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सोमवार, 23 मई 2011

बाय-बाय ओबामा


भारत के लिए अमेरिका महज एक सुपर पावर नहीं, एक आईना भी है और एक सपना भी। आईना जिसमें खुद की साज-संवार देखकर मन अघाए और सपना इस मायने में कि हम सब अमेरिका जैसा होना या दिखना चाहते हैं, यह हमारा ख्वाब भी है और मंजिल भी है। पर इस अमेरिकान्मुख सोच और सचाई का दूसरा रुख भी है, जो खासा दिलचस्प है। भूले नहीं होंगे लोग अंकल सैम का वह गुस्सा जो उन्होंने अपने यहां के स्कूलों पर उतारा था। उन्होंने स्कूल मैनेजमेंटों को सरकारी फंडिंग बंद करने की धमकी दी थी क्योंकि वहां बच्चे लगातार अंग्रेजी में फेल हो रहे थे। कितना दिलचस्प है यह जानना कि एक देश जिसकी अंग्रेजी क्या, उसके बोलने तक का लहजा पूरी दुनिया में नकल की जाती हो, वहीं के बच्चे अंग्रेजी की परीक्षा तक न पास कर पाएं। मामला यहीं निपटता तो भी गनीमत थी, अमेरिका की इस स्थिति का लाभ उठाया कुछ भारतीय कोचिंग संस्थानों ने। उन्होंने सस्ते में ट्यूशन आउटसोर्स के जरिए अमेरिकी बच्चों को अंग्रेजी सिखाने का बीड़ा उठाया और यह धंधा रातोंरात चल निकला। 
दरअसल, यह एक शुरुआत थी भारत और अमेरिका में भीतरी तौर पर बदल रही स्थितियों की। गौरतलब है कि आईटी सेक्टर के जरिए जिस इकोनमी बूम ने रातोंरात भारतीय अर्थ जगत की तस्वीर बदल दी, उससे पहले का दौर भारतीय प्रतिभाओं के विदेश पलायन का था। भारतीय प्रतिभा का प्रतिस्पर्धी होना और यहां श्रम का सस्ता होना, दुनियाभर में इनके छाने और भाने का बड़ा कारण रहा है। पर अब सूरत बदल रही है। आलम यह है कि भारत को दुनिया की तरफ देखने के बजाय दुनिया को भारत की तरफ देखने की दरकार सामने आई है। यह नई और विश्व अर्थव्यवस्था में एक क्रांतिकारी स्थिति है।
असल में भारत और चीन ये दो ऐसे देश हैं, जिन्होंने अपनी आर्थिक कुव्वत को पिछले दशकों में जिस तर्ज पर बढ़ाया और मजबूत किया है, वह कई लिहाज से बाकी दुनिया से अलग है। एक तो इन दोनों देशों का विस्तार आबादी और क्षेत्रफल दोनों लिहाज से ज्यादा है, दूसरे ग्लोबल इकोनमी का फंडा यहां स्थानीय प्रभावों और बदलावों के बाद ही सरजमीं पर उतरा है। आलम यह है अमेरिका के राष्ट्रपति को अपनी राजनीतिक स्थिरता के लिए बार-बार अपने लोगों को इस मुद्दे पर भरोसे पर लेना होता है कि भारत और चीन के 'अर्थपूर्ण आकर्षण' से बचाव के लिए सख्त कदम उठाएंगे।
जाहिर है ऐसी सूरत में जब घर के हालात ज्यादा बेहतर और संभावनाओं से भरे दिख रहे हैं, परदेस का रुख करने वाली प्रतिभाओं की दर में तो गिरावट आएगी ही, पहले ही पलायन कर चुके लोगों की वापसी की रफ्तार भी बढ़ जाएगी। इस रुझान को तथ्यगत रूप में मान्यता दी है हाल में ही किए गए एक अध्ययन में। कॅाफमैन फाउंडेशन ने तीन अमेरिकी विश्वविद्यालयों हार्वर्ड, कैलिफोर्निया और ड्यूक की मदद से किए गए अध्ययन में पाया है कि दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति का की शिनाख्त पाने वाले अमेरिका को मौजूदा सूरत में भारी खामियाजा उठाना पड़ रहा है।
दिलचस्प है कि इस अध्ययन का शीर्षक ही है- 'स्वदेश वापसी करने वाले उद्यमियों के लिए वास्तव में भारत और चीन में घास अधिक हरी है'। यह अध्ययन कबूलता है कि एशिया के इन दो बड़े देशों में इन दिनों उद्यमशीलता की लहर चल रही है। किसी समय प्रतिभा पलायन से अपनी अंटी भारी करने वाली अमेरिकी कंपनियों के लिए यह स्थिति सीधे-सीधे गंगा के उलटी बहने जैसी है।
स्वदेश वापसी कर चुके 153  कुशल भारतीय और 111 चीनी कामगारों के बीच कराए गए सर्वेक्षण में तकरीबन आधे ने कहा कि वे अपने देश में अपनी कंपनी स्थापित करेंगे। यह अध्ययन वैसे यह तो साफ नहीं करता कि पिछले दिनों कितने कुशल कामगार स्वदेश लौटे हैं। वैसे इस बाबत इस अध्ययन से ही जुड़े एक लेखक विवेक वाधवा के दावों को अगर सही मानें तो पिछले दो दशकों में डेढ़ लाख लोग भारत और तकरीबन इतने ही लोग चीन वापस लौट चुके हैं। पिछले पांच सालों में इस रुझान में जबरदस्त तेजी दर्ज की गई है। वाधवा इस रुझान को आपवादिक नहीं मानते क्योंकि उनके शब्दों में अब झुंड के झुंड प्रतिभाए एक साथ अमेरिका को गुड बॉय कह रही हैं। कह सकते हैं कि प्रतिभाओं की पसंद और आकर्षण में आया यह बदलाव और कुछ नहीं सीधे-सीधे घर के हालात बेहतर होने के जीते-जागते सबूत हैं। आगे भी ये सबूत यों ही साबुत बने रहेंगे, अभी की सूरत में यही भरोसा भी है। 

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