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शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

प्रलेस की मजबूरी का विलासपुर प्रसंग

-प्रेम प्रकाश
असहिष्णुता मुद्दे पर अपनी खोई साख और हारी बिसात दोनों को भूलकर वाम खेमे के लेखक फिर से एक बार वैचारिक तौर पर हमलावर होने की कोशिश कर रहे हैं। वाम आस्था से जुड़े बुद्धिजीवी यह कोशिश तब कर रहे हैं जब भारत में विचार का सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायन होने को है। विचार और रचना को एक खास रंग में देखने के आदी हठवादियों को आज वह सूरत नागवार गुजर रही है जब यह रंग बदल रहा है। यहां सवाल महज लाल या केसरिया का नहीं बल्कि उस दृष्टि का है जो दूसरों के चश्मों को तो बेरंग देखना चाहते हैं पर अपने कानों पर रंगीन चश्मे की कमानी चढ़ाए घूमना चाहते हैं। हाल में विलासपुर में प्रगतिशील लेखक संघ का 16वां राष्ट्रीय सम्मेलन संपन्न हुआ। सम्मेलन में पहले दिन से इस बात की तल्खी हावी रही कि सरकार अभिव्यक्ति की आजादी पर पहरे बैठा रही है, वह रचनाकारों द्वारा इस आजादी का इस्तेमाल अपने हित रक्षण के शर्त पर चाहती है।
दिलचस्प यह रहा कि सम्मेलन का एजेंडा तय करने वालों को भी इस बात का कहीं न कहीं अहसास था कि जो बातें वे पिछले दो सालों से हर संभव मंच से और अवसर पर चीख-चीख कर कर रहे हैं, देश और मीडिया उन्हें खास तवज्जो नहीं दे रहा। खासतौर पर असहिष्णुता के मुद्दे पर धरना-जुलूस और पुरस्कार वापसी के बाद तो आलम यह है कि कलम के नाम पर प्रगतिशीलता की राजनीति करने वालों को यह सूझ भी नहीं रहा कि अपनी ओर ध्यान खींचने के लिए क्या किया जाए। सो इस बार प्रलेस ने अपने जलसे के लिए वरिष्ठ पत्रकार पी साईनाथ और सिद्धराज वरदराजन को अपना एक तरह से पोस्टर ब्वॉय बनाया।
सम्मेलन में साईनाथ ने लेखनी की आजादी का नारा बुलंद करते हुए मौजूदा सरकार की नीति और मंशा पर कई तार्किक सवाल खड़े किए। पर तारीफ यह रही कि अभिव्यक्ति के खिलाफ कैंची उठाने की जिस सरकारी प्रवृत्ति का उन्होंने जिक्र किया, वह उन्हें पिछले ढाई साल में नहीं बल्कि पिछले डेढ़ दशक में दिखाई पड़े। यानी यूपीए दे दोनों दौर का शासन इसमें शामिल है, जिसमें कुछ समय तक तो वाम दलों का भी सरकार को समर्थन था। अधिवेशन में रोहित वेमुला से लेकर दाभोलकर तक को याद किया गया और कहा गया कि सामाजिक समानता और धर्मनिरपेक्षता आज एक कट्टरवादी आग्रह के पांवों तले कुचली जा रही है।
बालासोर के जिस चित्र पर पूरा देश शर्मसार हुआ, साईनाथ ने उसे देश का आपवादिक नहीं बल्कि आम चित्र बताया। इसी तर्ज पर वरदराजन ने सरकार की नीतिगत असफलता की कई मिसालें पेश की। पर दिलचस्प तो यह रहा कि अखबार के पन्नों पर समाचार को रेडकिल विचार की तश्तरी में पेश करने में माहिर इन दिग्गजों ने सरकार के लिए जो विकल्प सुझाए, वे नीति और विकास के वे मॉडल हैं, जिन्हें आज हम अमेरिकन, जापानी या कोरियन मॉडल के नाम से जानते हैं। अब कोई पूछे इन प्रगतिशील साहित्याकारों से कि क्या उनके लिए रूस और चीन के बाद इन पूंजीवादी देशों के इकोनामिक मॉडल आदर्श हो गए हैं। और हां तो फिर देश में अमेरिकी मदद से परमाणु बिजली संयंत्र से लेकर एफडीआई के विरोध की आज तक खिंची आ रही लाइन का क्या हुआ?
