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बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

मारे जाएंगे


अलंकरण समारोहों में
गुलदस्तों का भार उठाना
कितनी बड़ी कृतज्ञता है
विनम्रता है कितनी बड़ी
अपने समय के प्रति

हमारे समय के सुलेखों
आैर पुस्तकालय के ताखों पर रखे
अग्रलेखों ने
लेख से ज्यादा बदली है लिखावट
उतनी ही जितनी
उनकी बातें सुनकर
महसूस होता है
श्रोताओं की पहली, दूसरी आैर
अंतिम कतार को

ऐतिहासिक होने का उद्यम
श्रीमान होने के करतब का
सबसे खतरनाक पक्ष है
समय की धूल पोंछकर
हाथ गंदा करने का जमाना लद गया
अब तो समय को सबसे क्रूरता से
बांचने वालों की सुनवाई है

कलम ने कुदाल की तौहीनी
भले न की हो
पर खुद को मटमैला होने से
भरसक बचाया है
हम जिन बातों पर रो सकते थे
सिर फोड़ सकते थे आपस में
कैसा तिलस्मी असर है इनका
कि हम बेवजह हंस रहे हैं
रो रहे हैं
जबकि हमें भी मालूम है
कि हम पूर्वजन्म से लेकर
पुनर्जन्म तक जागे ही नहीं
बस सो रहे हैं

मंचासीन जादूगरों के डमरू पर
डम-डम-डिगा-डिगा गाने वाले
जादू का खेल देखकर ताली बजाने वाले
अब मजमे में शामिल तमाशबीन नहीं
एक पागल भीड़ है
जो घर-घर पहुंच चुकी है
अगर न बने हम भीड़
तो भीरु कहलाएंगे
आैर अगर हो गए भीड़ तो
मारे जाएंगे

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

नहीं कर सकती तुम उतना प्यार



तुम हो सकती हो नंगी
पर उतनी नहीं
जितना होता है नंगा
एक पुरुष
अनावरण समारोह का
फीता काटने के बाद

तुम्हें करना आता है प्यार
खूब करती हो प्यार
मनाती हो खुशी-खुशी हर साल
प्यार का त्योहार
पर कभी नहीं कर सकती
तुम उतना प्यार
जितना कर सकता है
एक पुरुष
एक साथ
एक क्षण में अपने मन में
उगीं हजारों भुजाओं के साथ

सलीके आैर नजाकत के कीमती
दोशाले से लिपटा
इनकार आैर इजहार तुम्हारा
बन सकती है कविता
गा सकता है कवि
पर कथन का जादुई यथार्थ
अभिव्यक्ति का मारक इस्तेमाल
सब कुछ करके
न कहने का भरोसेमंद अंदाज
तो है एक पुरुष के ही पास
वही कर सकता है
इस पर नाज

तुम्हें भाता है श्रृंगार
बहुत जरूरी है तुम्हारे लिए
आईने का इस्तेमाल
पर सजावट का तर्क तुम्हारा
कभी इतना सधा नहीं हो सकता
जितना एक पुरुष का रंगीन ख्याल
उसकी उभरी हुई जमीन
उसका छितराया हुआ आकाश

तड़प होगी कोई तुम्हारी भी
प्यास लगती होगी तुम्हें भी
पर इतना तो शायद ही कभी
जितना तड़पता है
एक पुरुष बीच रात में
अपनी खाट की आवाज सुनकर
जितनी छटपटाती है
उसकी इच्छा
किसी चील के कोटर में
रखा मांस देखकर

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

परंपरा और करवा


परंपरा जब आधुनिकता से गलबहियां डालकर डग भरती है तो जो "फ्यूजन' क्रिएट होता है, उसकी स्वीकार्यता आश्चर्यजनक रूप से काफी बढ़ जाती है। बात नवरात्र के गरबा रास की हो या करवा चौथ की, नए दौर में पुरानी परंपराओं से जुड़ने वालों की कमी नहीं है। करवा चौथ की कथा पारंपरिक पतिव्रता पत्नियों की चाहे जैसी भी छवि पेश करती रही हो, इस व्रत को करने वाली नई दौर की सौभाग्यवतियों ने न सिर्फ इस पुराकथा को बदला है बल्कि इस पर्व को मनाने के नए औचित्य भी गढ़े हैं। विवाह नाम की संस्था आज दांपत्य निर्वाह का महज संकल्प भर नहीं है, जहां स्त्री-पुरुष संबंध के तमाम  स्तरों और सरोकारों को महज संतानोत्पत्ति के महालक्ष्य के लिए तिरोहित कर दिए जाएं। संबंधों के स्तर पर व्यावहारिकता और व्यावहारिकता के स्तर पर एक-दूसरे के मुताबिक होने-ढलने की ढेर सारी हसरतें, नए दौर में विवाह संस्था के ईंट-गारे हैं।
करवा चौथ की पुरानी लीक आज विवाह संस्था की नई सीख है। खूबसूरत बात यह है कि इसे चहक के साथ सीखने और बरतने वालों में महज पति-पत्नी ही नहीं, एक-दूसरे को दोस्ती और प्यार के सुर्ख गुलाब भेंट करने वाले युवक-युवती भी शामिल हैं। दो साल पहले शादी के बाद बिहार से अमेरिका शिफ्ट होने वाले प्रत्यंचा और मयंक को खुशी इस बात की है कि वे इस बार करवा चौथ अपने देश में अपने परिवार के साथ मनाएंगे। तो वहीं नोएडा की प्राइवेट यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाली प्रेरणा इस खुशी से भर रही है कि वह पहली बार करवा चौथ करेगी और वह भी अपने प्यारे दोस्त के लिए। दोनों ही मामलों में खास बात यह है कि व्रत करने वाले एक नहीं दोनों हैं, यानी ई·ार से अपने साथी के लिए वरदान मांगने में कोई पीछे नहीं रहना चाहता। सबको अपने प्यार पर फख्र है और सभी उसकी लंबी उम्र के लिए ख्वाहिशमंद। 
भारतीय समाज में दांपत्य संबंध के तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद उसे बनाए, टिकाए और निभाते चलने की वजहें ज्यादा कारगर हैं। यह बड़ी बात है और खासकर उस दौर में जब लिव-इन और समलैंगिक जैसे वैकल्पिक और खुले संबंधों की वकालत सड़क से अदालत तक गूंज रही है। अमेरिका और स्वीडन जैसे देशों में तलाक के मामले जहां 54-55 फीसद हैं, वहीं अपने देश में यह फीसद आज भी बमुश्किल 1.1 फीसद है। जाहिर है कि टिकाऊ और दीर्घायु दांपत्य के पीछे अकेली वजह परंपरा निर्वाह नहीं हो सकती। सचाई तो यह है कि नए दौर में पति-पत्नी का संबंध चर-अनुचर या स्वामी-दासी जैसा नहीं रह गया है। पूरे दिन करवा चौथ के नाम पर निर्जल उपवास के साथ पति की स्वस्थ और लंबी उम्र की कामना कुछ  दशक पहले तक पत्नियां इसलिए भी करती थीं कि क्योंकि वह अपने पति के आगे खुद को हर तरीके से मोहताज मानती थी, लिहाजा अपने "उनके' लंबे साथ की कामना उनकी मजबूरी भी थी। आज ये मजबूरियां मेड फॉर इच अदर के रोमांटिक यथार्थ में बदल चुकी हैं। परिवार के संयुक्त की जगह एकल संरचना एक-दूसरे के प्रति जुड़ाव को कई स्तरों पर सशक्त करते हैं। यह फिनोमिना गांवों-कस्बों से ज्यादा नगरों-महानगरों में ज्यादा इसलिए भी दिखता है कि यहां पति-पत्नी दोनों कामकाजी हैं, दोनों परिवार को चलाने के लिए घर से लेकर बाहर तक बराबर का योगदान करते हैं। इसलिए जब एक-दूसरे की फिक्र करने की बारी भी आती है तो उत्साह दोनों ओर से दिखता है। पत्नी की हथेली पर मेंहदी सजे, इसकी खुशी पति में भी दिखती है, पति की पसंद वाले ट्राउजर की खरीद के लिए पत्नी भी खुशी से साथ बाजार निकलती है। यही नहीं अब तो बच्चे पर प्यार उडे़लने में भी मां-पिता की भूमिका बंटी-बंटी नहीं बल्कि समान होती जा रही है।
करवा चौथ के दिन एक तरफ भाजपा नेता सुषमा स्वराज कांजीवरम या बनारसी साड़ी और सिंदूरी लाली के बीच पारंपरिक गहनों से लदी-फदी जब व्रत की थाली सजाए टीवी पर दिखती हैं तो वहीं देश के सबसे ज्यादा चर्चित और गौरवशाली परिवार का दर्जा पाने वाले बच्चन परिवार में भी इस पर्व को लेकर उतना ही उत्साह दिखता है। साफ है कि नया परिवार संस्कार अपनी-अपनी तरह से परंपरा की गोद में दूध पी रहा है। यह गोद किसी जड़ परंपरा की नहीं समय के साथ बदलते नित्य नूतन होती परंपरा की है। भारतीय लोक परंपरा के पक्ष में अच्छी बात यह है कि इसमें समायोजन की प्रवृत्ति प्रबल है। नए दौर की जरूरतों और मान्यताओं को आत्मसात कर बदलती तो है पर बिगड़ती नहीं। करवा चौथ का बदला स्वरूप ही ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। अब यह पर्व कर्मकांडीय आस्था के बजाय उसी तरह सेलिब्रोट किया जा रहा है जैसे मदर्स-फादर्स और वेलेंटाइन डे। यह अलग बात है कि बदलाव के इस झोंके में बाजार ने अपनी भूमिका तलाश ली है, सबके साथ वह भी हमारी खुशियों में शामिल है।

