरे खत्म करने की जरूरत है, इस बात की तरफ साफ इशारा है अब केंद्र सरकार भी इस दिशा में आगे बढ़ने को लेकर राजी है। गृहमंत्री ने कहा भी कि हम कश्मीर के साथ मजबूरी का नहीं बल्कि भावनात्मक रिश्ता विकसित करना चाहते हैं। 
पिछली यूपीए सरकार ने वार्ताकारों के एक समूह को जम्मू कश्मीर भेजा था। इस समूह ने वहां विभिन्न समूहों और तबकों से घाटी के हालात और उसके समाधान को लेकर बात की थी। वार्ताकारों के समूह का भी यह मानना रहा कि अफ्सपा को लेकर वहां के लोगों के मन में काफी असंतोष है। यहां तक कि परस्पर विरोधी दल होने के बावजूद पीडीपी और नेशनल कांफ्रेस इस बात पर शुरू से एकमत रहे हैं कि इस अतिवादी सैन्य कानून के खिलाफ लोगों के गुस्से के कारण प्रतिक्रियावादी और अलगाववादी तत्वों को कश्मीक घाटी में अपना आधार मजबूत करने में मदद मिल रही है। इसी माह की आठ जुलाई को अफ्सपा को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और न्यायमूर्ति आरके अग्रवाल की खंडपीठ ने संविधान के अनुच्छेद 32 का उपयोग करते हुए व्यवस्था दी कि सुरक्षाकर्मी अत्यधिक अथवा प्रतिशोध की भावना से ताकत का इस्तेमाल नहीं कर सकते। अनुच्छेद 32 संविधान में वर्णित मौलिक अधिकारों से संबंधित है। इसके तहत हर भारतीय नागरिक को अपने बुनियादी अधिाकारों की रक्षा के लिए न्यायपालिका की पनाह लेने का मूल अधिकार मिला हुआ है। साफ है कि सुप्रीम कोर्ट भी इस कानून की आड़ में मनमाने सैन्य कार्रवाई के खिलाफ है। 
इस समय देश में अफस्पा कानून जम्मू कश्मीर, असम, मणिपुर, नगालैंड एवं अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों में लागू है। मुख्य रूप से संविधान के अनुच्छेद 355 में ही इस कानून के बने रहने का औचित्य मिलता है। इस अनुच्छेद में केंद्र को सभी राज्यों को आतंरिक गड़बड़ियों से बचाने की जिम्मेदारी है। जाहिर है कि जब जिम्मेदारी है तो अधिकार भी चाहिए। नतीजतन सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) कानून 1958 में 1972 में एक संशोधन कर केंद्र सरकार को भी किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के पूरे या किसी भी भाग को अशांत क्षेत्र घोषित करने का अधिकार मिल गया। पहले सिर्फ राज्यों को ही किसी क्षेत्र को अशांत घोषित करने का हक था। 
चूंकि अफ्सपा सिर्फ अशांत क्षेत्र में ही लगाया जा सकता है। इसलिए सरकार के साथ नागरिकों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने स्थान और परिवेश में शांति और सहअस्तित्व की स्थिति बहाल रखने के प्रति हमेशा तत्पर और जागरूक रहें। मसलन, पंजाब में 1983 में सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून लगाया गया था। आतंकवाद के खिलाफ वहां सरकार एवं आम जनता ने लंबी लड़ाई लड़ी। जब पंजाब के लोगों ने यह तय किया कि वहां शांति बहाल हो तो स्थितियां तेजी से बदलीं। आखिरकार 1997 में वहां से यह कानून वापस लिया गया।
