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मंगलवार, 25 मार्च 2014

कहां खो गए समर्थन और विरोध के तकाजे


भारतीय गणतंत्र के जब पचास साल पूरे हुए थे तो देशभर में इसको लेकर कई कार्यक्रम हुए थे। ऐसे मौकों को एक पवित्रवादी आग्रह के साथ मनाने की भारतीय परंपरा काफी पुरानी है। गांधी जयंती से लेकर हिंदी दिवस तक ऐसे कई उदाहरण हैं। अलबत्ता ये उदारहरण अपने प्रदेयों और उपोयिगता को लेकर कितने बहुमूल्य हैं, यह भी हम जानते हैं। गणतंत्र के स्वर्णिम सर्ग में दर्ज होने के लिए संसद भी अलग से बैठी। तत्कालीन सांसदों ने लंबी-लंबी तकरीरें कीं। कुछ ने नए संकल्प लिए तो कुछ ने पुराने सबक दोहाराए।
यह अलग बात है कि माननीयों को न तो सबक भूलने में देर लगी और न संकल्प। उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर भारतबाला प्रोडक्शन ने एक छोटा सा एडनुमा कार्यक्रम बनाया था, बमुश्किल 3० सेकेंड का। इसमें टीवी स्क्रीन पर एक-एक शब्द करके एक वाक्य उभरता है- चलो हम इस बात पर सहमत हैं कि हम एक दूसरे से असहमत हैं। इसके थोड़े अंतराल के बाद दूसरा वाक्य- असहमति पर सहमति लोकतंत्र की नींव है। अब जबकि 16वीं लोकसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है तो इन दो पुराने उल्लेखों से कुछ बातें नए सिरे से समझी जा सकती हैं।
हिंदी साहित्य के प्रखर आलोचक और इतिहासकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल कविता में विरोधों के सामंजस्य की बात करते थे। कविता संवेदनाओं का लोकतंत्र है। इसलिए विरोधों के सामंजस्य की दरकार को एक लोकतांत्रिक दरकार ठहराया जा सकता है। पक्ष और विपक्ष के बीच तटस्थ जैसी स्थिति को न तो महाभारत में कृष्ण ने स्वीकार किया और न ही आधुनिक लोकतंत्र में इस स्टैंड को राइट एप्रोच माना
गया। अलबत्ता देश में अस्मितावादी राजनीति के दौर-दौरे के बीच विरोध से ज्यादा अंतर्विरोध की राजनीतिक ध्वनियों ने लोकतांत्रिक स्पेस को भरा।
बहरहाल, लोकसभा चुनावों में उतरने की पार्टियों और उनके नेताओं की तैयारियों को देखें तो कुछ बातें अभी से साफ हो गई हैं। भले लोकतंत्र के सुलेखवादी विमर्श में हम लाख बातें कहें-समझें पर सत्ता की राजनीति ने समर्थन और विरोध के बीच की लक्ष्मणरेखा को कब का अमान्य कर दिया है। यह सब हो रहा है जीत और सत्तारोहण के गणित के नाम पर। बाजार ने हमें बीते दो दशकों में सिखाया कि जेब में जिसके पैसा है, उसके लिए ही दुनिया है और अब राजनीति हमें सीखा रही है कि जो जीते वही सिकंदर। यानी विरोध का मतलब
अगर हार है तो ऐसा विरोध त्याज्य है। इसी
तरह समर्थन का अर्थ सत्ता नहीं तो फिर ऐसे समर्थन की दरकार और सरोकार दोनों ही बेमानी हैं।
दिल्ली की एक लोकसभा सीट से इस बार आम आदमी पार्टी की तरफ से राजमोहन गांधी चुनाव लड़ रहे हैं। वे काफी विनम्र और विज्ञजन हैं। पर राजनीति तो शुरू ही मजबूरी से होती है। आम आदमी पार्टी में शामिल होने से पहले उनका गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर एक बयान आया था। तब मोदी को भाजपा ने अपना पीएम कैंडिडेट नहीं बनाया था। राजमोहन ने मोदी का बहुत नामोल्लेख तो नहीं किया पर दुनिया की सबसे ऊंची सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा बनाने के उनके अभियान पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि इस अभियान से एक वर्टिकल होड़ शुरू होगी अपने-अपने नेताओं और प्रतीक पुरुषों की भव्य प्रतिमा स्थापित करने की।
