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सोमवार, 24 नवंबर 2014

प्रतिभा की द्रौपदी...!


ज्ञानपीठ पुरस्कार को इस साल पचास साल पूरे हो रहे हैं। यह अलग बात है कि इस साल 49वें ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई है, जो वरिष्ठ हिदी कवि केदारनाथ सिह को दिया गया है। वर्ष के हिसाब से केदारजी को यह सम्मान 2०13 के लिए दिया गया है।
अपनी अर्धशती लंबी इस यात्रा में भारतीय भाषाओं के इस सर्वोच्च और सर्वमान्य माने जाने वाले पुरस्कार को लेकर हर हलके में एक सम्मान का भाव रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण इसका कम विवादित रहना रहा है। पुरस्कारों के अवमूल्यन के दौर में यह उपलब्धि बड़ी बात है।
मुझे याद है कि 2०11 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हुई तो एक साथ मोबाइल फोन और ईमेल पर कई मैसेज आने लगे। इनमें ज्यादातर इस सूचना को साझा करने वाले थे कि इस बार ज्ञानपीठ सम्मान के लिए चुनी गई हैं वरिष्ठ उडिèया कथाकार प्रतिभा राय।
ताज्जुब हुआ कि गूगल के सर्च इंजन पर एक हफ्ते के अंदर इतनी सारी सामग्री इकट्ठा हो गई कि जिन्होंने पहले प्रतिभा जी को नहीं पढ़ा था, वे भी इस बारे में कई रचनात्मक तथ्यों से अवगत होने लगे। हिदीप्रेमियों के फ़ेसबुक वाल पर प्रतिभा जी की नई-पुरानी तस्वीरें साझा होने लगीं। साथ में सबके अपने मूल्यांकन और टिप्पणियां। हिदी की कई पत्रिकाओं ने इस अवसर पर या तो अपने विशेषांक निकाले या फिर प्रतिभा राय की कहानियों को पुनर्पाठ के लिए पाठकों को प्रस्तुत किया। ईमानदारी से कहूं तो पुरस्कार की घोषणा के बाद ही मैंने भी प्रतिभा जी के बारे में काफी कुछ पढ़ा और जाना-समझा। खासतौर पर उनके प्रसिद्ध उपन्यास 'द्रौपदी’
को लेकर।
प्रतिभा राय भारतीय साहित्यकारों की उस पीढ़ी की हैं, जिन्होंने गुलाम नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में अपनी आंखें खोलीं। लिहाजा, अपनी अक्षर विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने स्वतंत्र लीक गढ़ने का हौसला दिखाया। उडिèया से बाहर का रचना संसार उनके इस हौसले से ज्यादा करीब से तब परिचित हुआ, जब उनका उपन्यास आया- 'द्रौपदी’। भारतीय पौराणिक चरित्रों को लेकर नवजागरण काल से 'सुधारवादी साहित्य’ लिखा जा रहा है, जिसमें ज्यादा संख्या काव्य कृतियों की है। कथा क्षेत्र में इस तरह का कोई बड़ा प्रयोग नहीं हुआ।
समकालीन जीवन के गठन और चिताओं को लेकर एक बात इधर खूब कही जाती है कि साहित्य के मौजूदा सरोकारों पर खरा उतरने के लिए अब 'बिबात्मक’ औजार से ज्यादा जरूरी है- 'कथात्मक हस्तक्षेप’। मौजूदा भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी दुराग्रहों पर हमला बोलने के लिए प्रतिभा राय ने इस दरकार को समझा। 'द्रौपदी’ में वह विधवाओं के पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक नजरिया, पति-पत्नी संबंध और स्त्री प्रेम को लेकर काफी ठोस धरातल पर संवाद करती हैं। इस संवाद में वह एक तरफ जहां पुरुषवादी आग्रहों को चुनौती देती हैं, वहीं भारतीय स्त्री के गृहस्थ जीवन को रचने वाली विसंगतिपूर्ण स्थितियों पर भी वह संवेदनात्मक सवाल खड़ी करती हैं।
बहरहाल, 'द्रौपदी’ उपन्यास की रचयिता का रचना संसार काफी विषद और विविधतापूर्ण है। कथा साहित्य के साथ कविता के क्षेत्र में भी वह अधिकारपूर्वक दाखिल हुई हैं। उनका रचनाकर्म अभी न तो थका है और न ही विराम के करीब है, इसलिए उनसे आगे और महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों की उम्मीद है।

सोमवार, 17 नवंबर 2014

ऐसे तो लौटने से रहे महात्मा


समय से हम सब बंधे हैं पर समय को बांधने की भी हमारी ललक रहती है। तभी तो समय को जीने से पहले ही हम उसके नाम का फैसला कर लेते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बच्चे के जन्म के साथ उसका नामकरण संस्कार पूरा कर लिया जाता है। यह परंपरा हमारी स्वाभाविक वृत्तियों से मेल खाती है।
जिस 21वीं सदी में हम जी रहे हैं, उसका आगमन बाद में हुआ नामकरण पहले कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसे कंप्यूटर और सूचना क्रांति की सदी बताते थे। उनकी पार्टी आज भी इस बात को भूलती नहीं और देश को जब-तब इस बात की याद दिलाती रहती है। बहरहाल, बात इससे आगे की। 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिसक प्रयोगों को आजमाया गया तो फिर से एक बार समय के नामकरण की जल्दबाजी देखी गई। भारतीय मीडिया की तो छोड़ें अमेरिका और इंग्लैंड से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिग लगी कि भारत में एक बार फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं। सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकर्ताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के साथ इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
इस सिलसिले में एक उल्लेख और। भाजपा के थिक टैंक में शामिल रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने अपनी किताब 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिग व्हील’ में तो इंटरनेट को गांधी का आधुनिक चरखा तक बता दिया। कुलकर्णी ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क दिए और यहां तक कि खुद गांधी के कई उद्धरणों का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी के इरादे पर बगैर संशय किए यह बहस तो छेड़ी ही जा सकती है कि जिस गांधी ने अपने 'हिद स्वराज’ में मशीनों को शैतानी ताकत तक कहा और इसे मानवीय श्रम और पुरुषार्थ का अपमान बताया, उसकी सैद्धांतिक टेक को कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी परावलंबी तकनीक और भोगवादी औजार के साथ कैसे मेल खिलाया जा सकता है।
संयोग से गांधी के 'हिद स्वराज’ के भी सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर गांधीवादी विचार के तमाम अध्येताओं ने एक सुर में यही बात कही कि इस पुस्तक में दर्ज विचार को गांधी न तब बदलने को तैयार थे और न आज समय और समाज की जो नियति सामने है, उसमें कोई इसमें फ़ेरबदल की गंुजाइश देखी जा सकती है।
अब ऐसे में कोई यह बताए कि साधन और साध्य की शुचिता का सवाल आजीवन उठाने वाले गांधी की प्रासंगिकता और उनके मूल्यों की 'रिडिस्कवरी’ की घोषणा ऐसे ही तपाक से कैसे की जा सकती है? तो क्या गांधी के मूल्य, उनके अहिसक संघर्ष के तरीकों की वापसी की घोषणा में जल्दबाजी की गई। अगर आप देश में 'आप’ की राजनीति पर नजदीकी नजर रख रहे होंगे तो इस सवाल का जवाब आपको जरूर मिल गया होगा।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

बॉबी केस और पामेला बोर्डेस



पामेला बोर्डेस का नाम 1989 और 199० के आसपास जब मीडिया की सुर्खियों में आया था तो दुनिया सिर्फ इस बात पर दंग नहीं थी कि तब की ब्रितानी हुकूमत और वहां की सियासत के साथ मीडिया जगत में अचानक भूचाल आ गया। ...और वह भी एक कॉल गर्ल के कारण। भारत में तो लोग इस बात पर ज्यादा हतप्रभ थे कि इस सेक्स स्केंडल में भारत की एक बेटी का नाम आ रहा है।
पामेला 1982 में मिस इंडिया चुनी गई थी पर ग्लैमर की जिस दुनिया में वह मुकाम हासिल करना चाह रही थी वह दुनिया उसके आगे देह की नीलामी की शर्त रख देगी ऐसा शायद उसने भी नहीं सोचा था। 1982 वही साल है जब बिहार का बॉबी मर्डर केस सामने आया था। नेताओं और उनके बेटों ने सचिवालय में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी को पहले तो हवस का कई बार शिकार बनाया और बाद में जब बात हाथ से निकलती दिखी तो उसका गला घोंट दिया गया।
दरअसल, पिछले दो-ढाई दशकों में भारत इन मामलों में इतना 'उदार’ जरूर हो गया है कि उसे अब ऐसी सनसनी के लिए सात समंदर पार का दूरी तय करनी पड़े। इस दौरान देश की अर्थव्यवस्था अगर ग्लोबल हुई है तो परिवार, समाज और राजनीति में भी काफी कुछ बदल गया है। कैमरा, मोबाइल और इंटरनेट के दौर में एक तो निजी और सार्वजनिक जीवन का अलगाव मिट गया है, वहीं इससे गोपन के 'ओपन’ का जो संधान शुरू हुआ है, उसने कई दबी और गुह्य सचाइयों को सामने ला दिया। बात अकेले राजनीति की करें तो अंगुलियां कम पड़ जाएंगी गिनने में कि इस दौरान कितने नेताओं और सरकार के हिस्से-पुर्जों की मर्यादित जीवन की कलई खुलने के बाद मुंह ढांपने पर मजबूर होना पड़ा है। हाल के कुछ सालों की बात करें तो भारतीय राजनीतिक यह सर्वाधिक अप्रिय प्रसंग अब आपवादिक नहीं रह गया है। इसके साथ ही स्त्री और राजनीति का साझा भी इस कदर बदल गया है, इसमें गर्व और संतोष करने लायक शायद ही कुछ बचा हो। इस स्थिति की गहराई में जाएं तो हमें सबसे पहले यह समझना होगा कि सेवा और राजनीति का अलगाव तो बहुत पहले हो गया था। ऐतिहासिक रूप से यह स्थिति जयप्रकाश आंदोलन के भी बहुत पहले आ गई थी। अब तो वही लोग राजनीति में आ रहे हैं जिन्हें चुनाव मैनेज करना आता हो। धनबल और बाहुबल के जोर के आगे चरित्रबल को कौन पूछता है। फिर समाज का अपना चरित्र भी कोई इससे बहुत अलग हो, ऐसा भी नहीं है। टीवी-सिनेमा से लेकर परिवार-समाज तक चारित्रिक विघटन का बोलबाला है।
दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति के इस धूमिल अध्याय का पटाक्षेप अभी आसानी से होता तो नहीं लगता। क्योंकि जो स्थिति है उसमें इस चिता को भी पूरी स्वीकृति नहीं है। ऐसे मौकों पर महेश भट्ट जैसे फिल्मकार इस दलील के साथ सामने आते हैं कि जीवन का भीतरी और बाहरी सच अब अलग-अलग नहीं रहा। जो है वह खुला-खुला है, ढंका-छिपा कुछ भी नहीं। नहीं तो ऐसा कभी नहीं रहा है कि संबंध और परिवार की मर्यादा वही रही हो, जैसी दिखाई-बताई जाती रही हो। भट्ट आगे यहां तक कह जाते हैं कि इस स्थिति पर सर फोड़ने के बजाय इसे स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि अगर इस स्वीकृति से हमने आदर्श और मर्यादा के नाम पर कोई मुठभेड़ की तो फिर हम सचाई से भागेंगे। यह नंगे सच की चुनौती है।

सोमवार, 3 नवंबर 2014

व्रत नहीं एक जरूरी सबक भी है छठ


कुछ साल पहले 'बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप’ से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डॉक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी का जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। कविताई के अंदाज में कहें तो छठ पर्व आज परंपरा या सांस्कृतिक पर्व से ज्यादा सामयिक सरोकारों से जुड़े जरूरी सबक याद कराने का अवसर है। एक ऐसा अवसर जिसमें पानी के साथ मनमानी पर रोक, प्रकृति के साथ साहचर्य के साथ जीवन जीने का पथ और शपथ दोनों शामिल हैं। कविताई के अंदाज में कहें तो- पनघट-पनघट पूरबिया बरत / बहुत दूर तक दे गई आहट /शहरों ने तलाशी नदी अपनी/ तलाबों पोखरों ने भरी पुनर्जन्म की किलकारी / गाया रहीम ने फिर दोहा अपना / ऐतिहासिक धोखा है पानी के पूर्वजों को भूलना...।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं। पर सबक की पुरानी लीक छोड़कर बार-बार गलती और फिर नए सिरे से सीखने की दबावी पहल ही आज हमारे शिक्षित और जागरूक होने की शर्त हो गई है। एक ऐसा शर्तनामा जिसने मानवीय जीवन के हिस्से निखार कम बिगाड़ के रास्ते को ज्यादा सुदीर्घ और चौड़ा किया है। 
बावजूद इसके गनीमत यह है कि लोक और माटी से जुड़े होने की ललक अब भी ढेर नहीं हुई है। बात करें छठ व्रत की तो दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, अब तो छठ तक ऐसा ही 
चलेगा, भैया लोगों का 'बड़का पर्व’ जो शुरू हो 
गया है।’
वैसे इस साल छठ अच्छे दिनों के सांस्कृतिक आहट के रूप में भी महसूस किया जा रहा है। एक ऐसी आहट जिसे न तो किसी मोबाइल क्लिप में सुना जा सकता है, न ही सौ करोड़ी फिल्मी तमाशे की 'किक’ में। कुछ साल पहले भैया लोगों के विरोध का भी हिसक आलम देश ने देखा है। नफरत और विरोध का यह सिलसिला अब पूरब से हटकर पूर्वोत्तरी हो गया है। यह देश की सामासिक सांस्कृतिक बनावट को तहस-नहस करने वाली स्थिति है। समय रहते अगर इस बारे में हम नहीं चेते तो समाज, परंपरा और संस्कृति के सामासिक साझे ेकी हमारी विरासत पूरी तरह से छिन्न-भिन्न 
हो जाएगी। 
बहरहाल, इन स्थितियों के बावजूद जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनें और यह ललक दिल्ली के लाल किले से पूरे देश में पहुंचे तो यह भी कम संतोषप्रद स्थिति नहीं है। यह देश आजादी के बाद पहली बार ऐसा अनुभव कर रहा है जब नदियों खासतौर पर गंगा की स्वच्छता और सफाई जैसे मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे का हिस्सा बने हैं और वह भी सरकारी समझ-बूझ के कारण। 
यहां यह समझना भी जरूरी है कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में 'विकसित हठ’ और 'पारंपरिक छठ’ की आपसदारी अगर किसी स्तर पर एक साथ टिकी है तो यह किसी गनीमत से कम नहीं। यह ग्लोबल दौर में सब कुछ गोल हो जाने के खतरे से हमें उबारता भी है और अपने जुड़ाव की पुरानी जमीन के अब तक पुख्ता होने के सबूत भी देता है। 
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। 
भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसी मेल को 'लोकरस’ और 'लोकानंद’ कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फ़ेस्ट से भरता है और न ही किसी बड़े ब्रांड या प्रोडक्ट के सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है।
पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की होड़ के बीच इस लोकरंग की एक वैश्विक छटा भी उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरिशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल स्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। 
याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी तरह का पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधविश्वास के खिलाफ यह पर्व भारतीय लोकसमाज की तरफ से एक बड़ा हस्तक्षेप भी है, जिसका कारगर होना सबके हित में है। 

बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

ओबामा का नोबेल गांधी प्रेम


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अमेरिका दौरे की चर्चा अब भी खत्म नहीं हुई है, कम से कम सोशल मीडिया में तो नहीं ही। पर इस पूरी चर्चा में बहुत कम लोग ऐसे हैं जो इस बहाने अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत दौरे को भी याद करने की जहमत उठा रहे हैं। मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए गांधी का गीता भाष्य ले गए थे। दिलचस्प है कि ओबामा भी अपने भारत दौरे के दौरान अपने गांधी प्रेम को भावनात्मक रूप से जाहिर करना नहीं भूले थे। यह अलग बात है कि तब मीडिया ने उनके इंडिया विजिट को इस लिहाज से ज्यादा देखा नहीं। खैर, यह तो रही बीती बात। पर इतना तो आज भी कह सकते हैं कि गांधी प्रेम जरूर एक ऐसा मुद्दा है, जिसने राष्ट्रपति चुनाव से लेकर विश्व शांति के अग्रदूत के रूप में नोबेल सम्मान से नवाजे गए इस बिरले राजनेता को न सिर्फ चर्चित बनाए रखा है बल्कि भारत के संदर्भ में उनकी चर्चा बिना इसके पूरी ही नहीं हो सकती।
अलबत्ता गांधीजनों से बात करें तो उनमें से ज्यादातर ओबामा के गांधी प्रेम को तो सराहते हैं पर वे इसे एक राष्ट्राध्यक्ष के हृदय परिवर्तन होने की कसौटी मानने को तैयार नहीं होते। दरअसल, जिन दो कारणों से ओबामा गांधी को नहीं भूलते या उन्हें याद रखना जरूरी मानते हैं, वे हैं गांधी की वह क्षमता जो साधारण को असाधारण के रूप में तब्दील करने व होने की प्रेरणा देता है और वह पाठ जो विश्व को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व के लिए निर्णायक तौर पर जागरूक होने की जरूरत बताता है।
वर्ष 2००8 के शुरुआत में जब ओबामा अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए यहां-वहां चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उन्होंने एक लेख में लिखा, '...मैंने महात्मा गांधी को हमेशा प्रेरणास्रोत के रूप में देखा है क्योंकि वह एक ऐसे बदलाव के प्रतीक हैं, जो बताता है कि जब आम लोग साथ मिल जाते हैं तो वे असाधारण काम कर सकते हैं।’ अपनी भारत यात्रा की शुरुआत में उन्होंने एक बार फिर गांधी को भारत का ही नहीं पूरी दुनिया का हीरो बताया।
दरअसल, 21वीं सदी में पूंजी के जोर पर विकास की जिस धुरी पर पूरी दुनिया घूमने को बाध्य है, उसमें भय और अशांति का संकट सबसे ज्यादा बढ़ा है। भोग और लालच की नई वैश्विक होड़ और मानवीय सहअस्त्वि का साझा बुनियादी रूप से असंभव है। इसलिए मौजूदा दौर में जिन लोगों को भी गांधी की सत्य, अहिसा और सादगी चमत्कृत करती है, उन्हें गांधी की उस 'ताबीज’ को भी नहीं भूलना चाहिए, जो व्यक्ति और समाज को हर दुविधा और चुनौती की स्थिति में 'अंतिम आदमी’ की याद दिलाता है। लिहाजा, ओबामा का गांधी प्रेम शांति और प्रेम की अभिलाषी दुनिया की संवेदना को स्पर्श करने की रणनीति भर नहीं है तो दुनिया के सबसे ताकतवर कहे जाने वाले इस राष्ट्राध्यक्ष को अपनी पहलों और संकल्पों में ज्यादा दृढ़ और बदलावकारी दिखना होगा। 9/11 के जख्म से आहत अमेरिका को अगर 26/11 का हमला भी गंभीर लगता है, पाकिस्तान को मिल रही उसकी शह एक भूल लगती है, आतंक रहित विश्व परिदृश्य की रचना उसकी प्राथमिकता में शुमार है तो उसका संकल्प हथियारों की खरीद-फरोख्त से ज्यादा मानवीय सौहार्द को बढ़ाने वाले अन्य मुद्दों पर होनी चाहिए। क्योंकि ओबामा और वह दुनिया जिसमें वह रहते हैं अपने रक्षार्थ जब भी खड़ी होगी तब गांधी की लाठी ही उनकी टेक बनेगी।

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

करवा की लीक और सिंदूरी सीख


करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी हैं। कुछ साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली एक लड़की इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दोनों हैं, यानी ईश्वर से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फL है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद।
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब लिव-इन और समलैंगिक जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में तलाक के मामले जहां 54-55 फीसद हैं, वहीं अपने देश में यह फीसद आज भी बमुश्किल 1.1 फीसद है। जाहिर है कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने 'उनके’ लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां मेड फॉर इच अदर के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं।
परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करते हैं। यह फिनोमिना गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेहंदी सजे, इसकी खुशी पति में भी दिखती है, पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी से साथ बाजार निकलती है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ भाजपा नेता सुषमा स्वराज कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी जब व्रत की थाली सजाए टीवी पर दिखती हैं तो वहीं देश के सबसे ज्यादा चर्चित और गौरवशाली परिवार का दर्जा पाने वाले बच्चन परिवार में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। साफ है कि नया परिवार संस्कार अपनी-अपनी तरह से परंपरा की गोद में दूध पी रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में यही तो अच्छी और सशक्त बात है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है।

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2014

बाजार पूरा और दुनिया आधी


'पावर वूमन’ का आकर्षक कांसेप्ट बाजार में आ गया है। अधिकार, शिक्षा और अर्थ के बूते जिस महिला सशक्तिकरण की समझ अब तक सरकार से लेकर गैरसरकारी संगठन तक दिखा रहे थे, पावर वूमन का कांसेप्ट इन सब का तोड़ है।
दरअसल, पिछले दो दशकों में महिलाओं के आगे जो नई दुनिया खुली है, उसने उनके आगे विकास का नया और चमकदार रास्ता भी खोला है। सुष्मिता सेन, दीया मिर्जा, बिपाशा बसु, नफीसा अली से लेकर शेफाली जरीवाल और राखी सावंत तक के नाम आधी दुनिया के लिए शोहरत और सफलता की सुनहरी इबारत की तरह हैं।
इस सफलता की एक दूसरी धारा भी है, जिनसे समय के बदले बहाव में सबसे क्षमतावान तैराकों के रूप में ख्याति मिली है। ऐसी ही महिलाओं में शुमार इंदिरा नुई, चंदा कोचर और नैना लाल किदवई जैसे नामों को प्रचार माध्यमों ने लोगों को रातोंरात रटा दिए। पावर वूमन का कांसेप्ट इन्हीं महिलाओं को आगे करके गढ़ा गया है। इस पावरफुल कांसेप्ट की चौंध से महिलाओं की बंद दुनिया को खुली और रोशन करने का अब तक का संघर्षमय सफर अचानक खारिज हो गया है।
ऐसे में सवाल यह है कि पिछले कुछ दशकों में जिस लड़ाई और संघर्ष को इरोम शर्मिला, मेधा पाटकर, अरुणा राय, इला भट्ट, रागिनी प्रेम और राधा बहन जैसी महिलाएं आगे बढ़ा रही हैं, क्या वह स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं करता। समाज और राजनीति विज्ञानियों की बड़ी जमात यह मानती है कि हाल के दशकों में भारतीय महिलाओं के हिस्से जो सबसे बड़ी ताकत पहुंची है, वह पंचायती राज के हाथों पहुंची है। दिलचस्प है कि पावर वूमन का कांसेप्ट ऐसी किसी महिला को अपनी अहर्ता प्रदान नहीं करता जिसने इस विकेंद्रित लोकतांत्रिक सत्ता को न सिर्फ अपने बूते हासिल किया बल्कि उसके कल्याणकारी इस्तेमाल की एक से बढ़कर एक मिसालें भी पेश कीं।
बाजार की खासियत है कि वह आपकी दमित चाहतों को सबसे तेज भांपता है। परंपरा और पुरुषवाद की बेड़ियां झनझना रही महिलाओं को बाजार ने आजादी और सफलता की कामयाबी का नया आकाश दिखाया। कहना गलत नहीं होगा कि इससे आधी दुनिया में कई बदलाव भी आए। पहली बार महिलाओं ने महसूस किया कि उनका आत्मविश्वास कितना पुष्ट और कितना निर्णायक साबित हो सकता है। पर यह सब हुआ बाजार की शर्तों पर और उसके गाइडलाइन के मुताबिक। अब इसका क्या करें कि जिस बाजार का ही चरित्र स्त्री विरोधी है, वह उसकी मुक्ति का पैरोकार रातोंरात हो गया।
पावर वूमन के नाम से जितने भी नाम जेहन में उभरते हैं, उनकी कामयाबी का रास्ता या तो देह को औजार बनाने का है या फिर ज्यादा उपभोग की संस्कृति को चातुर्दिक स्वीकृति दिलाने के पराक्रमी उपक्रम में शामिल होने का। ये दोनों ही रास्ते जितने बाजार हित में हैं, उतने ही स्त्री मुक्ति के खिलाफ। यह मानना सरासर बेवकूफी होगी कि पूंजी और व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की लड़ाई से कटकर एकांगी रूप से महिला संघर्ष का कारवां आगे बढ़ सकता है। इसलिए अगर सम्मान और अभिषेक करना ही है तो वैकल्पिक विकास और संघर्ष की लौ जलाने वाली उन महिलाओं का करना चाहिए, जिसने बाजार, उपभोग और हिसा के पागलपन के खिलाफ समय और समाज के लिए अपने जीवन का लक्ष्य तय किया है।

राम को रोमियो बनाने की सनक


भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि जरूर है पर इसमें परंपरा की दो समानांतर और स्वतंत्र धाराएं हैं। एक तरफ मर्यादा पुरुषोत्तम की छवि है, तो दूसरी तरफ लीला पुरुषोत्तम की इमेज। राम और कृष्ण काव्य के जानकार इस अंतर को जीवन के दो शेड के रूप में देखते हैं। मर्यादा की ऊंचाई और व्यवहार के धरातल के बीच का अंतर ही जीवन सत्य है। इस सत्य से मुठभेड़ कभी कबीर जैसे फकीर ने की तो कभी गांधी जैसे महात्मा ने। हर बार निचोड़ यही निकला कि जीवन की सीध साध्य और साधन के एका के साथ जब तक तय होगी तब तक वह कल्याणकारी है। यही नहीं प्रेम और »ृंगार का लालित्य जीवन को सौरभ से भर देने के लिए जरूरी है पर यह दरकार भी तभी तक जीवन गीत के प्रेरक शब्द बन सकते हैं, जब तक यह दैहिकता की आग से बची रहे।
सांवले रंग के दो ईश्वर रूपों को हमारी आस्था और परंपरा के बीच इसलिए बड़ी जगह मिली है क्योंकि इन्हें हम दो जीवनशैलियों के रूप में देखते हैं। एक तरफ आरोहण और दूसरी तरफ अवगाहन। एक ही जीवन को जीने के दो भरपूर तरीके। पर इस समानांतरता को समाप्त करने का मतलब जीवन के द्बैत को अद्बैत में बदलना है। प्रतीकों को तोड़ना उतना ही कठिन है जितना उसे गढ़ना। न तो किसी प्रतीक को आप रातोंरात गढ़ सकते हैं और न उसे तोड़ सकते हैं। राम की मर्यादा से मुठभेड़ खतरनाक है। मर्यादा से छेड़छाड़ मर्यादित तो नहीं ही कही जाएगी, एक कमअक्ल हिमाकत भले इसे कह लें। संजय लीला भंसाली ने ऐसी ही हिमाकत की। उनकी फिल्म 'राम-लीला’ में गांव की लड़कियों से अपनी मर्दानगी के बारे में पूछने का मशविरा देने वाला नायक किसी टोले-मोहल्ले का टपोरी लगता है। पर पटकथा ऐसी लिखी गई है जैसे रामलीला का नया नाटकीय भाष्य चल रहा हो। पता नहीं भंसाली को क्या सूझी कि उन्होंने रोमियो को राम बनाना चाहा और सीता को जुलियट। उनकी फिल्म रामकथा पर आधारित नहीं है लेकिन नाम और बैकड्रॉप इमेजज से उन्होंने यह मुगालता दर्शकों के बीच जानबूझकर बनाए रखा है कि वे कोई नई रामकथा कह रहे हैं। यह कोई नई साहसिक उड़ान नहीं बल्कि सीधे-सीधे रचनात्मक दगाबाजी थी।

लीला अपरंपार

राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफ़े के खेल के लिए कुछ खिलवाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढेè चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ईश्वर की लीलाभूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिदु भी हो
सकता है।
रामनगर की लीला
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 18० सालों से रामलीला खेली जा रही है। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। 'दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है’, यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डॉ. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की बहुलता और अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरव की रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्र के अभिनय 1०-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी हैं, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देश का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
दो लीलाओं का भेद
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में »ृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ईश्वर रूपों में भेद के कारण ही है। पुष्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है।
हर बोली-संस्कृति में रमे राम 
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्रजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बांहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारों और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के खर्च के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने की थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरिशस, इंडोनेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य की कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।


बुधवार, 17 सितंबर 2014

सन्निधि संगोष्ठी


सन्निधि संगोष्ठी दिल्ली में होने वाली साहित्यक गतिविधियों का अब एक जरूरी पन्ना बनता जा रहा है। इसका सतत आयोजन एक उपलब्धि की तरह है। मेरे पुराने साथी और वरिष्ठ पत्रकार प्रसून लतांत की इस आयोजन को सफल और सतत बनाने में बड़ी भूमिका रही है। इस बारे में समय-समय पर उनसे बातचीत भी होती रही। यह मैं अपना दुर्भाग्य या पत्रकारीय पेशे की मजबूरी मानता हूं कि अब तक मैं इस गोष्ठी में शरीक नहीं हो सका।
इस बार 21 सितंबर को यह गोष्ठी होगी। मेरे लिए संतोष और खुशी की बात है इस बार मैं भी इसका हिस्सा बनने जा रहा हूं।
इस बार की गोष्ठी में की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र कर रहे हैं। 'सिनेमा और हिंदी’ विषय पर मुख्य वक्ता हैं विनोद भारद्बाज। मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित हैं प्रसिद्ध कथाकार नासिरा शर्मा।
विशिष्ट अतिथि के रूप में डॉ. किरण पाठक और मुझ कलम घसीट को आयोजकों ने बुलाया है। 

