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सोमवार, 2 अप्रैल 2018

पोस्ट ट्रुथ के दौर में बिहार का ट्रुथ

- प्रेम प्रकाश



कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?


इन दिनों देश के कई सूबों में सांप्रदायिक तनाव की आंच इतनी तेज है कि पर्व-त्योहारों का शायद ही कोई ऐसा मौका बीतता है, जब समाज के दो समुदायों के बीच हिंसा की खबरें न आती हों। खासतौर पर बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में आए दिन ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो सीधे-सीधे कुछ सियासी दलों द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिक उकसावे वाले कृत्य हैं। इस सांप्रदायिक झुलस का शिकार केरल और कर्नाटक जैसा राज्य भी है। केरल में विधानसभा चुनाव तो खैर 2021 में होने हैं पर कर्नाटक में मई में ही चुनाव होने हैं। कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?
पिछले दिनों बिहार में भागलपुर में हिंदू नववर्ष पर निकले जुलूस के दौरान दो गुटों के बीच हिंसक भिड़ंत हो गई। देखते-देखते इस भिड़ंत ने हिंसक सांप्रदायिक टकराव की शक्ल ले ली। इसके बाद जब रामनवमी का त्योहार आया तो यह टकराव न सिर्फ और ज्यादा भड़का बल्कि इसके नाम पर खुलकर सियासी रोटियां सेंकी जाने लगी। रामनवमी पर हिंसा और आगजनी की खबरें बिहार से लगे पश्चिम बंगाल से भी आईं। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब भी इन दोनों सूबों में शांति और सौहार्द की स्थिति बहाल होना सरकार और समाज के आगे एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। जो हालात अभी बिहार और पश्चिम बंगाल में हैं, वो स्थितियां समय-समय पर देश के बाकी सूबों में भी पैदा होती रहती हैं। आलम यह है कि गूगल सर्च इंजन के न्यूज सेक्शन में मात्र ‘रामनवमी’ शब्द लिखने पर जो पांच लाख से ज्यादा वेब पन्ने खुलते हैं, उसमें सबसे ज्यादा खबरें हिंसा, आगजनी और भड़काने वाले बयानों को लेकर हैं।
भारतीय समाज और राजनीति की सांस्कृतिक स्फीति का यह सच निस्संदेह काफी भयावह है। यकीन नहीं होता कि यह उस देश की सच्चाई है जिसने स्वाधीनता के लिए संघर्ष से पहले सांस्कृतिक पुनर्जागरण को अपने लिए जरूरी माना। आज इस पुनर्जागरण से दूर भारत एक बार फिर उस सांप्रदायिक झुलस की तरफ बढ़ता जा रहा है, जिसका शिकार वह 1947-48 के दौर में हुआ था। तब गनीमत यह थी कि अगर देश में एक तरफ सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाली बर्बर प्रवृतियां थीं, तो वहीं दूसरी तरफ समाज और राजनीति की मुख्यधारा सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय को बहाल रखने के लिए हर लिहाज से प्रतिबद्ध थी। दुर्भाग्य से प्रतिबद्धता का यह चरित्र आज सियासी जमातों में तो नहीं ही दिखता है, राजनीतिक दुष्प्रभावों से सामाजिक चरित्र भी लगातार हिंसक और अराजक होता जा रहा है। यह स्थिति आगे अगर इसी तरह ढलाव की तरफ खिसकती गई तो आगे भारतीय समाज और संस्कृति का वह चारित्रिक साझा बहाल रख पाना मुश्किल होगा, जिसमें एक तरफ बहुलतावादी छटा दिखती है, तो वहीं दूसरी तरफ समावेशी गुण भी।
हिंदी साहित्य के सर्वाधिक मान्य इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य, संस्कृति और समाज के साझे को समझने के लिए ‘लोक’ और ‘परंपरा’ के रूप में दो सूत्र दिए हैं। भारत की बहुलतावादी संस्कृति में जब हम समन्वय के तत्वों की खोज करते हैं तो ये दो पद हमारी सबसे ज्यादा मदद करते हैं। इतिहास में बहुत पीछे न जाते हुए जब हम स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रकट हुई राष्ट्रीय एकता का संदर्भ देखते हैं तो हमें सबसे पहले लोकमान्य तिलक याद आते हैं। दिलचस्प है कि देश जब 20वीं सदी के मुहाने पर खड़ा