LATEST:


शनिवार, 14 अप्रैल 2018

बापू तो रहे याद भूल गए बा को!

- प्रेम प्रकाश


बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी

दो अक्टूबर 2019 को महात्मा गांधी की 150वीं जयंती को लेकर सरकार और समाज दोनों उत्साहित हैं। खासतौर पर पीएम मोदी ने बापू की150वीं जयंती को राष्ट्रीय स्वच्छता मिशन के लक्ष्य के साथ जोड़कर इसे 2014 से ही चर्चा में ला दिया है। पर यह देश और सरकार दोनों भूल यह गई कि अगले वर्ष बापू के साथ बापू की भी 150वीं जयंती है। यही नहीं, कस्तूरबा (11 अप्रैल 1869 - 22 फरवरी 1942) चूंकि गांधी से 6 माह बड़ी थीं, इसलिए बा की जयंती दो अक्टूबर से पहले 11 अप्रैल को ही मनाई जाएगी।

कस्तूरबा और गांधी आधुनिक विश्व में दांपत्य की सबसे सफल मिसाल हैं। बा के  बारे में खुद बापू ने स्वीकार भी किया है कि उनमें दृढ़ता और निर्भीकता उनसे भी ज्यादा थी। तारीखी अनुभव के तौर पर भी देखें तो बा की पहचान सिर्फ यही नहीं थी कि वे बापू की जीवन संगिनी रहीं। आजादी की लड़ाई में उन्होंने न सिर्फ हर कदम पर अपने पति का साथ दिया, बल्कि यह कि कई बार स्वतंत्र रूप से और गांधीजी के मना करने के बावजूद उन्होंने जेल जाने और संघर्ष में शिरकत करने का फैसला किया। यहां तक गांंधी के अहिंसक संघर्ष की राह में वे गांदी से पहले जेल भी गईं। वह एक दृढ़ आत्मशक्ति वाली महिला थीं और गांधीजी की प्रेरणा भी। उन्होंने नई तालीम को लेकर गांधी के प्रयोग को सबसे पहले अमल में लाई।

इसी तरह चरखा और स्वच्छता को लेकर गांधी के प्रयोग को मॉडल की शक्ल देने वाली कोई और नहीं, बल्कि कस्तूरबा ही थीं। इसको लेकर कई प्रसंगों की चर्चा खुद गांधी ने भी की है। कहना हो तो कह सकते हैं कि शिक्षा, अनुशासन और स्वास्थ्य से जुड़े गांधी के कई बुनियादी सबक के साथ स्वाधीनता संघर्ष तक कस्तूरबा का जीवन रचनात्मक दृढ़ता की बड़ी मिसाल है।

धन्यवाद के पात्र हैं गांधी की लीक पर चले रहे वे कुछ सर्वोदयी, जिन्होंने बा और बापू की प्रेरणा को साझी विरासत के तौर पर जिंदा रखा। इस मौके पर ‘बा-बापू 150’ के नाम से जहां गांधी के इन अनुयायियों ने देशव्यापी यात्रा काफी पहले शुरू कर दी है, वहीं इस अभियान के तहत कुछ और कार्यक्रम भी हो रहे हैं। पर जहां तक रही सरकार और समाज की मुख्यधारा की बात तो शायद उनकी स्मृति से बा की विदायी हो चुकी है। 

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

दलित मुद्दे पर भाजपा का इनकाउंटर

- प्रेम प्रकाश





एस-एसटी एक्ट को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पैदा हुआ असंतोष अब पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है

जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।   

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

पोस्ट ट्रुथ के दौर में बिहार का ट्रुथ

- प्रेम प्रकाश



कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?


