LATEST:


मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

सौ में एक कपिल

वर्ष 2०13 को लेकर कई तरह की बातें हो रही हैं। ज्यादातर लोगों की नजर में यह 'आम’ आदमी के 'खास’ होने का साल है। इस साल आम जनता ने एकाधिक बार अपनी ताकत का इजहार किया। यह एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव की स्थिति है। इस स्थिति की व्यापकता तब और बढ़ जाती है जब हम देखतें हैं आम आदमी के बूते बदलाव का सियासी 'जंतर मंतर’ टीवी-सिनेमा और मनोरंजन जगत में भी काम आ रहा है। कॉमेडियन कपिल शर्मा को दो-तीन साल पहले तक जो भी पहचान थी, वह आम तरह की लोकप्रियता के दायरे में कैद थी। 2०13 में यह दायरा टूटा और वे आम से एक खास कॉमेडियन हो गए।
'कॉमेडी नाइट विद कपिल’ आज टीवी का एक ऐसा शो बन गया है, जिसकी लोकप्रियता ने बिग बी, सलमान खान, माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर जैसे दिग्गजों को पछाड़ दिया है। बात टीआरपी की करें या कांटेंट की, कपिल सब पर भारी पड़ रहे हैं। पिछले दिनों प्रसिद्ध पत्रिका 'फोब्र्स’ ने उन्हें देश के सौ प्रभावशाली लोगों की सूची में स्थान दिया। कपिल के लिए इतनी जल्दी कामयाबी के इतने बड़े मुकाम तक पहुंचना उन तमाम लोगों के लिए एक सीख है, जो अपनी जिंदगी और पृष्ठभूमि को अपनी कामयाबी की राह का बड़ा रोड़ा मानते हैं।
दो अप्रैल 1981 को अमृतसर में जन्मे कपिल शर्मा के पिता पुलिस सेवा में थे जबकि मां एक साधारण गृहिणी। 26 अप्रैल 2००4 को पिता की कैंसर से हुई मौत से अचानक परिवार की सारी जवाबदेही कपिल के कंधों पर आ गई। कपिल के लिए यह चुनौती काफी मुश्किलों भरा था। एक तो उनकी उम्र कम थी, दूसरे उन्हें काम के नाम पर मंच से लोगों को हंसाना भर आता था। स्कूल-कृलेज के दिनों में उन्हें इस कारण थोड़ी लोकप्रियता भी मिली, पर महज इस बूते परिवार की जिम्मेदारी को उठाना आसान नहीं था। कपिल शुरू से थोड़े जुनूनी और इरादों के पक्के रहे। सो इस नई चुनौती को भी उन्होंने अपने तरीके से ही हल करने की ठान ली। कॉमडी को उन्होंने अपनी हॉबी से आगे एक करियर केे तौर पर चुन लिया। इस फैसले से कॉमेडी को लेकर उनका इरादा जहां और मजबूत हुआ, वहीं वे अपने काम को प्रोफेशनली भी गंभीरता से लेने लगे।
कपिल के जीवन में तब एख सुखद क्षण आया, जब वे पॉपुलर टीवी शो 'द ग्रेट इंडियन लॉफ्टर चैलेंज’ (सीजन-3) के विजेता बने। इसके बाद उन्होंने टीवी पर कई कॉमेडी शोज किए तो वहीं कई शोज की मेजबानी करने का भी उन्हें मौका मिला। कामयाबी के इस मुकाम तक आते-आते कपिल गुमनामी के अंधेरे से निकलकर चर्चित नामों में शुमाार होने लगे। पर शायद इससे बड़ी सफलता जीवन में उनका इंतजार कर रही थी। इस साल जब वे अपने प्रोडक्शन बैनर के9 केे तहत जब स्टैंड अप कॉमेडी शो 'कॉमेडी नाइट विद कपिल’ लेकर आए तो देखते-देखते इसकी लोकप्रियता टीवी के तमाम हिट शोज पर भारी पड़ने लगी। आज आलम यह है कि बड़े सेे बड़े सिने सितारे उनके शो में शामिल होने के लिए लालायित रहते हैं।
पिछले दिनों तब जरूर एकबारगी यह लगा कि कपिल के कॉमेडी शो की लोकप्रियता को ग्रहण लग जाएगा, जब इस शो से जुड़े सुनील ग्रोवर ने अपने को इससे अलग करने का फैसला कर लिया। ग्रोवर कपिल के शो में गुत्थी का कैरेक्टर प्ले कर रहे थे। पर यह आशंका बेबुनियाद साबित हुई। इससे पहले कपिल को उस समय भी गहरा धक्का लगा जब उनके शो का सेट जलकर राख हो गया। पर यह कपिल की लोकप्रियता की ही ताकत थी कि उन्होंने न सिर्फ नया सेट खड़ा कर लिया बल्कि शो की लोकप्रियता पर भी आंच नहीं आने दी।
कपिल के हास्य की खास बात यह है कि इसमें न तो कुछ द्बिअर्थी है और न ही कुछ सतही। वे हास्य के नाम पर कुछ भी ऐसा नहीं करते जिससेे उनके शो को एक फेवरेट फैमिली शो होने में बाधा आए। आम जीवन का आम हास्य कपिल की जुबां और अदा से खास बन जाता है। यही तो है आम कपिल का खास कमाल।

'स्मॉल इज नॉट वनली ब्यूटीफुल, इट अज सिग्निफिकेंट आल्सो’


