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सोमवार, 31 दिसंबर 2012

पत्थर फेंक रहा हूं द्रौपदी

चंद्रकांत देवताले
देवताले पचास के दशक के आखिर में हिंदी कविता जगत में एक हस्तक्षेप के रूप में उभरते हैं और उनका यह हस्तक्षेप आगे चलकर भी न तो कभी स्थगित हुआ और न ही कमजोर पड़ा। देवताले की काव्य संवेदना पर वीरेन डंगवाल की चर्चित टिप्पणी है, कि वे 'हाशिए' के नहीं बल्कि 'परिधि' के कवि हैं। उनकी कविताओं में स्वातंत्रोत्तर भारत में जीवनमूल्यों के विघटन और विरोधाभासों को लेकर चिंता तो है ही, एक गंभीर आक्रोश और प्रतिकार भी है। अपनी रचनाधर्मिता के प्रति उनकी संलग्नता इस कारण कभी कम नहीं हुई कि अपने कई समकालीनों के मुकाबले आलोचकों ने उनको लेकर एक तंग नजरिया बनाकर रखा।
जाहिर है कि इस कारण अर्धशती से भी ज्यादा व्यापक उनके काव्य संसार को लेकर एक मुकम्मल राय तो क्या बनती, उलटे उनकी रचनात्मक प्रतिबद्धता और सरोकारों को लेकर सवाल उठाए गए। किसी ने उन्हें 'अकवि' ठहराया तो किसी ने उनकी वैचारिक समझ पर अंगुली उठाई। देवताले के मू्ल्यांकन को लेकर रही हर कसर उन्हें 2012 के साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चुने जाने के बाद पूरी हो जाएगी, ऐसा तो नहीं कह सकते। हां, यह जरूर है कि इस कारण उनको लेकर नई पीढ़ी को एक आग्रहमुक्त राय बनाने में मदद मिलेगी। देवताले को यह सम्मान उनके 2010 में प्रकाशित काव्य संग्रह 'पत्थर फेंक रहा हूं' के लिए दिया गया है। यह उनकी एक महत्वपूर्ण काव्य पुस्तक है, लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं। 'भूखंड तप रहा है' और 'लकड़बग्घा हंस रहा है', 'पत्थर की बेंच' और 'आग हर चीज में बताई गई थी' जैसे उनके काव्य संकलन उनकी रचनात्मक शिनाख्त को कहीं ज्यादा गढ़ते हैं।
बहरहाल, यह विवाद का विषय नहीं है। वैसे भी अकादमी सम्मान के बारे में कहा जाता है कि यह भले किसी एक कृति के लिए दिया जाता हो, पर यह कहीं न कहीं पुरस्कृत साहित्याकार के संपूर्ण कृतित्व का अनुमोदन है। इस कारण एक उम्मीद यह जरूर बंधती है कि देवताले के काव्य बोध और उनके विपुल कवि कर्म का पुनरावलोकन करने की आलोचकीय दरकार देर से ही सही लेकिन अब पूरी होगी। इस तरह की दरकारों का जीवित रहना और उनका पूरा होना मौजूदा दौर में इसलिए भी जरूरी है क्योंकि समय, समाज और संवेदना का अंतजर्गत आज सर्वाधिक विपन्नता का संकट झेल रहा है। मानव मूल्यों के विखंडन को नए विकासवादी सरोकारों के लिए जरूरी मान लिया गया है। यह एक खतरनाक स्थिति है पर इस खतरे को रेखांकित करने का जोखिम कोई लेना नहीं चाहता है।