कुल मिलाकर सम्मान के नाम पर शुरू होने वाली इस प्रतियोगिता में क्षेत्र और समुदायों के बीच एक ऐसी हिंसक भिड़ंत होगी जो देश और समाज के लिए सर्वथा अनिष्टकारी होगी। राजमोहन के इस बयान की सराहना में भले बहुत हाथ तब नहीं उठे पर उनके विरोध में भी शायद ही कोई बयान आया। पर अब राजमोहन आप के नेता हैं। एक-दो महीने तक उनके विचारों का चरित्र जितना मुक्त था, अब शायद नहीं। तभी तो आप को लेकर और उसके नेता अरविंद केजरीवाल के उतावलेपन को लेकर वह कोई सीधी टिप्पणी करने से बचते हैं यानी उन्होंने जानबूझकर एक चुप्पी ओढ़ रखी है। यानी राजमोहन भी समझते हैं कि अभी जनता से वोट लेने की बारी है। सो अभी नापतौल कर बोलना होगा। समर्थन और विरोध की मुद्रा एकदम से तटस्थ हो गई है।
यह हमारे गणतंत्र का एक ऐसा विरोधाभासी सच है जो गणतंत्र के लिए समर्थन और विरोध की जरूरी दरकार को ही खारिज करते हैं। राजमोहन गांधी का नाम इसलिए नहीं कि वे इसके कोई बहुत बड़े कसूरवार हैं बल्कि इसलिए कि उनके जैसा समझदार और चारित्रिक सुदृढ़ता वाला व्यक्ति भी भारतीय गणतंत्र के इस अंतरविरोध को चुनौती
देने में संकोच करता है। उन्हें छोड़ दें फिर तो राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी तक और दिग्विजय सिंह से लेकर जगदंबिका पाल तक, सभी समर्थन और विरोध के अपने एजेंडे को जब जैसे चाहें बदल देते हैं, रद्द कर देते हैं। सामान्य समझ में यही तो है मौकापरस्ती की राजनीति।
इस बार के चुनावों को लेकर कहा जा रहा था कि ये देश में कुछ मुद्दों को लेकर राजनीतिक जमीन को इतनी ठोस कर देंगे कि अगले कुछ दशकों की देश की राजनीति इसी जमीन पर होगी। इसमें सबसे बड़ा मुद्दा भ्रष्टाचार को माना जा रहा था। जनता से राजनीतिक विमर्श करने वाले सभी लोग इस बात को अपने-अपने तरीके से मान रहे थे। यहां तक कि हाल तक के ओपिनियन पोल में भी भ्रष्टाचार को बड़ा चुनावी मुद्दा माना गया।
पर अगर दलों के टिकट वितरण के आधारों को देखें या फिर दल छोड़ने व नए दल
में शामिल होने के कारणों को देखें तो कम से कम भ्रष्टाचार कहीं से कोई मुद्दा नहीं है। इसी के साथ भ्रष्टाचार के समर्थन और विरोध को लेकर अंतिम रूप से लकीर खींचने की संभावना भी क्षीण हो गई, जिसे लेकर काफी उम्मीदें थीं।
अब ऐसी स्थिति में चुनावी राजनीति से इतर मौकों पर राजनेताओं की उन तकरीरों का क्या, जिसमें देश की लोकतांत्रिक महानता को बनाए और बचाए रखने के लिए खूब सारी बातें होती हैं, शपथें होती हैं। इसी तरह लोकतंत्र की अवधारणा को साफ करने वाली उन बुनियादी बातों का भी क्या जिसमें समर्थन और विरोध के बीच दुराव के बजाय समन्वय की तो बात होती है पर किसी मुद्दे को लेकर तटस्थतावादी घालमेल की कोई गुंजाइश नहीं। मुद्दा भ्रष्टाचार का हो, महंगाई का हो, चुनाव सुधार का हो या फिर विकास का, नहीं लगता कि जनता इस चुनाव में यह निर्णय ले पाएगी कि वह किस मुद्दे पर किसके साथ जाए और किसके विरोध में। जनता की यह मुश्किल ही आज भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी चुनौती है। ऐसी स्थिति में इस बार के चुनावों में तारीख के हर्फ कितने बदलेंगे, कहना मुश्किल नहीं।
 

