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मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

दलित मुद्दे पर भाजपा का इनकाउंटर

- प्रेम प्रकाश





एस-एसटी एक्ट को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर पैदा हुआ असंतोष अब पूरी तरह से राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है

जिन राजनीति और समाज विज्ञानियों को यह लगता था कि मंडलवादी राजनीति का एक्सटेंशन मुश्किल है, उनके लिए दो अप्रैल 2018 का राष्ट्रव्यापी घटनाक्रम नींद से जगाने वाला है। एससी-एसटी एक्ट के संबंध में बीते 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दलित और आदिवासी संगठनों की तरफ से आयोजित भारत बंद का व्यापक असर हुआ। बंद के दौरान हिंसा भी हुई। खासतौर पर राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, गुजरात, हरियाणा और दिल्ली-एनसीआर में हिंसा और आगजनी की कई घटनाएं हुई। दिलचस्प है कि एक्ट पर फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया है। केंद्र सरकार ने तो इसके खिलाफ पुनर्विचार याचिका दाखिल की है। फिर भी बंद और विरोध के निशाने पर केंद्र सरकार रही। उसी के खिलाफ नारे लगे और उसी की नीतियों और मंशा को लेकर सवाल उठे, सड़कों पर असंतोष दिखा।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम-1989 के दुरुपयोग को रोकने को लेकर गाइडलाइन जारी की थी। यह सुनवाई महाराष्ट्र के एक मामले में हुई थी। ये गाइडलाइंस फौरन लागू हो गई थी। इसके तहत अब शिकायत के बावजूद सरकारी कर्मचारियों की गिरफ्तारी सिर्फ सक्षम अथॉरिटी की इजाजत से होगी और अगर आरोपी सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो उनकी गिरफ्तारी एसएसपी की इजाजत से होगी। यही नहीं, इस मामले में अग्रिम जमानत पर मजिस्ट्रेट विचार करेंगे और अपने विवेक से जमानत मंजूर या नामंजूर करेंगे। इस अदालती फैसले का आधार कहीं न कहीं यह है कि एनसीआरबी 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देशभर में जातिसूचक गाली-गलौच के 11,060 शिकायतें दर्ज हुईं। जांच में 935 झूठी पाई गईं।
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दलित संगठनों को लगता है कि कहीं न कहीं सरकार उसे मिले न्यायिक सुविधा या अधिकार के कटौती के पक्ष में है। जबकि जिस मामले में सर्वोच्च अदालत ने नया फैसला सुनाया है, उसमें सरकार कहीं से भी पार्टी नहीं है। बावजूद इसके सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एससी/एसटी एक्ट के फैसले पर फिर से विचार करने के लिए एक याचिका दायर की। पर कोर्ट ने सोमवार यानी भारत बंद के एलान के दिन इस पर फौरन सुनवाई से मना कर दिया।
दरअसल, यह पूर मामला अब कहीं न कहीं राजनीतिक रंग ले चुका है। विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा की सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को दलित अस्मिता के संघर्ष को सड़कों पर तेज करके काउंटर किया जा सकता है। इस सियासी वार-प्रतिवार के पीछे एक बड़ी वजह 2019 का लोकसभा चुनाव है। यही वजह है कि महज 13 दिन के भीतर इस मामले पर तकरीबन सारा विपक्ष एक सुर में बोलता दिखा।
गैरतलब है कि देश में एससी-एसटी की आबादी 20 करोड़ और लोकसभा में इस वर्ग से 131 सांसद आते हैं। जाहिर है कि इस वर्ग के साथ हर दल के हित जुड़े हैं। यहां तक कि भाजपा के भी सबसे ज्यादा 67 सांसद इसी वर्ग से हैं। साफ है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से बड़ा गणित कहीं न कहीं दलित और पिछड़ों की राजनीति का है। भाजपा का कसूर सिर्फ इतना है उनके और संघ परिवार के कुछ नेताओं ने जिस तरह आरक्षण और जाति के मुद्दे पर जिस तरह के बयान दिए हैं, उससे विपक्ष को दलितों-पिछड़ों को यह कहने-समझाने में मदद मिली है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार आरक्षण सहित इस वर्ग के कई संवैधानिक सम्मत अधिकारों पर कैंची चलाने की मंशा रखती है। अलबत्ता इस धारणा का खंडन खुद प्रधानमंत्री तक ने कई बार किया। पर खासतौर पर जिस तरह से भाजपा के त्रिपुरा में सत्तारूढ़ होने के बाद बिहार, प. बंगाल, यूपी, राजस्थान, कर्नाटक से लेकर केरल तक देश का राजनीतिक-सामाजिक घटनाक्रम बदला है, उसने भाजपा विरोध का एक नया मंच खड़ा कर दिया है। यह मंच दलित राजनीति का है, मंडलवादी राजनीति के आक्रामक और हिंसक एक्सटेंशन का है।   

शुक्रवार, 24 जून 2016

जयप्रकाश आंदोलन का भी अपना साहित्य था

-प्रेम प्रकाश
केरल में अपनी सरकार बनाने की खुशी को बड़ी कामयाबी के तौर पर जाहिर करते हुए माकपा ने अखबारों में पूरे-पूरे पन्ने के रंगीन विज्ञापन दिए। इससे पहले इस तरह का आत्मप्रचार वामदलों की तरफ से शायद ही देखने को मिला हो। दरअसल, पिछले दो दशकों में और उसमें भी हालिया दो सालों में सियासी तौर पर उनका रास्ता जिस तरह तंग और उनकी काबिज जमीन का रकबा इकहरा होता जा रहा है, उसमें यह अस्तित्व बचाने का आखिरी दांव जैसा है। वाम जमात ने इतिहास से लेकर साहित्य तक जिस तरह अपने वर्चस्व को भारत में दशकों तक बनाए रखा, वह दौर अब हांफने लगा है। खासतौर पर हिदी आलोचना में नया समय उस गुंजाइश को लेकर आया है, जब मार्क्सवादी दृष्टि पर सवाल उठाते हुए साहित्येहास पर नए सिरे से विचार हो। असहिष्णुता पर बहस और विरोध के दौरान यह खुलकर सामने आया था कि सत्तापीठ से उपकृत होने वाले कैसे अब तक अभिव्यक्ति और चेतना के जनवादी तकाजों को सिर पर लेकर घूम रहे थे। नक्सलवाद तक को कविता का तेवर और प्रासंगिक मिजाज ठहराने वालों ने देश में उस धारा और चेतना का रचनात्मक अभिव्यक्ति को कैसे दरकिनार और अनसुना किया, उसकी तारीखी मिसाल हैजयप्रकाश आंदोलन। इस आंदोलन को लेकर वाम शिविर शुरू से शंकालु और दुविधाग्रस्त रहा। यहां तक कि लोकतंत्र के हिफाजत में सड़कों पर उतरने के जोखिम के बजाय उनकी तरफ से आपातकाल के समर्थन तक का पाप हुआ। 
अब जबकि वाम शिविर की प्रगतिशीलता अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद- ब-खुद अंतिम ढलान पर है तो हमें एक खुली और धुली दृष्टि से इतिहास के उन पन्नों पर नजर दौड़ानी चाहिए, जिस पर अब तक वाम पूर्वाग्रह की धूल जमती रही है। जयप्रकाश नारायण 74 आंदोलन के दिनों में अकसर कहा करते थे कि कमबख्त क्रांति भी आई तो बुढ़ापे में। पर इसे बुढ़ापे की पकी समझ ही कहेंगे कि संपूर्ण क्रांति का यह महानायक अपने क्रांतिकारी अभियान में संघर्षशील युवाओं और रचनात्मक कार्यकर्ताओं की जमात के साथ कलम के उन सिपाहियों को भी भूला नहीं, जो जन चेतना की अक्षर ज्योति जलाने में बड़ी भूमिका निभा सकते थे। संपूर्ण क्रांति का शीर्ष आह्वान गीत 'जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है’ रचने वाले रामगोपाल दीक्षित ने तो लिखा भी कि 'आओ कृषक श्रमिक नागरिकों इंकलाब का नारा दो/ गुरुजन शिक्षक बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो/ फिर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है/ तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रांति द्बार पर आई है।’ दरअसल जेपी उन दिनों जिस समग्र क्रांति की बात कह रहे थे, उसमें तीन तत्व सर्वप्रमुख थे- शिक्षा, संस्कृति और अध्यात्म। कह सकते हैं कि यह उस जेपी की क्रांतिकारी समझ थी जो मार्क्स और गांधी-विनोबा के रास्ते 74 की समर भूमि तक पहुंचे थे। दिलचस्प है कि सांतवें और आठवें दशक की हिन्दी कविता में आक्रोश और मोहभंग के स्वर एक बड़ी व्याप्ति के स्तर पर सुने और महसूस किए जाते हैं। अकविता से नयी कविता की तक की हिन्दी काव्ययात्रा के सहयात्रियों में कई बड़े नाम हैं, जिनके काव्य लेखन से तब की सामाजिक चेतना की बनावट पर रोशनी पड़ती है। पर दुर्भाग्य से हिन्दी आलोचना के लाल साफाधारियों ने देश में 'दूसरी आजादी की लड़ाई’ की गोद में रची गई उस काव्य रचनात्मकता के मुद्दे पर जान-बुझकर चुप्पी अखितियार कर ली है, जिसमें कलम की भूमिका कागज से आगे सड़क और समाज के स्तर पर प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की हो गई थी। न सिर्फ हिन्दी ब्लकि विश्व की दूसरी भाषा के इतिहास में भी यह एक अनूठा अध्याय, एक अप्रतिम प्रयोग था।
जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े कवियों के 1978 में प्रकाशित हुए रचना संग्रह 'समर शेष है’ की प्रस्तावना में प्रख्यात आलोचक डा. रघुवंश कहते भी हैं, 'मैं नयी कविता के आंदोलन से जोड़ा गया हूं क्योंकि तमाम पिछले नये कवियों के साथ रहा हूं, परंतु उनकी रचनाओं पर बातचीत करता रहा हूं। परंतु 'समर शेष है’ के रचनाकारों ने जेपी के नेतृत्व में चलने वाले जनांदोलन में अपने काव्य को जो नयी भूमिका प्रदान की है, उनका मूल्यांकन मेरे लिए एकदम नयी चुनौती है।’ कागज पर मूर्तन और अमूर्तन के खेल को अभिजात्य सौंदर्यबोध और नव परिष्कृत चेतना का फलसफा गढ़ने वाले वाम आलोचक अगर इस चुनौती को स्वीकार करने से आज तक बचते रहे हैं तो इसे हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए एक दुर्भाग्यपूणã स्थिति ही कहेंगे। मौन कैसे मुखरता से भी ज्यादा प्रभावशाली है, इसे आठ अप्रैल 1974 को आंदोलन को दिए गए जेपी के पहले कार्यक्रम से भलीभांति समझा जा सकता है।यह पहला कार्यक्रम एक मौन जुलूस था। 'हमला चाहे जैसा होगा हाथ हमारा नहीं उठेगा’ जैसे लिखे नारों वाली तख्तियों को हाथों में उठाए और हाथों में पट्टी बांधे हुए सत्याग्रहियों की जो जमात पटना की सड़कों पर चल रही रही थी, उसमें संस्कृतिकर्मियों की टोली भी शामिल थी। इस जुलूस में हिस्सा लेने वालों में फणीश्वरनाथ 'रेणु’ का नाम सर्वप्रमुख था। संपूर्ण क्रांति आंदोलने के लिए दर्जनों लोकप्रिय गीत रचने वाले गोपीवल्लभ सहाय ने तो समाज, रचना और आंदोलन को एक धरातल पर खड़ा करने वाले इस दौर को 'रेणु समय’ तक कहा है। अपने प्रिय साहित्यकारों को आंदोलनात्मक गतिविधियों से सीधे जुड़ा देखना जहां सामान्य लोगों के लिए एक सामान्य अनुभव था, वहीं इससे आंदोलनकारियों में भी शील और शौर्य का तेज बढ़ा। व्यंग्यकार रवींद्र राजहंस की उन्हीं दिनों की लिखी पंक्तियां हैं, 'अनशन शिविर में कुछ लोग/ रेणु को हीराबाई के रचयिता समझ आंकने आए/ कुछ को पता लगा कि नागार्जुन नीलाम कर रहे हैं अपने को/ इसलिए उन्हें आंकने आए।’ बाद के दिनों में आंदोलन की रौ में बहने वाले कवियों और उनकी रचनाओं की गिनती भी बढ़ने लगी। कई कवियों-संस्कृतिकर्मियों को इस वजह से जेल तक की हवा खानी पड़ी। लोकप्रियता की बात करें तो तब परेश सिन्हा की 'खेल भाई खेल/सत्ता का खेल/ बेटे को दिया कार कारखाना/ पोसपुत के हाथ आई भारत की रेल’, सत्यनारायण की 'जुल्म का चक्का और तबाही कितने दिन’, गोपीवल्लभ सहाय की 'जहां-जहां जुल्मों का गोल/ बोल जवानों हल्ला बोल', रवींद्र राजहंस की 'सवाल पूछता है जला आदमी/ अपने शहर में कहां रहता है भला आदमी।’ कवियों ने जब नुक्कड़ गोष्ठियां कर आम लोगों के बीच आंदोलन का अलख जगाना शुरू किया तो इस अभिक्रम का हिस्सा बाबा नागार्जुन जैसे वरिष्ठ कवि भी बने। बाबा तब डफली बजाते हुए नाच-नाचकर गाते- 'इंदूजी-इंदूजी क्या हुआ आपको/ सत्ता के खेल में भूल गई बाप को...।’ दिलचस्प है कि चौहत्तर आंदोलन में मंच और मुख्यधारा के कवियों के साथ सर्वोदयी-समाजवादी कार्यकर्ताओं के बीच से भी कई काव्य प्रतिभाएं निकलकर सामने आईं। जयप्रकाश अमृतकोष द्बारा प्रकाशित ऐतिहासिक स्मृति ग्रंथ 'जयप्रकाश’ में भी इनमें से कई गीत संकलित हैं। इन गीतों में रामगोपाल दीक्षित के 'जयप्रकाश का बिगूल बजा’ के अलावा 'हम तरुण हैं हिद के/ हम खेलते अंगार से’ (डा. लल्लन), 'आज देश की तरुणाई को अपना फर्ज निभाना है’ (राज इंकलाब), 'युग की जड़ता के खिलाफ एक इंकलाब है’ (अशोक भार्गव) आदि जयप्रकाश आंदोलन की गोद से पैदा हुए ऐसे ही गीत हैं।
हिन्दी कविता की मुख्यधारा के लिए यह साठोत्तरी प्रभाव का दौर था। आठवें दशक तक पहुंचते-पहुंचते जिन कविताओं की शिननाख्त 'मोहभंग की कविताओं’ या क्रुद्ध पीढ़ी की तेजाबी अभिव्यक्ति के तौर पर की गई, जिस दौर को अपने समय की चुनौती और यथार्थ से सीधे संलाप करने के लिए याद किया जाता है, इसे विडंबना ही कहेंगे कि वहां समय की शिला पर ऐसा कोई भी अंकन ढूंढ़े नहीं मिलता है जहां तात्कालिक स्थितयों कोे लेकर प्रत्यक्ष रचनात्मक हस्तक्षेप का साहस दिखाई पड़े। नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती और दुष्यंत कुमार जैसे कुछ कवियों को छोड़ दें तो उक्त नंगी सचाई से मंुह ढापने के लिए शायद ही कुछ मिले। अलबत्ता यह भी कम दिलचस्प नहीं हैकि तब मुख्यधारा से अलग हिन्दी काव्य मंचों ने भी पेशेवर मजबूरियों की सांकल खोलते हुए तत्कालीन चेतना को स्वर दिया। मंच पर तालियों के बीच नीरज ने साहस से गाया- 'संसद जाने वाले राही कहना इंदिरा गांधी से/ बच न सकेगी दिल्ली भी अब जयप्रकाश की आंधी से।’ कहना नहीं होगा कि हर आंदोलन का एक साहित्य होता है, ठीक वैसे ही जैसे किसी भाषा के साहित्येतिहास में कई आंदोलन होते हैं। इस लिहाज से जयप्रकाश आंदोलन का भी अपना साहित्य था। पर बात शायद यहीं पूरी नहीं होती है। अगर जयप्रकाश आंदोलन और उससे जुड़े साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन हो तो निष्कर्ष आंख खोलने वाले साबित हो सकते हैं। एक बार फिर डा. रघुवंश के शब्दों की मदद लें तो जयप्रकाश आंदोलन के 'कवियों ने लोकचेतना की रक्षा की लड़ाई में अगर अपने रचनाधर्म को उच्चतम स्तर पर
विसर्जित-प्रतिष्ठित किया।’ 

