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शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

शेक्सपियर के नाटक और स्टीफेंस का बयान

ब्रह्मांड का रहस्य जटिल तो है पर अबूझ नहीं। इस रहस्यमयता का भेदन रोमांटिक तो हो सकता है पर डरावना कतई नहीं। इसलिए यह मानने का भी कतई कोई कारण नहीं है कि इस सृष्टि का स्रष्टा ईश्वर है। स्टीफन विलियम हॉकिंग जब यह कहते हैं तो उनकी वैज्ञानिक दृष्टि की सूक्ष्मता और उपलब्धि देखकर कोई भी कायल हो जाए। ब्राह्मांड की रचना को समझने और इसके रहस्य को आम आदमी की दिलचस्पी का विषय बनाने वाले हॉकिंग जितने बड़े भौतिकविज्ञानी हैं, उतने ही लोकप्रिय विचारक भी। उनकी शारीरिक विवशता उनकी जीवटता से लगातार हारी है। इस लिहाज से वे मानवीय संघर्ष क्षमता के भी जीवंत उदाहरण हैं।  
पर यहां इस महान प्रतिभा की आभा से बाहर निकलकर कुछ और बातें समझने की दरकार है। ज्ञान जब विज्ञान की  खड़ाऊं पहन ले तो अज्ञान की धुंध जितनी नहीं छंटती, उससे ज्यादा छंटता है वह स्पेस- जहां हमारी संवेदना, हमारा मन, हमारा प्रेम और उससे भी आगे हमारा जीवन अपनी स्वाभाविकता को प्राप्त करता है। मानवीय चेतना की विलक्षणता ही यही है कि वह दिल और दिमाग को कंपार्टमेंटली बिलगाती नहीं है बल्कि एक साथ बाएं और दाएं हाथ की तरह काम करती है। न तो साझीदारी का कोई आनुपातिक सिद्धांत और न ही एक-दूसरे के खिलाफ जाने और दिखने का कोई आग्रह।
हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. नगेंद्र की छायावाद को लेकर प्रसिद्ध उक्ति है कि यह 'स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह' है। दिलचस्प है कि यहां जिस सूक्ष्मता को रेखांकित किया गया है, वह हॉकिंग जैसे वैज्ञानिकों को महान बनाने वाली सूक्ष्मता से सर्वथा भिन्न है, विपरीत है। अपने जीवन के 70 वसंत पूरा करते हुए हॉकिंग ने सूक्ष्मता के अनंत को तलाशते हुए अचानक उस संवेदना और प्रेम के रहस्यवादी जाले में फंस गए, जिसे कलम और कूची थामने वालों ने सबसे ज्यादा धैर्य और दिलचस्पी के साथ समझने की कोशिश की है। रचना और कला क्षेत्र का यह धैर्य कोई समाधानकारी छोर को भले न छू पाए हों पर इसमें सवाल और जवाब के टकराव को ठहराव के चिंतन में बदलने की संवेदनशील कोशित तो दिखती ही है। हां, यह जरूर है कि यह ठहराव यहां भी कुछ दुराग्रहियों और पूर्वाग्रहियों के यहां सिरे से गायब है।  
हॉकिंग का यह कहना कि महिलाएं एक ऐसी रहस्य हैं, जिन्हें समझना नामुमकिन है। उनके वैज्ञानिक होने की कसौटी को नए सिरे से परिभाषित कर गया। विज्ञान और कला को प्रतिलोमी देखने की समझदारी नई नहीं है। विरोध के इस पूर्वाग्रह को पूरकता में देखने का समाधान काफी सुकूनदेह है। पर विज्ञान और कला में एक दूसरे की पूरकता तलाशने का समाधान कम से कम हॉकिंग के यहां तो उनके नए विवादास्पद बयान से नहीं दिखता है। आइंस्टीन की सापेक्षता से टकराने और एक हद तक उसे आगे ले जाने वाले हमारे समय की सबसे विलक्षण प्रतिभा हॉकिंग कम से कम मानवीय विमर्श में अपने पूर्वज को पीछे नहीं छोड़ पाए हैं। अपने जीवन के बाद के दिनों में आइंस्टीन की जिज्ञासाएं महात्मा गांधी की प्रार्थना और सत्य, अहिंसा और करुणा के दर्शन में अपना समाधान देखती थी। विज्ञान की सूक्ष्मता उन्हें मानवीय तरलता के आगे स्थूल और अपरिहार्य मालूम पड़ती थी।
कई सफल सिद्धांतों के जनक स्टीफेंस हॉकिंग के सत्तर साला जीवन में दो असफल शादियों के दुखद वृतांत दर्ज हैं। महिलाओं को अबूझ कहने की उनकी दलील उन हिंसक पात्रों की याद दिलाती है, जो शेक्सपियर के नाटकों में ऐसी ही जबान में अपने संवाद बोलते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि महिलाओं को 'सभ्यता की भुक्तभोगिनी' की नियति देने वाला पुरुष आग्रह आज भी महिलाओं की छवि को कहीं न कहीं नकारात्मक और गैरभरोसेमंद बताने से बाज नहीं आता। कात्यायनी के शब्दों में इस आधुनिक 'पौरुषपूर्ण समय' में स्त्री अस्मिता का संकट ज्यादा जटिल, ज्यादा भयावह है। खतरनाक यह भी कम नहीं कि हमारे समय का सबसे ज्यादा तेज-तर्रार वैज्ञानिक दिमाग भी महिला मुद्दे पर खासा हिला दिखता है। 