ईएफ शुमाकर की मशहूर किताब है- स्मॉल इज ब्यूटीफुल। शुमाकर की गिनती बीसवीं सदी के चोटी के आर्थिक चिंतक में होती है। वैसे वे महज अर्थ पंडित भर नहीं थे। समय और समाज को लेकर वे एक व्यापक दृष्टिकोण रखते थे। उनकी साफ मान्यता थी कि लोकसमाज को साथ लिए बिना आप न तो विकास का कोई ब्लू प्रिंट तैयार कर सकते हैं और न ही मानव कल्याण के अंतिम लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। बहरहाल, शुमाकर का जिक्र फिलहाल महज इसलिए क्योंकि वर्ष 2०13 के दिनों-महीनों को पलटकर देखने पर उनकी किताब के शीर्षक का बरबस ध्यान आता है। यह शुमाकर की किताब का नाम भर नहीं बल्कि उनके नाम से मशहूर हुई एक कालजयी उक्ति भी है। बिहार आंदोलन के दिनों में जेपी इस उक्ति का कई बार जिक्र करते थे। जेपी तब की स्थिति को देखते हुए इसे थोड़ा बदलते भी थे। वे कहते थे-'स्मॉल इज नॉट वनली ब्यूटीफुल, इट अज सिग्निफिकेंट आल्सो।’
जेपी को तब नहीं पता था कि संपूर्ण क्रांति की जिस मशाल को वह जला रहे हैं, वह देश में राजनीति और व्यवस्था परिवर्तन के संघर्ष को किस मुकाम तक ले जाएगा। पर उन्हें यह जरूर महसूस होता था कि जो भी पहल हो रही वह सामयिक तौर पर जरूरी है। जड़ता के टूटने से ज्यादा जरूरी है, उसके खिलाफ हस्तक्षेप का होना। एक चेतनशील मनुष्य और उसके समाज की यही पहचान है कि वह अपनी चेतना को हर उस जड़ता के खिलाफ एक कार्रवाई का रूप दे जो उसके परिवेश को प्रगतिशील होने के बजाय स्थिर करता है, निष्प्राण करता है। आज जब हम वर्ष 2०13 की समाप्ति पर इन बातों को समझने की कोशिश करते हैं तो हमारा ध्यान कई उन छोटी-बड़ी बातों पर जाता है, जो इस वर्ष को आगे के कई वर्षों के लिहाज से महत्वपूर्ण बनाता है।
वैसे यहां यह साफ होना जरूरी है कि कैलेंडर में तो हफ्ते-महीने को अलगाना आसान है पर अगर हम बात करते हैं देश और समाज की तो हमें बारहमासे के तय खांचे से थोड़ा आगे निकलना होगा। इस तरह अगर वर्ष 2०13 के साथ हम अगर 21वीं सदी के दूसरे दशक के अब तक के दौर को एक साथ देखें तो हमें साफ लगेगा कि छह दशक से ज्यादा लंबी उम्र का भारतीय लोकतंत्र एक बार फिर से अपनी शिनाख्त और भूमिका को नए सिरे से तय करना चाहता है। आजादी पूर्व से लेकर आजादी बाद के भारतीय इतिहास में यह नितांत नए तरह का अनुभव है।
नायक, विचार, संगठन और फिर इनकी सामूहिक ताकत से एक क्रांतिकारी आरोहण की तैयारी रिवोल्यूशन की यह थ्योरी आज बेमानी है। यह उस दौर का सच है जिसमें लोग यहां तक विचार करने की स्थिति में हैं कि 'भीड़ भी एक विचार है’। दिलचस्प है कि अरब बसंत के बाद इस बात को लेकर तमाम तरह के अध्ययन हो रहे हैं कि आज एक नए तरह का विश्व समाज है। एक ऐसा समाज जो एक तरफ तो अपने आस-पड़ोस से दूर है, कटा-कटा है, वहीं सोशल मीडिया पर वह संपर्क के तमाम तरह की एक्टिविटी से जुड़ा है। इस स्थिति को समाजशास्त्री अध्ययन के किसी पुराने चश्मे से नहीं समझा जा सकता है। यह एक नई तरह की स्थिति है, जिसमें व्यक्ति, परिवार और समाज की इकाई हर स्तर पर अपनी नई पहचान और नई दरकारों को दर्ज करा रही है। उत्तर आधुनिकता के नाम पर पिछले दो दशकों में इस स्थिति को लोक और परंपरा की पुरानी लीक के खिलाफ एक दुराग्रह का दौर तक कहा गया। पर क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि एक ऐसे समय में जब आतंकवाद जैसा प्रतिक्रियावादी विकल्प लोगों के सामने अपने को असंतोष को व्यक्त करने के लिए मौजूद है, लोग तमाम तरह के अहिंसक विकल्पों को आजमा रहे हैं।
बात करें भारत की तो एक चिंता जो गांधी ने देश की आजादी से काफी पहले जताई थी कि लोकतंत्र का केंद्रीकृत ढांचा अगर बहाल रहा तो स्वराज का अभीष्ट हमसे दूर ही रहेगा। लोकतंत्र का विकेंद्रीकरण मतलब प्रातिनिधक लोकतंत्र के मॉडल को प्रत्यक्ष जन प्रतिभाग के मॉडल में बदलना। आज जिस आम आदमी पार्टी (आप) की दिल्ली विधानसभा की 28 सीटों पर जीत को लेकर राजनीति-सामाजिक चिंतक तमाम तरह की बातें कर रहे हैं, वह लोकतंत्र में ढांचागत परिवर्तन की जनांकांक्षा को ही कहीं न कहीं प्रतिबिंबित करता है।
वैसे आप के 'स्वराज’ को लेकर अभी तमाम तरह की आशंकाएं भी हैं। जनतंत्र में जन भागीदारी की भूमिका को पांच साल में एक बार मतदान की कतार में खड़े होने से आगे ले जाने की दरकार तो समझ में आती है, पर इससे आगे नीति और निर्णय के जन प्रतिभाग को कैसे व्यवस्थागत रूप से सुनिश्चत किया जाए, यह भी एक बड़ा प्रश्न है। गांधी के स्वराज और अरविंद केजरीवाल के स्वराज में एक बड़ा फर्क है। गांधी स्वराज के लिए सबसे पहले नागरिक इकाई की शुचिता का सवाल उठाते हैं। शारीरिक श्रम, मितव्ययता, प्रेम-करुणा, सर्वधमã समभाव जैसी चारित्रिक और नीतिगत कसौटी पर खड़ा हुए बगैर गांधीवादी अहिंसक स्वराज की कल्पना नहीं की जा सकती।
प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी मौजूदा दौर को 'परम भोग’ का 'चरम दौर’ कहते थे। बाजार के साथ आई सूचना क्रांति ने एक तरफ जहां हमारी रचनात्मक वृतियों से स्वाबलंबन का तत्व छिन लिया है, वहीं हम लालच के महापाश में इतना बंध गए हैं कि इस कैद को ही सुखद कहने-मानने को मजबूर हैं। ऐसे 'उदार’ दौर का स्वराज कितना उदार होगा, यह बड़ा प्रश्न है। पर यह तो हुई गांधी विचार और परंपरा की एक बड़ी लीक के आगे 'आम आदमी’ के कुछ क्रांतिकारी संकल्पों को खारिज करने की बात।
गांधी की ही एक बात को लें तो वे अपने जीवन और अपने कमोर्ं को सत्य का प्रयोग कहते रहे। यह प्रयोग गांधी तक आकर कोई अंतिम स्थिति को पा गया, ऐसा नहीं है। यह एक सतत प्रक्रिया है, जो हमेशा चलती रहनी चाहिए। खुद गांधी भी अगर कोई सीख देते हैं, हमें यही सीख देते हैं। अब इस दृष्टि से वर्ष 2०13 में बनी स्थितियों की बात करें तो इसमें कई सकारात्मक लक्षण लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के दिखाई पड़ते हैं।
'भीड़’ इस या उस पार्टी या संगठन के बैनर तले नहीं बल्कि तिरंगे को लहराती हुई अचानक देश के कोने-कोने में सड़कों पर उतर आती है। नागरिक समझ के नाम पर बस यह प्रतिक्रिया कि भ्रष्टाचार, महिला असुरक्षा, नागरिक अधिकारों पर कुठाराघात की स्थिति को अब नहीं सहेंगे। क्या इतने भर से शासन-प्रशासन की जड़ता भंग होगी? दरअसल यह शुरुआती स्थिति ही आज परिवर्तन की एक प्रक्रिया को जन्म दे रही है। जन, गण और मन का नया समन्वय किसी नीति और विचार से आगे समाधान की स्थिति की ओर ले जाता है। एक ऐसा समाधान जिसे परिवर्तन का आधुनिक लोकतांत्रिक तरीका भी कह सकते हैं। यह तरीका व्यक्ति का व्यक्ति पर भरोसे का है। इस न्यूनतम शपथ का है कि हम बदलेंगे इसलिए हमारा परिवेश, हमारा समय भी बदलेगा। यह तरीका स्वाभाविक रूप से अपने लिए नायकत्व भी तय कर लेता है। शुमाकर के शब्दों का एक बार फिर से स्मरण करें तो यह छोटा प्रयोग सुंदर तो है ही, जेपी की पूरक व्याख्या को जोड़ दें तो रेखांकित करने योग्य भी है।



मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

विवादित कहानी देवयानी

ऐसा बहुत कम होता है कि आपके साथ एक तरफ तो अन्याय हो, वहीं दूसरी तरफ अन्याय के खिलाफ एक बड़े संघर्ष का आप प्रतीक बन जाएं। अमेरिका में भारतीय राजनयिक देवयानी खोब्रागडे के साथ बदसलूकी का मामला ऐसा ही है। इस साल जून-जुलाई से शुरू हुए इस मामले ने साल के आखिर आते-आते ऐसा तूल पकड़ा कि भारत और अमेरिका का संबंध कई नजरिए से निर्णायक मोड़ पड़ पहुंच गया है। भारत इस पूरे मामले पर अमेरिका से बिना शर्त माफी चाहता है तो अमेरिका महज खेद जताकर मामले को कानूनी दरकार का पैरहन देकर उसे रफा-दफा करना चाहता है।
दिलचस्प है कि इस पूरे मामले के केंद्र में खड़ी देवयानी खोब्रागडे के हवाले से न तो मीडिया में कोई बात आ रही है और न ही भारत सरकार उसके हवाले से कोई बड़ा खुलासा कर रही है। ऐसे में देवयानी को लेकर जो बातें हो रही हैं, उसके आधार पर लोग उनकी एक अनुमानित या आभासित शख्सियत खींच रहे हैं। इस सब में सबसे ज्यादा मदद कर रही है देवयानी की कुछ तस्वीरें, जो इंटरनेट के जरिए सबके लिए सुलभ हैं। तस्वीरें झूठ नहीं बोलतीं पर इनसे जिंदगी के मुकम्मल सच का खुलासा हो जाता है, आप ऐसा भी नहीं कह सकते। देवयानी मामले में आज ऐसा ही हो रहा है, उसकी तस्वीर देखकर और उसके बारे में हालिया प्रसंग में कुछ बातें जान-सुनकर लोग तमाम तरह की बातें सोचने-कहने लगे हैं। पर जब देवयानी के व्यक्तिगत सच के बारे में पता करते हैं तो इनमें से कुछ बातें सिरे से खारिज हो जाती हैं।
देवयानी मुंबईकर हैं। उनके पिता उत्तम खोब्रागडे आईएस ऑफिसर थे। देवयानी की शुरुआती तालीम एक बड़े कॉन्वेंट स्कूल में पूरी हुई। बाद में उन्होंने सेंट जीएस मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी की। पर देवयानी के लिए अंतिम गंतव्य शायद यही नहीं था। उन्होंने अपनी जिंदगी के लिए एक दूसरा रास्ता चुना। यह रास्ता भारतीय विदेश सेवा का था। मेडिकल जैसे प्रोफेशन को छोड़कर एकाएक दूसरी दिशा में अपने करियर को मोड़ने का फैसला आसान नहीं था। पर उनके लिए जिंदगी का मतलब शायद एक बनी बनाई लीक पर आगे बढ़ना भर नहीं था। देवयानी को जिंदगी में शायद वो सब तजुर्बे चाहिए थे जिसके लिए सात समंदर पार करना जरूरी है।
देवयानी के चाचा डॉ. अजय एम गोडाने आईएफएस 1985 बैच के अधिकारी थे। संभवत: चाचा को देखकर ही देवयानी ने अपना इरादा बदला हो। सुंदर और कुशाग्र देवयानी ने 1999 में अपने इरादे के मुताबिक कामयाबी पा ली। वह आईएफएस की परीक्षा पास कर गईं। अमेरिका में भारतीय राजनयिक का पद संभालने से पहले देवयानी ने पाकिस्तान, इटली और जर्मनी में भारत के राजनयिक मिशन को सफलतापूर्वक पूरा किया।
देवयानी ने एक प्रोफेसर से शादी की है और उनकी दो बेटियां हैं। उनका भाषा ज्ञान खासा समृद्ध है। वह हिंदी के साथ अंग्रेजी और जर्मन भाषा पर समान अधिकार रखती हैं। इसके अलावा उनकी विभिन्न देशों की राजनीतिक और सांस्कृतिक समझ भी काफी अच्छी है। अध्ययन, पर्यटन, संगीत और योग को पसंद करने वाली देवयानी ने अपनी जिंदगी में सीखने और आगे बढ़ने का रास्ता अब भी खुला रखा है। इसी का नतीजा रहा कि पिछले साल वह चेवनिंग रोल्स रॉयस साइंस एंड इनोवेशन लीडरशिप प्रोग्राम के लिए चयनति हुईं।
विवादों से देवयानी का नाता नया नहीं है। दो साल पहले जब मुंबई के आदर्श सोसायटी का घोटाला सामने आया तो सोसायटी में अवैध तरीके से फ्लैट बुक कराने वालों में उनका भी नाम था। वैसे देवयानी के बारे में यह जानना भी जरूरी है कि वह दलितों के लिए लैंगिक समानता के लिए काम करना चाहती है। बहुत संभव है कि विवादों के मौजूदा चक्रव्यूह से निकलने के बाद वह अपनी जिंदगी की इस चाह को पूरा करने के बारे में गंभीरता से विचार करे।

आप की सरकार को यहां से देखें


दिल्ली का राजनीतिक कुहासा छट गया है। अब आम आदमी पार्टी सरकार बनाने को राजी है। पर अब तक के घटनाक्रम में और कुछ हुआ हो या नहीं, पारंपरिक राजनीति के आगे एक वैकल्पिक लीक खींची जा सकती है, यह संभावना कहीं न सहीं संभव होती दिख रही है। दिल्ली विधानसभा के नतीजे जब आठ दिसंबर को आए तो उसके साथ यह धर्मसंकट भी आया कि यहां अगली सरकार कैसे बनेगी और कौन बनाएगा? त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति कोई देश में पहली बार नहीं बनी है। बल्कि सच तो यह है कि केंद्र में भी यह स्थिति एकाधिक बार रही है। पर सरकारें हर बार बनी हैं। कई बार आधे-अधूरे कार्यकाल के लिए तो कई बार पूरे कार्यकाल के लिए। पर दिल्ली में चुनकर आई त्रिशंकु विधानसभा से सरकार गठन की राह दुश्वार इसलिए हो गई क्योंकि एक साल पहले खड़ी हुई एक पार्टी ने 28 सीटें जीतकर एक बदली राजनीतिक स्थिति का संकेत सभी दलों को दे दिया।
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा 36 का है। कांग्रेस महज आठ सीटें जीतकर पहले ही सत्ता के रेस से बाहर हो गई। भाजपा के अगुवाई वाली राजग भी बहुमत के आंकड़े से चार सीट पीछे रही। रही आप तो उसे आठ सीटें मिलीं। भाजपा के लिए दिल्ली में बहुमत का आंकड़ा जुगाड़ना कोई बड़ी बात नहीं होती। हाल के वर्षों में भी वह कर्नाटक से लेकर झारखंड तक जोड़तोड़ का यह खेल खेल चुकी है। पर दिल्ली में यह मुमकिन इसलिए नहीं हो सकता था क्योंकि पिछले कम से कम तीन सालों में आम आदमी के भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक शुचिता की एक नई चुनौती खड़ी कर दी। देश में यह अपने तरह की संभवत: पहली सूरत थी जिसमें कोई भी दल सरकार बनाने के लिए आगे आने को तैयार नहीं दिखा। मीडिया ने इसे आम आदनी पार्टी द्बारा तय किए गए 'मॉरल इंडेक्स’ का नाम दिया। दिलचस्प है ऐसे दौर में जब किसी पॉलिटक डेवलेपमेंट के प्रभाव को सेंसेक्स के चढ़ने-उतरने से जोड़कर देखा जाना एक जरूरी दरकार बन गई हो, उस दौर में सेंसेक्स से बड़ी खबर और चर्चा उस मॉरल इंडेक्स की हो रही है, जो लोकतंत्र में जनता की एक दिन की मतदान की भागीदारी से आगे एक सतत प्रक्रिया को आजमाए जाने की वकालत कर रही है।
 पिछले 14 दिसंबर को दिल्ली के उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के उपराज्यपाल ने सरकार बनाने की संभावना पर विचार करने के लिए बुलाया था। आप की तरफ से यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि वह न तो किसी दल से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने इस बीच एक नया सियासी दांव खेला। केजरीवाल उपराज्यपाल से मिलने पहुंचते इससे पहले वहां कांग्रेस की यह चिट्ठी पहुंच चुकी थी कि वह आप को सरकार बनाने के लिए बाहर से बिना शर्त समर्थन देने को तैयार है। कांग्रेस के इस दांव से आप को अपने पुराने स्टैंड पर थोड़ा विचार करना पड़ा। क्योंकि इस दौरान ये बातें भी खूब हुईं कि आम आदमा पार्टी ने बिजली दर आधी करने और हर घर को 7०० लीटर पानी देने जैसे जो चुनावी वादे किए हैं, उससे वह पूरा नहीं कर सकती है। क्योंकि ऐसा करना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। लिहाजा उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह सरकार बनाने से बचे।
आप के नेताओं ने इस बदले राजनीतिक खेल को समझा।उसने तय किया कि वह इस पूरी स्थिति को एक बार फिर से जनता की अदालत में ले जाएगी और उससे ही पूछेगी कि क्या उसे सरकार बनानी चाहिए। जो खबरें हैं, उसमें आप ने दिल्ली में 25० से ज्यादा सभाएं की। जनता ने भारी बहुमत से आप को सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ने को कहा। अब आप इस पॉलिटकल स्टैंड के साथ सरकार बनाने जा रही है कि वह किसी दल के समर्थन या विरोध के आधार पर नहीं बल्कि जनता की राय पर सरकार बनाने जा रही है।
इस पूरे घटनाक्रम में पहली नजर में एक गैरजरूरी नाटकीयता आप के नेताओं की तरफ से नजर आती है। एक बार चुनाव संपन्न हो जाने के बाद फिर से जनता के पास जाने का क्या तुक है? ऐसी दरकार हमारी संवैधानिक व्यवस्था की भी देन नहीं है। फिर भी ऐसा किया गया। दरअसल, इसका जवाब वे मुद्दे हैं जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आप स्थानापन्नता की राजनीति की बजाय विकल्प की राजनीति को एक स्वरूप देने के मकसद से आगे बढ़ना चाहती है। देश में साढ़े छह दशक से भी लंबे दौर में जो सियासी व्यवस्था जड़ जमा चुकी है, उसे एक भिन्न समझ के साथ देखने-समझने की तैयारी और उस ओर अग्रसर होना कोई आसान काम नहीं है। पर आज बदलाव की जमीन पर शुरुआती तौर पर एक दल और उससे जुड़े लोग खड़े हैं तो यह जाहिर करता है कि इस विकल्प के प्रति जनता के मन में भी छटपटाहट कम नहीं है।
जनता के बीच जनता की राजनीति को तो शक्ल लेना ही चाहिए। यही तो जनतंत्र की बुनियादी दरकार है। पिछले कुछ दशकों में जनता के नाम पर भले खूब राजनीति हुई और उसे अस्मितावादी तर्किक निकष पर कसने की भी खूब कोशिश हुई पर जनतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रतिभागिता की चुनौती को स्वीकार करने से सब बचते रहे। आज अगर आप की दिल्ली की सरकार को इस प्रतिभागिता को सुनिश्चत करने की क्रांतिकारी पहल की बजाय अगर महज बिजली-पानी के भाव के मुद्दे पर केंद्रित करने की कोशिश हो रही है, तो इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की राजनीति करने वाले दूसरे किसी दल के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि वह जनता के नाम पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर अपनी राजनीति का गंतव्य तय करे। बहरहाल, आप की पहल एक नई राजनीति की शक्ल पूरी तरह ले पाएगी, इसमें संशय अब भी काफी है। पर इन संशयों के धुंध के बीच से ही कुछ सुनहरी किरणें अगर फूट रही हैं तो यह देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक शुभ संकेत है।
 