इन दिनों देश के कई सूबों में सांप्रदायिक तनाव की आंच इतनी तेज है कि पर्व-त्योहारों का शायद ही कोई ऐसा मौका बीतता है, जब समाज के दो समुदायों के बीच हिंसा की खबरें न आती हों। खासतौर पर बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में आए दिन ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो सीधे-सीधे कुछ सियासी दलों द्वारा प्रायोजित सांप्रदायिक उकसावे वाले कृत्य हैं। इस सांप्रदायिक झुलस का शिकार केरल और कर्नाटक जैसा राज्य भी है। केरल में विधानसभा चुनाव तो खैर 2021 में होने हैं पर कर्नाटक में मई में ही चुनाव होने हैं। कई राजनीति विज्ञानी इस बात को भारतीय राजनीति में डेवलप हुए उस नए पैटर्न के तौर पर देखते हैं, जिसमें जाति और अस्मिता के नाम पर होने वाली सियासी गोलबंदी को तोड़ने के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को जानबूझकर तूल दिया जाता है। सवाल यह भी है कि सत्ता पर काबिज होने का यदि यही गणित और यही पैटर्न है तो फिर भारतीय लोकतंत्र के बहुलतावादी चरित्र का क्या होगा?
पिछले दिनों बिहार में भागलपुर में हिंदू नववर्ष पर निकले जुलूस के दौरान दो गुटों के बीच हिंसक भिड़ंत हो गई। देखते-देखते इस भिड़ंत ने हिंसक सांप्रदायिक टकराव की शक्ल ले ली। इसके बाद जब रामनवमी का त्योहार आया तो यह टकराव न सिर्फ और ज्यादा भड़का बल्कि इसके नाम पर खुलकर सियासी रोटियां सेंकी जाने लगी। रामनवमी पर हिंसा और आगजनी की खबरें बिहार से लगे पश्चिम बंगाल से भी आईं। स्थिति इतनी बिगड़ चुकी है कि अब भी इन दोनों सूबों में शांति और सौहार्द की स्थिति बहाल होना सरकार और समाज के आगे एक बड़ी चुनौती बनी हुई है। जो हालात अभी बिहार और पश्चिम बंगाल में हैं, वो स्थितियां समय-समय पर देश के बाकी सूबों में भी पैदा होती रहती हैं। आलम यह है कि गूगल सर्च इंजन के न्यूज सेक्शन में मात्र ‘रामनवमी’ शब्द लिखने पर जो पांच लाख से ज्यादा वेब पन्ने खुलते हैं, उसमें सबसे ज्यादा खबरें हिंसा, आगजनी और भड़काने वाले बयानों को लेकर हैं।
भारतीय समाज और राजनीति की सांस्कृतिक स्फीति का यह सच निस्संदेह काफी भयावह है। यकीन नहीं होता कि यह उस देश की सच्चाई है जिसने स्वाधीनता के लिए संघर्ष से पहले सांस्कृतिक पुनर्जागरण को अपने लिए जरूरी माना। आज इस पुनर्जागरण से दूर भारत एक बार फिर उस सांप्रदायिक झुलस की तरफ बढ़ता जा रहा है, जिसका शिकार वह 1947-48 के दौर में हुआ था। तब गनीमत यह थी कि अगर देश में एक तरफ सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने वाली बर्बर प्रवृतियां थीं, तो वहीं दूसरी तरफ समाज और राजनीति की मुख्यधारा सामाजिक-सांस्कृतिक समन्वय को बहाल रखने के लिए हर लिहाज से प्रतिबद्ध थी। दुर्भाग्य से प्रतिबद्धता का यह चरित्र आज सियासी जमातों में तो नहीं ही दिखता है, राजनीतिक दुष्प्रभावों से सामाजिक चरित्र भी लगातार हिंसक और अराजक होता जा रहा है। यह स्थिति आगे अगर इसी तरह ढलाव की तरफ खिसकती गई तो आगे भारतीय समाज और संस्कृति का वह चारित्रिक साझा बहाल रख पाना मुश्किल होगा, जिसमें एक तरफ बहुलतावादी छटा दिखती है, तो वहीं दूसरी तरफ समावेशी गुण भी।
हिंदी साहित्य के सर्वाधिक मान्य इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य, संस्कृति और समाज के साझे को समझने के लिए ‘लोक’ और ‘परंपरा’ के रूप में दो सूत्र दिए हैं। भारत की बहुलतावादी संस्कृति में जब हम समन्वय के तत्वों की खोज करते हैं तो ये दो पद हमारी सबसे ज्यादा मदद करते हैं। इतिहास में बहुत पीछे न जाते हुए जब हम स्वाधीनता आंदोलन के दौरान प्रकट हुई राष्ट्रीय एकता का संदर्भ देखते हैं तो हमें सबसे पहले लोकमान्य तिलक याद आते हैं। दिलचस्प है कि देश जब 20वीं सदी के मुहाने पर खड़ा था, तो तिलक जैसे राष्ट्रवादियों की सबसे बड़ी चिंता यही थी कि भारतीय जनमानस को कैसे राष्ट्रीयता और स्वाधीनता के सवाल पर एकजुट किया जाए। इसके लिए उन्होंने लोक और परंपरा की गोद में पगी भारतीय सांस्कृतिक चेतना को आधार बनाया और गणेशोत्सव को एक सार्वजनिक लोक उत्सव का रूप दिया। तिलक यह बात तब सोच रहे थे जबकि 1893 में पुणे और बंबई में दंगे हुए थे। यहां तक कि कांग्रेस का भी उदारवादी कहा जाने वाला एक बड़ा धरा इस मुद्दे पर तिलक के साथ नहीं था। दरअसल, तिलक भारतीय जनमानस के उस बोध को कहीं न कहीं समझ चुके थे कि समाज और राष्ट्र के व्यापक सवालों पर लोगों को तब तक एकजुट नहीं किया जा सकता, जब तक इसकी सांस्कृतिक प्रेरणा व्यापक तौर पर नहीं जगेगी।
कहना मुश्किल है कि एक ऐसे दौर में जब ‘सत्य’ भी इस तरह ‘विकृत’ हो गया है कि उसे मौलिक रूप में पहचानना मुश्किल है, तिलक जैसा विवेक भारतीय राजनीतिक और सांस्कृतिक चिंतन का सकर्मक हिस्सा कैसे बनेगा। ग्लोबल दौर में इस सवाल की तह भी कहीं न कहीं ग्लोबल है और इसे गहराई से समझने की जरूरत है। 16 नवम्बर, 2016 को ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की तरफ से यह घोषणा की गई कि ‘पोस्ट ट्रुथ’ साल का सबसे चर्चित शब्द रहा है। यह शब्द और संदर्भ वही है, जिसकी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकृति के तौर पर बात हम पहले कर चुके हैं। गौरतलब है कि 1992 में सर्बियन-अमेरिकन नाटककार स्टीव तेसिच ने एक निबंध लिखा। इस निबंध में ‘पोस्ट ट्रुथ’ शब्द का उपयोग पहली बार यह दर्शाने के लिए किया गया कि ‘सच अब उतना प्रासंगिक नहीं रहा।’ भारत से लेकर अमेरिका तक आज जिस तरह का उद्दंड राष्ट्रवाद और अपनी कथित सांस्कृतिक अस्मिता को बनाए-बचाए रखने के नाम पर जिस तरह की उपद्रवी युक्तियां सियासी जमातों द्वारा अपनाई जा रही हैं, उसे देखकर यह चिंता कंठ तक पहुंच जाती है कि सत्ता प्रतिष्ठानों पर काबिज होने की होड़ में समाज और संस्कृति का मंगलकारी योग कहीं लंबे समय के लिए तिरोहित न हो जाए। क्योंकि जनमत के लिए अगर वाकई वस्तुगत तथ्यों पर अराजक धार्मिक-सांस्कृतिक अपील हावी हो जाए, तो शांति और विवेक की धीरपूर्ण बातें अनसुनी ही रह जाएंगी। भारत से लेकर यूरोप और अमेरिका तक इस तरह की परिस्थिति को ही जानकार ‘पोस्ट ट्रुथ’बता रहे हैं। भारतीय संदर्भ में इसे राजनीति के सूर्य के लगातार दक्षिणायन होते जाने के घटनाक्रम के तौर पर भी देख सकते हैं। धार्मिक अंहकार और विस्तार को जिस तरह राष्ट्रवादी दोशाला ओढ़ाया जा रहा है, उससे देश में बीते कुछ सालों में विग्रहवादी विमर्श और अराजक मानसिकता को बल मिला है। यह विमर्श और यह मानसिकता अगर इसी तरह सिर उठाती रहीं तो आगे भी हमें इस स्थिति के लिए तैयार होना पड़ेगा कि कभी गाय के नाम पर, कभी धर्म परिवर्तन के नाम पर, कभी पर्व-त्योहारों के नाम पर, कभी बहुसंख्यक अस्मिता के नाम पर तो कभी एक जैसे खानपान और पहनावे के नाम पर हमारे आसपास का माहौल लगातार गरमाता रहेगा। इस गरमाहट को शांत करने की फिक्र अगर जल्द ही एक राष्ट्रीय दरकार और चेतना की शक्ल नहीं लेती है तो भारतीय समाज और लोकतंत्र की मौलिक शिनाख्त और उसकी समन्वयवादी विलक्षणता की रक्षा मुश्किल होगी। इसके लिए सबसे पहली आवश्यकता राजनीति के ऊपर समाज का नैतिक अनुशासन कायम करने की है। क्योंकि न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया में कहीं भी जब-जब राजनीति और सत्ता की हांक पर सामाजिक चरित्र गढ़ा गया है, इंसानियत शर्मसार हुई है। लिहाजा, भविष्य में उम्मीद की कोई किरण फूटेगी तो वो समाज के बीच से फूटेगी, न कि राजनीतिक गलियारों से।