सोमवार, 15 सितंबर 2014

पत्थर फेंकने वाला अकवि


वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले ने अपने समकालीन कई कवियों के साक्षात्कार लिए हैं, जो अब पुस्ताकार रूप में सामने आया है। इन साक्षात्कारों से गुजरते हुए देवताले के अपने कविकर्म को लेकर कई बातें बरबस जेहन को घेरती चली गईं। देवताले पचास के दशक के आखिर में हिदी कविता जगत में एक हस्तक्षेप के रूप में उभरते हैं और उनका यह हस्तक्षेप आगे चलकर भी न तो कभी स्थगित हुआ और न ही कमजोर पड़ा। उनकी काव्य संवेदना पर वीरेन डंगवाल की चर्चित टिप्पणी है कि वे 'हाशिए’ के नहीं बल्कि 'परिधि’ के कवि हैं।
देवताले की कविताओं में स्वातंत्रोत्तर भारत में जीवनमूल्यों के विघटन और विरोधाभासों को लेकर चिता तो है ही, एक गंभीर आक्रोश और प्रतिकार भी है। अपने रचनाकर्म को लेकर उनकी तत्पर प्रतिबद्धता इस कारण कभी कम नहीं हुई कि उनके कई समकालीनों के मुकाबले आलोचकों ने उनको लेकर एक तंग नजरिया बनाकर रखा। जाहिर है कि इस कारण अर्धशती से भी ज्यादा व्यापक उनके काव्य संसार को लेकर एक मुकम्मल राय तो क्या बनती, उलटे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सरोकारों को लेकर सवाल उठाए गए। किसी ने उन्हें 'अकवि’ ठहराया तो किसी ने उनकी वैचारिक समझ पर अंगुली उठाई। देवताले के मू्ल्यांकन को लेकर रही हर कसर उन्हें 2०12 के साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद पूरी हो जानी चाहिए थी, पर ऐसा हुआ नहीं।
चंद्रकांत देवताले को साहित्य अकादमी पुरस्कार उनके 2०1० में प्रकाशित काव्य संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं’ के लिए दिया गया था। यह उनकी एक महत्वपूर्ण काव्य पुस्तक है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं। 'भूखंड तप रहा है’ और 'लकड़बग्घा हंस रहा है’, 'पत्थर की बेंच’ और 'आग हर चीज में बताई गई थी’ जैसे उनके काव्य संकलन उनकी रचनात्मक शिनाख्त को कहीं ज्यादा गढ़ते हैं। बहरहाल, यह विवाद का विषय नहीं है। वैसे भी अकादमी सम्मान के बारे में कहा जाता है कि यह भले किसी एक कृति के लिए दिया जाता हो, पर यह कहीं न कहीं पुरस्कृत साहित्यकार के संपूर्ण कृतित्व का अनुमोदन है। बहरहाल, एक दरकार तो इस विलक्षण कवि को लेकर अब भी शेष है कि उनके काव्य बोध और विपुल कवि कर्म का पुनरावलोकन करने की आलोचकीय चुनौती को आगे बढ़कर कोई गंभीर आलोचकीय स्वीकार्य से भर देगा। इस तरह की दरकारों का जीवित रहना और उनका पूरा होना मौजूदा दौर में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि समय, समाज और संवेदना का अंतर्जगत आज सर्वाधिक विपन्नता का संकट झेल रहा है। मानव मूल्यों के विखंडन को नए विकासवादी सरोकारों के लिए जरूरी मान लिया गया है।
हिदी का मौजूदा रचना जगत सार्वकालिकता के बजाय तात्कालिक मूल्य बोधों को पकड़ने के प्रति ज्यादा मोहग्रस्त है। यही कारण है कि टिकाऊ रचनाकर्म का अभाव आज हिदी साहित्य की एक बड़ी चिता है। देवताले इस चिता का समाधान तो देते ही हैं, वे हमें उस चेतना से भी लैस करते हैं, जिसकी दरकार एक जीवंत और तत्पर नागरिक बोध के लिए है- 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/ और मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं।’ (पत्थर फेंक रहा हूं)

सोमवार, 8 सितंबर 2014

...तो मैं ही क्यों बदनाम हो गई!


जब इस देश के नेताओं में लूट प्रवृति आम हो गई।
पूछ रही है चंबल घाटी मैं ही क्यों बदनाम हो गई।
यह गीत बिहार के वरिष्ठ सर्वोदयी साथी रामशरण भाई का है। इसे वे जेपी आंदोलन और बाद के दिनों में गाते थे। डफली के साथ झूम-झूमकर जब वे गाते थे...तो लोग बस उनसे जुड़ते चले जाते थे। उनके इस जादू के साक्षी विनोबा-जेपी के दौर के लाखों-हजारों लोगों से लेकर जेएनयू कैंपस तक रहा है। अपने तकरीबन दस साल के सामाजिक सेवा और शोध कार्य के दौरान रामशरण भाई से कई मर्तबा मिला और उन्हें सुना।
एक झोले में एक मोटी बिनाई का कुर्ता-धोती, एक पुरानी डायरी और एक-दो और सामान। उनके साथ उनका जीवन इतना ही सरल और बोझरहित था। जहां तक मुझे याद है, अपने जीवन में वे दर्जनों संस्थाओं के सैकड़ों अभिक्रमों से जुड़े पर कभी वेतनभोगी नहीं बने। जीवन को जीने का यह कबीराई अंदाज ही था, जिसने उन्हें आजीवन तत्पर और कार्यरत तो बनाए रखा पर संलग्नता का मोह कहीं से भी बांध न सका, न परिवार से और न ही संस्थाओं से। तभी तो उनके कंठ से जो स्वर फूटे, वे न सिर्फ धुले हुए थे बल्कि सच्चे भी थे। शादी-ब्याह में दिखावे के बढ़े चलन पर उनका गीत याद आता है-
दुई हाथी के मांगै छै दाम,
बेचै छै कोखी के बेटा के चाम
बड़का कहाबै छै कलजुग के कसाई...
एमफिल के लिए चूंकि मैं 'जयप्रकाश आंदोलन और हिदी कविता’ पर काम कर रहा था, लिहाजा आंदोलन के दौर के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला, जो रामशरण भाई जैसे तो पूरी तरह नहीं, पर थे उनके ही समगोत्रीय।
सर्वोदय-समाजवादी आंदोलन में क्रांति गीतों की भूमिका कार्यकताã तैयार करने में सबसे जरूरी और कारगर रही है। 'जय हो...’ और 'चक दे इंडिया...’ गाकर जो तरुणाई जागती है, उसका 'फेसबुक’ कभी भी इतना विश्वसनीय, दृढ़ और जुझारू नहीं हो सकता, जितना किसी आंदोलन की आंच को बनाए और जिलाए रखने के लिए जरूरी है।
रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली में कहें तो 'लोक’ की 'परंपरा’ या तो आज कहीं पीछे छूट गई है या फिर बदले दौर में इसकी दरकार को ही खारिज मान लिया गया है। देश में जनगायकों या लोकगायकों की ऐसी परंपरा का अब सर्वथा अभाव दिखता है। दक्षिण भारत में एक स्वर गदर का सुनाई पड़ता है, जो अपनी सांगठनिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण जन के बजाय कैडर की आवाज ज्यादा लगता है।
दिलचस्प है कि खुद को प्रगतिशील मानने वाले छात्रों की जमात विश्वविद्यालयों में अपनी सांगठनिक-वैचारिक गतिविधियों के दौरान कुछ कवियों की काव्य पंक्तियां तख्तियों पर लिखकर आज भी लहराती हैं तो इसके जवाब में राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी कहे जाने वाले संगठनों से जुड़े छात्र राष्ट्रीयता से ओतप्रोत काव्य पंक्तियों का सहारा लेते हैं। पिछले दिनों अण्णा के आंदोलन के दौरान भी या तो देशप्रेम के फिल्मी गाने बजे या फिर गिटार पर कुछ बेसधी धुन।
आंदोलन का जन चेहरा जन औजारों से ही गढ़ा जा सकता है। यह बात रामशरण भाई जैसे जनगायकों को देखने-जानने के बाद और ज्यादा समझ में आती है।

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

सर

(शिक्षक दिवस पर विशेष कविता)


रोकिए नहीं सर
अभी लिखना है
और भी बहुत कुछ
इजाजत नहीं तो वहां
क्लास के बाहर
बैठकर लिख लूंगा
आपकी छड़ी
टिक-टिक घड़ी
दोनों की कद्रदानी
सौभाग्य है मेरा


सौभाग्य यह आज भी
दुविधाग्रस्त नहीं
सुरक्षित है सर
बहुत सिखाया है इसने
बहुत असर है इनका
मेरे ऊपर


लेकिन लिखूंगा
आज तो जरूर लिखूंगा सर
ऐसे कई शब्द
अधूरे-पूरे वाक्य
जिनके हिज्जे
पूरा का पूरा गठन
दुरुस्त नहीं
बस होंगे मौलिक



ये भी बड़ी बात है सर
बताया था आपने ही
पढ़ाते हुए कबीर
इन्हें बस मैं ही लिख सकता हूं
सिर्फ मेरी स्याही ही
उगा सकती हैं इन्हें
ये मेरे शब्द हैं सर
सिर्फ मेरी कॉपी पर ही
हो सकते हैं


इनके होने की दरकार
एक अधूरे आदमी की
पूरे व्यक्तित्व की चाहना है
बहुत जरूरी है
इनका चहकना


बहुत जरूरी है सर
मेरी कॉपी को
मेरा साबित होना
भरोसा है
यह मौका आप देंगे
मेरी कॉपी आप
नहीं लेंगे सर



बुधवार, 3 सितंबर 2014

एक शब्द के चोरी होने का दर्द


हिदी का एक शब्द आजकल मुझे बहुत परेशान करता है। खासतौर पर उसका इस्तेमाल। यह शब्द है- 'उदार’। इसी से बना दूसरा शब्द है- 'उदारवाद’। 'उदार’ शब्द का इस्तेमाल हाल तक मानवता के श्रेष्ठ गुण के लिए किया जाता था। ईश्वर और ईश्वर तुल्यों के लिए जिस गुण विशेष का आज तक इस्तेमाल होता रहा, वह शब्द हमारे देखते-देखते समय और परंपरा के सबसे संवेदनहीन दौर के लिए समर्पित कर दिया गया।
दरअसल, शब्दों का भी अपना लोकतंत्र होता है और यह लोकतंत्र किसी भी राजकीय या शासकीय लोकतंत्र के मॉड्यूल से ज्यादा लोकतांत्रिक होता है। शब्दों की दुनिया में वर्चस्व या एकाधिकार की गुंजाइश नहीं। परंपरा और व्यवहार का समर्थन या विरोध ही यह तय करता है कि कौन सा शब्द चलेगा और कौन सा नहीं।
शब्द हमारी अभिव्यक्ति के साथ-साथ हमारी संस्कृति, हमारे इतिहास, हमारी परंपरा और हमारे समाज से गहरे जुड़े हैं। शब्दों का अध्ययन हमारे चित्त, मानस और काल के कलर और कलई की सचाई को सबसे बारीकी से पकड़ सकता है।
'उदार’ शब्द के अपहरण -चोरी भी कह सकते हैं- की स्थितियों को थोड़ा समझना चाहें तो कई बातें साफ होती हैं। आंखों से काजल चुराने वाले सियाने भले अब पुरानी कहानियों, कविताई और मुहावरों में ही मिलें पर ग्लोबल दौर की चोरी और चोर भी कम नहीं हैं।
चोरी एक ऐसा कर्म है जिसका इस्तेमाल विचार से लेकर संस्कार तक हर क्षेत्र में होता रहा है। जाहिर है, जिस परंपरा का विस्तार और प्रसार इतना व्यापक हो, उसके डाइमेंशन भी एक-दो नहीं बल्कि अनगिनत होंगे। नए दौर में चोरी को लेकर एक फर्क यह जरूर आया है कि अब चोरी अपनी परंपरा से विलग कर आधुनिक और ग्लोबल कार्रवाई हो गई है। इस फर्क ने चोरी के नए और बदलावकारी आयामों को हमारे सामने खोला है।
अब इस काम को करने के लिए किसी तरह के शातिराना तर्जुबे की दरकार नहीं बल्कि इसे ढोल-धमाल के साथ उत्सवी रूप में किया जा रहा है।
जाहिर है कि चोरी अब सभ्य नागरिक समाज के लिए कोई खारिज कर्म नहीं रह गया है और न ही इसका संबंध अब धन-संपदा पर हाथ साफ करने भर से रह गया है। स्वीकार और प्रसार के असंख्य हाथ अब एक साथ चोर-चोर चिल्ला रहे हैं पर खौफ से नहीं बल्कि खुशी-खुशी। वैसे यहां यह गौर करने वाली बात होगी कि 'उदारवाद’ के विरोधी भले विकास के नाम पर बाजार की चालाकी और उपभोक्ता क्रांति के नाम पर चरम भोग की प्रवृत्ति को मुद्दा बनाएं, पर विरोध के उनके एजेंडे में भी इस तरह की चोरी शामिल नहीं है।
बात ज्यादा दूर की नहीं बल्कि अपने ही देश और उसके सबसे ज्यादा बोली जाने वाली बोली-भाषा की की जाए तो ग्लोबल चोरी सर्ग में इसके कई शब्द देखते-देखते अपने अर्थ को छोड़ अनर्थ के संग हो लिए। मानवीय सुंदरता की जगह, बात सड़कों की और शहरों की सुंदरता की होती है। विकास और बाजार ने मिलकर सबके ऊपर एक ऐसा छाता ताना है कि इसके भीतर समाने के लिए सारे मरे जा रहे हैं। शब्दों से खिलवाड़ हो ही रहा है तो आप खेल-खेल में इसे सबको ललचाने वाली 'ग्लोबल छत्रछाया’भी कह सकते हैं।

सोमवार, 25 अगस्त 2014

फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ...!!