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

गल्र्स नेवर बी एलोन


अपनी बात शुरू करने से पहले वह बात जिसने अपनी बात कहने के लिए तैयार किया। आशुतोष राणा महज अभिनेता नहीं हैं। उनकी शख्सियत ने मुख्तलिफ हलकों में लोगों को अपना मुरीद बनाया है। अरसा हुआ टीवी के एक कार्यक्रम में उनकी टिप्पणी सुनी, जो अलग-अलग वजहों से आज तक याद है। राणा ने कहा था, "हमारी परंपरा महिलाओं से नहीं, महिलाओं को जीतने की रही है।' यह वक्तव्य स्मरणीय होने की सारी खूबियों से भरा है। होता भी यही है कि किसी बेहतरीन शेर या गाने की तरह ऐसे बयान हमारी जेहन में गहरे उतर जाते हैं बगैर किसी अंदरुनी जिरह के। यह खतरनाक स्थिति है। आज जब बुद्धि और तर्क के तरकश संभाले विचारवीरों की बातें पढ़ता-सुनता हूं तो इस खतरे का एहसास और बढ़ जाता है।
दरअसल, तर्क किसी विचार की कसौटी हो तो हो किसी मन की दीवारों पर लिखी इबारत को पढ़ने का चश्मा तो कतई नहीं। यह बात अक्षर लिखने वालों की क्षर दुनिया में कहीं से भी झांकने से आसानी से समझ आ सकती है। इसी बेमेल ने शब्दों की दुनिया को उनके ही रचने वालों की दुनिया में सबसे ज्यादा बेपर्दा किया है। दो-चार रोज पहले का वाकया है। फिल्म का नाइट शो देखकर बाहर कुछ दूर आने पर सड़क के दूसरे छोर पर अकेली लड़की जाती दिखी। मेरे साथ तीन साथी और थे। इनमें जो पिछले करीब एक दशक से बाकायदा रचनात्मक पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाला था, उसने अपनी जेब से गांजे से भरी सिगरेट का दम लगाते हुए कहा, "मन को उतना ही अकेला होना चाहिए, जितनी वह लड़की अकेली दिख रही है।'
 दूसरे साथी ने हिंदी की बजाय पत्रकारिता की अंग्रेजी-हिंदी अनुवाद की धारा से जुड़े होने की छाप देते हुए कहा, "गल्र्स नेवर बी एलोन। सिचुएशन एंड सराउंडिंग ऑलवेज आक्यूपाय देयर लोनलिनेस।' तीसरे ने कहा, "किसी लड़की को अकेले बगैर उसकी जानकारी के देखना किसी दिलकश एमएमएस को देखने का सुख देता है।' रहा मुझसे भी नहीं गया और मैंने छूटते ही कहा," वह या तो कहीं छूट गई है या फिर किसी को छोड़ चुकी है।'
साफ है कि पढ़ा-लिखा पुरुष मन किसी स्त्री को सबसे तेज पढ़ने का न सिर्फ दावा करता है बल्कि उसे गाहे-बगाहे आजमाता भी रहता है। तभी तो विचार की दुनिया में यह मान्यता थोड़े घायल होने के बावजूद अब भी टिकी है कि स्त्री मन, स्त्री प्रेम, स्त्री सौंदर्य को लेकर दुनिया में "सच्चा' लेखन भले किसी महिला कलम से निकली हो पर अगर "अच्छा' की बात करेंगे तो प्रतियोगिता पुरुष कलमकारों के बीच ही होगी।
इसलिए राणा जैसों को भी जब जुमला गढ़ने की बारी आती है तो स्त्री से जीत की स्पर्धा करने की बजाय उस पर एकाधिकार का चमकता हौसला आजमाना पसंद करते हैं। यह और कुछ नहीं सीधे-सीधे छल है, पुरुष बुद्धि छल। आधी आबादी को समाज के बीच नहीं प्रयोगशाला की मेज पर समझने की बेईमानी सोच-समझ की मंशा पर ही सवाल उठाते हैं। जिस रात की घटना का जिक्र पहले किया गया, वहां भी ऐसा ही हुआ। किसी ने महिला-पुरुष के सामाजिक रिश्ते को सामने रखकर उस अकेली दिख रही लड़की के बारे में सोचने की जरूरत महसूस नहीं की। क्योंकि तब सोच की आंखों में सुरूर की बजाय थोड़ा जिम्मेदार सामाजिक होने की सजलता होती। और इस सजलता की दरकार को किस तरह जानबूझकर खारिज किया गया, वह अगले ही कुछ मिनटों में उस रात भी जाहिर हुआ।
असल में, रात के अंधेरे में वह महिला अपने घर के पास उतरने की बजाय कहीं और उतर गई थी। और वह लगातार इस कोशिश में थी कि उसका स्थान और दिशा भ्रम किसी तरह टूटे पर उसकी कोशिश काम नहीं आ रही थी। सो जैसे ही उसकी निगाह हम चारों पर पड़ी, वह थोड़े आश्वस्त भाव से हमारी ओर लपकी । हम खुश भी थे और इस चोर आशंका से भी भर रहे थे कि कहीं वह यह तो नहीं जान गई, जो हम अब तक उसके बारे में बोल-सोच रहे थे। पास आकर जब उसने अपनी परेशानी बताई तो बारी हमारे गलत साबित होने की की थी, शर्मिंदगी की थी। हम बाद में जरूर उस महिला की मदद कर पाए पर उस खामख्याली का क्या जो महिला देखते ही पर तोलने लगते हैं। राणा भी ऐसा ही करते हैं। वह बगैर महिला सच से मुठभेड़ किए उस पर विजय होने का सपना देखते हैं।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