शनिवार, 17 मार्च 2018

थ्योरी से ज्यादा डॉयलोग पर भरोसा


- प्रेम प्रकाश

स्टीफन हॉकिंग की सबसे अच्छी बात यह थी कि वे डायलॉग में विश्वास करते थे। बहस करना उनकी आदत में शामिल नहीं था
... 
विज्ञान दुरूह नहीं बल्कि खासा दिलचस्प है। हमारे दौर में इस बात को जिस शख्सियत ने अपने कार्य और विचार से सबसे प्रभावशाली तरीके से समझाया, वे थे महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग। हॉकिंग ने विज्ञान के क्षेत्र में अपने काम से दुनियाभर में करोड़ों युवाओं को विज्ञान पढ़ने के लिए प्रेरित किया। अलबत्ता हॉकिंग ने विज्ञान की नजर से ही भगवान, पृथ्वी पर इंसानों का अंत और एलियनों के अस्तित्व पर अपनी बात पुरजोर अंदाज में रखी। यह निर्भीकता इसलिए भी अहम है क्योंकि गैलिलियो की तरह हॉकिंग को भी इपने इन बयानों के लिए धार्मिक संस्थाओं की ओर से विरोध का सामना भी करना पड़ा था।

ईश्वर के अस्तित्व को नकारा 
स्टीफन हॉकिंग ने अपनी किताब 'द ग्रांड डिजाइन' में भगवान के अस्तित्व को सिरे से नकारा है। उन्होंने एक नए ग्रह की खोज के बारे में बात करते हुए हमारे सौरमंडल के खास समीकरण और भगवान के अस्तित्व पर सवाल उठाया। साल 1992 में एक ग्रह की खोज की गई थी, जो हमारे सूर्य की जगह किसी अन्य सूर्य का चक्कर लगा रहा था। हॉकिंग ने इसका ही उदाहरण देते हुए कहा, ‘ये खोज बताती है कि हमारे सौरमंडल के खगोलीय संयोग- एक सूर्य, पृथ्वी और सूर्य के बीच में उचित दूरी और सोलर मास, सबूत के तौर पर ये मानने के लिए नाकाफी हैं कि पृथ्वी को इतनी सावधानी से इंसानों को खुश करने के लिए बनाया गया था।’

गुरुत्वाकर्षण से बनी सृष्टि
उन्होंने सृष्टि के निर्माण के लिए गुरुत्वाकर्षण के नियम को श्रेय दिया। हॉकिंग कहते हैं, ‘गुरुत्वाकर्षण वह नियम है, जिसकी वजह से ब्रह्मांड अपने आपको शून्य से एक बार फिर शुरू कर सकता है और करेगा भी। ये अचानक होने वाली खगोलीय घटनाएं हमारे अस्तित्व के लिए जिम्मेदार हैं। ऐसे में ब्रह्मांड को चलाने के लिए भगवान की जरूरत नहीं है।’ हॉकिंग को इस बयान के लिए ईसाई धर्म गुरुओं की ओर से विरोध का सामना करना पड़ा।

ब्रह्मांड और एलियन
स्टीफन हॉकिंग ने दुनिया के सामने ब्रह्मांड में एलियनों के अस्तित्व को लेकर कड़ी चेतावनी दी थी। उन्होंने अपने लैक्चर 'लाइफ इन द यूनिवर्स' में भविष्य में इंसानों और एलियन के बीच मुलाकात को लेकर अपनी राय रखी थी। भौतिक शास्त्र के इन महान वैज्ञानिक ने कहा था, ‘अगर पृथ्वी पर जीवन के पैदा होने का समय सही है तो ब्रह्मांड में ऐसे तमाम तारे होने चाहिए जहां पर जीवन होगा। इनमें से कुछ तारामंडल धरती के बनने से 5 बिलियन साल पहले पैदा हो चुके होंगे।’ इस सवाल पर कि ऐसे में गैलेक्सी में मशीनी और जैविक जीवन के प्रमाण तैरते क्यों नहीं दिख रहे हैं। अब तक कोई पृथ्वी पर कोई क्यों नहीं आया और इस पर कब्जा क्यों नहीं किया गया, हॉकिंग ने कहा, ‘मैं ये नहीं मानता कि यूएफओ में आउटर स्पेस के एलियन होते हैं। मैं सोचता हूं कि एलियन का पृथ्वी पर आगमन खुल्लमखुल्ला होगा और शायद हमारे लिए ये अच्छा नहीं होगा।’

चौंकाने वाला एलान
हॉकिंग ने पृथ्वी पर इंसानियत के भविष्य को लेकर चौंकाने वाला एलान किया था। उन्होंने कहा था, ‘मुझे विश्वास है कि इंसानों को अपने अंत से बचने के लिए पृथ्वी छोड़कर किसी दूसरे ग्रह को अपनाना चाहिए और इंसानों को अपना वजूद बचाने के लिए अगले 100 सालों में वो तैयारी पूरी करनी चाहिए जिससे पृथ्वी को छोड़ा जा सके।’