शनिवार, 21 दिसंबर 2013


अमेरिका 2०13 में दो हफ्ते से भी ज्यादा शटडाउन के खतरे में पड़ गया था। हालांकि यह संकट वहां डेमोक्रेट और रिपब्लिकन पार्टियों के बीच सियासी भिड़ंत के कारण आया था। पर यह सूरत एक बार फिर से इस तरफ इशारा कर गई कि दुनिया की तमाम बड़ी आर्थिक ताकतें कहीं न कहीं आज उस मुकाम पर पहुंच गई हैं, जिसमें उनका आर्थिक स्वाबलंबन कभी भी डगमगा सकता है। डॉलर से लेकर यूरो जोन तक की अर्थव्यवस्थाएं लगातार अपने को बचाने में लगी हैं। इस बात को समझना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि यही बीते कुछ सालों से देश-दुनिया के रिश्ते को तय करनेवाले नियामक मुद्दे रहे हैं।
दिलचस्प है कि यह एक ऐसे दौर की सचाई बनती जा रही है जिसे 'उदार’ होने का खिताब दिया गया है। अमेरिका इस खिताब को पूरी दुनिया में बांटने वाला अगुवा देश है पर जो सूरत अब वहां भी बराक ओबामा के पिछले और मौजूदा कार्यकाल में बनी है, उसमें आर्थिक सुरक्षा के लिए उसे दुनिया के तमाम देशों के साथ अपने आर्थिक सरोकार खासे 'अनुदार’ तौर पर तय करने पड़ रहे हैं। यह सूरत 2०14 में अचानक से बदल जाएगी, ऐसी कोई उम्मीद न के बराबर ही दिखती है। यह अलग बात है कि अमेरिका इस बदले हालात में भी सुपर पावर नंबर वन होने के अपने दावे को अलग-अलग तरीकों से मजबूत करता रहा है। इस मजबूती के लिए वह कभी ईरान और उत्तर कोरिया पर अपनी आंखें तरेरता है तो वहीं पाकिस्तान जैसे राष्ट्र को प्रत्यक्ष-परोक्ष समर्थन और मदद देकर एक पूरे क्षेत्र में अपनी भूमिका के रकबे को लगातर बढ़ाने की जुगत में रहता है। उसकी यह जुगत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अगले साल भी जारी ही रहेगी, ऐसा मानकर चलना चाहिए। वैसे संतोषप्रद यह जरूर है कि जिस तरह इस साल ईरान के मामले में उसकी हिमाकत एक सीमा से आगे नहीं बढ़ पाई, वैसी स्थिति नए वर्ष में भी अमेरिका के कई विस्तारवादी मंसूबों पर पानी फेर सकता है।
बात करें भारत की तो अगले साल यहां लोकसभा चुनाव होने जा रहे हैं। जो सूरत और संकेत हैं, उसमें केंद्र की अगली सरकार यूपीए की बनती नहीं दिख रही है। वैसे भाजपा की अगुवाई में अगर अगली सरकार एनडीए की भी बनती है तो देश की विदेश नीति में कोई बहुत बुनियादी फर्क आएगा, ऐसा लगता नहीं है। हां, पाकिस्तान को लेकर भावी केंद्र सरकार के रवैए में थोड़ी सख्ती जरूर देखने को मिल सकती है। अलबत्ता यह सख्ती भी युद्धक होने की इंतिहा तक शायद ही पहुंचेगी। आखिर भारत और पाकिस्तान दोनों ही एटमी देश हैं। वैसे एक शुभ संकेत जरूर है कि पाकिस्तान में 2०13 में नवाज शरीफ के नेतृत्व में नई सरकार बनी है। पिछले दिनों वहां के सेनाध्यक्ष भी बदल गए हैं। ऐसे में राजनयिक कुशलता का अगर परिचय दिया जाए तो दोनों देशों के रिश्ते में थोड़ी मिठास घुल सकती है।
इस साल भारत और चीन के बीच सीमा विवाद काफी उलझा रहा और इसमें हमारा देश कई बार बैकफुट पर भी दिखा। पर आखिरकार सरकार ने इस मामले को गंभीरता से लिया और सीमा पर अपनी सैन्य ताकत बढ़ाने का फैसला किया। यह सामरिक सुदृढ़ता भविष्य में चीन के खिलाफ भारत की स्थिति को रणनीतिक रूप से मजबूत करेगी।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