था, तो तिलक जैसे राष्ट्रवादियों की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारतीय जनमानस को कैसे राष्ट्रीयता और स्वाधीनता के सवाल पर एकजुट किया जाए। इसके लिए उन्होंने लोक और परंपरा की गोद में पगी भारतीय सांस्कृतिक चेतना को आधार बनाया और गणेशोत्सव को एक सार्वजनिक लोक उत्सव का रूप दिया। तिलक यह बात तब सोच रहे थे जबकि 1893 में पुणे और बंबई में दंगे हुए थे। यहां तक कि कांग्रेस का भी उदारवादी कहा जाने वाला एक बड़ा धरा इस मुद्दे पर तिलक के साथ नहीं था। दरअसल, तिलक भारतीय जनमानस के उस बोध को कहीं न कहीं समझ चुके थे कि समाज और राष्ट्र के व्यापक सवालों पर लोगों को तब तक एकजुट नहीं किया जा सकता, जब तक इसकी सांस्कृतिक प्रेरणा व्यापक तौर पर नहीं जगेगी।
कहना मुश्किल है कि एक ऐसे दौर में जब ‘सत्य’ भी इस तरह ‘विकृत’ हो गया है कि उसे मौलिक रूप में पहचानना मुश्किल है, तिलक जैसा विवेक भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन का सकर्मक हिस्सा कैसे बनेगा। ग्लोबल दौर में इस सवाल की तह भी कहीं न कहीं ग्लोबल है और इसे गहराई से समझने की जरूरत है। 16 नवम्बर, 2016 को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की तरफ से यह घोषणा की गई कि ‘पोस्ट ट्रुथ’ साल का सबसे चर्चित शब्द रहा है। यह शब्द और संदर्भ वही है, जिसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकृति के तौर पर बात हम पहले कर चुके हैं। गौरतलब है कि 1992 में सर्बियन-अमेरिकन नाटककार स्टीव तेसिच ने एक निबंध लिखा। इस निबंध में ‘पोस्ट ट्रुथ’ शब्द का उपयोग पहली बार यह दर्शाने के लिए किया गया कि ‘सच अब उतना प्रासंगिक नहीं रहा।’ भारत से लेकर अमेरिका तक आज जिस तरह का उद्दंड राष्ट्रवाद और अपनी कथित सांस्कृतिक अस्मिता को बनाए-बचाए रखने के नाम पर जिस तरह की उपद्रवी युक्तियां सियासी जमातों द्वारा अपनाई जा रही हैं, उसे देखकर यह चिंता कंठ तक पहुंच जाती है कि सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज होने की होड़ में समाज और संस्कृति का मंगलकारी योग कहीं लंबे समय के लिए तिरोहित न हो जाए। क्योंकि जनमत के लिए अगर वाकई वस्तुगत तथ्यों पर अराजक धार्मिक-सांस्कृतिक अपील हावी हो जाए, तो शांति और विवेक की धीरपूर्ण बातें अनसुनी ही रह जाएंगी। भारत से लेकर यूरोप और अमेरिका तक इस तरह की परिस्थिति को ही जानकार ‘पोस्ट ट्रुथ’बता रहे हैं। भारतीय संदर्भ में इसे राजनीति के सूर्य के लगातार दक्षिणायन होते जाने के घटनाक्रम के तौर पर भी देख सकते हैं। धार्मिक अंहकार और विस्तार को जिस तरह राष्ट्रवादी दोशाला ओढ़ाया जा रहा है, उससे देश में बीते कुछ सालों में विग्रहवादी विमर्श और अराजक मानसिकता को बल मिला है। यह विमर्श और यह मानसिकता अगर इसी तरह सिर उठाती रहीं तो आगे भी हमें इस स्थिति के लिए तैयार होना पड़ेगा कि कभी गाय के नाम पर, कभी धर्म परिवर्तन के नाम पर, कभी पर्व-त्योहारों के नाम पर, कभी बहुसंख्यक अस्मिता के नाम पर तो कभी एक जैसे खानपान और पहनावे के नाम पर हमारे आसपास का माहौल लगातार गरमाता रहेगा। इस गरमाहट को शांत करने की फिक्र अगर जल्द ही एक राष्ट्रीय दरकार और चेतना की शक्ल नहीं लेती है तो भारतीय समाज और लोकतंत्र की मौलिक शिनाख्त और उसकी समन्वयवादी विलक्षणता की रक्षा मुश्किल होगी। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता राजनीति के ऊपर समाज का नैतिक अनुशासन कायम करने की है। क्योंकि न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में कहीं भी जब-जब राजनीति और सत्ता की हांक पर सामाजिक चरित्र गढ़ा गया है, इंसानियत शर्मसार हुई है। लिहाजा, भविष्य में उम्मीद की कोई किरण फूटेगी तो वो समाज के बीच से फूटेगी, न कि राजनीतिक गलियारों से।