नार्लीकर की स्मृति में हॉकिंग
भारत के प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. जयंत विष्णु नार्लीकर ने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में हॉकिंग के साथ पढ़ाई की थी। इसके बाद साइंस से संबंधित कई ग्लोबल सम्मेलनों में दोनों की मुलाक़ात होती रही। डॉ. नार्लीकर के अनुसार, ‘कॉलेज के दिनों में वो स्टीफन हॉकिंग के साथ टेबल टेनिस के मैच भी खेल चुके हैं।’ कॉलेज की उन यादों पर उन्होंने कई दिलचस्प जानकारियां हॉकिंग के बारे में दी। उन्होंने बताया कि वे मुझसे साल दो साल जूनियर ही थे। वो बाकी आम स्टूडेंट्स की तरह ही थे। उस वक़्त कोई उनकी प्रतिभा के बारे में नहीं जानता था। लेकिन कुछ सालों के भीतर ही लोगों को ये अंदाज़ा हो गया था कि स्टीफन में कुछ खास बात है।

कैंब्रिज में हॉकिंग
डॉ. नार्लीकर के शब्दों में, ‘मुझे याद है कि ब्रिटेन की रॉयल ग्रीनविच शोध विद्यालय ने साल 1961 में एक साइंस सम्मेलन आयोजित किया था। वहां स्टीफन हॉकिंग से पहली बार मेरी सीधी मुलाकात हुई थी। उस वक्त वह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। मैं एक छात्र ही था, लेकिन मुझे वहां एक लेक्चर देने के लिए बुलाया गया था। लेक्चर शुरू होने के कुछ देर बाद ही मैंने पाया कि एक स्टूडेंट है जो बहुत ज़्यादा सवाल कर रहा है। वो थे स्टीफन हॉकिंग। उन्होंने मुझ पर सवालों की बौछार कर दी थी। वो ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में जानना चाहते थे. वो जानना चाहते थे कि बिग बैंग थियोरी है क्या?’
हॉकिंग पीएचडी करने के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी गए थे। उस वक़्त तक लोगों को समझ आ चुका था कि हॉकिंग के मस्तिष्क की क्षमता कितनी है। उनकी पीएचडी की थीसिस पढ़कर सब हैरान रह गए थे। अपनी थीसिस में ब्रह्मांड के विस्तार के बारे में उन्होंने कई बेहद दिलचस्प बातें लिखी थीं। उन्होंने कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में बतौर प्रोफेसर क़रीब 30 साल काम किया। ब्लैक होल पर उनकी रिसर्च को सबसे ज़्यादा पहचान मिली।

डॉयलोग पर यकीन
उनकी सबसे अच्छी बात थी कि वे डायलॉग में विश्वास करते थे। बहस करना उनकी आदत में शामिल नहीं था। डॉ. नार्लीकर बताते हैं कि कैंब्रिज में उनके साथ मैंने विज्ञान के कई सिद्धांतों पर कई बार चर्चा की, लेकिन कभी हमारे बीच गर्म बहस नहीं हुई. हमने हमेशा एक दूसरे से सीखा ही। अपनी बीमारी की वजह से बीते कई सालों से स्टीफनलेक्चर नहीं दे पा रहे थे, लेकिन लोगों की जिज्ञासाओं और उनके सवालों के जवाब वे कई माध्यमों से देते रहे।’ हॉकिंग इस बात को जोर देकर कहते थे कि दुनिया किसी ईश्वर के इशारे पर नहीं चलती। भगवान कुछ नहीं है और संभावना है कि इस विश्व के अलावा भी कोई दुनिया हो। लोगों को हमेशा ये उनकी कल्पना ही लगी। स्टीफनके पास भी इसे साबित करने के लिए कोई पुख़्ता सबूत नहीं थे। लेकिन उन्होंने मरते दम तक इसे साबित करने की कोशिश की। उनकी इस ललक का सम्मान किया जाना चाहिए।

राहुल की लाइन से अलग बोल रहे हैं खडगे



- प्रेम प्रकाश

कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में राहुल जहां भाजपा को भय और तोड़ने वाली पार्टी बता रहे हैं तो वहीं खडगे कांग्रेस को संघ-भाजपा से सीखने के लिए कह रहे हैं
   
