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रविवार, 25 मार्च 2012

सौ साल का बिहार

बिहार अपनी राज्य स्थापना के सौ साल जिस सरकारी-असरकारी तौर पर मना रहा है, उसमें सिर्फ हर्ष या गौरवबोध शामिल नहीं है। दरअसल, यह एक ऐसा मौका है, जब यह प्रदेश अपनी शिनाख्त को नए सिरे से गढ़ना चाहता है। पिछले दो-तीन दशकों में बिहारी होना जिस तरह गरीब, अशिक्षित, असभ्य और पिछड़े होने की लांछना में तब्दील हुआ है, उसने इस प्रदेश को लेकर नए सांस्कृतिक विमर्श की दराकर पैदा की है। यह विमर्श अब बौद्धिक के साथ राजनीतिक चेतना की भी शक्ल ले रहा है। आलम यह है कि अब बिहार में हर स्तर पर विकास और समृद्धि का अपवाद होने के बजाय इसका उदाहरण बनने की भूख है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने देश की राजधानी में जब राज्य स्थापना के शताब्दी समारोह के शुभारंभ के मौके पर यह कहा कि अगर बिहारी दिल्ली में एक दिन काम बंद कर दें तो यह महानगर ठहर जाएगा, कहीं न कहीं उस लांछना का ही राजनीतिक शैली में दिया गया जवाब था, जो पिछले वर्षों में दिल्ली और मुंबई में बिहारी अस्मिता को चोटिल करने के लिए लगाए गए थे। इस तरह की राजनीतिक प्रतिक्रिया को एक स्वस्थ परंपरा भले न ठहराया जाए पर इसके पीछे की वजहों को खारिज तो नहीं ही किया जा सकता है। आज जबकि भारतीय संघ में शामिल एक महत्वपूर्ण प्रदेश अपनी अस्मिता पर रोशनाई को रौशन पहलू में बदलने को ललक रहा है तो कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
सबसे पहली बात तो यह कि बिहार में राजनीति से लेकर शिक्षा और कारोबार के क्षेत्र में एक बेहतर शुरुआत की अभी भूमिका भर तैयार हुई है। यह भूमिका भी जरूरी है इसलिए पिछले पांच-सात साल अगर इसमें लगे हैं तो वे फिजूल नहीं गए हैं। पर अब यहां से इस प्रदेश को आगे के लिए कदम बढ़ाने शुरू करने होंगे, साथ ही इस यात्रा में एक सातत्य भी जरूरी है। कई बार इतिहास और परंपरा का मोह मौजूदा चुनौतियों से मुंह ढांपने का बहाना भी बनता है। यह खतरा नया बिहार का सपना आंज रही सरकार के साथ उन तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक समूहों के आगे भी है, जिनमें आज गजब का उत्साह देखने को मिल रहा है।
दूसरी बात यह कि बिहार में पिछले दो विधानसभा चुनावों के नतीजे ने जो नया और आशावादी सत्ता समीकरण पैदा किया है, वह आगे भी सशक्त और कारगर रहे इसके लिए जरूरी है कि इसके नतीजे प्रदेश की जनता को देखने को मिलें। अभी गरीबी को लेकर एक आंकड़ा योजना आयोग ने पेश किया है, इसमें बिहार सबसे नीचले पायदान पर है। विकास दर के आंकड़े और सत्ता के वर्ष गिनाने से बिहार के हिस्से आई परेशानी दूर नहीं हो सकती। उम्मीद करनी चाहिए कि बिहार को अपने शताब्दी वर्ष में जितना इतिहास से सीखने का मौका मिलेगा, उतना ही भविष्य को भी सुंदर और सुफल बनाने का भी।      