सोमवार, 17 नवंबर 2014

ऐसे तो लौटने से रहे महात्मा


समय से हम सब बंधे हैं पर समय को बांधने की भी हमारी ललक रहती है। तभी तो समय को जीने से पहले ही हम उसके नाम का फैसला कर लेते हैं। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बच्चे के जन्म के साथ उसका नामकरण संस्कार पूरा कर लिया जाता है। यह परंपरा हमारी स्वाभाविक वृत्तियों से मेल खाती है।
जिस 21वीं सदी में हम जी रहे हैं, उसका आगमन बाद में हुआ नामकरण पहले कर दिया गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी इसे कंप्यूटर और सूचना क्रांति की सदी बताते थे। उनकी पार्टी आज भी इस बात को भूलती नहीं और देश को जब-तब इस बात की याद दिलाती रहती है। बहरहाल, बात इससे आगे की। 21वीं सदी के दूसरे दशक में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए जब सिविल सोसाइटी सड़कों पर उतरी और सरकार के पारदर्शी आचरण के लिए अहिसक प्रयोगों को आजमाया गया तो फिर से एक बार समय के नामकरण की जल्दबाजी देखी गई। भारतीय मीडिया की तो छोड़ें अमेरिका और इंग्लैंड से निकलने वाले जर्नलों और अखबारों में कई लेख छपे, बड़ी-बड़ी हेडिग लगी कि भारत में एक बार फिर से गांधीवादी दौर की वापसी हो रही है, लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकेंद्रीकरण और उन्हें सशक्त बनाने के लिए खासतौर पर देशभर के युवा एकजुट हो रहे हैं। सूचना और तकनीक के साझे के जिस दौर को गांधीवादी मूल्यों का विलोमी बताया जा रहा था, अचानक उसे ही इसकी ताकत और नए औजार बताए जाने लगे। नौबत यहां तक आई कि थोड़ी हिचक के साथ देश के कई गांवों-शहरों में रचनात्मक कामों में लगी गांधीवादी कार्यकर्ताओं की जमात भी इस लोक आलोड़न से अपने को छिटकाई नहीं रख सकी। वैसे कुछ ही महीनों के जुड़ाव के साथ इनमें से ज्यादातर लोगों ने अपने को इससे अलग कर लिया।
इस सिलसिले में एक उल्लेख और। भाजपा के थिक टैंक में शामिल रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने अपनी किताब 'म्यूजिक ऑफ द स्पीनिग व्हील’ में तो इंटरनेट को गांधी का आधुनिक चरखा तक बता दिया। कुलकर्णी ने अपनी बात सिद्ध करने के लिए तमाम तर्क दिए और यहां तक कि खुद गांधी के कई उद्धरणों का इस्तेमाल किया। कुलकर्णी के इरादे पर बगैर संशय किए यह बहस तो छेड़ी ही जा सकती है कि जिस गांधी ने अपने 'हिद स्वराज’ में मशीनों को शैतानी ताकत तक कहा और इसे मानवीय श्रम और पुरुषार्थ का अपमान बताया, उसकी सैद्धांतिक टेक को कंप्यूटर और इंटरनेट जैसी परावलंबी तकनीक और भोगवादी औजार के साथ कैसे मेल खिलाया जा सकता है।
संयोग से गांधी के 'हिद स्वराज’ के भी सौ साल पूरे हो चुके हैं। इस मौके पर गांधीवादी विचार के तमाम अध्येताओं ने एक सुर में यही बात कही कि इस पुस्तक में दर्ज विचार को गांधी न तब बदलने को तैयार थे और न आज समय और समाज की जो नियति सामने है, उसमें कोई इसमें फ़ेरबदल की गंुजाइश देखी जा सकती है।
अब ऐसे में कोई यह बताए कि साधन और साध्य की शुचिता का सवाल आजीवन उठाने वाले गांधी की प्रासंगिकता और उनके मूल्यों की 'रिडिस्कवरी’ की घोषणा ऐसे ही तपाक से कैसे की जा सकती है? तो क्या गांधी के मूल्य, उनके अहिसक संघर्ष के तरीकों की वापसी की घोषणा में जल्दबाजी की गई। अगर आप देश में 'आप’ की राजनीति पर नजदीकी नजर रख रहे होंगे तो इस सवाल का जवाब आपको जरूर मिल गया होगा।

सोमवार, 8 सितंबर 2014

...तो मैं ही क्यों बदनाम हो गई!


जब इस देश के नेताओं में लूट प्रवृति आम हो गई।
पूछ रही है चंबल घाटी मैं ही क्यों बदनाम हो गई।
यह गीत बिहार के वरिष्ठ सर्वोदयी साथी रामशरण भाई का है। इसे वे जेपी आंदोलन और बाद के दिनों में गाते थे। डफली के साथ झूम-झूमकर जब वे गाते थे...तो लोग बस उनसे जुड़ते चले जाते थे। उनके इस जादू के साक्षी विनोबा-जेपी के दौर के लाखों-हजारों लोगों से लेकर जेएनयू कैंपस तक रहा है। अपने तकरीबन दस साल के सामाजिक सेवा और शोध कार्य के दौरान रामशरण भाई से कई मर्तबा मिला और उन्हें सुना।
एक झोले में एक मोटी बिनाई का कुर्ता-धोती, एक पुरानी डायरी और एक-दो और सामान। उनके साथ उनका जीवन इतना ही सरल और बोझरहित था। जहां तक मुझे याद है, अपने जीवन में वे दर्जनों संस्थाओं के सैकड़ों अभिक्रमों से जुड़े पर कभी वेतनभोगी नहीं बने। जीवन को जीने का यह कबीराई अंदाज ही था, जिसने उन्हें आजीवन तत्पर और कार्यरत तो बनाए रखा पर संलग्नता का मोह कहीं से भी बांध न सका, न परिवार से और न ही संस्थाओं से। तभी तो उनके कंठ से जो स्वर फूटे, वे न सिर्फ धुले हुए थे बल्कि सच्चे भी थे। शादी-ब्याह में दिखावे के बढ़े चलन पर उनका गीत याद आता है-
दुई हाथी के मांगै छै दाम,
बेचै छै कोखी के बेटा के चाम
बड़का कहाबै छै कलजुग के कसाई...
एमफिल के लिए चूंकि मैं 'जयप्रकाश आंदोलन और हिदी कविता’ पर काम कर रहा था, लिहाजा आंदोलन के दौर के कई ऐसे लोगों से मिलने का मौका मिला, जो रामशरण भाई जैसे तो पूरी तरह नहीं, पर थे उनके ही समगोत्रीय।
सर्वोदय-समाजवादी आंदोलन में क्रांति गीतों की भूमिका कार्यकताã तैयार करने में सबसे जरूरी और कारगर रही है। 'जय हो...’ और 'चक दे इंडिया...’ गाकर जो तरुणाई जागती है, उसका 'फेसबुक’ कभी भी इतना विश्वसनीय, दृढ़ और जुझारू नहीं हो सकता, जितना किसी आंदोलन की आंच को बनाए और जिलाए रखने के लिए जरूरी है।
रामचंद्र शुक्ल की शब्दावली में कहें तो 'लोक’ की 'परंपरा’ या तो आज कहीं पीछे छूट गई है या फिर बदले दौर में इसकी दरकार को ही खारिज मान लिया गया है। देश में जनगायकों या लोकगायकों की ऐसी परंपरा का अब सर्वथा अभाव दिखता है। दक्षिण भारत में एक स्वर गदर का सुनाई पड़ता है, जो अपनी सांगठनिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं के कारण जन के बजाय कैडर की आवाज ज्यादा लगता है।
दिलचस्प है कि खुद को प्रगतिशील मानने वाले छात्रों की जमात विश्वविद्यालयों में अपनी सांगठनिक-वैचारिक गतिविधियों के दौरान कुछ कवियों की काव्य पंक्तियां तख्तियों पर लिखकर आज भी लहराती हैं तो इसके जवाब में राष्ट्रवादी या दक्षिणपंथी कहे जाने वाले संगठनों से जुड़े छात्र राष्ट्रीयता से ओतप्रोत काव्य पंक्तियों का सहारा लेते हैं। पिछले दिनों अण्णा के आंदोलन के दौरान भी या तो देशप्रेम के फिल्मी गाने बजे या फिर गिटार पर कुछ बेसधी धुन।
आंदोलन का जन चेहरा जन औजारों से ही गढ़ा जा सकता है। यह बात रामशरण भाई जैसे जनगायकों को देखने-जानने के बाद और ज्यादा समझ में आती है।

सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

कुछ सबक तो लें माननीय

पंद्रहवीं लोकसभा देश के संसदीय लोकतंत्र को लेकर उठने वाले कई सामयिक सवालों और एतराजों की साक्षी रही। लोकसभा सत्र के आखिरी दिन सांसद भावुकता में भले एक-दूसरे के प्रति अपने शिकवे-शिकायतों को दूर कर सौहार्द बढ़ाते दिखे, पर इस बात से कौन इनकार करेगा कि इस लोकसभा का कार्यकाल सदन के अंदर और बाहर सर्वाधिक सवालों के घेरे में रहा। काम के घंटे और पास होने वाले बिलों का लेखा-जोखा अगर छोड़ भी दें तो बीते पांच सालों में सदन के आचरण और उसकी प्राथमिकताओं पर लगातार सवाल उठाए गए। एक तरफ इसे 'दागियों का सदन’ कहा गया तो वहीं दूसरी तरफ भ्रष्टाचार के खिलाफ प्रभावी कदम उठाने की उसकी प्रतिबद्धता को कठघरे में खड़ा किया गया।
भूले नहीं हैं लोग साल 2०11 के उस ऐतिहासिक घटनाक्रम को जब जनलोकपाल बिल को पास कराने को लेकर समाजसेवी अण्णा हजारे दिल्ली के रामलीला मैदान पर अनशन पर बैठे थे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उन्हें सदन के अंदर यह कहते हुए सैल्यूट कर रहे थे कि संसद भ्रष्टाचार के खिलाफ निर्णायक पहल के लिए तैयार है, प्रतिबद्ध है।
लोकसभा के अंतिम सत्र की समाप्ति पर प्रधानमंत्री जब अपनी सरकार की कामयाबी गिना रहे थे तो वे यह कहना भूल गए कि इस देश में लोकशाही इसलिए मजबूत नहीं है कि यह सदन उसके लिए प्रतिबद्ध है बल्कि इस देश की जनता की लोकतांत्रिक आस्था इतनी मजबूत है कि वह विचलन की स्थिति में संसदीय गणतंत्र को भी राह दिखाती है।
15वीं लोकसभा के कार्यकाल को लेकर ये कुछ बातें इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि इससे यह साफ होता है कि इसके कार्यकाल में सरकारी भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले खुले और इसकी आंच मंत्रियों से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक पर पहुंची। यही नहीं, इस दौरान कई मामलों की जांच में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई, उसकी कर्तव्यहीनता को शर्मनाक करार दिया।
क्या दाग अच्छे हैं

लोकसभा की कार्यवाही के आखिरी दिन का मंजर देखकर यह नहीं लग रहा था कि यह सदन अपने अमर्यादित आचरण और लोकहित के प्रति अपनी लापरवाही के लिए कहीं से शर्मसार है। सौहार्द के बोल सरकार की तरफ से तो बोले ही गए, विपक्ष ने भी सरकार की विफलता पर हलकी चुटकी लेने से ज्यादा तल्खी दिखाने को तैयार नहीं दिखी।
कई सांसदों ने आत्मावलोकन की बात जरूर की पर इसमें ये बात कहीं से रेखांकित नहीं हुई कि इस लोकसभा के 543 में से 162 यानी तकरीबन 3० फीसदी सांसदों का रिकॉर्ड दागदार है। यही नहीं, जब आपराधिक रिकॉर्ड वाले ऐसे लोगों के चुनाव लड़ने पर सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए तो इसके खिलाफ बिल लाने की मांग उठी। इस पहल के लिए सबसे पहले सरकार ललक से भरी। फिर विपक्ष भी कहीं न कहीं सरकार के साथ खड़ा दिखा।
वैसे इस बिल को संसद की हरी झंडी नहीं मिली और जब आनन-फानन में सरकार इस पर अध्यादेश लाने को तैयार हुई तो जनता के मूड को भांपते हुए विपक्ष ने सरकार को घेरना शुरू कर दिया। बाद में नाटकीय तरीके से कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को रद्दी की टोकड़ी में फेंकने की बात कही और सरकार को अपने ही घोषित एजेंडे से यू-टर्न लेना पड़ा।
यह सब देखकर इस लोकसभा के आचरण और संसदीय लोकतंत्र की गरिमा को बहाल रखने की उसकी प्रतिबद्धता को लेकर अंतिम राय क्या बनेगी, कहने की जरूरत नहीं।
तेलंगाना पर हंगामा