यूपी की दो सीटों पर उपचुनाव में भाजपा की हार से देश में राजनीतिक पारा भले चढ़ा दिखता हो, पर इस गरमाहट से भारतीय राजनीति का चरित्र का बहुत बदलने जा रहा है, एेसा कम से कम फिलहाल तो नहीं दिख रहा। यूपी में अगला उपचुनाव कैराना सीट पर होगा। खबर है कि उपचुनावों से भागने वाली इस बार बसपा वहां भाजपा से भिड़ने के मूड है। फूलपुर और गोरखपुर के नतीजे अगर कैराना में भी दोहरा दिए जाते हैं तो भी यह सवाल अपनी जगह कायम रहेगा कि भाजपा के खिलाफ विपक्ष की गोलबंदी का बड़ा आधार क्या होगा और इसकी अगुवाई क्या कांग्रेस करने में सफल होगी।
दिल्ली में अभी 2019 के चुनावी समर की तैयारी के लिए कांग्रेस का तीन दिवसीय सम्मेलन चल रहा है। राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद यह कांग्रेस का पहला राष्ट्रीय अधिवेशन है। हाल में जो भी चुनाव-उपचुनाव हुए हैं, उसमें कांग्रेस को शिकस्त ही खानी पड़ी है। आगे अगर कर्नाटक भी उसके हाथ से निकला तो बड़े सूबे के तौर पर उसके पास बस पंजाब रह जाएगा। इसलिए यूपी-बिहार की सोशल इंजीनियरिंग से बसपा-सपा औ राजद भले अपनी प्रांतीय पकड़ सुधार लें, इससे आगे वे विपक्ष के किसी राष्ट्रीय गठजोड़ की उम्मीद नहीं जगाते हैं। रही कांग्रेस की बात तो वह इस उम्मीद में भले है कि 2019 के पहले उसकी छतरी के नीचे सारा विपक्ष आ जाएगा। पर इसके लिए उसकी जो तैयारी और समझ है, वह एक फिर निराशा पैदा करती है।
पार्टी के अधिवेशन में लोकसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने पार्टी कार्यकर्ताओं से अपील की है कि भाजपा और संघ कार्यकर्ताओं की तरह वे भी कर्नाटक में घर-घर जाएं। जबकि इससे पहले कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा कि वे नफरत और डर फैलाने वाली नहीं बल्कि प्रेम और भरोसा जगाने वाली पार्टी हैं। उन्होंने कांग्रेस और भाजपा की राजनीतिक संस्कृति में बुनियादी अंतर बताया। सवाल यह है कि एक ही पार्टी के भीतर नेताओं के बीच जब यह साफ नहीं है कि वे चुनावी मैदान में उतरने से पहले किन बातों पर जोर देंगे और चुनावों में जीत के लिए उनकी बुनियादी रणनीति क्या होगी, वह पार्टी अगर देश के आगे राजनीतिक बदलाव और सत्ता परिवर्तन की उम्मीद जगाती है, तो यह भी साफ दिख रहा है कि इस उम्मीद के खिलाफ विरोधाभास खुद उनके अपने भीतर है।   
एक तरफ तो अधिवेशन के उद्घाटन भाषण में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी यह कह गए कि आज देश में गुस्सा फैलाया जा रहा है, देश को बांटा जा रहा है। हिंदुस्तान के एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से लड़वाया जा रहा है। हमारा काम जोड़ने का है। कांग्रेस का हाथ निशान ही देश को जोड़ कर रख सकता है। दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी के दूसरे नेता यह कह रहे हैं कि चुनावी जीत के लिए उन्हें भाजपा-संघ का मॉड्यूल अपनाना चाहिए। साफ है कि कांग्रेस अगर अपने इतिहास के सबसे बुरे दिन में है तो यहां से उबरने का रास्ता उसे अभी तक नहीं सूझ रहा है।
जुमलों और भाषणों के भरोसे न तो राजनीति बदलाव संभव है और न ही सत्ता के शिखर तक पहुंचा जा सकता है। आज की तारीख में यह बात अगर देश में किसी राजनीतिक दल को सबसे ज्यादा समझने की जरूरत है तो वह देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस है।


बुधवार, 14 मार्च 2018

मुरझाए कमल की माला पहनने से क्यों भाग रहे मोदी जी!


- प्रेम प्रकाश

एक दिन पहले चर्चा इस बात की थी कि कैसे सोनिया गांधी के बुलावे पर 20 दलों के नुमाइंदे जुटे और अगले दिन सुबह से खबर का जोर इस पर था कि यूपी-बिहार के उपचुनाव में मोदी मैजिक नहीं चला

भारतीय राजनीति में तात्कालिकता का तत्व काफी हावी हो रहा है और यह दो स्तरों पर हो रहा है। एक तो राजनीति का मैदान और पाला रातोंरात बदल रहे हैं, वहीं राजनीतिक व्याख्या का तर्क और विमर्श भी अधीर जुमलेबाजी में बदल गया है। तभी तो दो दिन पहले तक पूर्वोत्तर में भाजपा की बढ़ी पकड़ को लेकर न्यूज एंकरों और पत्रकारों में यह बताने की होड़ लगी थी कि भाजपा की राजनीति और उसका चुनाव प्रबंधन कैसे अचूक तरीके से काम करता है। कोई मोदी-शाह की जोड़ी को एेतिहासिक बता रहा था तो कोई इस मौके को देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष को पप्पू बताने का एक और मौका बता रहा था। पर यह सारी सूरत 48 घंटे बीतते-बीतते एकदम से पलट गई। एक दिन पहले चर्चा इस बात की थी कि कैसे सोनिया गांधी के बुलावे पर 20 दलों के नुमाइंदे जुटे और अगले दिन सुबह से खबर का जोर इस पर था कि यूपी-बिहार के उपचुनाव में मोदी मैजिक नहीं चला।

भाजपा शिविर में उपचुनावों में मिली बड़ी शिकस्त को लेकर बेचैनी भले हो, पर वे इस हार का ठीकरा अपने सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी के सिर नहीं फोड़ना चाहते। मतगणना के दौरान से ही यह जाहिर होने लगा कि यूपी में हार का ठीकरा सीएम योगी और डिप्टी सीएम केशव मौर्या के सिर फूटेगा, तो वहीं बिहार में नीतीश के गले में हार की माला डाली जाएगी। अच्छा तो यह होता कि नरेंद्र मोदी न सही, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आगे बढ़कर यह कहते कि चुनावी रणनीति में वे इस बार वाकई चूक गए।
इसके उलट उपचुनाव के नतीजे वाले दिन मौन धारण किए हुए अमित शाह बिना किसी तामझाम के पार्टी मुख्यालय पहुंचे। उनके चेहरे से हंसी गायब थी। कुछ दिन पहले ही वे त्रिपुरा चुनाव में भाजपा  की ऐतिहासिक जीत के बाद पार्टी अध्यक्ष लाव-लश्कर के साथ मुख्यालय पहुंचे थे। यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब वहां मौजूद पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संबोधित भी किया था। मोदी पूर्वोत्तर की जीत को पार्टी के वास्तुशास्त्र के हिसाब से दुरुस्त बता रहे थे और कह रहे थे कि डूबते सूर्य का रंग भले गुलाबी हो पर उगते सूर्य का रंग भगवा होता है। यह भगवा रंग अब जब यूपी और बिहार के उपचुनाव में बुरी तरह धूल से सन गया हो तो पलटकर उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि वास्तु दोष तो ठीक हो गया था, फिर भगवा रंग सांझ की लाली में कैसे बदल गया। पर सबको मालूम है कि खूब बोलने वाले पीएम इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलेंगे।

दरअसल उपचुनाव के नतीजे से राजनीतिक दृष्टि से जो बात सबसे अहम है, वह यह कि एनडीए का कुनबा अब धीरे-धीरे ढह रहा है, उसे नए साथी नहीं मिल रहे और पुराने छोड़कर जा रहे हैं। वहीं भाजपा के खिलाफ विपक्ष की बड़ी मोर्चेबंदी की जमीन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले तैयार हो रही है। यह जमीन राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर कैसे बनेगी, इसका जवाब देना अभी टेठी खीर है। पर यह तो अभी से कहा जा सकता है कि 2019 में विरोधी वोटों के बंटवारे की वह खुशी शायद भाजपा को न मिले, जो उसे 2014 में नसीब हुई थी। एेसे में उसकी जीत का सूर्य अगर देखते-देखते ढलने लग जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यूपी में बुआ-भतीजे की दोस्ती और बिहार में राजद के नेतृत्व में जातीय गणित ने जो शतरंज बिछाई है, उसमें कुछ और मोहरे अभी अपनी चाल चलेंगे। देखना दिलचस्प होगा कि इन चालों से सियासी शतरंज का खेल कितना पलटता है। 

सोमवार, 12 मार्च 2018

मौलाना से मिलना... मौलाना को पढ़ना...