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

इंदिरा के खिलाफ जीत का 'राज’


1977 के चुनाव में केंद्र की राजनीति में कांग्रेस के वर्चस्व को जनता ने करारा जवाब दिया था। जेपी आंदोलन से निकली जनता पार्टी की पूरे उत्तर और मध्य भारत में एक तरह से लहर थी।
इस लहर में कांग्रेसी राजनीति के कई सूरमाओं को संसद का मुंह नहीं देखने दिया। पर इंदिरा गांधी की हार ने सबको चौंकाया। इमरजेंसी को लेकर इंदिरा के खिलाफ एक दृढ़ जनभावना जरूर थी, पर वह चुनाव तक हार जाएंगी, इसकी उम्मीद उनके विरोधियों को भी नहीं थी। इंदिरा को जानेमाने समाजवादी नेता राजनारायण ने चुनावी शिकस्त दी और वह भी उनके गढ़ रायबरेली में।
दरअसल, इंदिरा और कांग्रेस के खिलाफ अपने घोषित सैद्धांतिक विरोध के कारण राजनारायण 1971 में भी रायबरेली से इंदिरा के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे थे। पर उन्हें पटखनी खानी पड़ी थी। इस पराजय के चार साल बाद राजनारायण ने चुनाव परिणाम के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील की।
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने सबूतों को गंभीर और पर्याप्त मानते हुए इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला सुनाया। उनकी सांसदी को तो अवैध करार दिया ही गया, छह सालों के लिए उनके चुनाव लड़ने पर बैन भी लगा दिया गया।
इंदिरा को इस फैसले ने गुस्से से भर दिया और उन्होंने इस्तीफा देने से मना कर दिया। इस दौरान वह जेपी आंदोलन के कारण पहले से परेशान चल रही थीं। इन्हीं परेशानियों के बीच इंदिरा ने 26 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा कर दी।
जनवरी 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने आपातकाल समाप्त कर लोकसभा चुनाव की घोषणा की। राजनारायण फिर से रायबरेली में उन्हें चुनौती देने के लिए मैदान में उतरे।
इस चुनाव में समाजवादी राजनारायण ने जीत दर्ज कराकर दिखा दिया कि लोकतंत्र में किसी का भी विरोध असंभव नहीं है और जनता की अदालत में अन्याय हमेशा हारता है। भारतीय लोकतंत्र की यही खासियत उसकी असली ताकत है।
 