15वीं लोकसभा ने सबसे अशोभनीय आचरण तब दिखाया जब तेलंगाना बिल सदन में आया। सरकार के मंत्री तक वेल में हंगामा मचाते दिखे। हद तो तब हो गई जब माइक तोड़ने से लेकर मिर्ची स्प्रे करकेसदन की कार्यवाही रोकी गई। बाद में जब यह बिल पास भी हुआ तो इस अफरा-तफरी के बीच कि सरकार और विपक्ष दोनों ने अपनाई गई प्रक्रिया पर सवाल उठाए । दिलचस्प है कि इस दौरान सदन में क्या चल रहा था लोग लोकसभा चैनल पर देखना चाह रहे थे पर अचानक ब्लैक आउट करके पूरे देश को अंधेरे में रखा गया। यह अंधेरा इतिहास के पन्नों पर भी इस लोकसभा का पीछा शायद ही छोड़े।
 

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

परिवर्तन का दारोमदार महज आप पर नहीं


संभावनाओं के पूरे होने से ज्यादा जरूरी है, उनका बने रहना। जीवन और समाज का संभावना रहित होना खतरनाक है। ये बातें आज भारतीय राजनीति के संदर्भ में समझनी जरूरी है। इन दिनों देश में राजनीति काफी गरमाई हुई है। दो-तीन महीने में लोकसभा चुनाव होने हैं। दल और विचार की साझा ताकत सत्ता के गणित के आगे कमजोर पड़ रही है। बदलाव और विकल्प की सामयिक दरार को रेखांकित करने से तो किसी सियासी जमात को गुरेज नहीं है, पर इस पर पूरा जोर भी किसी का नहीं है। यह सब संभावनाओं के बड़े कैनवस को फिर से पुराने रंगों और चित्रों से भर जाने के अंदेशे की तरह है।
इस पूरी स्थिति को समझने के लिए थोड़ा पीछे मुड़कर देखें तो कई बातें साफ होंगी। बीते तीन सालों में भ्रष्टाचार को लेकर जो देशभर में आक्रोश दिखा, उसकी अगुवाई करने वाले नागरिक समाज के एक धड़े ने अपने सांगठनिक सामथ्र्य को राजनीतिक दल का रूप दिया। पर सत्ता तक पहुंचकर सत्तावादी आचरण को बदलने की अधीरता ने एक बड़ी कोशिश को कुछ ही महीनों में पटरी से उतार दिया। आम आदमी पार्टी के कार्यकताã और शुभचिंतक भी अब उससे कट रहे हैं। सदस्यता अभियान के नाम पर करोड़ का आंकड़ा छूने का दावा जरूर किया जा रहा है पर कमिटेड वर्क फोर्स के नाम पर पार्टी के पास गिनती के नाम हैं। यही नहीं महिला अस्मिता जैसे मुद्दे पर पार्टी की सोच और उसकीसरकार के मंत्री के आचरण की हर तरफ कठोर निंदा हो रही है। पार्टी के संस्थापक सदस्याओं में से एक मधु भादुड़ी सीधा आरोप लगा रही हैं कि पार्टी को कुछ लोगों ने हाईजैक कर लिया है। पार्टी के अंदर चुनाव जीतने और सत्ता की राजनीति करने का पागलपन इस कदर बढ़ गया है कि भिन्न स्वरों और वैकल्पिक रायों को पार्टी के अंदर कोई सुनने को तैयार नहीं है।
मधु आगे बढ़कर यहां तक कहती हैं कि इस पार्टी में और बातें तो छोड़ दीजिए महिलाओं को 'इंसान’ तक नहीं समझा जा रहा। गौरतलब है कि मधु आप के राष्ट्रीय अधिवेशन में खिड़की एक्सटेंशन में आधी रात को दिल्ली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती की अगुवाई में हुए महिलाओं के खिलाफ आपत्तिजनक सलूक के मामले को उठाना चाहती थीं। उनकी मांग और मंशा इतनी भर थी कि पार्टी को इस मामले में अपनी चूक मान लेनी चाहिए और खुद से आगे बढ़कर माफी मांगनी चाहिए। पर माफी की बात तो दूर उन्हें इस मामले में पार्टी फोरम पर अपनी पूरी बात कहने तक से रोका गया।
आप से निकाले गए विधायक विनोद कुमार बिन्नी की राजनीतिक पृष्ठभूमि और उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को देखते हुए उनके उठाए सवालों को अगर एक किनारे कर भी दें तो भी एक बात तो साफ जाहिर हो रही है कि इस पार्टी ने अपने लिए जो उच्च राजनीतिक मानदंड तय किए थे, वह आज उस पर खुद खरी नहीं उतर रही है। ऐसा नहीं होता तो सरकार बनाने और तमाम अहम मुद्दों पर जनता की राय से अपना रुख तय करने वाली पार्टी अपने विधायक को बिना जनता से राय लिए कम से कम बाहर का रास्ता नहीं दिखाती।
आप को लेकर ये सारी बातें इसलिए क्योंकि उसके उदय और संघर्ष की परिघटना ने ही देश में राजनीतिक बदलाव और विकल्प की संभावना को रेखांकित किया था। भूले नहीं हैं लोग कि जब इस पार्टी ने दिल्ली में डेढ़ दशक से चल रही कांग्रेस सरकार को महज आठ सीट तक सीमित कर दिया तो राहुल गांधी ने मीडिया के सामने आकर बयान दिया कि आप से बहुत कुछ सीखा जा सकता है। खासकर उसने जिस तरह कम समय में लोगों को अपने से जोड़ा। आज उसी राहुल गांधी की तरफ से अखबारों में विज्ञापन छप रहा है- 'अराजकता नहीं प्रशासन सुधार’। साफ है कि निशाने पर सीधे-सीधे खुद को अराजक कहने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी सरकार है। इससे पहले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति भी परोक्ष रूप से दिल्ली सरकार के कामकाज पर टिप्पणी कर चुके हैं।
दरअसल, अब सवाल यह नहीं है कि क्या आम आदमी पार्टी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा और इतिहास बदलने की जल्दबाजी में देश में लोकतांत्रिक परिवर्तन की एक बड़ी संभावना हाशिए पर खिसकती जा रही है, खारिज होती जा रही है? नया सवाल तो यह है कि क्या संभावना और उसके बूते परिवर्तन की ऐतिहासिक पटकथा लिखने का लाइसेंस सिर्फ आप और उसके मुट्ठी भर नेताओं के पास है। पिछले एक महीने में दिल्ली की सड़कों से लेकर सचिवालय के अंदर-बाहर दिखी नौटंकी ही क्या देश के भविष्य के चित्र हैं? निश्चित रूप से इसका जवाब नहीं है।
देश में परिवर्तन की गहराती संभावनाओं की बात इसलिए नहीं शुरू हुई कि ऐसा सिविल सोसायटी की नुमाइंदगी करने वाले कुछ लोग या कोई पार्टी ऐसा कह रही थी। दरअसल, इसके पीछे बीते कुछ सालों में देश की सड़कों पर बार-बार खुलकर प्रकट हुई वह जनाकांक्षा रही, जिसने लोकतंत्र में जन साझीदारी की दरकार के लिए सियासी जमातों के आगे खासा दबाव बनाया। बाकी दलों औरआप में फर्क बस यह रहा कि बाकी ने इस सामयिक दरकार को गंभीरता से नहीं लिया और आप ने इसे अपना एजेंडा बना लिया। यह अलग बात है कि सत्ता की राजनीति में उतरी यह नई पार्टी भी अब अपने इस एजेंडे को लेकर पहले की तरह गंभीर नहीं है।
यह स्थिति उन तमाम दलों के लिए चूक सुधार के एक मौके की तरह है जो कल तक आप के सियासी उदय को अपने लिए कहीं न कहीं खतरा मान रहे थे। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से लेकर कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय ठहराए जाने वाले नेता राहुल गांधी को इस बाबत खासतौर पर ध्यान देना चाहिए। इन दोनों नेताओं पर ही कहीं न कहीं दारोमदार है कि वे लोकसभा चुनाव के एजेंडे को क्या शक्ल देते हैं। जनता पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर शासन चलाना, सत्ता का विकेंद्रीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर पहल के साथ अगर देश की दोनों चोटी की पार्टियां अपनी तैयारी और सोच के साथ इस बार जनता के सामने वोट मांगने जाएं तो यह जनभावना के अनुरूप होगा। साथ ही यह देश में पारंपरिक की जगह वैकल्पिक राजनीति के प्रयोग की बड़ी मुश्किल से बनी संभावना को एक अंजाम तक पहुंचाने के ऐतिहासिक अभिक्रम से जुड़ने जैसा भी होगा।
चुनाव के दौरान स्वार्थपूणã गठजोड़ और एक दूसरे के खिलाफ तीखे व घटिया आरोप-प्रत्यारोप का अतिवाद अब निश्चित रूप से दरकना चाहिए। इतिहास और विचार के तमाम सुलेखों को अपने नाम दर्ज होने का दावा करने वाली देश की दोनों महत्वपूर्ण पार्टियों को यह साहस दिखाना चाहिए कि वे एक-दूसरे से बेहतर संभावना के नाम पर भिड़ें न कि घटिया सियासी सलूक के नाम पर।
 

बुधवार, 22 जनवरी 2014

आप नहीं बदलाव का सारथी


बीते तीन-चार दिनों के घटनाक्रम में देश की राजनीति ने अपने लिए नई व्याख्या और विमर्श की चौहद्दी को और बढ़ा दिया है। निराश वे लोग ज्यादा हैं जिन्हें अब भी लोकतंत्र की व्यवस्था 'इनक्लूसिव’ की जगह 'इंपोजिंग’ ही पसंद आ रही है। 21वीं सदी का दूसरा दशक देश में जिस तरह के लोकतांत्रिक तकाजे को बहस के केंद्र में लेकर आया है, उसकी बुनियादी दरकार ही यही है कि जनकल्याण का ढिंढ़ोरा पीटकर सियासी रोटियां सेंकने के दिन बीत गए। अब तो विकास का कोरा नारा भी व्यापक लोकमत के निर्माण में कारगर औजार साबित होगा, ऐसा कहना जोखिम भरा है। ये तमाम स्थितियां एक ही सवाल को बार-बार रेखांकित कर रही हैं कि जनता और सरकार का अस्तित्व एक दूसरे से जुदा या एक के ऊपर एक की बजाय साझा क्यों नहीं हो सकता? और अगर ऐसा नहीं हो सकता तो फिर लोकतंत्र में लोक की उपस्थिति कहां है और किस भूमिका के साथ है?
जिन बीते तीन-चार दिनों की हम बात कर रहे हैं उसमें एक तरफ कांग्रेस पार्टी और उनके सबसे लोकप्रिय करार दिए जाने वाले नेता राहुल गांधी बार-बार ये समझाने में लगे रहे कि उनकी सरकार ने जनता को जितना अधिकार संपन्न बनाया है, उसके लिए जितने प्रत्यक्ष लाभाकरी कदम उनकी सरकार ने उठाए हैं, उतना किसी ने नहीं किया है। आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी अपनी इन उपलब्धियों के नाम पर जनता से वोट के रूप में अपने लिए श्रेय चाह रही है।
2००9 में जब कांग्रेस की अगुवाई में यूपीए दोबारा सत्ता में आई थी तो सबने एक तरफ से कहा था कि मनरेगा का जादू काम कर गया। अब जबकि इस साल फिर चुनाव होने हैं तो मनरेगा जैसी मेगा योजना तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। यही नहीं इस दौरान यूपीए-एक और दो के कार्यकाल के कई बड़े घोटाले और वित्तीय अनियमितताओं के मामले भी इस दौरान सामने आए। सूचना के अधिकार कानून के तहत एक के बाद एक खुलासे हुए कि सरकार जिस तरह काम कर रही है, उसमें भ्रष्टाचार से चुनौती से निपटने का कोई कारगर मैकेनिज्म नहीं है। एकाधिक मामलों में सीएजी ने कहा कि फैसले लेने के तरीके में ही नहीं मंशा में भी गलतियां हुई हैं। ऐसे में 'पॉवर वैक्यूम’ से लेकर 'पॉलिसी पैरालाइज’ तक के तमगे सरकार को मिले। फिर इस बीच जिस तरह जनता महंगाई और विभिन्न स्तरों पर भ्रष्टाचार से जूझती रही, उससे कुल मिलाकर एक मोहभंग की स्थिति पैदा हुई।
दिलचस्प है कि राहुल गांधी इन स्थितियों के बावजूद चीजों को कामचलाऊ तरीके से समझना चाह रहे हैं। सुधार और परिवर्तन के नाम पर वे महज रफ्फूगिरी से काम चलाना चाहते हैं। अपनी गलतियों और असफलताओं को वे उपलब्धियां गिनाकर ढकना चाहते हैं। यह एक आत्मघाती सोच है। पहले उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में फिर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में जिस तरह पार्टी को मुंह की खानी पड़ी, उससे कांग्रेस उपाध्यक्ष की आंख अब तक खुल जानी चाहिए थी।
इस मोहभंग का भाजपा अपने तरीके से लाभ उठाना चाहती है। नरेंद्र मोदी के दबंग और सम्मोहक नेतृत्व को सामने लाकर पार्टी को लगता है कि केंद्र में दस साल की सत्ता की केंद्रित जड़ता को वह तोड़ देगी। मोदी अपनी तरह से विकास की बात करते हैं, देश के लोगों खासतौर पर युवाओं के पुरुषार्थ में भरोसा दिखलाते हैं, साथ भी बिजली, सड़क, पानी, उद्योग और पर्यटन जैसे क्षेत्रों में गुजरात में किए गए अपने सफल प्रयोगों से लोगों में इस बार के चुनाव में परिवर्तन का विकल्प अपनी तरफ स्थिर करने का यत्न करते हैं। रविवार को दिल्ली के रामलीला मैदान में जब वे बोलने के लिए खड़े हुए तो उनकी नजर में देश के नवनिर्माण का एक पूरा ब्लू प्रिंट था। उन्होंने लंबा भाषण ही नहीं दिया, तकरीबन सभी मुद्दों पर अपनी राय और सोच भी सबके सामने रखी।
पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही एक बात में चूक कर रही है। वह चूक यह है कि जिस मतदाता के पास आखिरकार उन्हें जाना है, उसकी बदली सोच को रीड करने में दोनों से कहीं न कहीं भूल हो रही है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन के बाद मीडिया से लेकर देश में बहस के तमाम चौपालों पर अगर यह बात हो रही है कि देश वैकल्पिक राजनीति की तरफ बढ़ रहा है तो यह बात देश की दोनों बड़ी पार्टियों को न सिर्फ समझ में आनी चाहिए बल्कि इसका फर्क उनकी कार्यनीति और आचरण में भी आना चाहिए। सिर्फ यह कह देना कि प्रातिनिधिक की जगह प्रतिभाग के लोकतंत्र की तरफ हम कदम बढ़ाएंगे, काम नहीं चलेगा। देश की जनता के इस आंदोलनात्मक रुझान को पार्टियों को अपने विजन और एक्शन दोनों में ट्रांसलेट करके दिखाना होगा।
दोनों दलों को याद रखना पड़ेगा कि बीते तीन-चार सालों में जनता अगर एकाधिक बार भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ उतरी है तो यह कौल किसी पार्टी या नेता का नहीं था। देश की सिविल सोसाइटी ने अपने को आगे किया और देश में व्यवस्था परविर्तन की छटपटाहट को सड़क पर ला दिया। आम आदमी पार्टी इसी छटपटाहट का नतीजा है। यह पार्टी अपनी नीति और एजेंडे को लेकर आज जरूर कंफ्यूज्ड जरूर दिखाई पड़ती है पर उसके उन्नयन में कहीं न कहीं वैकल्पिक राजनीति की तलाश शामिल है।
आप से घबराए दलों के लिए शुक्र की बात यह है कि विचार और संगठन के स्तर पर उसकी लड़खड़ाहट साफ तौर पर जाहिर हो रही है। दिल्ली में सरकार बनाने के बाद गवर्नेंस के स्तर पर उसे उम्दा प्रदर्शन करके मिसाल पेश करनी चाहिए थी पर वह अब एक अराजकतावादी राह पर है। आप दिल्ली विधानसभा चुनाव के रिफ्लेक्शन को लोकसभा चुनाव में भी देखना चाहती है। इसलिए वह और उसकी सरकार फिर से सड़क पर प्रतिरोधी तेवर के साथ दिखना चाह रही है। यह आप की रणनीति कम असफलता ज्यादा है। यह उस उम्मीद के साथ भी नाइंसाफी है, जो आप ने लोगों के मन में राजनीतिक बदलाव के नाम पर जगाई थी।
पर आप के भटकाव के बावजूद यह कहीं से साबित नहीं होता कि देश की राजनीति में विकल्प का खाली स्पेस भरने की दरकार ही खारिज हो गई। भारतीय जन-गण का नया मन परंपरावादी राजनीति से वाकई तंग आ चुका है। देश की राजनीति में एक नई ताजी बयार को महसूस करने की तड़प मुट्ठियां बांध चुकी हैं। इन बंधी मुट्ठियों की ताकत को समझना होगा। भाजपा और कांग्रेस की मुश्किल यह है कि वह एक ही तरह के पॉलिटिकल कल्चर में कहीं न कहीं ढ़ल चुकी हैं। नई स्थितियों में जनता के बीच, जनता के साथ और जनता के बल पर ये पार्टियां अगर अपनी ताकत को गुणित नहीं करती हैं तो वह अपने सामथ्र्य के साथ बेईमानी करेंगी। खासतौर पर यह उम्मीद भाजपा को लेकर ज्यादा है क्योंकि वह केंद्र में पिछले दस सालों से सत्ता से बाहर है। वह देश के नागरिक समाज के साथ बेहतर संवाद कर अपनी संभावना में जादुई पंख लगा सकती है।
एक बात और यह कि परिवर्तन का पेटेंटे किसी एक नेता या आदमी के नाम पर दर्ज नहीं होता है। इसलिए सिविल सोसायटी की सक्रियता और आप के उभार को लेकर घबड़ाई हुई प्रतिक्रिया वही लोग दे रहे हैं, जिन्हें लग रहा है कि जनता इस उभार के साथ बंधक की तरह साथ है। दरअसल, देश में जनतांत्रिक सशक्तिकरण एक सामयकि दरकार है और इस दरकार को अपने सारोकारों में शामिल कर जो भी दल या नेता आगे बढ़ेंगे जनता उसके साथ होगी।
 

