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सोमवार, 19 अक्टूबर 2015

रामलीला 2015

बीते साल में दिल्ली में दो नई सरकारें आईं, एक केंद्र की तो दूसरी दिल्ली प्रदेश की। दोनों सरकारों ने बदलाव के बड़े-बड़े दावे किए। इन दावों की राजनीतिक व्याख्या और समीक्षा तो खैर मीडिया में हर दिन चल रही है पर सांस्कृतिक स्तर पर इसे देखें-समझें तो समय और समाज का ऐसा चित्र सामने आएगा, जिस पर हम कम से कम सीधे-सीधे तो नाज नहीं कर सकते। जाहिर है कि ये अफसोस से भर देनेवाला परिदृश्य है।
दिल्ली में कांग्रेस के बड़े नेता जेपी अग्रवाल को यह गंवारा नहीं था कि वे जिस रामलीला कमेटी के प्रमुख थे, वह कमेटी अपने आयोजन में प्रधानमंत्री को बुलाए। बस क्या था, उन्होंने रामलीला कमेटी को ही राम-राम कह दिया। दिल्ली की ही एक दूसरी घटना में रामलीला देखने गई दो साल की बच्ची के साथ बदमाशों ने दुष्कर्म किया। बात देश की राजधानी की चल ही रही है तो साथ में यह जोड़ते चलें कि इस बार चमक-दमक और ग्लैमर ने रामलीला का एक तरह उत्तर-आधुनिक कल्प ही रच दिया। टीवी कलाकार रामकथा के पात्र बनकर मंच पर उतरे तो मोनिका बेदी से लेकर बार डांसरों तक ने रामलीला के मंच पर ठुमके लगाए।

पुरस्कार वापसी की लीला

रामलीला की चर्चा से पूर्व यह प्रसंग इसलिए कि हमें उस देशकाल को समझने का अंदाजा हो जाता है कि जिसमें आस्था का निर्वाह और उसके साथ खिलवाड़ दोनों ही एक बराबर हैं। कमाल की बात है कि इस बीच, देशभर के कथित तौर पर प्रगतिशील खेमे के साहित्यकारों के बीच साहित्य अकादमी और पद्म पुरस्कारों को लौटाने की होड़ मची है। और यह सब हो रहा है दादरी कांड के बहाने असहिष्णुता और सांप्रदायिकता के नाम पर। सांस्कृतिक स्फीति की चिंता यहां उस तरह नहीं है, जिस तरह की चिंता कम से कम कला और साहित्य के क्षेत्र के लोगों के बीच होनी चाहिए।
वैसे यह पूरा न तो आखिरी है और न ही अंतिम। क्योंकि यही और महज इतना ही सच नहीं है। वैसे भी महज दिल्ली-मुंबई को देखकर इस देश के सांस्कृतिक चरित्र पर कोई अंतिम राय नहीं बनाई जा सकती। लोक, आस्था और परंपराओं को हृदय से लगाकर रखने वाला हमारा देश विशिष्ट और महान इसलिए है कि यहां नए और पुराने के बीच अलगाव नहीं बल्कि एक समन्वयीय रेखा हमेशा से खींचती रही है। यह रेखा ही बहुलता और विविधता के इस देश को एकरंगता या एकरसता से नहीं भरने देती।
अमेरिका के विदेश मंत्री जॉन कैरी को नहीं लगता कि भारत में कोई सर्वधमã समभाव की स्थिति है। वे भारत में धर्म विशेष को लेकर भय की स्थिति की भी बात करते हैं। ये सारी बातें अमेरिका ही नहीं, देश के भीतर भी कही-सुनी जा रही हैं, खासतौर पर हाल के दादरी कांड के बाद। पर सांप्रदायिकता के नाम पर होने वाली राजनीति और अतिरेक से भरी बयानबाजी का ही असर है कि इस बार मीडिया ने कई ऐसी खबरें/स्टोरीज कीं, जिसमें देश-समाज का पारंपरिक सद्भाव बिना किसी अतिरिक्त कोशिश के आज भी कायम है। यूपी के सहारनपुर से लेकर बिहार के बक्सर तक सद्भाव के अनेकानेक उदाहरण देखने को मिलते हैं, जो सांस्कृतिक तौर पर खासे जीवंत और प्रेरक हैं।
दिलचस्प है कि यह सद्भाव सबसे ज्यादा रामलीला खेलने के मौके पर दिखाई देते हैं। कहीं लीला मंच पर सारे कलाकार मुस्लिम समुदाय के हैं, तो कहीं लीला आयोजन को नियामकीय स्तर पर संभालने वालों में गैरहिंदू समुदाय के लोग हैं। यह अलग बात है कि भारतीय संस्कृति की इस आंतरिक बलिष्ठता-श्रेष्ठता को न तो सियासी जमातें अपने लिए फलदायी पाती हैं और न ही संस्कृति के अलंबरदारों ने इस दिशा में अपनी तरफ से कुछ सोचा-किया।
बहरहाल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो सकता है।