एफएम रेडियो ने माधुर्य की आकाशवाणी को न जाने कहां पहुंचा दिया है। पिछले दिनों यह मुद्दा संसद में भी उठा। शुक्र है अब भी पुराने गीत-संगीत के कुछ रसिया रेडियो स्टेशनों में बैठे हैं। इन्हें मौका कम मिलता है पर इनके कार्यक्रमों का सम्मोहन गजब का है। ऐसे ही एक कार्यक्रम में मेहंदी हसन की गजलें सुनने और उनके बारे में कई सारी बातें जानने-सुनने को मिलीं।
'रंजिश ही सही दिल को दुखाने के लिए आ, आ फिर मुझे छोड़के जाने के लिए आ’ मेहंदी हसन की गाई यह मशहूर गजल उनके इंतकाल के बाद बरबस ही उनके चाहने वालों को याद हो आती है।
उनका जन्म 1927 में हुआ तो था भारत में, राजस्थान के लूणा गांव में। पर 1947 में मुल्क के बंटवारे के वक्त वे पाकिस्तान चले गए। अपनी माटी-पानी से दो दशक का उनका संबंध उन्हें ताउम्र आदर््र करता रहा। बताते हैं कि जब सत्तर के दशक में वे अपने पैतृक गांव को देखने आए तो सड़क न होने के कारण उन्हें गांव तक पहुंचने में काफी परेशानी हुई।
अपनी पुरखों की मिट्टी को लेकर उनके जज्बात किस तरह के थे, यह इस वाकिये से जाहिर होता है कि लूणा तक सड़क का निर्माण हो इसके लिए फंड इकट्ठा करने के लिए उन्होंने तत्काल वहीं अपनी गायकी का एक कार्यक्रम रख दिया। आखिरी बार 2००5 में वे यहां आए थे अपने इलाज के सिलसिले में।
अपने आखिरी दिनों में भारत आने को लेकर वे काफी उत्सुक थे। यहां आकर वे लता मंगेशकर और दिलीप कुमार जैसी शख्सियतों से मिलना चाहते थे। पर उनकी सेहत ने इसकी इजाजत उन्हें आखिर तक नहीं दी। वे लगातार बीमार चल रहे थे। राजस्थान सरकार ने अपनी तरफ से पहल भी की थी कि उन्हें इलाज के लिए भारत लाया जाए। संगीत के जानकारों की नजर में बेगम अख्तर के बाद गजल गायकी की दुनिया को यह सबसे बड़ा आघात है।
कभी लता मंगेशकर ने उनकी गायकी सुनकर कहा था कि यह खुदा की आवाज है। हारमोनियम, तबला और मेहंदी हसन- संगीत की इस संगत को जिसने भी कभी सामने होकर सुना, वह उसकी जिदगी का सबसे खूबसूरत सरमाया बन गया। मेहंदी हसन की गायकी पर राजस्थान के कलावंत घराने का रंग चढ़ा था, जो आखिर तक नहीं उतरा। उन्होंने गजल से पहले ठुमरी-दादरा के आलाप भरे पर आखिर में जाकर मन रमा गजलों में। उन्हें उर्दू शायरी की भी खासी समझ थी। गालिब, मीर से लेकर अहमद फराज और कतील शिफाई तक उन्होंने कई अजीम शायरों की गजलों को अपनी आवाज दी। आज जबकि गजल गायकी के पुराने स्कूल प्रचलन से बाहर हो रहे हैं, मेहंदी की आवाज संगीत के नए होनहारों को बहुत कुछ सीखा सकती है।
बेहद दुर्भाग्यपूणã है कि इस महान कलाकर की मौत के बाद जहां एक तरफ संगीत की दुनिया में एक भारीपन पसरा है, वहीं दूसरी तरफ पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने उनकी जिदगी के निहायत निजी पन्ने उलटते हुए कुछ अप्रिय विवादों को जन्म देना चाहा है। यह सच है कि मेहंदी की जिदगी पर संघर्ष और मुफलिसी का साया हमेशा रहा। पर इनकी वजहों का सच टटोलने से बड़ी बात है, वह लगन और साधना जिसने उन्हें गजल की दुनिया की शहंशाही तक का जन खिताब दिलाया।

मंगलवार, 19 अगस्त 2014

अदम की शायरी का दम


अभी मैनेजर पांडे की कई किताबें आई हैं। उन्हीं में एक में अदम गोंडवी पर उनका लेख है। याद हो आया कि अखबार के दफ्तर में काम के दौरान ही अदम के देहांत की खबर मिली थी। अखबार के ही एक साथी ने दौड़कर आकर बताया था। इसे हिदी पत्रकारिता के दिलो-दिमाग में उतरा देशज संस्कार कहें या जमीनी सरोकार कि तमाम अखबारों ने अगले दिन अदम के देहांत की खबर को स्थान देना जरूरी समझा।
अदम जनता के शायर थे और अपनी शख्सियत में भी वे आमजन की तरह ही सरल और साधारण थे। पुराने गढ़न की ठेहुने तक की मटमैली छह-छत्तीस धोती, मोटी बिनाई का कुर्ता और गले में सफेद गमछा लपेटे अदम को जिन लोगों ने कभी मुशायरों-कवि सम्मेलनों में सुना होगा, उन्हें इस निपट गंवई शायर के मुखालफती तेवर के ताव और घाव आज ज्यादा महसूस हो रहे होंगे।
हिदी की कुलीन बिरादरी इस भाषा को किताबों और सभाकक्षों में चाहे जो स्वरूप देकर अपना सारस्वत धर्म निबाहे, इसकी आत्मा तो हमेशा लोक और परंपरा के मेल में ही बसती है। यही कारण है कि अपने समय की सबसे चर्चित और स्मृतियों का हिस्सा बनी काव्य पंक्तियों के रचयिता इस जनकवि को अदबी जमात ने अपने हिस्से के तौर पर मन से कभी नहीं कबूला।
अदम काफी हद तक कबीराई मन-मिजाज के शायर थे। इसलिए उन्हें इस बात का कभी अफसोस रहा भी नहीं कि उन्हें उनके समकालीन साहित्यकार और आलोचक किस खांचे में रखते हैं। कवि सम्मेलनों और मुशायरों का हल्का और बाजारू चरित्र उन्हें खलता तो बहुत था पर वे इन मंचों को जनता तक पहुंचने का जरिया मानकर स्वीकार करते रहे।
अपने करीब 63 साल के जीवन में उन्होंने हिदुस्तान की उम्मीद और तकदीर का वह हश्र सबसे ज्यादा महसूस किया जिसने आमजन के भरोसे और उम्मीद को कुम्हलाकर
रख दिया।
सत्ता, सियासत और दौलत के गठबंधन ने गांव और गरीब को जैसे और जितनी तरह से ठगा, उसका जीवंत चित्र अदम की शायरी का सबसे बड़ा सरमाया है। अपने समय में सत्ता के खिलाफ वे सबसे हिमाकती और मुखालफती आवाज थे।
'काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में/ उतरा है रामराज्य विधायक निवास में’, 'इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया/ सेक्स की रंगीनियां या गोलियां सल्फास की’, 'जो न डलहौजी कर पाया वो ये हुक्मरान कर देंगे/ कमीशन दो तो हिदुस्तान को नीलाम कर देंगे’....जैसे नारे और बगावती बयाननुमा पंक्तियों को लोगों की जुबान पर छोड़ जाने वाले अदम गोंडवी के बाद जनभावनाओं को निर्भीक अभिव्यक्ति
देने वाली जनवादी काव्य परंपरा की निडरता शायद ही कहीं नजर आए।
जहां तक कथन के साथ काव्य शिल्प का सवाल है तो हिदी में दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी अकेले ऐसे शायर हैं, जिन्होंने न सिर्फ हिदी शायरी की जमीन का रकबा बढ़ाया बल्कि उसे मान्यता और लोकप्रियता भी दिलाई। हिदी के काव्य हस्ताक्षरों की कबीराई परंपरा में अदम नागार्जुन और त्रिलोचन की परंपरा के कवि थे।

शुक्रवार, 15 अगस्त 2014

आजादी, मीडिया, सिनेमा और समाज


आजाद भारत की एक खूबसूरती यह भी है कि यहां न सिर्फ मीडिया को गणतंत्र का चौथा खंभा माना गया है बल्कि वह स्वतंत्र भी है। यह अलग बात है कि इस स्वतंत्रता के साथ जवाबदेही और जरूरी सरोकारों का साझा बनता-बिगड़ता और बदलता रहा है। राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाधीनता की लौ जगाने वाली पत्रकारिता के माथे पर आज एक तरफ पेड न्यूज का कलंक है तो वहीं कारोबारी विस्तार के लिए हल्की और सनसनी से भर देने वाली खबरों का दबाव। वैसे अगर पलट कर देखें तो हिंदी में पत्रकारिता का विकास भी उसके बाकी तमाम रचनात्मक रूपों के तकरीबन साथ ही हुआ। भारतेंदु और द्बिवेदी के दौर की रचनात्मकता के साथ पत्रकारिता के विकास को अलग कर नहीं देखा जा सकता बल्कि बाद में अस्सी के दशक के आसपास जब खबर और साहित्य ने अलग से अपनी जगह घेरनी शुरू की तो भी दोनों जगह कलम चलाने वालों का गोत्र एक ही रहा। फिर यह विभाजन अलगाववादी न होकर लोकतांत्रिक तौर पर एक-दूसरे के लिए भरपूर सम्मान, स्थान और अवसर मुहैया कराने के लिए था।
यही कारण रहा कि इस दौर में एक तरफ जहां धूम मचाने वाली आधुनिक धज की साहित्यिक पत्रिकाओं ने ऐतिहासिक सफलता पाई, तो वहीं उस दौरान की समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने लोकप्रियता और श्रेष्ठता के सार्वकालिक मानक रचे। खासतौर पर देशज भाषा, संवेदना और चिता के स्तर पर इस दौर की हासिल मानकीय श्रेष्ठता ने आधुनिक हिदी पत्रकारिता की संभावना की ताकत को जाहिर किया। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद स्वतं`योत्तर भारत का यह सबसे सुनहरा दौर था हिदी पत्रकारिता के लिए और विशुद्ध साहित्य से आगे की वैकल्पिक रचनात्मकता के लिए। इसके बाद आया ज्ञान को सूचना और खबर की तात्कालिकता में समाचार की पूरी अवधारणा को तिरोहित करने वाला ग्लोबल दौर, जिसमें एक तरफ नजरअंदाज हो रही सामाजिक और सांस्कृतिक अस्मिताओं का संघर्ष सतह पर आया तो वहीं चेतना और अभिव्यक्ति के पारंपरिक लोक के लोप का खतरा बढ़ता चला गया।

आजादी बाद के दो दशक

आजादी के बाद राष्ट्र निर्माण की अलख तकरीबन दो दशकों तक हिदी में कलम के सिपाहियों ने उठाई। पर यहां यह समझना जरूरी है कि हिदी की प्रखरता का एक मौलिक तेवर विरोध और असहमति है। दशकों की औपनिवेशिक गुलामी से मुठभेड़ कर बनी भाषा की यह ताकत स्वाभाविक है। इसलिए अपने यहां नेहरू युग के अंत होते-होते राष्ट्र निर्माण की एक 'असरकारी’ और वैकल्पिक दृष्टि की खोज हिदी के लेखक-पत्रकार करने लगे और उन्हें डॉ. राममनोहर लोहिया की समाजवादी राह मिली। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद हिदी में यह रचनात्मक प्रतिबद्धता से सज्जित सिपाहियों की पहली खेप थी। जिन लोगों ने 'दिनमान’ के जमाने में फणीश्वरनाथ रेणु जैसे साहित्यकारों की रपट और लेख पढ़े हैं, उन्हें मालूम है कि अपने हाल को बताने के लिए भाषाई औजार भी अपने होने चाहिए। बाद में लेखकों-पत्रकारों के इस जत्थे में जयप्रकाश आंदोलन से प्रभावित ऊर्जावान छात्रों की खेप शामिल हुई।
कलम से आंदोलन
दुर्भाग्य से पत्रकारिता को 'मिशन’ और 'प्रोफेशन’ बताने वाली उधार की समझ रखने वाले आज मर्यादा की लक्ष्मण रेखा खींचने से बाज नहीं आते और देश-समाज का जीवंत हाल बताने वालों को उनकी सीमाओं से सबसे पहले अवगत कराते हैं। जबकि अपने यहां लिखने-पढ़ने वालों की एक पूरी परंपरा है, जिनकी वैचारिक प्रतिबद्धता महज 'कागद कारे’ करने से कभी पूरी नहीं हुई। बताते हैं कि चंडीगढ़ में प्रभाष जोशी नए संवाददाताओं की बहाली के लिए साक्षात्कार ले रहे थे। एक युवक से उन्होंने पूछा कि पत्रकार क्यों बनना चाहते हो? युवक का जवाब था, 'आंदोलन करने के लिए। परिवर्तन की ललक हो तो हाथ में कलम, कुदाल या बंदूक में से कोई एक तो होना ही चाहिए।’ कहने की जरूरत नहीं कि युवक ने प्रभाष जी को प्रभावित किया। आज किसी इंटरव्यू पैनल के आगे ऐसा जवाब देने वालों के लिए अखबार की नौकरी का सपना कितना दूर चला जाएगा, पता नहीं।

न्यू मीडिया

आखिर में बात सूचना तकनीक के उस भूचाली दौर की जिसमें कंप्यूटर और इंटरनेट ने भाषा और अभिव्यक्ति ही नहीं विचार के एजेंडे भी अपनी तरफ से तय करने शुरू कर दिए हैं। अंग्रेजी के लिए यह भूचाल ग्लोबल सबलता हासिल करने का अवसर बना तो हिदी की भाषाई ताकत को सीधे वरण, अनुकरण और अनुशीलन के लिए बाध्य किया जा रहा है।
कमाल की बात है कि इस मजबूरी के गढ़ में भी पहली विद्रोही मुट्ठी तनी तो उन हिदी के कस्बाई-भाषाई शूरवीरों ने जिन्हें ग्लोब पर बैठने से ज्यादा ललक अपनी माटी-पानी को बचाने की रही। जिसे आज पूरी दुनिया में 'न्यू मीडिया’ कहा जा रहा है, उसका हिदी रूप ग्लोबल एकरूपता की दरकार के बावजूद काफी हद तक मौलिक है।

सोमवार, 11 अगस्त 2014

और सैम हो गए विश्वकर्मा


अमेरिका में जब बराक ओबामा राष्ट्रपति पद का चुनाव जीतने में सफल हुए थे, तो वहां की और भारत की स्थितियों को राजनैतिक और बौद्धिक जमात के बीच कई तुलनात्मक नजरिए सामने आए। बार-बार अमेरिका के उदाहरण को सामने रखकर यह समझने की कोशिश की गई कि भारत उस उदार और विकसित राजनीतिक-सामाजिक स्थिति तक पहुंचने से कितनी दूर है, जब हम भी अपने यहां एक दलित को या एक मुसलमान को प्रधानमंत्री पद पर बैठा देखेंगे। जो बात ज्यादा भरोसे से और तार्किक तरीके से समझ में आई वह यही कि विकास और संपन्नता मध्यकालीन और जातीय बेडिèयों को तोड़ने के सबसे मुफीद औजार हंै। अमेरिका में ये औजार सबसे ज्यादा तेजी से काम कर रहे हैं। इसलिए वहां चेंज को अलग से चेज करने की जरूरत अब नहीं है। पर क्या भारत भी अपनी विकासयात्रा में उन्हीं सोपानों पर पहुंच रहा है, जहां चेंज कोई चैलेंज न होकर एक स्वाभाविक स्थिति बन जाती है। शायद नहीं।
दरअसल, हम बात करना चाह रहे हैं 2०12 में हुए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों की। इस साल हुए आम चुनाव में यूपी के चुनावी गणित कितने काम आए, सबके सामने है। पर तब सभी सियासी पार्टियां इसे दिल्ली की सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर ही लड़ रही थीं। आरक्षण का खुर्शीदी-बेनी खेल पहले ही बोतल से बाहर आ गया तो रही-सही कसर जातीय राजनीति को लेकर खेले गए नंगे खेल ने पूरी कर दी।
क्षेत्रीय प्रभाव रखने वाले दलों की मजबूरी तो छोड़ दें, कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय प्रभाव और विस्तार वाले दलों ने भी विकास व भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को छोड़कर क्षेत्र और जाति की राजनीति पर अपना यकीन ज्यादा दिखाया। बाबू सिह कुशवाहा मामले में भाजपा ने जहां आंतरिक विरोध तक को सुनना गंवारा नहीं किया, वहीं रियल और फेयर पॉलिटिक्स के हिमायती राहुल गांधी ने चुनावी सभा में सैम पैत्रोदा को विश्वकर्मा जाति का बताकर केंद्र में अपने पिता राजीव गांधी के कार्यकाल के आईटी विकास को जातीय तर्कों पर उतारने को मजबूर हुए।
विकास को सामाजिक न्याय की समावेशी संगति पर खरा उतारना तो समझ में आता है पर इसे सीधे-सीधे जातीयता की जमीन पर ला पटकना खतरनाक है। इस लिहाज से कांग्रेस पार्टी की इस हिमाकत को तब सबसे बड़ा मर्यादा उल्लंघन ठहराया गया था, जब उसने देश में आईटी क्रांति के प्रणेता रहे सैम पैत्रोदा को जातीय राजनीति के चौसर पर पासे की तरह फेंका। यह गलती नहीं बल्कि कांग्रेस की सोची-समझी चुनावी रणनीति थी, यह तब ज्यादा समझ में आया जब पार्टी ने अपना चुनाव घोषणा पत्र जारी करते हुए सैम को मीडिया से मुखातिब कराया। सैम अगर सबके सामने कैलकुलेटेड ढिठाई से यह कहते कि 'मैं बढ़ई का बेटा हूं और अपनी जाति पर मुझे फL है’, तो कांग्रेस का उनको लेकर खेला गया चुनावी खेल तो समझ में आता है पर सैम को क्या पड़ी थी कि वह खुद को इस खेल में इस्तेमाल हो जाने दिया, समझना थोड़ा मुश्किल है। क्या सैम की यह 'बढ़ईगिरी’ विकास को भी जातिगत शिनाख्त देने की दरकार को खतरनाक अंजामों तक ले जाने के लिए थी। राजीव गांधी के जमाने का आईटी 21वीं सदी के एक दशक बीतते-बीतते कहां पहुंच गई, आप नहीं समझ पा रहे तो राहुल बाबा से मिलें।