बुधवार, 15 जनवरी 2014

कई विधाओं की अकेली मल्लिका

मल्लिका साराभाई। इस नाम को लोग अलग-अलग वजहों से जानते हैं। जानने वालों के बीच उनकी छवि भी एकाधिक है। खुद मल्लिका भी अपनी शख्सियत के किसी एक रंग को नहीं बल्कि उन तमाम रंगों को पसंद करती हैं, जिनमें उनकी रुचि और इच्छा का इंद्रधनुषी मेल हो। यही वजह है कि कुचिपुड़ी और भरतनाट्यम की कुशल नृत्यांगना के अलावा मल्लिका की ख्याति नाट्य कलाकार, अभिनेत्री, लेखिका, समाज सेविका तथा महिला असुरक्षा और सांप्रदायिकता जैसे ज्वलंत मुद्दों पर मुखरता के साथ सामने आने वाली एक प्रभावशाली महिला के रूप में भी है। मल्लिका अपनी इन तमाम दिलचस्पियों और खुबियों को एक शब्द में यह कहते हुए बयां करती हैं कि वे कुल मिलाकर एक कम्यूनिकेटर हैं। चूंकि वह खुद को एक बेहतर कम्यूनिकेटर के रूप में लोगों के सामने लाना चाहती हैं, इसलिए वह तमाम विधाओं में हाथ आजमाती हैं।
मल्लिका इन दिनों चर्चा में इसलिए हैं कि वे आम आदमी पार्टी में शामिल हो रही हैं। वह कह रही हैं कि देश में अब तक की राजनीतिक व्यवस्था और उसमें शामिल दल फेल साबित हुए हैं, लोगों की उम्मीद पर खरा उतरने में। यह जनता की उम्मीदों के साथ एक धोखे की तरह है। मल्लिका इससे पहले भी भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता विरोध के मुद्दे पर काफी मुखरता से पेश आई हैं। गुजरात में नरेंद्र मोदी सरकार से इसलिए उनका छत्तीस का संबंध है क्योंकि वह गुजरात दंगों को लेकर सरकार और प्रशासन की भूमिका के बारे में लगातार सवाल उठाती रही हैं।
मल्लिका की शख्सियत में जिस तरह की निर्भीकता और जीवंतता है, उसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि का भी काफी योगदान है। वह प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई और ख्यातिलब्ध अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई की बेटी हैं। नौ मई 1954 को को अहमदाबाद में जन्मी मल्लिका को घर में ही काफी सुसंस्कृत और सुशिक्षित माहौल मिला। आगे के जीवन में मल्लिका के जीवन में इसका असर देखने में भी आया। उन्हें नजदीक से जानने वाले भी कहते हैं कि उनके जीवन की कई छटाएं हैं। कभी तो वह अपनी बातचीत और पहनावे से एक अति आधुनिक महिला लगती हैं तो कभी परंपरा और संस्कृति के प्रति उनका प्रेम देखकर दंग रह जाना पड़ता है। एक समृद्ध और जानेमाने परिवार से ताल्लुक रखने वाले के बावजूद आमजन की चिंताओं से भी वह लगातार जुड़ी रही हैं। यही कारण है कि उनकी गिनती एक समर्पित समाज सेविका के रूप में भी होती है।
नृत्य कला और अभिनय के क्षेत्र में तो उनके दखल का लोगा सब मानते हैं। उन्होंने दुनिया के कई देशों में अपनी इस निपुणता से लोगों की सराहना बटोरी है। इसू तरह समानांतर सिनेमा में उनके योगदान को सभी रेखांकित करते हैं। कहकशां, कथा, मुट्ठी भर चावल, हिमालय से ऊंचा और सोनल उनकी यादगार फिल्में हैं। रंगमंच पर उनका अभिनय काफी सम्मोहन भरा रहा है। 1989 में जब वह सोलो परफार्मेंस के साथ 'शक्ति’ नाटक लेकर लोगों के सामने आईं तो उनकी प्रशंसा दर्शकों ने तो की ही, आलोचकों की नजर में भी खरी उतरीं। उन्होंने हर्ष मंदर की अनहर्ड वॉयसेज का नाट्य रुपांतरण 'अनसुनी’ नाम से किया। इसी तरह ब्रेख्त के एक नाटक का भी उन्होंने भारतीय संदर्भ में रुपांतरण किया।
बात करें राजनीति की तो इस क्षेत्र में मल्लिका का नाम तब अचानक पूरे देश में चर्चा में आ गया जब उन्होंने 2००9 में भाजपा के दिग्गज लाल कृष्ण आडवाणी के खिलाफ गांधीनगर से चुनाव लड़ने का फैसला किया। विभिन्न क्षेत्रों में अपने अवदानों के लिए भारत सराकर की तरफ से पद्म भूषण सम्मान से नवाजी जा चुकीं मल्लिका साराभाई कई बार विवादों में भी फंसी है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है कबूतरबाजी का मामला। हालांकि मल्लिका का कहना है कि यह सब उनकी वैचारिक प्रतिब्धदता और मुखरता के कारण उनके खिलाफ एक साजिश भर है।
बहरहाल, मल्लिका साराभाई आज भी देश की उन गिनी चुनी शख्सियतों में शामिल हैं, जिनकी उपस्थिति को कहीं भी गरिमामय माना जाता है और जिनके विचार और काम के पीछे एक सार्थक तर्क होता है।

बुधवार, 8 जनवरी 2014

चुनाव महज मोदी और राहुल के बीच नहीं


नरेंद्र मोदी अगर 2०14 में देश के प्रधानमंत्री होते हैं तो यह अनिष्टकारी होगा। नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन के बाद हाल में मनमोहन सिंह इस बात को अलग-अलग तरीके से कह चुके हैं। इस सिलसिले में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता और रणनीतिकार योगेंद्र यादव के बयान का भी जिक्र जरूरी है। उनके कहने का तरीका थोड़ा भिन्न है। वे लोकसभा चुनाव को मोदी बनाम राहुल के तौर पर देखने पर ही लानत भरते हैं। उनका बयान अमत्र्य और मनमोहन के बयान के करीब से जरूर गुजरता है पर उसकी मंजिल कहीं और है। वे सिर्फ व्यक्ति केंद्रित राजनीति पर सवाल नहीं उठाते बल्कि साथ ही इस दरकार को भी तार्किक रूप से रेखांकित करते हैं कि लोकतंत्र में चुनाव का मतलब सीएम या पीएम चुनना भर नहीं है और न ही इस या उस पार्टी की हार भर है। एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में तो चुनाव उस महापर्व का नाम है, जिसमें देश और समाज का हर वर्ग बराबरी के साथ शिरकत करता है। यह शिरकत सरकार बनाने या गिराने से ज्यादा उस गुंजाइश को बहाल रखने के लिए अहम है, जिसमें एक समान्य जन भी अपने हाथ में सत्ता की चाबी संभाल सकता है। यही लोकतंत्र की महानता है, उसकी ताकत है।
बहरहाल, बात इस चर्चा के जरिए उस लोकतांत्रिक मानस की जिसमें बदलाव की बात आज हर तरफ हो रही है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की बनी सरकार ने इस बदलाव की संभावना को कहीं न हीं ज्यादा पुष्ट कर दिया है। देश में पिछले कम से कम तीन सालों के घटनाक्रमों पर नजर डालें तो लोकतांत्रिक व्यवस्था के केंद्र में जनता की ताकत और उसका निर्णायक सहभाग कैसे सुनिश्चित हो, यह एक बड़ा मुद्दा बना है। बात विकास की हो, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य की हो तो स्थानीय जनता की जरूरत की सर्वोपरिता समझी जा सकती है। नागरिक समाज को खड़ा करने से निश्चित रूप से एक अनुशासित लोकतंत्र को खड़ा होने में मदद मिलेगी।
देश में अब तक आम आदमी पांच साल में एक बार मतदान की कतार में खड़ा होकर अपने लोकतांत्रिक अधिकार और कर्तव्य को पूरा करता रहा है। इससे आगे उसके करने और समझने की कोई गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई है। इस कारण सत्ता से जनता की दूरी बढ़ी है और सत्ता को लेकर एक अविश्वास का जनमानस भी बना है। ऐसी स्थिति लोकतंत्र की मौलिक अवधारणा के भी खिलाफ है। पिछले दिनों जन प्रतिनिधियों से लेकर संसद की सर्वोच्चता पर जब बहस छिड़ी तो मौजूदा राजनीति के माहिरों को यह काफी अखड़ा भी। भारत में जिस तरह का लोकतंत्र है और हमारा संविधान जिसकी व्याख्या करता है उसमें संसद निस्संदेह सर्वोच्च नियामक संस्था है। पर इससे यह आशय कैसे निकल सकता है कि संसद की यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है। और अगर जनता सर्वोच्च है तो फिर उसे अपनी यह सर्वोच्चता साबित करने का मौका पांच साल में महज एक बार क्यों मिले। लिहाजा, आज अगर इस सवाल को लोग लोकसभा चुनाव से पहले उठा रहे हैं कि देश का अगला प्रधानमंत्री कौन होगा, तो इसमें नामों को लेकर आग्रह-दुराग्रह तो दिख रहा है, पर यह सवाल कहीं पीछे छूट जा रहा है कि नामों और दलों की शिनाख्त के आधार पर देश में लोकतांत्रिक सशक्तिकरण के लिए हो रही कोशिशों के सिलसिले को एक कारगर अंजाम तक नहीं पहुंचाया जा सकता है।
जेपी चौहत्तर आंदोलन के दिनों में बार-बार कहते रहे कि हमें 'कैप्चर ऑफ पॉवर’ नहीं बल्कि 'कंट्रोल ऑफ पॉवर’ चाहिए। घटनाक्रमों में तेजी से आए बदलाव के कारण जेपी का लोक समिति और लोक उम्मीदवार का प्रयोग बहुत कारगर नहीं हो सका। संपूर्ण क्रांति के शीर्ष व्याख्याकार आचार्य राममूर्ति ने भी माना कि चौहत्तर के लोकनायक के प्रयोग को महज सत्ता परविर्तन के तौर पर देखना, उन तमाम मुद्दों और संभावनाओं के प्रति अन्याय है, जिसने जनता को तब काफी मथा था। केंद्र में जनता सरकार का आना महज इसका प्रतिफल कतई नहीं था।
आज जब बात हो रही है 2०14 के लोकसभा चुनाव की तो इसमें पिछले कुछ सालों में नागरिक समाज की उस पहल का तो अक्श दिखना ही चाहिए जिसने लोकतंत्र की ज्यादा सार्थक व्याख्या और भूमिका के प्रति लोगों के बीच भरोसा जगाया, जिनका धीरे-धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं और उसके निर्वाचन प्रक्रिया के प्रति ही मोहभंग होना शुरू हो गया था। आज मुद्दा यह नहीं है कि देश के अगले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे या राहुल गांधी। न ही यह मुद्दा है कि अगली सरकार केंद्र में यूपीए की बनती है कि एनडीए की। यहां तक कि मुद्दा यह भी नहीं है कि गठबंधन राजनीति के दौर में कौन किस गोद से छिटककर किस गोद में जाकर बैठ जाता है। बल्कि मुद्दा तो यह है कि क्या आगामी लोकसभा चुनाव वैकल्पिक राजनीति की बढ़ी संभावना को बढ़ाता है कि नहीं,जनता और सरकार के बीच की दूरी कम होती है कि नहीं। देखने वाली बात यह भी होगी कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने वाली पार्टी या उसका गठबंधन राजनीति को लोकनीति की तरफ ले जाने के लिए कितनी तत्पर दिखती है।
यहां यह साफ होने का है कि विकल्प और स्थानापन्न होने में फर्क है। कांग्रेस और भाजपा के बीच केंद्र के अलावा कई राज्यों में इतने भर का ही राजनीतिक संघर्ष है कि जनता अगर एक से दुखी होती है तो दूसरे को सत्ता सौंप देती है। ऐसा इसलिए नहीं कि जनता को इसके अलावा कुछ सूझता नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसके आगे चुनाव ही यही है कि वह इन दोनों में से किसी एक की तरफ जाए। यह तो विकल्प की नहीं बल्कि स्थानापन्नता की राजनीति हुई। मतदान के दौरान चुनाव के विकल्प से जनता को दूर रखने की जड़ता को जो राजनीतिक शक्तियां बहाल रखना चाहती हैं, वो इस लिहाज से तो कमजोर जरूर हैं कि वे अपने आगे किसी अपारंपरिक विकल्प के खड़ा होने से घबड़ाती है।
पारंपरिक राजनीति के प्रतिष्ठान कितना ढहते हैं, यह इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव का सबसे दिलचस्प प्रतिफल होगा। यह प्रतिफल ही यह तय करेगा कि इस देश की जनता अपने लिए और अपने नाम पर चलने वाले तंत्र को पराए हाथों से कितना अपने हाथों में ला पाती है। पंजाबी के क्रांतिकारी कवि पाश सबसे खतरनाक स्थिति उसे मानते हैं जब हमारे सपने मर जाते हैं। आने वाला लोकसभा चुनाव देश के जन, गण और मन के लिए सुखद ही होगा, खतरनाक नहीं ऐसी कामना है। भले अमत्र्य सेन या मनमोहन सिंह इस कामना पर भरोसा न करें। योगेंद्र यादव की कामना जरूर ऐसी दिखती है और न भी दिखती हो तो इस देश का आम आदमी तो 16वीं लोकसभा के गठन को इन्हीं कामनाओं से आकार लेता देखना चाह रहा है।