 - प्रेम प्रकाश

धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान

‘बेटे, इस्लाम के बारे में भी पढ़ लेना। अभी अपनी पढ़ाई पूरी करो। वैसे भी मुझे लगता है कि गांधी विचार से जुड़े लोगों के लिए अलग से किसी धर्म के बारे में जानने की शायद जरूरत भी नहीं। हम लोग खुद कई अवसरों पर गांधी जी से सीखते हैं। वे शांति के मसीहा थे।’  ...मौलाना वहीदुद्दीन खान के ये कुछ शब्द आज भी अंतर्मन में गूंजते हैं। उन्होंने ये बातें इस्लाम को लेकर मेरी इस जिज्ञासा पर दी थीं कि भारतीय इस्लाम क्या बाकी इस्लाम से जुदा है। कहने की जरूरत नहीं कि उनका कद और उनकी स्वीकृति तब भी इतनी बड़ी थी कि उनकी हर छोटी-बड़ी बातों को लोग गौर से सुनते थे। जहां तक स्मरण है यह वाक्या 1986-87 के आसपास का रहा होगा। दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में उनसे मिला था।
प्रतिष्ठान में प्रकाशित होने वाले मासिक ‘गांधी मार्ग’ में उन दिनों उनके लेख काफी छपते थे। सो, मौलाना के आलेख पहले से पढ़ता रहा था। उन्हें पढ़कर उनके वैचारिक सम्मोहन से दूर रहना मेरे जैसे युवा के लिए इसीलिए भी असंभव था, क्योंकि इस्लाम और अध्यात्म की उनकी व्याख्या खासी आधुनिक और तार्किक होती थी। मुझे याद है कि जब मैं ‘जनसत्ता’ छोड़कर ‘सहारा समय’ में आया, तभी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आई थी। एक साक्षात्कार के सिलसिले में अनुपम मिश्र से मिलने गांधी शांति प्रतिष्ठान जाना था। अनुपम जी सिर्फ पर्यावरण के ही जानकार नहीं थे। उनसे देश-समाज के विभिन्न विषयों पर बात करते हुए एक नई समझ बनती थी। इस समझ के साथ उनकी भाषा का भी आकर्षण होता था। सच्चर कमेटी की चर्चा पर छूटते ही अनुपम जी ने कहा, इस देश में कठिनाई यह है कि सबको राजनीति ज्यादा समझ में आती है। साठ के दशक से मौलाना वहीदुद्दीन खान इस बात को दोहरा रहे हैं कि मुसलमानों की स्थिति देश में तब तक बेहतर नहीं हो सकती, जब तक उन तक तालीम की रोशनी पूरी तरह नहीं पहुंचेगी। उनकी गुरबत और मुख्यधारा से कटने का असली कारण उनका तालीम से कटे होना है। मदरसों की ‘बंद तालीम’ के भरोसे जिस तरह की इस्लामी कौम बनेगी, उसके बारे में सबको पता है। अब जस्टिस राजेंद्र सच्चर ने मुसलमानों को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपी है तो लोग इस बारे में बात कर रहे हैं। अनुपम जी की ये बातें वैचारिक तौर पर झकझोर देने वाली थी। मौलाना के कार्य और लेखन को लेकर यह सब सुनकर एक नई तरह की जिज्ञासा पैदा हुई।
जिन लोगों को 2006 के आसपास के भारतीय सामाजिक और राजनीतिक हालात का पता होगा, वे इस बात को समझेंगे कि एक ऐसे दौर में जब देश में मुसलमानों के कथित रहनुमाई करने वाले अपनी अल्पसंख्यक पहचान को सियासी परचम की तरह इस्तेमाल करने पर तुले थे और समाज से लेकर संसद तक अस्मितावादी विमर्श चल रहा था, मुस्लिम समाज की वास्तविक स्थिति को सामने रखने वाली सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने किस तरह का तूफान पैदा किया था।
भारतीय समाज में मुसलमानों की हैसियत स्वाधीनता आंदोलन के दौर से लेकर आजादी के समय और उसके बाद किस तरह बदली, इस स्फीति को एक यात्रा की तरह देखें तो मन में कौतुहल पैदा करने वाले कई प्रश्न खड़े होते हैं। ये बेचैनी तब मैंने भी खूब महसूस की थी। एक बार फिर राहत मिली मौलाना वहीदुद्दीन खान को पढ़कर। एक पुस्तिका के रूप में उपलब्ध उनके एक लंबे आलेख में पढ़ा कि भारत विभाजन के बाद मुसलमानों के लिए इस देश में सबसे बड़ी त्रासदी उनका खुद को सियासी तौर पर अल्पसंख्यक उभार के साथ देखना है। बदकिस्मती से इस गलती में मुसलमानों के नेता भी शामिल रहे हैं। भारतीय समाज और संस्कृति में एक समन्वयवादी तत्व शुरू से रहा है। यह तत्व देश के हिंदुओं में भी है।
मौलाना ने इस बात को हिंसक नादानी करार दिया कि भारतीय मुसलमान हिंदुओं से किसी तरह की होड़ लें या फिर उनसे अलगाव या स्पर्धा की कोई राह चुनें। वे हिंदुओं और मुसलमानों की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत को बांटकर तो नहीं ही देखते हैं, उलटे इनमें एक-दूसरे को तर-बतर करने वाले अंतरसूत्र देखते हैं। ...तभी तो वे मानते हैं कि अल्पसंख्यक असुरक्षा का भाव मुसलमान समाज को भारत के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास यात्रा से उसे इतनी दूर ले जाएगा कि वे अभाव और हीनता के ऐसे मझधार में फंसेंगे, जिससे निकलना आसान नहीं होगा। मौलाना वहीदुद्दीन खान आज भी अपनी इस समझ पर कायम हैं। वे अपने लेखों के साथ टीवी संदेशों और पोडकास्ट में इस संदेश को दुहराते हैं।
‘जनसत्ता’ अखबार में मैं जब था तो एक सम्मेलन में आरिफ मोहम्मद खान को सुना। कहने को उनका शुमार मुसलमानों के नेता के तौर पर ही होता है, पर वे अपनी इस पहचान के खुद खिलाफ हैं। सम्मेलन में खान ने बताया कि कभी भारत और पाकिस्तान.. दोनों तरफ के मुसलमानों ने खान अब्दुल गफ्फार खान की नहीं सुनी और इसका नतीजा देश विभाजन के समय से लेकर बाद तक के सांप्रदायिक दंगे हैं। आज भी हमारे बीच एक सच की आवाज है। यह आवाज है मौलाना वहीदुद्दीन खान की। खान कहीं न कहीं उन्हीं बातों के प्रति हमें आगाह कर रहे हैं, जो 1947 और उसके बाद हुई।
धर्म और संप्रदाय की छोटी-बड़ी लकीरें खींचकर दुनिया का कोई समाज आगे नहीं बढ़ा है। इस्लाम अमन और मोहब्बत का पैगाम देता है। इस पैगाम को लोगों के दिलों तक पहुंचा
रहे हैं मौलाना वहीदुद्दीन खान। खान को पढ़ना और उन्हें सुनना, अमन और सकून पर यकीन बढ़ाने जैसा है। मौलाना इस यकीन को देश-दुनिया में अपनी तरह से जिस तरह से फैला रहे हैं, उसे देखकर राष्ट्रपिता गांधी की याद आती है। खुद मौलाना भी मानते हैं कि जंगे आजादी के दिनों से उन पर गांधी का रंग चढ़ गया था। निस्संदेह यह रंग बाद में और पक्का... और पाकीजा हुआ। 