सोमवार, 4 अगस्त 2014

अण्णा नहीं हो सके शर्मीला


हम अपने दौर को लेकर लाख खफा हों। कोफ्त से भरे हों। पर मौजूदा दौर के कसीदे पढ़ने वाले भी कम नहीं। यह और बात है कि ये कसीदाकार वही हैं, जिन्हें हमारे देशकाल ने कभी अपना प्रवक्ता नहीं माना। दरअसल, 'चरम भोग के परम दौर’ में मनुष्य की निजता को स्वच्छंदता में रातोंरात जिस तरह बदला, उसने समय और समाज की एक क्रूर व संवेदनहीन नियति कहीं न कहीं तय कर दी है। ऐसे में एक दुराग्रह और पूर्वाग्रह से त्रस्त दौर में चर्चा अगर सत्याग्रह की हो तो यह तो माना ही जा सकता है कि मानवीय कल्याण और उत्थान का मकसद अब भी बहाल है। दरअसल, हम बीते तीन-चार सालों के पन्ने फिर से उलट रहे हैं। अण्णा आंदोलन आज एक प्रमुख राष्ट्रीय घटनाक्रम का नाम है। इस आंदोलन से देश एक बार फिर से इस बात से अवगत हुआ कि अपना पक्ष रखने और 'असरकारी’ विरोध का 'सत्याग्रह’ रखने वालों की परंपरा देश में खत्म नहीं हुई है। हालांकि इसके साथ कुछ सवाल भी उठने लाजिम हैं जिनके जवाब जरूर तलाशे जाने चाहिए।
आंदोलन के दिनों में सामाजिक कार्यकताã इरोम शर्मिला ने अण्णा हजारे से अपने एक दशक से लंबे अनशन के लिए समर्थन मांगा था। इरोम मणिपुर में विवादास्पद सशस्त्र बिल विशेषाधिकार अधिनियम की विरोध कर रही थीं। उनके मुताबिक इस अधिनियम के प्रावधान मानवाधिकार विरोधी हैं, बर्बर हैं। यह सेना को महज आशंका के आधार पर किसी को मौत के घाट उतारने की कानूनी छूट देता है। इरोम खुद इस बर्बर कार्रवाई की गवाह रही हैं। यही कारण है कि उन्होंने इस विवादास्पद अधिनियम को वापस लेने की मांग को आजीवन प्रण का हिस्सा बना लिया है। दुनिया के इतिहास में अहिसक विरोध का इतना लंबा चला सिलसिला और वह भी अकेली एक महिला द्बारा अपने आप में एक मिसाल है।
इरोम को उम्मीद थी कि आज अण्णा हजारे का जो प्रभाव और स्वीकृति सरकार और जनता के बीच है, उससे उनकी मांग को धार भी मिलेगी और उसका वजन भी बढ़ेगा। हालांकि इस संदर्भ का एक पक्ष यह भी रहा कि इरोम ने भले अण्णा के समर्थन की दरकार जाहिर कर रही हों, पर उन्हें भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के चरित्र को लेकर आपत्तियां भी रहीं। वैसे ये आपत्तियां वैसी नहीं हैं जैसी लेखिका अरुंधति राय को रही हैं।
असल में सत्याग्रह का गांधीवादी दर्शन विरोध या समर्थन से परे आत्मशुद्धि के तकाजे पर आधारित है। गांधी का सत्याग्रह साध्य के साथ साधन की कसौटी को भी अपनाता है। ऐसे में लोकप्रियता के आवेग और जनाक्रोश के अधीर प्रकटीकरण से अगर किसी आंदोलन को धार मिलती हो कम से कम वह दूरगामी फलितों को तो नहीं ही हासिल कर सकता है।
दिलचस्प है कि अहिसक संघर्ष के नए विमर्शी सर्ग में अण्णा के व्यक्तिगत चरित्र, जीवन और विचार पर ज्यादा सवाल नहीं उठे हैं। पर उनके आंदोलन के घटनाक्रम को देखकर तो एकबारगी जरूर लगता है कि देश की राजधानी का 'जंतर मंतर’ और मीडिया के रडार से अगर इस पूरी मुहिम को हटा लिया जाता तो भी क्या घटनाक्रम वही होते जिस प्रकार से ये घटित हुए हैं। ...और यह भी कि क्या इसी अनुकूलता और उपलब्धता की परवाह इरोम ने चूंकि नहीं की तो उनके संघर्ष का सिलसिला लंबा खिचता जा रहा है।

सोमवार, 28 जुलाई 2014

तुम सीटी बजाना छोड़ दो


सीटियों का जमाना लदने को है। सूचना क्रांति ने सीटीमारों के लिए स्पेस नहीं छोड़ा है। इसी के साथ होने वाला है युगांत संकेत भाषा के सबसे लंबे खिचे पॉपुलर युग का। बहरहाल, कुछ बातें सीटियों और उसकी भूमिका को लेकर। कोई ऐतिहासिक प्रमाण तो नहीं पर पहली सीटी किसी लड़की ने नहीं बल्कि किसी लड़के ने किसी लड़की के लिए ही बजाई होगी। बाद के दौर में सीटीमार लड़कों ने सीटी के कई-कई इस्तेमाल आजमाए। जिसे आज ईव-टीðजग कहते हैं, उसका भी सबसे पुराना औजार सीटियां ही रही हैं। वैसे सीटियों का कैरेक्टर शेड ब्लैक या व्हाइट न होकर हमेशा ग्रे ही रहा है।
बात किशोर या नौजवान उम्र की लड़के-लड़कियों की करें तो सीटी ऐसी कार्रवाई की तरह रही है, जिसमें 'फिजिकल’ कुछ नहीं है यानी गली-मोहल्लों से शुरू होकर स्कूल-कॉलेजों तक फैली गुंडागर्दी का चेहरा इतना वीभत्स तो कभी नहीं रहा कि असर नाखूनी या तेजाबी हो। फिर भी सीटियों के लिए प्रेरक -उत्प्रेरक न बनने, इससे बचने और भागने का दबाव लड़कियों को हमारे समाज में लंबे समय तक झेलना पड़ा है। सीटियों का स्वर्णयुग तब था जब नायक और खलनायक, दोनों ही अपने-अपने मतलब से सीटीमार बन जाते थे।
इसी दौरान सीटियों को कलात्मक और सांगीतिक शिनाख्त भी मिली। किशोर कुमार की सीटी से लिप्स मूवमेंट मिला कर राजेश खन्ना जैसे परदे के नायकों ने रातोंरात न जाने कितने दिलों में अपनी जगह बना ली। आज भी जब नाच-गाने का कोई आइटम नुमा कार्यक्रम होता है तो सीटियां बजती हैं। स्टेज पर परफॉर्म करने वाले कलाकारों को लगता है कि पब्लिक का थोक रिस्पांस मिल रहा है। वैसे सीटियों को लेकर झीनी गलतफहमी शुरू से बनी रही है। संभ्रांत समाज में इसकी असभ्य पहचान कभी मिटी नहीं। यूं भी कह सकते हैं कि सामाजिक न्याय के बदले दौर में भी इस कथित अमर्यादा का शुद्धिकरण कभी इतना हुआ नहीं कि सीटियों को शंखनाद जैसी जनेऊधारी स्वीकृति मिल जाए। सीटियों से लाइन पर आए प्रेम प्रसंगों के कर्ताधताã आज अपनी गृहस्थी की दूसरी-तीसरी पीढ़ी की क्यारी को पानी दे रहे हैं।
रेट्रो दौर की मेलोड्रामा मार्का कई फिल्मों के गाने प्रेम में हाथ आजमाने की सीटीमार कला को समर्पित हैं। एक गाने के बोल तो हैं- 'जब लड़का सीटी बजाए और लड़की छत पर आ जाए तो समझो मामला गड़बड़ है।’ 1951 में आई फिल्म 'अलबेला’ में चितलकर और लता मंगेशकर की युगल आवाज में 'शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’ तो आज भी सुनने को मिल जाता है।
मॉरल पुलिसिग हमारे समाज में अलग-अलग रूप में हमेशा से रही है और इसी पुलिसिग ने सीटी प्रसंगों को गड़बड़ या संदेहास्पद मामला करार दिया। चौक-चौबारों पर कानोंकान फैलने वाली बातें और रातोंरात सरगर्मियां पैदा करने वाली अफवाहों को सबसे ज्यादा जीवनदान हमारे समाज को कथित प्रेमी जोड़ों ने ही दिया है। सीटियां आज गैरजरूरी हो चली हैं। मॉरल पुलिसिग का नया निशाना अब पब और पार्क में मचलते-फुदकते लव बर्डस हैं। सीटियों पर से टेक्नोफ्रेंडी युवाओं का डिगा भरोसा इंस्टैंट मैसेज, रिगटोन और मिसकॉल को ज्यादा भरोसेमंद मानता है।

सोमवार, 21 जुलाई 2014

कश्मीरी आशा और बिग बी


कश्मीर का मुद्दा एक बार फिर गरमाया है। याद आता है तकरीबन तीन साल पहले का एक वाकया। अपने महानायक तब इंग्लैंड के दौरे पर थे। ऑक्सफोर्ड की लाइब्रेरी में मैग्ना कार्टा चार्टर देखकर अमिताभ बच्चन जब अभिभूत होते हैं तो अखबारों, टीवी चैनलों के लिए यह न छोड़ी जा सकने वाली खबर थी। यह स्थिति तकरीबन वैसी ही है कि पूरब में खड़े होकर कोई पश्चिम को सूर्य का घर माने और उसकी लाली से अपनी चेतना और इतिहास बोध को रंग ले।
दरअसल, हम बात कर रहे हैं लोकतंत्र की उन जड़ों की जिसकी डालियों पर झूला डालने वाले परिदे आपको आज पूरी दुनिया में मिल जाएंगे। पर लोकतंत्र महज एक शासनतंत्र नहीं, एक जीवनशैली और मानवीय इच्छाशक्ति भी है। अगर यह बोध और सोच किसी को भावनात्मक अतिरेक लगे तो उसे भारत के पांच लाख से ज्यादा गांवों के सांस्कृतिक गणतंत्र की परंपरा से परिचित होना चाहिए। परंपरा का यह प्रवाह आज जरूर पहले की तरह सजल नहीं रहा, पर है वह आज भी कायम अपने जीवन से भरे बहाव के साथ।
अमिताभ बच्चन जब आधुनिक विश्व में लोकतंत्र के ऐतिहासिक उद्भव की गाथा को देख-सुनकर गदगद हो रहे थे, उसी समय देश के कुछ सूबों में पंचायत के चुनाव हो रहे थे। इन सूबों में जम्मू कश्मीर भी शामिल था। यह एक बड़ा अनुष्ठान था। लेकिन तब विधानसभा चुनावों, भ्रष्टाचार के खिलाफ अदालती कार्रवाई और नागरिक समाज की मांगों और आतंकी सरगना ओसामा बिन लादेन के खात्मे के शोरगुल में इसकी तरफ कम ही लोगों का ध्यान गया। अलबत्ता स्थानीय लोगों की दिलचस्पी जरूर इसमें बनी रही।
दिलचस्प तो यह रहा कि अशांत घाटी में इन चुनावों का औपचारिक निर्वाह ही जहां बड़ी कामयाबी ठहराई जा सकती थी, वहां अस्सी फीसद तक मतदान हुए। यही नहीं बिहार जैसे सूबे में जहां पंचायत की परंपरा को ऐतिहासिक मान्यता हासिल है, वहां भी ये चुनाव तब संगीनों के साए में होने के बावजूद खून के छीटों से बचे नहीं रहे थे। जबकि जम्मू-कश्मीर में ये चुनाव तकरीबन शांतिपूर्ण संपन्न हुए थे।
दरअसल, पंचायत के बहाने इस चुनाव में घाटी के लोगों ने न सिर्फ लोकतांत्रिक सरोकारों की अपनी मिट्टी को एक बार फिर से तर किया बल्कि दुनिया के आगे यह साफ भी किया था कि उनका जीवन, उनका समाज, उनकी संस्कृति उतनी उलझी या बंटी हुई नहीं है, जितनी बताई या समझाई जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो यह कहीं से मुमकिन नहीं था कि कश्मीरी पंडित परिवार की एक महिला उस गांव से पंच चुनी जाती, जो पूरी तरह मुस्लिम बहुल है। यहां विख्यात पर्यटन स्थल गुलमर्ग जाने के रास्ते में एक छोटा सा गांव है- वुसान।
आशा इसी गांव से पंच चुनी गई थी जबकि यहां से इस पद के लिए मैदान में उतरी वह अकेली कश्मीरी पंडित महिला थी। इस सफलता को आपवादिक या कमतर ठहराने वालों के लिए यह ध्यान में रखना जरूरी है कि घाटी से 199० के करीब दो लाख कश्मीरी पंडित परिवारों को पलायन करना पड़ा था। दुर्भाग्यपूणã है कि देश में संसदीय परंपरा के धुरर्Þ बिखेर देने वाली खबरें तो मीडिया की आंखों की चमक बढ़ा देती हैं पर इन परंपराओं की जमीन तर करने वाली खबरों पर हम गौर नहीं फरमाते।