देवताले हिंदी की अक्षर संवेदना को बनाए और बचाए रखने वाले महत्वपूर्ण कवियों में हैं। हिंदी का मौजूदा रचना जगत  सार्वकालिकता के बजाय तात्कालिक मूल्य बोधों को पकड़ने के प्रति ज्यादा मोहग्रस्त मालूम पड़ता है। यही कारण है कि टिकाऊ रचानकर्म का अभाव आज हिंदी साहित्य की एक बड़ी चिंता बनकर उभर रही है। देवताले इस चिंता का समाधान तो देते ही हैं, वे हमें उस चेतना से भी लैस करते हैं, जिसकी दरकार एक जीवंत आैर तत्पर नागरिक बोध के लिए है- 'मेरी किस्मत में यही अच्छा रहा/ कि आग और गुस्से ने मेरा साथ कभी नहीं छोड़ा/ आैर मैंने उन लोगों पर यकीन कभी नहीं किया/ जो घृणित युद्ध में शामिल हैं।' (पत्थर फेंक रहा हूं)
प्रतिभा राय
2011 के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा हो गई है और इस बार इसके लिए चुनी गई हैं वरिष्ठ उडि़या कथाकार प्रतिभा राय। प्रतिभा राय भारतीय साहित्यकारों की उस पीढ़ी की हैं, जिन्होंने गुलाम नहीं बल्कि स्वतंत्र भारत में अपनी आंखें खोलीं। लिहाजा, अपनी अक्षर विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें स्वतंत्र लीक गढ़ने का हौसला दिखाया। उडि़या से बाहर का रचना संसार उनके इस हौसले से ज्यादा करीब से तब परिचित हुआ, जब उनका उपन्यास आया- 'द्रौपदी'। भारतीय पौराणिक चरित्रों को लेकर नवजागरण काल से 'सुधारवादी साहित्य' लिखा जा रहा है, जिसमें ज्यादा संख्या काव्य कृतियों की है। कथा क्षेत्र में इस तरह का कोई बड़ा प्रयोग नहीं हुआ।
समाकालीन जीवन के गठन और चिंताओं को लेकर एक बात इधर खूब कही जाती है कि साहित्य के मौजूदा सरोकारों पर खरा उतरने के लिए अब 'बिंबात्मक' औजार से ज्यादा जरूरी  है- 'कथात्मक हस्तक्षेप'। मौजूदा भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति को लेकर जारी दुराग्रहों पर हमला बोलने के लिए राय ने इस दरकार को समझा। 'द्रौपदी' में वह विधवाओं के पुनर्विवाह को लेकर सामाजिक नजरिया, पति-पत्नी संबंध और स्त्री प्रेम को लेकर काफी ठोस धरातल पर संवाद करती हैं। इस संवाद में वह एक तरफ जहां पुरुषवादी आग्रहों को चुनौती देती हैं, वहीं भारतीय स्त्री के गृहस्थ जीवन को रचने वाली विसंगतिपूर्ण स्थितियों पर भी वह संवेदनात्मक सवाल खड़ी करती हैं।
बहरहाल, 'द्रौपदी' उपन्यास की रचयिता का रचना संसार काफी विषद और विविधतापूर्ण है। कथा साहित्य की विविध विधाओं के साथ कविता के क्षेत्र में भी वह अधिकारपूर्वक दाखिल हुई हैं। यही कारण है कि आज जब उन्हें भारतीय साहित्य क्षेत्र के सर्वाधिक सम्मानित आैर मान्य पुरस्कार के लिए चुना गया है तो निर्णय प्रक्रिया की तटस्थता पर भी कोई सवाल नहीं उठ रहा है। हां, यह जरूर कहा जा सकता है कि सुप्रसिद्ध उडि़या लेखक डॉ. सीताकांत महापात्र चूंकि ज्ञानपीठ चयन समिति के अध्यक्ष थे, इसलिए प्रतिभा राय के कृतित्व पर विचार करने और सर्वसम्मत निर्णय लेने में सहुलियत हुई होगी।
राय को इससे पूर्व साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ का ही एक और महत्वपूर्ण पुरस्कार मूर्तिदेवी सम्मान मिल चुका है। लिहाजा उनके साहित्य को नए सिरे अनुमोदित होने की जरूरत नहीं है। उनका रचनाकर्म अभी न तो थका है और न ही विराम के करीब है, इसलिए उनसे आगे और महत्वपूर्ण साहित्यिक अवदानों की उम्मीद की जा सकती है।     