एक सवाल यह भी कि प्रलेस की स्थापना के बाद क्या पांच से छह दशक तक जिन प्रगतिशील लेखकों-आलोचकों को हिंदी की मुख्यधारा होने का यश हासिल रहा, आज वह अपने वैचारिक अस्तित्व की लड़ाई लड़ने पर क्यों मजबूर हैं। इस मजबूरी की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि जब वे सरकार और उसकी नीतियों पर तीखा हमला करने को तत्पर हैं तो उनके पास एक भी ऐसा साहित्यकार नहीं, जिन्हें आगे कर के वे अपनी बात कह सकें। प्रलेस का लंबे समय तक पयार्यय बने रहे और अपने जीवन के नब्बे वसंत के उत्सवी मोड़ पर खड़े आलोचक नामवर सिंह से भी उन्हें कोई प्रत्यक्ष मदद नहीं मिल सकी। दरअसल, साईनाथ और वरदराजन की विलासपुर में मौजूदगी प्रलेस की उस रचनात्मक दिवालियापन को ढकने की मजबूरी रही, जिस पर पिछले लंबे समय से सवाल अंदर-बाहर से उठते रहे हैं। मैग्सेसे और दूसरे बड़े सम्मान से नवाजे जा चुके नामवर पत्रकारों को भी इस बात की कोई जरूरत महसूस नहीं हुई कि वे साहित्यकारों के इस मंच से यह कहें कि रचना और आलोचना की संस्कृति को आम रास्तों ोक आम रास्ते से गुजरना चाहिए कि वाम।
यह बात अलग से कहने की जरूरत नहीं कि वाम जमात ने इतिहास से लेकर साहित्य तक जिस तरह अपने वर्चस्व को भारत में लंबे समय तक बनाए रखा, वह दौर अब हांफने लगा है। खासतौर पर हिदी आलोचना में नया समय उस गुंजाइश को लेकर आया है, जब मार्क्सवादी दृष्टि पर सवाल उठाते हुए साहित्येहास पर नए सिरे से विचार हो। असहिष्णुता पर बहस और विरोध के दौरान यह खुलकर सामने आया था कि सत्तापीठ से उपकृत होने वाले कैसे अब तक अभिव्यक्ति और चेतना के जनवादी तकाजों को सिर पर लेकर घूम रहे थे। नक्सलवाद तक को कविता का तेवर और प्रासंगिक मिजाज ठहराने वालों ने देश के मन-मिजाज और दरकार से जुड़े मुखर रचनाकर्म को भी कैसे दरकिनार किया, उसकी तारीखी मिसाल है जयप्रकाश आंदोलन। आपातकाल और चौहत्तर आंदोलन को लेकर वाम शिविर शुरू से शंकालु और दुविधाग्रस्त रहा। यहां तक कि लोकतंत्र की हिफाजत में सड़कों पर उतरने के जोखिम के बजाय उनकी तरफ से आपातकाल के समर्थन तक का पाप हुआ।
अब जबकि वाम शिविर की प्रगतिशीलता अपने अंतर्विरोधों के कारण खुद- ब-खुद अंतिम ढलान पर है तो हमें एक खुली और धुली दृष्टि से इतिहास के उन पन्नों पर नजर दौड़ानी चाहिए, जिस पर अब तक वाम पूर्वाग्रह की धूल जमती रही है। कागज पर मूर्तन और अमूर्तन के खेल को अभिजात्य सौंदर्यबोध और नव परिष्कृत चेतना का फलसफा गढ़ने वाले वाम आलोचक अगर समय और समाज के आगे खड़ी रचनात्मक चुनौतियों को बगैर किसी दलीय या वैचारिक पूर्वाग्रह के स्वीकार करने से आज भीबच रहे हैं तो इसे हिंदी भाषा और साहित्य के लिए एक दुर्भाग्यपूणã स्थिति ही कहेंगे। इसमें कहीं कोई दो मत नहीं पिछले कुछ सालों में अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का एक बड़ा सवाल देश के बौद्धिकों और चिंतनशीलों को परेशान कर रहा है, पर क्या प्रतिक्रियावादी आग्रह उस वैचारिक अराजकता की देन नहीं है जिसमें खुद प्रगतिशीलों ने भिन्न स्वरों को सुनने से पहले खुद इनकार किया, विधर्मी रचनाधर्मिता को कोई आलोचकीय महत्व नहीं दिया।
यही नहीं, किसी खास राजनीतिक जमात का रचनात्मक या वैचारिक फ्रंट बनकर काम करना किसी लेखक संगठन को समय प्रवाह में कहां से कहां लाकर पटक देता है, इसकी सबसे बड़ी मिसाल अगर आज प्रलेस है तो इसका झंडा आज भी उठाए घूम रहे लेखकों को यह सवाल अपने बीच उठाना चाहिए कि उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता सर्व समावेशी दरकार पर क्यों खरी नहीं उतरती।