सिंदूरी साथ का रिकॉर्ड

मौजूदा दौर में देह और संदेह के साझे ने संबंधों के पारंपरिक बनावट को पूरी तरह बदल दिया है। रिश्ते बंधने से ज्यादा खुलने लगे हैं, दरकने लगे हैं। यह एक ऐसे समय का यथार्थ है जिसे नाम ही दिया गया है 'खुलेपन’ का। यह नामकरण हुआ तो था वैसे आर्थिक लिहाज से पर आर्थिक सरोकारों की खुली दरकारों ने देखते-देखते समाज, संबंध और संस्कृति की पारंपरिक दुनिया को पूरी तरह उलट-पुलट दिया। इसलिए अब संबंधों के धागे खुलने पर उतनी हैरत नहीं होती जितना उनके धैर्यपूणã निर्वाह के बारे में जानकर।
बात संबंधों की करें तो विवाह संस्था का ध्यान सबसे पहले आता है। अभी ब्रिटेन से चलकर एक खबर हिंदुस्तान में काफी पढ़ी-देखी और सराही गई कि वहां रहने वाले भारतीय मूल के दंपति करमचंद और करतारी रिकॉर्ड 86 साल से एक-दूसरे के साथ हैं। यह ब्रिटेन की संस्कृति के लिहाज से बड़ी बात है। इसलिए इस जोड़ी के साथ और इनसे जुड़ी तमाम तरह की जानकारियों को लोगों ने चाव से पढ़ा-जाना। खुद करमचंद और करतारी के लिए भी यह एक सुखद अनुभूति है कि जिस सिंदूरी साथ को उन्होंने अपने प्रेम और संस्कार के कारण अब तक बरकरार रखा है, वही अब उन्हें पूरी दुनिया में सम्मान दिला रहा है।
पंजाब के एक छोटे से गांव में 19०5 में जन्मे करमचंद की करतारी से 19०5 में शादी हुई थी। पासपोर्ट में दर्ज जानकारी के मुताबिक इस समय करमचंद की उम्र 1०6 साल और उनकी पत्नी करतारी की उम्र 99 साल है। परिवार के साथ 1965 से रह रहे करमचंद से जब पूछा गया कि रिकार्ड समय तक चले उनके दांपत्य संबंध का क्या राज है तो उन्होंने कहा कि शादीशुदा जिंदगी जीने का कोई राज नहीं होता है। हालांकि यह कहते हुए वह यह भी कहते हैं कि उन्होंने अपनी जिंदगी में भरपूर आनंद उठाया है। जो चाहा वो किया, जैसा चाहा वैसा खाया-पिया, पर सब कुछ एक संयम के साथ। आज अगर उनके बारे में और उनके पारिवारिक जीवन के बारे में पूरी दुनिया में बात हो रही है तो इसलिए क्योंकि उन्होंने जीवन और मर्यादा के बीच कोई सख्त रेखा खींचने की बजाय एक समन्वयी लोच बनाए रखा, अपनी सोच में भी और अपने आचरण में भी।
जानकर लोगों को हैरत होगी कि जिंदगी को जिंदादिली से जीने वाले करमचंद रोज शाम खाने से पहले एक सिगरेेट पीते हैं। यही नहीं हफ्ते में तीन-चार बार व्हिसकी या ब्रांडी भी पीते हैं। उनकी जिंदगी की ये आदतें मर्यादा या संयम से भटकाव नहीं बल्कि जिंदगी को साकारात्मकता के साथ जीने की ललक की तरफ इशारा है।
करमचंद और करतारी के सिंदूरी साथ को सिर्फ वे दोनों ही नहीं पूरा करते हैं बल्कि इसके साथ उनके बच्चे और उनका परिवार भी है। वे दोनों अपने छोटे बेटे सतपाल और उसकी पत्नी रानी और दो पोते-पोतियों के साथ रहते हैं। बहू कहती है कि उनके लिए सास-ससुर उस छाया की तरह है, जहां बहुत सारी शांति और खूब सारा प्यार और आशीर्वाद है। बेटा सतपाल भी खुश है कि उनके मां-पिता न सिर्फ जीवित हैं बल्कि उनके साथ स्वस्थ और प्रसन्न हैं। बेटे को खुशी इस बात की भी है कि उन्हें इतने लंबे समय तक मां-पिता की सेवा करने का अवसर ईश्वर ने दिया है।
फिल्मकार सूरज बड़जात्या और करण जौहर बार-बार फिल्मी पर्दे पर भारतीय परिवारों की संयुक्त परंपरा को उत्सवी रूप में दिखाते हैं और बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे गाड़ते हैं। पर जीवन की सिनेमाई समझ रखने वाले उन जैसे तमाम दूसरे लोगों को भी यह बात समझनी चाहिए कि महत्वपूर्ण परिवार को साथ देखना-दिखाना नहीं बल्कि उन सरोकारों को समझना है, जिससे यह साथ अटूट बनता है और सालोंसाल निभता-टिकता है। टेकचंद और करतारी के जीवन में झांकना इन सरोकारों से परिचित होना है।
 