रविवार, 30 दिसंबर 2012

रविशंकर : हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं


चेतना और स्वतंत्रता की जो नई जमीन तैयार दुनिया में 50-60 के दशक में हो रही थी, उसमें राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा ही नहीं संस्कृति भी एक बड़े औज़ार के रूप में काम कर रही थी। पंडित रविशंकर की नब्बे साला जिंदगी पर नजर डालें तो यह बात ज्यादा समझ में आती है। रविशंकर से पहले उनके अग्रज उदयशंकर नृत्य की तमाम शैलियों को लेकर नर्तन की एक नई सर्वसमावेशी शैली को रच रहे थे। उनका प्रयोग स्थानीयता के प्रभाव से मुक्त एक ग्लोबल प्रयोग था। 18 साल की उम्र तक रविशंकर अपने अग्रज के साथ रहे। लेकिन नृत्यकला में वैश्विक पहचान बनाने की हुलस अचानक ही बदल गई और उन्होंने सितार के तारों को अपनी आत्मा की आवाज बनाने का निर्णय कर लिया। करियर आैर सक्सेस के प्रतिस्पद्र्धी दौर में इस निर्णय के पीछे की शिद्दत को समझना थोड़ा कठिन है। रविशंकर के लिए यह निर्णय महज अपने रास्ते अपनी मंजिल पाने की धुन भर नहीं थी।
नृत्य का साथ छोड़कर वादन क्षेत्र में आने का फैसला उनके अग्रज के प्रयोगों का ही एक नया विस्तार था। अपने समय और परिवेश के साथ संवादी रिश्ते के साथ रविशंकर को यह भी लगा कि जब तक वे प्रशिक्षण से आगे साधना के रूप में संगीत से नहीं जुड़ेंगे, तब तक उनका संगीत 'अनहद' तक नहीं पहुंच पाएगा। साधना की इस शपथ को उन्होंने मैहर वाले बाबा अल्लाउद्दीन खान की शार्गिदी में और पक्का कर लिया।  फिर क्या था, सितार और रविशंकर इस तरह एक-दूसरे के पर्याय बने कि विश्व संगीत जगत भी दंग रह गया।
दिलचस्प है कि उनकी पैदाइश बनारस की थी और बनारस के बारे में कहा जाता है कि यहां की माटी-पानी का असर जिंदगी भर नहीं जाता। आज भारतीय संगीत के इस महान जादूगर के निधन पर जब भारत के साथ पूरी दुनिया उनके जीवन के स्वर्णिम सर्गों को याद कर विस्मित हो रही है, तो संगीत के भारतीय घराने की परंपरा, शैली और संभावना पर भी नए सिरे से बात हो रही है। भारत रत्न, मैग्सेसे और तीन बार ग्रैमी सम्मान से नवाजे गए रविशंकर को बीटल्स के जार्ज हैरिसन अगर विश्व संगीत के गॉडफादर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने भारतीय संगीत परंपरा का साथ छोड़ धुन और साज की कोई नई वैश्विक समझ पा ली थी।
दरअसल, प्राच्य दर्शन की तरह प्राच्य संगीत भी नस्ल और सरहद की दायरेबंदी से आजाद रहा है। विश्व मानवता और उनके बीच के समन्वय, सहयोग और सौहार्द को और प्रगाढ़ करने के लिए संगीत भी एक क्रांतिकारी जरिया हो सकता है, पंडित रविशंकर ने अपनी संगीत साधना से सिद्ध करके दिखाया। आज जब ग्लोबल भाषा, व्यापार और सूचना तंत्र की बात होती है और उसमें भारत की दखल पर जोर दिया जाता है, तो लोग यह भूल जाते हैं कि भारत अपनी तरह से इस तकाजे पर शुरू से खरा उतरता आया है। यह सबक है, उन तमाम लोगों के लिए जो यह मानते हैं कि उत्तर-आधुनिकता की सीढि़यां लोक और परंपरा की भारतीय सीख के साथ नहीं चढ़ी जा सकती है।
कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर से लेकर एमएफ हुसैन और पंडित रविशंकर तक भारत की यशस्वी सांस्कृतिक परंपरा एक ही बात बार-बार दोहराती है कि हमारी स्थानीयता वैश्विकता के खिलाफ नहीं बल्कि उसकी पूरक है, उसकी संवाहक है।