हार्दिक विरोध


अतीत के लिए टेसू बहाने वाली ने
नया शगल अपनाया है-
व्यतीत को कोसने का
शीशे से नजरें मिलाकर
आंखों में आई हौसले की चमक नई
बड़ी है कैनवस पर एक नंगी नायिका के
चरित्र को काढ़ने वाली
हर मीनाकारी से

कल होना आैर कल का होना
उसे न होने देगा आज 
आैर न आज के मन माफिक
कल को ही शक्ल दे सकेगी वह
पलटकर न देखना 
आदत न होती है नदी की
आैर न ही इक्कीसवीं सदी की
किसी तेज-तर्रार स्त्री की

समय ने सभ्यता की अप्सराओं को
बदहवास सताए जाने की
पीड़ा से मुक्त तो नहीं किया
हां बदहवास जीवन को
अघोषित गंतव्य की दिशा
बनाए रखने का महामंत्र जरूर दिया है

कल तक
उसे भोगे जाने का शोक था
आज थाली उसने
खुद अपने हाथों सजाई है
आज उसके पास अपने चुनाव की
तोशक है तकिया-रजाई है

कलकल बहता कल
है सबसे बड़ा झूठ
भविष्य के सत्य दर्शन से
हमारे समय की नायिका का
है लिवइन रिलेशन

एक आधुनिका 
कितनी स्वच्छंद
कितनी निद्र्वंद्व हो सकती है
उसकी हिमाकत
कितनी हो सकती है बोल्ड
अगर पढ़ना है इस लिखावट को तो
उन मेडिकल रिपोर्टों को
मेज पर रखना होगा
जिसमें किसी प्रेमी के बाप बन जाने का डर
किसी आधुनिका के मां बन जाने के
आत्महंता साक्ष्य से खेलता है गलबहियां
कभी सरेआम
तो कभी अंधेरे में लुकाछिपी के साथ

प्रेम की टहनी आैर कली कही जाने वाली
नायिकाओं ने दूसरों के हाथों में अब
रंग-बिरंगे बैलून होने से
कर दिया है इनकार
रोने-बिसुरने आैर तकिए गीले करने का
उनका अनुभव
उनका अवसाद
अब उनका क्षोभ है
यह प्रेम का नहीं
एक प्रेमिका का
अपने समय की कुलीनता के प्रति
हार्दिक विरोध है

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

नंगी पीठ पर


पहला शब्द पुरुष
फिर चुनिंदा फूल
और भीना-भीना प्यार
गोदने की तरह
चमड़ी में उतरे हैं शब्द कई
नीले-नीले हरे कत्थई
नंगी पीठ पर उसकी
थोड़ा ऊपर
बस वहीं
एकदम पास
उत्तेजना की चरमस्थली
स्पर्शसुख का जैकपॉट


सच
शादी की पहली वर्षगांठ पर
वह सिर्फ पति नहीं
उस कला संग्राहलय का
मालिक भी है
जहां के हर बुत में 
उतनी ही जान है
जितनी हथेली और
नाखूनों को चाहिए