बुधवार, 19 मार्च 2014

लोकतंत्र में बिहार पहले से विशेष राज्य


सरदार वल्लभ भाई पटेल जब देसी रियासतों का विलय भारत राज्य में कराने में लगे थे तो उन दिनों वह एक महत्वपूर्ण बात अकसर कहा करते थे। वह कहते थे कि देश के विभिन्न प्रांतों-क्षेत्रों, वर्गों-भाषा-भाषियों को भारत राज्य से जोड़ना इसलिए जरूरी है कि इससे ही भारतीयता की शिनाख्त पूरी होगी। ऐसा कहते हुए वे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की इस विलक्षणता को रेखांकित करना नहीं भूलते थे कि देश अगर स्वतंत्र है तो इसलिए कि इसमें सभी मजहब और सूबों के लोगों ने शिरकत की है, कुर्बानियां दी हैं। इन सबका जुड़ाव जैसा संघर्ष के दिनों में था, वैसा ही बाद में भी दिखना चाहिए। एकजुटता की यह ताकत ही भारत
की ताकत है।
अभी देश में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। दिलचस्प है कि चुनावी चर्चाओं के बीच सरदार का नाम भी लिया जा रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने तो गुजरात में उनकी दुनिया की सबसे भव्य प्रतिमा बनाने की मुहिम ही छेड़ रखी है। यह अलग बात है कि उनकी इस मुहिम के सियासी निहितार्थ निकालने वाले भी कम नहीं हैं। हाल में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात पहुंचे तो उन्होंने सरदार और मोदी के विरोधाभासों को रेखांकित करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि ऐसा करते हुए वह मौजूदा कांग्रेस पार्टी और उसके स्वर्णिम इतिहास के बीच बढ़ते विरोधाभास पर कुछ नहीं बोले।
दरअसल, आज जिन दलीलों और हवालों से चुनावी मैदान मारने में पार्टियां और उनके नेता लगे हैं, उनमें वैसे तत्वों का खासतौर पर अभाव है जो भारतीय गणतंत्र की तारीखी खासियत रही है। विकास, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता का मुद्दा मजबूत जरूर है पर इससे भी मजबूत भारतीय समाज की लोकतांत्रिक आस्था है।
इस आस्था के साथ आज किस कदर खिलवाड़ हो रहा है, इसे आप यों समझ सकते हैं- बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं और वहां सबसे बड़ा मुद्दा विशेष राज्य का दर्जा है। एकजुट होकर भले न सही पर तकरीबन पार्टियां वहां इस मुद्दे का समर्थन कर रही हैं। फर्क बस यही है कि वे इस मुद्दे पर संघर्ष
का श्रेय बांटना नहीं चाहतीं। यह इस मुद्दे को लेकर बरती जाने वाली एक ऐसी सियासी बेईमानी है, जिसे जनता भी जरूर समझ
रही होगी।
ऐसा इसलिए भी कि पार्टियां अपने बीच की दूरियां जाहिर करने के लिए अत्यंत अगंभीर नाटकीय तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। मसलन, केंद्र से विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर जब जदयू ने बिहार बंद का कॉल दिया तो उससे एक दिन पहले भाजपा ने रेल रोको आंदोलन की तिथि तय कर मुद्दे को हथियाने की कोशिश की। इससे पहले दिल्ली में जब इसी मुद्दे पर जदयू ने दिल्ली में रैली की तो उसमें भाजपा को साथ नहीं लिया, जबकि तब सरकार में वह उसके साथ थी। बात बिहार की निकली है तो यहां एक बात का जिक्र जरूरी है। जब से बिहार को लोगों को परप्रांतीय विरोध के नाम पर दिल्ली से लेकर मुंबई तक गालियां-लाठियां खानी पड़ रही हैं, तब से बिहार अस्मिता का सवाल एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो गया है। इसके पीछे कहीं न