अंत नहीं अनंत खुशवंत


खुशवंत सिंह अपनी उम्र की गिनती को दहाई से सैकड़े तक नहीं ले जा सके। यह अफसोस उनके चाहने वालों को हमेशा रहेगा। अलबत्ता जिस जिदादिली से वह जीते रहे उसे देखकर तो किसी को भी रक्स होगा। विवाद, यश, प्रतिष्ठा, सम्मान और संतोष सब कुछ भरपूर था उनके जीवन में।
उन्होंने अपने 99 साल के जीवन में न सिर्फ स्वाधीन भारत के लिए संघर्ष और नए राष्ट्र का निर्माण देखा बल्कि वे विभाजन और सिख दंगों समेत इतिहास के कई दुखद प्रसंगों के भी साक्षी रखे। उनके लेखन में ये दोनों तरह के अनुभव बखूबी दर्ज हुए हैं।
खुशवंत की जिंदादिली का सबसे दिलचस्प पहलू यह रहा कि वे विवादों में बेशक हमेशा रहे पर लोगों की नफरत के शिकार कभी नहीं हुए। इसके उलट उन्हें हर क्षेत्र के लोगों से बेपनाह मोहब्बत मिलती रही। शराब और औरतों को लेकर वे भले बढ़-चढ़कर बातें करते हों, पर उनके चरित्र को लेकर कभी कोई सवाल नहीं उठा। बदनामी के जोखिम के बीच नाम और शोहरत पाने की उनकी ललक को देखकर तो कई बार हैरत होती थी।
दिल्ली से उन्हें बहुत प्रेम था। यहां के कई प्रसिद्ध परिवारों से उनके काफी नजदीकी रिश्ते थे। यह सब उनके पिता के जमाने से चला आ रहा था। दिल्ली के सिख समुदाय के लोगों के तो वे काफी आत्मीय थे। वैसे बात चाहने वालों की करें तो क्या कोलकाता और क्या मुंबई, उनके मुरीद देश में हर जगह थे।
खुशवंत जितने भारत में लोकप्रिय थे, उतने ही पाकिस्तान में भी। उनकी किताब 'ट्रेन टु पाकिस्तान’ बेहद लोकप्रिय हुई। इस पर फिल्म भी बन चुकी है। उन्हें 1974 पद्मभूषण और 2००7 में पद्मविभूषण से भी सम्मानित किया गया था। उनके पिता का नाम सर सोभा सिह था, जो अपने समय के प्रसिद्ध रईस और जमींदार थे। एक जमाने में सोभा सिह को आधी दिल्ली का मालिक कहा जाता था।
खुशवंत ने गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर और कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से तालीम हासिल की। पसंद नहीं आने के बावजूद उन्हें कानून की पढ़ाई करनी पड़ी। उनका विवाह कंवल मलिक के साथ हुआ। उनके बेटे का नाम राहुल सिह और पुत्री का नाम माला है।
एक पत्रकार के तौर पर खुशवंत सिह ने काफी ख्याति अर्जित की। 1951 में वे आकाशवाणी से जुड़े और 1951 से 1953 तक भारत सरकार के पत्र 'योजना’ का संपादन किया। मुंबई से प्रकाशित प्रसिद्ध अंग्रेजी साप्ताहिक 'इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया’ के और 'न्यू देहली’ के वे 198० तक संपादक थे। वे 'नेशनल हेराल्ड’ के भी संपादक रहे। 1983 तक दिल्ली के अंग्रेजी दैनिक 'हिंदुस्तान टाइम्स’ के संपादक भी वही थे। तभी से वे प्रति सप्ताह एक लोकप्रिय कॉलम लिखते थे, जो अनेक भाषाओं के दैनिक पत्रों में प्रकाशित होता था।
उनके तीन उपन्यास खासे प्रसिद्ध हैं- 'देहली’, 'ट्रेन टु पाकिस्तान’ और 'दि कंपनी ऑफ वूमन’। वर्तमान संदर्भों और प्राकृतिक वातावरण पर भी उनकी कई रचनाएं हैं। दो खंडों में प्रकाशित 'सिखों का इतिहास’ उनकी प्रसिद्ध ऐतिहासिक कृति है। साहित्य के क्षेत्र में पिछले सात दशकों में खुशवंत सिह का विविध आयामी योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है।
1947 से कुछ सालों तक खुशवंत सिह ने भारत के विदेश मंत्रालय में विदेश सेवा के महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 198० से 1986 तक वे राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। सेक्स, मजहब, भाषा खासतौर पर हिंदी और ऐसे ही कुछ विषयों पर की गई टिप्पणियों के कारण वे हमेशा आलोचना के केंद्र में रहे। पर यह सब शायद जिंदादिली से जीवन जीने का उनका तरीका था। भीतर से वे खासे संवेदनशील इनसान थे और देश-समाज की चिंताओं से हमेशा गहराई से जुड़े रहे।
यह अलग बात है कि अपने सरोकारों और रास्तों को तय करते हुए वे कभी लकीर के फकीर नहीं बने। अपने लेखन की तरह अपनी शख्सियत को भी उन्होंने अपने तरीके से ही गढ़ा। जीवन और रचना के बीच आत्मविश्वास का ऐसा गाढ़ा मेल शायद ही कहीं और देखने को मिले।