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

लीला अनंत रघुनंदन की


रावण से युद्ध करने के लिए डब्ल्यूडब्ल्यूएफ मार्का सूरमा उतरे तो सीता स्वयंवर में वरमाला डलवाने के लिए पहुंचने वालों में महेंद्र सिंह धोनी और युवराज सिंह जैसे स्टार क्रिकेटरों के गेटअप में क्रेजी क्रिकेट फैंस भी थे। यह रामकथा का पुनर्पाठ हो या न हो रामलीला के कथानक का नया सच जरूर है। रामकथा की यह नई लीला इस साल दिखी भी तो पवित्र नगरी हरिद्वार में। राम की मर्यादा के साथ नाटकीय छेड़छाड़ में लोगों की हिचक अभी तक बनी हुई है पर रावण और हनुमान जैसे किरदार लगातार अपडेट हो रहे हैं। बात अकेले रावण की करें तो यह चरित्र लोगों के सिरदर्द दूर करने से लेकर विभिन्न कंपनियों के फेस्टिवल ऑफर को हिट कराने के लिए एड गुरुओं की बड़ी पसंद बनकर पिछले कुछ सालों में उभरा है। बदलाव के इतने स्पष्ट और लाक्षणिक संयोगों के बीच सुखद यह है कि देश में आज भी रामकथा के मंचन की परंपरा बनी हुई है। और यह जरूरत या दरकार लोक या समाज की ही नहीं, उस बाजार की भी है, जिसने हमारे एकांत तक को अपनी मौजूदगी से भर दिया है। दरअसल, राई को पहाड़ कहकर बेचने वाले सौदागर भले अपने मुनाफे के खेल के लिए कुछ खिलावाड़ के लिए आमादा हों, पर अब भी उनकी ताकत इतनी नहीं बढ़ी है कि हम सब कुछ खोने का रुदन शुरू कर दें। देशभर में रामलीलाओं की परंपरा करीब साढे़ चार सौ साल पुरानी है। आस्था और संवेदनाओं के संकट के दौर में अगर भारत आज भी ई·ार की लीली भूमि है तो यह यहां के लोकमानस को समझने का नया विमर्श बिंदू भी हो सकता है। 
बाजार और प्रचारात्मक मीडिया के प्रभाव में चमकीली घटनाएं उभरकर जल्दी सामने आ जाती हैं। पर इसका यह कतई मतलब नहीं कि चीजें जड़मूल से बदल रही हैं। मसलन, बनारस के रामनगर में तो पिछले करीब 180 सालों से रामलीला खेली जा रही हैं। दिलचस्प है कि यहां खेली जानेवाली लीला में आज भी लाउडस्पीकरों का इस्तेमाल नहीं होता है। यही नहीं लीला की सादगी और उससे जुड़ी आस्था के अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए रोशनी के लिए बिजली का इस्तेमाल भी नहीं किया जाता है। खुले मैदान में यहां-वहां बने लीला स्थल और इसके साथ दशकों से जुड़ी लीला भक्तों की आस्था की ख्याति पूरी दुनिया में है। "दिल्ली जैसे महानगरों और चैनल संस्कृति के प्रभाव में देश के कुछ हिस्सों में रामलीलाओं के रूप पिछले एक दशक में इलेक्ट्रानिक साजो-सामान और प्रायोजकीय हितों के मुताबिक भले बदल रहे हैं। पर देश भर में होने वाली ज्यादातर लीलाओं ने अपने पारंपरिक बाने को आज भी कमोबेश बनाए रखा है', यह मानना है देश-विदेश की रामलीलाओं पर गहन शोध करने वाली डा. इंदुजा अवस्थी का।
लोक और परंपरा के साथ गलबहियां खेलती भारतीय संस्कृति की अक्षुण्णता का इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि चाहे बनारस के रामनगर, चित्रकूट, अस्सी या काल-भैरवकी रामलीलाएं हों या फिर भरतपुर और मथुरा की, राम-सीता और लक्ष्मण के साथ दशरथ, कौशल्या, उर्मिला, जनक, भरत, रावण व हनुमान जैसे पात्रकतग के अभिनय 10-14 साल के किशोर ही करते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अब कस्बाई इलाकों में पेशेवर मंडलियां उतरने लगी है, जो मंच पर अभिनेत्रियों के साथ तड़क-भड़क वाले पारसी थियेटर के अंदाज को उतार रहे हैं। पर इन सबके बीच अगर रामलीला देख का सबसे बड़ा लोकानुष्ठान है तो इसके पीछे एक बड़ा कारण रामकथा का अलग स्वरूप है।
अवस्थी बताती हैं कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम और लीला पुरुषोत्तम  कृष्ण की लीला प्रस्तुति में बारीक मौलिक भेद है। रासलीलाओं में श्रृंगार के साथ हल्की-फुल्की चुहलबाजी को भले परोसा जाए पर रामलीला में ऐसी कोई गुंजाइश निकालनी मुश्किल है। शायद ऐसा दो ई·ार रूपों में भेद के कारण ही है। पुत्प वाटिका, कैकेयी-मंथरा और रावण-अंगद या रावण-हनुमान आदि प्रसंगों में भले थोड़ा हास्य होता है, पर इसके अलावा पूरी कथा के अनुशासन को बदलना आसान नहीं है। कुछ लीला मंचों पर अगर कोई छेड़छाड़ की हिमाकत इन दिनों नजर भी आ रही है तो यह किसी लीक को बदलने की बजाय लोकप्रियता के चालू मानकों के मुताबिक नयी लीक गढ़ने की सतही व्यावसायिक मान्यता भर है।
तुलसी ने लोकमानस में अवधी के माध्यम से रामकथा को स्वीकृति दिलाई और आज भी इसका ठेठ रंग लोकभाषाओं में ही दिखता है। मिथिला में रामलीला के बोल मैथिली में फूटते हैं तो भरतपुर में राजस्थानी की बजाय ब्राजभाषा की मिठास घुली है। बनारस की रामलीलाओं में वहां की भोेजपुरी और बनारसी का असर दिखता है पर यहां अवधी का साथ भी बना हुआ है। बात मथुरा की रामलीला की करें तो इसकी खासियत पात्रों की शानदार सज-धज है। कृष्णभूमि की रामलीला में राम और सीता के साथ बाकी पात्रों के सिर मुकुट से लेकर पग-पैजनियां तक असली सोने-चांदी के होते हैं। मुकुट, करधनी और बाहों पर सजने वाले आभूषणों में तो हीरे के नग तक जड़े होते हैं। और यह सब संभव हो पाता है यहां के सोनारा और व्यापारियों की रामभक्ति के कारण। आभूषणों और मंच की साज-सज्जा के होने वाले लाखों के ख्रच के बावजूद लीला रूप आज भी कमोबेश पारंपरिक ही है। मानों सोने के थाल में माटी के दीये जगमग कर रहे हों।   
आज जबकि परंपराओं से भिड़ने की तमीज रिस-रिसकर समाज के हर हिस्से में पहुंच रही है, ऐसे में रामलीलाओं विकास यात्रा के पीछे आज भी लोक और परंपरा का ही मेल है। राम कथा के साथ इसे भारतीय आस्था के शीर्ष पुरुष का गुण प्रसाद ही कहेंगे कि पूरे भारत के अलावा सूरीनाम, मॉरीशस, इंडोनैेशिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे देशों में रामलीला की स्वायत्त परंपरा है। यह न सिर्फ हमारी सांस्कृतिक उपलब्धि की मिसाल है, बल्कि इसमें मानवीय भविष्य के कई मांगलिक संभावनाएं भी छिपी हैं।                     