रामनगर की लीला

 बनारस के रामनगर में पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है।
'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।

परंपरा ही हावी

लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर
रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है।

हर बोली-संस्कृति में राम

तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानो सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। रामकथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपराएं हैं। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

पनघट-पनघट पूरबिया बरत


पानी पर तैरते किरणों का दूर जाना
और तड़के ठेकुआ खाने रथ के साथ दौड़ पड़ना
भक्ति का सबसे बड़ा रोमांटिक यथार्थ है
आलते के पांव नाची भावना
ईमेल के दौर में ईश्वर से संवाद है

मुट्ठी में अच्छत लेकर मंत्र तुम भी फूंक दो
पश्चिम में डूबे सूरज की पूरब में कुंडी खोल दो...


दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।'
वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर उतरने वाली जनता ने अपने लिए जो उम्मीद जुटाई, सियासी आकाओं ने उस उम्मीद को सफेद से स्याह करने में अपनी पूरी ताकत झांक दी। फिर सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में जिस दुनिया में रौनक और  चहल-पहल ज्यादा बढ़ी है  उसके 'विकसित हठ' और 'पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस' और 'लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है ।
हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वैश्विक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं।

पनघट-पनघट पूरबिया बरत
बहुत दूर तक दे गयी आहट

शहरों ने तलाशी नदी अपनी
तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी
गाया रहीम ने फिर दोहा अपना
ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...


बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, 'लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है।
कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

रामलीला 450 पर नॉटआउट


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। तैयारी तो यहाँ तक है कि रावण का वध इस बार राम अन्ना की टोपी पहन कर करेंगे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है।
राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। 'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो  ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी  और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस,  इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।       