कहीं वोटबैंक की राजनीति भी है। बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं। यूपी में सीटों की संख्या 8० है। दोनों सूबों की सीटों की गिनती मिला दें तो यह केंद्रीय सत्ता की दावेदारी को मजबूत करने वाली स्थिति है किसी भी पार्टी के लिए। आज अगर वाराणसी से नरेंद्र मोदी को भाजपा चुनावी मैदान में उतार रही है तो उसके पीछे सीधा गणित यही है कि यूपी और बिहार की 12० सीटों पर इसका सकारात्मक असर भाजपा को फायदा पहुंचाएगा।
पर इस फायदे-नुकसान में बिहारी अस्मिता का सवाल कहीं पीछे छूटता मालूम पड़ता है। चुनावी मैदान में भाजपा को इस सवाल का जवाब देना पड़ सकता है कि बिहारियों को मारने-पीटने और खदेड़ने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से उसकी बढ़ी नजदीकी का क्या मतलब है? क्या यह अपने सूबे से बाहर काम-धंधा करने वाले बिहारियों के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है। और अगर ऐसा है तो फिर भाजपा को बिहारी अस्मिता से खिलवाड़ का कसूरवार क्यों न ठहराया जाए।
गौरतलब है कि यह राजनीतिक दुर्दशा उस राज्य की है, जिसकी देश के लोकतांत्रिक इतिहास में भूमिका खासी उल्लेखनीय रही है। अशोक मेहता, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव में से कोई बिहारी नहीं हैं। पर बिहार की जनता ने देश की समाजवादी आंदोलन के इन दिग्गजों को संसद तक पहुंचाया।
यह इस राज्य की राजनीतिक या लोकतांत्रिक समझ की एक ऐसी मिसाल है जो आज इस सूबे की पहचान से जुड़े कई पूर्वाग्रहों को न सिर्फ खंडित करते हैं बल्कि एक नई बोधदृष्टि से उसे देखने की दरकार पेश करती है। इस लिहाज से देखें तो बिहार देश के लोकतांत्रिक नक्शे पर पहले से विशेष राज्य है। यह अलग बात है कि विशेषता की यह चमक अकेले बिहार के साथ नहीं है। बल्कि बिहार उसी तरह विशेष है जैसे गुजरात विशेष है, महाराष्ट्र विशेष है या फिर ओडिशा, तमिलनाडु या आंध्र विशेष है। इन बातों को तार्किक रूप से समझने में अगर कोई कठिनाई हो तो एक बार फिर से सरदार की बातों का स्मरण करें।
देश में फिर से चुनावी उत्सव चल रहा है। ऐसे में दल और नेता एक-दूसरे के खिलाफ भले ही हमलावर बोल बोलें, लेकिन उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों की ऐतिहासकिता को भी एक सातत्य प्रदान करने का दायित्व निभाना चाहिए, जिससे देश के लोकतंत्र के मंदिर में हर क्षेत्र का कम से कम एक दीपक तो जरूर जले।
साठ साल से भी लंबा देश का लोकतांत्रिक सफरनामा महज धिक्कार से भरने के लिए नहीं है बल्कि इसमें गौरव और यश के भी तमाम अनुभव शामिल हैं।
इन अनुभवों का सिलसिले को अगर हम जारी रखने में यकीन नहीं रखते तो इसका मतलब यही है कि न तो हमें अपने लोकतंत्र को लेकर न तो कोई फL है और न ही इसकी क्षमता को लेकर कोई भरोसा। अविश्वास का यह भाव खतरनाक है।
सत्ता की राजनीति के लिए दावों-प्रतिदावों, आरोपों-प्रत्यारोपों और वादों-इरादों से आगे कुछ सकारात्मकता की भी बात जरूर होनी चाहिए। यह देश के जागरूक मतदाताओं के लिए भी एक सम्मान की बात होगी क्योंकि इससे उसके दायित्वपूर्ण विवेक को तो मान मिलेगा ही, ऐसे ही जवाबदेह तरीके से लोकतांत्रिक दायित्व के पालन के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा। क्या इस सामयिक दरकार को देश की सियासी जमातें समझेंगी?
 