रविवार, 11 मार्च 2012

लोकतंत्र का पंचनामा


अपने यहां आलोचना की नामवरी परंपरा में भी एक बात अकसर दुहराई जाती है कि क्या दिखता है से ज्यादा जरूरी है कि हम देखते क्या हैं। छह दशक के गणतंत्रीय अनुभव में ऐसे कई मौके आए जब हमने कुछ बहुत जरूरी बहसों और सरोकारों को महज इसलिए नजरअंदाज कर दिया क्योंकि हमारी समझदारी के आग्रह कहीं और से बन-बिगड़ रहे थे। रचना और विकास के केंद्रित ढांचे को विकेंद्रित विकल्प पर तरजीह देने का फैसला ऐसा ही एक उदाहरण है।
केंद्रित सत्ता के आग्रह में योजना और विकास को कुछ हाथों से बहुत हाथों में कभी बंटने ही नहीं दिया। बाद में जब लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण का दबाव बढ़ा भी तो पंचायतीराज के रूप में एक आधे-अधूरे और अधिकारविहीन ढांचे को निचले स्तर पर तैयार कर लिया गया। दिलचस्प है कि भारत का लोकतंत्र पूरी दुनिया में इस मामले में सबसे भिन्न और आगे है कि हमारे यहां प्रातिनिधिक के साथ प्रतिभागिता का तंत्र है, जो जनता का और जनता के लिए तो है पर जनता द्वारा नहीं है।
चूंकि लोकतंत्र एक जीवंत और लगातार अपने अनुभवों से समृद्ध होने वाली व्यवस्था है, लिहाजा एकबारगी फिर यह बहस सतह पर आ गई है कि हम लोकतांत्रिक प्रतिनिधत्व को महत्व दें कि लोक सहभाग को। जाहिर है लोक सहभाग के अभाव में ही लोक प्रतिनिधित्व का महत्व है। ऐसे में लोकसभा-राज्यसभा और विधानसभा के मुकाबले ग्रामसभा की सर्वोपरिता पर सवाल उठाने का कम से कम कोई सैद्धांतिक कारण तो नहीं ही है।
प्रतिनिधित्व को समग्र लोक भागीदारी में बदलने के इसी आग्रह को एक बार फिर से स्वर दिया है समाजसेवी अन्ना हजारे ने। पिछले एक साल में जबसे उनके कार्य और विचार पर लोगों का ध्यान ज्यादा गया है, वे ग्रामसभा के बहाने पंचायतराज और ग्राम स्वराज की बात बार-बार करते रहे हैं। पर भ्रष्टाचार और जनलोकपाल जैसे ज्यादा दिलचस्पी के मुद्दों और फिर उन पर पक्ष-विरोध की बयानबाजी में यह जरूरी मुद्दा कहीं पीछे छूटता रहा है। देश के 63वें गणतंत्र दिवस के मौके पर हजारे ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपने संघर्ष के अनुभव से कहा कि चुनाव के बाद चुने गए प्रतिनिधि जनता के सेवक की तरह नहीं बल्कि मालिक की तरह सलूक करते हैं। यह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ है। लिहाजा, ग्रामसभाओं को अधिक अधिकार संपन्न बनाकर उसकी भूमिका को ज्यादा निर्णायक बनाने के साथ पंचायतराज संस्था के सशक्तिकरण की दरकार समय की मांग है। 
सोमवार से संसद का बजट सत्र शुरू हुआ है। इस मौके पर राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के संस्थापक केएन गोविंदाचार्य ने पंचायतों के सशिक्तकरण के मुद्दे को एक नई तार्किक दरकार के साथ उठाया है। उनकी मांग है कि सरकार केंद्रीय बजट का कम से कम सात फीसद हिस्सा सीधे पंचायतों को दे। ऐसा करने से न सिर्फ लोकतंत्र का यह उपेक्षित ढांचा सशक्त होगा बल्कि राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेंद्रीकरण का मार्ग भी प्रशस्त होगा। शहरीकरण की बढ़ती होड़ के बावजूद आज भी देश में पांच लाख से ज्यादा गांव हैं और करीब 70 फीसद आबादी इन्हीं गांवों में रहती है। गांव और कृषि की अवहेलना करके हम एक सशक्त और विकसित भारत की कल्पना नहीं कर सकते हैं। पिछले 20 सालों में यह मांग बार- बार उठी है कि सरकार पंचायती राज संस्था को अपनी विकास योजनाओं को तय करने का अधिकार दे और इसके लिए उसे आर्थिक रूप से स्वाबलंबी बनाया जाए ताकि योजनाएं दिल्ली से चलकर गांवों तक न पहुंचे बल्कि इनका निर्धारण स्थानीय स्तर पर स्थानीय लोगों द्वारा हो। गोविंदाचार्य नए सिरे से इस मुद्दे पर दबाव बनाना चाह रहे हैं। आगे यह देखना होगा कि जो चिंता अब तक नागरिक समाज के स्तर पर है, उसके साथ सरकार कब तक और कितना जुड़ पाती है।