सोमवार, 22 अगस्त 2011

हांडी में अनशन और देह दर्शन

 कृष्ण जन्माष्टमी का हर्षोल्लास इस बार भी बीते बरसों की तरह ही दिखा। मंदिरों-पांडालों में कृष्ण जन्मोत्सव की भव्य तैयारियां और दही-हांडी फोड़ने को लेकर होने वाले आयोजनों की गिनती और बढ़ गई। मीडिया में भी जन्माष्टमी का क्रेज लगता बढ़ता जा रहा है। पर्व और परंपरा के मेल को निभाने या मनाने से ज्यादा उसे देखने-दिखाने की होड़ हर जगह दिखी। जब होड़ तगड़ी हो तो उसमें शामिल होने वालों की ललक कैसे छलकती है, वह इस बार खास तौर पर दिखा। दिलचस्प है कि कृष्ण मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं बल्कि लीला पुरुषोत्तम हैं, उनकी यह लोक छवि अब तक कवियों-कलाकारों को उनके आख्यान गढ़ने में मदद करती रही है। अब यही छूट बाजार उठा रहा है।      
हमारे लोकपर्व अब हमारे कितने रहे, उस पर हमारी परंपराओं का रंग कितना चढ़ा या बचा हुआ है और इन सब के साथ उसके संपूर्ण आयोजन का लोक तर्क किस तरह बदल रहा है, ये सवाल चरम भोग के दौर में भले बड़े न जान पड़ें पर हैं ये बहुत जरूरी। मेरे एक सोशल एक्टिविस्ट साथी अंशु ने ईमेल के जरिए सूचना दी कि उन्हें  कृष्णाष्टमी पर नए तरह की ई-ग्रीटिंग मिली। उन्हें किसी रिती देसाई का मेल मिला। मेल में जन्माष्टमी की शुभकामनाएं हैं और साथ में है उसकी एस्कार्ट कंपनी का विज्ञापन, जिसमें एक खास रकम के बदले दिल्ली, मुंबई और गुजरात में कार्लगर्ल की मनमाफिक सेवाएं मुहैया कराने का वादा किया गया है। मेल के साथ मोबाइल नंबर भी है वेब एड्रेस भी। मित्र को जितना मेल ने हैरान नहीं किया उससे ज्यादा देहधंधा के इस हाईटेक खेल के तरीके ने परेशान किया।
लगे हाथ जन्माष्टमी पर इस साल दिखी एक और छटा का जिक्र। एक तरफ जहां गोविंदाओं की टोलियों ने अन्ना मार्का टोपी पहनकर भ्रष्टाचार की हांडी फोड़ी। अन्ना का अनशन दिल्ली के रामलीला मैदान में जनक्रांति का जो त्योहारी-मेला संस्करण दिखा वह मुंबई तक पहुंचते-पहुंचते प्रोटेस्ट का फैशनेबल ब्रांड बन गया। यही नहीं बार बालाओं से एलानिया मुक्ति पा चुकी मायानगरी मुंबई से पिछले साल की तरह इस बार भी खबर आई कि चौक-चारौहों पर होने वाले दही-हांडी उत्सव अब पब्स और क्लब्स तक पहुंच चुके हैं। देह का भक्ति दर्शन एक पारंपरिक उत्सव को जिस तरह अपने रंग में रंगता जा रहा है, वह हाल के सालों में गरबा के बाद यह दूसरा बड़ा मामला है, जब किसी लोकोत्सव पर बाजार ने मनचाहे तरीके से डोरे डाले हैं। ऐसा भला हो भी क्यों नहीं क्योंकि आज भक्ति का बाजार सबसे बड़ा है और इसी के साथ डैने फैला रहा है भक्तिमय मस्ती का सुरूर। मामला मस्ती का हो और देह प्रसंग न खुले ऐसा तो संभव ही नहीं है।   
बात कृष्णाष्टमी की चली है तो यह जान लेना जरूरी है कि देश में अब तक कई शोध हो चुके हैं जो कृष्ण के साथ राधा और गोपियों की संगति की पड़ताल करते हैं। महाभारत में न तो गोपियां हैं और न राधा। इन दोनों का प्रादुर्भाव भक्तिकाल के बाद रीतिकाल में हुआ। रवींद्र जैन की मशहूर पंक्तियां हैं- 'सुना है न कोई थी राधिका/ कृष्ण की कल्पना राधिका बन गई/ ऐसी प्रीत निभाई इन प्रेमी दिलों ने/ प्रेमियों के लिए भूमिका बन गई।' दरअसल राम और कृष्ण लोक आस्था के सबसे बड़े आलंबन हैं। पर राम के साथ माधुर्य और प्रेम की बजाय आदर्श और मर्यादा का साहचर्य ज्यादा स्वाभाविक दिखता है। इसके लिए गुंजाइश कृष्ण में ज्यादा है। वे हैं भी लीलाधारी, जितना लीक पर उतना ही लीक से उतरे हुए भी। सो कवियों-कलाकारों ने उनके व्यक्तित्व के इस लोच का भरसक फायदा उठाया। लोक इच्छा भी कहीं न कहीं ऐसी ही थी।
नतीजतन किस्से-कहानियों और ललित पदों के साथ तस्वीरों की ऐसी अनंत परंपरा शुरू हुई, जिसमें राधा-कृष्ण के साथ के न जाने कितने सम्मोहक रूप रच डाले गए। आज जबकि प्रेम की चर्चा बगैर देह प्रसंग के पूरी ही नहीं होती तो यह कैसे संभव है कि प्रेम के सबसे बड़े लोकनायक का जन्मोत्सव 'बोल्ड' न हो। इसलिए भाई अंशु की चिंता हो या मीडिया में जन्माष्टमी के बोल्ड होते चलन पर दिखावे का शोर-शराबा। इतना तो समझ ही लेना होगा  कि भक्ति अगर सनसनाए नहीं और प्रेम मस्ती न दे, तो सेक्स और सेंसेक्स के दौर में इनका टिक पाना नामुमकिन है।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

डबल मीनिंग वाली होली


मि बुरा न मानो होली है। मस्ती की इस टेर पर होली की मस्ती ने जाने कितनी चुहल और कितनी शरारतों ने मन से अंगराइयां भरी हैं। मस्ती के इतने सारे रंगों को किसी एक रंग में रंगा दिखना हो तो भारत के महान लोकपर्व होली की परंपरा का अवगाहन कोई भी कर सकता है। होली संबंधों से लेकर स्वादिष्ट पकवानों तक अनेक रूपों और अर्थों में हमारी लोक परंपरा का हिस्सा रहा है। पर पिछले कुछ सालों-दशकों में होली बदरंग हुआ है। इस लोकपर्व की सबसे बड़ी थाती उसके गीत रहे हैं, जो आज भी तकरीबन सभी लोक और शास्त्रीय घरानों की पहचान में शुमार है।
दुर्भाग्य से होली के ये पारंपरिक गीत आधुनिक बयार में या तो बदल रहे हैं या फिर अपने को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। नतीजतन जिन होली गीतों में स्त्री-पुरुष और पारिवारिक संबंधों को लेकर मर्यादित विनोद और हंसी-ठिठोली के रंगारंग आयोजन होते थे, वहां सतहीपन और अश्लीलता इतना बढ़ी है कि अर्थ की पिचकारी की जगह द्विअर्थी तीर सीधे कानों को बेधते हैं। दिल्ली की एक संस्था ने कुछ साल पहले कुछ ऐसे भाषाई कैसेटों-एलबमों का अध्ययन किया था, जिनकी बिक्री बाजार में लोकगीत-संगीत के नाम पर होती है। इनके कवर पर छपी तस्वीरों और  टाइटल से कोई सहज ही इनके स्तर और कांटेंट का पता कर सकता है।
लोक के विलोप का खतरा बाजार के दौर में बढ़ा तो जरूर है पर इसका निपटना इतना आसान भी नहीं है। लिहाजा लोक छटा को बाजार अपनी तश्तरी में सजाकर मन-माफिक तरीके से बेच रहा है। लिहाजा लोक की विरासत कायम तो जरूर है पर यह इतनी विषाक्त जरूर हो जा रही है कि लोकगंगा के लिए अलग से सफाई अभियान की दरकार है।
पिछले साल रिलीज एक होली एलबम की बानगी देखिए- "का करता है तू सब रे। इ रंग लगा लगा रहा है कि लैकी के गाल पर पीडब्ल्यूडी का रोलर चला रहा है।' इस देशज डॉयलाग के बाद शुरू होता है होली गीत। गीत के बोल ऐसे जैसे लड़की को रंग लगाने का नहीं बल्कि सीधे बिस्तर पर आने का आमंत्रण दिया जा रहा हो। वैसे यह तो कम है, कई गीत तो अपनी मंशा से ज्यादा अपनी शब्दावली में ही इतने भोंडे होते हैं कि आप उन पर कोई चर्चा तक नहीं कर सकते। लोक गायिका मालिनी अवस्थी मानती हैं कि इन फूहड़ गीतों का बाजार लगातार बढ़ रहा है। श्रोता और दर्शक थोड़े कम दोषी इसलिए हैं क्योंकि उनके पास चुनाव अब अच्छे-बुरे के बीच रहा ही नहीं। लिहाजा, कान उन कंपनियों का ऐंठना चाहिए जो होली के रंग-बिरंगे आयोजन को बदरंग कर रहे हैं। निशाने पर लोक परंपरा तो है ही, उनसे ज्यादा महिलाएं हैं। क्योंकि सबसे ज्यादा फब्तियां और ओछी हरकतें उन्हें ही सहनी-उठानी पड़ती हैं। अगर यह लगाम  जल्द ही कसी नहीं गई तो इस महान लोकपर्व को महिला विरोधी करार दिए जाने का खतरा है।

सोमवार, 8 नवंबर 2010

छठ : भइया लोगों का बड़का पर्व



दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, "अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।' वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं कई जगहों पर इस विरोध के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया। इसके बाद रही-सही कसर कमर तोड़ती महंगाई ने पूरी कर दी है। ओबामा आैर सेंसेक्स के कारण जिस दुनिया में हाल के दिनों में चहल-पहल बढ़ी है, उसके "वकसित हठ' आैर "पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को "लोकरस' और "लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्राांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है । हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वै·िाक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिाटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिाटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार आैर उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल रुाोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में आैर मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, "लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है।  और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधवि·ाास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है। कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रकने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।