अलग झंडा क्यों चाहिए कर्नाटक सरकार को!


- प्रेम प्रकाश

नब्बे के दशक से जोर पकड़ी अस्मितावादी राजनीति 2014 तक आते-आते हांफने लगी। बिहार विधानसभा चुनाव में इसका नया प्रभावी संस्करण देखने को जरूर मिला, पर आज नीतीश और लालू जिस तरह राजनीति के दो छोर पर खड़े हैं, उसने इस संस्करण की आगामी संभावना को पूरी तरह ढहा दिया। कहने को उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा की नई दोस्ती भी अस्मितावादी राजनीति के इसी संस्करण की नकल है, पर इसका एक तो रकबा अभी बहुत कम है, दूसरे दोनों दल की तरफ से अभी इस बारे में बहुत कुछ साफ होना बाकी है। इन सारे घटनाक्रमों के बीच क्षेत्रीय अस्मिता की जमीन को बीते एक वर्ष से जिस तरह कर्नाटक में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी सींचने में लगी है, वह एक खतरनाक संकेत है।

तमिलनाडु के साथ कावेरी जल विवाद के बाद कर्नाटक ने अपना अलग झंडा तैयार कर लिया है। कर्नाटक में इसी वर्ष अप्रैल-मई में चुनाव होने हैं। वहां कांग्रेस का जो रुख है, उसमें क्षेत्रीय अस्मिता और राष्ट्रवाद का चुनावी संघर्ष पहली बार जमीन पर आमने-सामने होगा। ताज्जुब है कि राष्ट्रवादी राजनीति के सामने क्षेत्रीय स्वाभिमान और अस्मिता की जो सियासी जमीन पूर्वोत्तर राज्यों, प. बंगाल, तमिलनाडु और केरल में भी नहीं तैयार हो सकी, उसका उदाहरण कर्नाटक बनने जा रहा है। देश के इन तमाम सूबों में क्षेत्रीय राजनीति का एक अपना गणित जरूर रहा है, पर इस गणित से राष्ट्रवादी घोड़े पर सवार भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए कोई सियासी प्रयोग अगर कहीं सीधे तौर पर आजमाई जा रही है, तो आज की तारीख में देश का वह अकेला राज्य कर्नाटक है।

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने दांव खेला है, उसने निस्संदेह भाजपा की उलझनें बढ़ा दी हैं। सिद्धारमैया ने कर्नाटक के लिए एक झंडे का डिजाइन कैबिनेट से पास कराया है, जिसको अब वह केंद्र सरकार को भेजने जा रहे हैं ताकि इसको संवैधानिक मंजूरी मिल सके। कन्नड़ संगठनों के साथ अपने कैंप दफ्तर में बैठक के दौरान सिद्धारमैया ने इस झंडे को दिखाया, जो तीन रंगों का है। झंडे में ऊपर पीली पट्टी, बीच में सफेद और नीचे लाल पट्टी है। बीच में सफेद पट्टी पर राज्य का प्रतीक चिन्ह गंद्दु भेरुण्डा (दो बाज) बना है। अपने दांव को किसी संवैधानिक चुनौती से बचाने और अलगाववादी हिमाकत से अलग दिखाने की कोशिश में सिद्धारमैया कह रहे हैं वे इस झंडे को राष्ट्रीय ध्वज से नीचे ही फहराएंगे।

पर जिस तरह सिद्धारमैया इस पूरे प्रकरण को बता रहे हैं, उसमें उनकी मंशा को पढ़ना आसान है। वे जब कहते हैं कि उनका यह झंडा कन्नड़ अभिमान के लिए है और तकराबन सभी कन्नड़ संगठनों का समर्थन उन्हें इसके लिए हासिल है, तो साफ दिख जाता है कि वे एक बड़ा सियासी दांव खेल रहे हैं। विधानसभा चुनाव से ठीक पहले झंडे को लेकर सामने आने की टाइमिंग भी इसी बात की तरफ इशारा कर रही है। 

