LATEST:


बुधवार, 14 मार्च 2018

मुरझाए कमल की माला पहनने से क्यों भाग रहे मोदी जी!


- प्रेम प्रकाश

एक दिन पहले चर्चा इस बात की थी कि कैसे सोनिया गांधी के बुलावे पर 20 दलों के नुमाइंदे जुटे और अगले दिन सुबह से खबर का जोर इस पर था कि यूपी-बिहार के उपचुनाव में मोदी मैजिक नहीं चला

भारतीय राजनीति में तात्कालिकता का तत्व काफी हावी हो रहा है और यह दो स्तरों पर हो रहा है। एक तो राजनीति का मैदान और पाला रातोंरात बदल रहे हैं, वहीं राजनीतिक व्याख्या का तर्क और विमर्श भी अधीर जुमलेबाजी में बदल गया है। तभी तो दो दिन पहले तक पूर्वोत्तर में भाजपा की बढ़ी पकड़ को लेकर न्यूज एंकरों और पत्रकारों में यह बताने की होड़ लगी थी कि भाजपा की राजनीति और उसका चुनाव प्रबंधन कैसे अचूक तरीके से काम करता है। कोई मोदी-शाह की जोड़ी को एेतिहासिक बता रहा था तो कोई इस मौके को देश की सबसे पुरानी पार्टी के अध्यक्ष को पप्पू बताने का एक और मौका बता रहा था। पर यह सारी सूरत 48 घंटे बीतते-बीतते एकदम से पलट गई। एक दिन पहले चर्चा इस बात की थी कि कैसे सोनिया गांधी के बुलावे पर 20 दलों के नुमाइंदे जुटे और अगले दिन सुबह से खबर का जोर इस पर था कि यूपी-बिहार के उपचुनाव में मोदी मैजिक नहीं चला।

भाजपा शिविर में उपचुनावों में मिली बड़ी शिकस्त को लेकर बेचैनी भले हो, पर वे इस हार का ठीकरा अपने सबसे बड़े नेता नरेंद्र मोदी के सिर नहीं फोड़ना चाहते। मतगणना के दौरान से ही यह जाहिर होने लगा कि यूपी में हार का ठीकरा सीएम योगी और डिप्टी सीएम केशव मौर्या के सिर फूटेगा, तो वहीं बिहार में नीतीश के गले में हार की माला डाली जाएगी। अच्छा तो यह होता कि नरेंद्र मोदी न सही, भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह आगे बढ़कर यह कहते कि चुनावी रणनीति में वे इस बार वाकई चूक गए।
इसके उलट उपचुनाव के नतीजे वाले दिन मौन धारण किए हुए अमित शाह बिना किसी तामझाम के पार्टी मुख्यालय पहुंचे। उनके चेहरे से हंसी गायब थी। कुछ दिन पहले ही वे त्रिपुरा चुनाव में भाजपा  की ऐतिहासिक जीत के बाद पार्टी अध्यक्ष लाव-लश्कर के साथ मुख्यालय पहुंचे थे। यही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तब वहां मौजूद पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं को संबोधित भी किया था। मोदी पूर्वोत्तर की जीत को पार्टी के वास्तुशास्त्र के हिसाब से दुरुस्त बता रहे थे और कह रहे थे कि डूबते सूर्य का रंग भले गुलाबी हो पर उगते सूर्य का रंग भगवा होता है। यह भगवा रंग अब जब यूपी और बिहार के उपचुनाव में बुरी तरह धूल से सन गया हो तो पलटकर उनसे सवाल पूछा जाना चाहिए कि वास्तु दोष तो ठीक हो गया था, फिर भगवा रंग सांझ की लाली में कैसे बदल गया। पर सबको मालूम है कि खूब बोलने वाले पीएम इस मुद्दे पर कुछ नहीं बोलेंगे।

दरअसल उपचुनाव के नतीजे से राजनीतिक दृष्टि से जो बात सबसे अहम है, वह यह कि एनडीए का कुनबा अब धीरे-धीरे ढह रहा है, उसे नए साथी नहीं मिल रहे और पुराने छोड़कर जा रहे हैं। वहीं भाजपा के खिलाफ विपक्ष की बड़ी मोर्चेबंदी की जमीन 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले तैयार हो रही है। यह जमीन राष्ट्रीय और प्रादेशिक स्तर पर कैसे बनेगी, इसका जवाब देना अभी टेठी खीर है। पर यह तो अभी से कहा जा सकता है कि 2019 में विरोधी वोटों के बंटवारे की वह खुशी शायद भाजपा को न मिले, जो उसे 2014 में नसीब हुई थी। एेसे में उसकी जीत का सूर्य अगर देखते-देखते ढलने लग जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यूपी में बुआ-भतीजे की दोस्ती और बिहार में राजद के नेतृत्व में जातीय गणित ने जो शतरंज बिछाई है, उसमें कुछ और मोहरे अभी अपनी चाल चलेंगे। देखना दिलचस्प होगा कि इन चालों से सियासी शतरंज का खेल कितना पलटता है। 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें