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शनिवार, 14 अप्रैल 2018

बापू तो रहे याद भूल गए बा को!

- प्रेम प्रकाश


बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी

दो अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को लेकर सरकार और समाज दोनों उत्साहित हैं। खासतौर पर पीएम मोदी ने बापू की150वीं जयंती को राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के लक्ष्य के साथ जोड़कर इसे 2014 से ही चर्चा में ला दिया है। पर यह देश और सरकार दोनों भूल यह गई कि अगले वर्ष बापू के साथ बापू की भी 150वीं जयंती है। यही नहीं, कस्तूरबा (11 अप्रैल 1869 - 22 फरवरी 1942) चूंकि गांधी से 6 माह बड़ी थीं, इसलिए बा की जयंती दो अक्टूबर से पहले 11 अप्रैल को ही मनाई जाएगी।

कस्तूरबा और गांधी आधुनिक विश्व में दांपत्य की सबसे सफल मिसाल हैं। बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। तारीखी अनुभव के तौर पर भी देखें तो बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने न सिर्फ हर कदम पर अपने पति का साथ दिया, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का फैसला किया। यहां तक गांंधी के अहिंसक संघर्ष की राह में वे गांदी से पहले जेल भी गईं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी। उन्होंने नई तालीम को लेकर गांधी के प्रयोग को सबसे पहले अमल में लाई।

इसी तरह चरखा और स्वच्छता को लेकर गांधी के प्रयोग को मॉडल की शक्ल देने वाली कोई और नहीं, बल्कि कस्तूरबा ही थीं। इसको लेकर कई प्रसंगों की चर्चा खुद गांधी ने भी की है। कहना हो तो कह सकते हैं कि शिक्षा, अनुशासन और स्वास्थ्य से जुड़े गांधी के कई बुनियादी सबक के साथ स्वाधीनता संघर्ष तक कस्तूरबा का जीवन रचनात्मक दृढ़ता की बड़ी मिसाल है।

धन्यवाद के पात्र हैं गांधी की लीक पर चले रहे वे कुछ सर्वोदयी, जिन्होंने बा और बापू की प्रेरणा को साझी विरासत के तौर पर जिंदा रखा। इस मौके पर ‘बा-बापू 150’ के नाम से जहां गांधी के इन अनुयायियों ने देशव्यापी यात्रा काफी पहले शुरू कर दी है, वहीं इस अभियान के तहत कुछ और कार्यक्रम भी हो रहे हैं। पर जहां तक रही सरकार और समाज की मुख्यधारा की बात तो शायद उनकी स्मृति से बा की विदायी हो चुकी है। 

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

दलित मुद्दे पर भाजपा का इनकाउंटर

- प्रेम प्रकाश





एस-एसटी एक्ट को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पैदा हुआ असंतोष अब पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है

जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।   

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

पोस्ट ट्रुथ के दौर में बिहार का ट्रुथ

- प्रेम प्रकाश



कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?