बुधवार, 19 मार्च 2014

बेल्लारी की चुनावी सुषमा


बेल्लारी लोकसभा सीट 13वीं लोकसभा चुनावों के दौरान अचानक काफी चर्चा में आ गई और पूरे देश की निगाहें यहां के चुनावी नतीजे पर आकर ठहर गईं। दरअसल, यहां से कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनाव लड़ने का एलान किया और उनके इस फैसले को भाजपा ने चुनौती देने की ठान ली। दिलचस्प है कि यह सोनिया का पहला चुनाव था। इस चुनाव में भाजपा ने अपनी तेज-तर्रार नेता सुषमा स्वराज को सोनिया के खिलाफ उतारने का फैसला किया। देखते-देखते यह मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बन गया। भाजपा इस चुनाव को रणनीतिक तौर पर देख रही थी। क्योंकि अगर सोनिया वहां से चुनाव हार जातीं तो उनका पॉलिटिकल करियर शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता। इसके उलट सुषमा इसे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी लोकप्रियता के बड़े मौके के रूप में देख रही थीं। सोनिया को हराने के लिए जनता दल और कुछ दूसरे दलों ने भी सुषमा का साथ दिया।
भाजपा ने इस चुनाव में स्वदेशी बनाम विदेशी का मुद्दा जोर-शोर से उठाया। बेल्लारी के वोटरों को यह बात रेखांकित करके बताई गई कि इंदिरा गांधी की बहू और राजीव गांधी की पत्नी इटली की रहने वाली हैं। भाजपा को सोनिया के विदेशी होने का मुद्दा सूट कर रहा था और वह इसी मुद्दे पर सोनिया को घेर रही थी।
1952 से यहां महज दो बार कांग्रेस हारी थी। यही देखते हुए सोनिया को बेल्लारी एक सुरक्षित सीट लगी और वह यहां से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गईं। बहरहाल, सुषमा इस चुनाव में सोनिया से हार गईं। अलबत्ता उन्होंने यहां मुकाबले को जरूर दिलचस्प स्थिति में ला दिया था। उन्होंने सोनिया को घेरने के लिए बेल्लारी के गांवों-कस्बों की खूब खाक छानी। यहां तक कि उन्होंने कन्नड़ भी थोड़ी-बहुत इस दौरान सीख ली।
इसके जवाब में राहुल गांधी और खासतौर पर प्रियंका गांधी ने सोनिया के चुनाव प्रचार की कमान संभाली थी। एक बात और यह कि सोनिया बेल्लारी के अलावा उत्तर प्रदेश की अमेठी सीट से भी चुनाव मैदान में उतरी थीं। उन्हें दोनों जगह से जीत मिली। हालांकि बाद में उन्होंने बेल्लारी की सीट से इस्तीफा दे दिया था।
 