इसी तरह स्वच्छ तथा भ्रष्टाचार रहित प्रशासन के सामने उग्रवाद कैसे पराजित होता है, हाल में ही त्रिपुरा ने इसका उदाहरण देश के सामने रखा है। 27 मई 2०15 को राज्य से अफ्सपा हटा लिया गया। वहां की जनता के साथ मुख्यमंत्री माणिक सरकार को इस बात का साझा श्रेय जाता है कि वे इस बात को लेकर जागरूक और तत्पर हुए कि शांति व्यवस्था उनके लिए एक सामान्य और स्वाभाविक स्थिति हो, न कि थोपी हुई। पिछले लोकसभा चुनाव में त्रिपुरा में 84 फीसदी मतदान हुआ, जो इस बात का प्रमाण है कि लोग वहां निर्भीक रूप से देश की लोकतांत्रिक मुख्यधारा में रहने के हिमायती हैं और अलगाववादी शक्तियों को अपने हित के खिलाफ मानते हैं। 
इस सिलसिले में मणिपुर की भी चर्चा जरूरी है। वहां इरोम शर्मिला इस कानून को हटाने की मांग को लेकर 2००० से उपवास पर बैठी हैं। पर उन्हें अब नहीं लगता कि उनके इस विरोध के तरीके से मणिपुर को इस कानून से आजादी मिलेगी । एक सचाई यह भी है कि इरोम का प्रभाव वहां सक्रिय अलगाववादियों समूहों पर नहीं है और सरकार भी इस दिशा में कोई कारगर पहल नहीं कर पा रही है, इसलिए हालात जस के तस हैं। वहां सैन्य मनमानी की शिकायतों के बाद 2०13 में सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जांच के लिए पूर्व जज संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में एक समिति बनाई। समिति ने जेढ़ हजार से ज्यादा शिकायतों में से 62 मामलों में फर्जी मुठभेड़ की पुष्टि की थी।
दरअसल, अशांत करार दिए क्षेत्रोें में हालात को काबू करने के लिए सेना को उतारना आज एक आम प्रचलन है। सेना के आगे मजबूरी है कि वह बगैर विशेषाधिकार के नागरिक क्षेत्रों में कोई बड़ी और कारगर कारवाई नहीं कर सकती। इसलिए बेहतर हो कि अफस्पा को सैन्य अतिवाद से जोड़कर देखने के बजाय कानून व्यवस्था की स्थिति बहाल करने में सरकार और नागरिक प्रशासन की नाकामी के तौर पर देखा जाए। इस लिहाज से देखें तो बड़ा सवाल यह है कि देश में लोकतंंत्र सरकार और समाज के साझ विवेक से चलेगा या सेना के खौफ से। आपातकाल के दंश को याद कर आज भी कराह उठने वाले देश में सरकार के साथ यह समाज की भी जिम्मेजारी है कि वह अपने बीच किसी तरह के सैन्य हस्तक्षेप को हर लिहाज से गैरजरूरी साबित करे। यही लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों के हित में भी है। वैसे भी एक ऐसे दौर में जब नागरिक स्वतंत्रता की तार्किक हिमायत के लिए उठने वाली आवाजें ज्यादा मुखर हैं, आप शांति व्यवस्था को खतरे के नाम पर किसी कानूनी अतिवाद की छतरी को लंबे समय तक ताने नहीं रह सकते हैं।
चौहत्तर आंदोलन के दिनों में जयप्रकाश नारायण ने कई मौकों पर पुलिस और सेना को देशहित में आंदोलन के साथ आने की अपील की थी। उनकी इस अपील के कारण उन्हें अराजक तक ठहराया गया। पर उनका साफ मत था कि सेना-पुलिस और नागरिकों को आमने-सामने खड़ी कर देने वाली स्थितियां एक तरफ जहां सरकार की असफलता है, वहीं यह लोकतांत्रिक व्यवस्था के भी खिलाफ है। आज जबकि सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफ्सपा) को जम्मू कश्मीर जैसे अशांत सूबे से हटाने को लेकर गंभीर मंथन चल रहा है तो जेपी की तब कही गईं बातें ज्यादा समझ में आती हैं।