कविता का आंदोलन : आंदोलन की कविता


जयप्रकाश नारायण 74 आंदोलन के दिनों में अक्सर कहा करते थे कि कमबख्त क्रांति भी आई तो बुढ़ापे में। पर इसे बुढ़ापे की पकी समझ ही कहेंगे कि संपूर्ण क्रांति का यह महानायक अपने क्रांतिकारी अभियान में संघर्षशील युवाओं और रचनात्मक कार्यकर्ताओं की जमात के साथ कलम के उन सिपाहियों को भी भूला नहीं, जो जन चेतना की अक्षर ज्योति जलाने में बड़ी भूमिका निभा सकते थे। संपूर्ण क्रांति का शीर्ष आह्वान गीत "जयप्रकाश का बिगुल बजा तो जाग उठी तरुणाई है' रचने वाले रामगोपाल दीक्षित ने तो लिखा भी कि "आओ कृषक श्रमिक नागरिकों इंकलाब का नारा दो/ गुरूजन शिक्षक बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो/ फिर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है बौराई है/ तिलक लगाने तुम्हें जवानों क्रांति द्वार पर आई है।' दरअसल जेपी उन दिनों जिस समग्र क्रांति की बात कह रहे थे, उसमें तीन तत्व सर्वप्रमुख थे- शिक्षा, संस्कृति और अध्यात्म। कह सकते हैं कि यह उस जेपी की क्रांतिकारी समझ थी जो माक्र्स और गांधी विनोबा के रास्ते 74 की समर भूमि तक पहुंचे थे।
दिलचस्प है कि सांतवें और आठवें दशक की हिन्दी कविता में आक्रोश और मोहभंग के स्वर एक बड़ी व्याप्ति के स्तर पर सुने और महसूसकिए जाते हैं। अकविता से नयी कविता की तक की हिन्दी काव्ययात्रा के सहयात्रियों में कई बड़े नाम हैं, जिनके काव्य लेखन से तब की सामाजिक चेतना की बनावट पर रोशनी पड़ती है। पर दुर्भाग्य से हिन्दी आलोचना के लाल-पीले साफाधारियों ने देश में "दूसरी आजादी की लड़ाई' की गोद में रची गई उस काव्य रचनात्मकता के मुद्दे पर जान-बुझकर चुप्पी अखितियार कर ली है, जिसमें कलम की भूमिका कागज से आगे सड़क और समाज के स्तर पर प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की हो गई थी। न सिर्फ हिन्दी ब्लकि वि·ा की दूसरी भाषा के इतिहास में यह एक अनूठा अध्याय, एक अप्रतिम प्रयोग था। जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े कवियों के 1978 में प्रकाशित हुए रचना संग्रह "समर शेष है' की प्रस्तावना में आलोचक डा. रघुवंश कहते भी हैं, "मैं नयी कविता के आंदोलन से जोड़ा गया हूं क्योंकि तमाम पिछले नये कवियों के साथ रहा हूं, परंतु उनकी रचनाओं पर बातचीत करता रहा हूं। परंतु "समर शेष है' के रचनाकारों ने जेपी के नेतृत्व में चलने वाले जनांदोलन में अपने काव्य को जो नयी भूमिका प्रदान की है, उनका मूल्यांकन मेरे लिए एकदम नयी चुनौती है।' कागजों पर मूर्तन और अमूर्तन के खेल को अभिजात्य सौंदर्यबोध और नव परिष्कृत चेतना का फलसफा गढ़ने वाले आलोचक अगर तीन दशक बाद भी इस चुनौती को स्वीकार करने से आज तक बचते रहे हैं तो इसे हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति ही कहेंगे। क्योंकि यह बिड़ला अवसर ही था जब किसी जनांदोलन में साहित्यकारों ने इस तरह खुले ढंग से अपनी भूमिका निभाई हो।
मौन कैसे मुखरता से भी ज्यादा प्रभावशाली है, इसे आठ अप्रैल 1974 को आंदोलन को दिए गए जेपी के पहले कार्यक्रम से भलीभांती समझा जा सकता है। यह पहला कार्यक्रम एक मौन जुलूस था। "हमला चाहे जैसा होगा हाथ हमारा नहीं उठेगा' जैसे लिखे नारों वाली तख्तियों को हाथों में उठाए और हाथों में पट्टी बांधे हुए सत्याग्रहियों की जो जमात पटना की सड़कों पर चल रही रही थी, उसमें संस्कृतिकर्मियों की टोली भी शामिल थी। इस जुलूस में हिस्सा लेने वालों में फणीश्वरनाथ "रेणु' का नाम सर्वप्रमुख था। संपूर्ण क्रांति आंदोलने के लिए दर्जनों लोकप्रिय गीत रचने वाले गोपीवल्लभ सहाय ने तो समाज, रचना और आंदोलन को एक धरातल पर खड़ा करने वाले इस दौर को "रेणु समय' तक कहा है। अपने प्रिय साहित्यकारों को आंदोलनात्मक गतिविधियों से सीधे जुड़ा देखना जहां सामान्य लोगों के लिए एक सामान्य अनुभव था, वहीं इससे आंदोलनकारियों में भी शील और शौर्य का तेज बढ़ा। व्यंगकार रवींद्र राजहंस की उन्हीं दिनों की लिखी पंक्तियां हैं, "अनशन शिविर में कुछ लोग/ रेणु को हीराबाई के रचयिता समझ आंकने आए/ कुछ को पता लगा कि नागार्जुन नीलाम कर रहे हैं अपने को/ इसलिए उन्हें आंकने आए।'
बाद के दिनों में आंदोलन की रौ में बहने वाले कवियों और उनकी रचनाओं की गिनती भी बढ़ने लगी। कई कवियों-संस्कृतिकर्मियों को इस वजह से जेल तक की हवा खानी पड़ी। लोकप्रियता की बात करें तो तब परेश सिन्हा की "खेल भाई खेल/सत्ता का खेल/ बेटे को दिया कार कारखाना/ पोसपुत के हाथ आई भारत की रेल', सत्यमारायण की "जुल्म का चक्का और तबाही कितने दिन', गोपीवल्लभ सहाय की "जहां-जहां जुल्मों का गोल/ बोल जवानों हल्ला बोल', रवींद्र राजहंस की "सवाल पूछता है जला आदमी/ अपने शहर में कहां रहता है भला आदमी'। कवियों ने जब नुक्कड़ गोष्ठियां कर आम लोगों के बीच आंदोलन का अलख जगाना शुरू किया तो इस अभिक्रम का हिस्सा बाबा नागार्जुन जैसे वरिष्ठ कवि भी बने। बाबा तब डफली बजाते हुए नाच-नाचकर गाते- "इंदूजी-इंदूजी क्या हुआ आपको/ सत्ता के खेल में भूल गई बाप को'।
दिलचस्प है कि चौहत्तर आंदोलन में मंच और मुख्यधारा के कवियों के साथ सर्वोदयी-समाजवादी कार्यकर्ताओं के बीच से भी कई काव्य प्रतिभाएं निकलकर सामने आईं। संपूर्ण क्रांति के पीछे का पूरा दर्शन इन रचनाओं में समाया था। आंदोलनकारियों की जुवान पर चढ़े इन गीतों ने शहरों से लेकर सुदूर देहात तक की यात्रा की। इनकी लोकप्रियता का अंदाजा इसीसे लगाया जा सकता है कि आज भी सर्वोदय साहित्य के तहत क्रांति गीतों के जो संकलन छपते हैं उनके सूचीक्रम को यही गीत तय करते हैं। जयप्रकाश अमृतकोष द्वारा प्रकाशित ऐतिहासिक स्मृति ग्रंथ "जयप्रकाश' में भी इनमें से कई गीत संकलित हैं। इन गीतों में रामगोपाल दीक्षित के "जयप्रकाश का बिगूल बजा' के अलावा  "हम तरुण हैं हिंद के/ हम खेलते अंगार से' (डा. लल्लन), "आज देश की तरुणाई को अपना फर्ज निभाना है' (राज इंकलाब), "युग की जड़ता के खिलाफ एक इंकलाब है' (अशोक भार्गव) आदि जयप्रकाश आंदोलन की गोद से पैदा हुए ऐसे ही गीत हैं।
हिन्दी कविता की मुख्यधारा के लिए यह साठोत्तरी प्रभाव का दौर था।  आठवें दशक तक पहुंचते-पहुंचते जिन कविताओं की शिननाख्त "मोहभंग की कविताओं' या क्रुद्ध पीढ़ी की तेजाबी अभिव्यक्ति के तौर पर की गई, जिस दौर को अपने समय की चुनौती और यथार्थ से सीधे संलाप करने के लिए याद किया जाता है, इसे विडंबना ही कहेंगे कि वहां समय की शिला पर ऐसा कोई भी अंकन ढूंढे नहीं मिलता है जहां तात्कालिक स्थितयों कोे लेकर प्रत्यक्ष रचनात्मक हस्तक्षेप का साहस दिखाई पड़े। नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, रघुवीर सहाय, धर्मवीर भारती और दुष्यंत कुमार जैसे कुछ कवियों को छोड़ दे उक्त नंगी सचाई से मंुह ढापने के लिए शायद ही कुछ मिले। दिलचस्प है कि पटना के आयकर चौराहे पर जेपी पर पुलिस ने लाठियां बरसाई। बाद में जब वहां उनकी मूर्ति स्थापित की गई तो इतिहास के उस अवसर विशेष को याद करने के लिए धर्मवीर भारती की लिखी "मुनादी' कविता ही सर्वश्रेष्ठ चुनाव साबित हुआ। इसी तरह तब जेलों में बंद आंदोलनकारी युवाओं की जुबान पर सबसे ज्यादा दुष्यंत कुमार की गजलें थीं। मुख्यधारा से अलग हिन्दी काव्य मंचों ने भी पेशेवर मजबूरियों की सांकल खोलते हुए तत्कालीन चेतना के स्वर दिया। मंच पर तालियों के बीच नीरज ने साहस से गाया- "संसद जाने वाले राही कहना इंदिरा गांधी से/ बच न सकेगी दिल्ली भी अब जयप्रकाश की आंधी से।'
कहना नहीं होगा कि हर आंदोलन का एक साहित्य होता है, छीक वैसे ही जैसे किसी भाषा के साहित्येहास में कई आंदोलन होते हैं। इस लिहाज से जयप्रकाश आंदोलन का भी अपना साहित्य था। पर बात शायद यहीं पूरी नहीं होती है। अगर जयप्रकाश आंदोलन और उससे जुड़े साहित्य का आलोचनात्मक मूल्यांकन हो तो निश्कर्ष के बिंदू आंक खोलने वाले साबित हो सकते हैं। एक बार फिर डा. रघुवंश के शब्दों की मदद लें तो जयप्रकाश आंदोलन के "कवियों ने लोकचेतना की रक्षा की लड़ाई में अगर अपने रचनाधर्म को उच्चतम स्तर पर विसर्जित-प्रतिष्ठित किया।'   