लोकतंत्र में बिहार पहले से विशेष राज्य


सरदार वल्लभ भाई पटेल जब देसी रियासतों का विलय भारत राज्य में कराने में लगे थे तो उन दिनों वह एक महत्वपूर्ण बात अकसर कहा करते थे। वह कहते थे कि देश के विभिन्न प्रांतों-क्षेत्रों, वर्गों-भाषा-भाषियों को भारत राज्य से जोड़ना इसलिए जरूरी है कि इससे ही भारतीयता की शिनाख्त पूरी होगी। ऐसा कहते हुए वे भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष की इस विलक्षणता को रेखांकित करना नहीं भूलते थे कि देश अगर स्वतंत्र है तो इसलिए कि इसमें सभी मजहब और सूबों के लोगों ने शिरकत की है, कुर्बानियां दी हैं। इन सबका जुड़ाव जैसा संघर्ष के दिनों में था, वैसा ही बाद में भी दिखना चाहिए। एकजुटता की यह ताकत ही भारत
की ताकत है।
अभी देश में सोलहवीं लोकसभा के चुनाव होने जा रहे हैं। दिलचस्प है कि चुनावी चर्चाओं के बीच सरदार का नाम भी लिया जा रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने तो गुजरात में उनकी दुनिया की सबसे भव्य प्रतिमा बनाने की मुहिम ही छेड़ रखी है। यह अलग बात है कि उनकी इस मुहिम के सियासी निहितार्थ निकालने वाले भी कम नहीं हैं। हाल में कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात पहुंचे तो उन्होंने सरदार और मोदी के विरोधाभासों को रेखांकित करने की कोशिश की। यह अलग बात है कि ऐसा करते हुए वह मौजूदा कांग्रेस पार्टी और उसके स्वर्णिम इतिहास के बीच बढ़ते विरोधाभास पर कुछ नहीं बोले।
दरअसल, आज जिन दलीलों और हवालों से चुनावी मैदान मारने में पार्टियां और उनके नेता लगे हैं, उनमें वैसे तत्वों का खासतौर पर अभाव है जो भारतीय गणतंत्र की तारीखी खासियत रही है। विकास, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता का मुद्दा मजबूत जरूर है पर इससे भी मजबूत भारतीय समाज की लोकतांत्रिक आस्था है।
इस आस्था के साथ आज किस कदर खिलवाड़ हो रहा है, इसे आप यों समझ सकते हैं- बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं और वहां सबसे बड़ा मुद्दा विशेष राज्य का दर्जा है। एकजुट होकर भले न सही पर तकरीबन पार्टियां वहां इस मुद्दे का समर्थन कर रही हैं। फर्क बस यही है कि वे इस मुद्दे पर संघर्ष
का श्रेय बांटना नहीं चाहतीं। यह इस मुद्दे को लेकर बरती जाने वाली एक ऐसी सियासी बेईमानी है, जिसे जनता भी जरूर समझ
रही होगी।
ऐसा इसलिए भी कि पार्टियां अपने बीच की दूरियां जाहिर करने के लिए अत्यंत अगंभीर नाटकीय तरीकों का इस्तेमाल कर रही हैं। मसलन, केंद्र से विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग को लेकर जब जदयू ने बिहार बंद का कॉल दिया तो उससे एक दिन पहले भाजपा ने रेल रोको आंदोलन की तिथि तय कर मुद्दे को हथियाने की कोशिश की। इससे पहले दिल्ली में जब इसी मुद्दे पर जदयू ने दिल्ली में रैली की तो उसमें भाजपा को साथ नहीं लिया, जबकि तब सरकार में वह उसके साथ थी। बात बिहार की निकली है तो यहां एक बात का जिक्र जरूरी है। जब से बिहार को लोगों को परप्रांतीय विरोध के नाम पर दिल्ली से लेकर मुंबई तक गालियां-लाठियां खानी पड़ रही हैं, तब से बिहार अस्मिता का सवाल एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा हो गया है। इसके पीछे कहीं न कहीं वोटबैंक की राजनीति भी है। बिहार में लोकसभा की 4० सीटें हैं। यूपी में सीटों की संख्या 8० है। दोनों सूबों की सीटों की गिनती मिला दें तो यह केंद्रीय सत्ता की दावेदारी को मजबूत करने वाली स्थिति है किसी भी पार्टी के लिए। आज अगर वाराणसी से नरेंद्र मोदी को भाजपा चुनावी मैदान में उतार रही है तो उसके पीछे सीधा गणित यही है कि यूपी और बिहार की 12० सीटों पर इसका सकारात्मक असर भाजपा को फायदा पहुंचाएगा।
पर इस फायदे-नुकसान में बिहारी अस्मिता का सवाल कहीं पीछे छूटता मालूम पड़ता है। चुनावी मैदान में भाजपा को इस सवाल का जवाब देना पड़ सकता है कि बिहारियों को मारने-पीटने और खदेड़ने वाले महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना से उसकी बढ़ी नजदीकी का क्या मतलब है? क्या यह अपने सूबे से बाहर काम-धंधा करने वाले बिहारियों के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है। और अगर ऐसा है तो फिर भाजपा को बिहारी अस्मिता से खिलवाड़ का कसूरवार क्यों न ठहराया जाए।
गौरतलब है कि यह राजनीतिक दुर्दशा उस राज्य की है, जिसकी देश के लोकतांत्रिक इतिहास में भूमिका खासी उल्लेखनीय रही है। अशोक मेहता, मीनू मसानी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडीस और शरद यादव में से कोई बिहारी नहीं हैं। पर बिहार की जनता ने देश की समाजवादी आंदोलन के इन दिग्गजों को संसद तक पहुंचाया।
यह इस राज्य की राजनीतिक या लोकतांत्रिक समझ की एक ऐसी मिसाल है जो आज इस सूबे की पहचान से जुड़े कई पूर्वाग्रहों को न सिर्फ खंडित करते हैं बल्कि एक नई बोधदृष्टि से उसे देखने की दरकार पेश करती है। इस लिहाज से देखें तो बिहार देश के लोकतांत्रिक नक्शे पर पहले से विशेष राज्य है। यह अलग बात है कि विशेषता की यह चमक अकेले बिहार के साथ नहीं है। बल्कि बिहार उसी तरह विशेष है जैसे गुजरात विशेष है, महाराष्ट्र विशेष है या फिर ओडिशा, तमिलनाडु या आंध्र विशेष है। इन बातों को तार्किक रूप से समझने में अगर कोई कठिनाई हो तो एक बार फिर से सरदार की बातों का स्मरण करें।
देश में फिर से चुनावी उत्सव चल रहा है। ऐसे में दल और नेता एक-दूसरे के खिलाफ भले ही हमलावर बोल बोलें, लेकिन उन्हें अपने-अपने क्षेत्रों की ऐतिहासकिता को भी एक सातत्य प्रदान करने का दायित्व निभाना चाहिए, जिससे देश के लोकतंत्र के मंदिर में हर क्षेत्र का कम से कम एक दीपक तो जरूर जले।
साठ साल से भी लंबा देश का लोकतांत्रिक सफरनामा महज धिक्कार से भरने के लिए नहीं है बल्कि इसमें गौरव और यश के भी तमाम अनुभव शामिल हैं।
इन अनुभवों का सिलसिले को अगर हम जारी रखने में यकीन नहीं रखते तो इसका मतलब यही है कि न तो हमें अपने लोकतंत्र को लेकर न तो कोई फL है और न ही इसकी क्षमता को लेकर कोई भरोसा। अविश्वास का यह भाव खतरनाक है।
सत्ता की राजनीति के लिए दावों-प्रतिदावों, आरोपों-प्रत्यारोपों और वादों-इरादों से आगे कुछ सकारात्मकता की भी बात जरूर होनी चाहिए। यह देश के जागरूक मतदाताओं के लिए भी एक सम्मान की बात होगी क्योंकि इससे उसके दायित्वपूर्ण विवेक को तो मान मिलेगा ही, ऐसे ही जवाबदेह तरीके से लोकतांत्रिक दायित्व के पालन के लिए प्रोत्साहन भी मिलेगा। क्या इस सामयिक दरकार को देश की सियासी जमातें समझेंगी?
 