विसर्जन स्थापना की जरूरी शर्त नहीं


अस्मिता की राजनीति के दौर में भावनाओं के ज्वार खूब फूट रहे हैं। हर तरफ इस तरह के स्वर उठ रहे हैं कि फलां समुदाय के नेता के साथ तारीखी तौर पर अन्याय हुआ और अब उनके सही मूल्यांकन का समय आ गया है। किसी को स्थापित करने के लिए किसी को भंजित करना भी जरूरी होता है। सो हो यह रहा कि कई ऐतिहासिक नायकों के चेहरों पर कालिख पोती जा रही है। अस्मितावादी विमर्श में पिछले दो दशकों में ऐसी तमाम कोशिशों को एक बड़े अन्याय के खिलाफ खड़े होने का आधार माना जा रहा है। यह आधार अभिजात्यवादी या सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ सोशल चेंज -अब तो इसे सोशल इंजीनियरिंग तक कहा जा रहा है- का जरूरी औजार के तौर पर काम कर रहा है, ऐसा मानने वाले प्रगतिशील भी कम नहीं हैं। पर इस सोच का इस सवाल के बाद क्या मतलब रह जाता है कि बड़ी लकीर से आगे उससे बड़ी लकीर खिंचने की बजाय पहली खिंची लकीर के साथ ही काट-पीट क्यों?
कुछ विसर्जित होगा, भंजित होगा तभी नया कुछ स्थापित होगा, ऐसी सोच तो हिंसक ही मानी जाएगी। अंबेडकर के नाम पर सामाजिक न्याय की गोलबंदी ने समाज के जातीय तानेबाने को कैसे देखते-देखते वैमनस्य का नागफनी मैदान बना दिया, यह अनुभव हमारे सामने है। इसमें साफ होने की बात यह है कि जातीय विभेद अच्छी बात है, यह कोई नहीं कह रहा पर इसे मिटाने के नाम पर अगर सामाजिक समरसता का पारंपरिक आधार भी अगर दबता-मिटता चला जाए तो इस प्रतिवादी संतोष का हासिल क्या एक हिंसक नियति से ज्यादा रह जाता है।
अभी गुजरात के मुख्यमंत्री देश भर में घूम-घूमकर सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करने के लिए देशभर के किसानों से लोहा दान देने की बात कह रहे हैं। पहली नजर में यह एक आदर्श राष्ट्रवादी सोच दिखती है। ऐसा अगर इस अभियान को लेकर अगर कोई सोचता है, तो वह गलत भी नहीं है। सरदार का भारत के एकीकरण और राष्ट्र के रूप में उसके निर्माण में एक बड़ा योगदान है। इस योगदान का स्मरण हमें अपने राष्ट्र के प्रति गर्वित करता है। पर बात यहीं खत्म होती तो गनीमत थी। हम अपने बाकी के राष्ट्र नायकों का स्मरण कैसे करते हैं और उनके शील और विचार हम पर कितना कारगर असर अब तक छोड़ते रहे हैं, यह सचाई भी हमारे सामने है। दिनकर ने इन्हीं स्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत पहले लिखा- 'तुमने दिया देश को देश तुम्हें क्या देगा, अपनी ज्वाला तेज करने को नाम तुम्हारा लेगा।’
सरदार की विशालकाय प्रतिमा के स्थापना पर महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने पहले तो हर्ष जताया। कहा कि सरदार साहब का व्यक्तित्व ऐसा रहा, जिसके कारण पूरे देश का उनके प्रति स्नेह रहा। यह स्नेह अब और प्रगाढ़ हो रहा है, तो यह प्रसन्नता की बात है। पर जिस रूप में यह सब किया जा रहा है, वह सही नहीं है। इससे एक तो यह पूरा मिशन ही अपने रास्ते से भटकेगा, दूसरा इसकी देखादेखी एक होड़ पैदा लेगी बाकी नेताओं और प्रतीक पुरुषों की बड़ी से बड़ी प्रतिमा स्थापित करने की। इससे देश और समाज का कोई भला तो क्या होगा नुकसान भले बहुत ज्यादा हो जाएगा।
राजमोहन गांधी ने ये बातें किसी पक्षकार के नाते नहीं कही। बल्कि उन्होंने ये बातें किसी नाते कही तो वे सरदार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मुरीद होने के नाते। वे उन दलीलों में भी नहीं उलझे कि अब क्यों अचानक उनके नाम पर राजनीति हो रही है। अगर सरदार 'भारत रत्न’ हैं तो उन्हें इस या उस दल का नेता बताने का क्या औचित्य है? फिर यह भी कहने का क्या मतलब कि अगर सरदार पटेल तब देश के प्रधानमंत्री बने होते तो देश की आज तस्वीर ही कुछ दूसरी होती। यह भी कि तब न पाकिस्तान हमारे लिए सिरदर्द बनता और न ही आतंकवाद हमारे लिए एक नासूरी समस्या बनता।
कुछ अर्से पहले जब कश्मीर वार्ताकारों की टीम ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी तो यह बहस छिड़ी कि क्या ऐतिहासिक घटनाक्रमों को बदला जा सकता है। इस बहस को आगे बढ़ाने की पैरोकारी करने वाले ही आज यह दलील दे रहे हैं कि सरदार को उनके दल ने पर्याप्त सम्मान और अवसर नहीं दिए। अलबत्ता यहां यह बात जरूर साफ होने की नहीं कि इतिहास कोई बंद किताब भी नहीं जो बस हमारी स्मृतियों के ताखे पर रखी रहे। इतिहास भविष्य के लिए हमारी आंखें हैं। हमारे संचित अनुभव हैं, जिससे भविष्य के मुहाने खोलने में हमें मदद मिल सकती है। इतिहास से मुठभेड़ भी होनी चाहिए क्योंकि यह एक गलत लीक को दुरुस्त करने की सबसे जरूरी दरकार है। पर इतिहास के प्रति कुढ़न और दुराग्रह का औचित्य कतई स्वस्थ नहीं हो सकता।
राजमोहन गांधी एक और खतरे की तरफ इशारा करते हैं। यह इशारा महिमा मंडन की राजनीति की तरफ है। ऐसी राजनीति शुरू तो होती है देश और समाज की नजर में किसी की शिनाख्त को और ज्यादा मुकम्मल करने, उसे और ऊपर उठाने के लिए। पर आगे चलकर यह कोशिश दूसरी तमाम शिनाख्तों को तहस-नहस करने की हिंसक सनक में बदल जाती है। सरदार का नाम ऐसे किसी सनक का हिस्सा बने, यह कौन चाहेगा। पर अगर ऐसा किसी पहल से हो जाने का खतरा है तो इसके बारे में सावधान तो रहना ही चाहिए।
एक बात और यह कि भारत की जिस सामासिक संस्कृति और परंपरा की बात की जाती है, वह सिर्फ जीवन, समाज या रहन-सहन से ही नहीं जुड़ा है। यह उस सोच को भी दर्शाता है जिसमें तमाम तरह के विचार और अनुशीलन एक साथ हमारे बीच अपना लोकतांत्रिक आधार विकसित करते हैं। समय के साथ इनमें से कई आधार दरकते चले जाते हैं तो कुछ और विस्तृत, और पुष्ट। अद्बैत से लेकर द्बैत तक की हमारी दार्शनिक समझ भी यही जाहिर करती है कि हम एक गंत्वय की तरफ शुरू से कई रास्तों से बढ़ते रहे हैं। विचार और आचरण के बीच विकल्प और स्वतंत्रता का खुलापन यह दिखाता है कि चयन और निर्णय करने की हमारी पूरी प्रक्रिया शुरू से खासी खुली और लोकतांत्रिक रही है। भारतीय सांस्कृतिक विमर्श में यह बहस खूब चली है कि एक ऐसी जागरूक चेतना और लोकतांत्रिक मानस से लैश देश-समाज को दशकों लंबी दासता का दंश आखिर क्यों झेलना पड़ा? इस सवाल को कुछ लोग इसका जवाब भी मानते हैं कि यह हमारी प्रखर चेतना की समन्वयी ताकत के ही बूते का था कि हम दासता की इतनी लंबी यातना के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़े हो सके।
वैसे सरदार की प्रतिमा के बहाने अगर राष्ट्र निर्माण से जुड़ी तमाम तरह की चिंताओं-आशंकाओं का जाहिर होना एक तरह से शुभ लक्षण भी है। यह दिखलाता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को लेकर हमारी चेतना कितनी गहरी, कितनी उर्वर और कितनी जिम्मेदार है। एक देश का इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि उसका भाल हमेशा तिलकित रहे और हमेशा चमकता रहा, इसके लिए उसकी संतानें इतनी विपुल आस्था के साथ विचार मंथन करती हैं।
 

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

सलाम मदीबा

नेल्सन मंडेला के बारे में जिक्र करते हुए महात्मा गांधी का नाम स्वाभाविक तौर पर आता है। पर बीसवीं सदी के इन दोनों महानायकों को सीधे तौर पर एक-दूसरे की छाया बता देना एक असावधान कृत्य होगा। फिर दो बड़ी शख्सियतों का ऐसे भी आमने-सामने रखकर मूल्यांकन करना उनके साथ ज्यादती है। मंडेला निश्चत तौर पर गांधीवादी परंपरा के बड़े नायक थे। उनके संघर्ष ने साम्राज्यवाद और नस्लभेद की चूलें हिला दीं। दक्षिण अफ्रीका आज अगर विश्व के बाकी देशों के साथ बैठकर विकास और समृद्धि की बात कर रहा है तो इसके पीछे मंडेला का तीन दशक से भी लंबा संघर्ष है।
नस्लवाद साम्राज्यवाद का ऐतिहासिक तौर पर सबसे कारगर औजार रहा है। जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे तो रंगभेदी घृणा के वे खुद शिकार हुए थे। दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए इस घृणा और हिंसा के खिलाफ लोगों को जागरूरक करने और संगठित संघर्ष शुरू करने का पहला श्रेय गांधी को ही है। बाद में संघर्ष की इस विरासत ने वहां एक राष्ट्रीय आंदोलन का रूप लिया।
मंडेला को इस बात का श्रेय जाता है कि दबे-सताए लोगों को संघर्ष की राह पर आगे बढ़ाने और फिर निर्णायक सफलता हासिल करने तक धैर्य और संयम बनाए रखना कितना जरूरी है, यह सीख उन्होंने अपने आचरण से दी। इस तरह का सकर्मक नायकत्व हासिल करना बड़ी उपलब्धि है। मंडेला आज अगर पूरी दुनिया में अन्याय और मानवीय दुराव के खिलाफ संघर्ष करने वालों के हीरो हैं तो अपनी इसी धैर्यपूणã शपथ के कारण।
27 साल का जीवन जेल की सलाखों के पीछे बीताने के बावजूद अपने संघर्ष की अलख को जलाए रखना कोई मामूली बात नहीं है। 199० में जब वे जेल से रिहा हुए तो देखते-देखते दुनिया के हर हिस्से में अन्याय के खिलाफ संघर्ष और क्रांतिकारी-वैचारिक गोलबंदी के जीवित प्रतीक बन गए। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भले कहने को एक छतरी में खड़ी हो पर लैंगिक और नस्ली विभेद से लेकर मानवाधिकार हनन तक के मामले हमारी तमाम तरक्की और उपलब्धि को सामने से आंखें दिखा रहे हैं, संघर्ष के प्रतीक और नायक का बने और टिके रहना बहुत जरूरी है। आज अगर मंडेला हमारे बीच नहीं हैं तो सबसे बड़ा संकट यही है कि संघर्ष और व्यक्तित्व के करिश्माई मेल को देखने के लिए अब हमारी आंखें कहां टिकेंगी। संकट की इस घड़ी में आन सान स ूकी की तरफ बरबस ध्यान जाता है। हमारे लिए यह संतोष की बात है कि सू की हमारे बीच अभी हैं।
बहरहाल, एक बार फिर से जिक्र गांधी और मंडेला की। गांधी और मंडेला के बीच तमाम साम्य के बीच कुछ मौलिक भेद भी हैं। गांधी जिस तरह के'सत्यान्वेषी’ रहे उसमें सत्य-प्रेम और करुणा का साझा पहली शर्त है। इसकी अवहेलना करके गांधीवादी मूल्यों की बात नहीं की जा सकती। अलबत्ता, गांधी के कई अध्येताओं ने भी जरूर यह कबूला है कि यह एक ऐसा आदर्शवाद है, जिसे मानवीय दुर्बलताओं के बीच एक प्रवृत्ति की शक्ल देना कोई साधारण बात नहीं।
मंडेला के यहां गांधी का धैर्य और अटूट संघर्ष तो है पर वे साधन और साध्य की शुचिता के मामले में गांधी से थोड़े अलग खड़े दिखाई पड़ते हैं। इस अंतर को जैसे ही हम रेखांकित करते हैं तो हमारी समझ में यह बात आती है कि गांधी जिस रास्ते पर चले उस पर चलने वाले वे संभवत: अकेले पथिक थे। आइंस्टीन के शब्द भी हैं कि आने वाली नस्लों को तो यह भरोसा भी न हो कि हाड़-मांस के देह में गांधी जैसा व्यक्तित्व कभी जन्मा भी होगा।
मंडेला ने अपने जीवन में गांधी का स्मरण कई मौकों पर किया। वे महात्मा को एक शक्ति देने वाले प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में देखते थे। पर खुद मंडेला ने भी अपने को 'दूसरा गांधी’ कहे या माने जाने के नजरिए को एक भावुक सोच भर माना। उनके कई संस्मरणों में ऐसा जिक्र आता भी है। मंडेला के आगे एक ही मकसद था उस धरती को नस्लवादी जड़ता से मुक्त कराना, जो उनकी मातृभूमि है। आज अगर 'मदीबा’ दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपिता हैं, तो इसलिए क्योंकि आधुनिक विश्व के नक्शे पर इस देश को उन्होंने वह स्थान दिलाया, जिससे वह लंबे समय तक वंचित रहा था। दक्षिण अफ्रीका के इस महान सपूत ने तारीख के उन हर्फों को लिखा है, जिसने मनुष्य और मनुष्य के बीच खिंची हर लकीर को पूरी तरह अमान्य ठहरा दिया है।
 