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

आप की सरकार को यहां से देखें


दिल्ली का राजनीतिक कुहासा छट गया है। अब आम आदमी पार्टी सरकार बनाने को राजी है। पर अब तक के घटनाक्रम में और कुछ हुआ हो या नहीं, पारंपरिक राजनीति के आगे एक वैकल्पिक लीक खींची जा सकती है, यह संभावना कहीं न सहीं संभव होती दिख रही है। दिल्ली विधानसभा के नतीजे जब आठ दिसंबर को आए तो उसके साथ यह धर्मसंकट भी आया कि यहां अगली सरकार कैसे बनेगी और कौन बनाएगा? त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति कोई देश में पहली बार नहीं बनी है। बल्कि सच तो यह है कि केंद्र में भी यह स्थिति एकाधिक बार रही है। पर सरकारें हर बार बनी हैं। कई बार आधे-अधूरे कार्यकाल के लिए तो कई बार पूरे कार्यकाल के लिए। पर दिल्ली में चुनकर आई त्रिशंकु विधानसभा से सरकार गठन की राह दुश्वार इसलिए हो गई क्योंकि एक साल पहले खड़ी हुई एक पार्टी ने 28 सीटें जीतकर एक बदली राजनीतिक स्थिति का संकेत सभी दलों को दे दिया।
दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जरूरी आंकड़ा 36 का है। कांग्रेस महज आठ सीटें जीतकर पहले ही सत्ता के रेस से बाहर हो गई। भाजपा के अगुवाई वाली राजग भी बहुमत के आंकड़े से चार सीट पीछे रही। रही आप तो उसे आठ सीटें मिलीं। भाजपा के लिए दिल्ली में बहुमत का आंकड़ा जुगाड़ना कोई बड़ी बात नहीं होती। हाल के वर्षों में भी वह कर्नाटक से लेकर झारखंड तक जोड़तोड़ का यह खेल खेल चुकी है। पर दिल्ली में यह मुमकिन इसलिए नहीं हो सकता था क्योंकि पिछले कम से कम तीन सालों में आम आदमी के भ्रष्टाचार और महिला असुरक्षा के खिलाफ आंदोलन से निकली आम आदमी पार्टी ने राजनीतिक शुचिता की एक नई चुनौती खड़ी कर दी। देश में यह अपने तरह की संभवत: पहली सूरत थी जिसमें कोई भी दल सरकार बनाने के लिए आगे आने को तैयार नहीं दिखा। मीडिया ने इसे आम आदनी पार्टी द्बारा तय किए गए 'मॉरल इंडेक्स’ का नाम दिया। दिलचस्प है ऐसे दौर में जब किसी पॉलिटक डेवलेपमेंट के प्रभाव को सेंसेक्स के चढ़ने-उतरने से जोड़कर देखा जाना एक जरूरी दरकार बन गई हो, उस दौर में सेंसेक्स से बड़ी खबर और चर्चा उस मॉरल इंडेक्स की हो रही है, जो लोकतंत्र में जनता की एक दिन की मतदान की भागीदारी से आगे एक सतत प्रक्रिया को आजमाए जाने की वकालत कर रही है।
 पिछले 14 दिसंबर को दिल्ली के उपराज्यपाल ने आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल को दिल्ली के उपराज्यपाल ने सरकार बनाने की संभावना पर विचार करने के लिए बुलाया था। आप की तरफ से यह पहले ही साफ कर दिया गया था कि वह न तो किसी दल से समर्थन लेगी और न ही किसी को समर्थन देगी। पर देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने इस बीच एक नया सियासी दांव खेला। केजरीवाल उपराज्यपाल से मिलने पहुंचते इससे पहले वहां कांग्रेस की यह चिट्ठी पहुंच चुकी थी कि वह आप को सरकार बनाने के लिए बाहर से बिना शर्त समर्थन देने को तैयार है। कांग्रेस के इस दांव से आप को अपने पुराने स्टैंड पर थोड़ा विचार करना पड़ा। क्योंकि इस दौरान ये बातें भी खूब हुईं कि आम आदमा पार्टी ने बिजली दर आधी करने और हर घर को 7०० लीटर पानी देने जैसे जो चुनावी वादे किए हैं, उससे वह पूरा नहीं कर सकती है। क्योंकि ऐसा करना न तो संभव है और न ही व्यावहारिक। लिहाजा उसकी पूरी कोशिश होगी कि वह सरकार बनाने से बचे।
आप के नेताओं ने इस बदले राजनीतिक खेल को समझा।उसने तय किया कि वह इस पूरी स्थिति को एक बार फिर से जनता की अदालत में ले जाएगी और उससे ही पूछेगी कि क्या उसे सरकार बनानी चाहिए। जो खबरें हैं, उसमें आप ने दिल्ली में 25० से ज्यादा सभाएं की। जनता ने भारी बहुमत से आप को सरकार बनाने के लिए आगे बढ़ने को कहा। अब आप इस पॉलिटकल स्टैंड के साथ सरकार बनाने जा रही है कि वह किसी दल के समर्थन या विरोध के आधार पर नहीं बल्कि जनता की राय पर सरकार बनाने जा रही है।
इस पूरे घटनाक्रम में पहली नजर में एक गैरजरूरी नाटकीयता आप के नेताओं की तरफ से नजर आती है। एक बार चुनाव संपन्न हो जाने के बाद फिर से जनता के पास जाने का क्या तुक है? ऐसी दरकार हमारी संवैधानिक व्यवस्था की भी देन नहीं है। फिर भी ऐसा किया गया। दरअसल, इसका जवाब वे मुद्दे हैं जो गुजरे दो-तीन सालों में बार-बार उठे। लोकतंत्र में जनता की भूमिका सिर्फ एक दिनी मतदान प्रक्रिया में शिरकत करने भर से क्या पूरी हो जाती है? एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद सर्वोच्च संस्था है पर क्या उसकी यह सर्वोच्चता जनता के भी ऊपर है? क्या सरकार और संसद सिर्फ नीतियों और योजनाओं का निर्धारण जनता के लिए करेंगे या फिर इस निर्णय प्रक्रिया में जनता की भी स्पष्ट भागीदारी सुनिश्चत होनी चाहिए? केंद्रीकृत सत्ता लोकतांत्रिक विचारधारा के मूल स्वभाव के खिलाफ है तो फिर उसका पुख्ता तौर पर विकेंद्रीकरण क्यों नहीं किया जा रहा है? पंचायती राज व्यवस्था को अब तक सरकार की तरफ से महज कुछ विकास योजनाओं को चलाने की एजेंसी बनाकर क्यों रखा गया है, उसका सशक्तिकरण क्यों नहीं किया जा रहा है?
ऐसा लगता है कि आप स्थानापन्नता की राजनीति की बजाय विकल्प की राजनीति को एक स्वरूप देने के मकसद से आगे बढ़ना चाहती है। देश में साढ़े छह दशक से भी लंबे दौर में जो सियासी व्यवस्था जड़ जमा चुकी है, उसे एक भिन्न समझ के साथ देखने-समझने की तैयारी और उस ओर अग्रसर होना कोई आसान काम नहीं है। पर आज बदलाव की जमीन पर शुरुआती तौर पर एक दल और उससे जुड़े लोग खड़े हैं तो यह जाहिर करता है कि इस विकल्प के प्रति जनता के मन में भी छटपटाहट कम नहीं है।
जनता के बीच जनता की राजनीति को तो शक्ल लेना ही चाहिए। यही तो जनतंत्र की बुनियादी दरकार है। पिछले कुछ दशकों में जनता के नाम पर भले खूब राजनीति हुई और उसे अस्मितावादी तर्किक निकष पर कसने की भी खूब कोशिश हुई पर जनतांत्रिक व्यवस्था में आमजन की स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रतिभागिता की चुनौती को स्वीकार करने से सब बचते रहे। आज अगर आप की दिल्ली की सरकार को इस प्रतिभागिता को सुनिश्चत करने की क्रांतिकारी पहल की बजाय अगर महज बिजली-पानी के भाव के मुद्दे पर केंद्रित करने की कोशिश हो रही है, तो इसलिए क्योंकि लोकतंत्र की राजनीति करने वाले दूसरे किसी दल के पास यह नैतिक साहस नहीं है कि वह जनता के नाम पर नहीं बल्कि जनता के साथ मिलकर अपनी राजनीति का गंतव्य तय करे। बहरहाल, आप की पहल एक नई राजनीति की शक्ल पूरी तरह ले पाएगी, इसमें संशय अब भी काफी है। पर इन संशयों के धुंध के बीच से ही कुछ सुनहरी किरणें अगर फूट रही हैं तो यह देश के भावी राजनीतिक परिदृश्य के लिए एक शुभ संकेत है।
 