मंगलवार, 4 मार्च 2014

मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल


मंडल कमीशन के मुद्दे पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह का पूरे देश में विरोध हो रहा था। इस मुश्किल हालात से निकलना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। उन्हें लग रहा था कि कहीं वे देश और समाज में इस कदर अलोकप्रिय न हो जाएं कि उनका नाम इतिहास में सामाजिक तनाव और विद्बेष बढ़ाने वाले एक नेता के तौैर पर दर्ज हो। अगर ऐसा होता तो यह वीपी के पूरे राजनीतिक करियर पर ऐसा दाग होता, जिसे वह चाहकर भी नहीं धो पाते। दिलचस्प है कि वह दौर सामाजिक न्याय की राजनीति के तौर पर भले जाना गया पर उसकी शुरुआती शिनाख्त भय, हिंसा, असुरक्षा और विद्बेष के तौर पर
हुई थी।
ये सारी बातें याद करने की जरूरत आज इसलिए आन पड़ी हैं क्योंकि सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू होने वाली अस्मितावादी राजनीति का मुहावरा अब मौजूदा भारतीय राजनीति के लिए एक खोटे सिक्के की तरह होता जा रहा है। ऐसा बिल्कुल निर्णान्यात्मक तौर पर कहना भले अभी एक जल्दबाजी हो, पर इस तरह केे खतरों को तो जरूर पढ़ा जा सकता है।
वीपी सिंह को रातोरात पिछड़ों के मसीहा और सामाजिक न्याय के जुझारू योद्धा की छवि दिलाने वालों में तीन नेताओं के नाम लिए जाते हैं। ये हैं रामविलास पासवान, शरद यादव और लालू प्रसाद यादव। तब ये तीनों जनता दल में थे। इस पार्टी का गठन तो भ्रष्टाचार विरोध की वीपी की लड़ाई को संसद तक ले जाने के लिए हुआ था पर देखते-देखते राजनीति की कौड़ियां उलटी पड़ गईं और मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने का फैसला सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया।
सवर्ण युवकों का आक्रोश दिल्ली से लेकर इलाहाबाद, लखनऊ और पटना तक फूट रहा था। ऐसे में खासतौर पर रामविलास पासवान आगे आए। दलित सेना के नाम पर शुरू किए गए उनके नॉनपॉलिटिकल आउटफिट ने विभिन्न जातियों के पिछड़े नौजवानों की गोलबंदी शुरू की। देखते-देखते मंजर बदला और दलितों-पिछड़ों की दबी आवाज बड़े-बड़े मंचों से गूंजने लगी। राजनीति की मुख्यधारा में पिछड़े नेताओं की एक पूरी जमात विशेष सक्रियता के साथ शामिल हुई। इनमें से ज्यादातर पहले से राजनीति में थे पर नई परिस्थिति में उनकी भूमिका अतिरिक्त रूप से रेखांकित होने लगी। पर बीते दो दशकों में नई राजनीति का यह तार्किक तकाजा देश में वोट बैंक की राजनीति का एक विद्रूप उदाहरण भर बनकर रह गया। खासतौर पर बात करें यूपी-बिहार की तो इसने राजनीति के नए जातीय समीकरण को भले जन्म दिया हो पर इससे सामाजिक स्तर पर बदलाव की कोई लंबी लकीर नहीं खिंच पाई।
अब जबकि इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले हर स्तर पर पॉलिटिकल पोजिशनिंग की नई दरकार सामने आई है तो जाति की राजनीति का पुराना खेल फिर से दखल बढ़ाने की फिराक में है। यह अलग बात है कि भ्रष्टाचार विरोध, समावेशी विकास और वैकल्पिक राजनीति को लेकर बीते कुछ सालों में जिस तरह की जन जागरूकता दिखी है, उसमें राजनीति में जातिगत समीकरणों का पुराना खेल शायद ही बहुत मायने रखे।
बात करें सामाजिक न्याय आंदोलन की पुरानी त्रिमूर्ति की तो वे आज भी राजनीति में सक्रिय हैं पर उनकी हैसियत पहले जैसी नहीं रही। लालू यादव अब भी तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस चुनाव में वे कांग्रेस-एनसीपी के साथ उतरेंगे या अकेले। शरद यादव की पार्टी जेडीयू का नया चेहरा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। भाजपा से डेढ़ दशक से भी लंबा गठबंधन तोड़ने के बाद नीतीश फिर से तीसरे मोर्चे की छतरी में जरूर आ गए हैं पर बिहार में वे अपने लिए साथी दल की तलाश में हैं। रही रामविलास पासवान की बात तो वे जिस नाटकीय तरीके से भाजपा के साथ गए हैं, वह अवसरवाद की राजनीति की बड़ी मिसाल है। कायदे से पासवान की पार्टी लोजपा इस चुनाव में भाजपा के भरोसे है। बदले में वे भाजपा को कितना फायदा दे पाने की स्थिति में होंगे यह देखने वाली बात होगी। दिलचस्प है कि पासवान ने जो भी फैसला किया वह मन मसोस कर ही किया है। इससे पहले राजद और कांग्रेस के साथ उनके गठबंधन की बात चल रही थी। पर उन पर दबाव था कि वे महज दो-तीन सीट पर चुनाव लड़ने के लिए राजी हो जाएं। अपने राजनीतिक सफरनामे में पासवान के लिए यह संभवत: सबसे बुरा समय है। उन्हें साफ लग रहा है कि राजनीति की नई हवा में उनकी पतंग अब बहुत नहीं उड़ सकती।
लालू-शरद और रामविलास के साथ बात मुलायम सिंह यादव की भी कर ही लेनी चाहिए। मुलायम ने मंडल और मंदिर आंदोलन के जमाने से एक तरह से दोहरी राजनीति यूपी में की है। उन्होंने एक तरफ पिछड़ों को अपने साथ बनाए रखना चाहा तो वहीं दूसरी ओर अल्पसंख्यकों के भी भरोसे पर खरा उतरने की भरसक कोशिश करते दिखे।
इसी तरह की राजनीति लंबे समय तक बिहार में लालू भी करते रहे हैं। पर राजनीति के मैदान के इन दोनों ही धुरंधरों के आगे मुसीबत यही है कि वे अपने पुराने वोटबैंक को कैसे बचाएं। इन तमाम जिक्रों के बीच मायावती और उनकी पार्टी बसपा की स्थिति जरूर आपवादिक रूप से थोड़ी अविचलित है। ऐसा इसलिए भी संभव हो सकता है क्योंकि बसपा का जन्म मंडल राजनीति की गोद से नहीं हुआ है।
आखिर में कांग्रेस नेता जनार्दन द्बिवेदी की कुछ समय पहले आई उस टिप्पणी का जिक्र, जिसमंे उन्होंने सवाल उठाया कि सामाजिक न्याय के नाम पर शुरू हुई राजनीति ने एक नए क्रीमी लेयर को जन्म दिया है। कुछ नेताओं और परिवारों की बदली हैसियत को छोड़ दें तो सामाजिक बदलाव के किसी भी निर्णायक गंत्वय तक पहुंचने में यह राजनीति विफल रही है। पासवान से लेकर लालू और मुलायम ने जिस तरह एक नए तरह की वंशवादी राजनीति को जन्म दिया है, उससे समाज के अगड़े-पिछड़े तमाम वर्गों में चिढ़ पैदा हुई है। यह चिढ़ सोलहवीं लोकसभा के चेहरे को काफी हद तक बदल देने तक की ताकत रखता है। क्योंकि इस चिढ़ में इन नेताओं के राजनीतिक आचरण के साथ इन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों तक को लेकर गुस्सा शामिल है।
गौरतलब है कि भारतीय समाज की बहुलतावादी खासियत इसकी सांस्कृतिक विलक्षणता को लंबे समय से दूध पिलाती रही है, बलिष्ठ करती रही है। पर इस सांस्कृतिक विलक्षणता और बलिष्ठता के बीच कुछ ऐसे अंतरविरोध भी रहे हैं, जो हमारे विकास और सभ्यता के दावों को सामने से आईना दिखाते हैं। लिहाजा, इनके खिलाफ क्रांतिकारी राजनीतिक शपथ की दरकार तो आगे भी बनी रहेगी। अलबत्ता मौजूदा परिस्थिति में इतना जरूर कहा जा सकता है कि मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने के साथ शुरू हुआ राजनीति का अध्याय अब समाप्त होने जा रहा है।