बुधवार, 9 जुलाई 2014

मां, ममता और दहकता इराक


इराक फिर से त्रासद हिसा की जद में है। इस बार हिसा का लंपट यथार्थ ज्यादा खतरनाक इसलिए भी है कि उसकी जड़ें बाहर कम इराक में ज्यादा हैं। एक देश और उसके साथ वहां के लोगों की बार-बार बर्बर हिसा से मुठभेड़ आधुनिक संवेदना से जुड़े सरोकारों को अंदर तक झकझोर देता है।
याद आता है वह दौर जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, इराक को जंग के मैदान में सद्दाम हुसैन समेत अंतिम तौर पर रौंदने के लिए उतावले थे। अखबार के दफ्तर में रात से खबरें आने लगीं कि अमेरिका बमबारी के साथ इराक पर हमला बोलने जा रहा है। इराक से संवाददाता ने खबर भेजी कि वहां के प्रसूति गृहों में मांएं अपने बच्चों को छोड़कर भाग रही हैं।
खबर की कॉपी अंग्रेजी में थी, लिहाजा आखिरी समय में बिना पूरी खबर पढ़े उसके अनुवाद में जुट जाने का अखबारी दबाव था। अनुवाद करते समय जेहन में लगातार यही सवाल उठ रहा था कि ममता क्या इतनी निष्ठुर भी हो सकती है कि वह युद्ध जैसी आपद स्थिति में बच्चों की छोड़ सिर्फ अपनी फिक्र करने की खुदगर्जी पर उतर आए।
पूरी खबर से गुजरकर यह अहसास हुआ कि यह तो ममता की पराकाष्ठा थी। प्रसूति गृहों में समय से पहले अपने बच्चों को जन्म देने की होड़ मची थी। जिन महिलाओं की डिलीवरी हो चुकी थी, वह अपने बच्चों को छोड़कर जल्द से जल्द घर पहुंचने की हड़बड़ी में थीं क्योंकि उन्हें अपने दूसरे बच्चों और घर के बाकी सदस्यों की फिक्र खाए जा रही थी। वे अस्पताल में नवजात शिशुओं को छोड़ने के फैसले इसलिए नहीं कर रही थीं कि उनके आंचल का दूध सूख गया था। असल में युद्ध या बमबारी की स्थिति में कम से कम वह अपने नवजातों को नहीं खोना चाहती थीं। उन्हें भरोसा था कि अमेरिका इराक के खिलाफ जब हमला बोलेगा तो कम से कम इतनी नैतिकता तो जरूर मानेगा कि वह अस्पतालों और स्कूलों को बख्श दे।
युद्ध छिड़ने से पहले प्रीमैच्योर डिलीवरी का महिलाओं का फैसला भी इसलिए था कि बम धमाकों के बीच कहीं गर्भपात जैसे खतरों का सामना उन्हें न करना पड़े। सचमुच मातृत्व संवेदना की परीक्षा की यह चरम स्थिति थी जिससे गुजरते हुए इराकी महिलाएं मानवता का सर्वथा भावपूर्ण सर्ग रच रही थीं।
आज जब फिर इराक में धमाके हो रहे हैं, लोगों की जानें जा रही हैं, सड़कें और पुल उड़ाए जा रहे हैं, तो इराक युद्ध के पुराने अनुभव आंखों में सजल हो जाते हैं। इस साल हम पहले विश्व युद्ध से एक सदी आगे निकल गए हैं। पर संवेदना और करुणा के मामले में हमारा 'ग्लोबल उछाल’ कितना पिछड़ा है, कहने की जरूरत नहीं। जीवन और समाज के प्रति सोच ने आज एक बर्बर कार्रवाई की शक्ल ले ली है और इसकी सबसे ज्यादा शिकार हैं महिलाएं।
आधी दुनिया ने अपने हक और सुरक्षा के लिए पिछले कुछ सालों में अपनी आवाजें जरूर तेज की हैं। इसके लिए एक तरह की गोलबंदी भी हर तरफ नजर आती है। लेकिन महिलाओं को देखने-समझने और उनके साथ सलूक की लीक इतनी हिसक और बर्बर हो चुकी है कि उस पर खुलकर और पारदर्शी तरीके से बात करने का साहस हममें बचा ही नहीं है। पर वार और ग्लोबल ग्रोथ के साझे के दौर का यह महिला विरोधी यथार्थ हमें बार-बार सामने से आईना दिखाएगा।

सोमवार, 23 जून 2014

सौभाग्य की सिंदूरी रेखा


विवाह संस्था को लेकर बहस इसलिए भी बेमानी है क्योंकि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। पर बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखती नहीं या फिर दिखती भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न् हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नि्त नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभाग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर
की नहीं।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की तरह धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सचाई का पता चला तो आंखें भर आईं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आईं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है और इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे और मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दीया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह और कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है, आज वे जहां भी होंगे, सचमुच बहुत खुश होंगे और अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी। तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरे पिता का पिछले साल देहांत हुआ है। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते थे। पर आश्चर्य होता था कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा क्यों नहीं लगता। उलटे वह कहतीं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे।
मां अपनी दो बेटियों और दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को हैं। संत विनोबा से लेकर प्रभावती और जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है और उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा और इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी और मजबूत है कि स्त्री स्वातं`य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार और जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है।

गुरुवार, 19 जून 2014

महज यूपी नहीं आधी दुनिया की करें फिक्र

आपकी नजर में कौन सी खबर ज्यादा बड़ी है, बहस की नई मेजें सजने वाली हैं- वह सब जो इन दिनों देश के सबसे बड़े सूबे यूपी में हो रहा है या वह जिसने प्रीति जिंटा और नेस वाडिया के रिश्ते को पुलिस थाने तक ले आई? वैसे इन दोनों खबरों से इतर एक तीसरी खबर भी है, जिसकी चर्चा इन दिनों सोशल मीडिया पर खासा वायरल है। कमाल तो यह कि इंटरनेट खंगालने पर इसके टेक्स्ट अंग्रेजी से ज्यादा हिंदी में मिले। दरअसल, हम बात कर रहे हैं पूर्व अमेरिकी मॉडल सारा वॉकर की।
सारा को हॉट बिकनी गर्ल का खिताब युवाओं ने दे रखा था। वह मॉडलिंग की दुनिया में एक सनसनाता नाम रही। पर अचानक चमक-दमक की यह दुनिया उसे परेशान करने लगी। देह और संदेह के दौर में अपनी पहचान और सुरक्षा को लेकर जिस तरह की परेशानी घर से बाहर काम पर निकली किसी भी एक आम लड़की को हो सकती है, वही परेशानी सारा को भी हुई। पर बाकी लड़कियों की तरह अपनी इन परेशानियों को सहन करने या दबाने के बजाय उसके खिलाफ जाने का निर्णय किया। अलबत्ता यह तेवर बागी कम जुनूनी ज्यादा लगता है। क्योंकि अपनी बगावत में सारा वॉकर ने कुछ और नहीं किया बल्कि अपना धर्म बदल लिया। सारा ने इस्लाम की शरण यह सोचकर ली कि बुर्के और हिजाब की दुनिया महिलाओं के लिए ज्यादा सुरक्षित है। ऐसा है या नहीं इस पर जजमेंटल होने से अच्छा है कि हम सारा के निजी फैसले का स्वागत करें। पर यह फैसला कुछ सवाल तो उठाता ही है, जिन पर चर्चा हो रही है और होनी भी चाहिए।
सारा के जिक्र के बरक्श अगर बात यूपी में महिलाओं के खिलाफ पेड़ से लटकी बर्बरता की करें या प्रीति जिंटा मामले पर शुरू हुई बेहूदी लतीफेबाजी की, तो सबसे बड़ी कसूरवार वह दृष्टि है, जिसने महिलाओं को महज फिगर और आइटम बनाकर रख छोड़ा है।
ऐसा नहीं है कि अपराध यूपी के किसी हिस्से में हो तो उसका एक मतलब होता है और मुंबई-दिल्ली-गुड़गांव-गुवाहाटी में हो तो उसके मायने बदल जाते हैं। आलोचना तो मीडिया की भी होनी चाहिए कि वह अपराध को लेकर एक नए तरह का वर्ग भेद पैदा कर रहा है। यह कैसे हो रहा है, इसकी ताजा मिसाल है फिल्म 'रागिनी एमएमएस-2’ के हिट गाने 'बॉबी डॉल सोने की’ का वीडियो। इस बोल्ड फिल्म पर सेंसर बोर्ड की कितनी कैंचियां चलीं, मालूम नहीं। पर यह तो रोज टीवी पर दिख रहा है कि कुछ दिन पहले तक इस गाने के वीडियो में सनी लियोनी ने अपने शरीर के एक खास हिस्से को कपड़ों से ढक रखा था और इन दिनों चल रहे वीडियो में कपड़े की जगह उसके दोनों हाथों ने ले ली है। फिर क्या... कई छोटे-बड़े शहरों से पर्दे से उतर जाने के बाद भी यह फिल्म टीवी चैनलों पर धूम मचाए हुए है।
इस गाने में सनी के बोल्ड से बोल्डतर अवतार पर आंखंे सेंकने वालों को इंटरटेनमेंट का यह चालाक ओवरडोज खूब रास आ रहा है। पर मीडिया की नजर में इससे न तो कोई कानून व्यवस्था का प्रश्न खड़ा हो रहा है और न कहीं मानवता शर्मसार हो रही है। जबकि सचाई तो यह है कि इस तरह हम जिस तरह का देशकाल और मानस रच रहे हैं, वही पुरुष के लिए स्त्री देह संसर्ग को एक 'बर्बर कारवाई’ बनाने की जंगली सनक को जन्म देते हैं।
पूर्व विश्व सुंदरी युक्ता मुखी की 2००8 में हुई शादी पिछले साल पुलिस थाने तक इसलिए पहुंच गई क्योंकि युक्ता को यह शिकायत थी कि उसके पति प्रिंस तुली उनसे वह सब कुछ चाहते हैं, जो उनके लिए घिनौना है, अप्राकृतिक है। अब कोई यह बताए कि क्या कोई इस घटना को पोस्टर बनाकर पूरे बॉलीवुड इंडस्ट्री पर चस्पा करने की हिमाकत कर सकता है कि मनोरंजन की यह पूरी दुनिया पथभ्रष्ट हो चुकी है, महिला विरोधी हो चुकी है। अगर ऐसा नहीं किया या सोचा जा सकता है तो क्या इसलिए क्योंकि खासतौर पर महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराध को हम धन, हैसियत, शिक्षा, पेशा और स्थानादि से जोड़कर देखते हैं और फिर उसके मुताबिक ही उसका राजनीतिक-सामाजिक भाष्य तैयार करते हैं।
महिलावादी लेखिका मनीषा अपनी पुस्तक 'हम सभ्य औरतें’ में एक ऐसी घटना का जिक्र करती हैं जिसमें बीमारी के कारण महीनों से कौमा में पड़ी अपनी पत्नी के लिए अदालत से कृपा मृत्यु की फरियाद करने वाला पति ही बाद में अचेत पत्नी से संसर्ग बनाता है। देह और पुरुष के बीच खिंची यह वही रेखा है, जो बदायूं में दो बहनों के साथ दुष्कर्म के बाद उनकी हत्या और फिर उनकी लाश को तमाशा बनाने की जंगली हिमाकत के लिए उकसाती है।
बात प्रीति और नेस के संबंध की करें तो यहां भी यही बात संवेदनहीनता की बदली जिल्द के साथ नजर आती है। ये दोनों शादीशुदा नहीं लेकिन लंबे समय तक रिलेशन में थे। बताते हैं कि अब नेस को एक और कन्या का साथ भा रहा है। प्रीति के अधिकार बोध को यह कतई बर्दाश्त नहीं। पर सवाल यह है कि संबंध को समाज और परंपरा से निरपेक्ष अपने मन मुताबिक शक्ल देने की आतुरता अगर 'दुर्घटनाग्रस्त’ होती है तो फिर इसकी सुनवाई कानून और समाज कैसे करे। दरअसल, इन दिनों संबंधों को दीघार्यु बनाने के बजाय उसे अपडेट करने की नई सनक पैदा हो गई है। यह एलजीबीटी रिवोल्यूशन का दौर है। पर 'रेनबो रिबन’ संबंधों की नई कलाइयों की शोभा चाहे जितनी बने, इसने संबंध के कल्याणकारी सरोकारों को तो तहस-नहस कर ही दिया है।
बात जिस सारा वॉकर की हम पहले कर चुके हैं, अब जरा उसकी ही जुबानी उसके अनुभव सुनिए-'मैंने समुद्र के किनारे घर ले लिया। ...मैं अपने सौंदर्य को बहुत महत्व देती थी और ज्यादा से ज्यादा लोगों का ध्यान खुद की ओर चाहती थी। मेरी ख्वाहिश रहती थी कि लोग मेरी तरफ आकर्षित रहें। खुद को दिखाने के लिए मैं रोज समुद्र किनारे जाती। ...धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया लेकिन मुझे अहसास होने लगा कि जैसे-जैसे मैं अपने स्त्रीत्व को चमकाने और दिखाने के मामले में आगे बढ़ती गई, वैसे-वैसे मेरी खुशी और सुख-चैन का ग्राफ नीचे आता गया।’ साफ है कि सारा ने उस दुनिया के सितम झेले और बढ़ती उम्र के साथ अकेली पड़ती गई, जहां सौंदर्य का मतलब उत्तेजना और संवेदना का मतलब दिखावा है। कहने की जरूरत नहीं कि 'आधी दुनिया’ के लिए 'पूरी दुनिया’ में मानसिकता एक जैसी है।
दुर्भाग्यपूणã यह है कि इस मसले को कहीं हम महज कानून व्यवस्था का सवाल बनाकर देखते हैं तो कहीं अपराधियों की समझ को उनकी जाति, शिक्षा या स्थान से जोड़कर देखते हैं। जबकि सचाई यह है कि अमेरिका के ह्वाइट हाउस से लेकर गरीबी और जहालत में डूबे यूपी के किसी गांव की सचाई में कोई फर्क नहीं है। दोष उस स्त्री मन का भी है, जो इस बर्बर पुरुष प्रवृत्ति के खिलाफ धिक्कार के बजाय स्वीकार से भर उठता है।
 