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

विसर्जन स्थापना की जरूरी शर्त नहीं


अस्मिता की राजनीति के दौर में भावनाओं के ज्वार खूब फूट रहे हैं। हर तरफ इस तरह के स्वर उठ रहे हैं कि फलां समुदाय के नेता के साथ तारीखी तौर पर अन्याय हुआ और अब उनके सही मूल्यांकन का समय आ गया है। किसी को स्थापित करने के लिए किसी को भंजित करना भी जरूरी होता है। सो हो यह रहा कि कई ऐतिहासिक नायकों के चेहरों पर कालिख पोती जा रही है। अस्मितावादी विमर्श में पिछले दो दशकों में ऐसी तमाम कोशिशों को एक बड़े अन्याय के खिलाफ खड़े होने का आधार माना जा रहा है। यह आधार अभिजात्यवादी या सवर्णवादी मानसिकता के खिलाफ सोशल चेंज -अब तो इसे सोशल इंजीनियरिंग तक कहा जा रहा है- का जरूरी औजार के तौर पर काम कर रहा है, ऐसा मानने वाले प्रगतिशील भी कम नहीं हैं। पर इस सोच का इस सवाल के बाद क्या मतलब रह जाता है कि बड़ी लकीर से आगे उससे बड़ी लकीर खिंचने की बजाय पहली खिंची लकीर के साथ ही काट-पीट क्यों?
कुछ विसर्जित होगा, भंजित होगा तभी नया कुछ स्थापित होगा, ऐसी सोच तो हिंसक ही मानी जाएगी। अंबेडकर के नाम पर सामाजिक न्याय की गोलबंदी ने समाज के जातीय तानेबाने को कैसे देखते-देखते वैमनस्य का नागफनी मैदान बना दिया, यह अनुभव हमारे सामने है। इसमें साफ होने की बात यह है कि जातीय विभेद अच्छी बात है, यह कोई नहीं कह रहा पर इसे मिटाने के नाम पर अगर सामाजिक समरसता का पारंपरिक आधार भी अगर दबता-मिटता चला जाए तो इस प्रतिवादी संतोष का हासिल क्या एक हिंसक नियति से ज्यादा रह जाता है।
अभी गुजरात के मुख्यमंत्री देश भर में घूम-घूमकर सरदार पटेल की दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा स्थापित करने के लिए देशभर के किसानों से लोहा दान देने की बात कह रहे हैं। पहली नजर में यह एक आदर्श राष्ट्रवादी सोच दिखती है। ऐसा अगर इस अभियान को लेकर अगर कोई सोचता है, तो वह गलत भी नहीं है। सरदार का भारत के एकीकरण और राष्ट्र के रूप में उसके निर्माण में एक बड़ा योगदान है। इस योगदान का स्मरण हमें अपने राष्ट्र के प्रति गर्वित करता है। पर बात यहीं खत्म होती तो गनीमत थी। हम अपने बाकी के राष्ट्र नायकों का स्मरण कैसे करते हैं और उनके शील और विचार हम पर कितना कारगर असर अब तक छोड़ते रहे हैं, यह सचाई भी हमारे सामने है। दिनकर ने इन्हीं स्थितियों को ध्यान में रखकर बहुत पहले लिखा- 'तुमने दिया देश को देश तुम्हें क्या देगा, अपनी ज्वाला तेज करने को नाम तुम्हारा लेगा।’
सरदार की विशालकाय प्रतिमा के स्थापना पर महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने पहले तो हर्ष जताया। कहा कि सरदार साहब का व्यक्तित्व ऐसा रहा, जिसके कारण पूरे देश का उनके प्रति स्नेह रहा। यह स्नेह अब और प्रगाढ़ हो रहा है, तो यह प्रसन्नता की बात है। पर जिस रूप में यह सब किया जा रहा है, वह सही नहीं है। इससे एक तो यह पूरा मिशन ही अपने रास्ते से भटकेगा, दूसरा इसकी देखादेखी एक होड़ पैदा लेगी बाकी नेताओं और प्रतीक पुरुषों की बड़ी से बड़ी प्रतिमा स्थापित करने की। इससे देश और समाज का कोई भला तो क्या होगा नुकसान भले बहुत ज्यादा हो जाएगा।
राजमोहन गांधी ने ये बातें किसी पक्षकार के नाते नहीं कही। बल्कि उन्होंने ये बातें किसी नाते कही तो वे सरदार के व्यक्तित्व और कृतित्व के मुरीद होने के नाते। वे उन दलीलों में भी नहीं उलझे कि अब क्यों अचानक उनके नाम पर राजनीति हो रही है। अगर सरदार 'भारत रत्न’ हैं तो उन्हें इस या उस दल का नेता बताने का क्या औचित्य है? फिर यह भी कहने का क्या मतलब कि अगर सरदार पटेल तब देश के प्रधानमंत्री बने होते तो देश की आज तस्वीर ही कुछ दूसरी होती। यह भी कि तब न पाकिस्तान हमारे लिए सिरदर्द बनता और न ही आतंकवाद हमारे लिए एक नासूरी समस्या बनता।
कुछ अर्से पहले जब कश्मीर वार्ताकारों की टीम ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी तो यह बहस छिड़ी कि क्या ऐतिहासिक घटनाक्रमों को बदला जा सकता है। इस बहस को आगे बढ़ाने की पैरोकारी करने वाले ही आज यह दलील दे रहे हैं कि सरदार को उनके दल ने पर्याप्त सम्मान और अवसर नहीं दिए। अलबत्ता यहां यह बात जरूर साफ होने की नहीं कि इतिहास कोई बंद किताब भी नहीं जो बस हमारी स्मृतियों के ताखे पर रखी रहे। इतिहास भविष्य के लिए हमारी आंखें हैं। हमारे संचित अनुभव हैं, जिससे भविष्य के मुहाने खोलने में हमें मदद मिल सकती है। इतिहास से मुठभेड़ भी होनी चाहिए क्योंकि यह एक गलत लीक को दुरुस्त करने की सबसे जरूरी दरकार है। पर इतिहास के प्रति कुढ़न और दुराग्रह का औचित्य कतई स्वस्थ नहीं हो सकता।
राजमोहन गांधी एक और खतरे की तरफ इशारा करते हैं। यह इशारा महिमा मंडन की राजनीति की तरफ है। ऐसी राजनीति शुरू तो होती है देश और समाज की नजर में किसी की शिनाख्त को और ज्यादा मुकम्मल करने, उसे और ऊपर उठाने के लिए। पर आगे चलकर यह कोशिश दूसरी तमाम शिनाख्तों को तहस-नहस करने की हिंसक सनक में बदल जाती है। सरदार का नाम ऐसे किसी सनक का हिस्सा बने, यह कौन चाहेगा। पर अगर ऐसा किसी पहल से हो जाने का खतरा है तो इसके बारे में सावधान तो रहना ही चाहिए।
एक बात और यह कि भारत की जिस सामासिक संस्कृति और परंपरा की बात की जाती है, वह सिर्फ जीवन, समाज या रहन-सहन से ही नहीं जुड़ा है। यह उस सोच को भी दर्शाता है जिसमें तमाम तरह के विचार और अनुशीलन एक साथ हमारे बीच अपना लोकतांत्रिक आधार विकसित करते हैं। समय के साथ इनमें से कई आधार दरकते चले जाते हैं तो कुछ और विस्तृत, और पुष्ट। अद्बैत से लेकर द्बैत तक की हमारी दार्शनिक समझ भी यही जाहिर करती है कि हम एक गंत्वय की तरफ शुरू से कई रास्तों से बढ़ते रहे हैं। विचार और आचरण के बीच विकल्प और स्वतंत्रता का खुलापन यह दिखाता है कि चयन और निर्णय करने की हमारी पूरी प्रक्रिया शुरू से खासी खुली और लोकतांत्रिक रही है। भारतीय सांस्कृतिक विमर्श में यह बहस खूब चली है कि एक ऐसी जागरूक चेतना और लोकतांत्रिक मानस से लैश देश-समाज को दशकों लंबी दासता का दंश आखिर क्यों झेलना पड़ा? इस सवाल को कुछ लोग इसका जवाब भी मानते हैं कि यह हमारी प्रखर चेतना की समन्वयी ताकत के ही बूते का था कि हम दासता की इतनी लंबी यातना के खिलाफ निर्णायक रूप से खड़े हो सके।
वैसे सरदार की प्रतिमा के बहाने अगर राष्ट्र निर्माण से जुड़ी तमाम तरह की चिंताओं-आशंकाओं का जाहिर होना एक तरह से शुभ लक्षण भी है। यह दिखलाता है कि राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया को लेकर हमारी चेतना कितनी गहरी, कितनी उर्वर और कितनी जिम्मेदार है। एक देश का इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि उसका भाल हमेशा तिलकित रहे और हमेशा चमकता रहा, इसके लिए उसकी संतानें इतनी विपुल आस्था के साथ विचार मंथन करती हैं।
 

मंगलवार, 26 नवंबर 2013

तहलकावादी तकनीक और मीडिया


तरुण तेजपाल जिस मामले में फंसे हैं, वह महिला अस्मिता से जुड़े कुछ जरूरी सामयिक सरोकारों की तरफ हमारा ध्यान तो ले ही जाता है, यह मीडिया के अंतजर्गत को भी लेकर एक जरूरी बहस छेड़ने का दबाव बनाता है। एक ऐसी बहस जिसमें खुद से मुठभेड़ करना का हौसला हो। मीडिया अगर खुद को देशकाल का आईना कहता है तो यह अपेक्षा तो उससे भी होनी चाहिए, वह इस आईने का इस्तेमाल खुद के लिए भी बराबर तौर पर करे। आईना अपनी तरफ हो या सामने की तरफ, सच को जैसे को तैसा देखने-दिखाने की उसकी फितरत नहीं बदलती। यह भी कि आईना कीमती हो या कम दामी, काम वह एक जैसा ही करता है। कृष्ण बिहारी नूर का एक शेर भी है-'चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो, आईना है कि झूठ बोलता ही नहीं।’
तरुण जिस तरह की पत्रकारिता के लिए जाने जाते हैं, उसमें तकनीक का बड़ा योगदान है। अब तक उन्होंने जो भी तहलका मचाया, वह तकनीकी मदद से ही संभव हुआ। लिहाजा, तकनीक के जोर पर चल रही पत्रकारिता के मानस को पढ़ने के लिए हमारे आगे कुछ बातें और स्थितियां साफ होनी चाहिए। दरअसल, सूचना के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के कारण मीडिया का अंतजर्गत वैसा ही नहीं रहा, जैसा इससे पूर्व था। यह फर्क इसलिए भी आया क्योंकि इसी दौर में बाजार ने प्रतिभा और विकास के साझे को अपनी ताकत बना लिया।
अस्सी-नब्बे के दशक में खोजी पत्रकारिता के दौर में जातीय और नक्सली हिंसा के साथ मुंबई जैसे शहरों में अंडरवर्ल्ड की रिपोर्टिंग के दौर के साझीदार और चश्मदीद अब भी कई लोग मीडिया क्षेत्र में विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं। ये लोग बताते हैं कि सत्य और तथ्य की खोज के पीछे की पत्रकारीय ललक का पूरा व्याकरण ही तब बदल गया, जब इस काम के लिए नई तकनीकों का इस्तेमाल शुरू हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि तकनीक का अपना रोमांच होता है और कई बार यह रोमांच आपको अपने मकसद से डिगाता है। आज के दौर में तौ खैर तकनीक और सूचना को एक-दूसरे से अलगाया ही नहीं जा सकता है।
बात करें न्यू मीडिया या सोशल मीडिया की तो यह अलगाव वहां भी मुश्किल है। इस मुश्किल को इस तरह भी समझने की जरूरत है कि एक ऐसे दौर में जब अरब बसंत जैसी क्रांति की बात होती है तो उसके पीछे का इंधन और इंजन दोनों ही तकनीक के जोर पर चलने वाला न्यू मीडिया ही है। यानी तकनीकी क्रांति की दुनिया अपने चारों तरफ एक क्रांतिकारी दौर की रचना प्रक्रिया का सीधा हिस्सा है, उसकी जननी है।
ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर और खुफिया कैमरों ने सचाई को जितना नंगा किया है, उससे पत्रकारिता के साथ सामाजिक अध्ययन की तमाम थ्योरीज बदल गई हैं। सच में निश्चित रूप से अपना-पराया जैसा कुछ नहीं होता, पर इसके समानांतर एक सिद्धांत निजता का भी है। निजता के दायरे में व्यक्ति, परिवार और समाज का कौन सा हिस्सा आए और कौन सा नहीं, इसको लेकर कोई स्पष्ट लक्ष्मण रेखा नहीं खींची गई है। यह हमारे दौर की एक बड़ी चुनौती है। क्योंकि निजता का भंग होना व्यक्ति की कई तरह की जुगुप्साओं को जन्म देता है। फिर आप सिर्फ सत्य का साक्षात्कार भर नहीं करते, बल्कि गोपन के भंग होने का अमर्यादित खेल देखने की लालच से भर उठते हैं।
निजी और सार्वजनिक जीवन को एक ही कसौटी पर खरे उतारने का जोखिम एक दौर में गांधी से लेकर उनके कई साथियों ने उठाई। सत्य के इस प्रयोग ने जीवनादर्श को एक बड़ी ऊंचाई दी। पर यह समय और समाज का संस्कार नहीं बन सका। ऐसे में मानवीय दुर्बलताओं को स्वाभाविक मानकर चलने की समझ ही ज्यादा काम आई। इसे ही न्याय और विधान की व्यवस्थाओं में भी स्वीकारा गया। पर अब एक नई स्थिति है। 'द वर्ल्ड इज फ्लैट’ के रचयिता थॉमस फ्रिडमैन बताते हैं कि सूचना के उपकरण मनुष्य की स्वाभाविकता को बदलने वाले औजार तो हैं ही, ये बाजारवादी पराक्रम के बलिष्ठ माध्यम भी हैं। यह एक खतरनाक स्थिति है। खतरनाक इसलिए क्योंकि इस स्थिति के बाद स्वविवेक के लिए कुछ भी शेष नहीं रहा जाता। यों भी कह सकते हैं नए समय की पटकथा पहले से तय है, इसमें बस हमें यहां-वहां फिट भर हो जाना है, वह भी इतिहास और समाज के अपने अब तक को बोध को भूलकर।
तरुण तेजपाल तहलका की तरफ से गोवा में जो बौद्धिकीय विमर्श का आयोजन करा रहे थे, उसमें एक मुद्दा आधुनिक दौर में महिला अस्मिता की चुनौतियां भी था। दरअसल, आधुनिकता के खुले कपाटों में महिलाएं भी पुरुषों के साथ ही दाखिल हो रही हैं। लिहाज, लैंगिक स्तर पर उनके बीच मेलजोल के नए सरोकार विकसित हुए हैं। इसने एक तरफ स्त्री-पुरुष संबंधों की नई दुनिया रची है तो असुरक्षा का एक नया वातावरण भी पैदा हुआ है। निर्भया कांड को सामने रखकर समझना चाहें तो यह असुरक्षा बर्बरता की हद तक जाता है। नीति और विधान की नई व्याख्या और दलीलों के बीच इस बर्बरता का बढ़ता रकबा एक बड़ा खतरा है। डॉ. धर्मपाल के शब्दों में यह 'भारतीय चित्त, मानस और काल का नया यथार्थ’ है। ऐसा यथार्थ जिसका पर्दाफाश तेजपाल सरीखे लोग पारदर्शिता के नाम पर नीति और व्यवस्था से जुड़े बड़े जवाबदेह लोगों के जीवन के निजी एकांत तक पहुंच कर करते रहे हैं।
तकनीक के साथ एक विचित्र स्थिति यह भी है कि वह नैतिकता का कोई दबाव अपनी तरफ से नहीं बनाता है। ईमेल और सीसीटीवी फुटेज के जरिए जो सच अब तेजपाल को मुश्किल में डाल रहा है, उसमें तकनीक का अपना पक्ष तटस्थ है। यहां नैतिकताएं वही आड़े आ रही हैं, जो तेजपाल सरीखे नंगे सच के हिमायतियों ने खुद रचा है। जिन सवालों और तकाजों पर वे दूसरों को नंगा करते रहे हैं, वही सवाल और तकाजे अब उन्हें नहीं बख्श रहे।
यह स्थिति आंख खोलने वाली है। तकनीक के जोर पर बदलाव की संहिताएं रचने वाली पत्रकारिता भी एक ढोंग हो सकती है, इसका इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि आईना लेकर 'अंत:पुर’ तक दाखिल होने वाले खुद अपने अंत:पुर में शर्मनाक हरकतों के साथ पकड़े जा रहे हैं। गनीमत मानना चाहिए कि पर्दाफाश और सनसनी मार्का पत्रकारिता अब भी हिंदी या भारतीय पत्रकारिता का मूल स्वभाव नहीं है। खोजी दौर में सचाई को उसके मर्म के साथ सामने लाया गया था। दलित बस्तियों के कई मातमी विलापों को आज अगर हम एक विमर्शवादी अध्याय की तरह देख पा रहे हैं तो उसके पीछे इस तरह की पत्रकारिता का बहुत बड़ा हाथ है। पर सूचना को सनसनी और सत्य को महज तथ्य की तरह पेश करने की हवस ने न तो देश और समाज के आगे नीति और आचरण के कोई मानक रचे और न ही इससे पत्रकारिता धर्म का ही कोई कल्याण हुआ। यह एक मोहभंग की भी स्थिति है, जिसमें बदलाव का मुगालता पेश करने वाली कई कोशिशंे एक के बाद एक पिटती नजर आ रही हैं।
गुलामी के दौर में आजाद तेवर स्वतंत्र चेतना की लौ जगाने वाली पत्रकारिता के विरासत के बाद यह एक भटकाव की भी स्थिति है। आखिर में यही कि पत्रकारिता की तकनीक का परिष्कार तो जरूर हो पर तकनीक के परिष्कार को पत्रकारिता मान लेने के जोखिम को भी समझना चाहिए। क्योंकि इसमें तात्कालिक खलबली से आगे न तो कुछ पैदा किया जा सकता है, न ही हासिल। उलटे नौबत यहां तक आ सकती है कि खलबली के शिकार हम खुद हो जाएं। अरब बसंत के पत्ते भी अगर देखते-देखते झरने शुरू हो गए हैं तो इसी लिए कि इसमें बदलाव का यथार्थ तात्कालिक से आगे स्थायी नहीं बन सका।

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सोमवार, 19 अगस्त 2013

ई-आजादी को सलाम!