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

मेरे अंदर एक कायर टूटेगा

क्या आपने कभी ऐसे सोचा है कि सचाई से ज्यादा मक्कारी हमारे जेहन और चिंतन को क्यों घेरता है। अपने हिस्से के अंधेरे को दूर करने की बजाय हम आसपास के अंधेरे को लेकर आलोचकीय प्रबुद्धता क्यों दिखाते हैं। बिजली के लट्टुओं ने भले चिराग तले अंधेरे के मुहावरे को खारिज कर दिया हो पर नए दौर के टॉर्च वियररों की जमीरी बेईमानी को देखकर इस मुहावरे का विकसित और आधुनिक भाष्य समझ में आता है। आज की तारीख में भ्रष्टाचार अगर सबसे बड़ा मुद्दा है तो इसकी असली वजह महज न तो सिविल सोसाइटी की मुहिम है और न ही कोई राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता। दरअसल, पिछले छह दशकों में सरकार, राजनीति, प्रशासन और न्याय प्रक्रिया के जो अनुभव आम आदमी के हिस्से आए हैं, उसमें सदाचार की भारतीय संस्कृति के सच को नंगा करके रख दिया है। यह नंगापन पिछले तीन दशकों के उदारवादी दौर में सबसे ज्यादा बढ़ा है।
व्यक्ति और समूह से शुरू हुए लालच और भ्रष्टाचार का अपने यहां जहां अपना वर्ग चरित्र है, वहीं शिक्षा, शहरीकरण, आमदनी और आधुनिकता जैसे भ्रष्टाचार निरोधी तर्क भी कहीं से कारगर नहीं मालूम पड़ते। दरअसल, अहम यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ हैं कि नहीं। असली सवाल इस जुड़ाव के वाह्य या आंतरिक होने को लेकर है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे में भारतीयों ने खादी और खाकी को भ्रष्टाचार की वर्दी करार दिया है। सेवा और स्वाबलंबन की सूत से कभी भ्रष्टाचार की कताई भी हो सकती है, यह बात गांधी को पता होती तो उनका चरखा भी शायद ही घूमता।
खद्दर और खाकी को लेकर जनमानस की पीड़ा और रोष को समझा जा सकता है। पर इस सर्वे में दर्ज यह भी हुआ है कि भ्रष्टाचार से भिड़ने की बजाय उसके आगे घुटने टेकने की हमारी लाचारी भी पिछले सालों में बढ़ी है। भ्रष्टाचार की काली स्लेट पर सदाचार उकेरने में उत्साही लोगों को भी यह समझ तो होगी कि इसकी शुरुआत शिकायत से नहीं पश्चाताप और सत्याग्रह से ही संभव है। ऐसी शिकायत करते हुए सामने की तरफ उठने वाली एक अंगुली अगर तनी है तो बाकी की दिशा भी किस तरफ है, यह नहीं भूलना चाहिए।
