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रविवार, 3 मार्च 2013

खूनी हिमाकत और घाटी में पंचायत


अभी यासीन मलिक चर्चा में थे। उन्होंने घाटी की स्थिति को लेकर अपने विवादास्पद से ज्यादा संदेहास्पद स्टैंड को दुनिया के सामने रखने के लिए 'पाक धरती' चुनी। इस पाक सरजमीं पर उन्हें हाफिज सइद तक की मौजूदगी नागवार न गुजरी। भारत सरकार इस सबके बावजूद थोड़ी इत्मिनान में है तो उसकी वजह है। दरअसल जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाल है। वहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक चुने हुए प्रतिनिधि शासन व्यवस्था को संभाल रहे हैं। यह बात भारत दुनिया के किसी भी मंच पर जब कहता है तो कश्मीर समस्या को लेकर तमाम दुष्प्रचारों का वह एक तरह से मुंहतोड़ जवाब दे रहा होता है। यह जवाब खासतौर पर पाकिस्तान और उससे सुर मिलाकर चलने वाले कश्मीरी अलगवादियों को कभी भी सोहाया नहीं। 
बड़े धमाकों और कई दिनों तक चलने वाले हड़तालों के दिन अब जम्मू-कश्मीर में लद चुके हैं। जाहिर है कि इससे नफरत और टूट का खेल खेलने वालों का मनोबल टूटा है। हताशा में उनकी की गई 'पत्थरबाजी' का भी डर वहां काम नहीं कर रहा है। नतीजतन, अमन के दुश्मनों ने पिछले एक-दो सालों में अपनी रणनीति बदल ली है। उन्हें साफ लग रहा है कि सूबे में अपना प्रभाव अगर बनाए रखना है तो उन्हें वहां आए लोकतांत्रिक स्थायीत्व को डिगाना होगा। इसके लिए उन्होंने स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक ढांचे को तहस-नहस करने का रास्ता चुना।
वैसे इस मंसूबे को पूरा होना उनके लिए बड़ी चुनौती है। क्योंकि सूबे में जब पंचायत चुनाव हुए थे तो मतदान का फीसद 80 से ज्यादा था। साफ है कि वहां लोकतंत्र कोई थोपी हुई स्थिति नहीं बल्कि एक आस्थापूर्ण चुनाव है। अब जबकि मौत का डर दिखाकर पंचायत प्रतिनिधियों को जबरिया इस्तीफा देने के लिए वहां मजबूर किया जा रहा है, तो इसे आतंकी आकाओं का दुस्साहस नहीं बल्कि यह उनकी कुंठा का ज्यादा बड़ा प्रमाण है।
घाटी में पंच-सरपंच मिलाकर करीब 33 हजार पंचायत प्रतिनिधि हैं। इनमें करीब 400 ने डर से इस्तीफा दे दिया है। कुछ लोग इस संख्या को 600 के करीब बताते हैं। इसी तरह दर्जनों पंचायत प्रतिनिधियों को या तो मार डाला गया है या वे आतंकी हिंसा में घायल हुए हैं। बारामूला जिले के क्रीरी क्षेत्र में एक सरपंच की गोलीबारी में मौत, इस तरह की हिंसा की ताजा घटना है। बावजूद इस हिंसक सचाई के नहीं लगता कि वहां लोकतंत्र की विकेंद्रित ताकत को समाप्त करना इतना आसान होगा।
अलबत्ता, यह जरूर है कि लोकतंत्र की जड़ों पर हिंसक प्रहार को लेकर राज्य सरकार को निश्चित रूप से प्रभावी कदम उठाने चाहिए। मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला को इस बाबत चिंता से कई बार अगवगत भी कराया गया है। मुख्यमंत्री ने खुद इस चुनौती को गंभीरता से कबूला भी है। राज्य सरकार ने अपनी तरफ से इस दौरान जरूर कुछ कदम भी उठाए होंगे। पर पंचायत प्रतिनिधियों की जानें अगर अब भी जा रही हैं और उनके इस्तीफे का सिलसिला अब भी रुका नहीं है, तो इसका मतलब यही है कि उमर सरकार की इसे रोकने की कोशिश असफल रही है। अच्छा होगा कि राज्य सरकार इस मुद्दे पर एकल पहल के बजाय एक राजनीतिक सर्वसम्मति के साथ कोई पहल करे।