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

दरियादिली अब नहीं


-प्रेम प्रकाश
उरी में हुए आतंकी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच सैन्य जोर आजमाइश की जो आशंका थी, वह अब काफी हद तक दूर हो चुकी है। संयुक्त राष्ट्र में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के भाषण से भी यह साफ हुआ कि भारत, पाकिस्तान के साथ फिलहाल किसी सीधे टकराव की स्थिति में खुद को नहीं ले जाएगा। दरअसल, ये सारी स्थितियां एक बार फिर इस बात को साफ कर रही हैं कि कम से कम नब्बे के दशक से शुरू हुए वैश्विक उदारीकरण के दौर के बाद से ग्लोब के किसी छोड़ पर बैठा देश किसी दूसरे देश के खिलाफ ऐलानिया जंग की बात नहीं कर सकता। लिहाजा आज अंतरराष्ट्रीय संबंधों में शह और मात की सबसे बड़ी बिसात कूटनीति है।
आधुनिक दौर के सबसे बड़े कूटनीतिज्ञ माने गए जर्मनी के प्रधानमंत्री बिस्मार्क ने कभी कहा था कि कूटनीति पांच-छह गेंदों को एक साथ हवा में उछालने और फिर उसे लपकने जैसा सर्कसी करतब है। इसमें सब्र और संतुलन दोनों का इम्तहान एक साथ होता है। भारत अब खासतौर पर सिंधु जल समझौते को कूटनीतिक मेज पर लाकर पाकिस्तान के साथ इसी सब्र और संतुलन के साथ दबाव बढ़ाने में लगा है। यह एक ऐसा वैकल्पिक और सुरक्षित कदम है जो पाकिस्तान पर सख्ती तो बढ़ाएगा ही, भारत को इस कारण अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात से घिरने से भी बचाएगा कि वह अपने पड़ोसी मुल्क के खिलाफ किसी तरह के हिंसक या सैन्य अभियान को अंजाम दे रहा है।
अच्छी बात यह है कि अभी इस बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में एक उच्चस्तरीय बैठक भर हुई है। पर पाकिस्तान में इसकी प्रतिक्रिया है कि आने वाले दिनों में उस पर आफत का कोई बड़ा पहाड़ टूटने वाला है। इस बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने यह कहकर पाकिस्तान के माथे पर सिलवटें बढ़ा दी हैं कि खून और पानी साथ नहीं बह सकते। जबकि बैठक में जल संधि में बदलाव की किसी दरकार पर कोई विचार नहीं किया गया है। इसमें हुआ बस यह है कि अब भारत इस समझौते के प्रावधानों का इस सख्ती से पालन करना चाहता है ताकि पाकिस्तान को ऐसा कोई अतिरिक्त लाभ न मिले, जो उसे अब तक मिलता रहा है। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है सिंधु जल क्षेत्र में बिजली परियोजनाओं को विकसित करने पर जोर। इसके तहत जो पहला कदम उठाने को भारत उत्सुक है, वह है तुलबुल बिजली परियोजना को फिर से शुरू करना।
बात करें सिंधु जल समझौते की तो पाकिस्तान का एक बड़ा इलाका भारतीय सीमा से छोड़े गए नदियों के पानी पर आश्रित है। विश्व बैंक की मध्यस्थता के बाद 19 सितंबर 196० में भारत और पाकिस्तान के बीच यह समझौता हुआ था। तब भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल अयूब खान ने इस पर दस्तखत किए थे। संधि के मुताबिक भारत पाकिस्तान को सिधु, झेलम, चिनाब, सतलुज, व्यास और रावी नदी का पानी देगा। मौजूदा समय में इन नदियों का 8० फीसदी से ज्यादा पानी पाकिस्तान को ही मिलता है। यह समझौता पिछले 56 साल से बगैर किसी रुकावट के जारी है। जबकि इस दौरान भारत-पाकिस्तान के रिश्ते कई बार पटरी से उतरे। यहां तक कि दोनों देश इस दौरान जंग के मैदान में भी आमने-सामने हुए। पर अब भारत इस संधि को पाकिस्तान पर कारगर सख्ती के एक बेहतर कूटनीतिक विकल्प के तौर पर आजमाना चाहता है। इसे मौजूदा हालात में जम्मू कश्मीर में पाक के बढ़े आतंकी शह को काउंटर करने और भारतीय हित रक्षाके लिहाज से सबसे बेहतर विकल्प भी माना जा रहा है।