देश में आजादी के मायने अब नए मुकाम पर हैं, उतने संकुचित नहीं जितने पिछले दशक तक थे। सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की आजादी को नए आयाम दिए हैं। दुराग्रह के दौर में अन्ना हजारे के सत्याग्रह की बात हो या फिर जनता और संसद के बीच लोकतांत्रिक सर्वोच्चता पर बहस, पिछले दो-तीन सालों में इनकी जड़ में ई-आजादी यानी सोशल मीडिया ही रहा।
अरब बसंत की सफलता-विफलता से अलग है भारत में सोशल मीडिया का विस्तार और इस्तेमाल। कुछ साइबर पंडितों की नजर में भारत में ई-क्रांति का संदर्भ ज्यादा मौलिक और भरोसेमंद है। तहरीर चौक की क्रांति की मशाल अभी बुझी भी नहींं कि प्रतिक्रांति की लपट ने पिछली सारी इबारतें उलट दीं।
अभी उत्तराखंड में जो विपदा आई, उसमें देश के किसी नेता या दल से ज्यादा जवाबदेह भूमिका रही सोशल मीडिया की। इसने न सिर्फ आपदाग्रस्त इलाके की खबर दी बल्कि घर-परिवार से बिछड़े लोगों को मिलवाने में भी बड़ी भूमिका अदा की। खुद उत्तराखंड के लोग सामने आए और उन्होंने फेसबुक पेज और ब्लॉग संपर्क के जरिए लोगों की मदद के लिए राशि जुटाई।
इसके अलावा पिछले साल 16 दिसंबर को दिल्ली में चलती बस में गैंगरेप की घटना के बाद सोशल मीडिया यानी अभिव्यक्ति की उन्मुक्त आजादी ने सरकार के घुटने टिकवा दिए। उसने महिला सुरक्षा को लेकर सरकार को सख्त कानूनी पहल करने के लिए बाध्य किया।
दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन के बाद दलित लेखक कंवल भारती की सरकार विरोधी टिप्पणी पर उनकी गिरफ्तारी का मामला हो या बाला साहब ठाकरे के निधन के बाद दो लड़कियों की टिप्पणी पर उनके खिलाफ भड़का सरकारी आक्रोश, सत्ता और सियासत को ये ई-मुखरता रास नहीं आती। केंद्र सरकार तक के स्तर पर सोशल मीडिया की मुखरता पर पहरे बैठाने की कोशिशें अगर चलती रही हैं, तो उसकी भी यही वजह है। पर स्वतंत्रता के इस पर्व पर ई-आजादी से आ रहे बदलाव को भी सलाम करना चाहिए।

रविवार, 28 जुलाई 2013

आसां नहीं होना हबीबा

महिलाओं और बच्चों के छोटे-छोटे समूह। उनके बीच कभी पैदल तो कभी किसी दूसरे साधन से पहुंचने वाली महिला। देखने में किसी आम अफगानी महिला की तरह। बातचीत भी तकरीबन वैसी ही। पर कुछ समय साथ गुजारें और थोड़ी गुफ्तगू करें तो मालूम पड़ेगा कि राष्ट्र और संस्कृति से प्रेम का क्या मतलब क्या है। हम बात कर रहे हैं अफगानिस्तान के बामियान सूबे की गवर्नर हबीबा सराबी की। अफगानिस्तान में हबीबा आज उस मुहिम का नाम है जो अपने मुल्क को युद्ध और आतंक की बजाय जीवन, प्रकृति और संस्कृति की संपन्नता की शिनाख्त दिलाना चाह रही है।
हबीबा के जीवन में संघर्ष और उपलब्धि का साझा काफी पहले से रहा है। उनकी तरफ दुनिया की दिलचस्पी तब एकदम से बढ़ गई जब यह खबर आई कि उन्हें इस साल के लिए रेमन मैग्सेसे एवार्ड के लिए चुना गया है। हबीबा अफगानिस्तान के अशांत रहे सूबों में से एक बामियाम की गवर्नर हैं पर उन्हें यह सम्मान इस कारण नहीं मिला है। रेमन मैग्सेसे एवार्ड फाउंडेश्न की नजर में एक मानवाधिकारवादी कार्यकताã के रूप में उनकी कोशिशें काबिले तारीफ है। वह युद्ध, आतंक और दमन के लंबे दौर से गुजरे देश में सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को फिर से खड़का करने में लगी हैं। वे कहती हैं यह बड़ा और सबसे जरूरी काम है। जिसे सिर्फ सरकारी घोषणाओं और योजनाओं के बूते नहीं किया जा सकता है। इसके लिए तो पहले लोगों के टूटे हौसले के बहाल करना होगा। व्यक्ति को सामाजिक बहुलता की इकाई में ढालना होगा। हबीबा एक महिला होने के नाते यह भी बखूबी समझती हैं कि आतंक और युद्ध की विभिषिका ने अगर सबसे ज्यादा असर डाला है तो वह अफगानी महिलाओं और बच्चों के जीवन पर। वैसे भी अफगानी समाज पर पारंपरिकता और रूढ़ता इतनी हावी रही है कि ग्लोबल दौर से ये कई दशक पीछे हैं।
हबीबा 2००5 में गर्वनर नियुक्त होने से पहले अफगानिस्तान सरकार में महिला मामलों के साथ शिक्षा और संस्कृति विभाग की मंत्री थी। देश में जब तालिबानी आतंक का दौर कुछ कमजोर पड़ा तो राष्ट्रपति हामिद करजई ने हबीबा के मानवाधिकारवादी प्रयासों को महत्वपूर्ण माना। भूले नहीं हैं लोग कि एक दशक पहले बामियान में बुद्ध की प्रतिमाओं को तालिबानियों ने नुकसान पहुंचाया था। यह एक बर्बर हिमाकत थी शांति और समन्वयी रचना प्रक्रिया से बने अफगानी समाज में सांप्रदायिकता का जहर घोलने की, उसे एक उन्मादी मकसद की तरफ ले जाने की। आज उसी बामियान सूबे में हबीबा एक गवर्नर से ज्यादा एक शांति कार्यकताã के रूप में कार्य कर रही हैं। हबीबा के लिए यह काम थोड़ा चुनौतीपूर्ण भी है क्योंकि वह अल्पसंख्यक हजारा समुदाय से आती हैं।
हबीबा ने अपनी पांच दशक से ज्यादा लंबी जीवनयात्रा में एक तो यात्राएं काफी की हैं, दूसरे तालीम की अहमियत को उन्होंने बखूबी समझा। वह एक अच्छी हिमोटोलॉजिस्ट हैं और डॉक्टरी की इस पढ़ाई को पूरा करने के लिए उन्हें विश्व स्वास्थ्य संगठन से फेलोशिप तक मिला। पर एक पेशेवर डॉक्टर के रूप में काम करना इस शांति कार्यकताã को कभी नहीं भाया। 1998 के आसपास जब तालिबानियों का कहर काफी बढ़ गया तो हबीबा को पाकिस्तान में पेशावर के शरणार्थी शिविर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान उनके पति काबुल में रह गए बाकी परिवार की देखभाल के लिए।
आज जब अफगानिस्तान में अशांति का दौर थोड़ा पीछे छूटता दिखता है तो इस संघर्षशील अफगानी महिला की कोशिश है कि उनका मुल्क दुनिया के बाका देशों के बीच अपवाद के रूप में न देखा जाए। इसके लिए वह अफगानी समाज, संस्कृति और प्रकृति को फिर से सींचने में जुटी हैं।
-प्रेम प्रकाश


रविवार, 9 सितंबर 2012

सोशल मीडिया को अराजक कहने से पहले

सरकार ने एकाधिक मौकों पर यह चिंता जाहिर की है कि सोशल मीडिया का अराजक इस्तेमाल खतरनाक है और इस पर निश्चित रूप से रोक लगनी चाहिए। हाल में असम हिंसा में अफवाह और भ्रामक सूचना फैलाने के पीछे भी बड़ा हाथ सोशल मीडिया का रहा है, यह बात अब विभिन्न स्तरों पर पड़ताल के बाद सामने आई है। इसी तरह का एक दूसरा मामला है, जिसमें पता चला कि लोग पीएमओ के नाम पर ट्वीटर पर फेक एकाउंट खोलकर लोगों में भ्रम फैला रहे हैं। इससे पहले सरकार ने शीर्षस्थ नेताओं को लेकर आपत्तिजनक गुस्से को लेकर इस तरह की साइट चलाने वाले फर्मों को नोटिस तक थमाया था। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि सोशल मीडिया पर सरकार की नीति और कार्यक्रमों पर टिप्पणी की तल्खी अब बढ़ती जा रही है। इसका फायदा अन्ना आंदोलन को भी मिला। आंदोलन की रणनीति बनाने वालों ने लोगों को सड़क पर उतारने के लिए एसएमएस के अलावा सोशल मीडिया का जबरदस्त इस्तेमाल किया। 
बहरहाल, सरकार एक बार फिर जहां साइट प्रबंधनों को इस बाबत चेताने की सोच रही है, वहीं वह अपने उन तामम विभागों को जो सोशल साइटों का किसी भी रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं, उन्हें ताकीद किया है कि वे इन पर गोपनीय व अपुष्ट तथ्य न डालें। सवाल यह है कि क्या साइबर क्रांति की देन अभिव्यक्ति की इस नई स्वतंत्रता के खतरे क्या आज सचमुच इतने बढ़ गए हैं कि बार-बार उस पर नकेल कसने की बात उठने लगी है।
दरअसल, सोशल मीडिया के स्वरूप और विस्तार को लेकर पिछले कुछ सालों में कई स्तरों पर बहस चल रही है। एक तरफ अरब मुल्कों का अनुभव है, जहां आए बदलाव के 'वसंत' का यह एक तरह से सूत्रधार रहा तो वहीं अमेरिका की इराक, ईरान और अफगानिस्तान को लेकर विवादास्पद नीतियों पर तथ्यपूर्ण तार्किक अभियान पिछले करीब एक दशक से 'न्यू मीडिया' के हस्तक्षेप को रेखांकित कर रहा है। इसके अलावा मानवाधिकार हनन से लेकर पर्यावरण सुरक्षा तक कई मुहिम पूरी दुनिया में अभिव्यक्ति के इस ई-अवतार के जरिए चलाई जा रही है। ऐसे में यह एकल और अंतिम राय भी नहीं बनाई जा सकती कि सोशल नेटवर्किंग साइटों का महज दुरुपयोग ही हो रहा है।
समाज और सोच की विविधता का अंतर और असर सिनेमा से लेकर साहित्य तक हर जगह दिखता है। यही बात सोशल मीडिया को लेकर भी कही जा सकती है। फिर जिस रूप में भूगोल और सरहद की तमाम सीमाएं लांघकर इसका विकास और विस्तार हो रहा है, उसमें इसके कानूनी दायरे को स्पष्ट रूप से रेखांकित कर पाना भी किसी देश के अकेले बूते की बात नहीं है। कोशिश यह होनी चाहिए की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस बड़े जरिए को लेकर दुनिया के तमाम देश मिलकर एक साथ मिल-बैठकर कोई राय बनाएं। यहां यह भी गौरतलब है कि अभिव्यक्ति की आजादी का मुद्दा आज एक तरफ अत्यंत मुखरता के कारण चर्चा में है तो वहीं जन-अभिव्यक्ति और जनपक्षधरता की अभिव्यक्ति की गर्दन पर फांस चढ़ाने की कोशिश दुनिया की कई लोकप्रिय सरकारें कर रही हैं। ऐसे में नियम-कायदों की कमान थामने वालों को भी अपने चरित्र से कहीं न कहीं यह दिखाना होगा कि अपनी जनता के बीच उतना इकबाल इतना भी कमजोर नहीं कि उसे कुछ क्लिक और कुछ पोस्ट डिगा दें।   

