सोमवार, 8 नवंबर 2010
छठ : भइया लोगों का बड़का पर्व
दिल्ली, मुंबई, पुणे, चंडीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आसपास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जानेवाली ट्रेनों के लिए उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिए काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं। तभी तो घर लौटने के लिए उमड़ी भीड़ और उत्साह को लेकर देश के दूसरे हिस्से के लोग कहते हैं, "अब तो छठ तक ऐसा ही चलेगा, भइया लोगों का बड़का पर्व जो शुरू हो गया है।' वैसे इस साल दिवाली के साथ छठ की रौनक में कुछ भारीपन भी है। एक तरफ जहां देश कुछ हिस्सों में भइया लोगों के विरोध का सिलसिला जारी तो वहीं कई जगहों पर इस विरोध के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया। इसके बाद रही-सही कसर कमर तोड़ती महंगाई ने पूरी कर दी है। ओबामा आैर सेंसेक्स के कारण जिस दुनिया में हाल के दिनों में चहल-पहल बढ़ी है, उसके "वकसित हठ' आैर "पारंपरिक छठ' की आपसदारी रिटेल बिजनेस तक तो पहुंच चुकी है पर दिलों के दरवाजों पर दस्तक होनी अभी बाकी है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दिवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्र या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवंबर का महीना लोकानुष्ठानों के लिए लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इंतजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिए घर-घर में जुटते कुटुंब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर। भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ भगवतशरण अग्रवाल ने इसी मेल को "लोकरस' और "लोकानंद' कहा है। इस रस और आनंद में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी बड़े ब्राांड या प्रोडक्ट का सेल ऑफर को लेकर किसी आंतरिक हुल्लास से भरता है । हां, यह जरूर है कि पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की ग्लोबल होड़ ने बाजार के बीच इस लोकरंग की वै·िाक छटा उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरीशस , त्रिनिडाड, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अघ्र्य के लिए हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिाटेन में भी उठने लगे हैं। अपने देश की बात करें तो जिस पर्व को ब्रिाटिश गजेटियरों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है।
बिहार आैर उत्तर प्रदेश के कई कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है। जानमाल को हुए नुकसान के साथ जल रुाोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के संबंधों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में आैर मुखर हुई है। गंगा को उसके मुहाने पर ही बांधने की सरकारी कोशिश के विरोध के स्वर उत्तरांचल से लेकर दिल्ली तक सुने जा सकते हैं। पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र कहते हैं कि छठ जैसे पर्व लोकानुष्ठान की मर्यादित पदवी इसलिए पाते हैं क्योंकि ये हमें जल और जीवन के संवेदनशील रिश्ते को जीने का सबक सिखाते हैं। बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता चंद्रभूषण अपने तरीके से बताते हैं, "लोक सहकार और मेल का जो मंजर छठ के दौरान देखने को मिलता है, उसका लाभ उठाकर जल संरक्षण जैसे सवाल को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में उठाया जा सकता है। और यही पहल बिहार के कई हिस्सों में कई स्वयंसेवी संस्थाएं इस साल मिलकर कर रही हैं।' कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुंचना सबसे आसान है। याद रखें कि छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा लोकपर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है। यही नहीं चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी पौराणिक कर्मकांड। यही नहीं प्रसाद के लिए मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। और तो और प्रसाद बनाने के लिए व्रती महिलाएं कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अंधवि·ाास से यह पर्व आज भी सर्वथा दूर है। कुछ साल पहले बेस्ट फॉर नेक्स्ट कल्चरल ग्रुप से जुड़े कुछ लोगों ने बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ वर्त पर एक डाक्यूमेट्री बनाई। इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उसके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जल-वायु को प्रदूषणमुक्त रकने के लिए किसी भी पहल से पहले यूएन चार्टरों की मुंहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहां परंपरा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामथ्र्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएं।
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छ्ठ के बारे में बेहतरीन पोस्ट। कुछ जोड़्ना चाहूँगा:
जवाब देंहटाएंछ्ठ पूर्वांचलियों का पर्व कभी जरूर रहा हो, पर अब सूचना क्रांति के दौर में इसे देश विदेश में फैलने से कोई नहीं रोक सकता । कारण कई है:
आपके बताए कारणों के अलावा:
1) इसमे सूर्य और नदी की पूजा होती है जो किसी मायने में मूर्ति पूजा नहीं है । यही कारण है कि पटना दूरदर्शन से एक बार मैंने एक मुस्लिम को अर्ध्य देते देखा था। साथ हीं साथ वैज्ञानिक तरीके से सिद्ध पूरी दुनिया के उर्जा, भोजन यहाँ तक की पृथ्वी के पिता सूर्य को अपना देवता मानने में किसी को आपत्ति नहीं होगी।
2) इस पर्व को ले कर चोर उचक्कों में खासा भय व्याप्त रहता है चाहे वे हिन्दु हों या मुस्लिम। ऐसा इस अवधी में पुलिस रिकॉर्ड से प्राप्त अपराध की न्यूनतम घटनाओं से साबित होता है।
3) शुद्धता और संस्कारों के इस पर्व को आज तक पश्चिमीकरन लील नहीं पाया है। यह वास्तव में लोगों के इस पर्व के प्रति असीम श्रद्धा का परिचायक है।
गौतम कुमार कुटरियार
kutariyar.blogspot.com मेरे मन के आईने में