दिलचस्प है कि कर्नाटक कई तरह की राजनीति की प्रयोगशाला पहले से रहा है। सरकारी भ्रष्टाचार के भी बड़े-बड़े मामले वहां उठे हैं। पर राज्य के लिए अलग झंडे की मांग उठाकर वहां की कांग्रेस सरकार ने जो हिमाकत की है, उसका खामियाजा कांग्रेस की सियासी नैतिकता को तो अपनी तरह से उठाना ही पड़ेगा। देश में इन दिनों प. बंगाल और जम्मू-कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के कुछ राज्यों और केरल में जिस तरह की अशांति है, उसका प्रतिफलन अगर अलग-अलग या साझे तौर पर देश के आगे एक नए क्षेत्रीयतावादी या प्रांतवादी संकट के तौर पर सामने आए तो यह देश की अखंडता के लिए वाकई बहुत बड़ी चुनौती होगी। यह चुनौती कैसी बड़ी हो सकती है, वह आंध्र सरकार के विशेष राज्य का दर्जा मांगने से शुरू हुई सियासी लपट के देखते-देखते बिहार तक पहुंचने के घटनाक्रम के तौर पर भी समझा जा सकता है। मूर्तिभंजक पागलपन के दौर में क्षेत्रीय अस्मिता के नाम पर भड़काने वाली मानसिकता के प्रकटीकरण से राष्ट्रीय सद्भाव के बुरी तरह चोटिल होने का खतरा है।

भारत में राष्ट्रवादी दरकारों और उसके उसूलों को लेकर बहस आजादी मिलने से पहले ही शुरू हो गई थी। एक समय जब देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल रियासतों के विलय के लिए कठिन चुनौतियों का समाना कर रहे थे तो एक तरह से यह राष्ट्रीय सम्मति भी बनी थी कि देश की भौगोलिक, राजनीतिक एकता के लिए तमाम ऐसे विवादों को एक किनारे रखना होगा, जिससे देश की संघवादी रचना कमजोर हो सकती है। पर दुर्भाग्य से अस्सी-नब्बे के दशक के बाद से देश में राजनीतिक स्फीति इतनी ज्यादा हुई कि सत्ता की सीढ़ी बनाने के लिए सियासी जमातें और उनके नेता आज किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। बीते सालों में विधानसभाओं में बजाप्ता प्रस्ताव लाए और पास किए गए हैं कि उन आतंकियों को क्षमादान मिले, जिसे देश की न्यायिक व्यवस्था आजीवन कारावास या फांसी की सजा सुना चुकी है। याकूब मेनन, अफजल गुरु से लेकर देविंदर पाल सिंह भुल्लर के लिए सियासी आंसू रोने वालों को कभी यह फिक्र नहीं रही कि उनकी इस हिमाकत का देर-सबेर देश को कितनी बड़ी कीमत चुकानी होगी।   

यहां एक बात जो और समझनी है, वह यह कि बीते चार सालों में देश की राजनीति का सूर्य पूरी तरह से दक्षिणायन हो चुका है। देश की राजनीति में यह बड़ा शिफ्ट है। जिस कांग्रेस के खिलाफ कभी डॉ. राम मनोहर लोहिया सरीखे नेताओं को विपक्षी मोर्चा तैयार करने और फिर उसे चुनावी समर में शिकस्त से बचाने में पसीने छूट जाते थे, उस कांग्रेस का जनाधार आज इतना कमजोर हो चुका है कि नेहरू-गांधी परिवार का नेतृत्व भी चाहकर कुछ नहीं कर पा रहा है। ज्यादा बुरी स्थिति यह है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी अपने खिलाफ बने इस माहौल को समझने-परखने के बजाय उन तिकड़मों पर भरोसा कर रही है, जो उन्हें जड़मूल से और कमजोर कर देगी।

बहरहाल, अगर बात करें कर्नाटक की तो वहां अलग झंडे की मांग को लेकर जो कुछ भी हुआ, वह गंभीर मामला होने के साथ हास्यास्पद भी है। एक तो भारत जिस देश का संघीय राष्ट्र है, उसमें संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा सिर्फ जम्मू-कश्मीर को ही प्राप्त है। इसलिए सिर्फ जम्मू कश्मीर के पास ही अपना अलग झंडा है। अलग झंडे की मांग एक तरह से अलग राष्ट्रीयता की मांग की तरह है, जिसे कम से कम देश की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के तहत मंजूरी नहीं मिल सकती। ऐसी कुछ मांगें आरक्षण जैसे मसलों पर भी आई हैं, जिसमें चुनावी फायदे के लिए राजनीतिक दलों ने जनता के बीच जाकर यह वादा कर दिया कि वह संवैधानिक और घोषित न्यायिक व्यवस्था और सीमा से बाहर जाकर भी कुछ समुदायों को आरक्षण देंगे। अलबत्ता इस चुनावी दांव में यह समझ भी शामिल रहती है कि ऐसा कुछ चाहकर भी इसलिए भी नहीं किया जा सकता क्योंकि विधानसभा या राज्य सरकार की मंजूरी के बावजूद इसे न्यायिक चुनौती दी जाएगी, जहां उसे मान्यता मिलने का सवाल ही नहीं है।

एक जो आखिरी बात इस पूरे मसले पर गौर करने की है, वह यह कि कर्नाटक में झंडे की मांग कोई आज नई नहीं उठी है, बल्कि इससे पहले जब वहां भाजपा की सरकार थी तो कांग्रेस की तरफ से यह मांग उठी थी और इसके लिए विधानसभा में प्रस्ताव लाया गया था। मामला न्यायालय भी पहुंचा और तब सदानंद गौड़ा की अगुवाई वाली भाजपा सरकार ने कर्नाटक उच्च न्यायालय को बताया कि उसने दो रंग वाले कन्नड़ झंडे को राज्य का आधिकारिक झंडा घोषित करने के सुझाव को स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि अलग झंडा ‘देश की एकता एवं अखंडता के खिलाफ’  होगा। साफ है कि नए सिरे से इस मांग को उठाकर कांग्रेस देश में सांप्रदायिक से आगे प्रांतवादी या अलगाववादी ध्रुवीकरण का खतरनाक दांव खेलना चाहती है।