सोमवार, 16 जून 2014

व्यास पीठ पर ताई


धवल-उदात्त चेहरा, आंखों पर टंगा कांच के थोड़े बड़े फ्रेम का चश्मा, पहनावे में आम तौर पर सूती या खादी की साड़ी, चलने-फिरने और बैठने-उठने का सलीका खासा ठहराव भरा, वैसे तो मितभाषी पर सार्वजनिक चिंता के मुद्दों पर मुखर, सुमित्रा महाजन की शख्सियत को यही कुछ बातें मुकम्मल और खास बनाती हैं। दरअसल, अपनी इन्हीं खूबियों के कारण ही वह अपने करीब के लोगों और अपने क्षेत्र में 'सुमित्रा ताई’ के रूप में लोकप्रिय हैं। नाम का रिश्ते में बदलना असाधारण बात है और सार्वजनिक जीवन में तो इस तरह की परंपरा अब न के बराबर रही है। सार्वजनिक जीवन में आए भरोसे के इस कमी को सुमित्रा जिस तरह पूरा कर रही हैं, वह उनके पूरे राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा प्रदेय है। लोकसभा अध्यक्ष के लिए निर्विरोध निर्वाचित होना और एक ही सीट से आठ बार संसद पहुंचना उनकी स्वीकृति के बड़े दायरे को रेखांकित करता है।
 यह गौरव की बात है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के व्यास पीठ पर एक महिला बैठेगी, प्रधानमंत्री ने इन्हीं शब्दों के साथ सुमित्रा महाजन को सर्वसम्मति के साथ लोकसभा अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई दी। बात करें सुमित्रा की तो उनका नाम लोकसभा अध्यक्ष बनने से पहले से ही चर्चा में आ गया था। यह चर्चा इसलिए शुरू हुई थी कि वह पिछले आठ बार से मध्य प्रदेश के इंदौर लोकसभा क्षेत्र से जीतती आ रही हैं। यह अपने आप में एक रिकॉर्ड ही नहीं बल्कि बड़ी सफलता है।
सुमित्रा का जन्म 12 अप्रैल, 1943 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में चिपलुन नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता का नाम नीलकंठ साठे तथा माता का नाम ऊषा था। उन्होंने अपनी एमए तथा एलएलबी की डिग्री इंदौर विश्वविद्यालय -अब देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय- से प्राप्त की। उनका विवाह 29 जनवरी, 1965 को इंदौर के प्रसिद्ध वकील जयंत महाजन से हुआ था। चुनावी राजनीति में सुमित्रा का प्रवेश स्थानीय निकायों के जरिए हुआ। 1982 में वह इंदौर नगर निगम में उपमहापौर बनी थीं। 1989 में अपनी ससुराल इंदौर से उन्होंने पहली बार चुनाव लड़ा था। तब पूर्व मुख्यमंत्री एवं कांग्रेस के वरिष्ठ नेता प्रकाश चंद्र सेठी को उनसे हार का सामना करना पड़ा था। पर बाद में तो वह इंदौर की जनता के मन में ऐसी बसीं कि आज तक वह स्थानीय स्तर पर सर्वाधिक लोकप्रिय नेता हैं। वह इंदौर में पहले 'बहू’ के तौर पर जानी गईं पर बहू के 'बेटी’ बनते देर नहीं लगी और अब तो वह वहां सबकी प्यारी 'ताई’ है। 71 वर्षीय सुमित्रा का आधिकारिक नाम भी 16वीं लोकसभा के सांसदों की सूची में सुमित्रा महाजन (ताई) के तौर पर दर्ज है। लोकप्रियता के इस सातत्य के पीछे सुमित्रा की बेदाग छवि का भी बड़ा योगदान है।
सुमित्रा संघर्ष में तपी नेता हैं। वह 16वीं लोकसभा में महिला सांसदों में सबसे वरिष्ठ सांसद हैं। मीरा कुमार के बाद महाजन लोकसभा अध्यक्ष बनने वाली दूसरी महिला हैं। उन्होंने एक सक्रिय सांसद के रूप में केवल महत्वपूर्ण समितियों का ही नेतृत्व नहीं किया है बल्कि वह सदन के भीतर अच्छी बहस करने वाली और एक उत्साही प्रश्नकर्ता भी रही हैं। वह अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 1999 से 2००4 तक राज्यमंत्री रहीं। सौम्य व्यवहार करने वाली सुमित्रा एक ऐसी राजनेता के रूप में उभरी हैं जिन्होंने 1989 में इंदौर से सांसद बनने के बाद से कभी हार का मुंह नहीं देखा और विपक्षी नेताओं की एक पीढ़ी उन्हें हराने का इंतजार ही कर रही है।
लोकसभा अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने कहा, 'मैं लोकसभा में अधिक कामकाज पर जोर दूंगी। वहां एजेंडे को पूरा करने के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष में अच्छा समन्वय होना चाहिए। लोगों को हमसे बहुत उम्मीदें हैं। हमें काम के घंटे बढ़ाने चाहिए।’ उम्मीद करनी चाहिए कि सुमित्रा अपने नए दायित्व की चुनौतियों पर खरी उतरेंगी। यह एक बड़ी परीक्षा है। क्योंकि पिछली लोकसभा के अंतिम कुछ सत्रों में कामकाज संसद सदस्यों के अत्यधिक शोर-शराबे के कारण प्रभावित हुआ था। पर लगता है सुमित्रा इस परीक्षा के लिए पूरी तरह तैयार हैं, तभी तो वह कहती हैं, 'उन्हें यह पता है कि इस तरह की परिस्थितियों से किस तरह निपटा जाता है।’
 

शुक्रवार, 13 जून 2014

चोमस्की के मोदी विरोध का तर्क-कुतर्क


सोलह मई को 16वीं लोकसभा के लिए हुए चुनाव के नतीजे आए थे। उस दिन सबके अवाक रहने की स्थिति थी। विरोधी इस बात से हतप्रभ थे कि नमो का जादू इतना कारगर कैसे रहा, तो हिमयती इस बात पर दंग थे कि उम्मीद से बड़ी सफलता आखिर मिली कैसे। प्रतिक्रियों के इन अतिरेक के बीच एक खामोशी भी पसरी थी। समय और परिस्थिति के मुताबिक अपनी निष्ठाएं बदलने वाले बौद्धिकों को छोड़ दें तो कुछ ढीठ किस्म के प्रगतिशील ऐसे भी थे, जिनसे इस चुनाव परिणाम को देखकर कुछ बोलते नहीं बन रहा था। पर यह बोलती बंद की नौबत विचार परिवर्तन की चौखट को खटखटा नहीं सकी।
फिर क्या था कि जैसे-जैसे 16 मई पीछे छूटती गई, इन प्रखर जनों ने अपनी टेक नए सिरे से लेनी शुरू कर दी। बहुमत के आंकड़े को झुठलाया नहीं जा सकता और न ही लोकतंत्र में जनता की राय को लेकर आप सार्वजनिक तौर पर कोई नकारात्मक राय रख सकते हैं। पर विचार और तर्क की दुनिया में इससे बच निकलने के चोर रास्ते भी हैं। ऐसा ही एक चोर रास्ता खोला गया है विश्व प्रसिद्ध चिंतक, विचारक और भाषाविद नोम चोमस्की का नाम लेकर। चोमस्की ने भारत में नमो उदय को लेकर कुछ तीखी बातें कही हैं। खासतौर पर सोशल मीडिया पर वैचारिक वाम की अलंबरदारी करने वालों ने चोमस्की के बयान को आपस में खूब पढ़ा-पढ़ाया है। अब तो चोमस्की की टिप्पणी के साथ भाई लोग अपनी पूरक टिप्पणी भी जोड़ते चले जा रहे हैं। इस तरह एक बयान अब भरे-पूरे आख्यान की शक्ल लेता जा रहा है। आख्यान मोदी विरोध का, देश की राजनीति में मोदी के धूमकेतु की तरह उदय को लेकर जरूरी संशय का।
बहरहाल, इस बारे में आगे और बात करने से पहले यह देख लेना जरूरी है कि आखिर चोमस्की ने कहा क्या है। नोम चोमस्की के बयान से जुड़ी यह टिप्पणी देश के एक प्रगतिशील बौद्धिक के फेसबुक वाल से उठाई गई है। नाम का जिक्र इसलिए नहीं कि ऐसा किया नहीं जा सकता बल्कि इससे अनावश्यक एक ऐसे विवाद का जन्म होगा, जिसका चोमस्की के बयान प्रसंग को लेकर खड़ी हुई बहस से कोई सीधा लेना-देना नहीं है। फेसबुक पर जो टिप्पणी की गई है, वह कुछ इस तरह है-'नोम चोमस्की ने भारत के संभावित राजनीतिक परिवर्तन पर टिप्पणी करते हुए आज बोस्टन में कहा कि भारत में जो कुछ हो रहा है, वह बहुत बुरा है। भारत खतरनाक स्थिति से गुजरेगा। आरएसएस और भाजपा के नेतृत्व में जो बदलाव भारत में आने वाला है, ठीक इसी अंदाज में जर्मनी में नाजीवाद आया था। नाजी शक्तियों ने भी सस्ती व सिद्धांतहीन लोकप्रियता का सहारा लिया था। भाजपा ने भी वही हथकंडा अपनाया है। कांग्रेस पार्टी ही इन सबके लिए जिम्मेदार है। अब भारत के वामपंथी और प्रगतिशील शक्तियों को संगठित होकर इस चुनौती का सामना करना पड़ेगा। नोम चोमस्की आज शाम को कैंब्रिज पब्लिक लाइब्रेरी में अमेरिका की विदेश नीति पर अपना डेढ़ घंटे का भाषण दे रहे थे। इसके पश्चात उन्होंने अलग से मेरी अनौपचारिक संक्षिप्त बातचीत में अपनी यह प्रतिक्रिया व्यक्त की।’
अब कोई चोमस्की से यह पूछे कि लोग उन्हें एंटी-स्टैबलिशमेंट की पैरोकारी करने वाले तो मानते हैं पर लोकतंत्र विरोधी नहीं। फिर एक देश में चुनाव के जरिए बहाल हुई नई सरकार और उसके जरिए उभरे नए राजनीतिक नेतृत्व को वे इतने संशय की नजर से क्यों देख रहे हैं। क्या वैचारिक प्रखरता और प्रगतिशीलता की एक शर्त यह भी है कि वह हर उभार के खिलाफ हो। क्योंकि तभी विरोध को वैचारिक तौर पर वजनी माना जाएगा और उस पर चर्चा होगी।
नोम चोमस्की जिस देश से आते हैं और जहां उन्हें थिंक टैंक तो माना जाता है पर वहां भी वे मुख्यधारा के बौद्धिकों और विचारकों की अगुवाई नहीं कर सके। कहने को भले ऐसा करना उनकी महात्वाकांक्षा का हिस्सा न हो, पर उनके आलोचक तो इसे उनकी असफलता के तौर पर ही देखते हैं।
चोमस्की भारत को लेकर पहले भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी बातें मुखरता से कहते रहे हैं। पर उनकी हालिया टिप्पणी से नहीं लगता कि वे भारत की राजनीतिक सचाई से पूरी तरह वाकिफ हैं। वाम की तरफ उनका झुकाव स्वाभाविक है पर भारत में वाम अपने गढ़ में ही ढह गया, इस स्थिति को समझने का विवेक वे नहीं दिखा रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के पुराने जिक्र को छोड़ भी दें तो भी चोमस्की यह बताने से तो बच ही रहे हैं कि बाजार के दौर में मनुष्य के अंदर उन्नति और विकास की एक नई सोच पैदा हुई है, उसके आगे कोई वैकल्पिक लकीर कैसे खिंची जाए।
बाजारवादी व्यवस्था के हिमायती भारत में भी बहुत लोग नहीं हैं। यहां तक कि नरेंद्र मोदी जिस पार्टी और विचारधारा से आते हैं, उसकी भी बुनियादी अवधारणा इसके खिलाफ है। पर इससे देश और समाज में विकास और उन्नति की जगी भूख और उससे पैदा लेने वाले नए तरह के राजनैतिक नेतृत्व का तकाजा कहां से खारिज हो जाता है।
चोमस्की की इस बात में जरूर थोड़ा दम है कि भारत में मोदी के उभार और कांग्रेस के बुरे हश्र को देखकर कई लोगों को यह लगता है कि देश में विचार और सत्ता से जुड़े तमाम सरोकार एकध्रुवीय न हो जाएं। एक अच्छे लोकतंत्र में सशक्त विपक्ष का होना बहुत जरूरी है। असहमति के लिए लोकतंत्र में गुंजाइश ही नहीं होनी चाहिए, यह क्रियात्मक रूप में भी सामने आना चाहिए।
वाम और क्षेत्रीय दलों के एक मंच पर आने की बात देश में चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान भी उठी पर कुछ भी ठोस सामने नहीं आया। अब एक ही उम्मीद है कि मोदी सरकार के काम करते कुछ दिन बीतते हैं तो फिर उनको लेकर सहमति-असहमति की सही जमीन चिह्नत होगी। इस इम्तहान में दोनों पक्षों को खरा उतरने की चुनौती होगी।
मोदी अभी देश में उम्मीद और भरोसे का नाम है। जिस तरह की स्थितियां पूरे देश में व्यवस्था से लेकर समाज तक है, उसमें रातोंरात कोई क्रांतिकारी बदलाव आसान बात नहीं होगी। यह बात उनके विरोधियों के भी समझ में आ रही है। पर विरोध के इस संभावित रकबे को घेरने के लिए उन्हें अभी थोड़ा धैर्य दिखाना होगा। यही नहीं उन्हें इस बीच जनता की अपेक्षाओं के मुताबिक अपनी राजनीति की बनावट को भी नए सिरे से गढ़ना होगा।
क्या चोमस्की की बातों पर उछाल भरने वालों को लोकतांत्रिक राजनीति की इस कसौटी पर खरा उतरने की चुनौती मंजूर है। अगर हां, तो फिर यह उनसे ज्यादा इस महान लोकतांत्रिक मर्यादाओं वाले देश के हित में होगा और अगर नहीं, तो फिर यही साफ होगा कि बड़ी लकीर (मोदी) के आगे उससे भी बड़ी लकीर खींचना एक बात है और लकीर पीटते रहना दूसरी।
 