दरअसल, भ्रष्टाचार को लाचारी की स्वाभाविक परिणति बताकर हम अपने हिस्से के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष को स्थगित कर देते हैं। यह स्थगन एक बड़े मुद्दे के हल को रोष और प्रचार के खल में किस तरह बदल देता है, यह अनुभव देश आज संसद से लेकर सड़क तक कर रहा है। दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सच बयानी को लेकर एक टीवी रियलिटी शो भी शुरू हुआ है। जहां अपने भ्रष्ट कर्मों के प्रायश्चित के लिए लोग कैमरे के सामने आ रहे हैं और इनामी साहस के साथ बता रहे हैं कि उन्होंने लालच में आकर क्या-क्या और कितने गलत काम किए हैं। दरअसल, आत्मप्रतीति के ऐसे इसी तरीके की नाटकीयता की मांग करते हैं जबकि साध्य और साधन की शुद्धता का सत्याग्रह प्रशांत धैर्य और चिंतन की दरकार रखता है।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की शब्दावली में आधुनिक समय में परिवर्तन का इतिहास रातोंरात नहीं रचा जा सकता बल्कि इसकी प्रक्रिया 'व्यक्तित्वांतरण' की इकाई से शुरू होकर समय और समाज की दहाई, सैकड़े-हजार तक पहुंचेगी। पूरी दुनिया में परिवर्तन की परतें उतनी नहीं जमीं जितनी उनके नाम पर तारीखें दर्ज हैं। लिहाजा, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को परिवर्तन की ऐसी एक और तारीख के रूप में हम देखना चाहते हैं तो यह इतिहास आज अपने देश में जरूर लिखा जा रहा है। पर इसके बाद भ्रष्टाचार का मर्ज हमारे सलूक और सिस्टम से बाहर हो जाएगा, इस दावे को लेकर सोचना भी मूढ़ता होगी। व्यक्ति के सदाचार का अपना कद जब तक नहीं उठता, भ्रष्टाचार का दैत्याकार हमेशा हमें डराता और हमारा मुंह चिढ़ाता रहेगा।
साफ है कि यह लड़ाई बाहरी नहीं बल्कि भीतरी है। अब तक इस लड़ाई को हम बाहरी मैदान पर खूब बहादुरी से लड़ रहे हैं। पर यह बहादुरी खुद से मुंह चुराने की चालाकी ज्यादा साबित हो रही है। जब तक पाप और संताप के भीतरी ताप में हम डूबे-उतराएंगे नहीं, भ्रष्टाचार भले कहीं से मिटे हमारे अंदर जिंदा और जावेद रहेगा। इसलिए सड़कों पर मुट्ठियां लहराने और नारों के शोर को हम कहीं और नहीं खुद तक पहुंचने का जरिया मानें क्योंकि तब... 'न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।' (कुछ तो होगा/ रघुवीर सहाय)  

रविवार, 1 जनवरी 2012

जागरण में पूरबिया की रात

मौसम का बारहमासी चित्त और चरित्र तक अब पहले जैसे नहीं रहे। जेठ की धूप और पूस की रात के परंपरागत अनुभव आज दूर तक खारिज हो चुके हैं। लिहाजा मौसम और प्रकृति के साथ हमारा रिश्ता अब वैसा नहीं रहा, जैसा हमारे पुरखों का था...
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31 दिसंबर 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय स्तंभ के नियमित स्तंभ 'फिर से' में पूरबिया की रात