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

एक बर्बर कृत्य


तेजाबी हमले के रूप में जिस तरह की घटना पर चर्चा और विमर्श की दरकार की बात आज हर तरफ हो रही है, वह एक बर्बर कृत्य के रूप में हमारे समय और समाज का तेजी से हिस्सा बनता जा रहा है। लड़कियों के चेहरे और शरीर पर तेजाब फेंककर उसकी पूरी जिंदगी तबाह करने की घटनाएं निश्चित तौर पर आपवादिक नहीं कही जा सकती हैं। पर इसके खिलाफ पहल करने के लिए न तो सरकार कभी सामने आई और न ही समाज ने अपनी तरफ से कुछ किया।
अगर किसी ने पहल की तो उस लड़की लक्ष्मी ने जो खुद ऐसी ही एक घटना की शिकार हुई थी। लक्ष्मी की 2००6 में दायर जनहित याचिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट का इसी साल 18 जुलाई को एक महत्वपूर्ण फैसला आया था। सर्वोच्च अदालत ने अपने अंतरिम आदेश में तेजाब खरीदने और बेचने को लेकर सख्त नियम-कायदों का प्रावधान किया था। सुप्रीम कोर्ट ने बिना पहचान पत्र देखे तेजाब बेचने को गैरकानूनी बताया था। साथ ही केंद्र और राज्य की सरकारों से यह भी सुनिश्चित करने को कहा था कि कोई नाबालिग इसे किसी भी सूरत में नहीं खरीद सके। इसका मतलब यह कतई नहीं था कि बाजार में तेजाब बिकेगा ही नहीं, बल्कि जो तेजाब बाजार में खुले तौर पर बिकेगा वह त्वचा पर बेअसर होगा।
इस मामले में जस्टिस आरएम लोढ़ा और जस्टिस फकीर मोहम्मद की बेंच ने राज्य सरकारों से दो टूक लहजे में कहा था कि वे तेजाबी हमलों को लेकर गंभीरता दिखाएं और इसे गैरजमानती अपराध घोषित करें। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बाबत राज्य सरकारों को तीन महीने के भीतर नीतिगत स्पष्टता लाने और सारी प्रक्रियाएं तय करने को कहा था। सरकारों को ऐसे अपराध के मामले में पुनर्वास को लेकर भी नीति बनाने को कहा गया था।
इस पूरी सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने तेजाबी हमले की शिकार महिलाओं की जिंदगी को लेकर जहां एक गंभीर और संवेदनशील नजरिया बनाए रखा, वहीं सरकारों को इस मामले से कड़ाई से निपटने के लिए कहा। न्यायालय ने यही दरकार सरकारों के आगे भी रखी थी। यही कारण है कि अब जो सूरत बन रही है उसमें यह मुमकिन होता दिख रहा है कि केंद्र सरकार तेजाब को लेकर एक सख्त कानून का ड्राफ्ट देश के सामने लेकर आए। इस बारे में केंद्र सरकार अटार्नी जनरल से राय पहले ही मांग चुकी है। वैसे इस मामले में एक पेंच भी है। तेजाब की खरीद-बिक्री के आधार और तरीके तय करने का मामला राज्य सरकारों के अधीन है। इसलिए दो ही स्थितियां केंद्र सरकार के सामने है कि वह इस मामले में एक मॉडल कानून देश के सामने रखे और दूसरा यह कि वह राज्य सरकारों को ऐसी कानूनी पहल के लिए सख्त दिशानिर्देश दे।
सुप्रीम कोर्ट में इस बारे में अगली सुनवाई चार महीने बाद होनी थी। सर्वोच्च न्यायालय को उम्मीद थी कि इस दौरान सरकारों की तरफ से इस गंभीर मामले में उसके दिशानिर्देश के मुताबिक तेजी से कदम उठाए जाएंगे। पर ऐसा हुआ नहीं। अब सुप्रीम कोर्ट ने 31 मार्च 2०14 तक की नई समयावधि इस काम के लिए तय की है। पर इस लापरवाही का क्या जो इतने संवेदनशील मामले में अब तक केंद्र और राज्य की सरकारों की तरफ से दिखाई गई है। नई मिली मोहलत में ये लापरवाही दूर हो जाएगी, ऐसी उम्मीद भले कर ली जाए पर इस पर यकीन तो कतई नहीं होता।
इसी साल संसद में यौन उत्पीड़न के खिलाफ कानून बनाते समय भी सरकार ने तेजाबी हमलों को एक गंभीर अपराध मानते हुए इस अपराध में कसूरवारों के खिलाफ सख्त सजा की बात कही थी। पर अब यह पूरा संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के नए दिशानिर्देश आ जाने के बाद बदल गया है। केंद्र सरकार को पूरी स्थिति पर अब नए सिरे से गौर करना होगा।
वैसे यह पूरा मामला सिर्फ कानून से जुड़ा नहीं है। अगर इस तरह के कृत्य एक तेजी से बढ़ रही कुप्रवृत्ति की शक्ल अख्तियार कर रहे हैं तो इसके बारे में समाज को भी एक जागरूक पहल करनी होगी। सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के दौर में यह समझना मुश्किल नहीं है कि तेजाबी हमले की शिकार अगर लड़कियों को बनाया जा रहा है तो इसके पीछे वजहें क्या हैं। बहुत गंभीर विमर्श की तरफ न भी जाएं तो इतनी बात तो जरूर हम समझ सकते हैं कि संबंध जब दैहिकता की शर्तों पर ही तय होंगे तो प्रेम संवेदनाओं के लिए स्पेस कहां रह जाएगा। टीवी-सिनेमा, विज्ञापन और लोकप्रियता के दायरे में आना वाला हर कंटेंट अगर हमें बस यही समझाए-बताए कि प्यार हासिल करके भोगने की चीज है और प्रेम वस्तुत: कलात्मक अभिव्यक्ति है तो फिर हसरत अगर हासिल होने से रह जाए तो कार्रवाई तो हिंसक और बर्बर ही होगी। हमारे समय का यह सच वाकई भयावह है और इस भयावहता को लंबे समय तक मानवता शायद ही सहन कर सके। लक्ष्मी ने तेेजाबी हमलों के खिलाफ जो संघर्ष छेड़ा है, उसका निर्णायक मुकाम तक पहुंचना मौजूदा समय की मांग है।

