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सोमवार, 14 नवंबर 2016

नोटबंदी के अलावा भी थे विकल्प



- प्रेम प्रकाश
अगर सरकार और समाज की व्यवस्था को लेकर सोच सुधारवादी नहीं रही तो हम समय के प्रवाह से कट जाएंगे। इसी तरह व्यवस्था के फैसले पर सवाल खड़े करने के अधिकार की जगह अगर जनता पर महज रजामंदी जाहिर करने का दबाव हो तो यह लोकतंत्र के लिए अशुभ संकेत है। इस सैद्धांतिक टेक के साथ नोटबंदी के सरकार के हालिया फैसले पर गौर करें तो इसे फौरी तौर पर सराहने वाले भी अब कहने लगे हैं कि सरकार ने यह फैसला जल्दबाजी में लिया है। बेहतर होता कि सरकार फैसले के इस विकल्प तक पहुंचने से पहले पर्याप्त सोच-विचार करती। आलम यह है कि फैसले के चार दिन बाद भी स्थिति लगातार असामान्य बने हुए हैं। बैंकों और एटम मशीनों के आगे घंटों कतार में खड़ी जनता का सब्र आक्रोेश मंे बदले लगा है। यह आक्रोश अगर विस्फोटक शक्ल अख्तियार करता है तो कानून व्यवस्था की स्थिति को संभालना आसान नहीं रह जाएगा। सड़कों से लेकर मंडियों तक लूटपाट जैसी घटनाएं तो फैसले के दूसरे-तीसरे दिन से ही सामने आने लगी हैं। 
ऐसे में यह सवाल तो सरकार से पूछा ही जाना चाहिए कि आखिर नोटबंदी के बड़े एलान से पहले उसने ऐसी पक्की व्यवस्था क्यों नहीं कि जिससे आमजनों को हो रही परेशानी से बचाया जा सके। यह भी कि क्या यह कालाधन से निपटने का एकमात्र मुफीद तरीका रह गया था? क्योंकि कई विशेषज्ञ भी इस बात को कह रहे हैं कि सरकार के पास तमाम ऐसी जानकारियां हैं, जिससे वे अवैध धन इकट्ठा करने वालों के गिरेबान सीधे पकड़ सकती है। रहा बड़े नोटों का सवाल तो इस पर रोक की मांग पुरानी है। दिलचस्प है कि अपने नए फैसले में भी सरकार इन्हें बंद करने के बजाय सिर्फ बदल रही है। यही नहीं, पांच सौ और हजार के बाद वह दो हजार का नया नोट प्रचलन में ला रही है। इस तरह यह कार्रवाई बड़े नोटों को चलन से बाहर करने का तो कतई नहीं है। हां, सरकार के फैसले से कालाधन के नाम पर फर्जी नोटों पर कार्रवाई की दलील तो समझ में आती है पर इससे अवैध धन जमा करने के रास्तों और जुगाड़ों पर नकेल कसेगी, यह समझ से परे है। जहां तक सवाल है पुराने बड़े नोटों को अमान्य करने का तो इस काम को भी एकबारगी या क्रमिक तौर पर छपाई बंद करने का विकल्प ज्यादा बेहतर होता। इससे धीरे-धीरे बड़े नोट खुद ब खुद प्रचलन से बाहर हो जाते। पर सरकार ने ऐसा न कर एक ऐसा फैसला किया जिसमें घुन और गेंहू साथ-साथ पिस रहे हैं। ये तमाम सवाल मौजूदा हालात में इसलिए जरूरी हैं क्योंकि सरकार की तरफ से अब भी कोई ऐसा आश्वासन नहीं कि वह आमजनों की परेशानी के साथ बिगड़े हालात पर जल्द काबू पा लेगी। 
आठ दिसंबर की रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विमुद्रीकरण की घोषणा की तो अगले दो दिनों में एटीएम के साथ बैंकों के सामान्य कामकाज का एक तरह से भरोसा देश को दिलाया था। पर चार दिन बाद आलम यह है कि सरकार की तरफ से यह सफाई आने लगी कि कि दैनिक जरूरतें पूरी करने के लिए खुले पैसे की समस्या से जूझ रहे आम आदमी की तकलीफें दूर होने में उम्मीद से अधिक समय लग सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि जारी किए गए 5०० और 2,००० रुपये के नए नोटों के लिए देशभर के दो लाख एटीएम मशीनों को रीसेट करना होगा। वित्तमंत्री अरुण जेटली से जब पूछा गया कि अब जब वे एटीएम मशीनों के सामान्य तौर पर काम करने को लेकर दो से तीन हफ्ते का वक्त लगने की बात कह रहे हैं तो सरकार सरकार ने पहले से एटीएम मशीनों में ये बदलाव क्यों नहीं किए। इस पर जेटली की दलील है कि इससे सरकार का चकित करने वाले कदम की गोपनीयता खत्म हो जाती। पर इस गोपनीयता को बनाए रखने के लिए आम लोगों के सब्र की परीक्षा लेने का विकल्प ही क्यों सरकार को पसंद आया, इसका सीधा जवाब सरकार की तरफ से कोई नहीं दे रहा। 