इन दिनों देश के कई सूबों में सांप्रदायिक तनाव की आंच इतनी तेज है कि पर्व-त्योहारों का शायद ही कोई ऐसा मौका बीतता है, जब समाज के दो समुदायों के बीच हिंसा की खबरें न आती हों। खासतौर पर बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में आए दिन ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो सीधे-सीधे कुछ सियासी दलों द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिक उकसावे वाले कृत्य हैं। इस सांप्रदायिक झुलस का शिकार केरल और कर्नाटक जैसा राज्य भी है। केरल में विधानसभा चुनाव तो खैर 2021 में होने हैं पर कर्नाटक में मई में ही चुनाव होने हैं। कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?
पिछले दिनों बिहार में भागलपुर में हिंदू नववर्ष पर निकले जुलूस के दौरान दो गुटों के बीच हिंसक भिड़ंत हो गई। देखते-देखते इस भिड़ंत ने हिंसक सांप्रदायिक टकराव की शक्ल ले ली। इसके बाद जब रामनवमी का त्योहार आया तो यह टकराव न सिर्फ और ज्यादा भड़का बल्कि इसके नाम पर खुलकर सियासी रोटियां सेंकी जाने लगी। रामनवमी पर हिंसा और आगजनी की खबरें बिहार से लगे पश्चिम बंगाल से भी आईं। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब भी इन दोनों सूबों में शांति और सौहार्द की स्थिति बहाल होना सरकार और समाज के आगे एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। जो हालात अभी बिहार और पश्चिम बंगाल में हैं, वो स्थितियां समय-समय पर देश के बाकी सूबों में भी पैदा होती रहती हैं। आलम यह है कि गूगल सर्च इंजन के न्यूज सेक्शन में मात्र ‘रामनवमी’ शब्द लिखने पर जो पांच लाख से ज्यादा वेब पन्ने खुलते हैं, उसमें सबसे ज्यादा खबरें हिंसा, आगजनी और भड़काने वाले बयानों को लेकर हैं।
भारतीय समाज और राजनीति की सांस्कृतिक स्फीति का यह सच निस्संदेह काफी भयावह है। यकीन नहीं होता कि यह उस देश की सच्चाई है जिसने स्वाधीनता के लिए संघर्ष से पहले सांस्कृतिक पुनर्जागरण को अपने लिए जरूरी माना। आज इस पुनर्जागरण से दूर भारत एक बार फिर उस सांप्रदायिक झुलस की तरफ बढ़ता जा रहा है, जिसका शिकार वह 1947-48 के दौर में हुआ था। तब गनीमत यह थी कि अगर देश में एक तरफ सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाली बर्बर प्रवृतियां थीं, तो वहीं दूसरी तरफ समाज और राजनीति की मुख्यधारा सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय को बहाल रखने के लिए हर लिहाज से प्रतिबद्ध थी। दुर्भाग्य से प्रतिबद्धता का यह चरित्र आज सियासी जमातों में तो नहीं ही दिखता है, राजनीतिक दुष्प्रभावों से सामाजिक चरित्र भी लगातार हिंसक और अराजक होता जा रहा है। यह स्थिति आगे अगर इसी तरह ढलाव की तरफ खिसकती गई तो आगे भारतीय समाज और संस्कृति का वह चारित्रिक साझा बहाल रख पाना मुश्किल होगा, जिसमें एक तरफ बहुलतावादी छटा दिखती है, तो वहीं दूसरी तरफ समावेशी गुण भी।
हिंदी साहित्य के सर्वाधिक मान्य इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य, संस्कृति और समाज के साझे को समझने के लिए ‘लोक’ और ‘परंपरा’ के रूप में दो सूत्र दिए हैं। भारत की बहुलतावादी संस्कृति में जब हम समन्वय के तत्वों की खोज करते हैं तो ये दो पद हमारी सबसे ज्यादा मदद करते हैं। इतिहास में बहुत पीछे न जाते हुए जब हम स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रकट हुई राष्ट्रीय एकता का संदर्भ देखते हैं तो हमें सबसे पहले लोकमान्य तिलक याद आते हैं। दिलचस्प है कि देश जब 20वीं सदी के मुहाने पर खड़ा था, तो तिलक जैसे राष्ट्रवादियों की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारतीय जनमानस को कैसे राष्ट्रीयता और स्वाधीनता के सवाल पर एकजुट किया जाए। इसके लिए उन्होंने लोक और परंपरा की गोद में पगी भारतीय सांस्कृतिक चेतना को आधार बनाया और गणेशोत्सव को एक सार्वजनिक लोक उत्सव का रूप दिया। तिलक यह बात तब सोच रहे थे जबकि 1893 में पुणे और बंबई में दंगे हुए थे। यहां तक कि कांग्रेस का भी उदारवादी कहा जाने वाला एक बड़ा धरा इस मुद्दे पर तिलक के साथ नहीं था। दरअसल, तिलक भारतीय जनमानस के उस बोध को कहीं न कहीं समझ चुके थे कि समाज और राष्ट्र के व्यापक सवालों पर लोगों को तब तक एकजुट नहीं किया जा सकता, जब तक इसकी सांस्कृतिक प्रेरणा व्यापक तौर पर नहीं जगेगी।
कहना मुश्किल है कि एक ऐसे दौर में जब ‘सत्य’ भी इस तरह ‘विकृत’ हो गया है कि उसे मौलिक रूप में पहचानना मुश्किल है, तिलक जैसा विवेक भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन का सकर्मक हिस्सा कैसे बनेगा। ग्लोबल दौर में इस सवाल की तह भी कहीं न कहीं ग्लोबल है और इसे गहराई से समझने की जरूरत है। 16 नवम्बर, 2016 को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की तरफ से यह घोषणा की गई कि ‘पोस्ट ट्रुथ’ साल का सबसे चर्चित शब्द रहा है। यह शब्द और संदर्भ वही है, जिसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकृति के तौर पर बात हम पहले कर चुके हैं। गौरतलब है कि 1992 में सर्बियन-अमेरिकन नाटककार स्टीव तेसिच ने एक निबंध लिखा। इस निबंध में ‘पोस्ट ट्रुथ’ शब्द का उपयोग पहली बार यह दर्शाने के लिए किया गया कि ‘सच अब उतना प्रासंगिक नहीं रहा।’ भारत से लेकर अमेरिका तक आज जिस तरह का उद्दंड राष्ट्रवाद और अपनी कथित सांस्कृतिक अस्मिता को बनाए-बचाए रखने के नाम पर जिस तरह की उपद्रवी युक्तियां सियासी जमातों द्वारा अपनाई जा रही हैं, उसे देखकर यह चिंता कंठ तक पहुंच जाती है कि सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज होने की होड़ में समाज और संस्कृति का मंगलकारी योग कहीं लंबे समय के लिए तिरोहित न हो जाए। क्योंकि जनमत के लिए अगर वाकई वस्तुगत तथ्यों पर अराजक धार्मिक-सांस्कृतिक अपील हावी हो जाए, तो शांति और विवेक की धीरपूर्ण बातें अनसुनी ही रह जाएंगी। भारत से लेकर यूरोप और अमेरिका तक इस तरह की परिस्थिति को ही जानकार ‘पोस्ट ट्रुथ’बता रहे हैं। भारतीय संदर्भ में इसे राजनीति के सूर्य के लगातार दक्षिणायन होते जाने के घटनाक्रम के तौर पर भी देख सकते हैं। धार्मिक अंहकार और विस्तार को जिस तरह राष्ट्रवादी दोशाला ओढ़ाया जा रहा है, उससे देश में बीते कुछ सालों में विग्रहवादी विमर्श और अराजक मानसिकता को बल मिला है। यह विमर्श और यह मानसिकता अगर इसी तरह सिर उठाती रहीं तो आगे भी हमें इस स्थिति के लिए तैयार होना पड़ेगा कि कभी गाय के नाम पर, कभी धर्म परिवर्तन के नाम पर, कभी पर्व-त्योहारों के नाम पर, कभी बहुसंख्यक अस्मिता के नाम पर तो कभी एक जैसे खानपान और पहनावे के नाम पर हमारे आसपास का माहौल लगातार गरमाता रहेगा। इस गरमाहट को शांत करने की फिक्र अगर जल्द ही एक राष्ट्रीय दरकार और चेतना की शक्ल नहीं लेती है तो भारतीय समाज और लोकतंत्र की मौलिक शिनाख्त और उसकी समन्वयवादी विलक्षणता की रक्षा मुश्किल होगी। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता राजनीति के ऊपर समाज का नैतिक अनुशासन कायम करने की है। क्योंकि न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में कहीं भी जब-जब राजनीति और सत्ता की हांक पर सामाजिक चरित्र गढ़ा गया है, इंसानियत शर्मसार हुई है। लिहाजा, भविष्य में उम्मीद की कोई किरण फूटेगी तो वो समाज के बीच से फूटेगी, न कि राजनीतिक गलियारों से।