रविवार, 25 मार्च 2012

सौ साल का बिहार

बिहार अपनी राज्य स्थापना के सौ साल जिस सरकारी-असरकारी तौर पर मना रहा है, उसमें सिर्फ हर्ष या गौरवबोध शामिल नहीं है। दरअसल, यह एक ऐसा मौका है, जब यह प्रदेश अपनी शिनाख्त को नए सिरे से गढ़ना चाहता है। पिछले दो-तीन दशकों में बिहारी होना जिस तरह गरीब, अशिक्षित, असभ्य और पिछड़े होने की लांछना में तब्दील हुआ है, उसने इस प्रदेश को लेकर नए सांस्कृतिक विमर्श की दराकर पैदा की है। यह विमर्श अब बौद्धिक के साथ राजनीतिक चेतना की भी शक्ल ले रहा है। आलम यह है कि अब बिहार में हर स्तर पर विकास और समृद्धि का अपवाद होने के बजाय इसका उदाहरण बनने की भूख है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की राजधानी में जब राज्य स्थापना के शताब्दी समारोह के शुभारंभ के मौके पर यह कहा कि अगर बिहारी दिल्ली में एक दिन काम बंद कर दें तो यह महानगर ठहर जाएगा, कहीं न कहीं उस लांछना का ही राजनीतिक शैली में दिया गया जवाब था, जो पिछले वर्षों में दिल्ली और मुंबई में बिहारी अस्मिता को चोटिल करने के लिए लगाए गए थे। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ परंपरा भले न ठहराया जाए पर इसके पीछे की वजहों को खारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। आज जबकि भारतीय संघ में शामिल एक महत्वपूर्ण प्रदेश अपनी अस्मिता पर रोशनाई को रौशन पहलू में बदलने को ललक रहा है तो कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि बिहार में राजनीति से लेकर शिक्षा और कारोबार के क्षेत्र में एक बेहतर शुरुआत की अभी भूमिका भर तैयार हुई है। यह भूमिका भी जरूरी है इसलिए पिछले पांच-सात साल अगर इसमें लगे हैं तो वे फिजूल नहीं गए हैं। पर अब यहां से इस प्रदेश को आगे के लिए कदम बढ़ाने शुरू करने होंगे, साथ ही इस यात्रा में एक सातत्य भी जरूरी है। कई बार इतिहास और परंपरा का मोह मौजूदा चुनौतियों से मुंह ढांपने का बहाना भी बनता है। यह खतरा नया बिहार का सपना आंज रही सरकार के साथ उन तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के आगे भी है, जिनमें आज गजब का उत्साह देखने को मिल रहा है।
दूसरी बात यह कि बिहार में पिछले दो विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो नया और आशावादी सत्ता समीकरण पैदा किया है, वह आगे भी सशक्त और कारगर रहे इसके लिए जरूरी है कि इसके नतीजे प्रदेश की जनता को देखने को मिलें। अभी गरीबी को लेकर एक आंकड़ा योजना आयोग ने पेश किया है, इसमें बिहार सबसे नीचले पायदान पर है। विकास दर के आंकड़े और सत्ता के वर्ष गिनाने से बिहार के हिस्से आई परेशानी दूर नहीं हो सकती। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार को अपने शताब्दी वर्ष में जितना इतिहास से सीखने का मौका मिलेगा, उतना ही भविष्य को भी सुंदर और सुफल बनाने का भी।      