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सेक्स और सेंसेक्स



हिंदी की एक पत्रिका ने युवाओं के बीच सेक्स सर्वे कराया। सर्वे में एक सवाल यह पूछा गया कि आप किस अभिनेत्री से मिलना चाहते हैं। जवाब का सबसे ज्यादा फीसद ऐश्वर्य राय के पक्ष में था। पर इस जवाब में कोई सनसनाहट न पाकर सर्वे कराने वाली एजेंसी ने पत्रिका के संपादक और प्रबंधन के साथ बातचीत कर सवाल में थोड़ा ट्विस्ट लाया। नया सवाल था कि आप किस अभिनेत्री का स्पर्श चाहते हैं। उम्मीद के मुताबिक युवाओं के जवाब में भी ट्विस्ट आया। अब जवाब का सबसे ज्यादा फीसद विपाशा बसु के नाम के साथ था। यह वाकिया वर्ष 2003 का है। बता दें कि तब विपाशा का "जिस्म' युवाओं को उस सनसनाते एहसास से भर देता था, जिसमें रुमानियत के साथ वह गरमाहट भी थी, जिसके लिए आज एक ही शब्द चलता है- हॉट। सेक्स सर्वे के नाम पर किया गए खेल का सीधा संबंध भले पत्रिका की रीडरशीप उछालने के लिए किया गया हो, पर इससे तो इतना तो जाहिर होता ही है कि भारतीय युवा मन पिछले कुछ सालों में रोमांस और सेक्स को लेकर किन हदों से आगे निकल रहा है और किन नई हदों को छूने के लिए मचल रहा है।
वाइल्ड सेक्स और वॉलेटाइल सेंसेक्स के दौर ने युवाओं को जिंदादिली का वह पाठ पढ़ाया है, जिसमें संयम की कोई सीमा नहीं और स्वच्छंदता की कोई इंतिहा नहीं। तभी तो युवा मन को टटोलते हालिया सर्वे में 41 फीसद युवाओं ने माना कि वे बीस साल से पहले यौन संसर्ग का अनुभव पा चुके हैं। दिलचस्प तो यह कि अब भी लज्जा और पर्दादारी से एक टैबू की तरह जूझ रही युवतियां इस अनुभव को पा लेने में पुरुषों से आगे हैं। यही नहीं वेश्यागामी होने और समलैंगिक यौन अनुभव को लेकर भी तजुर्बेदार युवाओं की गिनती बढ़ी है। ऐसे युवा अब इक्के-दुक्के नहीं बल्कि हर दस में से एक हैं। 25 फीसद युवा तो बेझिझक अपने को व्यभिचारी ठहराते हैं। हमारे समाज की आपसदारी में इस तरह के व्यभिचार के लिए गुंजाइश कितनी बढ़ी है, अगर यह समझना हो तो जान लीजिए की व्यभिचार के 38 फीसद मामलों में पड़ोसी को शिकार बनाया जाता है। इस तथ्य की भयावहता इस बात से समझ में आ सकती है कि ऐसे कुकृत्य के लिए समाज से अलग वेश्याओं तक पहुंचने वालों की गिनती तेजी से गिर रही है।
पिछले साल नोएडा की एक छात्रा के रहस्यमय ढंग से हत्या होने के बाद बड़े और रसूख वाले शादीशुदा लोगों के बीच वाइफ स्वैपिंग का मामला थोड़े अधखुले ढंग से सामने आया था। जब यही बात सर्वे के दौरान पूछा गया तो 20 फीसद लोगों ने माना कि वे अपने सेक्स पार्टनर की अदला-बदली की कोशिश की है। और इस तरह की पेशकश करने वालों में महिलाओं का फीसद 27 था और यह पुरुषों के मुकाबले मात्र छह फीसद ज्यादा था। जाहिर है सेक्स को लेकर खुलापन जंगल के आग की तरह फैल रहा है और यह तन में तो लगी ही है मन भी झुलसने से नहीं बचा है। इससे पहले दिल्ली के एक पब्लिक स्कूल और इस बार नोएडा के एक मैनेजमेंट इंस्टीट¬ूट की छात्रा का एमएमएस मीडिया से लेकर आम लोगों के बीच खासी चर्चा में रहा। यह उस किशोर पीढ़ी का सच है, जो संबंधों को सदेह समझने के लिए बेझिझक तैयार ही नहीं बल्कि बेकरार है। अलबत्ता यह जरूर है कि इस बेकरारी का हश्र कई बार हत्या और आत्महत्या की हद तक पहुंच जाता है।
समाजशास्त्री आनंद कुमार नई पीढ़ी को जागरूकता की कछार पर दम तोड़ रही मछलियों की तरफ देखते हैं, जहां से समाज और परंपरा की लहरें टकराती तो हैं पर धारा की तरह बहती नहीं। वैसे कुमार की नजरों में इस सचाई का फीसद ज्यों-ज्यों शहरों से छोटे मझोले कस्बों और गांवों की तरफ बढ़ते हैं, गिरता जाता है। ब्राांड मैनेजमेंट के दिग्गज मयंक गौतम की नजरों में आज के युवाओं में जुनून खासा है पर बदकिस्मती से इस जुनून को धैर्य से परहेज है। लिहाजा सब कुछ पा लेने या फतह करने की जिद का असर प्यार और संबंधों के नाजुक रिस्तों पर भी पड़ रहा है। इस स्वाभाविक असर का ही नतीजा है संबंधों का खुलापन और उस पर पड़ने वाली खरोचें।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