इस प्रक्रिया की जटिलता और इसमें लगने वाले समय का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि किसी एटीएम मशीन को रीकन्फीगर करने के लिए एक तकनीशियन को खुद एटीएम मशीन जाना होगा। इस तरह किसी एक मशीन को रीकन्फीगर करने में अमूमन चार घंटे का समय लग सकता है। इसका मतलब है कि देश भर की दो लाख एटीएम मशीनों को रिकन्फीगर करने में आठ लाख घंटे लगेंगे। इस काम के लिए बड़ी संख्या में तकनीशियनों को इकट्ठा करना भी चुनौती ही है। लिहाजा, यह सवाल तार्किक तौर पर और मजबूत होता है कि कथित कालेधन से निपटने के लिए सरकार ने एक ऐसा रास्ता क्यों चुना जिससे समाज का हर तबका इस कदर परेशानहाल है कि उसे पता भी नहीं कि वे इससे कब तक और कैसे बाहर निकलेंगे। 
तथ्यात्मक तौर पर देखें तो देश में कुल 17 लाख करोड़ की करेंसी में 8.2 लाख करोड़ (5०० के नोट) और 6.7 लाख करोड़ (1००० के नोट) पूरी करेंसी का 86 फीसदी हैं, जो अब प्रचलन से बाहर हो गए हैं। इससे पैदा होने वाले संकट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि देश में नगदी नोटों से आम जनता की अर्थव्यवस्था चलती है, जबकि बड़े लोग बैंकिग प्रणाली से कारोबार करते हैं। सरकार चाहती तो ऐसे में 2.7 लाख करोड़ के रोजाना बैंकिग ट्रांजेक्शन और सालाना 8०० लाख करोड़ के बैंकिग कारोबार में बड़े लेनदेन को सीधे अपने स्कैन पर ले सकती थी और जांच के बाद संबंधित लोगों-कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई कर सकती थी। 
सीबीआई डायरेक्टर एपी सिह ने फरवरी 2०12 में यह बताया था कि कालाधन के नाम पर लगभग 3० लाख करोड़ रुपए विदेशों में जमा हैं। 2०14 के लोकसभा चुनाव के समय भाजपा ने इस धन को देश में लाने की बात कही थी। पर अब इस वादे को पूरा करने के बजाय सरकार देश की मुद्रा व्यवस्था को बदलने की एक ऐसी कार्रवाई कर रही है जो जनता को बैठे-बिठाए मुसीबत में डालने वाली है। जबकि सरकार के सामने दूसरे विकल्प भी थे। हाल के पनामा लीक्स में देश के 5०० रसूखदार तथा एचएसबीसी में 1,195 लोगों के पास कालाधन होने का पता चला था। इसी तरह कुछ बड़े उद्योगपतियों द्बारा बैलेंसशीट में गड़बड़ी करके सरकारी बैंकों से 15 लाख करोड़ रुपए से अधिक का लोन लिया गया जिसमें अधिकांश एनपीए में तब्दील हो गया है। और तौ और रिजर्व बैंक का खुद का आंकड़ा है कि पिछले 44 वर्षों में एक्सपोर्ट और ओवर इनवाइसिग के माध्यम से बड़ा घोटाला हुआ है जो कुल जीडीपी का एक चौथाई हो सकता है। सरकार चाहती तो ऐसे बड़े समूहों और उद्योगपतियों के फारेंसिक तथा सीएजी ऑडिट कराने का फैसला कर सकती थी। इससे देश में एक नए कारोबारी वित्तीय अनुशासन को अमल में लाने का श्रेय भी सरकार को मिलता। पर उसने ऐसा नहीं करके बेकसूर आम जनता के लिए परेशानी बढ़ाने वाला फैसला लिया। 
साफ है के कालाधन के खिलाफ सार्थक और अचूक कार्रवाई के बजाय सरकार एक ऐसे कदम को तरजीह दे रही है जिसका फायदा वह राजनीतिक लोकप्रियता के लिए कर सके। पर कालेधन को लेकर प्रचारित इस निर्भीकता का एक नतीजा यह भी है कि ट्विटर पर प्रधानमंत्री मोदी के 3,13,312 फॉलोअर्स ने उनका साथ छोड़ दिया है। बेहतर होगा कि सरकार अपने खिलाफ जा रही इन प्रतिक्रियाओं को खारिज करने के बजाय इन्हें गंभीरता से ले।