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

रूपम न्याय का सुशील अध्याय


जनतांत्रिक व्यवस्था का सबसे पहला तकाजा सबके लिए समान अवसर और न्याय है। ऐसे में बिहार में भाजपा विधायक राजकिशोर केसरी की हत्या के बाद इस पूरे मामले की जो सूरत गढ़ी गई, वह खासा खतरनाक और कई गंभीर सवाल उठाती है। तब जबकि एक तरफ राज्य सरकार ने मामले को संगीन बताया और फौरी तौर पर इसकी जांच के आदेश दिए, यह बात सरकार में शामिल लोगों की तरफ से बढ़-चढ़कर बताना कि केसरी क्षेत्र में काफी लोकप्रिय थे और उन्हें पूर्णिया की जनता ने चार बार विधायक चुनकर भेजा था, लिहाजा अगर किसी का चरित्र संदिग्ध है तो उस महिला का जिसने विधायक की चाकू घोंपकर हत्या की। ये बातें कहीं से भी गले नहीं उतरती।
केसरी चूंकि भाजपा विधायक थे, इसलिए इस घटना के बाद राज्य में सत्तारूढ़ जदयू-भाजपा गठबंधन में सबसे मुश्किल स्थिति जाहिर रूप से भाजपा की ही बनी। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी की इस घटना के बाद अतिरिक्त सक्रियता और कुछ घंटे के अंदर ही मीडिया के सामने यह कह देना कि पेशे से शिक्षिका रूपम पाठक द्वारा विधायक पर यौन उत्पीड़न के आरोप गंभीर नहीं हैं। इस आरोप को लेकर न तो कोई मामला लंबित है और न ही किसी स्तर पर कोई लिखायत शिकायत दर्ज है। केसरी जनप्रिय नेता थे और भाजपा के साथ उनका साथ पुराना और विश्वसनीय है। किसी सूबे की सरकार में वरीयता में दूसरे नंबर की जवाबदेही संभाल रहे नेता का इस तरह का बयान कम से कम एक तटस्थ प्रतिक्रिया तो नहीं ही ठहराई जा सकती।
जदयू-भाजपा गठबंधन को सूबे की जनता ने जब शासन के लिए दोबारा चुना तो उसके पीछे एक बड़ी आशा राज्य में सुशासन की स्थापना भी थी। बेशक निजी रूप से मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सत्ता में रहते हुए अपने बयान और क्रियाकलाप में अपेक्षित रूप से कम विवादास्पद रहे हैं। लेकिन विधायक हत्या मामले में सरकार और उसमें शामिल एक दल की छवि दांव पर लगी है। न्याय की यह सार्वदेशिक और सार्वकालिक मर्यादा है कि न्याय होने से ज्यादा जरूरी है कि न्याय होते हुए भी दिखे। इस मामले में कम से कम अब तक के घटनाक्रम में तो यह न्याय की यह मर्यादा पूरी होती नहीं दिखती।
एक सरकार की छवि और उसके लोगों की छवि और सुरक्षा अगर बहुत मायने रखती है तो यह कहीं से सिद्ध नहीं होता कि यह सब नागरिक सुरक्षा और खासकर एक महिला की छवि को बगैर किसी पुष्ट आधार के दाव पर लगाकर ही पूरा हो। वैसे भी जनतांत्रिक मर्यादा किसी सरकार और उसके हिस्से-पुर्जों को जनता के प्रति ही अंतिम रूप से उत्तरदायी ठहराती है। लिहाजा, केसरी हत्याकांड की जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक सरकारी पक्ष तटस्थ मर्यादा का सख्ती से पालन करे, यह चुनौती भी है और यही अपेक्षित भी। जिस तरह यह हत्या हुई, उसमें कम से कम पहली नजर में तो यह लगता ही है कि इसके पीछे की वजह मामूली तो कम से कम नहीं होगी। जिस महिला ने कानून हाथ में लेकर यह अतिरेक कदम उठाया, उसकी अब और पहले कही गई बातों पर बगैर किसी पुख्ता पड़ताल के कोई अंतिम राय बनाने का कोई कारण नहीं। और यह भी कि एक विधायक की सुरक्षा कम से कम इतनी कमजोर तो नहीं ही होनी चाहिए जैसा कि इस मामले में दिखा।