सौभाग्य की सिंदूरी रेखा


विवाह संस्था की जरूरत पर बहस इसलिए भी बेमानी लगती है कि इसके लिए जो भी कच्चे-पक्के विकल्प सुझाए जाते हैं, उनके सरोकार ज्यादा व्यापक नहीं हैं। फिर अगर किसी एक वेल टेस्टेड रिलेशन की बात करें, जिसमें स्त्री-पुरुष संबंध के साथ उसका सामाजिक धर्म भी निभे तो विवाह की व्यवस्था का न तो कोई तोड़ है आैर न ही इसकी कोई सानी। बुरा यह लगता है कि जिस संस्था की बुनियादी शर्तों में लैंगिक समानता भी शामिल होनी चाहिए, वह या तो दिखता नहीं या फिर दिखता भी है तो खासे भद्दे रूप में। सबसे पहले तो यही देखें कि मंगलसूत्र से लेकर सिंदूर तक विवाह सत्यापन के जितने भी चिह्न हैं, वह महिलाओं को धारण करने होते हैं। पुरुष का विवाहित-अविवाहित होना उस तरह चिह्नित नहीं होता जिस तरह महिलाओं का। यही नहीं महिलाओं के लिए यह सब उसके सौभ्ााग्य से भी जोड़ दिया गया है, तभी तो एक विधवा की पहचान आसान है पर एक विधुर की नहीं। दिलचस्प तो यह है कि शादी टूटने के मामले में भी स्त्री की वैवाहिक स्थिति उसे देखकर जानी जा सकती है पर ऐसा ही पुरुष के मामले में नहीं है।
अपनी शादी का एक अनुभव आज तक मन में एक गहरे सवाल की धंसा है। मुझे शादी हो जाने तक नहीं पता था कि मेरी सास कौन है? जबकि ससुराल के ज्यादातर संबंधियों को इस दौरान न सिर्फ उनके नाम से मैं भली भांति जान गया था बल्कि उनसे बातचीत भी हो रही थी। बाद में जब मुझे सारी सचाई का पता चला तो आंखें भर आर्इं। दरअसल, मेरे ससुर का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। लिहाजा, मांगलिक क्षण में किसी अशुभ से बचने के लिए वह शादी मंडप पर नहीं आर्इं। ऐसा करने का उन पर परिवार के किसी सदस्य की तरफ से दबाव तो नहीं था पर हां यह सब जरूर मान रहे थे कि यही लोक परंपरा है आैर इसका निर्वाह अगर होता है तो बुरा नहीं है। शादी के बाद मुझे आैर मेरी पत्नी को एक कमरे में ले जाया गया। जहां एक तस्वीर के आगे चौमुखी दिया जल रहा था। तस्वीर के आगे एक महिला बैठी थी। पत्नी ने आगे बढ़कर उनके पांव छुए। बाद में मैंने भी ऐसा ही किया। तभी बताया गया कि वह आैर कोई नहीं मेरी सास हैं। सास ने तस्वीर की तरफ इशारा किया। उन्होंने भरी आवाज में कहा कि सब इनका ही आशीर्वाद है आज वे जहां भी होंगे सचमुच बहुत खुश होंगे आैर अपनी बेटी-दामाद को आशीष दे रहे होंगे। दरअसल, वह मेरे दिवंगत ससुर की तस्वीर थी।
तब जो बेचैनी इन सारे अनुभवों से मन में उठी थी आज भी मन को भारी कर जाती है। सास-बहू मार्का या पारिवारिक कहे जाने वाले जिन धारावाहिकों की आज टीवी पर भरमार है, उनमें भी कई बार इस तरह के वाकिए दिखाए जाते हैं। मेरी मां आैर पिताजी दोनों जीवित हैं। पिता चूंकि लंबे समय तक सार्वजनिक जीवन में रहे, सो ऐसी परंपराओं को सीधे-सीधे दकियानूसी ठहरा देते हैं। पर आश्चर्य होता है कि मां को इसमें कुछ भी अटपटा नहीं लगता। उलटे वह कहती हैं कि नए लोग अब कहां इन बातों की ज्यादा परवाह करते हैं जबकि उनके समय में तो न सिर्फ शादी-विवाह में बल्कि बाकी समय में भी विधवाओं के बोलने-रहने के अपने विधान थे। मां अपनी दो बेटियों आैर दो बेटों की शादी करने के बाद उम्र के सत्तरवें पड़ाव को छूने को है। संत विनोबा से लेकर प्रभावती आैर जयप्रकाश नारायण तक कई लोगों के साथ रहने, मिलने-बात करने का मौका भी मिला है उन्हें। देश-दुनिया भी खूब देखी है। पर पति ही सुहाग-सौभाग्य है आैर उसके बिना एक ब्याहता के जीवन में अंधेरे के बिना कुछ नहीं बचता, वह सीख मन में नहीं बल्कि नस-नस में दौड़ती है।
कुछ साल पहले का वाकिया है। फिल्म अभिनेत्री रेखा को सबने सार्वजनिक रूप से सिंदूर लगाए आैर मंगलसूत्र पहने देखा तो खूब बातें होने लगी। लोगों ने कयास लगाने शुरू कर दिए कि रेखा की जिंदगी में जरूर कोई नया आया है। हालंकि किसी कयास की पुष्टि नहीं हो पाई आैर बात आई-गई हो गई आैर एक बार फिर रेखा के जीवन को रहस्यमय मान लिया गया। दरअसल, किसी पुरुष के साथ होने की प्रामाणिकता की मर्यादा आैर इसके नाम पर निभती आ रही परंपरा इतनी गाढ़ी आैर मजबूत है कि स्त्री स्वातंत्र्य के ललकार भरते दौर में भी पुरुष दासता के इन प्रतीकों की न सिर्फ स्वीकृति है बल्कि यह प्रचलन कम होने का नाम भी नहीं ले रहा। उत्सवधर्मी बाजार महिलाओं की नई पीढ़ी को तीज-त्योहारों के नाम पर अपने प्यार आैर जीवनसाथी के लिए सजने-संवरने की सीख अलग दे रहा है। दिलचस्प है कि आज हर तरफ एक तरफ स्वतंत्रता से आगे स्वच्छंदता की टेर सुनने को मिलती है, वहीं संबंधों को दासता में बदलने वाली सिंदूरी परंपरा भी बदस्तूर जारी है।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

