संघर्ष लोकतंत्र में हमेशा जारी रहने वाली प्रक्रिया है। जिस राजनीति को हम सिर्फ सत्ता की दखली और बेदखली से जोड़कर देखते हैं, वह उस पूरी राजनीति के औचित्य का लेश मात्र भी नहीं, जिसकी एक बेहतर लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए दरकार है। यह बातें इसलिए भी समझनी होगी क्योंकि हमें यह लगता है कि नेता और जनता हमेशा एक-दूसरे के खिलाफ होते हैं, यही उनकी फितरत भी है और यही मौजूदा हालात में सतह पर आई सचाई भी है। दरअसल, राजनीति और संघर्ष के लोकतांत्रिक तकाजे जनता से जुड़े हैं, जनता के लिए हैं। इसलिए जन सरोकार से अलग या उसके उलट न तो कोई दूसरा सरोकार लोकतंत्र में मान्य है और न ही कोई दूसरा रास्ता। साफ है कि लोकतंत्र की ताकत अगर लोक है तो सत्ता और शक्ति के किसी दूसरे केंद्र का ताकतवर होना खतरनाक है। यही बात लोकतांत्रिक संघर्षों को लेकर भी है।
यह कहीं से मुनासिब नहीं कि 'राजपथ' का महत्व 'जनपथ' से ज्यादा हो। अगर जनता और नेता के संघर्ष के औजार भिन्न होंगे तो इसका मतलब है कि लोक के लोप की कीमत पर नेता नेतागीरी का स्कोप देख रहे हैं। जिन लोगों को भारतीय राजनीति में राहुल गांधी के आगमन और आगे बढ़ने के उनके सीधे-सरल लोकतांत्रिक तरीके पर जरा भी यकीन हो, उन्हें यह जानना अच्छा लगा होगा कि सरकारी योजनाओं में घपलों-घोटालों को उजागर करने के लिए उन्होंने ओरटीआई को हथियार बनाया है। इसके लिए उन्होंने न सिर्फ खुद से अर्जी लगाई बल्कि यह दिखाया भी कि नेतागीरी की धौंस और सत्ता की पागल कर देने वाली राजनीति में उनका कोई यकीन नहीं। कलावती की झोपड़ी में रात बिताकर परिवर्तन के सवेरे की बात करने वाले इस युवा नेता की कथनी और करनी अगर सचमुच एकमेक है तो यह बड़ी बात है।
राहुल भारतीय राजनीति के सबसे ख्यात और शक्तिशाली परिवार से आते हैं, उनकी पार्टी कांग्रेस भी देश की आज तक नंबर एक राजनीतिक पार्टी है। अगर लोगों के बीच जाना, उनसे जुड़ना, उन्हें समझना और लोक संवाद के जरिए लगातार संघर्ष के लिए तत्पर बने रहना राजनीति की कम से कम वह सीख तो नहीं ही है जिसमें एक तरफ जहां प्याली में क्रांति उबलती है, वहीं दूसरी तरफ लाल बत्ती से नेतृत्व का कद तय होता है। राहुल को लेकर एक राय यह भी है कि धैर्य और सरलता की राह उनकी नीति से ज्यादा रणनीति है। एक ऐसी रणनीति जो उनकी भविष्य में होने वाली ताजपोशी के लिए बनाई गई है। अगर यह बात सही है तो यह जनता के साथ एक और विश्वासघात होगा और लोकतंत्र में लोक की आस्था और भरोसे से खिलवाड़ का खामियाजा बहुत बड़ा है। राहुल को यह भी अभी से समझ लेना होगा।
पिछले दिनों में कई ऐसी पहलें हुई हैं जिसमें आरटीआई सरकार के अपने कामकाज के साथ व्यवस्थापिका की कमजोरियों को तथ्यगत तौर पर उजागर करने का हथियार बना है। इस कारण कई मौके पर जहां जरूरी कदम उठाए गए, वहीं कई मामलों में अदालत तक ने सार्थक हस्तक्षेप किया। अभी नागरिक समाज की सजगता से भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल को लेकर जो मुहिम आगे बढ़ रही है उसके आगाज के पीछे भी आरटीआई कार्यकर्ताओं की सफलता ही है। दरअसल, यह एक ऐसी कानूनी ताकत है जिसके माध्यम से जनता सरकारी कामकाज, उसके खर्च ब्योरे और तौर-तरीकों पर सीधे सवाल उठा सकती है। सरकार और व्यवस्था के कामकाज का इस तरह सार्वजनिक होना, जहां उनकी विश्वसनीयता को बहाल करने का कारगर जरिया बना है, वहीं जनता को भी भरोसा हुआ है कि उसकी योजनाओं और उसके हक के साधनों की गिद्ध लूट अब संभव नहीं।
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