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

गांधीवादी दौर की वापसी का खंडित मिथक


समय को जीने से पहले ही हम उसके नाम का फैसला कर लेते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बच्चे के जन्म के साथ उसका नामकरण संस्कार पूरा कर लिया जाता है। यह परंपरा हमारी स्वाभाविक वृत्तियों से मेल खाता है। समय की बात शुरू में इसलिए क्योंकि जिस 21वीं सदी में हम जी रहे हैं, उसका आगमन बाद में हुआ नामकरण पहले कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसे कंप्यूटर और सूचना क्रांति की सदी बताते थे। उनकी पार्टी आज भी इस बात को भूलती नहीं और देश को जब-तब इस बात की याद दिलाते रहते हैं।
बहरहाल, बात इससे आगे की। 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिंसक प्रयोगों को आजमाया गया तो फिर से एक बार समय के नामकरण की जल्दबाजी देखी गई। भारतीय मीडिया की तो छोड़ें अमेरिका और इंग्लैंड से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिंग लगी कि भारत में एक बार फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं। सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के साथ इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
इस सिलसिले में एक उल्लेख और। भाजपा के थिंक टैंक में शामिल सुधींद्र कुलकर्णी ने अपनी किताब 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिंग व्हील’ में तो इंटरनेट को गांधी का आधुनिक चरखा तक बता दिया। कुलकर्णी ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क दिए और यहां तक कि खुद गांधी के कई उद्धरणों का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी के इरादे पर बगैर संशय किए यह बहस तो छेड़ी ही जा सकती है कि जिस गांधी ने अपने 'हिंद स्वराज’ में मशीनों को शैतानी ताकत तक कहा और इसे मानवीय श्रम और पुरुषार्थ का अपमान बताया, उसकी सैद्धांतिक टेक कोकंप्यूटर और इंटरनेट जैसी परावलंबी तकनीक और भोगवादी औजार के साथ कैसे मेल खिलाया जा सकता है।
संयोग से गांधी के 'हिंद स्वराज’ के भी चार साल पहले सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर गांधीवादी विचार के तमाम अध्येताओं ने एक सुर में यही बात कही कि इस पुस्तक में दर्ज विचार को गांधी न तब बदलने को तैयार थे और न आज समय और समाज की जो नियति सामने है, उसमें कोई इसमें फेरबदल की गंुजाइश देखी जा सकती है। अब ऐसे में कोई यह बताया कि साधन और साध्य की शुचिता का सवाल आजीवन उठाने वाले गांधी की प्रासंगिकता और उनके मूल्यों की 'रिडिस्कवरी’ की घोषणा ऐसे ही तपाक से कैसे की जा सकती है। तो क्या गांधी के मूल्य, उनके अहिंसक संघर्ष के तरीकों की वापसी की घोषणा में जल्दबाजी की गई। और अगर ऐसा हुआ तो इस जल्दबाजी के कसूरवार तो मीडिया से लेकर राजनीतिक दल तक सभी हैं।
इस जल्दबाजी के नुकसान पर आगे चर्चा से पहले कुछ बातें उस चेहरे को लेकर जिसे समय के परिवर्तन का चेहरा बताया गया था, बनाया गया था। आज अण्णा हजारे क्या हैं और क्या कर रहे हैं इस पर जरूर अलग-अलग तरीके से टिप्पणियां की जा सकती हैं। उनके कई शुभचिंतकों और मुरीदों को भी इस बात का अफसोस है कि बदलाव की एक बड़ी लोक अंगराई के वे अगुवा होने के बावजूद वे आज देखते-देखते नेपथ्य में चले गए। पर बड़ा सवाल यह है कि क्या उनके द्बारा या उनके आंदोलन के जरिए उठाए गए मुद्दे भी नेपथ्य में चले गए हैं या बस कुछ महीने बीतते-बीतते पिट गए। वैसे खुद अण्णा अफने को चुका हुआ नहीं मानते हैं। आगामी 1० दिसंबर से वे फिर से अनशन पर बैठने वाले हैं सरकार पर शीतकालीन सत्र में जनलोकपाल बिल पास कराने का दबाव बनाने के लिए। कहना मुश्किल है कि इस बार उनके अनशन का असर क्या होगा, क्योंकि इस संघर्ष के उनके पुराने साथी आज उनके साथ नहीं हैं।
बहरहाल बात उन कुछ सवालों और मुद्दों की जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ये तमाम वे मुद्दे और सवाल हैं, जो बीते कुछ सालों में जनता के बीच उभरे, खुली बहस का हिस्सा बने। जनता के मूड को देखते हुए या तो ज्यादातर राजनीतिक दलों और उनके नेताओं ने इनका समर्थन किया या फिर विरोध की जगह एक चालाक चुप्पी साध ली। पारदर्शी सरकारी कामकाज और उस पर निगरानी के लिए अधिकार संपन्न लोकपाल की नियुक्ति जैसे सवालों पर तो संसद तक ने अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी। चुनाव सुधार के मुद्दे पर भी तकरीबन एक सहमति हर तरफ दिखी। पर अब जब चुनाव हो रहे हैं। पहले पांच राज्यों के विधानसभाओं के और फिर अगले साल लोकसभा के चुनाव होने हैं, तो इनमें से शायद ही कोई मुद्दा हो जो किसी राजनीतिक दल के चुनावी एजेंडे में शुमार हो। चुनावी वादे के नाम पर कच्ची-पक्की सड़कों के या तो किलोमीटर गिनाए जा रहे हैं या फिर मुफ्त अनाज या लैपटॉप बांटने के लालची वादे। अण्णा आंदोलन से छिटकर कर बनी आम आदमी पार्टी जरूर इनमें से कुछ मुद्दों को लेकर दिल्ली विधानसभा चुनाव में उतरी है, पर उनकी महत्वाकांक्षा और जल्दबाजी से उनके आदर्शवादी कदमों की व्यावहारिकता पर सवाल उठते हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि अपने दौर को पहचानने और उसे नाम देने में हम एक बार फिर से धोखा खा गए? क्या हमारा समय अभी किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था परविर्तन के लिए तैयार नहीं है। क्या देश की जनता की लोकतांत्रिक जागरुकता एक भावावेश भर है, जो देखते-देखते बीत जाता है।
दरअसल, ये सवाल चाहे जैसे भी पूछे जाएं उसका केंद्रीय उत्तर एक ही है। वह उत्तर यह है कि परिवर्तन कोई फैशनेबल चीज नहीं, जिसे जब चाहे प्रचलन में ला दिया और जब चाहे प्रयोग से बाहर कर दिया। फिर यह टू मिनट नूडल्स भी नहीं कि बस कुछ ही समय में बस जो चाहा हासिल कर लिया। यही नियति हाल में बनी परिवर्तनकारी स्थितियों की भी हुई। इसके नाम और परिणाम तय करने की भावुक स्वाभाविकता में हम भूल गए कि समय के तारीख के हर्फ ऐसे नहीं बदलते। फिर जिस राजनीतिक व्यवस्था ने पिछले छह दशकों से ज्यादा के समय में अपनी पकड़ का रकबा हमारे मानस तक फैला रखा है, उसकी बाहें मरोड़ना कोई आसान बात नहीं। निचोड़ यह कि संभावना तभी यकीनी है जब उसके संभव होने के आसार हों और नाम से नहीं बलिक कोई चीज अपने अंजाम से जानी-मानी जाती है।