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

मेरे अंदर एक कायर टूटेगा

क्या आपने कभी ऐसे सोचा है कि सचाई से ज्यादा मक्कारी हमारे जेहन और चिंतन को क्यों घेरता है। अपने हिस्से के अंधेरे को दूर करने की बजाय हम आसपास के अंधेरे को लेकर आलोचकीय प्रबुद्धता क्यों दिखाते हैं। बिजली के लट्टुओं ने भले चिराग तले अंधेरे के मुहावरे को खारिज कर दिया हो पर नए दौर के टॉर्च वियररों की जमीरी बेईमानी को देखकर इस मुहावरे का विकसित और आधुनिक भाष्य समझ में आता है। आज की तारीख में भ्रष्टाचार अगर सबसे बड़ा मुद्दा है तो इसकी असली वजह महज न तो सिविल सोसाइटी की मुहिम है और न ही कोई राजनीतिक-सामाजिक जागरूकता। दरअसल, पिछले छह दशकों में सरकार, राजनीति, प्रशासन और न्याय प्रक्रिया के जो अनुभव आम आदमी के हिस्से आए हैं, उसमें सदाचार की भारतीय संस्कृति के सच को नंगा करके रख दिया है। यह नंगापन पिछले तीन दशकों के उदारवादी दौर में सबसे ज्यादा बढ़ा है।
व्यक्ति और समूह से शुरू हुए लालच और भ्रष्टाचार का अपने यहां जहां अपना वर्ग चरित्र है, वहीं शिक्षा, शहरीकरण, आमदनी और आधुनिकता जैसे भ्रष्टाचार निरोधी तर्क भी कहीं से कारगर नहीं मालूम पड़ते। दरअसल, अहम यह नहीं है कि हम भ्रष्टाचार के मुद्दे के साथ हैं कि नहीं। असली सवाल इस जुड़ाव के वाह्य या आंतरिक होने को लेकर है। ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल के एक हालिया सर्वे में भारतीयों ने खादी और खाकी को भ्रष्टाचार की वर्दी करार दिया है। सेवा और स्वाबलंबन की सूत से कभी भ्रष्टाचार की कताई भी हो सकती है, यह बात गांधी को पता होती तो उनका चरखा भी शायद ही घूमता।
खद्दर और खाकी को लेकर जनमानस की पीड़ा और रोष को समझा जा सकता है। पर इस सर्वे में दर्ज यह भी हुआ है कि भ्रष्टाचार से भिड़ने की बजाय उसके आगे घुटने टेकने की हमारी लाचारी भी पिछले सालों में बढ़ी है। भ्रष्टाचार की काली स्लेट पर सदाचार उकेरने में उत्साही लोगों को भी यह समझ तो होगी कि इसकी शुरुआत शिकायत से नहीं पश्चाताप और सत्याग्रह से ही संभव है। ऐसी शिकायत करते हुए सामने की तरफ उठने वाली एक अंगुली अगर तनी है तो बाकी की दिशा भी किस तरफ है, यह नहीं भूलना चाहिए।
दरअसल, भ्रष्टाचार को लाचारी की स्वाभाविक परिणति बताकर हम अपने हिस्से के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष को स्थगित कर देते हैं। यह स्थगन एक बड़े मुद्दे के हल को रोष और प्रचार के खल में किस तरह बदल देता है, यह अनुभव देश आज संसद से लेकर सड़क तक कर रहा है। दिलचस्प है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ सच बयानी को लेकर एक टीवी रियलिटी शो भी शुरू हुआ है। जहां अपने भ्रष्ट कर्मों के प्रायश्चित के लिए लोग कैमरे के सामने आ रहे हैं और इनामी साहस के साथ बता रहे हैं कि उन्होंने लालच में आकर क्या-क्या और कितने गलत काम किए हैं। दरअसल, आत्मप्रतीति के ऐसे इसी तरीके की नाटकीयता की मांग करते हैं जबकि साध्य और साधन की शुद्धता का सत्याग्रह प्रशांत धैर्य और चिंतन की दरकार रखता है।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की शब्दावली में आधुनिक समय में परिवर्तन का इतिहास रातोंरात नहीं रचा जा सकता बल्कि इसकी प्रक्रिया 'व्यक्तित्वांतरण' की इकाई से शुरू होकर समय और समाज की दहाई, सैकड़े-हजार तक पहुंचेगी। पूरी दुनिया में परिवर्तन की परतें उतनी नहीं जमीं जितनी उनके नाम पर तारीखें दर्ज हैं। लिहाजा, भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को परिवर्तन की ऐसी एक और तारीख के रूप में हम देखना चाहते हैं तो यह इतिहास आज अपने देश में जरूर लिखा जा रहा है। पर इसके बाद भ्रष्टाचार का मर्ज हमारे सलूक और सिस्टम से बाहर हो जाएगा, इस दावे को लेकर सोचना भी मूढ़ता होगी। व्यक्ति के सदाचार का अपना कद जब तक नहीं उठता, भ्रष्टाचार का दैत्याकार हमेशा हमें डराता और हमारा मुंह चिढ़ाता रहेगा।
साफ है कि यह लड़ाई बाहरी नहीं बल्कि भीतरी है। अब तक इस लड़ाई को हम बाहरी मैदान पर खूब बहादुरी से लड़ रहे हैं। पर यह बहादुरी खुद से मुंह चुराने की चालाकी ज्यादा साबित हो रही है। जब तक पाप और संताप के भीतरी ताप में हम डूबे-उतराएंगे नहीं, भ्रष्टाचार भले कहीं से मिटे हमारे अंदर जिंदा और जावेद रहेगा। इसलिए सड़कों पर मुट्ठियां लहराने और नारों के शोर को हम कहीं और नहीं खुद तक पहुंचने का जरिया मानें क्योंकि तब... 'न टूटे तिलिस्म सत्ता का, मेरे अंदर एक कायर टूटेगा।' (कुछ तो होगा/ रघुवीर सहाय)  

रविवार, 28 अगस्त 2011

शुक्रवार, 26 अगस्त 2011

आंदोलन की बहुरंगता को बदरंग देखना


अंग्रेजों ने भारत को कभी संपेरों और भभूती साधुओं का देश कहा था। आज भी दुनियाभर के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों के बीच इस देश की रचना और चेतना को लेकर कई समानान्तर मत हैं। खुद अपने देश को देखने की जो समझ हमने पिछले छह दशकों में गढ़ी है, वह भी या तो कोरे आदर्शवादी हैं या फिर आधी-अधूरी। ऐसी ही एक समझ यह है कि भारत विविधताओं के बावजूद समन्वय और समरसता का देश है। ये बातें छठी-सातवीं जमात के बच्चे अपने सुलेखों में भले आज भी दोहराएं पर देश का नया प्रसंस्कृत मानस इस समझ के बरक्स अपनी नई दलील खड़ा कर रहा है।
असल में अपने यहां देश विभाजन की बात हो या सामाजिक बंटवारे की, राजनीतिक तर्क पहले खड़ा हुआ और बाद में सरजमीनी सच को उसके मुताबिक काटा-छांटा गया। मजहबी और जातिवादी खांचों और खरोचों को देश का इतिहास छुपा नहीं सकता पर यह भी उतना ही बड़ा सच है कि इन्हें कम करने और पाटने की बड़ी कोशिशों को देश की सामाजिक मुख्यधारा का हमेशा समर्थन मिला है। और इस समर्थन के जोर पर ही कभी तुलसी-कबीर का कारवां बढ़ा तो कभी  गांधी-लोहिया-जयप्रकाश का। बीच में एक कारवां विनोबा के पीछे भी बढ़ा, पर उनके भूदान आंदोलन की सफलता अपने ही बोझ से दब गई और बाद में इस सफलता के कई अंतर्द्वंद भी सामने आए। अभी देश में पिछले कुछ महीनों से जब भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश सड़कों पर उमड़ना शुरू हुआ है तो इस आक्रोश की वजहों को समझने के बजाय इसके चेहरे को पढ़ने में नव प्रसंस्कृत और प्रगतिशील मानस अपनी मेधा का परिचय दे रहा है। 
जनलोकपाल बिल के माध्यम से भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम को देखते-देखते आजादी की दूसरी लड़ाई की शिनाख्त देने वाले अन्ना हजारे आज की तारीख में देश का सबसे ज्यादा स्वीकृत नाम है। गांधीवादी धज के साथ अपने आंदोलन को अहिंसक मूल्यों के साथ चलाने वाले हजारे का यह चरित्र राष्ट्र नेतृत्व का पर्याय बन चुका है तो इसके पीछे उनका जीवनादर्श तो है ही, वे प्रयोग भी हैं जिसे उन्होंने सबसे पहले अपने गांव समाज में सफलता के साथ पूरे किए। लिहाजा, यह सवाल उठाना कि उनके साथ उठने-बैठने वालों और उनके आह्वान पर सड़कों पर उतरने वालों में दलित या मुस्लिम समुदाय की हिस्सेदारी नहीं है, यह एक आंदोलन को खारिज करने की ओछी हिमाकत से ज्यादा कुछ भी नहीं।
भूले नहीं होंगे लोग कि इसके पहले जब हजारे के जंतर मंतर पर हुए अनशन के बाद सरकार सिविल सोसायटी के साथ मिलकर लोकपाल बिल के बनी संयुक्त समिति के सोशल कंपोजिशन पर भी सवाल उठाए गए थे। अब जबकि रामलीला मैदान में हजारे के अनशन और उनकी मुहिम के समर्थन में देश के तमाम सूबों और तबकों से लोग घरों से बाहर आए हैं, तो 'तिरंगे' के हाथ-हाथ में पहुंचने और 'वंदे मातरम' के नारे के आगे मजहबी कायदों की नजीर रखी जा रही है। आरोप और आपत्ति के ये स्वर वही हैं, जिन्हें पेशेवर एतराजी होने फख्र हासिल है।
बहरहाल, जिन लोगों को लगता है कि महाराष्ट्र के एक गांव रालेगण सिद्धि से चलकर दिल्ली तक पहुंचे अन्ना हजारे के आंदोलन को समाज के हर तबके का समर्थन हासिल नहीं है, उन्हें अपने जैसे ही कुछ और आलोचकों की बातों पर भी गौर करना चाहिए। कहा यह भी जा रहा है बाजार के वर्चस्व और साइबर क्रांति के बाद देश में यह पहला मौका है जब जनांदोलन का इतना बड़ा प्रकटीकरण देखने को मिला है। यही नहीं इसमें शामिल होने वालों में ज्यादातर संख्या ऐसो लोगों की है, जिन्होंने आज तक किसी मोर्चे, किसी विरोध प्रदर्शन में हिस्सा नहीं लिया। लिहाजा यह देश की लोकतांत्रिक परंपरा का एक नया सर्ग भी है, जिसकी लिखावट में समय और समाज के के नए-पुराने रंग शामिल हैं। इस बहुरंगता को बदरंग होने से बचाना होगा।

बुधवार, 13 जुलाई 2011

...तो यशपाल भी करने लगे आंदोलन की बात


सूचना और जानकारी का जितना बोझ आज हम अपने माथे पर धो रहे हैं, उतना इससे पहले शायद ही कभी हमारे पूर्वजों ने ढोया है। यही तो इंफोरमेशन एज का फिनोमेना कि सब सर्वाधिक सूचित हैं। ग्लोबली कनेक्ट रहने की दरकार आज हमारी जरूरत में शुमार है, कम से कम 21वीं सदी का एक जागरूक शहरी नागरिक समाज तो आज जरूर ऐसा कहने और मानने लग गया है। दिलचस्प है कि इस सब में 'ज्ञान' की को कुछ ज्यादा ही आधुनिक हवाओं से मुठभेड़ करना पड़ा और अब इस ज्योति को दोबारा जलाने का जोखिम अव्वल तो कोई लेना नहीं चाहता और अगर लेना चाहे भी तो उसे पुरा प्राच्य संस्कार का अघोरपंथी करार देने वालों की कमी नहीं होगी।
ज्ञान को शिक्षा की औपचारिकता में देखने के हिमायती तो पहले से ही थे। हाल के दशकों में तो ह्यूमन रिसोर्स जैसे पेशवर शब्द इसके लिए ज्यादा सटीक मानकर चल रहे हैं। दरअसल, यह फर्क सिर्फ नजरिए या समझदारी का नहीं, उस दौर का भी है जहां अकेली नियामक शक्ति बाजार है। शिक्षा के कैंपसी और सिलेबसी ढांचें में कई परिवर्तनों के वाहक और कारक रहे प्रो. यशपाल को भी आज लगता है कि जो स्थिति है, उसमें महज सुधारात्मक पहलों से काम नहीं चलेगा बल्कि शिक्षा को लेकर एक स्वतंत्र आंदोलन की दरकार है। गौरतलब है कि  ऐसा कहने वाले यशपाल इतिहास में अकेले शख्स नहीं हैं।
गांधी को उनके सर्वोदयी या रचनात्मक अभिक्रमों के लिए याद करने वालों को पता होगा कि आजादी का अलख जगाने वाले राष्ट्रपिता ने बुनियादी तालीम जैसी अवधारणा आजादी से पहले रखी। यह बात दीगर है कि इस लीक को आगे बढ़ाने वाले तपे-तपाए लोग तो कई आए पर कोई बड़ा आंदोलनात्मक आरोहण सिरे नहीं चढ़ सका। जमनालाल बजाज सम्मान से सम्मानित सर्वोदयी कार्यकर्ता प्रेम भाई तो कुछ दशक पहले तक देश में अक्षर सेना के अभिनव संकल्प को पूरा करने में लगे थे। दुर्भाग्य से संकल्प पूरा होने से पहले ही उनकी आयु पूरी हो गई। आज आलम यह है कि शिक्षा के संस्थान कम दुकान और ठीए ज्यादा हैं। देशभर में चल रही 500 यूनिवर्सिटी और 31 हजार कॉलेज में से 60 फीसद अवैध हैं क्योंकि राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रतिबद्धता परिषद (नैक) ने इन्हें मान्यता के काबिल नहीं समझा है। काले धन की तर्ज पर कहना होगा तो कहेंगे कि देशभर में काली तालीम का धंधा धड़ल्ले से चल रहा है। सरकारी स्कूल-कालेजों के खस्ताहाल होते जाने का फायदा निजी संस्थान उठा रहे हैं और सरस्वती के मंदिरों में धूप-धुम्मन करने का बीड़ा लक्ष्मी के उल्लुओं ने उठा लिया है। 
देश के रचनात्मक निर्माण को लेकर आजीवन संघर्ष करने वाले आचार्य राममूर्ति अकसर इस बहस की गुत्थी को सामाजिक कार्यकताओं के आगे खोलते थे कि पहले शिक्षा या पहले जागरूकता। यह सवाल पहले अंडा कि पहले मुर्गी जैसा है। राममूर्ति जी गुत्थी की फांस खोलते हुए समझाते थे कि दोनों एक-दूसरे से सर्वथा जुदा नहीं, इसलिए पहले कौन का सवाल नहीं। एक जागरूक और शिक्षित समाज का निर्माण दरअसल एक ऐसा लक्ष्य है जिसके लिए पहल एक साथ जरूरी है।
आज सरकार के तमाम मिशनों और कमीशनों की फाइल एक तरफ सरकाते हुए प्रो. यशपाल अगर शिक्षा के लिए क्रांति की बात कर रहे हैं तो उसके पीछे वजह यह है कि जिज्ञासा, शोध और  अविष्कार का सामाजिक रिश्ता कहीं खो सा गया है और जो समाने आया है, वह है करियर, ग्रोथ और सक्सेस जैसे बाजारवादी रास्ते और लक्ष्य। लिहाजा, अगर इस बदले रास्ते और मंजिल के अनुभव अगर अब सचमुच हमें सालने लगे हैं और हम इनसे वाकई उबरना चाहते हैं तो इसके लिए एक क्रांतिकारी संकल्प की दरकार होगी। पर जो स्थिति है, उसमें यह मानना मुश्किल है कि करेज फॉर करियर और पैशन फॉर सक्सेस की युगलबंदी का हॉट रोमांस ठंडा पड़ने लगा है। सो ज्ञान के पिपासुओं को अभी कुछ और दिन पानी से गला तर करने की बजाय रेत ही फांकना पड़ेगा।

शुक्रवार, 24 जून 2011

देस में मना परदेस में अन्ना : दैनिक जागरण में

पूरबिया का आलेख

देस में मना परदेस में अन्ना: दैनिक जागरण में ‘पूरबिया’

 ...जिस अन्ना हजारे को अपने देश में और अपनी सरकार से अपनी बातें कहने-मनवाने के लिए 98 घंटे का अनशन करना पड़ा, उसी को लेकर सरकार को जब देश के बाहर अपनी बातें कहनी होती है तो वह इसे किसी टकराव या मतभेद के बजाय बहुदलीय लोकतंत्र प्रणाली का नया आयाम बताती है...

22 जून 2011 को दैनिक जागरण, राष्ट्रीय संस्करण के नियमित स्तंभ ‘फिर से’ में