पुराना प्यार


मुझे नहीं पता कि तुम मेरे प्यार हो
मुझे नहीं पता कि तुम मेरे आर्य हो
सींक रही हूं अभी मैं
बीते बरस की दोपहरी में
खड़ी हूं अभी मैं
अतीत की कचहरी में
जान लो बस यही तुम
तुम्हारे लिए मेरा यही
मुख्तसर सा बयान है
मन बहुत परेशान है
मन बहुत अशांत है

वह तो मौन था हुई थी
मैं ही मुखर तब भी 
खोले थे मांग भरे थे सपने सिंदूरी
वह हमारा ही मोहकाल था
वह हमारा ही द्रोहकाल था
तुम्हारे हाथ से फिसलकर
फिर हो जाऊंगी जंगली
एक के बाद एक
प्यार के कई तट पार करने वाली
मैं जंगली- अमंगली
छोड़ दो मुझे
मत छेड़ो मुझे
मन बहुत परेशान है
मन बहुत अशांत है

तुमने जानबूझकर किया
मेरे बलुआए गले को तर
खुद से ही बन गए तुम दाता
मेरे प्रेम
मेरे भाग्यविधाता
तुम्हारे प्यार के कलश को
घेरे जो धान है
श्रीफल को लपेटे जो
पूजनीय विधान है
वह सब मिलकर भी
तुम्हारी अशुभता का कलंक
नहीं हरेंगे
तुम अपनी यज्ञवेदी संभालो
हम तो अतीत संग बहेंगे
अतीत को चीड़कर 
भविष्य निखर आएगा
मैं फिर से करूंगी प्यार
मुझे फिर से कोई पाएगा

हटो मलेच्छ...शापित...
हटो मेरे भाग्यविघ्न...
तुम्हारे प्यार का छल
निर्जल रह जाएगा
मैं फिर से करूंगी प्यार
मुझे फिर से कोई पाएगा
तुम नहीं स्वाभाविक आकाश मेरे
और न मैं धरा तुम्हारी
अब न तुम हमारे
आैर न मैं तुम्हारी

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

डेस्क पर दुष्कर्म


रौंदे गए खेत की तरह
पहुंची वह डेस्क पर
भरभरा कर ढहती
मिट्टी का सिलसिला
शिथिल पड़ गया था
पर थमा नहीं था बिल्कुल
पुलिस लग गई थी छानबीन में
सुराग की छेद में समाया था
टीचर से ब्वॉयफ्रेंड बना गिरिधारी

कवर की बॉटम होगी
पूरे पांच कॉलम की
उघड़ी खबर की आंखें
कल शहर की तमाम आंखों की
तलाशी लेगी

घबराना नहीं तुम
छंटने लगे बेहोशी तब भी
कल कोई नहीं पहचानेगा
भरभरा कर झरती
दोबारा इस मिट्टी को
बदनाम तो होगी वह
जिसे सूंघते फिरंेगे सब
सड़कों-मोहल्लों पड़ोस में
और हम
हम तो होंगे बस
पेशेवर चश्मदीद
भेड़ियों की पीठ पर
शरारतन धौल जमाते

अगले नाम से फिर एक बार
दोहराया गया दुष्कर्म
हौले-हौले फूंक-फूंककर
मर्दाना शहर में बढ़ गई अचानक
मांदों की गिनती
पिछले साल पांच सौ छब्बीस
इस साल अगस्त तक
चार सौ इक्कीस

स्कूल में पढ़ने वाली
मालती को क्या पता था
सबक याद कराने वाला मास्टर
उसे क्या रटा रहा है
देर शाम बेहोश मिली मालती
कोचिंग सेंटर के आखिरी कमरे में

चालीस फोंट की बोल्ड हेडिंग
लुट गई मालती दिन-दहाड़े
खुलती आंखों का भरोसा
फिर से सो गया
लोकशाही के चौथे खंभे का
हथकंडा देखकर

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

क्लिंटन पीढ़ी का मर्द


तुम्हें तो पंख मिले हैं फितरतन
जाओ न उड़ो तुम भी
कहो कि मेरा है आकाश

क्यों
आखिर क्यों चाहिए तुम्हें
उतनी ही हवा
जितनी उसके बांहों के घेरे में है
क्यों है जमीन उतनी ही तुम्हारी
जहां तक वह पीपल घनेरा है

सुनी नहीं बहस तुमने टीवी पर
बिन ब्याही भी पूरी है औरत
क्या बैर है तुम्हारा उन सहेलियों से
जिनके पर्स में रखी माचिस
कहीं भी और कभी भी
चिंगारी फेंकने के लिए रहती है तैयार

बताओ आखिर
क्या मतलब है इसका
कि एक आईना भी नहीं है तुम्हारे पास
उसे छोड़कर
जिसमें तुम संवर सको
मलिका बन सको दुनिया जहान की

तुमने तो देखी भी नहीं होगी
टांगें अपनी ऊपर से नीचे तक
पता भी है तुम्हें
कि जिन अलग-अलग नंबरों से
घेरती-बांधती हो खुद को
उसका जरूरत से ज्यादा बटनदार होना
आजादी की असीम संभावनाओं का गला घोंटना है

जानती नहीं तुम
कि छलनी से चांद निहारने की आदत तुम्हारी
आक्सीजन में मिलावट है उसके लिए
खांसने लगता है वह
हांफती है जिंदगी उसकी
तुम्हारे बस उसके कहलाने से

तुम भले बनना चाहो उसकी मैना
वह तुम्हारे दरख्त का तोता नहीं बन सकता
वन बचाओ मुहिम का एक्टिविस्ट वह
जंगली है पूरी तरह से

तुम्हें अहसास नहीं शायद
कि बेटी हो तुम उस सौतेली सोच की
जो पूरी जिंदगी सोखा आती है
अपने बाप का हुलिया जानने में
माफ करना साथिन
बिल क्लिंटन की पीढ़ी का मर्द
इससे ज्यादा ईमानदार नहीं हो सकता
कि रात ढले तक तुम्हें
अपनी दबोच से आजाद रखे