त्यागपत्र का नायक

पद और सत्ता के जुनून के दौर में त्याग का साहस दिखाना कोई मामूली बात नहीं है। सिंधुरत्न पनडुब्बी हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए जिस तरह एडमिरल देवेंद्र कुमार जोशी ने नौसेना प्रमुख के पद से इस्तीफा दिया, उसकी आज हर तरफ चर्चा हो रही है। कुछ लोग इसे भ्रष्ट राजनीति को आईना दिखाने वाली नजीर बता रहे हैं तो कुछ भारतीय सेना की ईमानदारी के इतिहास का नया मीलस्तंभ।
आलम तो यह है कि एडमिरल जोशी ने जिस तरह बिना देर लगाए पनडुब्बी हादसे के मामले की नैतिक जवाबदेही लेते हुए तत्काल पद छोड़ने का फैसला किया, उससे मौजूदा रक्षामंत्री एके एंटनी पर भी दबाव बढ़ गया है कि वे भी अपना पद छोड़ें। खैर यह तो हो गई राजनीति की बात। ऐसा नहीं था कि इस्तीफा देने का कोई उन पर दबाव था या फिर वे अपने पद पर बने रहने के लिए किसी दूसरे रास्ते या बहाने का सहारा नहीं ले सकते थे। पर शायद भारतीय नौसेना का यह नायक कुछ और ही मिट्टी का बना था। तभी तो ईमानदारी और कर्तव्य के प्रति अपनी शपथ को उन्होंने किसी दुविधा में नहीं पड़ने दिया।
बात करें एडमिरल जोशी की तो उनके जीवन का अब तक का सफरनामा खासा बेदाग रहा है। अपनी बहादुरी और आचरण से उन्होंने एक आदर्श फौजी की मिसाल कायम की है। इस बात का महत्व आज इस लिहाज से काफी बढ़ गया है क्योंकि सेना के कई शीर्ष अधिकारियों पर बीते कुछ सालों में पद के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार के संगीन आरोप लगे हैं।
एडमिरल डीके जोशी ने 31 अगस्त, 2०12 को भारत के 19वें नौसेना प्रमुख का पद ग्रहण किया था। पदभार ग्रहण करते समय अपने संबोधन में उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं गिनाते हुए कहा था, 'देश की समृद्धि के लिए नौसेना को समुद्रीय शक्ति बनने का लक्ष्य पूरा करना होगा। यह सुनिश्चित करने के लिए चौबीसों घंटे सतर्क रहना होगा ताकि हमारी सुरक्षा तैयारियों में किसी तरह की ढील न रह जाए।’
उन्होंने आदमी और मशीनों के बेहतर तालमेल पर जोर देते हुए कहा था, 'सुरक्षा संबंधी उद्देश्यों को हासिल करने के लिए आदमी और मशीन के बीच तालमेल बहुत महत्वपूर्ण है।’ नौसेना की वेबसाइट के अनुसार एडमिरल जोशी पनडुब्बी-विरोधी युद्ध के विशेषज्ञ हैं।
अपनी करीब 4० साल की सेवा के दौरान उन्होंने विभिन्न तरह की स्टाफ, कमांड और निर्देशन की जिम्मेदारियों को संभाला। उन्होंने जो मुख्य जिम्मेदारियां निभाईं उनमें गाइडेड मिसाइल वाले युद्धपोत आईएनएस कुठार, गाइडेड मिसाइल विध्वंसक पोत रणवीर और विमानवाहक पोत आईएनएस विराट का नियंत्रण शामिल है। इस दौरान उन्हें नौसेना पदक, विशिष्ट सेवा पदक और युद्ध सेवा पदक से भी सम्मानित किया गया। बाद में जब उन्होंने पूर्वी बेड़े का नेतृत्व किया, जिसके लिए उन्हें अति विशिष्ट सेवा पदक (एवीएसएम) दिया गया।
एडमिरल जोशी नेवल वॉर कॉलेज, अमेरिका से स्नातक हैं। इसके अलावा उन्होंने कॉलेज ऑफ नेवल वार फेयर, मुंबई और दिल्ली के प्रतिष्ठित नेशनल डिफेंस कॉलेज में भी अध्ययन किया है। उन्होंने 1996 से 1999 के बीच सिगापुर में भारतीय उच्चायोग में रक्षा सलाहकार के रूप में भी काम किया है।
4 जुलाई 1954 को अल्मोड़ा , उत्तराखंड में जन्मे एडमिरल जोशी की यह खास बात रही कि उनकी गिनती सेना के उन दक्ष अधिकारियों में होती रही जो तकनीकी तौर पर काफी जानकार हैं। वे प्रबंधकीय दक्षता वाले एक अच्छे टीम लीडर भी रहे। इस कारण उनके साथ करने वाले सैन्य अधिकारियों का उनके प्रति गहरा सम्मान रहा।