दिलचस्प है कि घाटी में अभी जिस तरह के राजनीतिक हालात हैं, उसमें भी सरकार के लिए सिंधु जल समझौते को लेकर पाकिस्तान के साथ अब तक बरती जा रही उदारता से कदम पीछ खींचने में मदद मिलेगी। क्योंकि 2००2 में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में इस संधि को खत्म करने की मांग उठ चुकी है। साफ है कि जम्मू कश्मीर की अवाम को भी अब तक यही लगता रहा है कि भारत सरकार उसके स्थानीय हितों की उपेक्षा करके पाकिस्तान को मदद करती रही है।
भारत की इस नई पहल के बाद पाकिस्तान एकदम से सक्रिय हो गया है और वह तमाम देशों के अलावा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर इस बात को उठाने में लग गया है कि भारत को ऐसे किसी कदम को उठाने से रोका जाए जिससे पाकिस्तान में जल संकट जैसी स्थिति आए। विदेशी मामलों में पाक प्रधानमंत्री के सलाहकार सरताज अजीज ने 56 देशों को बकायदा पत्र लिखकर कश्मीर मामले पर दखल देने को कहा है। पाकिस्तान के सामने दोहरा संकट यह है कि एक तरफ तो वह जल संकट की आशंका से उबरना चाहता है, वहीं भारत की नई कूटनीतिक पहल के बाद उसके लिए इस बात को प्रचारित करना जरूरी हो गया है कि भारत जम्मू कश्मीर के बिगड़े हालात के लिए उसे नाहक कसूरवार ठहराने में लगा है।
यहां यह समझ लेना खासा जरूरी है कि सिधु जल समझौते को आधुनिक विश्व इतिहास का सबसे उदार जल बंटवारा माना गया है। इसके तहत पाकिस्तान को 8०.52 फीसदी पानी यानी 167.2 अरब घन मीटर पानी भारत सालाना देता है। नदी की ऊपरी धारा के बंटवारे में उदारता की ऐसी मिसाल दुनिया की किसी और संधि में नहीं मिलेगी। सिधु समझौते के तहत उत्तर और दक्षिण को बांटने वाली एक रेखा तय की गई है, जिसके तहत सिधु क्षेत्र में आने वाली तीन नदियां पूरी की पूरी पाकिस्तान को भेंट के तौर पर दे दी गई हैं और भारत की संप्रभुता दक्षिण की ओर तीनों नदियों के बचे हुए हिस्से में ही सीमित रह गई है।
जाहिर है भारत अब इस उदारता को आगे इसलिए नहीं निभाना चाहता क्योंकि इसके बदले उसे पाकिस्तान की तरफ से आतंकी और जेहादी मंसूबों का हिंसक अंजाम भुगतना पड़ता रहा है। आज जम्मू कश्मीर में लोकतांत्रिक तौर पर बहाल सरकार काम कर रही है। यही नहीं, कम से कम पिछले एक दशक में वहां पंचायत से लेकर विधानसभा तक लोगों ने जिस तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया है, उससे वहां अमन चैन की एक स्वाभाविक स्थिति कायम होने में मदद मिलनी चाहिए थी। पर कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय विवाद का मुद्दा बनाने की पाकिस्तानी जिद ने आज घाटी की स्थिति को लेकर भारत सरकार को नए सिरे से सोचने करने पर मजबूरकर दिया है। अच्छी बात यह है कि नदियों के जल का इस्तेमाल स्थानीय स्तर पर खेती से लेकर बिजली निर्माण तक करने पर सरकार अब अगर जोर दे रही है तो इससे घाटी में तो विकास का एक नया दौर शुरू होगा ही पाकिस्तानी आतंकी हिमाकत पर भी नकेल कसने में मदद मिलेगी।