मंगलवार, 10 जून 2014

घाट कारपोरेट


नदी की निर्मल कथा टुकड़े-टुकड़े में लिखी तो जा सकती है, सोची नहीं जा सकती। कोई नदी एक अलग टुकड़ा नहीं होती। नदी सिर्फ पानी भी नहीं होती। नदी एक पूरी समग्र और जीवंत प्रणाली होती है। अत: इसकी निर्मलता लौटाने का संकल्प करने वालों की सोच में समग्रता और दिल में जीवंतता का होना जरूरी है। नदी हजारों वषोर्ं की भौगोलिक उथल-पुथल का परिणाम होती है। अत: नदियों को उनका मूल प्रवाह और गुणवत्ता लौटाना भी बरस-दो बरस का काम नहीं हो सकता। हां,संकल्प निर्मल हो, सोच समग्र हो, कार्ययोजना ईमानदार और सुस्पष्ट हो, सातत्य सुनिश्चित हो, तो कोई भी पीढ़ी अपने जीवनकाल में किसी एक नदी को मृत्युशय्या से उठाकर उसके पैरों पर चला सकती है। इसकी गारंटी है। दरअसल ऐसे प्रयासों को धन से पहले धुन की जरूरत होती है। नदी को प्रोजेक्ट बाद में, वह कशिश पहले चाहिए, जो पेटजाए को मां के बिना बेचैन कर दे।
इस बात को भावनात्मक कहकर हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। कालीबेईं की प्रदूषण मुक्ति का संत प्रयास, सहारनपुर पांवधोई का पब्लिक-प्रशासन प्रयास और अलवर के 7० गांवों द्बारा अपने साथ अरवरी नदी का पुनरोद्धार इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं।
नदी की समग्र सोच यह है कि झील, ग्लेशियर आदि मूल स्रोत हो सकते हैं, लेकिन नदी के प्रवाह को जीवन देने का असल काम नदी बेसिन की छोटी-बड़ी वनस्पतियां और उससे जुड़ने वाली नदियां, झरने, लाखों तालाब और बरसाती नाले करते हैं। इन सभी को समृद्ध रखने की योजना कहां है? हर नदी बेसिन की अपनी एक अनूठी जैव विविधता और भौतिक स्वरूप होता है। ये दोनों ही मिलकर नदी विशेष के पानी की गुणवत्ता तय करते हैं।
नदी का ढाल, तल का स्वरूप, उसके कटाव, मौजूद पत्थर, रेत, जलीय जीव-वनस्पतियां और उनके प्रकार मिलकर तय करते हैं कि नदी का जल कैसा होगा? नदी प्रवाह में स्वयं को साफ कर लेने की क्षमता का निर्धारण भी ये तत्व ही करते हैं। सोचना चाहिए कि एक ही पर्वत चोटी के दो ओर से बहने वाली गंगा-यमुना के जल में क्षार तत्व की मात्रा भिन्न क्यों है?
ताकि नदी ले सके सांस
गाद सफाई के नाम पर हम अमेठी की मालती और उज्जयिनी जैसी नदियों के तल को जेसीबी लगाकर छील दें। उनके ऊबड़-खाबड़ तल को समतल बना दें। प्रवाह की तीव्रता के कारण मोड़ों पर स्वाभाविक रूप से बने 8-8 फुट गहरे कंुडों को खत्म कर दें। वनस्पतियों को नष्ट कर दें और उम्मीद करें कि नदी में प्रवाह बचेगा, उम्मीद करें कि नदी संजय गांधी अस्पताल व एचएएल के बहाए जहर को स्वयं साफ कर लेगी, यह संभव नहीं है।
ऐसी नासमझी को नदी पर सिर्फ स्टॉप डैम बनाकर नहीं सुधारा जा सकता। कानपुर की पांडु के पाट पर इमारत बना लेना, पश्चिम उत्तर प्रदेश में हिंडन को औद्योगिक कचरा डंप करने का साधन मान लेना और मेरठ का काली नदी में बूचड़खानों के मांस मज्जा और खून बहाना तथा नदी को एक्सप्रेस वे नामक तटबंधों से बांध देना नदियों को नाला बनाने के काम है। प्राकृतिक स्वरूप ही नदी का गुण होता है। गुण लौटाने के लिए नदी को उसका प्राकृतिक स्वरूप लौटाना चाहिए। नाले को वापस नदी बनाना होगा।
जैव विविधता लौटाने के लिए नदी के पानी की जैव ऑक्सीजन मांग घटाकर 4-5 लानी होगी, ताकि नदी को साफ करने वाली मछलियां, मगरमच्छ, घड़ियाल और जीवाणुओं की बड़ी फौज इसमें जिंदा रह सके। नदी को इसकी रेत और पत्थर लौटाने होंगे, ताकि नदी सांस ले सके। कब्जे रोकने होंगे, ताकि नदियां आजाद बह सके। नहरी सिंचाई पर निर्भरता कम करनी होगी। नदी से सीधे सिंचाई अक्टूबर के बाद प्रतिबंधित करनी होगी, ताकि नदी के ताजा जल का कम से कम दोहन हो। भूजल पुनर्भरण हेतु तालाब, सोखता पिट, कुंड और अपनी जड़ों मंे पानी संजोने वाली पंचवटी की एक पूरी खेप ही तैयार करनी होगी, भूजल को निर्मल करने वाले जामुन जैसे वृक्षों को साथी बनाना होगा। इस दृष्टि से प्रत्येक नदी जलग्रहण क्षेत्र की एक अलग प्रबंध एवं विकास योजना बनानी होगी।
कितनी बिजली : कैसी बिजली
वैज्ञानिक सूर्य प्रकाश कपूर दावा करते हैं कि आज भारत में जितनी बिजली बनती है, उससे पांच गुना अधिक बिजली उत्पादन क्षमता हवा और अंडमान द्बीप समूह से भू-तापीय स्रोतों में मौजूद है। सबसे अच्छी बात तो यह कि हवा, सूर्य और भू-तापीय स्रोतों से खींच ली गई ऊर्जा वैश्विक तापमान के वर्तमान के संकट को तो नियंत्रित करेगी ही, भूकंप और सुनामी के खतरों को भी नियंत्रित करने में मददगार होगी।
कहना न होगा कि नदी की निर्मलता और अविरलता सिर्फ पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास और ऊर्जा मंत्रालय का विषय नहीं है; यह उद्योग, नगर विकास, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण, रोजगार, पर्यटन, गैर परंपरागत ऊर्जा और संस्कृति मंत्रालय के बीच भी आपसी समन्वय की मांग करता है।
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इस समय केंद्रीय पर्यटन मंत्रालय में गंगा को लेकर खूब काम हो रहा है। इनमें सबसे ऊपर बनारस में गंगा घाटों की साफ-सफाई और रखरखाव को लेकर बनने वाली योजनाएं हैं। देश की कुछ बड़ी कंपनियां यहां घाटों को गोद लेंगी। घाटों के कुछ हिस्सों में हुई टूट-फूट को भी दुरुस्त करना उनकी जिम्मेदारी होगी। यह अभियान विशेष तौर पर उन घाटों को ध्यान में रखकर तैयार किया जा रहा है, जहां विदेशी सैलानियों का ज्यादा आना-जाना है। केंद्रीय पर्यटन मंत्री श्रीपद नायक के मुताबिक इस अभियान का मकसद घाट की साफ-सफाई में अहम प्राइवेट कंपनियों को शामिल करना है। ये गतिविधियां कंपनियों की कारपोरेट सोशल रिस्पॉन्सिबिलिटी (सीएसआर) का हिस्सा होंगी।
मंत्रालय के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक घाटों की को गोद लेने वाली इकाइयों में ताज और ललित होटल ग्रुप शामिल हैं। पर्यटन मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव गिरीश शंकर ने बताया कि इस अभियान में कारपोरेट की भूमिका कोऑर्डिनेटर की होगी। उन्होंने इस बात से इनकार किया कि इसे कारपोरेट के कामों की आउटसोîसग माना जाया। इस अभियान में जिन 12 घाटों को शामिल किया जाना है, उनमें दशाश्वमेध, राजेंद्र प्रसाद, शीतला, केदार, मन मंदिर, त्रिपुरभैरवी, विजयनगरम, राणा, चौसट्टी, मुंशी, अहिल्याबाई और दरभंगा घाट शामिल हैं। दशाश्वमेध घाट पर हर शाम होने वाली गंगा आरती काफी मशहूर है। यहीं से नरेंद्र मोदी ने ऐलान किया था कि उनकी प्राथमिकता इस शहर के साथ बाकी देश को स्वच्छबनाने की है।
 

शुक्रवार, 6 जून 2014

बैंक में जमा पेड़

कॉलोनी का सातवां
और उसके आहाते का
आखिरी पेड़ था
जमा कर आया जिसे वह
अजन्मे पत्तों के साथ बैंक में
इससे पहले
बेसन मलती बरामदे की धूप
आलते के पांव नाचती सुबह
बजती रंगोलियां
रहन रखकर खरीदा था उसने
हुंडरु का वाटरफॉल

निवेश युग के सबसे व्यस्त चौराहे पर
गूंजेंगी जब उसके नाम की किलकारी
समय के सबसे खनकते बोल
थर-थराएंगे जब
पुश्तैनी पतलून का जिप चढ़ाते हुए
खड़ी होगी जब नई सीढ़ी
पुरानी छत से छूने आसमान
तब होगी उसके हाथों में
दुनिया के सबसे महकते
फूलों की नाममाला
फलों की वंशावली
पेड़ों के कंधों पर झूलता
भरत का नाट्यशास्त्र

बांचेगा वह कानों को छूकर
सन्न से गुजर जाने वाली
हवाओं के रोमांचक यात्रा अनुभव
आंखों के चरने के लिए होगा
एक भरा-पूरा एलबम
तितलियों के इशारों पर
डोलते-गाते मंजर
मिट्टी सोखती
पानी की आवाज बजेगी
उसके फोन के जागरण के साथ

पर वे पेड़
जहां झूलते हैं उसके सपने
वे आम-अमरूद और जामुन
चखती जिसे तोतों की पहली मौसमी पांत
वह आकाश
जहां पढ़ती हैं अंगुलियां अपने प्यार का नाम
वह छाया
जिसे बगीचे चुराते धूप से
वह धूल
जहां सनती गात बांके मुरारी की
कहां होंगे
किन पन्नों पर होगी
इनकी गुमशुदगी की रिपोर्ट
हारमोनियम से बजते रोम-रोम
किस बारहमासे से बांधेंगे युगलबंदी
आएंगे पाहुन कल भोर भिनसारे
कौवे किस मुंडेर पर गाएंगे
हमें देखकर कौन रोएगा
हम किसे देखकर गाएंगे
 

मंगलवार, 3 जून 2014

आज ब्लू है पानी और दिन भी सनी


मौसम विभाग तो अभी देश के विभिन्न हिस्सों में मानसून के पहुंचने का कैलेंडर ही बनाने में लगा है पर इस बीच बारिश ने अपनी रिमझिम दस्तक दे दी। मौसम की इस खुशमिजाजी को देखकर सभी खुश हैं। पर एक बात जरूर अखरती है कि बारहमासा गाने वाले देश में बारिश का मतलब अब हनी सिंह जैसे रैपर बता रहे हैं।
देश की राजधानी के अलावा कई दूसरे हिस्सों में गरमी बढ़ने के साथ ही राहत की फुहारें भी पड़ने लगीं। गरमी को कूलर, एसी, फ्रिज, वाटर पार्क आदि जैसे कृत्रिम साधनों से दूर भगाने का कारोबार करने वालों को जरूर यह सुहानी राहत आफत जैसी लगी हो पर आमजन तो मौसम की इस खुशगवारी का भरपूर आनंद ही उठा रहे हैं।
बढ़ती गरमी बारिश की याद ही नहीं दिलाती, उसकी शोभा भी बढ़ाती है। केरल तट पर मानसून की दस्तक हो कि दिल्ली में उमस भरी गरमी के बीच हल्की बूंदा-बांदी, खबर के लिहाज से दोनों की कद्र है और दोनों के लिए पर्याप्त स्पेस भी। अखबारों-टीवी चैनलों पर जिन खबरों में कैमरे की कलात्मकता के साथ स्क्रिप्ट के लालित्य की थोड़ी-बहुत गुंजाइश होती है, वह बारिश की खबरों को लेकर ही। पत्रकारिता में प्रकृति की यह सुकुमार उपस्थिति अब भी बरकरार है, यह गनीमत नहीं बल्कि उपलब्धि जैसी है। पर इसका क्या करें कि इस उपस्थिति को बचाए और बनाए रखने वाली आंखें अब धीरे-धीरे या तो कमजोर पड़ती जा रही हैं या फिर उनके देखने का नजरिया बदल गया है।
दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों के साथ अब तो सूरत, इंदौर, पटना, भोपाल जैसे शहरों में भी बारिश दिखाने और बताने का सबसे आसान तरीका है, किसी किशोरी या युवती को भीगे कपड़ों के साथ दिखाना। कहने को बारिश को लेकर यह सौंदर्यबोध पारंपरिक है। पर यह बोध लगातार सौंदर्य का दैहिक भाष्य बनता जा रहा है। और ऐसा मीडिया और सिनेमा की भीतरी-बाहरी दुनिया को साक्षी मानकर समझा जा सकता है।
कई अखबारी फोटोग्राफरों के अपने खींचे या यहां-वहां से जुगाड़े गए ऐसे फोटो की बाकायदा लाइब्रेरी है। समय-समय पर वे हल्की फेरबदल के साथ इन्हें रिलीज करते रहते हैं और खूब वाहवाही लूटते हैं। नए मॉडल और एक्ट्रेस अपना जो पोर्टफोलियो लेकर प्रोडक्शन हाउसेज के चक्कर लगाती हैं, उनमें बारिश या पानी से भीगे कपड़ों वाले फोटोशूट जरूर शामिल होते हैं।
हीरोइनों के परदे पर भीगने-भिगाने का चलन वैसे बहुत नया भी नहीं है। पर पहले उनका यह भींगना-नहाना ताल-तलैया, गांव-खेत से लेकर प्रेम के पानीदार क्षणों को जीवित करने के भी कलात्मक बहाने थे।
खो गई सावनी-कजरी
मिर्जापुर की एक बहुत मशहूर कजरी है, 'बदरिया घिर आई ननदी...।’ पारंपरिक तौर पर चले आ रहे सावनी गीत-संगीत का शायद ही कोई कार्यक्रम हो, जो बिना इस गीत के माधुर्य के पूरा होता हो। पर शोभा गुर्टू और गिरिजा देवी से लेकर मालिनी अवस्थी तक को मशहूर करने वाली इस कजरी को अब अपने नए कद्रदानों की तलाश है। अलबत्ता 'आज ब्लू है पानी...पानी...’ की धुन पर थिरकने और लड़खड़ाने वाली पीढ़ी से इस बारे में कोई उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में बरसात और समाज के बीच के बदले तानेबाने को नए सिरे से समझना तो जरूरी है, नए सरोकारों और प्रचलनों पर भी गौर करना होगा। वह दौर गया, जब रिमझिम फुहारों के बीच धान रोपाई के गीत या सावनी-कजरी की तान फूटे। जिन कुछ लोक अंचलों में यह सांगीतिक-सांस्कृतिक परंपरा थोड़ी-बहुत बची है, वह मीडिया की निगाह से दूर है।
बारहमासा गाने वाले देश में आया यह परिवर्तन काफी कुछ सोचने को मजबूर करता है। यह फिनोमना सिर्फ हमारे यहां नहीं, पूरी दुनिया का है। पूरी दुनिया में किसी भी पारंपरिक परिधान से बड़ा मार्केट स्विम कास्ट्यूम का है। दिलचस्प तो यह कि अब शहरों में घर तक कमरों की साज-सज्जा या लंबाई-चौड़ाई के हिसाब से नहीं, अपार्टमेंट में स्विमिग पूल की उपलब्धता की लालच पर खरीदे जाते हैं।
इस पानीदार दौर को लेकर इतनी चिता तो जरूर जायज है कि पानी के नाम पर हमारी आंखों और सोच में कितना पानी बचा है। अगर पानी होने या बरसने का सबूत महिलाएं दे रही हैं तो फिर पुरुषों की दुनिया कितनी प्यासी है।
आज ब्लू है पानी और दिन भी सनी
 फिल्म 'यारियां’ का बीच सांग 'आज ब्लू है पानी...पानी...’ ने इस साल बारिश आने से पहले से रिमझिम फुहारों के अहसास से भर दिया। बात अगर शहरी नौजवानों की करें उन्होंने कम से कम इस साल के लिए इस गाने को रेनी सीजन का एंथम सांग का दर्जा दे
दिया है।
इस गाने में पंजाबी रैपर यो यो हनी सिंह की आवाज का जादू सिर चढ़कर बोलता है। इस गाने में उन्होंने खुद परफार्म भी किया है। पर इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है इस गाने का बोल्ड और यूथफुल फिल्मांकन। गरमी में पानी का भीगा अहसास अब मनमानी का भी अहसास है। मनमानी यानी मस्ती के लिए हर दहलीज को एक बार में लांघ जाना। सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर की यही तो खासियत है कि वह हर मौके को सेलिब्रेट करती है, फिर इससे फुहारों का मौसम कैसे बाहर रह सकता है।